शुक्रवार, 29 मार्च 2019

मुफ्तखोरी की आदत नहीं है गरीबी का समाधान







भिखारीपन को बढ़ावा



यह देश का दुर्भाग्य और विडम्बना ही है कि जहाँ एक ओर भारत विश्व की चार महाशक्तियों में से एक है, विकसित देशों से ताल ठोककर मुकाबला करने को तैयार है, आर्थिक, सैन्य, विज्ञान और टेक्नॉलोजी से लेकर स्वदेशी तकनीक तक अनेक क्षेत्रों में आत्मनिर्भर बन रहा है, वहाँ सत्ता में बैठा दल हो या विपक्ष सभी देशवासियों को दीनहीन, बेचारा और याचक मानने और बनाने का एक भी ऐसा मौका नहीं छोड़ना चाहते जिससे वे उनके वोटों की फसल काट सकें।


पहले भाजपा ने किसानों के खातों में मुफ्त के पैसे डालने की बात की और अब कोंग्रेस ने उन लोगों को जिन्हें गरीब बनाए रखने में ही उसका भला है, उन्हें ७२हजार रुपए बिना कोई काम किए देने की पेशकश की है ताकि कांग्रेस के लालच रूपी झाँसे में आ जायें और जीवन भर गरीब होने का ठप्पा लगाए रखने के लिए मजबूर हो जाएँ।


यह एक सच्चाई है कि अगर किसी को अपना पिछलग्गू बनाए रखना है तो उस पर से कभी भी गरीबी की चादर को हटने नहीं देना है और खैरात की तरह चंद सिक्के उसकी झोली में डालते रहना है ताकि वह हमेशा जरखरीद गुलाम बना रहे।


यह सत्ता का कैसा लोभ है और कैसा प्रजातंत्र है जो जनता को गरीब बने रहने के लिए उकसाता है, जबकि होना यह चाहिए कि ऐसा माहौल बने जिसमें चाहे थोड़े में गुजारा करना पड़े पर किसी की दया पर,चाहे सरकार ही क्यों न हो, न जीना पड़े।



कहते हैं कि अगर किसी से दुश्मनी निकालनी हो और उसके परिवार को समाप्त करना हो तो उसके प्रति हमदर्दी दिखाकर उसे और उसके बच्चों को मुफ्त में नशा करने की आदत डाल दो। सरकार हो या कोई राजनीतिक दल, बिना बात पैसा बाँटना और वह भी सरकारी खजाने से तो यह एक ऐसा जघन्य अपराध है जिसकी सजा चाहे कानून न दे सकता हो पर इसका परिणाम सामाजिक विकृति के रूप में जरूर सामने आता है।



उदाहरण के लिए सरकार गरीब, पिछड़े और दलित वर्ग की मदद करने के नाम पर अनिश्चितकालीन आरक्षण के रूप में, सब्सिडी के नाम पर या नकद राशि सीधे खातों में जमा कर उसके पैरों को बेड़ियों और हाथों को हथकड़ियों से जकड़ने का काम करती है जो उसे स्वावलंबी बनने, अपने पैरों पर खड़ा होने से रोकता है क्योंकि मुफ्तखोरी की आदत पड़ जाने पर उसका कुछ करने को मन ही नहीं करता।



कर्जमाफी भी इसी श्रेणी में आता है जो कर्ज लेने वालों की सोच को ही बेईमान बना देता है और उस व्यक्ति के पतन का एक कारण है।


यह एक तरह से ऐसा छलावा हे जिसमें भिखारी की तरह हाथ न फैलाने के बावजूद गरीब की झोली में भीख गिरती जाती है। कोई भी सरकार हो, विशेषकर कांग्रेस की जो हमेशा करदाताओं के पैसों से अपना स्वार्थ सिद्ध करने का काम करती रही है। यह करदाता वो हैं जो ज्यादातर नौकरीपेशा, व्यापारी, दुकानदार हैं जो समय पर अपना कर देते हैं और बदले में सरकार की लूट का शिकार बनते है जो उनके धन को खैरात में बांटने मेें लगी रहती है।


नीतियों का अकाल


सरकार हो या विपक्ष, जब उनके पास नीतियों का अकाल पड़ जाता हे तब ही वे इस तरह की योजनाएं बनाते हैं जिनका कोई सिर पैर नहीं होता लेकिन जनता उन्हें सच मानकर उन्हें अपना शुभचिंतक मानने की गलती अवश्य कर जाती है।


उदाहरण के लिए जब भाजपा यह जानते हुए भी कि विदेशों से काला धन देश में ला पाना लगभग असंभव है तो उसने 15 लाख रूपये हरेक के खाते में पहुंचाने की बात कर दी। इसी तरह कांग्रेस ने मनरेगा को लागू किया तो उसमें भी न्यूनतम कार्य दिवसों का रोजगार पैसा देने का प्रावधान कर दिया। यह मुहावरा कोई वैसे ही नहीं बना कि मनरेगा के तहत पहले गड्डा खोदने का पैसा मिलता है और फिर उसी गड्डे को भरने का।


अब क्योंकि गरीब आदमी इस छलावे को समझ नहीं पाता क्योंकि कमोवेश सभी सरकारों ने उसे पढ़ाई लिखाई से जहां तक हो सके, दूर रखने का काम किया, उसे कोई हुनर या व्यवसाय का शिक्षण और प्रशिक्षण देने की कोई ठोस नीति नहीं बनाई और उसके आत्मविश्वास को इस हद तक गिरा दिया कि वह जीवनभर अपने को गरीबी रेखा के नीचे ही रखने के लिए मजबूर हो गया।


सरकार और विपक्ष इस मामले में एक ही शैली के चट्टे बट्टे सिद्ध हुए हैं कि किस प्रकार सरकारी धन का दुरूपयोग कर अपने निजी स्वार्थ पूरे किये जाएं। मनरेगा में हो रहा भ्रष्टाचार इसकी ज्वलंत मिसाल है जिसमें फर्जी लाभार्थियों के नाम पर करोड़ों रूपया अधिकारियों और नेताओं की जेबों में चला जाता है।
कांग्रेस की नकद राशि देने की योजना भी मनरेगा की अगली कड़ी है जिसमें एक बार फिर फर्जीवाड़े की पूरी गुंजाईश है।


सार्थक नीतियां कैसी हों


अब हम इस बात पर आते हैं कि ऐसी नीतियां किस प्रकार बनें जिनसे गरीब की भलाई भी हो जाए और उसे लाचार बनाने के अपराध से बचा जा सके।

जहां तक किसान की बात है तो सीमान्त और मझौले किसान को उसकी खेती के लिए जरूरत के अनुसार बिजली, सिंचाई के लिए पानी, उन्नत बीज, खाद और कीटनाशक बिना उससे एक भी पैसा लिए मुहैया करा दिये जाएं। इससे वह इन चीजों के लिए कर्ज लेने से बच जाएगा, पूरा ध्यान खेतीबाड़ी की तरफ लगाएगा और अधिक से अधिक पैदावार करेगा।


फसल होने पर सरकार एक निश्चित और पूर्व निर्धारित दाम पर उससे उसकी उपज की खरीद करे और अपने नियंत्रण में उसे मंडियों तक पहुंचाए। मण्डी ंमें भी फसल की बिक्री की न्यायपूर्ण व्यवस्था हो और उपभोक्ता को एक निश्चित दाम पर अनाज, फल, सब्जी या अन्य उपज प्राप्त हो।


यह व्यवस्था केवल दो से तीन वर्ष तक कर दीजिए क्योंकि उसके बाद किसान इतना समर्थ हो जाएगा जिससे वह बिजली, पानी, खाद बीज और कीटनाशकों के दाम स्वंय दे सकेगा और आत्मनिर्भर होने की तरफ सधे कदमों से आगे बढ़ सकेगा।



कृषि व्यवस्था को मजबूत करने के साथ साथ गरीब आबादी को रोजगार देने के लिए ऐसी योजनाएं शुरू हों जिनसे एक ओर ग्रामीण और शहरी इन्फ्रास्ट्रक्चर तैयार हो और दूसरी ओर ऐसे उद्योग और व्यवसाय स्थापित हों  जिनमें आधुनिक टेक्नालाॅजी का निवेश हो और उसके लिए प्रशिक्षित युवाओं की भागीदारी सुनिश्चित हो।
स्वच्छ भारत अभियान एक ऐसी ही योजना सिद्ध हुई है जिसने न केवल रोजगार सृजन का कार्य किया बल्कि लोगों की सोच में भी परिवर्तन किया।


चीन की सीख


चीन हालांकि हमारा विरोधी प्रतिद्वंद्धी और झगडालू पड़ौसी रहा है लेकिन उसके अंदर कुछ अच्छाईयां भी हैं जिनसे वह आज विश्व बाजार में घरेलू और व्यापारिक वस्तुओं की खपत बढ़ाने में तेजी से सफल रहा है। आज मेड इन चाईना का दुनियाभर में बोलबाला है।

हम जब तब चीन की भारत विरोधी हरकत की प्रतिक्रिया चीनी वस्तुओं के बहिष्कार के रूप में करने लगते हैं। इसे जरा उलट कर देखिए। चीन ने विश्व बाजार पर कब्जा एक दिन में नहीं किया बल्कि यह उसकी नीतियों की सफलता है। चीन ने हमारी तरह अपनी आबादी को बोझ समझकर उस पर दया नहीं दिखाई, न उसने पैसों का लालच दिया और न ही उन्हें दीनहीन और भाचक समझा बल्कि उसने सुनिश्चित किया कि प्रत्येक व्यक्ति को देश के संसाधनों के विकास में अपना योगदान करना है,


किसी को मुफ्त या दान में कुछ नहीं मिलेगा बल्कि उसे उसकी उचित कीमत चुकानी होगी। जनता की भलमनसाहत का लाभ नहीं उठाने दिया जाता और सब को तय समय में वह काम करना पड़ता हे जो उसे सौंपा गया हो। उसे वहीं रहना होगा या उद्योग स्थापित करना होगा जहां सरकार और नीति बनाने वालों की नजर में उसकी जरूरत होगी। व्यक्ति की अपनी इच्छा के स्थान पर देश की जरूरत को प्राथमिकता दी जाती है।
अगर हमें चीन की सीख बुरी लगती हो तो अपने यहां के चाणक्य की ही बात समझ लें जिनके समय में भारत सोने की चिड़िया कहलाता था।



यदि भारत को आगे बढ़ना है तो देशवासियों को भिखारी, याचक, मुफ्तखोर न मानकर बराबरी का वास्तविक अधिकार देना ही होगा।

शुक्रवार, 22 मार्च 2019

अपने शासक की जाँच पड़ताल और जान पहचान









शासन के अनेक रूप

हमारे देश पर शासन करने वालों के मोटे तौर पर तीन रूप रहें हैं।पहला राजा महाराजा और उनके अधीन रहकर भी अपनी बातों और नीतियों को मनवा सकने की योग्यता रखने वाले मनीषी, आचार्य, गुरु से लेकर साधु सन्यासी तक का राज्य।

दूसरा रूप रहा विदेशी आक्रांताओं, हमलावरों और किसी न किसी बहाने से देश की समृद्धि से प्रभावित होकर उस पर अपना कब्जा जमाने की नीयत से आए व्यापारियों का।अब क्योंकि उनका इरादा ज्यादातर भारत को लूटना खसोटना था तो उन्होंने यहाँ के राजा महाराजाओ से ज्यादा छेड़छाड़ न करने बल्कि उन्हें अपने साथ मिलाकर अपने मंसूबों को पूरा करने को अहमियत दी।

विदेशी शासन के दौरान यहाँ के मूल निवासियों अर्थात भारतीयों को अमानुषिक अत्याचार से लेकर लोभ, लालच, ईर्ष्या, द्वेष, हीन भावना और यहाँ तक कि उनके अंदर यह सोच भर देने का काम हुआ कि वे इंसान ही नहीं हैं बल्कि पशुओं से भी बदतर हैं।

अपने इस मनोरथ को पूरा करने के लिए उन्होंने देशवासियों को दो स्पष्ट टुकड़ों में बाँट दिया, एक था अमीरों का जिसमें राजे, रजवाड़ों और नवाबों के खानदान आ गए जिन्हें अपनी तरफ रखने के लिए ऐशो आराम और विलासिता के सभी साधन उन तक सुलभ कर दिए गए। यह सब लोग हालाँकि मुट्ठी भर थे लेकिन शासक के इशारों पर चलने वाले होने के कारण उनका काम केवल यह रह गया कि वे दूसरे पक्ष को जो कि बहुमत अर्थात विशाल संख्या में था उसे अपने काबू में रखें।


इस तरह अमीर और गरीब दो वर्गों का जन्म हुआ जिसका आधार यही थी कि एक के पास सब कुछ और दूसरे के पास कुछ नहीं। एक ओर सब तरफ आलीशान और भव्यता लिए हुए जीवन यापन के सभी साधन और दूसरी ओर पेट भरने के लिए दो वक््त की रोटी का भी जुगाड़ कर सकने में अनगिनत मुश्किलें।

इस विकट परिस्थिति और अंतहीन अत्याचार की घेराबंदी से निकलने की कोशिश से ही आजादी हासिल करने की नींव पड़ी और देश के गरीब, विपन्न और साधनहीन तबकों और कुछेक सम्पन्न लोगों के बीच से ऐसे लोग सामने आने लगे जो भारत को विदेशी दासता से मुक्त कराने का संकल्प लेकर आजादी की मशाल बनकर आगे आए।


व्यक्तिवादी सोच 

आजादी मिलने तक अधिकतर सोच मिलजुलकर और एकजुटता से अपनी मंजिल हासिल करने की रही और कुछ समय तक यही हावी रही लेकिन इसकी अवधि अधिक नहीं रही क्योंकि इसमें व्यक्तिवादी सोच का घोल मिलने लगा। कुछ समय बाद यह घोल ऐसा मिश्रण बन गया जिसमें व्यक्तिगत भलाई और स्वार्थ अहम हो गए और सामूहिक या सामाजिक उत्थान की भावना कम होती गयी।

आजादी के बाद जिन राजनीतिक दलों पर स्वतंत्र भारत के निर्माण की जिम्मेदारी थी उन्होंने शुरुआत देश के सम्पूर्ण विकास की अवधारणा से की जिसमें सभी को बराबरी और न्याय सम्मत तरीकों से जीवन यापन का अवसर प्राप्त हो और देश के संसाधनों पर समान अधिकार हो।

इसमें व्यक्तिवादी सोच का प्रभुत्व न होकर सामूहिक सोच की प्रमुखता थी। जैसे जैसे देश विकास के पथ पर आगे बढ़ता गया, इस सोच में भी बदलाव आना शुरू हो गया और बजाय इसके कि सब को साथ लेकर चलने की धारणा और अधिक मजबूत होती, व्यक्तिगत स्वार्थ और उन्हें किसी भी तरीके से पूरा  करने की इच्छा बलवती होती चली गयी और देश एक बार फिर विदेशी शासन की भाँति अमीरी और गरीबी के खाँचों में बँट गया।


मतलब यह कि मुट्ठी भर लोगों के पास सब कुछ और विशाल जन मानस के पास इतना भी नहीं कि अपनी और अपने परिवार की जरूरतों को इज्जत से पूरा कर सके।

इस प्रक्रिया में देश के सबसे बड़े राजनीतिक दल कोंग्रेस में व्यक्तिवादी सोच के बढ़ने से एक के बाद एक लगभग सभी प्रदेशों में ऐसे दल बनने शुरू हो गए जिनकी सोच में हालाँकि समाज के सामूहिक विकास की अवधारणा प्रमुख थी लेकिन धीरे धीरे वे भी पारिवारिक दलों में ढलते चले गए।

कोंग्रेस का उदाहरण उनके सामने था जिसने अपने शासन काल में रिश्वतखोरी और भ्रष्टाचार के अनेक कीर्तिमान स्थापित किए। प्रगति करने के लिए योग्यता के स्थान पर चाटुकारी करने को प्राथमिकता मिलने लगी और देश के सामने अपने अस्तित्व और अस्मिता को बचाए रखने की चुनौती आ खड़ी हुई।


इस बात को समझने के लिए किसी भी क्षेत्रीय दल की उत्पत्ति का इतिहास और उसकी वर्तमान स्थिति देख लीजिए। सामाजिक कल्याण के उद्देश्य से एक व्यक्ति द्वारा अपनी राष्ट्रीय सोच को आधार बनाकर देश के विकास में अपनी भागीदारी तय करने के इरादे से बनाई गयी पार्टी किस प्रकार एक परिवार की पार्टी बन जाती है और सामूहिक भलाई के काम करने के स्थान पर केवल अपने परिवार के हित साधने का काम करने लगती है, यह जानने के किसी रॉकिट साइंस की जरूरत नहीं है।


वर्तमान पर टिका भविष्य 


इतिहास से लेकर आज तक  की छोटी सी झलक दिखाने का प्रयोजन यही है कि इस बार का आम चुनाव हमारे लिए एक ऐसी चुनौती है जिस पर हमारा भविष्य टिका हुआ है। हमारा सही निर्णय दुनिया का सिरमौर बना सकता है और गलत फैसला अंधेरे में ढकेल सकता है।


अपना वोट डालते समय केवल इतना ही देखना काफी नहीं है कि कौन सा उम्मीदवार या दल हमारी सड़क, बिजली, रोजगार, खेतीबाड़ी या उद्योग की जरूरतों को पूरा कर सकता है बल्कि यह देखना भी आवश्यक है कि हम विज्ञान, टेक्नॉलोजी, व्यापार, कृषि, परिवहन, संचार, सुरक्षा और सैन्य संसाधनों के विकास के क्षेत्र में विकसित देशों की पंक्ति में किस नीति और योजना के तहत खड़े हो सकते हैं।

जब कोई प्रत्याशी आपके पास वोट माँगने आए तो उससे इन विषयों के बारे में सवाल कीजिए, उसकी और उसके दल की इन विषयों पर जो ठोस योजना है उसके बारे में बताने को कहिए, उससे पूछिए कि क्या वह जातिगत समीकरणों के आधार पर आपस में सत्ता का बँटवारा करने के लिए चुनाव लड़ रहा है या उसके पास कोई पुख्ता कार्यक्रम भी है जिससे उसकी ईमानदारी और निष्ठा की परख की जा सके।


किसी भी दल या उम्मीदवार की जाँच पड़ताल इस आधार पर नहीं होनी चाहिए कि उसके बाप दादा या पुरखो ने कितने महान कार्य किए थे बल्कि उस पर भरोसा यह देखकर करना चाहिये कि उसकी वर्तमान नीतियों और योजनाओं तथा कार्यक्रमों में कितना दमखम है और वह किस तरह उनकी उम्मीदों को साकार कर सकता है। जब चुनाव की बिसात बिछ चुकी है, मोहरे अपनी अपनी जगह पर हैं तो फिर सोच समझकर अपनी चाल चलिए जिससे आपको अगले पाँच साल तक पछताना न पड़े। यही हमारा कर्तव्य है।


यह भूलना अपने पैरो पर कुल्हाड़ी मारना होगा कि इतिहास अक्सर अपने को दोहराता है और वक्त भी कभी कभी ऐसी करवट लेता है कि सबकुछ किया धरा मिट्टी में मिल जाने के कगार पर आ जाता है। यदि फिर से चोरी चकारी, रिश्वतखोरी, भ्रष्टाचार, भाई भतीजाबाज, कुनबा-परस्ती और व्यक्तिवादी सोच को नकारना है तो समझदारी से वोट डालने जाने की अवश्यकता है।

शनिवार, 16 मार्च 2019

भ्रष्ट नेताओं से मुक्ति का विकल्प हैं आम चुनाव










निर्णायक वोटर


आम चुनाव एक तरह से ऐसे पर्व या त्योहार के रूप में आता है जिसे मनाने से पहले घर और बाहर या दुकान और दफ्तर की अच्छी तरह साफ सफाई करते हैं ताकि कूड़ा कचरा रहे, गन्दगी दूर हो और स्वच्छता का वरदान मिले, साथ ही पुरानी बेकार हो चुकी चीजों को बेच कर उनकी जगह नए मॉडल और पहले से अधिक कुशलता के साथ काम करने वाले उपकरण आदि खरीद कर लाते हैं। यह सब इसलिए करते हैं जिससे तन और मन दोनों को खुशी मिले तथा मायूसी और सुस्ती के बजाय ताजगी का अहसास हो।


अगर आम चुनाव भी एक त्योहार है तो यही मौका है कि हम अपने आसपास और समाज में यह देखें कि बदबू कहाँ से रही है।यह पर्व मनाने का मौका पाँच साल में एक बार मिलता है और अगर ढंग से सफाई नहीं हुई और जरा सी भी गन्दगी साफ करने से चूक गए तो अगले पाँच साल तक इंतजार करना होगा।


जब ऐसा है तो निकालिए औजार और हथियार ताकि देश का कोई कोना ऐसा रहे जो साफ होने से बच जाए।
आपके पास अब प्रतिदिन लुभावने वायदों, सौगातों से लेकर सैर सपाटे और अय्याशी करने के साधन तक पेश किए जाएँगे।समझ लीजिए कि अगर कोई यह सब लेकर आपके पास आता है और आप बिना भली भाँति सोच विचार किए उसकी बातों में जाते हैं तो आप एक ऐसे धोखे का शिकार हो सकते हैं जिसकी भरपाई पाँच साल से पहले नहीं होने वाली और आप हाथ मलने तथा पछताने के अलावा और कुछ नहीं कर सकते।


विभिन्न राजनीतिक दल, नए पुराने, अलग अलग मुखौटों के साथ आपके सामने चकरघिन्नी की तरह नाचने से लेकर आपको रिझाने के लिए तरह तरह के करतब दिखाएँगे ताकि,आप उनका एक बार विश्वास कर लें और वे आपके वोट की सीढ़ी पकड़कर वैतरणी पार कर लें।


इस परिस्थिति में जरूरी है कि जब किसी दल का कोई कार्यकर्ता या स्वयं उम्मीदवार आपके सामने जाए तो आप उससे कुछ सवाल अवश्य पूँछें जिनके उत्तर की जाँच पड़ताल आपको इस प्रकार करनी है कि जैसे दही में से मक्खन और छाछ को अलग किया जाता है। सवाल पूछने से पहले आपको तैयारी भी उसी तरह करनी है जैसे किसी इंटर्व्यू में जाने से पहले की जाती है।आजकल इंटर्नेट और सोशल मीडिया का दौर होने से यह काम बहुत आसान हो गया है और किसी के भो बारे व्यक्तिगत से लेकर गोपनीय जानकारी तक पलक झपकते आप हासिल कर सकते हैं।




सम्पत्ति का ब्योरा


जो प्रत्याशी खड़ा हुआ है, अगर वह पहले से आपके इलाके का सांसद है तो उसके बारे में यह पता लगाइए कि चुने जाने से पहले की तुलना में उसकी धन दौलत, जमीन जायदाद और रहन सहन जैसे मकान, बंगला, गाड़ी जैसी चीजों में कितनी बढ़ौतरी हुई है। अगर यह सामान्य लगे तो ठीक वरना सवाल पूछने से मत चूकिए कि इतना जलवा कहाँ से इकट्ठा किया। जवाब से संतुष्ट हो जायें तो बेहतर वरना यह समझकर कि दाल में कुछ काला है अपनी जाँच पड़ताल जारी रखें और अपने साथ आसपास के निवासियों को भी इसमें शामिल कर लें। उसके यह कहने पर मत जाइए कि उसने पर्चा भरते वक्त पूरी जानकारी  चुनाव आयोग को दे दी है।


यह जाँचने के बाद कि उसका कोई आपराधिक इतिहास तो नहीं है और अगर कोई है तो उसे दरवाजे से ही लौटा दीजिए। साम्प्रदायिक दंगों, लड़ाई झगडे और मनमुटाव तथा दबंगई में उसका शामिल होना पता चल जाए तो भी उससे दूर से ही दुआ सलाम कर लीजिए, उसे किसी तरह का भाव देना आपके लिए कष्टकारी हो सकता है।


असल में वोट डालना तो महत्वपूर्ण है ही पर उससे भी ज्यादा जरूरी ये तय करना है कि वोट किसे दिया जाए, कहीं पात्र या सुपात्र की जगह कुपात्र को तो हमारा वोट नहीं पड़ गया।


जरूरी नहीं कि वह किसी राष्ट्रीय या क्षेत्रीय पार्टी का ही उम्मीदवार हो, अगर कोई निर्दलीय परंतु हर प्रकार से आपकी कसौटी पर खरा है तो उसे वोट दीजिए। आम तौर से पार्टियाँ उन्हें उम्मीदवार बनाती हैं जो किसी भी तरह से आपका वोट ले सकते हैं, चाहे कोई हथकण्डे या फरेब या गुमराह या लालच से ही आपको भरोसा दिला दिया हो तो ऐसे व्यक्ति को मतदान से पहले ही नकार देने में भलाई है। 


कहने का मतलब यह है कि यदि कोई वैज्ञानिक है, शिक्षक है या कोई अन्य प्रफेशन में कीर्तिमान स्थापित किए हुए है और साथ में अपनी ईमानदारी और लगन से भी आपको प्रभावित कर सकता है तो उसे भी संसद में भेजा जा सकता। है। आम तौर से ऐसे लोग अभी तक तो ज्यादातर हार का ही मुख देखते रहेहैं क्योंकि सभी प्रकार से योग्य होते हुए भी साधन होने की बजाय से चुनाव में विजयी नहीं हो पाते।


समाज को बदलना है और देश को तरकक्ी के पुख्ता रास्ते पर ले जाना है तो संसद में ऐसे लोगों की भेजिए जो बेशक किसी दल से हों पर योग्य हों। ऐसा होने पर चाहे सत्ता किसी भी दल की हो वह इन लोगों की काबलियत से देश को वंचित रखने का दुस्साहस नहीं करेगा और यह लोग भी ध्यान रखेंगे कि बिना लागलपेट और गलत रास्ता अपनाए बिना देश के हित में सरकार को निर्णय लेने के लिए अपने तर्कों से बाध्य कर सकेंगे।


ऐसे दूरदर्शी और विद्वान लोगों को संसद में अपने प्रतिनिधि के रूप में भेजने के लिए यदि वोटरों को आर्थिक सहायता भी करनी पड़े तो तनिक भी मत हिचकिए। सही के स्थान ओर गलत को चुन लिया तो उसकी भारी कीमत चुकाने को तय्यार रहिए और तब आप कुछ कर भी नहीं सकेंगे क्योंकि जब चिड़िया चुग गयी खेत तो फिर पछताने से कोई फायदा नहीं होगा।


किसान और नौजवान


हमारा देश कृषि और ग्रामीण अर्थव्यवस्था पर आधारित होने के कारण किसान के लिए यह समझना जरूरी है वह किसे वोट दे रहा है। कम से कम ऐसे उम्मीदवारों से तो दूर ही रहिए जो कर्जमाफी के वायदे से आपके वोट हथियाना चाहते हैं। इसके बिपरीत यदि कोई दल या प्रत्याशी आपके सामने यह योजना रखता है कि किस प्रकार खेती करना फायदे का सौदा है और टेक्नॉलोजी और खेती के उन्नत तरीकें अपनाकर किसान खुशहाल हो सकता है और संसद में आपको वह सब साधन उपलब्ध करने के लिए सरकार को मजबूर कर सकता है जिनसे आमदनी बढ़ सकती है तो ऐसे उम्मीदवार को वोट देने में कोतोही मत कीजिए।


गांवं देहात में जब भी कोई उम्मीदवार आपका वोट माँगने आए तो उससे प्रश्न कीजिए कि उसको खेतीबाड़ी, पशुपालन, सिंचाई और बीज तथा कीटनाशक की कितनी जानकारी है और वह आपको किस तरह से आश्वस्त कर सकता है कि चुने जाने पर वह आपकी आवाज बनेगा। क्या वह आपको चौबीस घंटे बिजली पहुँचाने की कोई प्रणाली स्थापित करवाने की उम्मीद पूरी कर सकता है, आपके इलाके में शिक्षा की सुविधाएँ और रोजगार के साधन पैदा होने की सम्भावना के बारे में उसके पास क्या योजना है, यह उससे जाने बिना उस पर यकींन मत कीजिए।


हमारे देश में जनसंख्या कुछ इस हिसाब से बढ़ती है की हर चुनाव में करोड़ों लोग पहली या दूसरी बार मतदान करते हैं।  युवाओं को चाहिए कि वह उम्मीदवारों से सवाल करें कि उनकी शिक्षा और फिर व्यवसाय या रोजगार मिलने की व्यवस्था करने की उनके पास कोई योजना है तो वह विस्तारपूर्वक उन्हें समझाएँ। जाहिर है बहुत कम उम्मीदवार इन सवालों के व्यावहारिक जवाब दे पाएँगे क्योंकि अभी तक यह होता रहा है कि नेताओं के लिए पढ़ा लिखा होना जरूरी नहीं समझा जाता और इसलिए वे कभी भी युवाओं की सोच के करीब नहीं पहुँच पाते।



इस बार युवाओं को वोट देने से पहले यह सुनिशचित् कर लेना होगा कि उम्मीदवार पढ़ने लिखने के नाम पर गोल तो नहीं है, वह अपनी दबंगई से तो आपको प्रभावित नहीं कर रहा या फिर धोंस तो नहीं जमा रहा या खयाली पुलाव तो नहीं पका रहा। कुछ दल ऐसे लोगों को उम्मीदवार बनाने से युवाओं को भरमा सकते हैं जिनकी छवि चाहे गुंडागर्दी की हो लेकिन युवाओं के वोट उनकी झोली में डाल सकते हों, तो इनसे सावधानी बरतनी होगी। इनमें देशविरोधी नारे लगाकर अपनी नेतागीरी की धाक जमाने की कोशिश करने वालों की पहचान करनी आवश्यक है। युवा वोट डालने से पहले इन सब बातों पर गम्भीरता से विचार करें, तब ही सही निर्णय कर पाएँगे।



कानून और समाज


इस चुनाव में वोट डालने से पहले यह भी जाँच पड़ताल के दायरे में रखिए कि केवल उम्मीदवार का कोई आपराधिक रेकर्ड हो बल्कि उसे यह भी समझ हो कि कानून कैसे बनें जिनसे समाज में न्याय पूर्ण व्यवस्था हो। उनसे पूछिए कि अदालत में सजा मिलने के बावजूद अपराधी को दसियों वर्ष सजा देने पर अमल करने में क्यों लग जाते हैं। कानून के कमजोर प्रावधानों का लाभ उठाने में उस्ताद वकीलों को ऐसा करने से रोकने के लिए उम्मीदवार किस तरह कानून को न्याय सम्मत और तुरंत उस पर अमल किए जाने लायक बना सकने के लिए क्या कदम उठाएगा, यह भी समझिए।



रिश्वतखोरी और आर्थिक भ्रष्टाचार से निपटने के लिए उम्मीदवार से विस्तारपूर्वक योजना बताने के लिए कहिए और उसका यह खुलासा करना और आश्वस्त करना भी जरूरी है कि वह चुनाव इसलिए नहीं लड़ रहा कि चुने जाने के बाद धन दौलत कमाना और सत्ता के नशे में चूर हो जाना उसका मकसद नहीं है बल्कि वास्तव में वह समाज से अशिक्षा, बेरोजगारी और गरीबी दूर करना चाहता है और इसके लिए उसके पास एक नहीं अनेक ठोस योजनाएँ हैं जिन पर अमल होने से देश तेज गति से विकसित देशों की कतार में अपनी जगह बना सकता है।




एक बात यह भी ध्यान में रखनी होगी कि राष्ट्रवाद केवल यह है कि हमारा देश दूसरे देशों से विकास के मामले में कैसे आगे रह सकता है कि यह कि हमारे पूर्वजों ने देश को आजादी दिलाने में योगदान किया या देश की प्राचीन संस्कृति या भारतीयता को मजबूत करने में योगदान किया और पूरे विश्व में उसका परचम लहराने का काम किया। 


आज का वोटर इन बातों से बहुत आगे की सोच रखता है, इसलिए इस चुनाव में तो कोई दल या उम्मीदवार यह उम्मीद तो बिलकुल रखे कि वह बहलाने, फुसलाने में कामयाब हो जाएगा क्योंकि यह जो जनता है , वह सब जानती है, उसे केवल जागरूक होना और अपने मताधिकार का सही इस्तेमाल करना बाकी है।