शनिवार, 27 जुलाई 2019

धर्म से नहीं जातिवादी सोच से निकली नफरत को समाप्त करना जरूरी है।





जहाँ यह हमारा दुर्भाग्य था कि शताब्दियों तक हम दासता की बेड़ियों में जकड़े रहे वहाँ उससे भी बड़ी बदकिस्मती यह रही कि आजाद होने के बाद हमने उस जातिवादी सोच को ही अपनाया जिसे अंग्रेजों ने भारत पर शासन के लिए इस्तेमाल किया था यह सोच थी कि फूट डालो और राज करो क्योंकि इसके बिना किसी विदेशी की ताकत नहीं थी कि वह हमारे जैसे प्राचीन संस्कृति और सभ्यता वाले देश पर राज कर सकता।


इंटोलरन्स बनाम असहिष्णुता


जहाँ तक हिन्दू धर्म का संबंध है यह अपने आप में इतना व्यापक है कि वह सब को साथ लेकर चलने और समान भाव से एक दूसरे के साथ व्यवहार करने के सिद्धांत पर आधारित होने से धर्म से भी अधिक एक जीवन शैली की तरह प्रतिपादित हो चुका है।

जो लोग इसके असहिष्णु होने की बात करते हैं और इसके प्रतीकों को अपमानित करने और तिरस्कार करने तक से नहीं चूकते वे अधिकतर इस धर्म में ही जन्मे हैं। दुनिया के किसी भी धर्म में इस तरह की छूट नहीं है कि उसमें रहते हुए उसके खिलाफ बोलते रहें और आपको इसके लिए दंड भी न मिले।


यह हिन्दू धर्म की सहिष्णुता ही है कि संसद में लोकसभा अध्यक्ष की कुर्सी पर विराजमान एक महिला श्रीमती रमा देवी से समाजवादी पार्टी के सांसद आजम खान, उनके यह कहने पर कि उन्हें जो कहना है वह उनकी तरफ मतलब अध्यक्ष की कुर्सी की ओर देखकर कहें, की हिम्मत यह कहने की नहीं होती कि ‘ मैं तो आपकी आँखों में आँखे डालकर बैठे रहना चाहता हूँ ‘ और इसके लिए संसद के अनेक सदस्यों द्वारा इसके लिए क्षमा माँगने को कहने पर भी वह निरलज्जता से मुस्कुराते नहीं रहते।


इस तरह की घटनाओं को सहिष्णुता बनाम छिछोरापन कहेंगे या कुछ और। जब यह व्यवहार गली मोहल्ले और बीच सड़क पर होता है और इसके विरोध में मारपीट हो जाती है तो असहिष्णुता का जामा पहना कर बवाल पैदा करने की कोशिश की जाती है।


और यह क्या बात हुई कि जय श्री राम कहने पर उसे लिंचिंग तक पहुँचा दिया जाए जबकि गाँव देहात हो या शहर और महानगर आज भी एक दूसरे को अभिवादन करने के लिए राम राम कहते हैं।


हिंदुओं को वर्ण व्यवस्था के अंतर्गत उनके काम और जीवन यापन के लिए अपनाए गए कर्म के आधार पर ब्राह्मण, क्षत्रिय , वैश्य, शूद्र की श्रेणी में रखने का अर्थ यह नहीं था कि उनमें कोई ऊँच नीच या बड़े छोटे होने की व्यवस्था थी बल्कि यह था कि समाज में वेदपाठी और ज्ञानी ब्राह्मण हो, रक्षा करने के लिए क्षत्रिय हो, व्यापार के लिए वैश्य और सेवक के रूप में शूद्र भी हों। जिसको जो ठीक लगे और उसमें उस काम को करने की योग्यता हो वह अपना ले और उसी के अनुसार उसका वर्ण निर्धारित हो जाए।


अब हुआ यह कि इस वर्ण व्यवस्था से अंग्रेजों को फूट डालने के लिए हिंदुओं के विभिन्न वर्णों को आपस में लड़ाने और धर्म के आधार पर मुस्लिमों से लड़वाकर राज करने का आसान नुस्खा मिल गया।


इसका नतीजा क्या हुआ ? बँटवारा और कत्ल ए आम जिसका दंश आज तक कायम है। आजादी के बाद इसी जातिवादी और धार्मिक कट्टरपंथ को बढ़ावा देने के लिए संविधान के अनुच्छेद पंद्रह का मजाक बना दिया जिसमें सब को बराबरी का हक दिया गया है।


इस अनुच्छेद की अवमानना के लिए देश में अनेक प्रकार के आरक्षणों का प्रावधान किया जाने लगा।


देश की राष्ट्रवादी पार्टी कांग्रेस परिवारवादी दल बनने की ओर चल पड़ी, इसी की देखादेखी देश में ऐसे दलों का उभरना शुरू हो गया जो मूल रूप से एक परिवार पर केंद्रित थीं और कांग्रेस की तरह देश के संसाधनों पर कब्जा करने लगीं। यह सब करने के लिए मोहरे के रूप में आरक्षण की चपेट में आई वे जातियाँ थीं जिन्हें गरीबी में रखने से ही इन परिवारवादी पार्टियों की खुशहाली पक्की हो सकती थी।


चाहे कांशीराम और मायावती की बहुजन समाज पार्टी हो, मुलायम सिंह की समाजवादी पार्टी हो या लालू यादव की आर जे डी हो अथवा दक्षिण भारत के अनेक परिवारवादी दल हों, सव जातिगत वोट बैंक के आधार पर सत्ता कब्जियाने में सफल होती रहीं।


देश के विकास की फिक्र कम और अपनी ताकत बढ़ाने की नीतियाँ गरीब को और अधिक गरीब बनातीं गयीं। रिश्वतखोरी और भ्रष्टाचार के साथ सरकारी खजाने की लूट खसोट का दौर देश को रसातल में ले जाने लगा।
ऐसे में साम्प्रदायिक कही जाने वाली भारतीय जन संघ और अब भारतीय जनता पार्टी अपनी राष्ट्रवादी छवि बनाने में कामयाब हो गयी। जनता तो त्रस्त थी ही उसने बाकी सभी दलों को एक के बाद एक नकारना शुरू कर दिया और भाजपा के सभी दोषों को भुलाकर अपना लिया। 


जातिवादी सोच


यह विडम्बना ही है कि भारत जैसे विशाल देश में कुछ स्वार्थी तत्वों द्वारा जाति के आधार पर लोगों को बाँटने और अपना उल्लू सीधा करने का आसान नुस्खा जाति पर आधारित आरक्षण व्यवस्था में मिल गया। उन्होंने इसका जमकर फायदा उठाया और अब तक उठा रहे हैं।


होना यह चाहिए था कि केवल गरीबी और पिछड़ेपन के आधार पर आरक्षण होना चाहिए था। अब जातिगत आधार पर किए गए आरक्षण को खत्म करने और गरीबी को आरक्षण का पैमाना बनाने की बात करते ही यह स्वार्थी लोग सक्रिय हो जाते हैं और हिंसा तक पर उतारू हो जाते हैं।


हकीकत यह कि आरक्षण ने जातियों में छोटा और बड़ा होने की भावना इतनी भर दी है कि वे एक दूसरे के साथ ही अछूत होने का व्यवहार करते हैं।
इस दिशा में एक सराहनीय पहल जतिग्रस्त होने के लिए मशहूर हरियाणा के कुछ जिलों की खाप पंचायतों ने अपने नाम के आगे जाति न लिखने से की है।
यह एक अच्छी पहल है लेकिन इतने से ही काम चलने वाला नहीं। जब तक शिक्षा और नौकरी पाने के लिए जाति पूछी जाती रहेगी तब तक जातिवाद के चंगुल से बाहर निकलना असम्भव है।


जातिवाद की रोटियाँ सेंकने वाले दलों की आधी कमर उसी दिन टूट जाएगी जिस दिन उनके जाति के आधार पर लोगों को बाँटने और नफरत रूपी जहर फैलाने के सभी विकल्प समाप्त हो जाएँगे।


इसके लिए सामाजिक जागरूकता की जरूरत है। यह सोचने की भी आवश्यकता है कि जातियों को आपस में लड़वाकर फायदा किस का हो रहा है। जिस दिन यह समझ में आ जाएगा तो जातिवाद की राजनीति करने वालों की पूरी ही कमर टूट जाएगी।


सरकार की भूमिका केवल इतनी होनी चाहिए कि वह कानून व्यवस्था को न बिगड़ने दे और दोषियों के खिलाफ कठोर कार्यवाही करने से न चूके।

शुक्रवार, 19 जुलाई 2019

तुर्की और ग्रीस में बिताए कुछ यादगार दिन












भारत में मुस्लिम शासन की स्थापना का श्रेय तुर्की को जाता है जो हमलावर के रूप में यहाँ आए थे। मोहम्मद गौरी ने पृथ्वी राज चौहान को हराकर यहाँ कुतुबुदीन ऐबक को दिल्ली की गद्दी सौंप दी और वापिस चला गया। मोहम्मद गजनी भी तुर्की था जिसने सत्रह बार हमला किया। इस तरह मोहम्मद, तुगलक, खिलजी ने यहाँ मुस्लिम राज्य की नींव डाली और अकबर ने इसे मजबूती दी।


तुर्की में सन् 1923 तक ऑटमन राजशाही थी जिसे अपने निरंकुश और बर्बर शासन के कारण आम नागरिकों के रोष का सामना करना पड़ा। सन् 1881 में जन्मे मुस्तफा कमाल ने इसके खिलाफ मोर्चा बुलन्द किया और 1923 में टर्की गणराज्य की स्थापना की और पहले राष्ट्रपति बने।


एक दौर ऐसा आया कि भारत में कांग्रेस के कुछ युवाओं ने अपने को यंग टर्क कहना शुरू कर दिया जो इस दल में रहकर उसकी नीतियों का विरोधी स्वर था जिसने आगे चलकर महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।






भारत तुर्की से चार गुना बड़ा है और दोनों देशों के बीच काफी सांस्कृतिक समानताएँ हैं। हिंदी, उर्दू शब्दों का काफी प्रचलन है। कीमा, कोफ्ता, हलवा, पुलाव, तंदूर, दुनिया जैसे ढेरों शब्द हैं जो समान हैं।


लगभग साढ़े चार हजार किलोमीटर दूर तुर्की के इस्तांबुल हवाई अड्डे पर उतरते समय यही सब बातें मन में थीं। यहाँ मुस्लिम देशों जैसी कट्टरता नहीं है, लोगों का पहनावा आधुनिक भी है और मुस्लिम भी, खानपान, रहन सहन, बातचीत एशिया और यूरोप का मिलाजुला स्वरूप है। यह यूरोप का द्वार भी है और कुछ हिस्सा यूरोप में आता है।



इस्तांबुल से बस यहाँ के प्रसिद्ध शहर कैपादोशिया के लिए चली तो रास्ते भर प्राकृतिक सौंदर्य के दर्शन होते रहे। यह जगह विश्व धरोहर है और यहाँ आकर टर्की के ऐतिहासिक खंडहर देखने से इसकी प्राचीन संस्कृति के दर्शन हो जाते हैं।


ज्वालामुखी प्रभावित क्षेत्र है और लगभग एक करोड़ साल से लेकर अब तक यह फटते रहते हैं, हालाँकि अब काफी कम हो गए हैं। इनसे निकला लावा अनेक धातुओं का मिश्रण है और उससे अनेक तरह की आकृतियाँ बन गयीं हैं। पत्थर की शिलाओं को देखकर आप अपनी कल्पना के मुताबिक उनका आकार सोच सकते हैं। इन्हें काल्पनिक चिमनियों का नाम दिया गया है। एक शिला विष्णु का आकार है तो दूसरी बुद्ध जैसी, तीसरी हैट पहने यूरोपियन की तो चौथी में महिला पुरुष एक दूसरे का चुम्बन लेते हुए लगते हैं।



यह चिमनियाँ घाटियों में दूर दूर तक फैली हैं और मनचाहा आकार दिखाई देने लगता है। कुछ आकार नदी और बरसात के पानी ने अपने मन से बना दिए हैं।
यहाँ पर छोटी और बड़ी गुफाओं से भरे क्षेत्र हैं। इनमें यात्री और व्यापारी ठहरते थे और इनका इस्तेमाल सराय की तरह होता था।


शहरों का आर्किटेक्चर बहुत सुंदर है लेकिन उलझन भरा भी है जिसे समझने के लिए वास्तुविद की जरूरत पड़ती है।
इस क्षेत्र में मृत्यु के बाद शव को गर्भ के शिशु के आकार में घर के फर्श में गाडे जाने की परंपरा थी। इस तरह के अवशेष मिले हैं जिनसे पता चलता है कि दुनिया की पहली ब्रेन सर्जरी यहाँ एक 20-25 साल की महिला की हुई थी।



इस पूरी घाटी में विभिन्न रंगों की छटा बिखरी है जो ज्वालामुखी फटने से निकले लावा से बनी है।
औटोमन पीरीयड में यह क्षेत्र सुख शांति से परिपूर्ण था। ईसाई सम्प्रदाय के लिए चर्च बनाए गए। कुछ मस्जिद और चर्च एक दूसरे से सटे हुए है और दोनों धर्मों के लोग बिना किसी भेदभाव और परेशानी के इनमें आते हैं।
यह देखकर मन में विचार आया कि क्या अयोध्या में बाबरी मस्जिद और राम मंदिर एक साथ एक दूसरे से सटे हुए नहीं बन सकते।इस इलाके में कुदरती तौर पर ऐतिहासिक और धार्मिक केंद्र बन गए हैं।



इन विशाल इमारतों में अंदर के कमरे चट्टान से अपने आप बन गए और उनमें आने जाने के लिए सीढ़ियाँ और सुरंग भी हैं। पहले जमाने में इनमें काफी चहल पहल रहा करती होगी पर अब सब जगह जाना मुमकिन नहीं है।
यहाँ नाग देवता की पूजा होती थी चित्रकारी अद्भुत है और मनमोहक भी।



गोरेम संग्रहालय घाटियों से घिरा एक विशाल क्षेत्र है इसकी खोज यूरोपियनों ने अठारहवीं शताब्दी में की और दुनिया के सामने एक अजूबे की तरह इसे सराहा गया। अनगिनत आकृतियाँ हैं चित्रकारी है और खूबसूरत कला का संगम हैं।



हमारे यहाँ अजंता एलोरा की गुफाएँ और खजुराहो की चित्रकारी की तुलना इनसे की जा सकती है।
इस्तांबुल शहर हमारे जैसे व्यस्त शहरों की तरह ही है। तकसिम चौराहा मशहूर है। यहाँ मिठाई की दुकान पर भारतीय व्यंजनों की तरह स्वादिष्ट मुकलावा मिलता है।



यहाँ से अगला पड़ाव ग्रीस की राजधानी ऐथेंस का था। यहाँ क्रूज पर ठहरना और समुद्र के रास्ते विभिन्न शहरों को देखना अच्छा अनुभव था।
ऐथेंस की एतिहासिक पहाड़ी और अथीना देवी इस क्षेत्र की रक्षक के रूप में मानी जाती हैं। उनकी प्रतिमा में पंख नहीं हैं। मान्यता है कि पंख न होने से देवी हमेशा यहीं रहेंगी और कभी छोड़कर नहीं जाएँगी।
एक शहर मयकोनोस है जिसकी इमारतें एकदम सफेद रंग की हैं।



यहाँ अनेक द्वीप हैं जिनमें आबादी बसी हुई है। संकरी गलियों और गलियारों से होते हुए ऊपर तक जाया जा सकता है जहाँ से समुद्र का नजारा बहुत ही आकर्षक दिखता है।
ऐसा ही एक द्वीप साँटोरिनी है जो काफी सुंदर है। यहाँ ज्वालामुखी के मुहाने तक जाया जा सकता है।
इतिहास और पुरातत्व की दृष्टि से तुर्की और ग्रीस दोनों ही महत्वपूर्ण हैं। इन सभी स्थानों पर जाने के लिए वहाँ की सरकारों ने पर्यटन को ध्यान में रखते हुए लगभग सभी प्रकार की सुविधाएँ प्रदान की हैं।



हमारे देश में भी ऐसे एक नहीं सैंकड़ों इलाके हैं जो इतिहास और पुरातत्व के नजरिए से बहुत ही आकर्षक हैं परंतु खेद है कि इनमें से ज्यादातर जगहों पर आने जाने की सुविधाओं का अभाव है जिसके कारण विदेशी ही नहीं देश के लोग भी वहाँ जाने से कतराते हैं।



उत्तर पूर्व हिमालय की कंदराएँ, लेह लद्दाख की घाटी, खजुराहो की गुफाएं और हिमालय पर्वत की रंग बिरंगी पर्वत श्रंखलाएँ इतनी खूबसूरत और मनमोहक हैं कि उन्हें निरंतर निहारते रहने पर भी थकान नहीं महसूस होती।
हमारे देश में यदि इन सभी स्थानों पर सुगम और सस्ती सेवाएँ प्रदान कर दी जाएँ तो हम भी विदेशियों को बहुत कुछ ऐसा दे सकते हैं जिसे वे कभी भूल नहीं पाएँगे।

शनिवार, 6 जुलाई 2019

रीति रिवाज और परम्पराओं का बदलना ही वक्त के साथ कदम मिलाकर चलना है








तनाव की पीड़ा 


अक्सर हर किसी को इस दुविधा का सामना करना पड़ता है कि वह स्थापित या परिवार और घर के मुखिया द्वारा बनाई परम्पराओं और रीति रिवाजों का पालन करे या नहीं, उन्हें छोड़ दे या उनसे चिपका रहे या फिर वो करे जो उसकी अपनी परिस्थितियाँ कहती हैं या उसका मन करता है जिसमें उसे परिवार से लेकर समाज तक के विरोध का सामना करना पड़ सकता है।


इस तरह वह एक ऐसे तनाव में जीने लगता है जिसमें अपने को असहाय समझने का दर्द तो होता ही है साथ ही डर का ऐसा तानाबाना अपने चारों ओर बुन लेता है जिसमें छटपटाहट, बेचौनी, बेबसी इतनी बढ़ जाती है कि डिप्रेशन में जीने लगता है और अपनी मानसिक शांति से लेकर सेहत तक का बँटाधार कर लेता है। मजे की बात यह कि इस अवस्था के लिए वह जिम्मेदार नहीं होता, बस एक प्रकार से ऐसे जुर्म की सजा भुगतने लगता है जो उसने किया ही नहीं होता।


एक उदाहरण से बात समझी जा सकती है। हमारे समाज में विभिन्न कानून होने के बावजूद एक बहुत बड़ी आबादी के बीच, विशेषकर ग्रामीण क्षेत्रों में यह परम्परा रही है और आज भी डंके की चोट पर चल रही है कि लड़का और लड़की के पाँच या आसपास की उम्र का हो जाने पर उनकी शादी तय कर दी जाए, तेरह से अठारह साल तक के होने पर उनकी शादी कर दी जाए, लेनदेन अर्थात दहेज की रस्म निबाह दी जाए और लड़की पर घर की सारी जिम्मेदारी और लड़के पर कुछ भी कैसे भी और कहीं से भी कमा कर लाने का हुक्म सुना दिया जाए और ऐसा न हो तो उनका चूल्हा चौका अलग करने की धमकी दे दी जाए।


यह कहा जा सकता है कि बाल विवाह, दहेज प्रथा रोकने के लिए कानून है जिसके जवाब में यह सुनने को मिले कि यह तो हमारे यहाँ की परम्परा है, घूँघट करना हमारा रिवाज है और लड़का हो या लड़की हमारी इजाजत के बिना न कोई फैसला ले सकते हैं और न ही हमारा हुक्म टाल सकते हैं, चाहे कानून कुछ भी कहे।


अब मुस्लिम समाज में तलाक को लेकर बने कानून की मुखालफत और मुस्लिम महिलाओं को खेलकूद, अभिनय जैसे करीयर अपनाने में रुकावट डालने से लेकर उनकी व्यक्तिगत जिंदगी के अहम फैसलों को भी परम्परा के नाम पर पुरुषों द्वारा तय करना यही बताता है कि कानून कुछ भी हो, वही होगा जो ये तय करेंगे और अगर किसी ने चीं चुपड़ की तो उसका हुक्का पानी बंद।

आज के तकनीक और टेक्नॉलजी पर आधारित तथा इंटर्नेट द्वारा संचालित युग में इस तरह की बातों का न तो कोई महत्व है और न ही परम्पराओं और रीति रिवाजों का दकियानूसी की हद पार करने के बाद उनका कुरीतियां बन जाने पर भी उन्हें ढोते रहने का क्या कोई मतलब रह जाता है?


अब होता यह है कि जो युवा इनके चंगुल में फँस जाते हैं और न तो उनमेंं इतना साहस होता है कि विरोध कर सकें और न ही इतने समर्थ होते हैं कि अपने पैरों पर खड़े हो सकें तो उनके सामने डिप्रेशन या तनाव को अपने ऊपर हावी होने देने के अलावा कोई चारा नहीं होता। जरूरी नहीं है यह हकीकत कम पढ़े लिखे, ग्रामीण समाज और समाज के वंचित तबके की ही हो। उनकी हालत तो दयनीय होती ही है पर यह उन समूहों में भी कम नहीं है जो अपने को शिक्षित, प्रोफेशनल और आधुनिक होने का दम भरते हैं।


इसका दुष्परिणाम यह होता है कि एक पूरी पीढ़ी गली सड़ी परम्पराओं और निरर्थक रीति रिवाजों के फेरे में पड़ी रहकर घुटन भरी जिंदगी जीने, नशे जैसी घातक आदतों से जकड़े जाने, क्रोध, हिंसा का शिकार बनने और आत्महत्या करने का रास्ता अपनाने के लिए मजबूर हो जाती है।


बापू गांधी की कोशिश 


हालाँकि हमारे देश में अनेक समाज सुधारकों ने इस हालत को बदलने के लिए आंदोलन और क्रांतिकारी कदम उठाए हैं और उनके प्रयासों से कुछ हद तक लगाम भी लगी है लेकिन सबसे अधिक दूरंदेंशी की बात न केवल करने बल्कि अपने व्यक्तिगत आचरण और व्यावहारिक उपायों से इन बुराइयों का निराकरण करने के सरल और सफल कदम उठाने की नींव बापू गांधी ने डाली। दुःख की बात यह रही कि हमारी सरकारों ने समय समय पर उनका नाम तो लिया लेकिन अमल या तो किया ही नहीं या फिर आधे अधूरे मन से काम चलाओ की नीति अपनाई। अगर ऐसा न होता तो आज भी सिर पर मैला ढोने, सीवर की गंदगी साफ करने, छुआछूत बरतने, झूठे आडंबर करने से लेकर बाल विवाह, भू्रण हत्या, धर्म और जाति के आधार पर सुविधाओं का बँटवारा करने की मानसिकता कभी की समाप्त हो चुकी होती और इस विचार को बल मिलता कि एक सभ्य समाज में इनका कोई अस्तित्व नहीं होना चाहिए।


बापू के अनुसार जब तक पर्याप्त जागरूकता और सुविधाओं का रूढ़ियों में जकड़े समाज तक पहुँचना सुनिश्चित नहीं होगा तब तक न कोई नियम न कोई कानून प्रभावी हो सकता है। यह कोई मुश्किल काम नहीं है, मिसाल के तौर पर यदि हमने शिक्षा को उन तक पहुँचाना है तो पहले वहाँ शिक्षा के साधन पहुँचाने होंगे। मान लीजिए कोई परिवार लड़के या लड़की को इसलिए स्कूल नहीं भेजता क्योंकि वह मजदूरी कर घर के खर्च चलाता है तो उतनी रकम उसके परिवार को सरकार की तरफ से मिलनी चाहिए जिससे परिवार की आमदनी की भरपाई हो सके और बच्चा मन लगाकर अपनी पढ़ाई कर सके।



बच्चों का स्कूल से गैरहाजिर रहना या मिड डे मील के वक्त ही स्कूल जाना और स्कूल में अध्यापकों का न होना इस बात का प्रमाण है कि इमारत तो बन गयी लेकिन उसमे ंपढ़ने और पढ़ाने वाले पहुँचे इसकी तरफ न सोचा और न कुछ किया।


शिक्षा ही ऐसा माध्यम है जो इस बात की समझ दे सकता है कि कौन सी परम्पराएँ और रीति रिवाज जिन्हें मानना चाहिए और किन्हें बदलना चाहिए या पूरी तरह खारिज कर देना चाहिए। बाल मजदूरी, बाल विवाह, दहेज जैसी कुप्रथाएं से निपटने का एक ही उपाय है कि सम्बंधित वर्ग का आर्थिक सशक्तिकरण किया जाए। यह तब ही हो सकता है जब इनके सामने शिक्षा प्राप्त करने के सभी दरवाजे खुले हों।


असल में दिक्कत यह है इन वर्गों के कल्याण का दावा करने वाली ज्यादातर राजनीतिक पार्टियाँ इन्हें अनपढ़ बनाए रखने, अपना वोट बैंक समझने और अपना पिछलग्गू बनाए रखने का ही काम करती रहीं हैं। लेकिन अब हालत बदल रही है जो एक अच्छा लक्षण है।


इसमें कोई दो राय नहीं हैं कि समाज की मुख्यधारा में इस विशाल आबादी जिसे गरीब कहा जाता है को अगर शामिल करना है तो ऐसे साधन उन तक सुलभ कराने होंगे जिनकी मदद से पिछड़ेपन के लिए जिम्मेदार पुरानी और निर्जीव हो चुकी परम्पराओं तथा रीति रिवाजों का होलिका दहन हो सके ताकि वे समझें कि इस देश की सम्पदा पर उनका भी हक है।


शिक्षा के बाद है स्वास्थ्य सम्बंधी पुरानी परम्पराओं से मुक्ति जैसे कि यह तय पंडित और मौलवी तय करें कि नवजात शिशु को माँ का दूध कब पीना है, बीमारी की अवस्था में झाडफूँक, ताबीज हो, डॉक्टर का इलाज, घर के मर्द ताड़ी पीकर खेत में पड़े रहें और माँ बीमार बच्चे को अस्पताल भी न ले जा सके क्योंकि परम्परा नहीं कहती कि औरत घर से बाहर जाए, इसी तरह की दूसरी बेड़ियाँ हैं जो केवल तब ही टूट सकती हैं जब सरकार अपनी सेवाओं को देने के लिए बनी इमारतों से बाहर निकलकर उस घर तक पहुँचे जहाँ इनकी जरूरत है।
स्कूल, प्राथमिक चिकित्सा केंद्र, अस्पताल तक पहुँचने का इंतजाम किए बिना केवल खातों में पैसा डालने से अपेक्षित बदलाव फिलहाल तो असम्भव है, ठीक उसी तरह जैसे कि परम्परा और रीति रिवाज का बदलाव तब तक नहीं हो सकता जब तक उसका विकल्प न हो। वर्तमान सरकार के सामने अपनी योग्यता सिद्ध करने का यही मापदंड है।


(भारत)