शुक्रवार, 31 जनवरी 2020

इतिहास जब अपने को दोहराता है











यह स्वाभाविक है कि जब समाज में कोई ऐसी घटना होती है जो चिंता पैदा करने वाली हो, दिल और दिमाग को झकझोर देने वाली हो और देशवासियों को सोच में डाल दे कि क्या अब यही देखना बाकी था तो हम उसकी तुलना करने के लिए इतिहास में घटी ऐसी घटना खोजने लगते हैं जो इस जैसी हो या इसकी तुलना उससे की जा सकती हो।


बगावत या विरोध 

यह संयोग ही है कि इन दिनों देश में हो रही कुछेक घटनाएँ स्वतंत्रता आंदोलन के समय घटी वैसी ही घटनाओं की पुनरावृत्ति कही जा सकती है।
एक उदाहरण है: पंजाब केसरी लाला लाजपत राय का जन्म 28 जनवरी को हुआ था और यह उनकी 155वीं वर्षगाँठ थी जो अनेक समारोहों, सरकारी और गैर सरकारी, दोनों में ही मनाई गयी और उनकी स्मृति में उनके कार्यों का उल्लेख किया गया। 


लाला लाजपत राय जहाँ स्वदेशी आंदोलन के प्रवर्तकों में थे, वहीं बालगंगाधर तिलक के नारे ‘स्वराज मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है‘ के अलमबरदारों में भी थे। जब साइमन कमीशन, जिसके सभी सदस्य अंग्रेज थे और वह भारतवासियों के लिए संविधान की बात करने आए थे जो जाहिर है कि उसका विरोध होना ही था।



 लाला जी ने उसका इतना जबरदस्त विरोध किया और इसके लिए अभूतपूर्व आंदोलन का नेतृत्व किया कि अंग्रेजी शासन को लाठी चार्ज करना पड़ा और लाला जी को गम्भीर चोटें आईं। उन्होंने सरकार को चेतावनी दी कि उनके शरीर की हरेक चोट अंग्रेजी हुकूमत के कफन की कील साबित होगी।



लाला जी ने एक और नारा लगाया था कि ‘साइमन गो बैक, वापिस जाओ‘। अब देखिए कुछ वैसी ही परिस्थितियों में संविधान संशोधन विधेयक को लेकर दिल्ली के शाहीन्  बाग मे इस कानून को वापिस लेने के लिए आंदोलन कर रहे प्रदर्शनकारियों ने कुछ पत्रकारों और सत्तारूढ़ लोगों के लिए यही नारा लगाया ‘गो बैक, वापिस जाओ‘। इसके बाद केरल विधान सभा स.त्र के शुरू होने पर राज्यपाल के भाषण पर भी यह नारा वहाँ के विधायकों ने लगाया ।


यह शायद किसी के लिए भी बताना संभव नहीं है कि राज्यपाल के लिए यह नारा क्यों लगाया जा रहा है क्यंूकि वह तो अपने ही हैं। इसी तरह शाहीन बाग में भी इस नारे के लगने और सरकार विरोधी भाषणों के होते हुए भी इतनी समझदारी तो सरकार दिखा ही रही है कि आंदोलन को कुचलने के लिए अंगरेजो जैसा कोई कदम नहीं उठाया और दोनों ही एक दूसरे को ताक रहे हैं कि कोई सूरत तो निकले जो यह मसला सुलझे।
यहाँ यह उल्लेखनीय है कि लालाजी ने ही कांग्रेसी नेताओं द्वारा हिंदुओं के हितों का बलिदान किए जाने की कीमत पर मुस्लिमों का तुष्टिकरण करने की नीति का विरोध किया था  और यही नहीं उन्होंने दिसम्बर 1923 में भारत का विभाजन मुस्लिम और गैर मुस्लिम भारत के रूप में करने का प्रस्ताव दिया था ।



अब एक दूसरी घटना देखिए। जे एन यू छात्र शरजिल इमाम ने देश के टुकड़े करने जैसा लगने वाला बयान दिया और असम और पूर्वोत्तर को पूरे देश से अलग करने तथा गैर मुस्लिमों को मुस्लिमों से खबरदार रहने जैसी बातें कीं तो उसकी गिरफ्तारी के लिए आवाज उठी और उसे पकड़ भी लिया गया और उसे गद्दार मान लिया गया।


शरजिल की तरह ही कुछ दूसरे लोग भी ऐसी बातें कर रहे हैं जो सरकार विरोधी तो हैं लेकिन देश के साथ गद्दारी करने जैसी हैं तो इस बारे में जाँच पड़ताल के बाद ही कुछ कहना चाहिए था लेकिन भाजपा सरकार के एक मंत्री ने फौरन ‘देश के गद्दारों को गाली देते हुए गोली मारने‘ का नारा लगा दिया ।


इसी तरह एक उम्मीदवार शाहीन बाग की तुलना पाकिस्तान से करता है। यहाँ सोचने की बात यह है कि अंग्रेजी शासन में क्रांतिकारी विचारधारा के चंद्रशेखर आजाद और भगत सिंह ने जिस तरह लाला जी के अपमान का बदला लेने के लिए सांडर्ज को गोली मार दी थी, उसी तरह आज भी क्या विरोधी सुरों को शांत करने के लिए गोलीबारी या हत्या करने की दिशा में कोई सोच भी सकता है ?


बापू गांधी अगर होते !

यह संयोग ही है कि लाला जी की जन्मतिथि के बाद राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की पुण्यतिथि तीस जनवरी को आती है। बापू ने अहिंसा को परम ही नहीं राष्ट्र धर्म का भी दर्जा दिया और वे जीवन भर इसी सिद्धांत के प्रतिपादन में लगे रहे। जो उनसे असहमत थे जैसे कि नेताजी सुभाष चंद्र बोस, वे भी उनका सम्मान एक पिता की ही भाँति करते थे। वैसे सुभाष की याद भी जनवरी में ही 23 तारीख को ताजा हो आती है।



 तो फिर आज अगर कोई आजाद हिंद फोज की कल्पना आज के समय में करेगा तो शायद सुभाष भी उससे मुँह फेर लेंगे क्योंकि उन्होंने विदेशी ताकतों का सहयोग भारत की आजादी के लिए माँगा था न कि आजकल हमारे देश के कुछ नेताओं की तरह पाकिस्तान या अन्य देशों का सहयोग अपने देश की सरकार को अस्थिर करने के लिए मांगते। जो नेता चाहे किसी भी दल के हों, अगर अपने अंदरूनी मामलों में दूसरे देशों को लाएँगे तो उसका नतीजा क्या होगा, यह समझने के लिए कश्मीर से बेहतर उदाहरण और क्या होगा ?



आज अगर बापू गांधी होते और उन्हें इस कानून की उलझन को सुलझाना होता तो वे निश्चित रूप से परस्पर बैर बढ़ाने जैसी किसी भी हरकत को न केवल नहीं होने देते बल्कि आंदोलन और प्रदर्शन करने वालों के बीच जाकर बैठ जाते और उनकी बात सुनते और यदि किसी की अनुचित जिद को तोड़ना होता तो अनशन करने से भी पीछे नहीं हटते।



आज न तो आंदोलनकर्मी गांधीवादी हैं और न ही सरकार गांधीवादी अहिंसा पर यकीन करती है क्योंकि उसके लिए जो अपने अंदर अनुशासन और नैतिक नियंत्रण चाहिए, उसके अभाव के कारण जो हो रहा है, वह अराजकता, मनमानी, कट्टरपन और नफरत के अतिरिक्त और कुछ नहीं है। 


आजादी क्या है ?

आजादी यही तो है कि जो व्यक्ति को अपने आप से लगाव, जुड़ाव और प्रेम करने का माहौल दे जो किसी की पराधीनता में सम्भव नहीं। इसका अर्थ यह है कि हम अपनी व्यक्तिगत सोच रखने, उसके अनुरूप काम करने और अपने घर परिवार का पालन पोषण करने को अपना अधिकार समझें। इसी तरह हम अपनी सोच के अनुसार काम करने, वोट देने और अपनी मनपसंद सरकार चुनने के लिए स्वतंत्र हों, यही तो आजादी है।


इसे इस तरह आसानी से समझा जा सकता है। उदाहरण के लिए एक तरफ सावरकर, गोलवरकर, दीन दयाल और श्यामा प्रसाद मुखर्जी की सोच है, दूसरी तरफ गांधी, नेहरु, पटेल और मौलाना की सोच है और उससे केवल थोड़ी बहुत वैचारिक विभिन्नताएँ लिए लाला लाजपत राय, विपिन चंद्र पाल, बालगंगाधर तिलक की सोच है। इन सबसे भिन्न सुभाष चंद्र बोस की सोच है।


 अलग अलग सोच होते हुए भी यह सब भारत को गुलामी की बेडियों से मुक्त करने के लिए ही आंदोलन कर रहे थे। अब हुआ यह कि आजादी मिलने के बाद अलग अलग विचारधाराओं के मुताबिक उनके अनुयायी हो गए और स्वतंत्र भारत में इन सब को अपना विस्तार करने, उसके लिए प्रजातांत्रिक तरीके से लोगों तक अपनी बात पहुँचाने की आजादी मिल गयी।


यहाँ एक  और सोच जिसका आधार रूस और चीन से आयात किया गया था, वह भी यहाँ पनपती रही जो अब वामपंथी कहलाती है, उसका जिक्र भी करना होगा जो अपना लक्ष्य साधने के लिए किसी भी हद तक जा सकते हैं।


इन सब का आधार भारतीयता है इसलिए जब इनके बीच संघर्ष होता है तो वह भारत को अपनी सोच के अनुसार दिशा देने का प्रयास होता है लेकिन जब इनकी सोच पर विदेशियों, अलगाववादियों का कब्जा होने लगे तो समझ लीजिए कि इनके पतन का दौर शुरू होने के साथ साथ देश के बिखरने का सिलसिला भी शुरू हो जाता है।


 किसी भी समस्या का समाधान तब ही हो सकता है जब अपनी सोच जो भी हो , उसे कुछ देर के लिए एक किनारे रखकर उन लोगों के बीच जाकर यह समझने की कोशिश की जाए कि उनकी सोच क्या है और किस तरह से अपनी और उनकी सोच के बीच तालमेल बिठाया जा सकता है। किनारे पर बैठकर अटकलें लगाने से यह कभी नहीं समझा जा सकता कि कोई विरोध क्यों कर रहा है और उसके पीछे वास्तविक कारण क्या हैं ?


भावनाओं के वशीभूत होकर सरकार और प्रशासन के खिलाफ नारे लगाने, जो किसी को देश विरोधी तक लग सकते हैं, ऐसे नारे लगाने से कोई देशद्रोही नहीं हो जाता जब तक कि यह तय न हो जाए कि उस व्यक्ति के जरिए किसी शत्रु देश या बाहरी ताकत से हमारे देश को तोड़नेवाली साजिश हो रही है।



 अगर कोई तीसरा है जो पक्ष और विपक्ष यानी सरकार और प्रदर्शनकारियों को कठपुतली की तरह इस्तेमाल कर रहा है तो यह इतना खतरनाक है कि इसका मुकाबला करने के लिए अपने अपने मतभेद भूलकर उस तत्व को नेस्तनाबूद करना होगा। हमारे आपसी मतभेद तो सुलझ भी जाएँगे लेकिन अगर कोई तीसरा हिंदू मुसलमान को लड़ाकर भारत को तोड़ना चाह रहा है तो यह इतना भयावह है जितना कि देश के बँटवारे का समय था।


(भारत)

शुक्रवार, 17 जनवरी 2020

इंटरनेट के इस्तेमाल में सावधानी हटी तो दुर्घटना घटी










यह सच है कि आज का दौर पूरी तरह आधुनिक बनने की कोशिश में तेजी से दौड़ रहा है! वक्त और फासलों की दूरियां बहुत कम हो गई है। इंटरनेट ने वह सब कुछ लगभग हमारे लिए आसान कर दिया है जो कभी असंभव होने जैसा लगता था। पलक झपकते ही अपने कम्प्यूटर या मोबाइल फोन की स्क्रीन पर दुनिया के किसी भी देश, स्थान और वहां के बारे में काफी हद तक सही और सटीक जानकारी प्राप्त कर सकते हैं।


लालच बनाम दुरुपयोग

जिस तरह किसी भी चीज के दो पहलू होते है उसी तरह इंटरनेट से मिलने वाली सहूलियत के भी दो रूप हैं, एक बेहद लाभकारी और दूसरा हद दर्जे का नुकसानदायक और कभी कभी बेहद खतरनाक जो हमे मुसीबत में डाल सकता है, हमसे हमारा बहुत कुछ छीन सकता है और कंगाल तक बना सकता है।
सब से पहले यह जानना जरूरी है कि इंटरनेट से मोबाइल फोन के जरिए किस तरह किसी के साथ भी धोखाधड़ी, बेईमानी, जालसाजी और लूटपाट की जा सकती है।


यह भी समझना आवश्यक है कि हमारे अंदर जो लालच नामक शत्रु छिपा रहता है, वही अक्सर उजागर होकर हम पर इस प्रकार काबू कर लेता है कि कितने भी हम समझदार होने का दावा करें, बेबस हो ही जाते हैं और जब तक हमें अपने नुकसान होने का पता चलता है तब तक आम तौर से बहुत देर हो चुकी होती है और हमारे पास ज्यादातर हाथ मलने के सिवाय और अपने नुकसान पर शोक करने के अतिरिक्त कोई उपाय नहीं बचता।


इंटरनेट के गलत इस्तेमाल से या उससे किसी को अपने चंगुल में फंसाने के तरीकों में जो सबसे ज्यादा इस्तेमाल होते हैं, उनमें फिशिंग, क्रेडिट कार्ड फ्रॉड, बैंक खातों में चोरी से रकम निकालने, ऑनलाइन खरीदारी के जरिए चूना लगाने जैसी वारदातों से लेकर वायरस से फोन और कंप्यूटर तक में सेंध लगाकर उनका डाटा चोरी कर उन्हें जाम करने तक के कारनामे शामिल हैं।


इसके जरिए मनी लॉन्ड्रिंग यानी गैरकानूनी तरीके से देसी विदेशी मुद्रा का अनैतिक और किसी भी देश की अर्थव्यवस्था को चैपट करने का व्यापार भी किए जाने के अनेकों उदाहरण अक्सर सामने आते रहते हैं।


तरीके क्या है?

ईमेल, फेसबुक, मैसेंजर और इसी तरह के दूसरे सोशल मीडिया प्लेटफॉर्मों के जरिए आपके साथ चालबाजी कैसे हो सकती है, इसके कुछ उदाहरण देने से बात आसानी से समझ में आ सकती है।


आपके पास अधिकतर मामलों में किसी अन्य देश से किसी महिला जो असली और बहुरूपिए के भेष में कोई पुरुष भी हो सकता है, उसकी तरफ से आपके फोन या मेल पर मैसेज आता है कि उसके पास जो करोड़ों की दौलत है, उसे वह भारत में निवेश करना चाहता है और उसके लिए किसी भारतीय को अपना साझेदार या भारी भरकम वेतन और कमीशन पर नियुक्त करना चाहता है।


निवेश कैसे और किस चीज में होगा तो उधर से जवाब आएगा कि अंबानी, टाटा, बिरला की तरह का इंफ्रास्ट्रक्चर होगा जिसमें इंडस्ट्रियल यूनिट, माल, ट्रेडिंग से लेकर बहुत कुछ होगा और कहा जाएगा कि इस काम के लिए आपसे बेहतर और विश्वसनीय व्यक्ति भारत में और कोई नहीं है, इसलिए यह सब काम जो बहुत जिम्मेदारी का है, आपको करने के लिए सौंपना है और इसके लिए जल्दी ही वह अपनी टेक्निकल टीम के साथ इंडिया आ रही है।


आपके सहमति देते ही मैसेज आयेगा कि टीम के रहने के लिए किसी फाइव स्टार होटल में इंतजाम करना होगा और उसकी बुकिंग का पैसा उसके खाते में ट्रांसफर कर दिया जाएगा। इसके बाद आपके बैंक खाते की डिटेल मांगी जाएगी और जैसे ही आपने दी तो आपको पहला झटका यह लग सकता है कि आपके खाते से रकम निकाली जा चुकी है।


आप समझेंगे कि शायद दूसरी तरफ से होटल बुकिंग का एडवांस दिया गया होगा। अब आप कितने भी मैसेज दें, मेल करें या मैसेंजर या व्हाट्स अप पर फोन लगाएं तो निराशा के अतिरिक्त और कुछ नहीं हाथ नहीं लगेगा।


एक और तरीका यह आजमाया जाता है कि वह महिला  भारत के किसी एयरपोर्ट पर पहुंचने की सूचना देगी और मैसेज आयेगा कि उसे एयरपोर्ट पर रोक लिया गया है क्योंकि वह अपने कुछ जरूरी कागजात जल्दबाजी में लाना भूल गई है। यहां अधिकारी कह रहे हैं कि कोई मेरी जमानत ले ले और उसके लिए कुछ रकम जमा करानी होगी तो वह आप जमा करा दें और वह बाहर आते ही आपको दे देगी।



यह भी कहा जा सकता है कि वह अपने साथ डॉलर लायी है जो आपको देने थे लेकिन उनका मूल्य उस सीमा से बहुत ज्यादा है जितना वह कानूनी रूप से ला सकती थी। आपकी बात कस्टम अधिकारी से भी कराई जा सकती है जो असली भी हो सकता है पर ज्यादातर नकली होता है।


असली हुआ तो कहेगा कि यह मनी लॉन्ड्रिंग का मामला है और इन मैडम के पास कई लाख डॉलर है, अगर आप इनकी जमानत लेते हैं और सरकारी खाते में जरूरी फीस की रकम जमा करा देते हैं तो इन्हें छोड़ दिया जाएगा, वरना यहां डिटेंशन सेंटर में रखकर इनके देश से संपर्क कर डिपोर्ट कर दिया जाएगा। अगर नकली है तो आप विश्वास कर लेंगे और जो कहा गया है, उसके मुताबिक कदम उठा लेंगे।


ऐसे में अगर आप लालच और झांसे में आ गए तो वह तो छूट जाएगी और यहां जो असल में गैर कानूनी काम करने आई है, करेगी और आप जिदंगी भर अदालतों के चक्कर काट सकते हैं और मनी लॉन्ड्रिंग में जेल की हवा भी खा सकते हैं।


आपको भरमाने के लिए कोई विदेशी महिला आपके साथ भारत घूमने, साथ वक्त बिताने से लेकर शादी करने और घर  बसाने तक की पेशकश कर सकती है।

आपके हां करते ही इस बात की गारंटी है कि आपके रुपए पैसे से लेकर आपकी सुख शांति तक आपसे छिन सकती है। सामाजिक और पारिवारिक जीवन बर्बाद हो सकता है और यही नहीं किसी ऐसी मुसीबत में फंस सकते हैं जिसके लिए जीवन भर पछताने के अतरिक्त और कोई रास्ता शायद ही बचे।
इंटरनेट से हैकिंग, स्टॉकिंग, अनधिकृत डाउनलोडिंग, जासूसी, बच्चों के अपहरण से लेकर आतंकवादी गतिविधियों तक को अंजाम दिया जा सकता है।



इन सब को करने के लिए कंप्यूटर और नेटवर्क ऐसे हथियार हैं जिनका निशाना तो अचूक होता ही है, इनका इस्तेमाल करने वाले को पकड़ना तो दूर उसकी पहचान कर पाना भी टेढ़ी खीर है। इसका एक उदाहरण यह है कि आपके मेल बॉक्स में इतनी बड़ी संख्या और गति से मेल भेजे जाते हैं कि अच्छी खासी स्पीड रखने वाले उपकरण या नेटवर्किंग इंटरनेट की भाषा में ट्रैफिक जाम का शिकार हो जाते हैं।


व्हाट्सअप जैसे उपयोगी साधन का दुरुपयोग गुमराह करने, अस्तव्यस्ता फैलाने से लेकर आंदोलन और दंगा फसाद कराने तक में किया जाता है और यह बात प्रशासन या सरकार की जानकारी में भी जल्दी ही आ जाती है लेकिन इसकी काट करने का फार्मूला अभी तक नहीं निकल पाया है और न ही इसे रोका जा सकता है सिवाय यह करने के कि उस जगह इंटरनेट सेवाएं ही पूरी तरह बंद कर दी जाएं और यह कदम आज के दौर में फायदे की जगह नुकसान ही अधिक करता है क्योंकि इससे जनजीवन तो बिखर ही जाता है, साथ में शिक्षा से लेकर रोजगार और  व्यापार तक पर जबरदस्त गलत असर पड़ता है।


आर्थिक और व्यावसायिक गतिविधियों के सुचारू रूप से चलने में रुकावट आती है और एक तरह से बंदिशों से भरी दिनचर्या हो जाती है।


क्या हो सकता है?


सबसे पहले तो शुरुआत अपने से इस वायदे के साथ करनी होगी कि लालच को अपने नजदीक न आने दें और किसी भी प्रलोभन को स्वीकार करने से पहले उस व्यक्ति या जो पेशकश  गई है, उसकी भली भांति जाँच कर लें और जब पूरी तरह भरोसा हो जाए तब ही किसी मैसेज, मेल का जवाब दें, किसी भी हालत में अंजान व्यक्ति को अपने खाते, क्रेडिट या डेबिट कार्ड, ओटीपी या किसी और तरह की गोपनीय जानकारी न दें जिससे आपको लगता हो कि यह धोखा देने की समझबूझ कर चली गई चाल हो सकती हो।


हो सकता है इतनी सावधानी बरतने पर आपके हाथ से कोई मुनाफे का काम निकल जाए लेकिन इतना ध्यान रखें कि कहीं यह कहावत सच न हो जाए ‘सावधानी हटी और दुर्घटना घटी‘।


इसके अतिरिक्त सरकार को इतना तो करना ही चाहिए कि वह साइबर सुरक्षा के बारे में लोगों को जागरूक करने के लिए सभी उपलब्ध माध्यमों के जरिए प्रचार प्रसार करे। इतना होने पर भी यदि कोई अपने पांव पर कुल्हाड़ी मारता है तो उसका तो कोई इलाज ही नहीं है।


(भारत)

शुक्रवार, 10 जनवरी 2020

प्रेम, मित्रता, भक्ति के शत्रु अहंकार पर विजय











जब हमारे चारों तरफ अफरा तफरी का माहौल हो, कुछ समझ में न आए कि हो क्या रहा है, जिधर नजर डालो, अलग सा हो जो  ठीक न लगे और  अपनी ही अक्ल पर भरोसा न रहे तो जरूरी है कि थोड़े वक्त के लिए अक्ल को घास चरने के लिए छोड़ दिया जाए और यह गुनगुनाया जाए।

यूं तो बेहतर है कि पासबाने अक्ल साथ रहे,
बेहतर है उसे कभी कभी तनहा छोड़ देना।

जिन्दगी की सौगात

कुछ और क्या चाहिए,  जब जीवन में प्रेम हो, दोस्ती हो और किसी के प्रति इतना समर्पण भाव हो कि वह भक्ति तक बन जाए।
निदा फाजली की रचना पर गौर कीजिए।

हम हैं कुछ अपने लिए कुछ हैं जमाने के लिए
घर से बाहर की फिजा हंसने हंसाने के लिए।


यूं लुटाते न फिरो मोतियों वाले मौसम
ये नगीने तो हैं रातों को सजाने के लिए।

अब जहां भी हैं वहीं तक लिखो रुदादे सफर
हम तो निकले थे कहीं और ही जाने के लिए।


मेज पर ताश के पत्तों सी सजी है दुनिया
कोई खोने के लिए है कोई पाने के लिए।

तुमसे छूट कर भी तुम्हे भूलना आसान न था
तुमको ही याद किया तुमको भुलाने के लिए।

हमारे समाज में मोहब्बत और दोस्ती की ऐसी ऐसी मिसालें हैं जिनका दुनिया भर में कोई सानी नहीं। यही नहीं अक्सर दूसरे मुल्कों के लोग यह सोचा करते हैं कि क्या ऐसा भी हो सकता है?

जंग के मैदान में एक दूसरे के सीने में खंजर खोबते रहे और शाम होते ही जो घायल हो उसकी तीमारदारी यही लोग करते पाए जाएं, यह दृश्य क्या कहीं और देखने को मिल सकता है ?

कृष्ण और उधव की दोस्ती

प्रेम और मित्रता का उदाहरण अगर पौराणिक कथाओं में ढूंढ रहे हों तो बहुत से मिल जाएंगे। इनमें से एक कृष्ण और उनके मित्र जिन्हें वे सखा कहते थे, उधव थे जो  एक  दूसरे को कान्हा और उधो के नाम से पुकारते थे।

कृष्ण चाहे कितने ही बड़े राजनीतिज्ञ रहे हों, युद्ध में उनके बुद्धि कौशल का डंका बजता रहा हो, राजसी ठाठ बाट और महलों में समस्त सुखों का भोग करते रहे हों, लेकिन कान्हा के रूप में तो वे चंचल, चपल, ठिठौली करने वाले और किसी के भी आंसुओं को मुस्कान में बदल देने वाले ही थे।

दूसरी तरफ उधव अपने बालपन में उनकी छवि अपने मन में घड़ लेते हैं और उनसे बिना मिले और उन्हें बिना देखे ही उनका चित्र बना लेते है और जब युवावस्था में दोनों मिलते हैं तो दोनों ही एक दूसरे के प्रति सखा भाव से प्रेरित होकर अश्रु सागर में हिलोरें लेने लगते हैं।

अब प्रेम और मित्रता की पराकाष्ठा देखिए!

कृष्ण के प्रति उधव का प्रेम उन्हें उनकी भक्ति तक करने की अवस्था में ले जाता है और वे उन्हें पूर्ण समर्पण भाव से चाहते हैं।

अहंकार से पतन

अब होता यह है कि चाहे कितना भी आदर, प्रेम, भक्ति हो, मनुष्य का एकमात्र दुर्गुण अहंकार उसे समाप्त करने के लिए काफी है। लेकिन दोस्ती वही जो दोस्त को पता लगे बिना ही उसकी परेशानी हो, कोई व्यसन हो या घमंड ही क्यों न हो, उसे इस प्रकार अंजाम दे कि कानों कान खबर भी न हो और काम भी हो जाए।
उधव को यह अहंकार था कि संसार में उनके जैसा कोई ज्ञानी नहीं है।

अब होता यह है कि कृष्ण के प्रति राधा और गोपियों का जो प्रेम था, उसकी व्याख्या करना शब्दों के भी परे की बात थी। उधो को लगा कि  कान्हा को कृष्ण बनकर राजकाज संभालना चाहिए और गोपियों का जो उनसे प्रेम है वह सत्ता चलाने के रास्ते में सबसे बड़ी रुकावट है।


उधव एक सखा की तरह नहीं एक मित्र की भांति कृष्ण को समझाते हैं कि वे गोपियों से कहें कि वे उन्हें भूल जाएं और जो प्रेम, रास, रंग, मोह था वह युवावस्था का ज्वार था, अब वे राजा है इसलिए उन्हें याद न किया करें क्योंकि गोपियों के याद करते ही कृष्ण सब काम छोड़कर उनके पास पहुंच जाते हैं।

कृष्ण समझ गए कि यह उनके मित्र का अहंकार बोल रहा है और एक सखा और मित्र होने के नाते उनका कर्तव्य है कि उधव का यह दुर्गुण दूर किया जाए।
कृष्ण जो रास्ता अपनाते हैं वह उधव को गोपियों के पास भेजकर उन्हें सांसारिक शिक्षा का ज्ञान देने का है।

उधव अपना पूरा ज्ञान लेकर गोपियों के पास जाते हैं और उन्हें योग, ध्यान, कर्म आदि सिखाने का प्रयत्न करते हैं।

अब गोपियां उधव की जो हालत करती हैं, वह अपने आप में किसी के लिए भी इस सीख से कम नहीं है कि इंसान को जब घमंड हो जाए तो उसे दूर करने के लिए सच्चे मित्र को क्या करना चाहिए। उधव के ज्ञान की गठरी तितर बितर हो जाती है, पूरा ज्ञान धूल में मिल जाता है और वे ज्ञान के मिथ्या भार से मुक्त होकर कृष्ण के पास आते हैं और अब एक सामान्य व्यक्ति की भांति व्यवहार करते हैं।

उधव और गोपियों का पूरा प्रसंग हास्य, विनोद, मजाक और सहज भाव से भरा है और शायद यही एकमात्र वर्णन है जो मन को गुदगुदाता है, चेहरे पर मुस्कान लाता है और खुलकर हंसाता है।

आज क्यों प्रासंगिक है ?

अब इस बात पर आते हैं कि वर्तमान परिस्थितियों में इस प्रसंग की कितनी आवश्यकता है।

सत्ता के शीर्ष पर बैठे दो मित्र जिनमें सखा भाव भी है, उनमें से एक को अहंकार ने घेर लिया है कि जो वह कहता, सोचता और करता है, वही अंतिम सत्य है।
ऐसे में उस व्यक्ति के परम मित्र का जो उनसे ऊंचे पद पर है, यह कर्तव्य हो जाता है कि वह अपने मित्र का अहंकार दूर करने के लिए कुछ तो ऐसा करे जिससे प्रजा में सत्ता के प्रति अविश्वास न बढ़े।

कान्हा रूपी मित्र को उधो रूपी सखा को गोपियों रूपी जनता के बीच यह समझने के लिए भेज देना चाहिए कि हकीकत क्या है, लोग इतने गुस्से में क्यों हैं कि किसी भी बात को समझना तो दूर, सुनना भी नहीं चाहते ?

क्रोध कभी भी बिना किसी वजह के नहीं होता, घमंड कभी उत्थान का कारण नहीं बन सकता, वह केवल पतन ही करा सकता है।

अगर ऐसा नहीं होता तो कृष्ण की द्वारका नगरी के समुद्र में डूब जाने का इतिहास अपने को दोहरा सकता है।

इसके विपरीत इन्हें यह भी सोचना चाहिए कि यदि हनुमान को अहंकार हो जाता तो क्या वे राम के हृदय में स्थान पा सकते थे।

आज इसी बात की परीक्षा है कि अहंकार का अंत कब और कैसे हो? निदा फाजली की एक गजल की पंक्तियां हैं:

कभी कभी यूं भी हमने अपने जी को बहलाया है
जिन बातों को खुद नहीं समझे, औरों को समझाया है

(भारत)

शुक्रवार, 3 जनवरी 2020

कभी खुद से मुलाकात कर लेने में हर्ज क्या है?










अक्सर जीवन में यही होता है कि कोई भी विषय, समस्या या परेशानी हो, हर कोई उसके पैदा होने के लिए दूसरों को जिम्मेदार मानते हुए अपने को उसका हल या समाधान निकालने के लिए सब से अधिक ज्ञानी मानता और समझता है। कोई भी विवाद जो  चाहे कितने ही वर्ष, महीने, दिन की अवधि पार कर चुका हो, इनके लिए चुटकी बजा कर हल किया जा सकता है, अगर इनके सुझाए तरीके का इस्तेमाल किया जाए। इस बारे में आगे बात करने से पहले इन पंक्तियों का आनंद लीजिए । 

माना कि यह वर्ष
सुलझनों और उलझनों के बीच बीता
तो नव वर्ष में भी
समस्याओं के निदान मिलते रहे
तो हर्ज क्या है ?

माना कि कुछ नए रिश्ते बने, कुछ  पुराने बिगड़े
तो फिर इस वर्ष भी
नवीन का स्वागत और पुरातन से बिछोह
हो जाए तो हर्ज क्या है ?

संभल कर चलने पर भी
लड़खड़ाए कई बार और फिर आगे बढ़ गए
तो फिर नव वर्ष में भी
गिरते पड़ते उठकर चल पड़ने में हर्ज क्या है ?

सपने कुछ पूरे, कुछ अधूरे, कुछ टूट गए होंगे
सपने तो सपने हैं जब चाहे गढ़ लो
नए वर्ष में नए नए सपने बुनने और
पूरा होने की आस लगाने में हर्ज क्या है

प्यार का इजहार, इकरार, तकरार भी हुई होगी
प्यार का क्या है
कभी भी, किसी से भी और कहीं भी हो जाए
नव वर्ष में नया सा प्यार करने में हर्ज क्या है

उम्र कोई भी हो वक्त के साथ स्वभाव बदलती है
चाहत का कोई अंत नहीं
किसी न किसी रूप में हो ही जाती है
नए साल में नई इच्छा करने में हर्ज क्या है

तय है कि भाग्य का लेखा मिट नहीं सकता
तय है कि जीवन का अंत होना ही है
तो फिर नव वर्ष में
कोई नया जोखिम लेने में हर्ज क्या है

जिन्दगी जिंदादिली का नाम है
बचपन, जवानी और उम्र दराज होने का दौर
सभी के हिस्से में आता है
नए साल में नए ढंग से जीने में हर्ज क्या है

नव वर्ष नूतन और अभिनन्दन का वर्ष हो
किसी भी हाल में रहें
हाथ फैलाकर गले लगाकर
स्वागत करने में हर्ज ही क्या है।

स्वयं से बातचीत

जब हम अपने से बात करने का सिलसिला शुरू करते हैं तो हमारे दिमाग में जो सबसे पहले आता है वह किसी वस्तु, व्यक्ति अर्थात जड़ और जीवन से जुड़ा कुछ भी हो सकता है जिसके प्रति हम अपनी समस्त इन्द्रियों सहित आकर्षित होते हैं। यह आकर्षण ही है जो सबसे पहले हमारे मन में आता है और उसे हम अलग अलग तरीके से व्यक्त करने के लिए आतुर हो जाते हैं।

यह  कविता, कहानी, संगीत, चित्रकारी, नृत्य, गायन, वादन, अभिनय जैसी विधाओं में से कुछ भी हो सकता है। मतलब यह कि अपनी चाहत, लगाव और समर्पण को अपने से बातचीत करने की प्रक्रिया के दौरान मजबूत करते हैं और जब भी कोई मौका मिलता है, अपनी बात कह देते हैं।

यह हर युग में होता आया है, प्राचीन काल में पत्थरों पर अंकित शिलालेख, ताम्रपत्रों पर लिखे आख्यान, पांडुलिपियों में वर्णित अपने समय के दस्तावेज और वर्तमान युग में आधुनिक संचार और पढ़ने, लिखने, देखने, सुनने के विभिन्न साधनों का इस्तेमाल अपनी बात कहने के लिए होता आया है।

यह जो नियम कायदे बनते हैं, कानून बनाए जाते हैं, धार्मिक ग्रंथों का हवाला देकर अपनी बात मनवाने की कोशिश की जाती है, यह सब अपने आप से बातचीत करने के बाद अर्थात जो व्यक्तिगत है, उसे  सार्वजनिक रूप से मान्यता दिलाने की कोशिश होती है जिसमें कुछ व्यक्तिवादी,  पुरुष हों या स्त्री,  हदें पार कर जाते हैं।

इनमें हिटलर जैसे तानाशाह और गांधी जैसे मानवता के रक्षक कोई भी हो सकते हैं। फर्क सिर्फ यह है कि हम अनुसरण करने के लिए किसको चुनते हैं, हिटलर को या गांधी को, यही व्यक्तिगत सोच के सही या गलत होने की कसौटी है।

यह जो राजनीतिक या सामाजिक आंदोलन होते हैं, ये सब एक तरह से अपनी सोच जिसे अक्सर सिद्धांत का नाम देते हैं, उसी का परिणाम होता है।

जरूरी नहीं कि हमारी सोच दूसरों से मेल खाए लेकिन हम उस पर अडे रहते हैं, नतीजा हिंसात्मक विद्रोह तक हो सकता है, जिसे हम अभिव्यक्ति की आजादी से लेकर कोई भी आकर्षक नाम देकर समाज में बिखराव तक पैदा कर देते हैं।

अपने से बातचीत का परिणाम जहां एक ओर सुख का कारण बन सकता है, वहां अपनी ही विकृत सोच का नतीजा, जरा सी बात का अफसाना बनाने में भी निकल सकता है।

उदाहरण के लिए क्या जरूरत है आज यह कहने की कि भारत का विभाजन धार्मिक आधार पर हुआ  और यह किसी दिवंगत नेता  की अपनी सोच के कारण हुआ। क्या यह पुराने जख्मों को कुरेदना नहीं है जिसका इस्तेमाल आज अपनी व्यक्तिगत सोच को दूसरों पर लादने के लिए किया जा रहा है?  इसी तरह क्या जरूरत है, नागरिकता कानून में संशोधन, जनसंख्या या नागरिकता  रजिस्टर बनाने की बात पर पक्ष हो या विपक्ष, इतना बवाल करने की कि समाज में व्यवस्था की नीव ही हिल जाए?

सकारात्मक सोच

मान लीजिए आप कोई नौकरी करते हैं और यह सोचते हैं कि आप अपने पद से आगे बढ़ ही नहीं सकते तो आप जीवन भर उससे बंधे रह सकते हैं लेकिन यदि आपकी सोच यह है कि आप अपने संस्थान के सर्वोच्च पद पर स्वयं को देखना चाहते हैं तो यकीन मानिए, एक दिन आप वहां अपने कि वहां बैठा हुआ पाएंगे।

एक उदाहरण है। जब देश में सीएसआईआर की स्थापना हुई तो उसके महानिदेशक डॉक्टर आत्मा राम से पूछा कि आप यहां तक कैसे पहुंचे। उनका जवाब था कि ‘ मैं सबसे निचले पद अनुसंधान सहायक के पद पर नियुक्त हुआ था, बाद में जैसे ही मुझसे अगले पद पर बैठा व्यक्ति अवकाश या छुट्टी पर जाता था तो मैं उसका भी काम करने की पेशकश अधिकारियों से कर देता था जो मान ली जाती थी और इस तरह मुझे अवसर और अनुभव दोनों मिलते रहे और मैं यहां तक पहुंच गया।‘

इसी तरह मान लीजिए, आप कोई व्यापार या व्यवसाय करते हैं तो आपके आकर्षण का केंद्र दो चीजें हो सकती हैं। पहली यह कि मैंने यह जो धन, संपत्ति अर्जित की है, कहीं खो न जाए, मुझ पर जो ऋण हैं, कहीं में उन्हें चुका न पाऊं, मैंने अब तक जो कमाया, वही काफी है, आगे न जाने क्या हो। मतलब यह कि जो ज्यादातर खोने के बारे में ही सोचता रहता है तो या तो वह व्यक्ति वहीं का वहीं रहता है या फिर खोता ही रहता है।

दूसरी सोच यह हो सकती है कि मुझे अभी बहुत कुछ पाना है, मुझे दफ्तर के लिए आलीशान बिल्डिंग चाहिए, मेरा कारोबार देश में ही नहीं, विदेशों तक में फैले। मतलब यह कि हर वक्त उसके मन में तरंग सी उठती रहती है कि मुझे यह करना है, वह करना है, इतना धन सम्मान और वैभव अर्जित करना ही है तो होता यह है कि उसकी सोच इन सब चीजों से टकराकर वापिस उसकी तरफ लौटती है तो वह हमेशा पाता ही रहता है।

एक आंकड़ा है कि दुनिया की 96 प्रतिशत आमदनी केवल एक प्रतिशत लोगों द्वारा अर्जित की जाती है। उदाहरण के लिए अपने ही देश के अम्बानी परिवार के दोनों भाइयों को ही ले लीजिए। एक हमेशा पाता ही रहता है और दूसरा खोता ही रहता है।

यह अपनी चाहत का ही खेल है। चाहो तो मिलेगा न चाहो तो नहीं मिलेगा। या तो अपने दिल और दिमाग की सुन लो या फिर दूसरों की कही बातें सुनकर खुद भी वही कहने और करने  लगो।

खुशी और गम चुंबक की तरह होते हैं, एक के आकर्षण में खुश रहना है तो दूसरे में गमगीन। जरा सोचिए जब आप किसी सुबह अचानक कोई गाना गुनगुनाना शुरू करते हैं तो दिन भर गुनगुनाते ही रहते हैं और अगर कभी कोई पुरानी दुखद सोच हावी होती है तो पूरे दिन दुख से भरे रहते हैं ? इसलिए जहां तक हो सके, सकारात्मक सोच से शुरुआत और नकारात्मक सोच को विदा करते रहें।