शनिवार, 23 जून 2018

प्रजातंत्र के नाम देश को ठगने का खेल







लोकशाही या राजशाही

अंग्रेजों से आज़ादी हासिल करने के बाद हमारे नेताओं ने देश की तरक्की के लिए जो रास्ता चुना उसे प्रजातंत्र या लोकतंत्र कहा गया। हमारे नेता इस मामले में पूरी तरह दिशाहीन थे इसलिए उन्होंने तय किया कि पश्चिमी देशों में प्रचलित संविधानों की काट छांट कर अपना संविधान बना लिया जाए
यही कारण है कि इस तरह भानुमति के कुनबे की तरह हमारे संविधान में इन सभी देशों के प्रशासन की झलक दिखाई देती है। भारत की वास्तविकता की ओर कम ध्यान देने और विकसित हो चुके देशों की नकल ज्यादा करने की होड़ में कुछ ऐसी विसंगतियां हैं जिन्हें दूर करने के लिए संविधान में आधे अधूरे संशोधन भी होते रहते हैं।
हम इस बात पर विचार विमर्श करने से परहेज करते रहे कि भारतीय जनमानस पिछली अनेक शताब्दियों से गुलामी के शिकंजे में कसे होने के कारण मानसिक, शारीरिक, धार्मिक और आध्यात्मिक रूप से बहुत अधिक परिवर्तित और विकृत हो चुका था।
 भारतीय समाज इतनी बुरी तरह से क्षत विक्षत और टूटा फूटा था कि आजादी के बाद अधिकांश आबादी को दो वक्त की रोटी जुटाने, बीमारी से लड़ने जैसी चीजों से ही फुरसत नहीं थी। इसीलिए जो भी रास्ता नेताओं ने चुना उसे स्वीकार करने के अतिरिक्त उसके पास कोई विकल्प नहीं था।

पिछडे़पन की मजबूरी

हमारे नेताओं के लिए यह बहुत सुविधा की स्थिति थी क्योंकि जनता अशिक्षित, पंरपराओं और रूढ़ियों में जकड़ी हुई और अंधविश्वास की पोषक तथा धार्मिक कट्टरपन की हिमायती थी। एक शब्द में कहें तो पूरा भारत पिछड़ेपन का शिकार था। ऐसे में सत्ता दो वर्गों के हाथ में गई। एक थे स्वतंत्रता की बलिवेदी पर अपना सब कुछ न्योछावर करने वाले स्वतंत्रता सेनानी और दूसरे वे लोग थे जो अंग्रेजों के पिछलग्गू, राजे, महाराजे, क्रूरता की हद तक पार करने वाले साहूकार, जमींदार थे। इन दोनों वर्गां के बीच संघर्ष होता रहा। एक था कर्मठ, परिश्रमी, ईमानदार और देशभक्ति से सराबोर पक्ष और दूसरा पक्ष था भ्रष्टाचार, शोषण का प्रतीक। दुर्भाग्य से धीरे धीरे पहला पक्ष कमजोर होता गया और दूसरे पक्ष ने पिछड़े भारत पर प्रजातंत्र का चोला ओढ़कर शासन करना शुरू कर दिया। इनका साथ देने के लिए दंबंग, अपराधीशातिर तथा ताकत के नशे में चूर लोग गये।  इन्हें राजनीतिक जीवन सबसे अधिक मलाईदार और फायदेमंद लगा।
एक ओर यह वर्ग पनप रहा था और दूसरी ओर कुछ घराने, परिवार और सम्प्रदाय बढ़ने लगे। उन्होंने देश की राजनीति को धर्म और जाति के बीच कैद कर लिया। इसमें एक सुविधा यह भी थी कि राजनीतिज्ञ बनने के लिए शिक्षित होना कतई जरूरी नहीं था। यह स्थिति इतनी बिगड़ गयी कि इन नेताओं को पढ़ा लिखा, बुद्धिमान और जागरूक वोटर नामंजूर था। इसी कारण शिक्षा का प्रचार प्रसार उतना ही हुआ जिससे इन सत्ताधारियों की जी हुजूरी करने लायक फौज तैयार हो सके।

प्रजातंत्र का मूल


प्रजातंत्र में जो शासक होता है वह जनता का प्रतिनिधि होता है और जनता के पास  वोट के माध्यम से उसे चुनने की शक्ति होती है। लेकिन सामान्य व्यक्ति के पास इस शक्ति का प्रयोग करने के लिए जरूरी शिक्षा, समय और विवेक के अनुसार निर्णय लेने की क्षमता ही नहीं थी इसलिए धन और मदिरा से वोट खरीदना शुरू हो गया।
राजनीतिक बराबरी और कानून के सामने सब एक समान होने की धारणा पर बने हमारे संविधान में कोई कोई लूपहोल निकालकर कुछ स्वार्थी तत्व अपना दबदबा बनाए रखने में कामयाब होकर हम पर निरन्तर शासन करने में सफल होते रहे हैं। इनका विश्वास लोकतंत्र में होकर भीड़तंत्र में हैं। जो जितनी अधिक भीड़ जुटाने में कामयाब उसे उतना ही सफल राजनेता मानने की परंपरा चल निकली।
इसके साथ ही चुनाव लड़ना इतना महंगा कर दिया गया कि योग्य परन्तु साधनहीन व्यक्ति के लिए चुनाव लड़ना असंभव हो गया। इस तरह प्रजातंत्र एक मज़ाक की वस्तु बनने लगा। ऐसे स्वर उठने शुरू हुए कि देश प्रजातंत्र की अवधारणा पर खरा उतरने योग्य नहीं है। यहां डिक्टेटरशिप जरूरी है। इसकी झलक कुछ प्रधान मंत्रियों के कार्यकलापों में मिलती है। उदाहरण के लिए इन्दिरा गांधी द्वारा लगाया गया आपातकाल अपने आप में सार्थक कदम था लेकिन उसका इस्तेमाल एक व्यक्ति द्वारा अपनी व्यक्तिगत प्रतिष्ठा बचाने, जिद को पूरा करने और तानाशाही से भरा रवैया अपनाने से यह प्रयोग विफल हो गया।

संसाधनों का दोहन

इस आपाधापी के बीच कुछ परिवारों और चतुर व्यक्तियों का वर्चस्व स्थापित होता गया और उन्होंने देश के संसाधनों का दोहन आरम्भ कर दिया। इसमें मंत्री, मुख्यमंत्री, सांसद, राज्यपाल, राष्ट्रपति सब शामिल हो गये। हालांकि कुछेक अपवाद हैं और उन्हीं अपवादों का उदाहरण देकर हम अक्सर भारतीय प्रजातंत्र की मजबूती का हवाला देते रहते हैं और अपनी पीठ ठोकते रहते हैं।

वास्तविकता यह है कि एक बार सत्ता में आते ही देश के संसाधनों पर अपना खानदानी अधिकार जमाने की होड़ सभी राजनीतिक दलों और उनके प्रतिनिधियों के बीच लग जाती है।

संविधान का हवाला देकर लिखने, बोलने, अभिव्यक्ति की आजादी के नाम पर देश के टुकड़े करने जैसे नारे लगाने और देशद्रोह की छूट ले ली जाती है। धर्म की रक्षा से लेकर एक बहुपयोगी पशु गाय को बचाने के नाम पर सामूहिक हत्याएं हो जाती हैं। पाखण्डी बाबाओं से लेकर भ्रष्टाचार में लिप्त नेताओं तथा आंतकवादियों और अलगाववादियों को बचाने के लिए धरती आकाश एक कर दिए जाते हैं।

यह सब राजशाही का प्रतीक नहीं तो और क्या है कि कीमती सरकारी जमीन यादगार स्थल में बदल जाती है, सरकारी आवास में आमोद प्रमोद, मनोरंजन के साधन इस तरह जुटाए जाते है जैसे कि वह अपना निजी भवन हो, पदमुक्त होने के दशकों बाद तक सरकारी सुविधाओं का उपभोग करते रहने की आजादी हासिल कर ली जाती है।

धर्म और जाति के नाम पर, अल्पसंख्यक और बहुसंख्यक का हवाला देकर और साम्प्रदायिक एकता की दुहाई देकर जब तब और जैसे तैसे भी हो सत्ता पर काबिज रहना प्रजातंत्र की कसौटी बन गया है।
इसीलिए संदेह होता है कि हमारे देश में प्रजातंत्र के नाम पर लोकशाही नहीं बल्कि राजशाही ही चल रही है।

अपना अपना राष्ट्रवाद

सभी दलों और उनके नेताओं का राष्ट्रवाद भी अलग अलग है। अगर ऐसा होता तो भारत माता की जय, वन्देमातरम का गान, राष्ट्रीय ध्वज का मान सम्मान करने पर देश अलग अलग विचारधाराओं में बंटा होता। इस परिस्थिति का सबसे बड़ा लाभ उन शक्तियों को मिल रहा है जो भारत की प्रगति नहीं अवनति चाहती हैं क्योंकि देश को टुकड़े टुकड़े होने पर ही उनकी जीत सुनिश्चित हो सकती है।

आज देश के सामने समस्या यह नहीं है कि उसकी अखंडता, संप्रभुता को कोई खतरा है बल्कि यह है कि देश में जो विभाजक और अराजक तत्व हैं वे अपने आकाओं की कठपुतली होने के कारण हमारी प्रगति का रोड़ा बने हुए हैं। कश्मीर के हालात इस का एक नमूना है। आतंकवाद से लेकर नक्सलवाद और नस्लवाद में कमी होने के बजाए बढ़ौतरी हो रही है। यह सब सोचने का सही समय यही है क्योंकि एक बार फिर देश के सामने 2019 में सही और गलत के बीच चुनाव करने की चुनौती का बिगुल बज  चुका है।    

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