शुक्रवार, 22 नवंबर 2019

स्वस्थ रहने का अधिकार, देश की जरूरत और मेडिकल व्यवसाय में नैतिकता






किसी भी समाज में अगर ईश्वर के जैसा या उसके बराबर ही आदर और सम्मान दिलाने वाला अगर कोई व्यवसाय है तो उसमें मेडिकल और उससे जुड़े वे सब लोग आते हैं जो एक तरह से मनुष्य को बीमारी, दुर्घटना या किसी प्राकृतिक आपदा में फँसे लोगों की जीवन रक्षा के लिए जाने जाते हैं। इनमें डॉक्टर, नर्स इंसान के रक्षक और अस्पताल, डिस्पेन्सरी से लेकर दवाइयों की दुकान बीमार का इलाज करने के साधन के रूप में माने जाते हैं।


हरेक व्यवसाय में आर्थिक लाभ हानि का जो बही खाता चलता है वह मेडिकल व्यवसाय में नहीं रखा जा सकता और इसीलिए इसे सेवा का जरिया समझा जाता रहा है। आज स्थिति लगभग उलटी हो गयी है और इसे भी उसी तरह धन लाभ कमाने का जरिया मानने का चलन शुरू हो गया है जैसा कि दूसरे काम धंधों में माना जाता है।


इसका एक उदाहरण यह है कि पहले उपभोक्ता संरक्षण कानून में स्वास्थ्य की देखभाल करने को अन्य सेवाओं की भाँति सेवा के दायरे में रखा गया था और यदि मेडिकल सेवा में कोई खामी होती थी तो इस कानून के दायरे में दण्ड दिए जाने का प्रावधान था लेकिन अब ऐसा नहीं कर सकते, पीड़ित को सामान्य मुकदमे की तरह विभिन्न अदालतों में न्याय की गुहार लगानी होगी।


मेडिकल व्यवसाय में नैतिकता 

एक सर्वे के मुताबिक इस व्यवसाय में काम करने वाले डॉक्टर अनेक तरह के टेस्ट करने वाली लेबोरेटरी से चालीस से साठ प्रतिशत तक किकबैक पाते हैं जो उन्हें मरीज की जेब से निकलवाने की काबलियत के रूप में मिलता है। इसमें जरूरी टेस्ट भी मर्ज को दूर करने के लिए जरूरी बताकर मरीज को उन्हें करवाने के लिए मजबूर किया जाता है।


अब इन टेस्टों का नाम भी है और इन्हें को कराने के लिए मरीज का जो खून, यूरीन, बलगम आदि लिया जाता है वह नालियों में बहा दिया जाता है। इन टेस्टों के नाम भी है और इन्हें नाली या सिंक कहा जाता है। किसी भी लैबोरेटरी में किसी कर्मचारी को भरोसे में लेकर यह सच उगलवाया जा सकता है।



तीस से चालीस प्रतिशत तक डॉक्टर को किसी भारी फीस लेने वाले स्पेशलिस्ट को रेफर करने के लिए मिलता है और लगभग इतना ही अस्पताल की सेवाओं में से मिलता है। इसके साथ ही बड़े नामीगिरामी अस्पतालों के पेनल पर बने रहने के लिए डॉक्टर को उनमें मरीजों को भेजने के लिए अपने निर्धारित कोटे को पूरा करना होता है, तब ही वह उस अस्पताल के पेनल पर रह सकता है।



इन अस्पतालों में मरीज के आने के बाद उसे तीन चार दिन तक ऑब्जर्वेशन के नाम पर आई सी यू में रखा जाता है, जहाँ जरूरत न भी हो तो भी वेंटिलेटर पर रखा जाता है, डाइलिसिस जैसी चिकित्सा और महँगे इंजेक्शन और दवाइयाँ दी जाती हैं जिनकी कीमत उन पर छपे अधिकतम मूल्य से कई गुना ज्यादा होती है। हर उस चीज को मरीज के बिल में जोड़ा जाता है जो उसे दी जाती है चाहे सिरंज, पट्टी, बैंडिज कुछ भी हो।


एक और गोरखधंधा चलता है जो आमतौर से डॉक्टर दम्पति चलाते हैं। यह वन मैन शो होता है। दम्पति में से एक डॉक्टर की भूमिका निबाहता है और दूसरा अपने ही घर के कुछ कमरों को नर्सिंग होम की शक्ल देता है, इसमें दसवीं फेल नर्स, ढीली या कसी हुई वर्दी पहने अनपढ़ वार्ड बाय होते हैं। नर्स रिसेप्शन से लेकर इंजेक्शन लगाने, ग्लूकोस चढ़ाने से लेकर ऑपरेशन सहायक तक का काम करती है और रात को आई सी यू के बाहर भी बैठती है ताकि अगर कोई इमर्जेन्सी हो जाए तो फौरन दूसरी मंजिल पर रहने वाले डॉक्टर दम्पति में से किसी एक को बुला सके। यहाँ तक के किस्से हैं कि मरीज की मृत्यु होने के बाद भी नकली ऑपरेशन का ढोंग रचकर मोटी रकम वसूली जाती है।



इस तरह के क्लीनिक और नर्सिंग होम में जबरदस्ती सर्जरी से लेकर स्त्रियों की बच्चेदानी यह कहकर निकाल दी जाती है कि फायब्राड हो गए हैं जबकि ये प्रत्येक महिला में होते हैं। इसी तरह कोसमेटिक ट्रीटमेंट के नाम पर फेशियल, वैक्सिंग करने की बात कहकर त्वचा का इतना बुरा हाल कर देते हैं जिससे जान तक खतरे में पड़ सकती है।


अब क्योंकि चिकित्सा में लापरवाही का प्रावधान ही कानून में नहीं होगा तो फिर कैसे रोगी और उसके परिवार वाले अपने बचाव में कुछ कर सकेंगे, यह हमारे नीति निर्धारण करने वालों के लिए सोचने की ही नहीं बल्कि इस पर कुछ ठोस नियम कानून बनाने की भी जरूरत को उजागर करता है।


स्वस्थ रहने का अधिकार 

हमारे देश में चिकित्सा व्यवसाय की सबसे पहली कड़ी सरकारी अस्पतालों की है जो अनेक प्रशासनिक खामियों के बावजूद सामान्य व्यक्ति की बीमारी की अवस्था में पहली पसंद हैं।

इनमें भीड़ ही इतनी होती है कि डॉक्टर के मन में मरीज का आर्थिक शोषण करने की बात ही नहीं आ पाती, दूसरे ज्यादातर बीमार इलाज के लिए ही पैसों की कमी से जूझते रहते हैं। जो सम्पन्न होते हैं, वे अपने राजनीतिक या सामाजिक रुतबे की बदौलत यहाँ वी आई पी की तरह अपनी चिकित्सा कराने आते हैं और कभी कभी जरूरत न होने पर भी वार्ड में टिके रहते हैं और मुफ्त में महँगी से महँगी सुविधाओं का उपभोग करते रहते हैं।


दूसरी कड़ी है चिकित्सा को शुद्ध व्यवसाय और जबरदस्त मुनाफे के धंधे के रूप में देखने वाले बड़े व्यावसायिक और औद्योगिक घरानों द्वारा स्थापित फाइव स्टार अस्पतालों की जहाँ या तो वे लोग इलाज कराने जाते हैं जिनके पास पैसा फैंक कर तमाशा देखने की ताकत है या फिर वे जिनकी बीमारी का खर्च बीमा कम्पनियाँ चुकाती हैं। आम आदमी या थोड़ी बहुत हैसियत रखने और चिकित्सा के खर्च का जुगाड़ कर सकने वाला इनमें चला गया तो उसकी हालत गले में फँसी हड्डी की तरह हो जाती है जो न निगलते बनती है और न उगलते।


तीसरी कड़ी है उन धर्मार्थ और शुद्ध सेवा करने की नियत से खोले गए चिकित्सा संगठनों और संस्थानों की जो लगभग मुफ्त इलाज की सुविधाएँ देते हैं। इनकी संख्या बहुत कम है लेकिन इनमें चिकित्सा के उच्चतम पैमानों का पालन किया जाता है और कुछ की ख्याति तो अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी है।


एक चैथी कड़ी भी है जो झोलाछाप डाक्टरों की है, झाड़ फूँक, गंडे ताबीज , भूत प्रेत के डर जैसी बातों से इलाज करने के बहाने लोगों को ठगने का काम करते हैं।


इन सब परिस्थितियों के कारण क्या यह जरूरी नहीं है कि देश में प्रत्येक नागरिक को स्वस्थ रहने का अधिकार मिले और इसके लिए सभी राजनीतिक दल एक स्वर से सरकार से कानून बनाने की माँग करें जिसका मसौदा ऊपर कही गयी चारों कड़ियों तथा अन्य वास्तविकताओं को ध्यान में रखकर तैयार किया जाय ?


दुनिया का कोई भी देश अस्वस्थ, बीमार और कमजोर नागरिकों के बल पर तरक्की नहीं कर सकता, इसलिए स्वस्थ रहने को सर्वोच्च प्राथमिकता मिले और सभी के लिए एक जैसी चिकित्सा सुविधाएँ हों और इसके लिए आंदोलन भी करना पड़े तो उससे हिचकना नहीं चाहिए क्योंकि यह जनहित का मुद्दा है।


(भारत)

शुक्रवार, 15 नवंबर 2019

वैज्ञानिक सोच बढ़ाने में विज्ञान-फिल्मों का योगदान









यह कहना कि विज्ञान हमारी सोच को बदल सकने की ताकत रखता है, कल्पना और वास्तविकता का भेद समझा सकता है और जीवन जीने को आसान बना सकता है, न केवल सौ प्रतिशत सही है बल्कि अंधविश्वास से मुक्ति दिला सकने में भी सक्षम है।

इसीलिए कहा जता है कि विज्ञान कभी असफल नहीं होता, वह किसी प्रयोग के उम्मीद के मुताबिक परिणाम न देने से अनुसंधान और आविष्कार को नई तथा अनजान दिशाओं को खोजने की प्रेरणा देता है। भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) द्वारा हाल ही में चाँद पर उतरने की कोशिश में आई कमी का विश्लेषण करने और यह समझने कि ‘क्या गलत हुआ‘ के बाद अगले साल एक बार फिर चाँद पर उतरने की घोषणा करना इसका एक उदाहरण है।


विज्ञान कभी हार नहीं मानता और उसके बाद जब नए प्रयासों तथा निरंतर खोजबीन करते रहने से कोई नई उपलब्धि मिलती है तो वह चमत्कार की तरह लगता है, विज्ञान एक वट वृक्ष की भाँति अपनी शाखाओं और प्रशाखाओं का निरंतर विस्तार करता रहता है, उसमें नित्य नई कोपलें फूटती रहती हैं और एक बार यह जानने का चस्का लग गया कि ‘आखिर ऐसा होता कैसे है‘ तो फिर प्रत्येक चीज को विज्ञान की कसौटी पर कसने की लत लग जाती है जिसे हम वैज्ञानिक सोच का नाम देते हैं।


विज्ञान की अभिव्यक्ति 



विज्ञान को जन जन तक पहुँचाने और देशवासियों की सोच को एक वैज्ञानिक की तरह बनाने में फिल्म एक ऐसा माध्यम है जो मुश्किल से मुश्किल समस्या को सुलझाने का तरीका बताने और अनेक जटिल प्रशनों के उत्तर और उनकी व्याख्या साधारण भाषा में करने के लिए सबसे अधिक कारगर है।


विज्ञान फिल्मों के लिए विशेष रूप से बनाए गए मंच अर्थात फिल्म समारोह विभिन्न क्षेत्रों में विकसित टेक्नोलोजी को जनता तक पहुँचाने का जरिया है। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए इण्डिया इंटरनेशनल साइंस फेस्टीवल की शुरुआत सन् 2015 में हुई ताकि यह दिखाया और बताया जा सके कि हमारा देश विज्ञान की मदद से किस तेजी से आगे बढ़ रहा हैं।


इस समारोह का पाँचवा संस्करण पाँच से आठ नवम्बर तक कोलकाता में भारत सरकार के संस्थान विज्ञान प्रसार द्वारा नोडल एजेंसी के रूप में भव्यता के साथ आयोजित किया गया जिसमें सत्यजीत रे फिल्म एवं टेलीविजन संस्थान का महत्वपूर्ण योगदान था।


 भारतीय फिल्म निर्माताओं की दो सौ से अधिक प्राप्त फिल्मों में से छप्पन फिल्में नौमीनेट हुईं जिनका प्रदर्शन संस्थान के विभिन्न सभागारों में हुआ। इनके अतिरिक्त परमाणु और मिशन मंगल जैसी फीचर फिल्में भी दिखाई गयीं और उनके निर्देशकों ने दर्शकों से संवाद के दौरान विज्ञान और उससे जुड़े विषयों पर फिल्म निर्माताओं के सामने आने वाली कठिनाइयों के साथ साथ निर्माण के दौरान आने वाली चुनौतियों का जिक्र भी किया।


पर्यावरण, प्रदूषण, रासायनिक जोखिम, वन्य जीव संरक्षण, रोग निदान, योग, स्वास्थ्य, वैकल्पिक इंधन, ऊर्जा, सर्प दंश, स्टार्टअप, जल संरक्षण, सिंचाई संसाधन, पीने का पानी, नेवीगेशन, मोरिंगा की खेती, साफ सफाई, सूक्ष्म कीट, अंतरिक्ष, बदलता मौसम, कीटनाशक, आदिवासी जीवन, मधुमेह से बचाव, दिव्य नयन, कैंसर निदान, दिमागी बुखार, प्लास्टिक उपयोग जैसे विषयों पर फिल्में एक आम दर्शक के मन में जिज्ञासा पैदा करने में सहायता करती हैं कि किस प्रकार विज्ञान और प्रोद्योगिकी हमारी जीवन शैली को बेहतर बना सकती है।


योग क्रियाओं से बेहतर जीवन जीने की कला समझाती फिल्म सत्यम और बंद कमरे में कार्बन मोनो ओक्साईड से मृत्यु तथा मौसम में होने वाले गम्भीर बदलाव से आने वाले खतरे की चेतावनी जैसी फिल्में सार्वजनिक रूप से, विशेषकर विद्यालयों में दिखाई जानी चाहिएँ।


यह जानना अपने आप में ही भयावह है कि हमारे देश में पचास हजार से ज्यादा मौतें हर साल सांप के काटने से हो जाती हैं और हमारे पास इन्हें रोकने के लिए पर्याप्त साधन नहीं हैं, अभी भी पीड़ित का उपचार सपेरा और झाड़ फूँक से इलाज करने वाला ढोंगी ही करता है।


मोरिंगा की खेती पर बनी फिल्म से एहसास हुआ कि बढ़िया सेहत और लम्बी उम्र पाने का यह बेहतरीन उपाय है। कैंसर और फैलेरिया जैसी घातक बीमारियों का निदान सम्भव है। जिन प्रदेशों में पराली जलाने से प्रदूषण की गम्भीर समस्या पैदा होती है उनके लिए इससे बचने के लिए टेक्नोलोजी उपलब्ध है। फलों और सब्जियों में से कीटनाशक दूर करने के उपाय हैं, नेत्र ज्योति से वंचित लोगों के लिए दिव्य नयन जैसे यंत्र हैं।


जल संरक्षण और शुद्ध पेयजल से लेकर खेती में इस्तेमाल होने वाले हानिकारक रसायनों के विकल्प तैयार हैं। खाद्य पदार्थों के उत्पादन के समय प्रयोग में लाए गए नुकसान देने वाले तत्वों बचाव से लेकर जमीन की उपजाऊ शक्ति बनाए रखने के उपाय हमारे वैज्ञानिकों ने सुलभ करा दिए हैं।


यहाँ तक कि शहर हो या देहात गंदे नालों की सफाई और उनमें पैदा होने वाली जानलेवा गैस को बेअसर करने वाली टेक्नोलोजी उपलब्ध है। पशुपालन में आधुनिक तकनीकों से न केवल अधिक दूध उत्पादन हो सकता है बल्कि उनसे प्राप्त होने वाले गोबर से खाद और इंधन भी मिलता है।


जरूरत किस बात की 


हमारे देश में ही विज्ञान से सम्बंधित विषयों पर हर साल सैंकड़ों फिल्में बनती हैं और विदेशों से आने वाली फिल्मों की संख्या हजारों में है लेकिन विडम्बनापूर्ण स्थिति यह है कि इनका प्रसारण केवल फिल्म समारोहों अथवा उनके उद्घाटन तक ही सिमट कर रह जाता है। इससे बड़ी दुर्भाग्यपूर्ण अवस्था यह है कि हमारे वैज्ञानिकों के अथक परिश्रम से तैयार की गयी टेक्नोलोजी उसी तरह अलमारियों में बंद होकर व्यर्थ हो जाती है जिस प्रकार किसी फिल्म निर्माता द्वारा उस पर बनाई गयी फिल्म एक बार प्रदर्शित होने या देखने के बाद भुला दी जाती है।


क्या सरकार और प्रशासन को कोई ऐसी नीति नहीं बनानी चाहिए जिससे जीवन को बेहतर बना सकने की क्षमता रखने वाली विकसित और प्रामाणिक टेक्नोलोजी पर अमल किये जाने की कानूनी अनिवार्यता हो।


अंतरिक्ष, आणविक, अस्त्र शस्त्र जैसे विषयों को लेकर वैज्ञानिक प्रगति की बात करना और उनसे सम्बंधित नीति बनाने के बारे में अक्सर सुनने को मिलता है लेकिन ऐसा देखने और सुनने में कभी कभार ही आता है कि सामान्य जन की सहूलियत के लिए किसी टेक्नोलोजी पर अमल करने की नीति बनाई गयी हो।


विज्ञान की मदद से प्रदूषण, मौसम परिवर्तन, पर्यावरण संरक्षण से लेकर जनसंख्या में बढ़ौतरी तक को रोकने में सफलता मिल सकती है। यदि विकासशील या पिछड़े देश की पंक्ति से निकलकर विकसित देशों में शामिल होना है तो वैज्ञानिक सोच और विज्ञान सम्मत उपायों पर अमल करने के अतिरिक्त और कोई चारा नहीं है।

शुक्रवार, 1 नवंबर 2019

सरदार पटेल और देश को जोड़ने की कार्यशैली आज भी जरूरी है








स्वतंत्रता के बाद यदि देश 550 से ज्यादा रियासतों में बंटा हुआ रह जाता और उनके राजा, महाराजा और नवाब आजाद भारत के शासक बन जाते तो क्या होता, यह सोचकर ही भय लगता है। अंग्रेजों ने 1857 के विद्रोह से सबक लेते हुए इन सब को खुश रखने में ही अपनी भलाई समझी।  उनके शौक मौज मस्ती को हवा देने और निरंकुश होने तक को अपनी सरपरस्ती में ले लिया, जुल्म और अत्याचार से लेकर उनकी सनक और अजीब हरकतों को बढ़ावा दिया और इस तरह जो राज्य अपनी न्यायप्रियता के लिए जाने जाते थे, वे भी प्रजा को लूटने लगे। अगर कहीं सरदार पटेल इस काम को अपने हाथ में न लेते और इन सब को लगभग हाँकने तक की नीति न अपनाते तो आज हम जिस प्रजातांत्रिक ढाँचे में रहकर खुलकर साँस ले पा रहे हैं, विश्व में नाम कमा रहे हैं, वह कदापि न होता।


विलासिता  में डूबे शासक 

इतिहासकारों और हमारे नेताओं की जीवनी लिखने वाले लेखकों ने उस समय का जो वर्णन किया है उसे पढ़कर यकीन नहीं होता कि हम किस हालत में थे। अंग्रेजों ने इन शासकों के लिए सभी रास्ते बंद कर रखे थे और वे अपना वक्त पोलो खेलकर या शिकार करते हुए व्यतीत करते थे। ये अंग्रेजों की चापलूसी करने के लिए किसी भी हद तक जा सकते थे। एक उदाहरण है। जब प्रिन्स ऑफ वेल्ज, बाद में सातवें एडवर्ड, भारत आए तो एक महाराजा ने हुक्म दिया कि उनकी चाय के लिए जो पानी उबाला जाए वह बैंक नोटों की गड्डियाँ जलाकर किया जाय। समझ सकते हैं कि उसके पास कितना पैसा होगा और फिर नाच गाने, महफिल सजाने और अंग्रेजों को शिकार पर ले जाने से लेकर उनके मनोरंजन के लिए सभी तरह का प्रबंध करने पर कितना भी खर्च करना पड़े, कोई कोरकसर नहीं छोड़ी जाती थी।



इस तरह के विचित्र हालात थे कि स्वार्थ, अय्याशी का बोलबाला था और प्रजा का पालन करना और उनके सुख दुःख का ध्यान रखना दूर की बात थी जो अंग्रेजों के लिए भारत पर शासन करते रहने के लिए बहुत उपयुक्त थी। हालाँकि कुछेक रियासतें जैसे कि मैसूर, बड़ौदा, ट्रावनकोर, कोचीन जहाँ शिक्षा का प्रसार भी था और चुनी हुई विधान सभाएँ थीं, प्रजा का ध्यान रखा जाता था, उन्हें छोड़कर बाकी सब जगह हिटलरशाही और पिछड़ेपन का साम्राज्य था। ज्यादातर रियासतों की अपनी सेना नहीं थी, पुलिस रख सकते थे और वे किसी भी स्थिति के लिए अंग्रेज सरकार के मोहताज थे।



भारत और पाकिस्तान का बँटवारा तय हो चुका था और अंग्रेजों की चाल के मुताबिक कोई भी रियासत दोनों में से किसी एक के साथ जाने या स्वतंत्र रहने की घोषणा कर सकती थी। इन्हें जितनी फिक्र अपने रुतबे, विलासिता और तोपों की सलामी मिलने की थी, उससे कहीं अधिक आजाद भारत में अपनी हुकूमत और वर्चस्व बनाए रखने की थी। सर कोरफील्ड जैसे अंग्रेज इन रियासतों के शासकों को भड़काने में लगे हुए थे कि वे आजाद भारत में अपनी हिस्सेदारी की ज्यादा से ज्यादा माँग करें और बराबर धमकी देते रहें कि उनकी नाजायज माँगें न मानने का नतीजा कितना खतरनाक हो सकता है।


कैसे कैसे शासक 

इन विकट परिस्थितियों में सरदार पटेल के सामने जबरदस्त चुनौती थी कि देश को खंड खंड होने से कैसे रोका जाए और इसके साथ ही जिन्ना की चाल को कैसे विफल किया जाए जो रियासतों को पाकिस्तान के साथ विलय करने के लिए सभी तरह के हथकंडे अपना रहा था। विडम्बना यह कि केवल चालीस दिनों में पंद्रह अगस्त से पहले सब कुछ किया जाना था। बीकानेर, पटियाला, ग्वालियर और बड़ौदा जैसी कुछ महत्वपूर्ण रियासतों ने भारत में विलय की सहमति दे दी थी लेकिन हैदराबाद के निजाम और कश्मीर के महाराजा जैसे लोग अपनी खिचड़ी अलग पकाने का ख्वाब देख रहे थे।



जोधपुर के महाराजा को तो जिन्ना ने खाली कागज पर दस्तखत कर के भी दे दिया था कि वो विलय की जी भी शर्तें चाहें इस पर लिख लें। उनके साथ जैसलमेर के महाराजकुमार थे जिन्हें दाल में कुछ काला लगा और महाराजा को समझाया कि जिन्ना के जाल में फँसने के बाद जाले में फँसी मकड़ी जैसी उनकी हैसियत हो जाएगी। अब इस कोरे कागज पर जिन्ना के दस्तख्त के बल पर भारत के साथ विलय करने के लिए अपनी माँगे मनवाने की कोशिश हुई जो पटेल के सहयोगी वी पी मेनन की सूझबूझ से सफल नहीं हो  पाई।


इसी तरह भोपाल के नवाब और इंदौर के महाराजा ने अपनी अकड़ दिखाई। नवाब ने हस्ताक्षर कर दिए लेकिन पंद्रह अगस्त से पहले घोषणा न करने को कहा। इंदौर के महाराजा ने दस्तखत न करने का मन बनाया और ट्रेन से दिल्ली पहुँचे तथा अपने डिब्बे को साइडिंग में खड़ा कर सरदार पटेल को वहाँ आकर मिलने का संदेश भिजवाया। पटेल ने राजकुमारी अमृत कौर को मिलने के लिए भेज दिया जिन्हें देखकर महाराजा अपनी चाल भूल गए और उन्हें उनकी औकात समझ में आ गयी। वह उनके साथ सरदार पटेल से मिलने गए और उनसे कहा की क्योंकि भोपाल के नवाब ने दस्तखत नहीं किए हैं तो वे भी नहीं करेंगे। जब नवाब के दस्तखत दिखाए गए तो उन्हें यकीन नहीं हुआ क्योंकि दोनों ने विलय न करने का तय किया था। उन्होंने दस्तावेज देखकर चुपचाप हस्ताक्षर कर दिए और लौट गए।


जूनागढ़ के नवाब को जिन्ना ने पाकिस्तान के साथ विलय करने के लिए प्रोत्साहित किया जबकि भौगोलिक दृष्टि से यह सम्भव नहीं था। जहाँ सरदार पटेल ने कुछ छोटी छोटी मुस्लिम बहुल रियासतों को पाकिस्तान के साथ विलय करने की सलाह देकर ईमानदारी दिखाई वहीं जिन्ना ने भारत को खंडित करने की कोई कोशिश नहीं छोड़ी। जूनागढ़ इसका उदाहरण है। उसके नवाब को कुत्तों से जबरदस्त लगाव था, यहाँ तक कि वह कुत्ते और कुत्तियों की शादियाँ बहुत धूमधाम से करने के लिए मशहूर था। प्रजा चाहे भूखी रहे पर कुत्तों को सुगंधित पानी से नहलाया जाता था और विदेशों से उनका भोजन मँगवाया जाता था।


उसने अपने प्रधानमंत्री नवाज भुट्टो को शासन की बागडोर सौंप रखी थी जिसने जूनागढ़ के पाकिस्तान के साथ विलय की घोषणा कर दी जिसने रियासत में खलबली मचा दी क्योंकि अस्सी प्रतिशत आबादी गैर मुस्लिम थी और पाकिस्तान से तीन सौ मील की दूरी को केवल समुद्र के रास्ते तय किया जा सकता था। यह निश्चित तौर पर जिन्ना का कुचक्र था जिसे तोड़ने में सरदार पटेल सफल हुए और जनता के भारी विरोध के कारण नवाब अपने कुत्तों की फौज, साढ़े सात लाख पौंड से भी अधिक रकम लेकर पाकिस्तान भाग गया और उसका प्रधानमंत्री भी जिन्ना द्वारा कोई मदद न करने के कारण भारत को प्रशासन सौंपकर चला गया। 


इस तरह पंद्रह अगस्त तक हैदराबाद और कश्मीर को छोड़कर भारत में सभी रियासतों का विलय हो गया। जहाँ तक कश्मीर की जिम्मेदारी सरदार पटेल की थी लेकिन पंडित नेहरु ने अपने भावनात्मक सम्बन्धों की दुहाई देकर इसे अपने हाथ में ले लिया। नेहरु को शेख अब्दुल्ला की दोस्ती पर भरोसा था जबकि सरदार पटेल का अब्दुल्ला पर कतई विश्वास नहीं था। शासन मित्रता पर नहीं चलाया जा सकता और इसी भूल की भारी कीमत अब तक चुकाने को देश मजबूर था।


हैदराबाद  के निजाम को सही रास्ते पर लाने के लिए सरदार पटेल ने नेहरु को दूर रखते हुए वह सब कदम उठाए जो एक घमंडी, कंजूस, बेशुमार दौलत के बल पर दुनिया को अपने कदमों पर झुका सकने का सपना पालने वाले बेवकूफ इंसान की अक्ल ठिकाने पर लाने के लिए उठाए जा सकते थे। इसका परिणाम यह हुआ निजाम को भारत के साथ विलय करने के लिए हामी भरनी पड़ी, बावजूद इसके कि उसने इस मामले को अमेरिका के राष्ट्रपति और यूनाइटेड नेशन में सुरक्षा परिषद तक ले जाने की पूरी कोशिश की ताकि यह मुद्दा अंतराष्ट्रीय हो जाए।


सरदार पटेल ने अपनी हृदय की गम्भीर बीमारी की अवस्था में भी सभी रियासतों को एक झंडे के नीचे खड़ा करने के काम में कोई कसर नहीं छोड़ी और राजपूताना, पंजाब, हिमाचल से लेकर सौराष्ट्र तक अपनी ध्वजा पताका फहराई। इसी तरह ओड़िसा, मध्य प्रदेश तथा अन्य स्थानों पर एकता की ऐसी लहर बनाई कि सब उसमें शामिल होते गए।


अरब सागर से बंगाल की खाड़ी तक और हिमालय से कन्याकुमारी तक पाँच लाख वर्ग मील के क्षेत्र से भारत देश की सुंदर रचना का श्रेय सरदार पटेल और उनके साथी सहयोगियों को जाता है और यह बात महात्मा गांधी ने भी स्वीकार की कि यह काम सरदार पटेल के सिवाय किसी और के करने से कभी नहीं हो पाता।


सरदार पटेल को अपनी अंतिम साँस तक यह पीड़ा चुभती रही कि भारत की आजादी के लिए पाकिस्तान के रूप में बड़ी भारी कीमत चुकानी पड़ी, हिंसा का तांडव देखना पड़ा और सब से बड़ी बात यह कि कश्मीर की समस्या न सुलझने के कारण पाकिस्तान के साथ हमेशा की दुश्मनी हो गयी।


वह इतने दूरदर्शी थे कि चीन की असलियत समझ चुके थे और इस बारे में नेहरु की आँखे खोलने के लिए सात नवम्बर, 1950 को उन्होंने जो पत्र उन्हें लिखा वह एक ऐतिहासिक दस्तावेज तो है ही, साथ में आज भी चीन की नीयत समझने के लिए काफी है।


सरदार पटेल एक साधारण परिवार में जन्मे एक ऐसे राष्ट्रीय योद्धा थे जो परिस्थितियों को अपने अनुकूल करना जानते थे और निर्भय होकर अपने लक्ष्य को साधने के लिए सभी अस्त्र शस्त्र साथ लेकर चलने वाले महापुरुष थे।