शनिवार, 29 अगस्त 2020

धर्म और धार्मिक स्थल तोड़ने का नहीं जोड़ने का काम करते हैै


जब यह जानने, पढ़ने और देखने को मिलता है तो सोच को एक नया आयाम मिलता है कि सन 1589 में  अमृतसर में स्वर्ण मंदिर की पहली ईंट एक मुस्लिम मीर मियां मोहम्मद ने रखी थी। पंजाब के ही बरनाला जिले के एक गांव में हिन्दुओं का शिव मंदिर बनाने में सहयोग करते हुए एक मुस्लिम ने मस्जिद बनाने के लिए कुछ जमीन देने की बात कही तो  प्रबंधकों ने मंदिर के ही बगल में जमीन दे दी और उसी के पास गुरुद्वारे की ओर से निर्माण के लिए आर्थिक सहायता दी गई। इसी तरह उत्तर प्रदेश में बरेली की बुध वाली मस्जिद के कर्ता धर्ता एक हिन्दू ब्राह्मण है, वे और उनका परिवार अपने मंदिर की ही भांति मस्जिद की भी देखभाल करने में कोई कमी नहीं रखते। ऐसे भी उदाहरण हैं जिनमें मंदिरों,  मस्जिदों, गुरुद्वारों और गिरिजाघरों में  अलग-अलग धर्मों के लोग अपनी वैवाहिक रस्मों से लेकर अपने बहुत से रीति रिवाजों को पूरा करते हैं।

ऐसे एक नहीं और भारत ही नहीं, विदेशों में भी अनेकों उदाहरण मिल जाएंगे जिनमें अलग अलग धर्मों के धार्मिक स्थल एक दूसरे से सट कर बने  हुए हैं ।

इतिहास की ही एक और विशेष घटना का जिक्र करना जरूरी है। कहते हैं कि मुगल शासक औरंगजेब ने हिन्दुओं पर बहुत अत्याचार किए लेकिन वहीं ओडिशा के पूर्व राज्यपाल और स्वतंत्रता सेनानी डॉ विशंभर नाथ पांडे ने डॉ तेज बहादुर सप्रू के कहने पर  एक शोध किया जिसके मुताबिक औरंगजेब की तरफ से हिन्दू मंदिरों के लिए बहुत से आदेश और जागीरें दी गई थीं । इसी तरह उन्होंने टीपू सुल्तान के बारे में भी शोध किया तो उसमें भी अनेक ऐसे तथ्य मिले जिनसे यह सिद्ध होता है कि हमारे देश में सदियों से विभिन्न धर्मों के लोग एक दूसरे के धर्म और उसमें कहीं गई बातों को न केवल मानते और समझते रहे हैं, बल्कि उनकी वजह से आपसी मनमुटाव और झगड़े से भी कोसों दूर रहे हैं।

ऐसे भी अनेक उदाहरण हैं जिनमें चाहे किसी भी धर्म के पालन करने वाले हों लेकिन एक ही घर हो या महल या फिर पूजा या इबादत करने का स्थान, वहां विभिन्न धर्मों के प्रतीक मिल जाएंगे। जब ऐसा है तो फिर अचानक अक्सर ऐसा क्यों हो जाता है कि धर्म की रक्षा के नाम पर उन धर्मों को मानने वाले एक दूसरे से नफरत ही नहीं, मारकाट, हिंसा से लेकर आगजनी और तोड़फोड़ करने पर उतारू हो जाते हैं।

धर्म क्या है ?

अनादि काल से धर्मों का उदय होता रहा है और उनके प्रवर्तकों तथा अनुयायियों की संख्या उस धर्म की विशेषताओं के अनुसार घटती बढ़ती रही है। जो धर्म जितना सहिष्णु और जीवन को उदार तथा विनम्र बनाने की दिशा दिखलाता है, उसका विस्तार भी उतना ही अधिक होता है। इसके साथ ही जिन धर्मों तथा उनके मानने वाले अपने ही बनाए दायरे या परिधि में रहना  श्रेयस्कर समझते हैं, वे उसी के अनुसार व्यवहार करते हैं।

इसका अर्थ यह हुआ कि जिन धर्मों के आचार विचार और उनके नियम इस तरह के होते हैं कि प्रचार प्रसार से लेकर कभी कभी विनम्रता के विपरीत जाकर जबरदस्ती भी धर्म परिवर्तन कराया जा सके तो उसमें भी उनके मुताबिक कोई हर्ज नहीं है। इसी के साथ वे धर्म भी हैं, जिन्हें  इस बात की कोई चिंता नहीं होती कि उसके अनुयाई कम हो रहे हैं या बढ़ रहे हैं। वे जितने हैं उसमें ही संतुष्ट रहते हैं और न किसी अन्य धर्म के मानने वालों के मामलों में हस्तक्षेप करते हैं और न ही चाहते हैं कि कोई दूसरे धर्म के मानने वाले उनके धर्म की टीका टिप्पणी  या उनके रीति रिवाजों में किसी प्रकार का कोई फेरबदल करने की  अनावश्यक चेष्टा करे।

धार्मिक विश्वास

किसी भी व्यक्ति का धर्म जन्म लेते ही निश्चित हो जाता है और जीवन भर वह उसी को मानता है, बशर्ते कि किसी साधारण या विशेष कारण से वह कोई दूसरा धर्म स्वीकार कर ले और शेष जीवन उसी धर्म के आधार पर अपना जीवन व्यतीत करते हुए समाज में अपना योगदान करता रहे।

कदाचित इसीलिए धर्म को जीवन जीने की शैली या पद्धति कहा गया है। इसमें इस तरह की बातों का कोई न तो महत्व है और न ही जरूरत कि यह सोचा जाए कि मेरा धर्म किसी दूसरे के धर्म से श्रेष्ठ  है क्योंकि जब यह जिन्दगी जीने का एक तरीका ही है तो क्यों कोई अपने को बेहतर और दूसरे को कमतर आंकने में अपना समय नष्ट कर जीवन के बहुमूल्य क्षणों को व्यर्थ की बातों में बीत जाने दे बजाय इसके कि वह अपने समय को आर्थिक उन्नति और सामाजिक जीवन के उत्थान में लगाए।

कितना भी अध्ययन और चिंतन मनन कर लीजिए, कितने भी शोध ग्रंथ तलाश लीजिए और विभिन्न धर्मों की  कितनी ही व्याख्या कर लीजिए, यह कहीं नहीं मिलेगा जिससे यह पता चल सके कि कौन सा धर्म किससे अच्छा है या खराब, सब ही में मानवीय वृत्तियों को लेकर एक जैसी ही बातें मिलेंगी।

हमारे व्यक्तिव के जितने भी पहलू हैं जैसे कि अहंकार, द्वेष, प्रेम, परोपकार, सद्भावना, मित्रता या फिर कोई अन्य, सब ही धर्मों में इनके बारे में एक जैसी ही बातें कही गई हैं। जब ऐसा है तो किस आधार पर कोई अपने धर्म को लेकर कट्टरपन की हद तक जाकर दूसरे धर्म के मानने वालों के साथ दुर्व्यवहार करने की सोच भी सकता है ?

इस समाज में दो ही तरह के लोग मिलते हैं, एक सज्जन और दूसरे दुर्जन, यह हम पर है कि कोई क्या बनना और कहलाना पसंद करता है, इसमें धर्म को घसीटने और उसे नीचा दिखाने की जरूरत क्या है? धर्म को लेकर दंगाइयों की पहचान करने में हमारी विफलता अनेक वीभत्स दृश्यों को साकार करती रही है ! इसे जितना शीघ्र समझ लेंगे उतना ही देश धार्मिक एकता की मिसाल कायम करने में सक्षम हो सकेगा।

अब हम इस बात पर आते हैं कि जब हमारे देश की यह परंपरा रही है कि एक दूसरे के धर्म के धार्मिक स्थल के प्रति समान आदर रखते हुए उनके निर्माण में सदियों से मिलजुल कर अपना योगदान करते रहे हैं तो आज वर्तमान वैज्ञानिक मान्यताओं के अनुसार चलने वाले युग में क्यों सहयोग करने के स्थान पर विरोध और वैमनस्य को अपना रहे हैं।


जिस तरह जन्म लेते ही धर्म का निर्धारण हो जाता है, उसी प्रकार यह तय हो जाता है कि हमारे ईश्वर अर्थात आराध्य का स्वरूप क्या है।यह तो हो सकता है कि बड़े होने पर ईश्वर के होने या न होने यानि आस्तिक या नास्तिक बन कर ज्ञानी होने का चोला पहन लें लेकिन यह असंभव है कि अपने धर्म के पूज्य प्रतीकों या स्वरूपों की अवहेलना या उनके प्रति अनादर का भाव रख सकें। भगवान राम, हजरत मोहम्मद, ईसा मसीह, गुरु नानक, महावीर जैन, गौतम बुद्ध से लेकर जितने भी धर्मों के प्रवर्तक हुए हैं, सब के प्रति समान भाव रखने में हर्ज क्या है ? जरा सोचिए !


(भारत)

शुक्रवार, 21 अगस्त 2020

बढ़ती उम्र यानि बुजुर्ग होने का अपना ही मजा है



अमरीका के भूतपूर्व राष्ट्रपति रोनाल्ड रीगन ने 19 अगस्त 1988 को संयुक्त राषट्रसंघ में यह प्रस्ताव किया कि बुजुर्गों की समर्पण भावना, उनकी उपलब्धियों और जीवन भर की सेवाओं के प्रति कृतज्ञता प्रकट करने के लिए हर साल 21 अगस्त को अंतररा्ट्रीय स्तर पर विश्व बुजुर्ग अर्थात सीनियर सिटीजन दिवस मनाया जाय।


अच्छी और सुलभ चिकित्सा, बीमारियों की रोकथाम और स्वस्थ जीवन शैली या लाइफस्टाइल अपनाने से अब रोगों से लड़ने की क्षमता बढ़ने से पिछले पचास सालों में औसत आयु अठारह साल बढ़ी है। अनुमान है कि कोई भी व्यक्ति ज्यादा से ज्यादा 120 साल तक जीवित रह सकता है, उससे ऊपर की उम्र के उदाहरण विरले ही होंगे।


उम्र के तकाजे या अपेक्षाएं


मशहूर शायर बशीर बद्र ने लिखा है ;

होठों पे मुहब्बत के फसाने नहीं आते

साहिल पे समुंदर के खजाने नहीं आते

पलकें भी चमक उठती हैं सोते में हमारी

आंखों को अभी ख्वाब छुपाने नहीं आते


कुछ लोग कहते हैं कि उम्र बस एक संख्या के अतिरिक्त और कुछ नहीं, कुछ के लिए बोझ भी है और कई लोग इसे मजबूरी का जीना मानते होंगे और बहुत से निदा फाज़ली की तरह यह गुनगुनाते मिलेंगे


हम हैं कुछ अपने लिए कुछ हैं जमाने के लिए

घर के बाहर की फिजा हंसने हंसाने के लिए

यूं लुटाते न फिरो मोतियों वाले मौसम

ये नगीने तो हैं रातों को सजाने के लिए

मेज पर ताश के पत्तों सी सजी है दुनिया

कोई खोने के लिए है कोई पाने के लिए


जब उम्र बढ़ने लगती है और उसका एहसास होने को होता है तो यह तसल्ली देना बहुत भाता है कि बुढ़ापा तो अभी कोसों दूर है। मगर घर से बाहर निकलते ही गुलजार साहब की तरह कुछ ऐसा नजर आता है!


शहर यह बुजुर्ग लगता है

फैलने लगा है अब

जैसे बूढ़े लोगों का पेट बढ़ने लगता है

जुबां के जायके वही

लिबास के सलीके भी,

पतली पतली गलियां धीरे धीरे चलती रहती हैं

और रगों में खून बहता रहता है

खुश्की बढ़ गई है जिस्म पर कवेरी सूखी रहती है

शाम को भी जल्दी नींद आने लगती है इसे

बूढ़ा तो नहीं मगर

शहर ये बुजुर्ग लगता है!


उम्र पर संगत का असर


यह एक हकीकत है कि हमारी सोच, काम करने के तरीके और कोई भी फैसला करने में हमारी जो सोहबत है, जिनके साथ रोजाना का उठना बैठना होता है और हम किसी भी मसले पर जिनसे सलाह मशविरा करते हैं, उनकी बात पर न केवल गौर करते हैं, बल्कि मानते भी हैं, अब उसका नतीजा चाहे अच्छा हो या बुरा, बस मन को तसल्ली रहती है कि जो किया सोच समझकर किया, इसके आगे जो भाग्य में लिखा है, वहीं होगा जिस पर किसी का कोई वश नहीं ।


बुढापे और जवानी का संगम


देखा गया है कि वरिष्ठ नागरिक या बुजुर्ग बनने की दहलीज पर, अक्सर उन लोगों के साथ वक्त बिताना, उनसे अपनी हर बात कहना, जो अपने से आधी उम्र तक के होते हैं, अच्छा लगता है। यह बात और है कि वे आपको किस दृष्टि से देखते हैं लेकिन आप उन्हें अपना राजदार समझने लगते हैं।


सत्तर से  नब्बे साल से ज्यादा के लोग भी अपनी आयु वालों से कम और काफी कम उम्र के लोगों के साथ ज्यादा उठना बैठना और वक्त बिताना पसंद करते हैं। उनके उम्रदराज होने का उनकी इस आदत का बहुत बड़ा योगदान होता है, चाहे इससे उनकी बदनामी या फजीहत ही क्यों न हो।


बूढ़ी घोड़ी लाल लगाम, बुढ़ापे में मस्ती सूझना, उम्र का लिहाज करने जैसे वाक्यों का सामना भी करना पड़ सकता है लेकिन ऐसे लोगों पर कोई असर नहीं होता, वे इसे अपनी जिंदादिली मानते हुए उम्र को सही मायने में एक नंबर की तरह लेते हुए जीते रहते हैं।


इसका मतलब यह हुआ कि अगर लंबी उम्र लिखवा कर लाए हैं तो उसे अपने युवा दोस्तों, परिवार के सदस्यों और अपनी जवानी के साथियों के साथ ही गुजारना बेहतर है।




हमारे देश में जैसी सामाजिक और पारिवारिक व्यवस्था है, स्वास्थ्य सेवाओं की जो हालत है और आर्थिक रूप से या तो सरकार की पेंशन, अगर मिलती हो, बुजुर्ग होना अक्सर एक अभिशाप बन जाता है। इसीलिए ज्यादातर लोगों में आम तौर पर हरेक चीज की इच्छा हो सकती है लेकिन उम्र बढ़ने की नहीं। जो काम करता रहा, वह तब तक देता रहा जब तक उसने काम करना बंद नहीं किया पर उसके बाद क्या, यह प्रश्न सामने आने पर उसकी मानसिकता ऐसी हो जाती है कि जीने को मन नहीं करता और बढ़ती उम्र बोझ लगने लगती है और जीवन एक अभिशाप की तरह गुजरने लगता है।


वरिष्ठ नागरिकों के लिए कहने को तो सरकार  अनेक योजनाएं और सुविधाएं गढ़ती रहती है लेकिन आज तक रेल में चढ़ना हो या सीढ़ियां उतरना हो या फिर अपने किसी अधिकार के लिए लड़ना हो तो उस समय उन्हें जितनी मुसीबतों का सामना करना पड़ता है, इसके एक दो नहीं हजारों उदाहरण मिल जाएंगे। यह सरकार और समाज की कमी ही तो है कि बूढ़े होने पर कोई बीमा कंपनी उसका बीमा नहीं करती, अगर अकेला रहता हो और बीमार पड़ जाए तो उसे डॉक्टर और अस्पताल निराश्रित  और बेसहारा मानकर दुर्गति करने से नहीं चूकते।


बढ़ती उम्र में चिकित्सा विज्ञान के अनुसार हमारे दिमाग का आकार सिकुड़ने लगता है, फेफड़ों का लचीलापन कम होते जाने से सांस लेने और छोड़ने में कष्ट होता है, हृदय कोशिकाओं में रुकावट पैदा होने से खून का प्रवाह ठीक से नहीं हो पाता, सिर से लेकर पैर तक किसी न किसी अंग में दर्द रहने लगता है और चलने फिरने में तकलीफ होती है, ऐसे में अगर रुपए पैसे की परेशानी हो जाए तो फिर दुखों के अंबार लगने में समय नहीं लगता, इसलिए हमेशा अपने बुढ़ापे के लिए एक अच्छी खासी रकम बचा कर रखने में ही समझदारी है।


अंत में यह बात कही जा सकती है कि अगर किसी को छड़ी लेकर चलते देखो तो यह मत समझ लेना कि वह बेसहारा है, मोहताज है, बल्कि वह आत्मनिर्भर है। उसने किसी के कंधे का सहारा नहीं लिया, आश्रित नहीं बना, उसके चेहरे और हाथों की झुर्रियों का मतलब यह है कि यहां कभी मुस्कान रहती थी। अगर किसी ऐसे व्यक्ति को हंसा सको तो समझना कि ईश्वर के दर्शन हो गए।



(भारत)

शुक्रवार, 14 अगस्त 2020

यादों के झरोखे से, स्वतंत्र भारत और कौमी एकता




स्वतंत्रता की वर्षगांठ मनाते हुए भारतीयता पर गर्व होता है, पर कुछ ऐसी बातों पर भी ध्यान जाना स्वाभाविक है जो एकता और अखंडता के साथ साथ देश की प्रगति, सोच और व्यवहार से जुड़ी हैं। इसके लिए उन स्थितियों का विश्लेषण करना आवश्यक है जो अक्सर आगे बढ़ने में हमारे रास्ते का रोड़ा बनती रही हैं । 

ऐतिहासिक विरासत

सबसे पहले विभिन्न धर्मों विशेषकर हिन्दू मुस्लिम के बीच सद्भाव, सहयोग की चर्चा करते हैं। आजाद भारत में अगर कोई सबसे बड़ी समस्या रही है तो वह इन दोनों के संबंधों को लेकर ही है जो कभी तो इतने मधुर दिखाई देते हैं कि जैसे दो जिस्म और एक जान हों और कभी इतने कटु कि जैसे जन्म जन्मांतर की शत्रुता हो।

हिन्दु और मुस्लिम समाज के रिश्तों को समझने के लिए शुरुआत आजादी की पहली लड़ाई से करनी होगी जो सन 1857 में दोनों धर्मों के लोगों ने मिलकर लड़ी थी। यह वह वक्त था जिसमें तब तक ऐसा माहौल बन चुका था कि दोनों को एक दूसरे से अलग करके देखा ही नहीं जा सकता था। अंग्रेजी हुकूमत आने तक दोनों धर्मों के मानने वालों के लिए यह देश उनकी जन्मभूमि बन चुका था जिसे गंगा जमुनी तहजीब या धार्मिक रूप से अलग होते हुए भी एक होने की मिसाल कह सकते हैं।

जब यह सब था तो रिश्तों में खटास कहां से आई जो अब तक मुंह का जायका बिगाड़े हुए है। इसे समझने के लिए फिर इतिहास पर लौटते हैं।

अंग्रेज एक चालाक कौम थी, उसकी समझ में आ गया था कि अगर हिंदुस्तान पर राज करना है तो इन दोनों की एकता को तोड़कर ही किया जा सकता है। उसने जो बांटो और राज करो की चाल चली उसका जहर आज तक निकल नहीं सका है और जरा सी बात पर हिन्दू मुस्लिम एक दूसरे के खिलाफ खड़े दिखाई देते हैं।

जरा सोचिए जब तब का इतिहास ऐसी घटनाओं से भरा पड़ा है जो बताती हैं कि कैसे हिन्दू हो या मुसलमान, अपने तीज त्योहार, रीति रिवाज, मंदिर मस्जिद का निर्माण एक साथ मिलकर करते थे। मुस्लिम बादशाह हों या हिन्दू राजा, दोनों ही के दरबार में दोनों धर्मों के लोग होते थे।

अंग्रेज के लिए हम केवल प्रजा थे, नागरिक नहीं और हिन्दू तथा मुसलमान भारत के नागरिक थे और भारतवासी हिन्दू या मुस्लिम शासकों की प्रजा थे।

अंग्रेज ने अपना राज कायम करने के लिए इसी एकता को तोड़ने और छिन्न भिन्न करने का काम किया और धार्मिक चादर में इतने छेद कर दिए कि हिन्दू मुसलमान के लिए यह तय करना मुश्किल हो गया कि कौन किस छेद से निकली हवा में सांस ले। उसने हमें इतने टुकड़ों और श्रेणियों में बांट दिया कि हम कभी एक न हो सकें और वह हम पर शासन करता रहे।

अपने मकसद को पूरा करने के लिए उसने पहले एक अंग्रेज से ही कांग्रेस की स्थापना कराई और जब यह देखा कि उसके अध्यक्ष और सदस्य हिन्दू और मुसलमान दोनों ही बिना किसी धार्मिक तनाव के बन रहे हैं और मिलजुलकर काम कर रहे हैं तो उसने कांग्रेस को हिन्दू प्रभुत्व वाली संस्था घोषित कर दिया और सन 1906 में ढाका के नवाब ख्वाजा सलीमुल्लाह से अपने धर्म की रक्षा के नाम पर मुस्लिम लीग बनवा दी। यही नहीं सन 1905 में लॉर्ड कर्जन ने बंगाल का विभाजन इसलिए कर दिया ताकि पूर्व में एक मुस्लिम बहुल प्रांत बन सके।

अंग्रेज ने एकता में सेंध तो लगा दी थी लेकिन कांग्रेस और लीग दोनों के बीच फिर भी सहयोग संबंध बन गए और दोनों मिलकर अंग्रेजों से लड़ने लगे। हकीम अजमल खां, मौलाना मोहम्मद अली, डॉ एम् ए अंसारी जैसे लोग दोनों ही संस्थाओं से जुड़े रहे। यह देखकर अंग्रेज ने उस समय के राष्ट्रवादी और भारतीय मुसलमान की नुमायंदगी करने वाले जिन्ना को पट्टी पढ़ाई और मुसलमानों के लिए एक अलग राज्य का सपना दिखा दिया जो देश के विभाजन तक जाता था।

भारत और पाकिस्तान का बंटवारा चर्चिल की सोची समझी चाल थी जो उसने माउंटबेटन के हाथों पूरी करवाई और इसमें जिन्ना को राजदार बना लिया, वरना जो व्यक्ति कंधे से कंधा मिलाकर आजादी की जंग लड़ता रहा हो वह अचानक कैसे इतना जिद्दी हो सकता था कि मुसलमानों के लिए अलग मुल्क बनाने से कम कुछ भी सोचने से परहेज करने लगा।

इतिहास बताता है कि चर्चिल इसलिए पाकिस्तान बनवाना चाहता था ताकि उस इलाके में खनिज तेल पर अपना अधिकार कर सके और रूस को दूर रख सके।इसके लिए उसे एक कठपुतली चाहिए थी जो जिन्ना के रूप में उसे मिल गई। अंग्रेज ने उसका कद इतना बढ़ा दिया कि उसे अपनी सत्ता के अतिरिक्त कुछ भी दिखाई देना बंद हो गया।

महात्मा गांधी की दूरदर्शिता

गांधी जी विभाजन का विरोध कर रहे थे क्योंकि उन्होंने भांप लिया था कि अगर बंटवारा हुआ तो आबादी की अदला बदली में भयानक मारकाट होगी। उन्होंने स्वतंत्र भारत का पहला प्रधान मंत्री जिन्ना को बनाने तक का प्रस्ताव रखा।

अंग्रेजों की बांटो और राज करो की नीति गांधी जी से अधिक कोई नहीं समझता था। उन्होंने यह देखकर कि दोनों कौम अलग अलग होती जा रही है और इनके एक हुए बिना आजादी हासिल करना मुश्किल है तो उन्होंने अहिंसा, उपवास और सत्याग्रह का ऐसा लड़ने का तरीका निकाला जिसकी काट अंग्रेज के पास नहीं थी।

अब अंग्रेज कोई धार्मिक या आध्यात्मिक तो थे नहीं जो यह समझ पाते, वे तो केवल एक लड़ाके, कपटी व्यापारी, अन्यायी और शोषक थे जिनका मकसद केवल भारत को लूटना था। जब उन्होंने देखा कि हिन्दू मुसलमान को अलग नहीं कर पा रहे हैं तो उन्होंने इन दोनों धर्मों के दलित वर्ग को एक अलग पहचान के रूप में खड़ा कर दिया।

आरक्षण, शिक्षा और रोजगार

आजादी के बाद हमारे नेताओं ने इन तीन वर्गों अर्थात हिन्दू, मुसलमान और दलित को एकसूत्र में पिरोने का काम करने के स्थान पर उन्हें अपने धर्म और जाति के आधार पर अलग अलग रखने का काम किया। आरक्षण इसी का नतीजा है जो राजनीति, शिक्षा, नौकरी और प्रमोशन का आधार बन गया।

यही नहीं, विद्यार्थियों के लिए एक समान शिक्षा नीति बनाने में भी चूक कर दी। मुस्लिम समाज के मदरसे और हिन्दू समाज के लिए पाठशाला या शाखाएं इसी का स्वरूप हैं जहां धार्मिक कट्टरपन की शिक्षा और एक दूसरे से अपने को श्रेष्ठ समझने और नफरत करने का पाठ पढ़ाया जाने लगा।

यही कट्टरपन आज जब कभी उन्माद बन जाता है तो खून खराबे तक में बदल जाता है।


कहते हैं कि बीती ताहि बिसार दे आगे की सुध ले, इसलिए इतिहास की परतें खोलने का अर्थ यही है कि जिस सद्भाव, मैत्री और भाईचारे के साथ रहने की परंपरा हिन्दू मुसलमान के बीच अंग्रेजी शासन से पहले थी, क्या वही फिर से अब शुरू नहीं की जा सकती? 

यह देखकर दोनों ही धर्मों के अनुयायियों को दर्द और चोट तो लगती ही है, जब बिना किसी बात के एक दूसरे को मरने मारने के लिए तैयार हो जाते हैं। दिल्ली के दंगे हों या अभी जो बंगलौर में हुआ उसे देखकर यही लगता है कि अंग्रेजो की विषबेल अभी भी जब चाहे दंश देने के लिए बाहर आ जाती है। इसे जड़ से उखाड़ कर फेंक देना क्या असंभव है ?

इतिहास के पन्नों को खंगालने से हमें यह भी जानकारी मिलती है कि अंग्रेज ने इस संबंध में अपने फायदे के लिए जो नीतियां बनाई थीं, लगभग वही, मामूली फेरबदल के साथ 

आजादी के बाद भी चालू रखी गईं जिनका परिणाम अशिक्षा की बढ़ौतरी और शिक्षितों की बेरोजगारी के रूप में आता रहा है।

वर्तमान समय के कुछ साहसिक निर्णयों से स्थिति में काफी कुछ बदलाव होने की उम्मीद की जा सकती है। इसमें कोई शक नहीं कि विज्ञान और प्रौद्योगिकी, व्यापार और उद्योग तथा आधुनिक संसाधनों के क्षेत्र में हमने ऐसे कीर्तिमान स्थापित किए हैं जिनसे हमारे देश की कीर्ति और गौरव में बढ़ौतरी हुई है। लेकिन विडंबना यह है कि हमने जितनी प्रगति की, उसका लाभ एक सीमित वर्ग तक ही पहुंच पाया और जनसंख्या का एक बड़ा हिस्सा तरक्की के फलस्वरूप होने वाले लाभ से वंचित रह गया, जिसका नतीजा गरीबी के विस्तार के रूप में सामने आया।

हम होंगे कामयाब के मंत्र के साथ उम्मीद है कि यह स्वतंत्रता दिवस देश के इतिहास में मील का पत्थर साबित होगा और हम स्वर्णिम युग की शुरूआत कर सकेंगे जिसमें सभी धर्मों, जातियों और जनजातियों के लोग सबसे पहले देश की भावना से रह सकेंगे क्योंकि देश से बड़ा कुछ भी नहीं है।


(भारत)

शुक्रवार, 7 अगस्त 2020

महामारी केवल आपदा नहीं, एक अद्भुत अवसर भी है


कहते हैं कि मनुष्य अपने मन की सोच के अनुसार अपना काम करने की दिशा तय कर लेता है, मतलब यह कि परिस्थितियों के अनुसार अपने को ढाल लेता है। जो ऐसा नहीं  कर पाते वे समय को भला बुरा कहने और अपने भाग्य को कोसने लगते हैं।


विलियम शेक्सपियर की कालजई रचनाएं उस समय फैली महामारी के दौरान अकेलेपन को अवसर में बदलने का परिणाम थीं, इसी it वैज्ञानिक न्यूटन ने गुरुत्वाकर्षण, ऑप्टिक्स और कैलकुलस की खोज भी उस समय की महामारी में अकेलेपन को हराते हुए की थी।


आज जो यह दुनिया भर में कोरोना के कारण हालात हैं, उसमें जिन्होंने वक्त की नजाकत समझते हुए अपने को बदल लिया वे आगे चलकर बहुत नाम, पहचान, पैसा कमाने वाले हैं, इसमें कोई संदेह नहीं है।


साहित्य और कला


यह एक सच्चाई है कि जब तक कहानी, उपन्यास, नाटक और फिल्मों जैसी रचनात्मक 

कृतियों की प्रशंसा, आलोचना नहीं होती, तब तक रचनाकार को संतोष नहीं मिलता और जब उसे अपनी रचना की अच्छाई या बुराई सुनने को मिलती है तो उसके लिए उससे बड़ा कोई पुरस्कार नहीं होता।


अब क्योंकि ऑडिटोरिम, सिनेमा हाल और ऐसी जगहों पर आना जाना संभव नहीं जहां श्रोता और दर्शक जमा हो सकें, इसलिए आधुनिक तकनीक का इस्तेमाल करते हुए अनेक ऐसे मंच सामने आए जहां अपनी बात कही जा सके और दूसरों की सुनी भी जा सके।


ऐसा ही एक मंच ‘चाय वाय और रंगमंच‘ के नाम से मुंबई की एक संस्था कोकोनट थिएटर ने फेसबुक के जरिए उपलब्ध कराया जो अप्रैल के अंतिम सप्ताह से शुरू होकर अगस्त के पहले सप्ताह तक प्रतिदिन शाम को एक निश्चित समय पर थियेटर और वहां से निकलकर आए रंगमंच और  सिनेमा के प्रसिद्ध कलाकारों के न केवल अनुभव सांझा करता रहा है, बल्कि अभिनय की बारीकियों, कलाकारों के चयन की प्रक्रिया, सेट बनाने, मेकअप की जरूरत, प्रकाश और ध्वनि से उपयुक्त प्रभाव पैदा करना, वेशभूषा और जो कुछ भी एक प्रस्तुति के लिए आवश्यक होता है, उसके विवरण और व्याख्या से इस अनूठे कार्यक्रम को प्रस्तुत करता रहा है।


इसमें एक घंटे का समय एक व्यक्ति को अपनी बात रखने और दर्शकों के प्रश्नों के उत्तर देने के लिए निर्धारित था। इस कार्यक्रम में भाग लेने वालों की संख्या बता पाना तो संभव नहीं क्योंकि फेसबुक तो विश्वव्यापी है लेकिन जिसने भी इसे देखा होगा, उसे अवश्य ही बहुत सी ऐसी जानकारियां मिली होंगी जिनका इंतजार उसे रहता होगा।


इसमें जिन लोगों ने अपनी बात कही उनमें शबाना आजमी, शत्रुघ्न सिन्हा, सुभाष घई, इला अरुण, श्रेयस तलपड़े, राजपाल यादव, रीता गांगुली, राकेश बेदी सहित एक सौ दस ऐसी हस्तियां शामिल थीं जिन्होंने रंगमंच को उसका वैभवशाली वर्तमान प्रदान किया।


यह कार्यक्रम अपने आप में एक तरह का ट्रेनिंग सेंटर बन गया जहां बहुत कुछ सीखने को मिलता है।


इसी तरह  सेमिनार की जगह लेे चुके वेबीनार के माध्यम से बहुत से विषयों पर विशेषज्ञों के विचार जानने और समझने तथा अपनी शंकाओं के समाधान का भी एक आधुनिक तकनीक पर  आधारित  मंच सुलभ हो गया है जिसे ऑपरेट करना बहुत आसान है।


पहले जहां इस प्रकार की गोष्ठी, कार्यक्रम में जाने से पहले निमंत्रण, समय, स्थान और सुविधाओं की जरूरत होती थी, वह अब केवल अपने फोन, लैपटॉप या कंप्यूटर के बटन दबाने से ही पूरी होने लगी है।


विज्ञान और प्रौद्योगिकी


इस महामारी से निपटने के लिए जहां दुनियाभर में शोध हो रहे हैं वहां जीवन को और अधिक सुविधाजनक बनाने के लिए प्रतिदिन वैज्ञानिक अनुसधानों के आधार पर विकसित नए उपकरण भी सामने आ रहे हैं। मिसाल के तौर पर पहले जिस वेंटीलेटर को अस्पताल में अंतिम उपचार के रूप में देखा जाता था, अब वह बहुत सामान्य सा उपकरण लगने लगा है। इसे बनाने के लिए कंपनियों में होड़ लग रही है। इसी तरह पहले सैनिटाइजर का इस्तेमाल बहुत विशेष परिस्थितियों में किया जाता था लेकिन अब यह रोजाना के काम आने वाली जरूरी वस्तु बन गया है।


हमारी वैज्ञानिक प्रयोशालाएं इस बीमारी का इलाज ढूंढने के अतिरिक्त ऐसे रसायन, यन्त्र और फार्मूले विकसित करने में लगी हैं जिनसे खेतीबाड़ी, बागवानी करना लाभदायक हो और जल, वन और पर्यावरण का संरक्षण भी हो। कुदरत ने नदी, नालों से लेकर समुद्र तक और खुले मैदान से लेकर पर्वत शिखरों तक को स्वच्छ और मनोहारी बना दिया है। इन प्राकृतिक संसाधनों को ऐसा ही बनाए रखने के लिए विज्ञान तो अपनी भूमिका निभा ही रहा है पर हम सब के लिए भी यह एक सबक है कि प्रकृति से छेड़छाड़ करने का परिणाम कितना घातक हो सकता है और साथ ही एक अवसर भी कि हम अपना योगदान कैसे कर सकते हैं।


उद्योग और व्यापार


इस महामारी ने औद्योगिक नीतियों और व्यापारिक प्रतिष्ठानों के तौर तरीकों को भी उलट पलट दिया है। जिन उपायों को अपनाने से परहेज करते थे, अब वे ही सुगम और व्यावहारिक हो गए हैं। जैसे कि ऐसी मशीनों के इस्तेमाल का विरोध होता रहा था जिनसे कामगारों की जरूरत कम होती हो लेकिन अब रोबोट से भी काम लेना जरूरी होता जा रहा है ताकि कम से कम लोग ही पूरा काम कर सकें।


इससे बेरोजगारी बढ़ने और नौकरियों के अवसर कम हो जाने का खतरा तो बढ़ा है लेकिन साथ ही सोच बदलने और नए विकल्प तलाशने का मौका भी मिला है।


अंत में


इस महामारी ने कविता, चित्रकला के जरिए अपनी भावनाओं को व्यक्त करने का अवसर दिया है। ऐसी ही कुछ रचनाओं का आनंद लें।


इस कोरोना ने......

कितने घर फूंके, कितने घर तोड़े हंै

इसने हम सबका, कैसे, भरोसा तोड़ा है

अपने ही घर में हमें, कैद कर छोड़ा है

अपनो को अपनो से, दूर कर छोड़ा है

जाने किस भेस में, आ जाये कोरोना

इस बात के डर से, पड़ रहा है जीना

आदमी ही आदमी से, घबरा रहा है

हर तरफ कैसा ये, खौफ छा रहा है

गुमां था जिन पर, कि वो हैं हमारे

कोरोना ने कर दिया, सबको किनारे

पहले बिमारी में, होती थी तिमारदारी

अब तो देखने से ही, बढ़ती है बिमारी

अकेले ही गुजरती है, दिन रात सारी

इस महामारी की, है ये मजबूरी,

करदी है इसने, अपनो से दूरी 

कोरोना से लड़ने की, है जिद्द हमारी

हम सभी पड़ेगें, कोरोना पर भारी


रचनाकार फूलचंद


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सलाम...जाबांज सेनानी

कोरोना की इस दहशत मंे,

जब हम है बंद दरवाजो में,

वो खुले आसमां के नीचे,

बिना किसी दीवारों के।


सड़कों के बैरियर पर ड्यूटी,

भरी दोपहरी धूप के नीचे, 

आंधी या तूफां आए,

बारिश की बूंदों से भीगें।

डटे रहें अपने मकसद पर

ये जाबांज सेनानी


घर घर जाकर जांच ये करते, 

पीड़ित को सेंटर पहुंचाते

गली कूचों में गश्त लगाते,

खुद से पहले हमें बचाते

हम तुम्हें सलाम बजाते


ओ जांबाज सेनानी

सलाम, जाबांज सेनानी


रचनाकार: रीना वधवा  

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(भारत)