शुक्रवार, 24 अगस्त 2018

वर्षा को बाढ़ बनने से क्या रोका जा सकता है ?








प्राकृतिक न्याय                                                                                                        
केरल इन दिनों एक ऐसी त्रासदी झेल रहा है जिसकी चपेट में वो लगभग सौ साल पहले सन 1924 में आया था। तब भी इसी तरह की मुसीबत आई थी लेकिन तब आबादी कम थी इसलिए वह आपदा आज के मुकाबले कम नुकसान के साथ झेल ली गयी। इस बार जितनी जन धन की हानि हुई है बहुत अधिक है और आँकड़े निरंतर बढ़ रहे हैं।

बारिश को बाढ़ बनने देने के लिए जिम्मेदार सबसे ज्यादा जंगलों की अंधाधुँध कटाई है। यह जानते हुए भी कि पिछले आठ दस वर्षों में केरल में जितने पेड़ कटे हैं, वह अपने आप में बाढ़ का तांडव देखने का निमंत्रण है। इसे कुदरत के काम में दखलंदाजी ही कहा जाएगा जिसका परिणाम पूरे प्रदेश को भुगतना पड़ रहा है। जितनी बर्बादी गिनती के कुछ दिनों में हुई है उसकी भरपाई करने में दसियों वर्ष लगेंगे और जो राज्य तेजी से प्रगति कर रहा था वह पिछड़ने के लिए विवश हो जाएगा।

एक बार फिर यह समझना जरूरी हो जाता है कि पेड़ बारिश को बाढ़ बनने से रोकने में क्या योगदान करते हैं। जब मूसलाधार बारिश हरे भरे वनों पर होती है तो उसे तेजी से धरती पर गिरने से रोकने के लिए जंगल एक छतरी का काम करते है। पेड़ों से होते हुए पानी नीचे आता है तो वहाँ पहले से मौजूद पतझड़ के पत्ते ज्यादातर पानी को अपने अंदर समा लेते हैं। अब जो पानी बहता है उसकी रफ्तार उतनी ही होती है जिससे नदी तालाब जलाशय और दूसरे जल स्त्रोत अपनी अपनी सामर्थ्य के अनुसार भर जाएँ।


जंगल जब कट जाते हैं तो वर्षा अपने पूरे वेग से धरती पर गिरती है और बिना किसी रुकावट के जो कुछ भी सामने आता है उसका विनाश करते हुए नदियों को विकराल रूप देते हुए सर्वनाश की ओर बढ़ जाती है।




वर्षा का उपयोग


जलस्तर को सामान्य बनाए रखने और पानी का इस्तेमाल बिजली बनाने तथा दूसरी जरूरतें पूरी करने के लिए बाँध बनाकर होता है। बारिश को बाढ़ का रूप लेने में नदियों की सफाई होने से उनमें जमा गाद का बहुत बड़ा योगदान है। वर्षा नदी में समाने के बजाय उसके तटों को तोड़ती हुई आसपास के इलाकों को जलमग्न कर तबाही का दृश्य पैदा कर देती है।

इसके अतिरिक्त जो तालाब और जलाशय पानी को अपने अंदर संजोकर रखते थे उन्हें हमने मटियामेट कर वहाँ गगनचुंबी इमारतें बना दीं तो पानी अपना रास्ता स्वयं बनाता हुआ और विनाश करने की अपनी सार्म्थय दिखाता हुआ जहाँ जगह मिली वहाँ ठहर गया। हमने इसे बाढ़ की विभीषिका कहा और जिसका खामियाजा केवल एक प्रदेश ही नहीं बल्कि पूरा देश भुगतने को मजबूर है।

सामाजिक एकता

यह बात तो सच है कि जब भी कोई प्राकृतिक या मानवीय आपदा देश के किसी भी हिस्से में तबाही का कारण बनती है तो पूरा देश उसका सामना करने के लिए एकजुट हो जाता है। सरकारें तो सहायता पैकिज दे ही रही है लेकिन जो सहायता देश के प्रत्येक नागरिक से किसी किसी रूप में मिल रही है वह प्रशंसनीय होने के साथ अनुकरणीय भी है। इसके साथ साथ यह भी सच है कि यदि सरकार अपनी नीतियों से इन प्राकृतिक आपदाओं को रोकने के लिए समुचित कदम उठाए तो समाज का यह योगदान प्रगति के दूसरे लक्ष्यों को पूरा करने में लगाया जा सकता है।





व्यावहारिक कदम

वन विनाश हो। जंगल जलाए जाएँ क्योंकि उससे धरती की पानी सोखने की ताकत कम होती है और पानी बाढ़ का रूप लेता है।
निर्माण परियोजनाएँ इस प्रकार कार्यान्वित हों कि उनसे भूजल प्रभावित हो और जो कुदरती जलनिकासी की व्यवस्था है वह नष्ट हो। नदियों की सफाई और तटों की मरम्मत समय पर हो। पानी के गुजरने के लिए पर्याप्त नहर और नालियाँ हों। बाढ़ की चेतावनी देने के लिए आधुनिक तकनीकों का इस्तेमाल हो।

यह इसलिए जरूरी है क्योंकि आधे से ज्यादा भारत बाढ़ के मुहाने पर बैठा है और यदि समुचित उपाय किए गए तो हर साल किसी किसी प्रदेश में बाढ़ का तांडव होना तय है।

बाढ़ से बचाव के लिए जरूरी है कि जहाँ एक ओर वन संरक्षण हो वहाँ धरती में जो कुदरती बदलाव होते हैं उनका अनुमान लगाकर वैज्ञानिक तकनीकों के इस्तेमाल से उसे अधिक से अधिक उपयोगी बनाया जाय।

बाढ़ मार्ग बनाए जाएँ

जिस तरह आवागमन के लिए आकाश और पृथ्वी पर हम अनेक मार्गों का निर्माण करते हैं उसी तर्ज पर बाढ़ मार्ग भी बनाया जा सकता है। आवश्यकता से अधिक वर्षा होने की अवस्था में इन बाढ़ मार्गों से जल की निकासी का प्रबंध होने से जानमाल के नुकसान से पूरी तरह बचा जा सकता है। इसके साथ ही जहाँ कम वर्षा होने से सूखे का सामना करना पड़ता हैं वहाँ इस अतिरिक्त जल निकासी से खेतों की उपजाऊ शक्ति को नष्ट होने से बचाया जा सकता है।

यह बाढ़ मार्ग जल भंडारण का भी काम करेंगे। यह एक तरह से नालों और नहरों का मिलाजुला रूप है जिसका उपयोग वर्षा ऋतु में तो होगा ही साथ ही पूरे साल सिंचाई और दूसरी जरूरतें पूरी करने के लिए पानी की कमी नहीं होगी। उल्लेखनीय है कि हमारी वैज्ञानिक प्रयोगशालाओं में इस तरह की टेक्नॉलोजी विकसित हो चुकी है जो बाढ़ मार्ग बनाने से लेकर उनके रखरखाव में भी उपयोग में लाई जा सकती है।

यह विषय अधिकतर राज्यों से सम्बंधित है इसलिए पहल उन्हें ही करनी होगी। केंद्र सरकार उनकी अनेक प्रकार से सहायता कर सकती है। क्या राज्य और केंद्र से इस बारे में पहल करने की आशा की जा सकती है, जरा सोचिए?