शनिवार, 31 अक्तूबर 2020

निकम्मापन भाग्य हीनता और कर्म फल किस्मत का लिखा नहीं है

 


अक्सर जब कुछ अपने हिसाब से न हो तो अपने आप से यह कहने का मन करता है कि ऐसा मेरे ही साथ क्यों होता है, मेरी तो किस्मत खराब है, मैंने किसी का क्या बिगाड़ा जो यह देखने को मिल रहा है या फिर जरा सी बात पर क्रोध हो आना, दूसरे को भला बुरा कहना या स्वयं ही रोने लगना जैसे कि अब जीवन में कुछ बचा ही नहीं।

इसके विपरीत कुछ लोग कैसे भी हालात हों, कितनी भी कोई आलोचना करे और जीवन में कैसे भी उतार चढ़ाव आएं, ऐसा व्यवहार करते हैं जैसे कि उन पर किसी भी चीज का ज्यादा असर नहीं पड़ता और अगर थोड़ा बहुत पड़ भी जाए तो वह कंधे पर पड़ी धूल या बारिश की बूंद की तरह ऐसे झटक देते हैं कि मानो कुछ हुआ ही न हो और पहले की तरह मस्त मौला जैसा बर्ताव करते रहते हैं।

ज्योतिष का मायाजाल

ऐसे लोग जो निराशा के भंवर में डांवाडोल हो रहे हों या आशा के समुद्र में हिचकोले खाने का लुत्फ उठा रहे हों, उन लोगों के संपर्क में ज्यादातर आते हैं जो उनकी कुंडली के गृह देखकर या हाथों की रेखाएं पढ़कर या फिर भविष्य जानने के दूसरे तरीकों जिसमें टैरो कार्ड, फेंग शुई से लेकर तारामंडल की चाल तक शामिल है, यहां तक कि साधु सन्यासी के पास भी, अवश्य जाते हैं ताकि अपना भविष्य जान सकें।

अब ये लोग जो बताते हैं उसमें कितना सच, कितनी हवाबाजी और कौन सा मनोविज्ञान होता है कि सामान्य व्यक्ति, चाहे  कुछ समय के लिए ही हो, इन पर विश्वास कर उन घटनाओं का होना  निश्चित मान लेता है जो भविष्य में होने वाली हैं, जिनके बारे में विश्वास दिलाकर ये भविष्य बताने का कारोबार करने वाले भारी भरकम फीस लेने के जुगाड में लगे रहते हैं।

अगर इन भविष्यवक्ताओं के बताए अनुसार कुछ नहीं हुआ तो ये अपने सीमित ज्ञान का दोष न मानकर कहेंगे कि जन्म का समय इधर उधर होगा, हाथ की रेखाएं विचारों के अनुसार बदलती रहती हैं और अपना पिंड छुड़ा लेते हैं। इन विद्याओं में कितनी सच्चाई है इसके बारे में कुछ न कहकर यह कहा जा सकता है कि इन पर यकीन करने वाले लगभग निकम्मेपन को स्वीकार कर बस अच्छा वक्त आने का इंतजार करते रहते हैं जो असल में मृग तृष्णा है।

एक मित्र कहने लगे कि उनके ज्योतिषी ने कहा है कि उनका भाग्य दो वर्ष बाद चमकेगा और तब तक वो चाहे कितना भी परिश्रम कर लें, कुछ हासिल नहीं होगा । मित्र ने इस बात पर यकीन करते हुए दो साल तक एक निकम्मे व्यक्ति की तरह कोई भी काम न करने का फैसला कर लिया। अब हुआ यह कि यह समय बीतते बीतते वह पूरी तरह आरामतलब हो गए और इस बात को पांच वर्ष हो गए, वह अब भी कोई काम नहीं करते और भाग्य को दोष देते रहते हैं।

ऐसे न जाने कितने उदाहरण होंगे जिनमें ग्रह दशा बदलने के इंतजार में लोग युवा से अधेड़ और बूढ़े हो जाते हैं।

एक टैरो कार्ड रीडर ने अपने क्लाइंट से कहा कि वह चाहे कहीं भी रहें, वह उन्हें देख सकता है और यहां तक कि वे कहां जा रहे हैं, क्या कपड़े पहने हैं, क्या खा पी रहे हैं, सब जान सकता है। अब वह व्यक्ति पूरी तरह इन महाशय के चंगुल में था और ये उसे मुंहमांगी फीस देते जा रहे थे।

 

 

कर्म और उसका परिणाम

जिस प्रकार प्रत्येक क्रिया की प्रतिक्रिया होती है उसी प्रकार हम चाहे अपनी समझ से कोई अच्छा  काम करें या जानबूझकर बुरा काम अथवा अनजाने में ही दोनों में से एक काम हो जाए तो भी उसका परिणाम अवश्य ही निकलेगा और  कर्ता को उसका फल मिलना तय है।

व्यक्ति के तौर पर और समाज में सामूहिक रूप से भी कोई काम किया जाता है तो उसका आधार परवरिश, वातावरण और आर्थिक स्थिति ही होता है। उदाहरण के लिए चोरी डकैती, हत्या, यौन अपराध से लेकर स्वयं का कोई लाभ न होने पर भी दूसरे का अनिष्ट करने तक के कर्म हो सकता है कि विरासत में मिले हों या संगत के नतीजे के तौर पर हों, पर उनका फल मिलना निश्चित है।  इसी तरह अपनी हानि की संभावना को जानते हुए भी सकारात्मक, सहृदयता, जिम्मेदारी के साथ कोई भी कार्य करने पर परिणाम जो भी हो, मन में ग्लानि नहीं रहती।

जहां तक भाग्य का संबंध है, वह हमारा लक्ष्य तो दिखा सकता है लेकिन उस तक पहुंचना तो स्वयं को ही पड़ेगा। इसके अलावा एक भी गलत कदम कभी भी सही मोड़ पर नहीं ले जा सकता।

अपराधी या दुष्कर्म करने वाला परिस्थितिवश बच गया तो इसका मतलब यह नहीं कि वह दंड से हमेशा के लिए बच गया। इसी तरह बदला लेने को न्याय करना मान लेना भी भूल है क्योंकि यदि कोई गलत कदम उठा लिया तो यह सिलसिला रुकने का नाम नहीं लेगा चाहे पीढ़ियां बीत जाएं।

हमारे कर्म केवल एक अवसर की तरह हैं, उनसे पुरस्कार या दंड तय नहीं होता, एक रास्ता ही दिखाई देता है, और कुछ नहीं।

जहां तक भाग्य का संबंध है तो इसका निर्धारण किसी के वश में नहीं, मिसाल के लिए पहला विश्व युद्ध दो देशों के राजपरिवारों के बीच घटी एक साधारण सी घटना से शुरू हुआ और पूरी दुनिया उसकी चपेट में आ गई। इसी तरह दूसरे विश्व युद्ध में यदि एक नाजी ने सैकड़ों यहूदियों को मौत के घाट उतार दिया तो इसका मतलब यह नहीं कि इस अकेले को उसका फल भोगना था बल्कि पूरी  दुनिया को भोगना पड़ा।

वर्तमान में जीना

हालांकि यह संभव नहीं है कि जीवन में घटी किसी घटना को मिटाया जा सके लेकिन इतना तो किया ही जा सकता है कि उसे दिमाग के कंप्यूटर की हार्ड डिस्क में एक कोने में रखकर भुला दिया जाय और जो वर्तमान में घट रहा है उसके अनुसार यह सोचकर जिया जाए कि यह भी उसी मेमोरी का हिस्सा बनने वाला है जिसे भुलाया जा चुका है।

ऐसा न करने पर वह बात जो न जाने कब हुई थी आज भी सीने पर एक बोझ की तरह बनी रहेगी। मतलब यह कि पिछला कोई भी संबंध जो चाहे किसी के अच्छे या बुरे व्यवहार के कारण बना हो , उससे अपने आप को अलग रख कर या तोड़कर ही उससे मिली खुशी या गम को भुलाया जा सकता है वरना पुरानी यादें जीने नहीं देंगी और वर्तमान के सुखद क्षणों का मजा भी नहीं ले पाएंगे।

जहां तक ईश्वर का संबंध है, उसे इस बात से कोई मतलब नहीं कि कोई गरीब है या अमीर, कमजोर है या बलवान, शासक है या प्रजा, नर है या नारी, मानव है या दानव, वह किसी के भी कर्म चाहे कैसे भी हों, अपने ही हिसाब से उनके फल देता है। जब यह समझ में आ गया तो फिर बदकिस्मत या भाग्यशाली होने का कोई अर्थ नहीं रह जाता, केवल कर्म करते जाने को ही अपनी नियति मान लेने में ही समझदारी है।

शुक्रवार, 16 अक्तूबर 2020

अपराधी बनने की शुरुआत घर से ही होती है

 


अक्सर जब यह देखने, सुनने, पढ़ने को मिलता है और आपसी बातचीत में चर्चा का विषय बनता है कि समाज में अपराध बढ़ रहे हैं, लोग जरा सी बात पर मारपीट, हत्या कर देते हैं, जो बच्चे अभी वयस्क भी नहीं हुए, इन कामों में शामिल हैं, बड़ों की बात मानना या उनका आदर करना तो दूर, उनका अपमान करने से लेकर उनके साथ भी दुश्मन जैसा व्यवहार करने से नहीं चूकते तो सोचना जरूरी हो जाता है कि आखिर गलती कहां हुई है?

हकीकत का सामना

इससे पहले कि आगे बढ़ें, एक अनुभव बताना है और वह यह कि कुछ वर्ष पूर्व एडल्ट एजुकेशन विभाग के लिए फिल्म श्रृंखला बनाते समय एक ऐसे व्यक्ति से मुलाकात हुई जिसकी उम्र पचास के लगभग थी, वह खूंखार जैसा दिखता था, बदन पर कई जगह कटने फटने के निशान थे और स्वभाव झगड़ालू था।

यह व्यक्ति अपने पड़ोसी से लड़ रहा था और उसे धमकी दे रहा था कि अगर जो वह कर रहा है, उससे बाज नहीं आया था तो उसका वह हाल करेगा कि याद रखेगा।

बात बस इतनी थी कि पड़ोसी अपनी 15-16 साल की लड़की को स्कूल जाने से रोक रहा था और अपनी मां के साथ दूसरों के घरों में काम करने जाने और पैसे कमाने के लिए कह रहा था जबकि लड़की पढ़ाई में होशियार थी और उसे छोड़ना नहीं चाहती थी। इस बात को लेकर घर में रोज कोहराम मचता रहता था।

जब पड़ोसी ने कहा कि उसकी लड़की है, वह जो चाहे उसके साथ करे तो इस पर उस व्यक्ति ने कहा कि वह क्या उसे जानता नहीं है, लड़की को स्कूल जाने से रोक और फिर देख मैं क्या करता हूं।

यह घटना फिल्म बनाने के लिए बहुत अच्छी थी तो जब उस व्यक्ति से पूछा कि वह क्यों अपने पड़ोसी की लड़की के लिए इस तरह की जिद कर रहा है तो उसका जवाब चैंकाने वाला था। कहने लगा कि जब वह 10-12 साल का था तो अक्सर स्कूल से गैरहाजिर हो जाता था, अध्यापक की तो क्या कहें, मातापिता को भी बहका देता था।

बड़ा होने पर संगत उसके जैसों की ही मिली और पहले तो चोरी चुपके और फिर खुलेआम शराब, सिगरेट, ड्रग्स की लत लग गई। घरवालों ने पैसे देने बंद करने से लेकर यह भी कह दिया कि पेट भरना है तो कमाई करो लेकिन अनपढ़ होने, कोई काम करना न जानने के कारण किसी तरह की आमदनी तो हो नहीं सकती थी, इसलिए चोरी, जेब काटने और दूसरे अपराध करने शुरू कर दिए। इस तरह थाना, पुलिस, कोर्ट कचहरी और जेल आना जाना शुरू हो गया।

पूरा जीवन एक अपराधी की तरह बीतने लगा और अभी भी पीछा नहीं छूटा है। इसलिए अब मैं अगर किसी लड़के या लड़की को स्कूल जाते और पढ़ाई करते नहीं देखता हूं तो मेरा खून खौलने लगता है।

यह किस्सा सुनाने का मतलब इतना ही है कि हमारे देश में जितने भी जुवेनाइल क्राइम होते हैं, उनके पीछे यही एक कारण है कि पढ़ने लिखने की उम्र में जैसे भी हो पैसा कमाने के चक्कर में पड़ गए और इसका ऐसा लालच पड़ा कि सही और गलत समझना ही भूल गए।

युवा वर्ग और अपराध

दौर चाहे वर्तमान हो या पिछले कुछ वर्षों का इतिहास हो, आंकड़े इसी बात की गवाही देते मिलेंगे कि युवा वर्ग में अपराध करने और इसमें औरों को भी शामिल करने की प्रवृत्ति का सबसे बड़ा कारण उनका अनपढ़ या मामूली पढ़ा लिखा होना और किसी भी तरह का काम करने के कौशल का न होना है।

निर्भया, निठारी से लेकर हाथरस या किसी भी स्थान पर किसी भी ऐसे जघन्य अपराध की खोजबीन कर लीजिए जिसमें 15 से 25 साल तक का युवा वर्ग सम्मिलित पाया जाता हो तो लगभग शत प्रतिशत वे ऐसे मिलेंगे जिन्होंने स्कूल का मुंह नहीं देखा या छोड़ दिया या निकाल दिए गए हों।

यही कारण है कि बहुत से विकसित और विकासशील देशों में अगर स्कूल जाने की उम्र का कोई  लड़का या लड़की पढ़ता लिखता नहीं तो उसके लिए माता पिता को जिम्मेदार मानकर उनसे अपने बच्चों के पालन पोषण का अधिकार छीन लिया जाता है।

जहां तक हमारे देश की बात है, यहां इस तरह का कोई कानून बनाने की कौन कहे, सोचा भी नहीं  जा सकता क्योंकि राजनीतिक दलों, सरकारों के मंत्रियों और सांसद तथा विधायकों में अनपढ़ों, मामूली पढ़े लिखे और अपराध की दुनिया की सीढ़ी पर चढ़कर सत्ताधारी बने लोगों की तादाद उनसे कहीं ज्यादा है जो राजनीति को देश के विकास और समाज कल्याण के लिए  सेवा का मार्ग समझते हैं।

शिक्षा की गुणवत्ता या क्वालिटी कैसी भी ही, इतना तो निश्चित है कि पढ़ने लिखने से व्यवहार में विनम्रता और किसी भी काम को करने से पहले उसके बारे में भलीभांति सोच विचार करने की बुद्धि का विकास तो होता ही है।

अपराध की मानसिकता

यहां यह तर्क दिया जा सकता है कि क्या पढ़े लिखे और बड़ी बड़ी डिग्रियां रखने वाले तथा विदेशों से शिक्षा प्राप्त लोग अपराध करते नहीं पाए जाते तो आंकड़े कहते हैं कि इनका प्रतिशत पूरी आबादी के शून्य और एक प्रतिशत के बीच रहता है।

मिसाल के तौर पर माल्या, नीरव मोदी, मेहुल चोकसी, सुब्रत राय, हर्षद मेहता जैसे अपराधी उंगलियों पर गिने जा सकते हैं और इन्होंने जो अपराध किए वे आर्थिक अपराध हैं और उन्हें हमारे सिस्टम की खामियों का फायदा उठाते हुए करने में कामयाब हुए।

इसके अतिरिक्त जो इनके चंगुल में फंसकर अपना बहुत कुछ लुटा बैठे उनमें ज्यादातर अशिक्षित लोग थे। मिसाल के तौर पर सहारा और हर्षद घोटाले जैसे कांड इसलिए सफत हो पाए क्योंकि उन्होंने ऐसे लोगों को अपना निशाना बनाया जो पढ़े लिखे न होने के कारण इनके जाल में आसानी से फंस गए।

अपराध और रोजगार

अपराधी बनने के लिए शिक्षा के बाद जिस कारण की सबसे बड़ी भूमिका है, वह है रोजगार और जो अंततः शिक्षा से ही जुड़ा हुआ है।

बेरोजगारी का सबसे बड़ा कारण शिक्षा का अभाव, कार्य कुशलता यानी स्किल का न होना और संसाधनों का सीमित होना तो है ही, साथ में इसके राजनीतिक और सामाजिक कारण भी हैं।

इनमें सबसे पहले जब साधारण व्यक्ति यह देखता है कि कुछ लोग अनपढ़ या मामूली शिक्षा की ही बदौलत केवल अपने रुतबे और दबंगई के आधार पर नेतागिरी का पेशा अपनाकर अकूत धन और ताकत के मालिक बन रहे हैं तो उन्हें भी पढ़ने लिखने की क्या जरूरत है ?

इस तरह इन नेताओं को अपने समर्थक मिल जाते हैं जो जरा से लालच में आकर कहीं भी धरना, प्रदर्शन, तोड़फोड़, हिंसा, आगजनी से लेकर कुछ भी अनैतिक और गैर कानूनी काम करने को तैयार हो जाते हैं। विडंबना यह है कि इसे ही ये लोग अपना रोजगार मान लेते हैं।

बेरोजगारी के अन्य कारण भी हो सकते हैं लेकिन उनका महत्व इतना नहीं है जितना कि इस बात का कि रोजगार करने या पाने के लिए जरूरी शिक्षा और काम करने की इच्छा तथा उसे करने की योग्यता और कुशलता का न होना है।

यहां यह कहा जा सकता है कि सभी प्रकार से काबिल होते हुए भी रोजगार नहीं मिलता तो इससे सरकारों की नीतियों की खामियों को तो जिम्मेदार माना जा सकता है जिन्हें बदलने और रोजगारपरक बनाने के लिए विवश किया जा सकता है लेकिन इससे पढ़ाई लिखाई और कौशल होने के महत्व को कम नहीं आंका जा सकता।

आम आदमी को इससे कोई ज्यादा मतलब नहीं होता कि सरकार उसके लिए किस तरह की आर्थिक, औद्योगिक विकास की नीतियां बना रही है, उसे केवल इस बात से सरोकार होता है कि उसके रहन सहन और आजीविका के साधन और परिवार के पालन पोषण पर क्या असर होगा।

यदि देश में बचपन से ही अपराधी बनने की राह को रोकना है तो उसके लिए माता पिता और अभिभावकों को यह तय करना होगा कि वे बच्चों को उनके बचपन से ही पैसा बनाने की मशीन यानी एटीएम बनाना चाहते हैं और अपराध की दुनिया में कदम रखने की पहल करते हुए देखना चाहते हैं या फिर कुछ वर्षों का इंतजार करते हुए उनके शिक्षित होकर बेहतर भविष्य के सपने को साकार करना चाहते हैं, इसका चुनाव उन्हें ही करना है, जरा सोचिए !

शनिवार, 10 अक्तूबर 2020

सवर्ण तथा दलित के बीच तनाव का कारण बात का अफसाना बनना है

 

चाहे कुछ भी कहा जाए और कितनी भी आलोचना की जाय इस तथ्य से कोई इंकार नहीं कर सकता कि हमारे देश में सदियों से चली आ रही वर्ण व्यवस्था जातीय संघर्ष के सबसे घिनौने रूप में कायम है। हजारों साल पहले जब यह व्यवस्था बनी थी, तब इसका औचित्य हो सकता है लेकिन आज यह न केवल गैर जरूरी है बल्कि पिछड़ेपन का प्रतीक भी बन गई है।

ब्रिटिश शासन ने इसे समझा और जातियों को आपस में लड़वाने का खेल रचकर अपना मतलब साधते रहे। आजादी के बाद जितने भी दलों की सरकारें आईं उन्होंने भी जातियों के बीच भेदभाव का फायदा उठाते हुए उनके बीच और भी गहरी खाई बनाकर अपना उल्लू साधने का काम किया।

यह ऐसा ही था कि जैसे चोर से कहा जाए कि तू चोरी कर और शाह से होशियार रहने के लिए कहा जाय जिसका अर्थ यह है कि दोनों को आपस में लड़वाने का पूरा इंतजाम कर दो।  बिल्लियों की लड़ाई सुलझाने के लिए बंदर बन कर न्याय करने का ऐसा ढोंग रचा जाए कि दोनों की गर्दन अपने हाथ में हो ताकि जिसे जब चाहे तब तोड़मरोड़कर अपने स्वार्थ की पूर्ति की जा सके।

सवर्ण और दलित

सामाजिक और राजनीतिक संस्थाओं ने वर्ण व्यवस्था के मूल स्वरूप को बिगाड़कर सवर्ण और दलित, दो ऐसे वर्ग पैदा कर इस तरह के हालात बना दिए कि दोनों ही एक दूसरे को न तो फूटी आंख सुहाएं और न ही एक का काम दूसरे के बिना चल सके।

वर्ण व्यवस्था की चारों जातियों ने मिलकर एक पांचवीं जाति के रूप में दलित जाति का निर्माण कर दिया।  उसमें गरीब, अनपढ़, बेसहारा और सदियों से अन्याय का शिकार रहे लोगों को डाला और पहले से स्थापित अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति, पिछड़ा वर्ग शामिल कर एक नई वर्ण व्यवस्था बना दी।

इस तरह एक नए समाज का निर्माण करने के बहाने से एक ऐसी विषबेल की खेती शुरू कर दी जिसकी चपेट में पूरा समाज आ गया।  दलित वर्ग के कुछ दबंग लोग इनके नेता बन कर समाज में अपना रोबदाब बिठाने लगे और एक बड़ा वोटबैंक बनाकर सवर्ण वर्ग को धमकाने से लेकर उन्हें ब्लैकमेल तक करने लगे।

सवर्ण जातियों को यह जल्दी ही समझ में आ गया और उन्होंने इन जातियों के शक्तिशाली और इनमें से जो लोग शिक्षा प्राप्त कर प्रतिभाशाली बन गए थे, उन्हें अपने साथ मिला लिया। अब मैदान तैयार था और जातीय संघर्ष का एक नया तानाबाना बनकर खड़ा हो गया।

ये लोग जरा सी बात का बतंगड़ बनाकर, कहीं भी कोई और कैसी भी घटना होने पर जिससे समाज में अव्यवस्था फैलाने से लेकर दंगे तक कराए जा सकते हों, भड़काने का काम करने लगे।  इसमें असामाजिक तत्व भी कूद गए जिसका परिणाम बड़े पैमाने पर हिंसा, आगजनी, तोड़फोड़ के रूप में निकलने लगा।

निशाने पर कौन

एक सोची समझी रणनीति के तहत सबसे अधिक निशाना उन लोगों को बनाया जाता है जिनके पास न पैसा है, न कोई पक्का रोजगार।  शिक्षा के नाम पर न के बराबर सुविधा होने के कारण ये लोग समझ ही नहीं  पाते कि उनके साथ हिंसा से लेकर शारीरिक और मानसिक उत्पीड़न जिसमें बलात्कर भी शामिल है, क्यों हो रहा है ? बजह यह कि इस सब के पीछे ज्यादातर लोग वे ही हैं जिन्हें ये अपना शुभचिंतक और अपना मानते हैं,  जिनके घरों, खेत खलिहानों और कल कारखानों में अपना खून पसीना बहाते हैं और यह सब करने पर भी केवल उनके पैरों की धूल बने रहने में ही संतोष अनुभव करते हैं।

दुःख की बात यह है कि दलित वर्गों में जो शिक्षित है, वे अपने ही लोगों को दीनहीन बनाकर रखने में ही अपना भला समझते हैं। दलितों के बीच से निकला उन्हीं का एक वर्ग उनका उत्पीड़न करने लगता है। इनके साथ सवर्ण वर्ग के लोग सहानुभूति से अधिक दयाभाव  दिखाते हुए उन्हें उकसाते रहते हैं जिससे जो पहले से ही दबा कुचला है वह और भी अधिक दयनीय हो जाता है।

सरकारों का पक्षपात

समाज की इस व्यवस्था को कायम रखने में सरकार भी अपना योगदान करती  है । इसका उदाहरण है कि आज तक कोई ऐसा कानून न बन पाना जो दलितों को उनके मूलभूत अधिकार ही दिलवा सके और उन्हें दबंग दलित हो या सवर्ण वर्ग के मठाधीश और सत्ताधारी, उनसे उनकी रक्षा कर सके।

जो दलित हैं, हम उनसे काम लेते समय उनके साथ ऐसा व्यवहार करते हैं कि मानो वे अस्पृश्य हो। उदाहरण के लिए शहरों में घरेलू काम करने के लिए रखे गए लोगों के कपड़े, बर्तन और टॉयलेट तक बिल्कुल अलग तय कर दिए जाते हैं। अगर वे जिज्ञासा के कारण घर की किसी चीज को हाथ भी लगा दें तो तूफान आ जाता है जबकि ऐसी वस्तुओं की साफ सफाई की जिम्मेदारी इन्हीं की होती है। मतलब यह कि ताला कुंजी सब तेरा पर किसी चीज को इस्तेमाल करना तो दूर, हाथ तक लगाया तो खैर नहीं।

यह कैसी विडम्बना है कि एक ओर हम विश्व गुरु बनने का सपना देखते हैं और दूसरी ओर अपने ही देश की एक चैथाई आबादी को नर्क जैसी जिन्दगी देने में भी कोई बुराई नहीं समझते।

देश में जो दलित उत्पीडन और उनकी महिलाओं के साथ दरिंदगी तक की वारदातें होती है, उसके पीछे कौन लोग हैं, उनकी सोच क्या है, इसके उदाहरण प्रतिदिन मिलते रहते हैं। दलितों को अपनी मिल्कियत समझने वालों का बस चले तो उन्हें इंसान का भी दर्जा न दे।

अगर कहीं किसी सवर्ण और दलित जाति के युवा वर्ग के बीच मैत्री, प्रेम संबंध और भाईचारा स्थापित हो गया तो समझिए कि आज के आधुनिक और वैज्ञानिक युग में भी यह मानो कोई ऐसा अपराध हो गया जिसकी कोई माफी नहीं, केवल सजा है जो अक्सर दलित पक्ष को दी जाती है।

ऑनर किलिंग के पीछे यही रहस्य है कि सवर्ण हो या दलित परिवार, उसे यह तो मंजूर है कि दोनों पक्षों में जीवन भर दुश्मनी बनी रहे लेकिन यह स्वीकार नहीं कि यदि दोनों में से किसी भी पक्ष का लड़का या लड़की एक दूसरे से प्रेम संबंध रखता है तो दोनों जीवन भर साथ रह सकें।

समाज और सरकार के लिए यह चुनौती है कि वह ऐसे प्रसंग जिनसे जातियों का एकीकरण होता है, उनमें शत्रुता के स्थान पर मित्रता का वातावरण बनता है, उन्हें प्रोत्साहन और विघटनकारी ताकतों का दमन कर वास्तविकता स्वीकार करने का साहस दिखाते हुए एक नई शुरुआत कर सार्थक प्रयास करें। 

शनिवार, 3 अक्तूबर 2020

सरकारों को ‘घोषणा बहादुर‘ बनाने में ब्यूरोक्रेसी का योगदान


हमारे देश में अक्सर राज्य या केंद्र में सत्ताधारी सरकारें अनेक घोषणाएं, लोक लुभावन योजनाएं, भविष्य में न जाने कब पूरी होने वाली परियोजनाओं के शिलान्यास, आसमान के तारे तोड़ कर जनता के हाथ में रख देने वाले वायदे तथा और भी न जाने क्या क्या करती और रखती रहती हैं।

कुछ तो वास्तव में कल्याणकारी होती हैं लेकिन जब ऐसी ऐसी बातें जिनका कोई सिरपैर ही गले से न उतरता हो तो आम जनता की हालत या तो  चेहरे पर नकली मुस्कान लाने या क्रोध में भरकर कोसना शुरू करने या फिर चादर लपेटकर सो जाने में ही अपनी भलाई समझने जैसी हो जाती है।

क्या कभी इस ओर भी ध्यान जाता है कि इन अच्छी हों या खराब योजनाओं को लागू करने की जिम्मेदारी किस पर होती है ? जी हां, हमारा मतलब उस तबके से है जिसे नौकरशाही, ब्यूरोक्रेसी या फिर सीधे सीधे अफसरी कहा जाता है और यह तंत्र इतना व्यापक और जलेबी की तरह उलझा  है कि इसकी गुत्थी सुलझाने में साधारण नागरिक की तो छोडि़ए, मंत्री, मुख्यमंत्री या प्रधानमंत्री तक को नाकों चने चबाने पड़ जाते हैं।

नौकरशाही का जन्म

हमारे देश में इसकी पैदाइश पहली बार अंग्रेजों के जमाने में हुर्इ और फिर दोबारा स्वतंत्र भारत में इसका नाम बदलकर इसमें भारतीय शब्द जोड़कर इसका नया जन्म मान लिया गया जबकि उनकी कुंडली और ग्रह दशा में कोर्इ परिवर्तन नहीं हुआ।

इस नौकरशाही के बारे में जॉर्ज फर्नांडिस ने कहा था कि इनकी दशा सौरमंडल में घूमते ग्रहों की भांति होती है जिसमें अनंत काल तक सरकारी योजनाओं को अमल में लाने वाली फाइलें निरंतर चक्कर लगाती रहती हैं और केवल ये ही जानते हैं कि उन फाइलों को कैसे धरती पर उतारा जा सकता है, वरना उनके भाग्य में हमेशा के लिए विलीन हो जाना ही लिखा होता है, चाहे कोर्इ कितनी भी ताकतवर सरकार हो, पक्ष या विपक्ष हो या फिर वर्तमान प्रधानमंत्री मोदी जैसा सख्त और निर्णायक कदम उठाने की हिम्मत रखने वाला राजनेता ही क्यों न

हो!

कुछ उदाहरण

देश में निर्भया जैसे नृशंस कांड न हों, उसके लिए सरकार ने निर्भया फंड बनाया लेकिन उसके इस्तेमाल की उम्मीद जिनसे थी, उन्हें यह पसंद नहीं आया होगा, इसलिए आज हाथरस, नोएडा, बलरामपुर और दूसरी जगहों पर बलात्कार, नारी उत्पीड़न और महिलाओं के साथ जोर जबरदस्ती की वारदातें कम होने के बजाय बढ़ ही रही हैं। इस फंड से प्रशासनिक खर्चों के अतिरिक्त  कुछ और शायद ही किसी राज्य या केंद्र की सरकार ने  अब तक किया हो, जिस उद्देश्य के लिए यह बना था उसे लेकर तो कतई नहीं।

नोएडा में तीन साल पहले नए औद्योगिक क्षेत्र के रूप में सेक्टर 155 में प्लॉट दिए गए थे और एक वर्ष में इसे पूरी तरह फल फूल जाना था लेकिन आज भी वहां वीरानी का आलम है क्योंकि अधिकारियों ने जरूरी सुविधाएं तक आज तक प्रदान नहीं कीं, इसी तरह अब नई फिल्म सिटी की घोषणा हुई है जिसका भगवान ही मालिक है क्योंकि सेक्टर 16 ए की फिल्म सिटी की दुर्दशा सब जानते हैं।

इसी तरह किसी भी राज्य की खोजबीन कर लीजिए, अनेक ऐसी  एक दो नहीं सैकड़ों घोषित योजनाएं मिल जाएंगी जो जनता का मुंह चिढ़ा रही होंगी और पब्लिक को अफसोस होता होगा कि वे क्यों सरकारों के कामों को पूरा करने के लिए अपनी मेहनत का पैसा टैक्स आदि के रूप में दे रहे हैं।

परिवर्तन मंजूर नहीं

पहले यह समझा जाए कि अफसरी आती कहां से है। यह एक प्रतियोगी परीक्षा पास करने से शुरू होती है जिसे पास करना आज आधुनिक संचार साधनों और टेक्नोलॉजी के युग में कोर्इ बहुत कठिन काम नहीं है और दूसरा पड़ाव यह कि आधे पौने घंटे के इंटरव्यू में उम्मीदवार की काबिलियत कि वह अफसर बनने के योग्य है, का फैसला कर लिया जाता है।

प्रश्न यह है कि क्या इससे यह तय किया जा सकता है कि कोर्इ इतना काबिल है कि देश चलाने की जिम्मेदारी उसे दी जा सके? हालांकि प्रशिक्षण देकर मतलब ठोक पीट कर उसे किसी आकार में गढ़ने की कोशिश की तो जाती है लेकिन यह तय करने का कौन सा मापदंड है कि कच्चा माल जंग लगा लोहा है या चमकाया जा सकने वाला सोना। खेद है कि आजतक कोर्इ ऐसी व्यवस्था नहीं हुर्इ कि जिन पर देश का भविष्य संवारने का भार है, उनके चुनाव के लिए परंपरा से हटकर कुछ सोचा जा सके।

वर्तमान सरकार ने इस दिशा में कोशिश की लेकिन उसमें कामयाबी नहीं मिली। यहां तक कि प्रशासनिक पदों पर सरकार के बाहर काम कर रहे प्रतिभाशाली लोगों को नियुक्त करने के प्रयास हुए लेकिन पहले से जमी हुर्इ लॉबी ने उन्हें आने और काम करने ही नहीं दिया।

सरकार ने भ्रष्टाचार पर लगाम, समय की पाबंदी, अफसर की जिम्मेदारी तय करने से लेकर ट्रांसफर, सस्पेंशन से लेकर नौकरी से निकाल दिए जाने तक की कार्यवाही की लेकिन अफसरी का परनाला उसी प्रकार बहता रहा, उसमें कॉस्मेटिक बदलाव तो हुआ दिखार्इ दे सकता है लेकिन कोर्इ ठोस परिवर्तन नहीं हुआ।

कार्य प्रणाली क्या है

जिन लोगों का ब्यूरोक्रेसी से वास्ता  रहा हो, जिन्होंने स्वयं अफसरी का स्वाद चखा हो या फिर जिन्हें इस कौम से काम लेने का मौका मिला हो, वे बता सकते हैं कि कोई योजना कैसे सिरे चढ़ती है और कौन सी अलमारियों में धूल फांकती रहती है।

इनकी कार्यप्रणाली तीन तरह से काम करती है सबसे पहले अपने राजनीतिक आका का मूड भांपा जाता है और यह देखा जाता है कि जिस योजना के पूरा करने की जिम्मेदारी उन पर डाली जाने वाली है, उसमें नेताजी का कौन सा हित समाया हुआ है, मसलन जनता को लॉलीपॉप दिखाना है, वायदों के जाल में फांसना है या वास्तव में उस पर अमल करना है।

दूसरा कदम यह देखना होता है कि इस योजना, परियोजना के पूरा होने में उनके व्यक्तिगत से लेकर पूरी लॉबी के हितों पर तो कोर्इ खतरा नहीं है। इसके साथ ही मान लीजिए कि आई आर्इ ए एस अधिकारी है तो वह यह देखेगा कि इसका असर दूसरी प्रशासनिक सेवाओं जैसे पुलिस, विदेश सेवा या अन्य पर क्या पड़ सकता है, मतलब कि उनके हितों के साथ तो कोई टकराव या समझौता नहीं होगा।

इसके बाद तीसरे कदम के रूप में यह तय होता है कि इसमें उनकी कितनी आर्थिक मदद यानी रिश्वत मिलने की संभावना, आकाओं की प्रशंसा यानी पीठ ठोकना, जनता पर उनके कर्मठ, ईमानदार होने और भलमनसाहत का  असर पड़ता दिखाई देना, क्षेत्र में उनका दबदबा बढ़ना और वे क्या किसी भी तरह की हैसियत रखने वाले को अपने आगे झुका सकते हैं ?

जब यह सब शीशे की तरह साफ यानी पारदर्शी हो जाता है तब जाकर यह तय होता है कि जनता की भलार्इ के नाम पर की गर्इ सरकारी घोषणा या योजना पर अमल करना है या उसे सरकार बदलने तक लटका कर रखना है क्योंकि मंत्री से लेकर प्रधान मंत्री तो आते जाते रहते हैं लेकिन उनकी नौकरी तो पक्की और रिटायर होने या उसके बाद भी जोड़तोड़ से कायम रहने वाली ही है।

अब यह समझ में आ गया होगा कि चींटी की चाल से चलना क्या होता है, अनपढ़, कम पढ़े लिखे या फिर विद्वान नेता को कैसे अपने इशारों पर चलाया जा सकता है, कोर्इ कितना भी दिग्गज हो, उसे भ्रम में कैसे रखना है, यह काम इन लोगों को बखूबी करना आता है।

ऐसे लोग विरले ही हैं जो अपने पद की गरिमा और देश की प्रतिष्ठा के साथ कोई समझौता नहीं करते, उनके लिए व्यक्तिगत स्वार्थ का कोई अर्थ ही नहीं होता, कोई कितना भी सनकी नेता हो, सही बात कहने और करने में कतर्इ कोताही नहीं करते और न ही ऐसे लोगों को बर्दाश्त करते हैं जिनके लिए अपने मतलब साधना ही प्राथमिकता होती है। कदाचित इन मुठ्ठी भर लोगों पर ही हमारा भविष्य टिका है वरना सरकारी हमाम में सब नंगे ही नंगे हैं।