प्रत्येक वर्ष बहुत सी अच्छी और बुरी, सामान्य तथा विशेष, उलझन या सुलझन से भरा होता है और अपने में खट्टी मीठी यादों को समेटे हुए भूतकाल बन कर अपना प्रभाव भविष्य पर छोड़ता जाता है।
युद्ध का उन्माद
यह वर्ष अनेक युद्धों से आरंभ हुआ। विश्व युद्ध बनने की आशंका ही नहीं, उसकी पूरी संभावना के साथ रुस और यूक्रेन की लंबी खिंचती लड़ाई के आसार अच्छे नहीं हैं। पर्यावरण विशेषज्ञ और वैज्ञानिक मान रहे हैं कि अनेक देशों में इस समय मौसम के बदलते मिजाज़ का कारण युद्ध में इस्तेमाल हाथियार हैं। अनेक देशों में बर्फ़ और ठंडी हवाओं का तांडव इसी वजह से हो रहा है। सोचिए कि यदि एटमी लड़ाई हुई और अणु हथियारों का इस्तेमाल हुआ तो विश्व की क्या स्थिति होगी ? बहुत से देश तो अपना अस्तित्व ही खो चुके होंगे और संपूर्ण आबादी किसी न किसी दुष्प्रभाव को झेलने के लिये विवश हो जाएगी। इस संदर्भ में हीरोशिमा और नागासाकी की याद आना स्वाभाविक है।
असल में युद्ध का एक बड़ा और सबसे महत्वपूर्ण कारण प्रतिदिन नये और पहले से अधिक घातक शस्त्रों का निर्माण है जिनकी ताक़त परखने के लिए युद्ध के हालात बनाए जाना ज़रूरी है। इसीलिए वे सभी देश जो इनका निर्माण करते हैं इनकी खपत के लिए कमज़ोर और लालची देशों की ज़मीन तलाशते रहते हैं जो अपने पड़ौसियों के साथ किसी न किसी बहाने से लड़ते रहें और उनके हथियारों का परीक्षण होता रहे।
युद्ध किसी समस्या का तत्काल समाधान तो कर सकता है लेकिन कभी भी स्थाई हल नहीं निकाल पाता।बार बार एक ही जगह और पुराने मुद्दे पर लड़ाइयों का होना यही दर्शाता है। इसलिए युद्ध के लिए किसी विशेष कारण की आवश्यकता नहीं होती। मामूली सी बात जिसका समाधान बातचीत और समझदारी से निकाला जा सकता हो, उसके लिए संघर्ष का रास्ता अपनाना व्यक्तिगत अहम् की संतुष्टि और अपने साम्राज्य विस्तार की लालसा के अतिरिक्त कुछ नहीं।
यह वर्ष अपने देश में चुनाव के ज़रिये राजनीतिक दलों के बीच हुई लड़ाइयों से भरा पूरा रहा और अगला वर्ष भी ऐसा ही रहेगा। यह भारतीय मतदाताओं की परिपक्वता ही है जिसने धर्म, जाति, वर्ग की विभिन्नता और धन के लालच पर ध्यान न देकर ज़्यादा से ज़्यादा ऐसे लोगों और दलों को चुना जो प्रगति के रास्ते पर चलते हुए उनकी समस्याओं का समाधान कर सकने की नीति और नीयत रखते हों। इतना तो तय है कि अब मनभावन और लुभावने वादों, किसी दल के पिछलग्गू बने रहने और आँख मूँदकर वोट डालने का युग समाप्ति के कगार पर है।
आत्मनिर्भरता का युग
यह दौर सवाल करने, योग्यता सिद्ध करने और लक्ष्य साधने के लिए समुचित संसाधन जुटाने का है। राजनीति ही नहीं, आर्थिक क्षेत्र में भी अब सोच का दायरा बदल रहा है। जो क़ाबिल है, वह रास्ते की रुकावट हटाना भी जानने लगा है, अपने साथ होने वाले भेदभाव के ख़लिाफ़ आवाज़ उठाने में संकोच नहीं करता, अन्याय का प्रतिकार करना सीख गया है और किसी भी तरह की ताक़त के नशे में चूर व्यक्ति से डरना तो दूर, उसे धराशायी करने का साहस अपने अंदर महसूस करने लगा है। सामान्य व्यक्ति भी अब सपने देखने और उन्हें पूरा करने की हिम्मत कर रहा है। चाहे क्षेत्र कोई भी हो, यदि वह योग्य है तो अब संसाधन जुटाना आसान हो रहा है। कुछ भी असंभव नहीं, जब ऐसी मानसिकता बनने लगती है तो फिर किसी के लिए उसे बेड़ियों में जकड़ना संभव नहीं। शिक्षित होने के प्रति लगाव, ग़रीबी को हराने का संकल्प और अपने भरोसे अपना लक्ष्य हासिल करने की मनोवृत्ति का तेज़ी से प्रसार हो रहा है।
यह वर्ष वैज्ञानिक उपलब्धियों के मामले में भी यादगार रहेगा। एक ओर अंतरिक्ष तो दूसरी ओर चिकित्सा तथा स्वास्थ्य के क्षेत्र में जो नवीन खोज हुई हैं उनसे मानवता की सेवा करना सुगम होगा।
सत्ताईस दिसंबर को दुनिया के अदीबों में सबसे अलग अपनी पहचान रखने वाले उर्दू के महान शायर ग़ालिब की जयंती मनाई जाती है। उनकी एक ग़ज़ल नये साल का एहसास कराती है मानो इसे इस मौक़े के लिए ही लिखा था।
दिया है दिल अगर उसको, बशर (इंसान) है, क्या कहिए
हुआ रक़ीब (प्रतिद्वंदी), तो हो, नामाबर (पत्रवाहक) है, क्या कहिए।
यह ज़िद, आज न आवे और आए बिन न रहे। क़ज़ा (मौत) से शिकवा हमें किस कदर है, क्या कहिए।
रहे हैं यों गह-ओ-बे गह (वक़्त बेवक़्त), कि कू-ए-दोस्त (यार की गली) को अब
अगर न कहिए कि दुश्मन का घर है, क्या कहिए
समझ के करते हैं, बाज़ार में वो, पुरसिश-ए-हाल (कुशल मंगल पूछना) कि ये कहें, सर-ए-रहगुज़र (बीच रास्ता) है, क्या कहिए।
तुम्हें नहीं है सर-ए-रिश्ता-ए-वफ़ा का ख़्याल
हमारे हाथ में कुछ है, मगर है क्या, कहिए
हसद (जलन), सज़ा-ए-कमाल-ए-सुख़न है क्या कीजे
सितम, बहा-ए-मता-ए-हुनर (कला का मूल्य) है, क्या कहिए।
कहा है किसने, कि ग़ालिब बुरा नहीं, लेकिन
सिवाय इसके, कि, आशुफ़्तासर (दीवाना) है, क्या कहिए।
एक दूसरी रचना है
कभी नेकी भी उसके जी में ग़र आ जाए है मुझसे
जफ़ाएँ करके अपनी याद, शर्मा जाए है मुझसे
खुदाया, जज़्बा-ए-दिल की मगर तासीर उल्टी है
कि जितना खेंचता हूँ और खिंचता जाए है मुझसे
उधर वो बदगुमानी है, इधर यह नातवानी (कमजोरी) है
न पूछा जाए है उससे, न बोला जाए है मुझसे
संभलने दे मुझे , अय नाउम्मीदी, क्या क़यामत है
कि दामान-ए-ख़्याल-ए-यार, छूटा जाए है मुझसे
क़यामत है, कि होवे मुद्दई का हमसफ़र, ग़ालिब
वह काफ़िर, जो ख़ुदा को भी न सौपा जाए है मुझसे
अपने लक्ष्य के प्रति दीवानगी आज जो देश में देखने को मिल रही है, वह इसी तरह क़ायम रहे, इस कामना के साथ नव वर्ष की हार्दिक शुभकामनाएँ।