शुक्रवार, 26 जून 2020

भारत चीन विवाद गलवान घाटी और लद्दाख









यह सब ही जानते हैं कि भारत और चीन के बीच 1962 के युद्ध से दोनों शक्तियों के संबंध मित्रता के स्थान पर शत्रुता के हो गए थे। चीन ने इसकी शुरुआत उससे काफी पहले तिब्बत को हड़पने से कर दी थी और तिब्बतियों तथा दलाई लामा के साथ भारत के सहयोग ने चीन को हमारे साथ दुश्मनी करने की नींव डालने का काम किया था।

अक्टूबर 1962 में अपनी सीमा की रक्षा के लिए भारत तिब्बत सीमा पुलिस आईटीबीपी का गठन इसी प्रथम उद्देश्य को लेकर किया गया कि चीन की विस्तारवादी चालों को रोककर भारतीय क्षेत्र की सुरक्षा की जाय।

अद्भुत क्षमता का प्रदेश

लद्दाख को समझना हो तो यह प्रदेश देखने जाना होगा लेकिन यह प्रत्येक के लिए संभव नहीं है क्योंकि खतरनाक मौसम, ऑक्सीजन की कमी और दुर्गम रास्ते तथा बर्फ की ऐसी किस्म जो छूने भर से शरीर में सुराख कर दे, किसी के भी उत्साह पर पानी फेर सकते हैं।

इसी के साथ यह भारत का अकेला ऐसा प्रदेश है जो अगर ढंग से विकसित हो जाय तो स्विट्जरलैंड के बर्फीले प्रदेशों को भी मात दे सकता है जहां इसी सौंदर्य को देखने के लिए दुनिया भर से सैलानी आते हैं।

मुझे लद्दाख में लेह से लेकर चुशूल सीमा तक जाने का अवसर मिला है। उसके वर्णन से इस क्षेत्र को समझना आसान होगा।

आईटीबीपी के लिए इस क्षेत्र में उसकी कार्यविधि पर एक फिल्म बनानी थी। चलिए यहां की सैर के लिए आगे बढ़ते हैं।

लेह हवाई अड्डे पर अपनी टीम के साथ उतरने से पहले वायुयान से ही जो इस क्षेत्र का विहंगम दृश्य देखा तो अभूतपूर्व आश्चर्य और सौंदर्य का अनुभव हुआ। क्या  प्रकृति इतनी
कृपालु हो सकती है, यह सोचते हुए नीचे उतरना हुआ और वहां जो दिख रहा था उस पर से नजरें हट ही नहीं रहीं थीं।

आईटीबीपी के गेस्ट हाउस में आए तो हिदायत दी गई कि कुछ समय के लिए बाहर नहीं निकलना है क्योंकि शरीर को वहां के मौसम के अनुकूल बनाने के लिए यह जरूरी है। टीम के दो सदस्य चुपचाप अपनी उम्र के जोश में बाहर निकल गए तो तुरंत अधिकारियों ने चेतावनी दी कि इसका परिणाम उनके गंभीर रूप से बीमार होने से निकल सकता है। उन्हें तुरंत लौटने को कहा गया। लापरवाही के कारण बीमार होने का उदाहरण अगले दिन एक पूजा स्थल पर मिल गया जिसमें एक सैलानी दंपति को निर्देशों का उल्लघंन करने पर अपने 8-10 साल के बेटे और स्वयं अपनी जान जोखिम में आ जाने की घटना का सामना करना पड़ा।

शूटिंग पर जाने से पहले हम लोगों को मौसम से रक्षा के लिए भारी भरकम जैकेट दी गईं और कपड़ों की कई परतें पहननी पड़ीं,  फिर भी जो भी अंग जरा सा खुला रहा वह ठंड से ठिठुराने का अहसास दिलाता रहा।

आईटीबीपी के वाहन टाटा 407 पर सवार होकर लेह से चले।  जगह जगह रुकते हुए बॉर्डर तक जाना था। कुछ ही दूर जाने पर ही बर्फ के दर्शन होने लगे जिसे छूने से मना किया गया क्योंकि यह बर्फ एक तरह से ठोस सिल्ली की तरह न होकर भुरभुरी जैसी थी। इसे नंगे हाथ से छूने पर घाव हो सकते हैं जो खतरनाक है।

आज जो हम टीवी पर लद्दाख की सड़कें देखते हैं, तब उनका अस्तित्व न के बराबर था। सड़क तो थीं लेकिन पथरीली, बंजर और बहुत ही कष्ट दायक। जरा सोचिए, एक तरफ लटकती बर्फ से ढकी पहाड़ियां और दूसरी तरफ ज्यादातर इलाके में गहरी खाई जिसमें अगर फिसल गए तो किसी को पता भी न चले। इसके विपरीत ये दुर्गम ढलान इतने सुन्दर कि उन्हें गहराई तक देखने के लोभ से बचना कठिन। कभी दूर तक सपाट इलाका आ जाता तो लगता कि विशाल प्याले जैसी उसकी बनावट इतनी मनभावन कि जैसे प्रकृति ने कोई मनोरम चित्र बनाकर हमारे सामने रख दिया हो।

हमें हिदायतों के मुताबिक शूट करते हुए चुशूल सीमा तक पहुंचना था। यह कठिन रास्ता प्राकृतिक सौंदर्य का रसपान करने और दृश्यों को कैमरे में समेटने की लालसा से काफी आसान हो गया।

उस समय यह प्रदेश तो क्या पूरा लेह लद्दाख का अधिकतर क्षेत्र पेड़ पौधों और हरियाली से वंचित था। इसकी कमी वहां के विभिन्न रंगों की पर्वत श्रृंखलाएं पूरा कर रहीं थीं। ऐसे पहाड़ देश में तो क्या विदेशों में भी नहीं देखने को मिलेंगे जो इतने आकर्षक हों जैसे इस इलाके में हैं।

चीन की तैयारियां

चुशूल क्षेत्र में एक पहाड़ी पर तैनात आइटीबीपी की चैकी तक पहुंचे तो वहां से चीनी क्षेत्र साफ नजर आ रहा था। अपनी तैयारी के सामने उनकी जो तैयारियां देखीं तो लगा कि चीन जैसे किसी युद्ध के लिए साज और समान वहां जुटा रहा है जिसके सामने हम कहीं नहीं ठहरते। आधुनिक दूरबीन से देखने पर उनकी सड़कें और सैनिक टुकड़ियां तथा वहां किए गए विशाल निर्माण हमारा मुंह चिढ़ाते हुए से लगे।

यहां जो सीमा थी वह नदी की एक पतली धारा के दोनों ओर कांटेदार तारों से बनी थी।

चैकी से नीचे आए तो सीमा पर जैसे ही शूटिंग के लिए कैमरा लगाया कि लाउडस्पीकर से आवाज आई ‘नो शूटिंग, नो शूटिग, हिंदी चीनी भाई भाई।‘ इस क्षेत्र में दोनों देशों के बीच संधि के मुताबिक किसी भी तरह के शस्त्र ले जाने की मनाही थी लेकिन कैमरे तक पर पाबंदी है, यह जानकर आश्चर्य हुआ। कैमरा टीम को वापिस भेज दिया तब कहीं शांति हुई वरना अधिकारियों के मुताबिक किसी भी क्षण चीन की तरफ से गोलीबारी होने का अंदेशा था।

दुर्गम क्षेत्र के दुर्लभ क्षण

लौटते हुए शाम होने लगी थी और हमें वापिस पहुंचना था लेकिन तब ही हमारे वाहन में कुछ ऐसी खराबी आ गई कि वहां रात भर रुकने के अतिरिक्त कोई चारा न था। अंधेरे की चादर पसरने लगी थी और चारों ओर सुनसान में किसी और चीज का तो नहीं पर खराब मौसम का डर जरूर लग रहा था। अचानक कहीं दूर एक टिमटिमाती रोशनी दिखी तो हमारे साथ आए आईटीबीपी के अधिकारी ने भरोसा दिलाया कि अब डरने की कोई बात नहीं।

यह एक छोटी चैकी थी जिसमें सैनिक इस समय खाना आदि बना रहे थे। हम ऊंची पहाड़ी से अंधेरे में टॉर्च के सहारे किसी तरह उस चैकी तक पहुंचे और वहां उन सैनिकों को अपनी परेशानी बताई तो न केवल उन्होंने रात गुजारने का इंतजाम किया बल्कि हमारी टीम के खाने का बंदोबस्त भी और इसी के साथ उनकी और हमारी कहानियां सुनने और सुनाने का दौर देर रात तक चलता रहा। सोने से पहले वे कहने लगे कि अब वे हमारी कहानियों को आपस में ही दोहराते हुए अपना समय गुजारा करेंगे।

जरा सोचिए उस सैनिक की व्यथा जो एकांत में महीनों तक अकेलेपन के दौर से गुजरता है फिर भी चेहरे पर शिकन नहीं लाता। उसे अपने घर से अपनी ड्यूटी तक पहुंचने में उस समय कई कई दिन तक पैदल चलकर आना होता था। न अच्छी सड़क, न कोई वाहन या साधन, बस अपना सामान लादकर कैंप तक पहुंचना और वहां दिन रात अपने शरीर को मौसम की मार सहने के काबिल बनाए रखना होता था ताकि शत्रु पर निगाह रखने में हल्की सी भी चूक न होने पाए।


विडम्बना यह भी कि सैनिकों को जो जैकेट और जूते मिलते थे, वे बढ़िया क्वालिटी के न होने पर सैनिकों की रक्षा करने में असमर्थ थे। बहुत कोशिशों के बाद उन्हें अच्छी क्वालिटी की इंपोर्ट की गई सामग्री मिलनी शुरू हुई। हालांकि बड़े अधिकारियों और अतिथियों के लिए यह सामग्री पहले से इंपोर्ट की जाती रही थी।

एक सैनिक ने इसके लिए आईटीबीपी के एक महा निदेशक जोगिंदर सिंह का आभार प्रकट किया जिनके आदेश से उन्हें यह जीवनरक्षक सामग्री मिलनी शुरू हुई। जब दिल्ली में उनसे इस घटना की चर्चा हुई तो उनका अपने सैनिकों के प्रति आदर और सरकारी लालफीताशाही के लिए क्रोध साफ दिख रहा था। कदाचित  आज ऐसे ही अधिकारियों के प्रयासों से लद्दाख में तैनात सैनिक शत्रु को सबक सिखाने के योग्य हुए हैं।

इस चैकी से सैनिकों से विदाई लेने से पहले एक और घटना का जिक्र जरूरी है जो सरकार की उदासीनता का उदाहरण है। प्रातः काल जब शौच के लिए बाहर आए तो सामने एक बांस की खपच्ची को टाट से लपेटकर बने शौचालय में निवृत्त होना पड़ा। यह न केवल अमानवीय था बल्कि एक सैनिक का अपमान भी था। आज की स्थिति क्या है, इसके बारे में तो ज्ञात नहीं पर उस समय यह देखकर दुःख बहुत हुआ। यह दुःख तब और ज्यादा लगा जब अधिकारियों के कैंप के बढ़िया शौचालय देखने को मिले।

लौटते हुए रास्ते में घोड़े, गधे और यहां पाए जाने वाले पशु कियांग के झुंड देखने को मिले। सपाट मैदान और इन पशुओं को हांकते यहां के निवासी। आसपास के गांव और उनमें रहने वाले लद्दाखी वास्तव में प्रशंसनीय हैं क्योंकि ये हर हाल में खुश रहने वाले लोगों में आते हैं। यहां तक सरकारी योजनाओं का लाभ आसानी से नहीं पहुंच पाता लेकिन इस समय जो सांसद है, वे इस क्षेत्र का सुनियोजित और पूर्ण विकास करने के लिए प्रतिबद्ध हैं।

यह वृतांत प्रस्तुत करने का मकसद पाठकों को इस क्षेत्र की महत्ता, यहां का प्राकृतिक सौंदर्य और हमारी तैयारियों से रूबरू कराना है। इसमें कोई संदेह नहीं कि वर्तमान में हम भली भांति तैयार हैं और सैन्य दृष्टि से शत्रु से किसी भी प्रकार से कम नहीं है लेकिन फिर भी इतना तो कहना ही होगा कि यदि इस क्षेत्र का विकास सुनियोजित तरीके से किया जाता तो न केवल शत्रु का भय नहीं रहता बल्कि पर्यटन और आवागमन का यह अंतरराष्ट्रीय केंद्र होता।

पिछले कुछ वर्षों में इसकी जितनी कायापलट हुई है, अगर उससे पहले भी इस तरह के प्रयास होते तो किसी की हमारी जमीन की तरफ टेढ़ी नजर से देखने की कतई हिम्मत नहीं होती।

इस कहानी को अगले स्तंभ में भी जारी रखा जाएगा और कुछ ऐसे रहस्यों तथा जानकारियों से परिचित कराया जाएगा जो पाठकों के लिए ज्ञान और मनोरंजन का साधन होंगी।


भारत

शुक्रवार, 19 जून 2020

तनाव में शरीर की नहीं, उलझनों की हत्या कीजिए








हमारे देश में ही क्यों, दुनिया भर में ऐसा व्यक्ति शायद ही मिले जिसने जीवन के किसी मोड़ पर तनाव, अवसाद, निराशा की अवस्था में आत्मघात यानी अपनी हत्या करने के बारे में कभी न सोचा हो। हो सकता है किसी की कहानी या उसकी परेशानी सामने न आई हो पर यह सच है कि अगर जीवन है तो उसमें उतार चढ़ाव भी आयेंगे, हल्के, मंदे और अच्छे दिन भी देखने को मिलेंगे, अपने मन की न होने की घटनाएं भी होंगी और कभी कोई ऐसी बात भी होगी कि लगे कि अब और नहीं जीना!

हिटलर से हार बर्दाश्त नहीं हुई तो उसने अपने को गोली मार ली। चर्चिल, लिंकन, मार्टिन लूथर किंग से लेकर और भी न जाने विश्व की कितनी हस्तियां आत्महत्या के दरवाजे तक जाकर लौट आईं होंगी और उन्होंने खुद को मारने के बजाय अपनी उलझनों को खत्म करने या कहें कि अपने अतीत की हत्या करने को बेहतर समझा होगा।

शायद इसीलिए अदालतें भी जीने के अधिकार की तरह मरने की ख्वाहिश या अधिकार को मानने लगी हैं। अगर कोई जीना नहीं चाहता तो उसे मरने देने में क्या हर्ज है? लेकिन यहीं यह भी सच है कि मरना हो या जीना, दोनों में से एक भी आसान बात नहीं है, जहां जीने के लिए हिम्मत और साधन चाहिए वहीं मरने के लिए भी ये ही दोनों चीजें चाहिएं, और कुछ नहीं !

भावनाओं का खेल

अक्सर देखा गया है कि जो लोग भावुक होते हैं या ऐसे पेशे से जुड़े होते हैं जिनमें अपनी या किसी दूसरे की भावनाओं को व्यक्त करना होता है तो उनके लिए कभी कभी यह भेद समझना कठिन हो जाता है कि जो वे कर रहे हैं, कहीं वह ही तो सच नहीं और जो वे स्वयं हैं, उसका कोई अस्तित्व ही नहीं है।

इन लोगों में अधिकतर वे लोग आते हैं जो अपने अभिनय, पेंटिंग, शिल्प या मूर्तियां गढ़ने के लिए विख्यात हैं। जब तक वे अपने काम को एक असाइनमेंट की तरह लेते हैं, तब तक तो ठीक रहता है, लेकिन जैसे ही उन्होंने उससे अपने स्वयं के व्यक्तित्व को जोड़ लिया तो वे अपने पात्र या अपनी बनाई कलाकृति की तरह सोचने लगते हैं, मतलब कि उसे अपने ऊपर सवारी करने देते हैं और तब वह इस तरह का व्यवहार करते हैं जो उनका खुद का नहीं उस रचना का होता है, जिसका निर्माण करने में उन्होंने अग्रणी और महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है।

अगर यह मनस्थिति लंबे समय तक रही तो उसके परिणाम दोहरे व्यक्तित्व को ढोने की तरह निकलते हैं और अगर ध्यान न दिया तो इसका नतीजा आत्मघाती हो जाता है।

ऐसे लोग जिन्हें हम कलाकार, लेखक, गायक, नर्तक, शिल्पी आदि के नाम से जानते हैं, उनकी नियति यही है कि जो करो, उसमे लिप्त न होकर उसे केवल एक असाइनमेंट की तरह लें और ऐसा होने पर वे उन लोगों की लीला को भी समझ लेंगे जो उनका शोषण या उनकी भावुकता का फायदा उठाते हुए या उनकी हैसियत के कम होने की हालत में उन पर अपने दबदबे के कारण हावी होना चाहते हैं। इन्हें हम मगरमच्छ की संज्ञा दे सकते हैं जो किसी की जरा सी कमजोरी का फायदा उठाने में कभी पीछे नहीं रहते।

समझौता या सामना

जिन्दगी की दौड़ में न चाहते हुए भी ऐसी स्थितियां आती ही हैं जिनमें या तो यह चुनना होता है कि जो भी काम हम कर रहे हैं, चाहे नौकरी हो या अपना व्यवसाय, उसमें किसी तरह का दबाव, धमकी या नुकसान होता दीख रहा हो तो अपने सामने सिर्फ दो विकल्प होने पर किसे चुनें एक या तो हालात से या उनके लिए जिम्मेदार व्यक्ति से समझौता कर लिया जाय  या दूसरा यह कि ताल ठोककर सामना करने के लिए तैयार हो जाया जाए।

इसे एक कहानी के जरिए समझते हैं। एक व्यक्ति है जिसका नाम मान लीजिए कि श्याम लाल है। वह एक सरकारी अथवा प्राइवेट, एक ऐसे दफ्तर में काम करता है जिसमें बाहरी लोगों यानी पब्लिक से संपर्क करना पड़ता है यानी अधिकारी और जनता का रिश्ता है।

श्याम लाल अपने काम में माहिर है, वह नियमानुसार काम करता है और फैसला लेता है ताकि उसकी तरफ से न तो किसी को कोई परेशानी हो और न ही किसी के साथ ढील या नरमी बरतने का आक्षेप उस पर लगाया जा सके।

श्याम लाल का बॉस रामसिंह है जो एक तरफ अपनी सख्त मिजाजी के लिए जाना जाता है तो दूसरी तरफ वह अपने से ऊपर के अधिकारियों को खुश करने या अपनी कुछ अतिरिक्त कमाई के लिए मौकों की तलाश में रहता है। मतलब वह शातिर दिमाग है और इस जुगत में रहता है कि वह अगर कुछ गड़बड़ी भी करे तो उस पर दोष न आए और जरूरत पड़ने पर वह इसके लिए अपने किसी मातहत पर इस सब का ठीकरा फोड़ सके, अर्थात वह तो साफ बच जाए और कोई दूसरा फैंस जाए।

राम सिंह अपने फायदे के लिए श्याम लाल पर दबाव डालता है कि वह उसके कहे अनुसार काम करे और नियमों की परवाह न करते हुए उसके मुंह जबानी आदेशों का पालन करे।

राम सिंह के सामने दो रास्ते हैं, एक यह कि वह अपने दिल और दिमाग को गलत काम करने के लिए मना कर अपने बॉस के कहे अनुसार कार्यवाही करे और दूसरा यह कि बॉस  का कोपभजन बने। वह यह देखता है कि उसके साथ काम करने वाले भी बॉस की सख्ती और दबदबे के कारण उसकी बात मान लेने में ही अपनी भलाई समझते हैं। उसके सामने सांप छछूंदर जैसी स्थिति हो जाती है कि न निगलते बने और न ही उगलते ही बने।

वह घर आता है और अपनी विवशता पर चीख चीख कर रोता है, निराशा और तनाव इतना है कि जिंदगी बोझ लगने लगती है, वह परिवार वाला है, अपनी जिम्मेदारियों को भी समझता है लेकिन साथ ही गलत काम कर जीवन भर डरते हुए जीना भी नहीं चाहता। कशमकश इतनी है कि मन में उलझन का कोई तोड़ नहीं मिलता और उसकी हालत शरीर और दिमाग दोनों ही तरफ से टूटने जैसी हो जाती है।

वह पार्क में बैठता है, बाजार में बेमतलब घूमता रहता है और फिर बिना कुछ सोचे नदी की तरफ निकल जाता है। नदी को बहते देखता है तो सोचता है कि इसके साथ ही बह जाए लेकिन तब ही उसकी उलझन के सुलझने जैसा एक झटका उसे लगता है। वह सोचता है कि इस तरह तो रामसिंह जीत जाएगा और वह हार जाएगा। वह निर्णय करता है कि हारेगा नहीं बल्कि रामसिंह का सामना करेगा।

निर्णायक कदम

अगले दिन श्याम लाल अपने बॉस राम सिंह का सामना करते हुए उसके कहे मुताबिक और नियमों के विरुद्ध कुछ भी करने से इंकार कर देता है। परिणाम उसकी गोपनीय रिपोर्ट के खराब कर दिए जाने, पब्लिक से रिश्वत लेने, अपने पद का दुरुपयोग करने और आगे बढ़ने के सभी रास्ते बंद हो जाने के रूप मै निकलता है।

राम सिंह यहीं नहीं रुका, वह उसे सबके सामने अपमानित करने से नहीं चूकता और उसका मानसिक संतुलन बिगाड़ने का कोई मौका नहीं जाने देता। ऐसी ही एक अवस्था में श्याम लाल सब कुछ भूलकर राम सिंह का गला पकड़कर ऐसा दांव लगाता है कि वह जमीन पर धराशाई हो जाता है।

इसके बाद श्याम लाल अपने विभागाध्यक्ष के पास जाकर रामसिंह को पटकने की बात और उसका कारण भी विस्तार से बता देता है। वह वहां से वापिस आ रहा होता है तो उसे रामसिंह अंदर कमरे में जाता दिखाई देता है।

विभागीय जांच में श्याम लाल निर्दोष और रामसिंह के काले कारनामों का पर्दाफाश हो जाता है। श्याम लाल को एक नसीहत मिलती है  और राम सिंह को जेल हो जाती है।
यह कहानी यहीं तक है लेकिन इसे अन्याय के सामने न झुकने की मिसाल और अपनी उलझन के सुलझने और आत्महत्या की प्रवृत्ति के खिलाफ एक उदाहरण के रूप में तो रखा ही जा सकता है !


अब प्रश्न यह है कि श्याम लाल क्या अपने वर्तमान पद पर रहे, कोई दूसरी नौकरी या व्यवसाय कर ले या इतनी बड़ी दुनिया में अपने लिए कोई नई जगह तलाश करे जहां शोषण न होता हो, ईमानदारी से सब काम होता हो और मेहनत का पूरा मुआवजा मिलता हो ? जरा सोचिए और चिंतन कीजिए कि यदि किसी के सामने समझौता करने और सामना करने में से एक को चुनना हो तो किसे चुना जाएगा ! जरा सोचिए ?

अंत में

विश्व योग दिवस के अवसर पर कुछ ऐसे आसन या क्रियाएं सीख कर उन की प्रैक्टिस करना शुरू कर सकते हैं, जिनसे तनाव, नकारात्मक विचार, निराशा और आत्मघाती सोच का इलाज हो सकता है। इसके अतिरिक्त अतीत को ढोते रहना या भविष्य के बारे में सोच कर अपना वर्तमान खराब कर लेने में कोई समझदारी नहीं है।


भारत

शुक्रवार, 12 जून 2020

कृषि सुधार या किसान के लिए दूर के ढोल सुहावने










कोरोना की महामारी के दौरान सरकार द्वारा खेतीबाड़ी के क्षेत्र में जो अध्यादेश के माध्यम से नए कानून लाए गए हैं उनके बारे में यह शंका करना नितांत गलत भी नहीं है कि इनसे अन्नदाता की पहले से खराब आर्थिक सेहत का कोई उपचार नहीं  होने वाला है बल्कि यह उन्हें और अधिक असहाय और कमजोर करने वाला है और इसका फायदा केवल उन्हें मिल सकेगा जो पहले से ही अमीर किसान हैं तथा सभी प्रकार से साधन सम्पन्न हैं।

जिनके  पास पैसे और डंडे दोनों की ताकत है जिसके बल पर वे छोटे और मझौले किसान तक को अपनी शर्तो पर खेती करने और उपज बेचने के लिए विवश कर सकते हैं, यह कानून उनके लिए ही फायदेमंद है, यह शंका निर्मूल नहीं है।


बंधुआ खेती की शुरुआत

अभी तक बंधुआ मजदूर और खेतिहर कामगार की बात कही सुनी जाती थी लेकिन अब इस कानून से यह डर पैदा हो गया है कि कहीं पूरी की पूरी खेतीबाड़ी ही  बंधुआ तो नहीं हो जाएगी।

इस शंका के अनेक कारण हैं जिन पर सरकार और किसान संगठनों को मिलकर कोई नीति बनानी होगी जिससे यह डर किसान के मन से निकल सके कि खेती तो वह करे लेकिन उसकी कीमत का फैसला कोई और करे जो अपनी ताकत और दबंगई से किसान को सदियों से घुटने टेकने के लिए मजबूर करता रहा है।


सबसे पहला डर तो यह है कि हमारे तीन चैथाई के लगभग किसान अनपढ़ या मामूली पढ़े लिखे हैं, उनके बच्चों को भी वह सब तो पढ़ने को मिला जो उन्हें शहर तक पहुंचा सके लेकिन उन्नत खेतीबाड़ी कैसे हो, विज्ञान और प्रौद्योगिकी का इस्तेमाल खेती करने के काम में कैसे होता है,  वह अपनी फसल की सुरक्षा कैसे कर सकते हैं या फिर उपज के अच्छे दाम कहां मिल सकते हैं, यह सब उन्हें पढ़ाया ही नहीं गया और वे क्या पढ़ते या क्या नहीं पढ़ते और कौन पढ़ाता, जबकि गांव के विद्यार्थियों के लिए कोई खेतीबाड़ी से जुड़ा सिलेबस ही आज तक नहीं बन पाया तो फिर पढ़ाने वाले भी कहां से आते। जो कुछेक कोर्स हैं भी तो वे इतने उबाऊ हैं कि कोई पढ़ना नहीं चाहता, हां केवल डिग्री मिल जाए और किसी कृषि संस्थान में नौकर हो जाएं, उससे अधिक इन पाठ्यक्रमों का कोई महत्व ही नहीं है।


दूसरा डर यह है कि सरकार की तरफ से गांव देहात में कोई ऐसी मशीनरी यानी इंफ्रास्ट्रक्चर या ढांचा ही बना कर किसान को नहीं दिया गया जो सटीक और लाभकारी जानकारी तथा वास्तविकता का ज्ञान उसे करा सके। केवल हाथ में मोबाइल और इंटरनेट से मनोरंजन की सुविधा देने से ही कुछ नहीं होता।


कृषि सूचना केंद्र या ऐसे ही नाम के लिए बनाई गई इकाइयों की दुर्दशा की बात न ही की जाय तो बेहतर है। ये सब निकम्मों को रोजगार देने और निठल्लों की आवारागर्दी की जगहें हैं, किसी भी केंद्र में जाकर देख लीजिए, हकीकत यही मिलेगी।


तीसरा डर यह है कि अब कॉरपोरेट घरानों और मंडियों के दलालों द्वारा  मिलकर किसान के अज्ञान और उसके पास बाजार की सही जानकारी का अभाव होने का फायदा उठाने का दौर शुरू हो सकता है।


किसान की गरीबी, उसकी कमजोर आर्थिक स्थिति तथा परिवार के सदस्यों के बीच बिखराव होने का लाभ ये कंपनियां पूरी तरह उठाएंगी क्योंकि यह शुद्ध मुनाफे के सिद्धांत पर काम करती है, उनका किसान की भलाई से न कोई लेना देना होता है और न वे उसके प्रति कोई सहानुभूति रखती हैं, इसलिए अपने ही नियम कायदों के अनुसार किसान को बंधुआ खेती करने के कॉन्ट्रैक्ट, एग्रीमेंट या समझौते पर अंगूठा लगाने या दस्तखत करने के लिए मना ही लेंगी।


इस बंधुआ खेती में पसीना तो किसान का बहेगा और हालांकि उसका मुआवजा उसे मिलेगा  लेकिन खेत की पैदावार और उसके मुनाफे पर उसका कोई अधिकार नहीं होगा। इस तरह के समझौते कुछ महीनों के न होकर दसियों वर्ष के होंगे, उसे बस एकमुश्त रकम मिल जाएगी जिससे बेशक वह परिवार के पालन पोषण की चिंता से मुक्त हो जाएगा लेकिन तरक्की करने, अधिक पैसा कमाने या कोई बड़ा सपना देखने की हिम्मत वह कभी नहीं जुटा पाएगा।


इसका एक बड़ा कारण यह है कि किसान के लिए बिजली, बीज, कीटनाशक, खाद और जरूरी उपकरण बहुत महंगे साबित होते हैं जिनके लिए वह कर्जा लेता है और ब्याज की किश्त तो भर देता है लेकिन कभी मूलधन नहीं चुका पाता और फिर कर्ज के माफ कर दिए जाने का इंतजार करता है। ऐसे में वह यही बेहतर समझेगा कि इन घरानों के हाथ ही अपने को गिरवी रख दिया जाय।


कृषि उद्यमियों के लिए अवसर

अपने आप में यह नए कानून कोई ज्यादा खराब नहीं हैं बल्कि एक तरह से
कृषि सुधारों को ध्यान में रखते हुए साहसिक कदम हैं। इनसे मंडियों का वर्चस्व और उनके जरिए नेतागिरी और राजनीतिक दलों की दखलंदाजी पर लगाम लग सकेगी। अभी तो यह मंडियां यानी एपीएमसी नेताओं का अखाड़ा और किसान की मजबूरी का कारण  बनी हुई हैं।

इन कानूनों से जहां कॉरपोरेट घरानों का प्रवेश कृषि क्षेत्र में होने से धन और साधनों की कमी नहीं रहेगी, वहां खेतीबाड़ी और उससे जुड़े व्यवसायों में नए उद्यमियों को अपनी किस्मत आजमाने का मौका भी मिल सकेगा।

शहरों के पढ़े लिखे युवा और जिनकी जड़े गांव देहात में हैं, वे कृषि और ग्रामीण उद्योग के क्षेत्र में अपनी योग्यता के बल पर ऐसी इकाईयां खोल सकते हैं जिनकी सबसे ज्यादा जरूरत हमारे किसानों और ग्रामवासियों को है।

इनमें हॉर्टिकलचर, हर्बल, ऑर्गेनिक खेती और थोड़ी जमीन और कम समय में पैदा होनेवाली मुनाफे वाली फसलों का उत्पादन किया जा सकता है जिनकी मार्केट बहुत तेजी से बढ़ रही है और उनकी कमी होने से विदेशों से आयात करना पड़ता है।

नए उद्यमियों के लिए कोल्ड स्टोरेज, भंडारण के आधुनिक तकनीक पर आधारित उपकरण और प्रोसेसिंग प्लांट लगाने की भारी संभावनाएं हैं। एक जिला, एक उपज के आधार पर प्रोसेसिंग इकाइयों का वर्गीकरण किया जा सकता है।

सरकार ने यह सोचकर ही तय किया होगा कि ऋण लेने से लेकर खरीद और मार्केटिंग का इंतजाम करने से और कृषि क्षेत्र में युवाशक्ति की रुचि बढ़ाकर ही खेतीबाड़ी और उससे जुड़े काम धंधों में देश विश्व में एक अग्रणी ताकत बन सकता है।

यह समय अपने व्यवसाय बदलने का भी है क्योंकि इस महामारी ने जिन काम धंधों को चैपट कर दिया है, उन्हें छोड़कर कोई नया काम अर्थात उद्यम शुरू करने में ही समझदारी है क्योंकि उद्यमशील व्यक्ति के लिए किसी भी मुसीबत से बाहर निकलना हमेशा संभव है। 

(भारत)


शुक्रवार, 5 जून 2020

पर्यावरण सुरक्षा के लिए जरूरी जनसंख्या नियंत्रण







सन् 1974 से प्रत्येक वर्ष पांच जून को विश्व पर्यावरण दिवस मनाया जाता है और इसके लिए बहुत सोच समझ कर एक थीम चुना जाता है जिस पर पूरे साल काम किया जाता है। इस साल का थीम है कि हमारी जो बायो डायवर्सिटी यानी जैव विविधता है, उसकी रक्षा की जाए ताकि प्रकृति के साथ मेल मिलाप रखते हुए और संतुलन बिठाकर मानव की सुरक्षा निश्चित की जा सके।

यह जैव विविधता क्या है, और कुछ नहीं कुदरत ने जो हमारी सुविधा और जीवन यापन करने के लिए प्राकृतिक खजानों का भंडार विभिन्न रूपों में दिया है, बस वही है। यह अनमोल वस्तुएं हमारे चारों ओर जल, जंगल, जमीन, पर्वत के रूप में बिखरी पड़ी हैं। अब यह मनुष्य की सोच है कि वह इनका उपयोग कैसे करता है। वह सोने का अंडा देने वाली मुर्गी से हर रोज एक अंडा लेना चाहता है या एक साथ सारे अंडे लेने के लालच में मुर्गी को ही हलाल कर देता है। इसे अपने पैरों पर स्वयं कुल्हाड़ी मारना भी कह सकते हैं।

महामारी का प्रसाद

जहां एक ओर कोविड की विश्व व्यापी बीमारी ने प्रत्येक व्यक्ति का जीवन जोखिम में डाल दिया है, उसे घर में ही रहने को मजबूर कर दिया है और वह भी दो चार दिन नहीं, महीनों तक के लिए, क्या दफ्तर, क्या उद्योग और कल कारखाने, सब कुछ बंद कर दिए, वहां दूसरी ओर इसका एक फायदा यह भी हुआ है कि जिन कुदरती संसाधनों के साथ हम खिलवाड़ करते रहे उन्हें फिर से अपने मौलिक स्वरूप में लौटने का अवसर भी मिला है।

साफ आसमान, सांस लेने को शुद्ध वायु, नदियों में शीतल, स्वच्छ जल की धारा, पर्वतों पर हरियाली और जंगलों में पेड़ पौधों और वनस्पतियों का पोषण इन दिनों बिना किसी मानवीय हस्तक्षेप या दोहन के हो रहा है।

इसी के साथ यह चेतावनी भी कि यदि जरूरत से ज्यादा प्राकृतिक संसाधनों का दोहन फिर से करना शुरू कर दिया तो उसके परिणाम  भयंकर होंगे। कोलकाता में डॉल्फिन तीस साल बाद दिखाई दी, हरिद्वार में गंगा का जल निर्मल हो गया, कांगड़ा से हिमालय पर्वत अपनी धौलाधार श्रृंखला से साफ नजर आने लगा, समुद्र में जीव स्पष्टता से दिखाई देने लगे। एक तरह से भारत ही नहीं, पूरी दुनिया का  कायाकल्प हो गया।

दुरुपयोग करना मजबूरी है

यह कहना न केवल बहुत आसान है बल्कि एक तरह से प्रवचन या उपदेश देने जैसा है कि मनुष्य जल हो या जंगल उनका संरक्षण करे, नदियों में औद्योगिक रसायन प्रवाहित कर उन्हें प्रदूषित और जहरीला न बनाए, वन विनाश न करे और वनस्पतियों का संरक्षण करते हुए जैव विविधता को बनाए रखे।

अब क्योंकि यह संभव नहीं है, इसलिए चाहे जितने कानून बन जाएं, कितनी भी पाबंदियां लगा दी जाएं, प्राकृतिक संसाधनों का गलत इस्तेमाल करना जारी रहता है जो खुलकर न सही, चोरी छिपे होता है और इसमें किसी के लिए भी कुछ करना असंभव है।

आबादी की जरूरतें और समस्या

अगर हमें अपनी आबादी का भरण पोषण करना है तो जल, जंगल, जमीन और पर्वतों का शोषण किए बिना यह मुमकिन नहीं है क्योंकि जिस गति से हमारी जनसंख्या बढ़ रही है उसकी जरूरतों को पूरा करने के लिए यह आवश्यक है कि इन प्राकृतिक संसाधनों का जितना भी संभव हो, उतना ही नहीं बल्कि उससे अधिक ही हम उनका दोहन करें। अब इससे हमारा इको सिस्टम बिगड़ता है, संतुलन गड़बड़ा जाता है तो उससे कोई फर्क नहीं पड़ता क्योंकि हमारी आबादी इतनी अधिक है कि उसकी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए यह जरूरी है।

अगर रहने को घर चाहिए तो लकड़ी के लिए जंगल काटेंगे ही, भवन निर्माण सामग्री के लिए उद्योग भी लगेंगे  और प्रदूषण न हो, यह संभव नहीं। आवागमन के साधन तैयार करने के लिए भी प्राकृतिक साधन चाहिएं। खाने पीने की चीजें हों या पहनने ओढ़ने के लिए वस्त्र, इन सब के लिए कृषि उत्पाद और प्रोसेसिंग कारखाने भी जरूरी हो जाते हैं।

आधुनिक जीवन शैली के लिए जो भी जरूरी है वह सब प्राप्त करना है तो औद्योगिक क्षेत्र में नए कीर्तिमान स्थापित करने वाले उद्योग लगाने होंगे, अब इनसे प्रदूषण बढ़ता है तो उसे टेक्नोलॉजी के  इस्तेमाल से नियंत्रित तो किया जा सकता है लेकिन रोका नहीं जा सकता।

आज संसार में जितने भी विकसित देश हैं उन्होंने यह समझ लिया था कि अगर आबादी की रोकथाम नहीं की गई तो विकास की ऊंचाइयां हासिल करना असम्भव है। सबसे बड़ी आबादी वाले चीन ने भी इस बात को समझ लिया था और उसने भी जनसंख्या को नियंत्रित करने के उपाय कर लिए थे।

भारत के लिए अपनी विकास यात्रा को किसी मुकाम पर पहुंचने के लिए जरूरी है कि आबादी को बेलगाम बढ़ने से रोकने के तरीके अपनाए जाएं और इसके लिए कानून का सहारा भी लिया जाए तो कोई बुराई नहीं है।

पर्यावरण सुरक्षा

इस बार पर्यावरण वर्ष मनाने के लिए जर्मनी के सहयोग से कोलंबिया क्षेत्र को चुना गया है। यह स्थान अपने वनों, वनसंपदा और वन्य जीवों के लिए प्रसिद्ध है। आधुनिक साधनों जैसे कि मानव रहित यान, ड्रोन और आधुनिक संयंत्रों के इस्तेमाल से इस इलाके की जैव विविधता का अध्ययन किया जाएगा ताकि उससे मानव को किस प्रकार लाभान्वित किया जा सके।

जहां तक हमारी बात है,  देश में प्राकृतिक रूप से वे सब संसाधन उपलब्ध हैं जो हमें विश्व का सिरमौर बना सकते हैं। हमारी जड़ी बूटियां, वनस्पतियां, औषधीय गुणों से युक्त पेड़ पौधे और हिमालय पर्वत की विभिन्न श्रृंखलाओं में समाई वनसम्पदा दुनिया में और किसी स्थान पर नहीं है।

यह विडम्बना ही नहीं दुर्भाग्य भी है कि हम अपने अनमोल खजाने का या तो अंधाधुंध दोहन कर रहे है या फिर उसकी स्मगलिंग करा रहे हैं। यदि इसे रोका जा सके तो इस पर्यावरण वर्ष में देश पर यह उपकार होगा और देशवासियों का जीवन समृद्ध होगा। इसी के साथ वन्य जीवों के संरक्षण और संवर्धन के लिए उचित उपाय किए जा सकें तो यह सोने पर सुहागा होगा।

(भारत)