शुक्रवार, 30 दिसंबर 2022

युद्ध समाप्ति और शांति तथा प्रगति की कामना का नया वर्ष

 प्रत्येक वर्ष बहुत सी अच्छी और बुरी, सामान्य तथा विशेष, उलझन या सुलझन से भरा होता है और अपने में खट्टी मीठी यादों को समेटे हुए भूतकाल बन कर अपना प्रभाव भविष्य पर छोड़ता जाता है।


युद्ध का उन्माद

यह वर्ष अनेक युद्धों से आरंभ हुआ। विश्व युद्ध बनने की आशंका ही नहीं, उसकी पूरी संभावना के साथ रुस और यूक्रेन की लंबी खिंचती लड़ाई के आसार अच्छे नहीं हैं। पर्यावरण विशेषज्ञ और वैज्ञानिक मान रहे हैं कि अनेक देशों में इस समय मौसम के बदलते मिजाज़ का कारण युद्ध में इस्तेमाल हाथियार हैं। अनेक देशों में बर्फ़ और ठंडी हवाओं का तांडव इसी वजह से हो रहा है। सोचिए कि यदि एटमी लड़ाई हुई और अणु हथियारों का इस्तेमाल हुआ तो विश्व की क्या स्थिति होगी ? बहुत से देश तो अपना अस्तित्व ही खो चुके होंगे और संपूर्ण आबादी किसी न किसी दुष्प्रभाव को झेलने के लिये विवश हो जाएगी। इस संदर्भ में हीरोशिमा और नागासाकी की याद आना स्वाभाविक है।

असल में युद्ध का एक बड़ा और सबसे महत्वपूर्ण कारण प्रतिदिन नये और पहले से अधिक घातक शस्त्रों का निर्माण है जिनकी ताक़त परखने के लिए युद्ध के हालात बनाए जाना ज़रूरी है। इसीलिए वे सभी देश जो इनका निर्माण करते हैं इनकी खपत के लिए कमज़ोर और लालची देशों की ज़मीन तलाशते रहते हैं जो अपने पड़ौसियों के साथ किसी न किसी बहाने से लड़ते रहें और उनके हथियारों का परीक्षण होता रहे।

युद्ध किसी समस्या का तत्काल समाधान तो कर सकता है लेकिन कभी भी स्थाई हल नहीं निकाल पाता।बार बार एक ही जगह और पुराने मुद्दे पर लड़ाइयों का होना यही दर्शाता है। इसलिए युद्ध के लिए किसी विशेष कारण की आवश्यकता नहीं होती। मामूली सी बात जिसका समाधान बातचीत और समझदारी से निकाला जा सकता हो, उसके लिए संघर्ष का रास्ता अपनाना व्यक्तिगत अहम् की संतुष्टि और अपने साम्राज्य विस्तार की लालसा के अतिरिक्त कुछ नहीं।

यह वर्ष अपने देश में चुनाव के ज़रिये राजनीतिक दलों के बीच हुई लड़ाइयों से भरा पूरा रहा और अगला वर्ष भी ऐसा ही रहेगा। यह भारतीय मतदाताओं की परिपक्वता ही है जिसने धर्म, जाति, वर्ग की विभिन्नता और धन के लालच पर ध्यान न देकर ज़्यादा से ज़्यादा ऐसे लोगों और दलों को चुना जो प्रगति के रास्ते पर चलते हुए उनकी समस्याओं का समाधान कर सकने की नीति और नीयत रखते हों। इतना तो तय है कि अब मनभावन और लुभावने वादों, किसी दल के पिछलग्गू बने रहने और आँख मूँदकर वोट डालने का युग समाप्ति के कगार पर है।


आत्मनिर्भरता का युग

यह दौर सवाल करने, योग्यता सिद्ध करने और लक्ष्य साधने के लिए समुचित संसाधन जुटाने का है। राजनीति ही नहीं, आर्थिक क्षेत्र में भी अब सोच का दायरा बदल रहा है। जो क़ाबिल है, वह रास्ते की रुकावट हटाना भी जानने लगा है, अपने साथ होने वाले भेदभाव के ख़लिाफ़ आवाज़ उठाने में संकोच नहीं करता, अन्याय का प्रतिकार करना सीख गया है और किसी भी तरह की ताक़त के नशे में चूर व्यक्ति से डरना तो दूर, उसे धराशायी करने का साहस अपने अंदर महसूस करने लगा है। सामान्य व्यक्ति भी अब सपने देखने और उन्हें पूरा करने की हिम्मत कर रहा है। चाहे क्षेत्र कोई भी हो, यदि वह योग्य है तो अब संसाधन जुटाना आसान हो रहा है। कुछ भी असंभव नहीं, जब ऐसी मानसिकता बनने लगती है तो फिर किसी के लिए उसे बेड़ियों में जकड़ना संभव नहीं। शिक्षित होने के प्रति लगाव, ग़रीबी को हराने का संकल्प और अपने भरोसे अपना लक्ष्य हासिल करने की मनोवृत्ति का तेज़ी से प्रसार हो रहा है।

यह वर्ष वैज्ञानिक उपलब्धियों के मामले में भी यादगार रहेगा। एक ओर अंतरिक्ष तो दूसरी ओर चिकित्सा तथा स्वास्थ्य के क्षेत्र में जो नवीन खोज हुई हैं उनसे मानवता की सेवा करना सुगम होगा।

सत्ताईस दिसंबर को दुनिया के अदीबों में सबसे अलग अपनी पहचान रखने वाले उर्दू के महान शायर ग़ालिब की जयंती मनाई जाती है। उनकी एक ग़ज़ल नये साल का एहसास कराती है मानो इसे इस मौक़े के लिए ही लिखा था।


दिया है दिल अगर उसको, बशर (इंसान) है, क्या कहिए

हुआ रक़ीब (प्रतिद्वंदी), तो हो, नामाबर (पत्रवाहक) है, क्या कहिए।


यह ज़िद, आज न आवे और आए बिन न रहे। क़ज़ा (मौत) से शिकवा हमें किस कदर है, क्या कहिए।


रहे हैं यों गह-ओ-बे गह (वक़्त बेवक़्त), कि कू-ए-दोस्त (यार की गली) को अब

अगर न कहिए कि दुश्मन का घर है, क्या कहिए


समझ के करते हैं, बाज़ार में वो, पुरसिश-ए-हाल (कुशल मंगल पूछना) कि ये कहें, सर-ए-रहगुज़र (बीच रास्ता) है, क्या कहिए।


तुम्हें नहीं है सर-ए-रिश्ता-ए-वफ़ा का ख़्याल

हमारे हाथ में कुछ है, मगर है क्या, कहिए


हसद (जलन), सज़ा-ए-कमाल-ए-सुख़न है क्या कीजे

सितम, बहा-ए-मता-ए-हुनर (कला का मूल्य) है, क्या कहिए।


कहा है किसने, कि ग़ालिब बुरा नहीं, लेकिन

सिवाय इसके, कि, आशुफ़्तासर (दीवाना) है, क्या कहिए।


एक दूसरी रचना है


कभी नेकी भी उसके जी में ग़र आ जाए है मुझसे

जफ़ाएँ करके अपनी याद, शर्मा जाए है मुझसे

खुदाया, जज़्बा-ए-दिल की मगर तासीर उल्टी है

कि जितना खेंचता हूँ और खिंचता जाए है मुझसे


उधर वो बदगुमानी है, इधर यह नातवानी (कमजोरी) है

न पूछा जाए है उससे, न बोला जाए है मुझसे

संभलने दे मुझे , अय नाउम्मीदी, क्या क़यामत है

कि दामान-ए-ख़्याल-ए-यार, छूटा जाए है मुझसे


क़यामत है, कि होवे मुद्दई का हमसफ़र, ग़ालिब

वह काफ़िर, जो ख़ुदा को भी न सौपा जाए है मुझसे


अपने लक्ष्य के प्रति दीवानगी आज जो देश में देखने को मिल रही है, वह इसी तरह क़ायम रहे, इस कामना के साथ नव वर्ष की हार्दिक शुभकामनाएँ।


शुक्रवार, 23 दिसंबर 2022

उपभोक्ता क़ानून में सरकारी अनिवार्य सेवाए भी शामिल हों


प्रतिवर्ष 24 दिसंबर को उपभोक्ता दिवस मनाये जाने का चलन है। सरकार तथा कुछ ग़ैर सरकारी संगठनों द्वारा इसे मनाने की ख़ानापूर्ति भी की जाती है। लगभग साढ़े तीन दशक हो गये उपभोक्ता क़ानून बने और तीन साल पहले क़ानून में परिवर्तन भी हुए। हालाँकि उपभोक्ताओं के लिए ये क़ानून काफ़ी अच्छा रहा और और इसके कारण बहुत से लोगों को अपने साथ हुई धोखा धड़ी और जालसाजी से राहत भी मिली लेकिन फिर भी बहुत सी ऐसी बातें हैं जिनके बारे में बात करना ज़रूरी है।

सबसे पहले तो यह समझना होगा कि एक उपभोक्ता एक करदाता भी है और अगर वह इनकम टैक्स नहीं देता तो भी अनेक प्रकार के टैक्स चुकाता है, मतलब यह कि सरकार को अपनी कमाई का कुछ हिस्सा अवश्य देता है। इसलिए सरकार से बिजली, पानी, सड़क, परिवहन जैसी ज़रूरी सुविधाएँ पाने से वह एक उपभोक्ता है और अगर उनमें कोई ख़ामी पाई जाती है वह भी उसके उपभोक्ता अधिकारों के अंतर्गत आती है।मान लीजिए सड़क पर प्रशासन की लापरवाही से गड्ढे, नालों की सफ़ाई न होने से बदबू, धुएँ से सांस लेने में दिक़्क़त, गंदा पानी पीने से बीमारी, दुकानदारों द्वारा फुटपाथ का अतिक्रमण करने से चलने में परेशानी और इसी तरह की दूसरी असुविधाएं होती हैं तो एक उपभोक्ता होने के नाते प्रत्येक नागरिक को मुआवज़ा पाने का अधिकार है। इसी के साथ संबंधित विभाग तथा उसके कर्मचारियों पर जुर्माना लगाने और उन्हें सज़ा देने का प्रावधान होना चाहिए।

इसी तरह स्वास्थ्य सेवाएँ हैं। सरकार द्वारा नागरिकों को अपनी ओर से निःशुल्क सेवाएँ दी जाती हैं। अस्पताल में मुफ़्त इलाज की सुविधा है। यदि इसमें कोई ख़ामी पाई जाती है तो कोई राहत नहीं मिलती क्योंकि इसके लिए पैसे नहीं दिए गये। यह ग़लत है क्योंकि वह करदाता होने से उपभोक्ता है।

तीन वर्ष पहले जो नया उपभोक्ता क़ानून बना है उसमें पहले की भाँति सभी नियम हैं लेकिन जो बदलाव किए गये हैं वे महत्वपूर्ण होने के साथ असरदार भी हैं बशर्ते कि उनके मुताबिक़ काम हो। कहीं उनका भी हश्र दूसरे बहुत से क़ानूनों की तरह न हो जो जनता की भलाई के लिए होने के बावजूद उन पर सही से अमल न होने से बेकार हो जाते हैं।

उपभोक्ता क़ानून की सबसे बड़ी उपलब्धि यह है कि इसमें ऑनलाइन शॉपिंग में धोखा होने पर उपभोक्ता को न्याय दिलाने के लिए व्यवस्था है जिससे निर्माता, विक्रेता और डिलीवरी करने वाली इकाई, तीनों पर क़ानूनी कार्यवाही की जा सकती है। आजकल डिजिटलीकरण के युग में और ट्रैफिक तथा भीड़भाड़ के कारण लोगों की रुचि ऑनलाइन ख़रीदारी में तेज़ी से बढ़ रही है। यह सुगम तरीक़ा है लेकिन ख़तरे भी हैं और जालसाज़ी की गुंजाइश रहती है, इसलिए केवल उन्हीं वेबसाईट का इस्तेमाल करें जो अधिकृत हैं और जिन पर भरोसा किया जा सकता है। इसमें चूक होने पर क़ानून भी बहुत कम मदद कर पाएगा।

इसके अतिरिक्त अब वह सेलिब्रिटी भी ज़िम्मेदार है जिसका विज्ञापन देखकर ख़रीदारी की गई है। इसमें सबसे बड़ी कमी यह है कि जब तक कोई कार्रवाई हो नुक़सान हो चुका होता है और नक़ली वेबसाईट ग़ायब हो जाती है। इसी तरह बहुत सी नामी कंपनियाँ अपने ग्राहकों के साथ अनुचित व्यवहार करती हैं जैसे कि शिकायत को दबा देना और बहाने बनाते हैं कि समुचित काग़ज़ात उपलब्ध नहीं हैं, यहाँ तक कि पैसे वापिस न करने पड़ें इसलिए स्टाफ की कमी या इधर उधर भटकाती हैं।

सरकार को चाहिए कि क़ानून के अंर्तगत यह नियम बनाये कि प्रत्येक निर्माता और सेवा प्रदाता के लिए अपने यहाँ कंज्यूमर रिलेशन अधिकारी की नियुक्ति अनिवार्य हो। उसके लिए समय सीमा निर्धारित हो जिसमें उसे शिकायत को निपटाना ही होगा और ऐसा न करना क़ानून का उल्लंघन होगा तथा जुर्माना या सज़ा देने का प्रावधान हो।

क़ानून में उपभोक्ता अथॉरिटी का भी गठन किया गया है जो एक बेहतरीन कदम है। इसे बने तीन साल हो जायेंगे लेकिन इसके कार्य के बारे में जानकारी का अभाव है। इस पर इस बात की जवाबदेही हो कि यदि कोई निर्माता गड़बड़ी करता है तो उसके ख़लिाफ़ मामले का संज्ञान लेकर स्वयं कार्यवाही की जाये।

हमारे देश में उपभोक्ता आंदोलन अब काफ़ी परिपक्व हो चुका है और ग्राहक अपने अधिकारों के प्रति सचेत रहते हैं लेकिन नियमों की जानकारी के अभाव और कुछ अपनी लापरवाही के कारण समय सीमा के अंदर शिकायत नहीं करते। ज़रूरी है कि सरकार कि ओर से इनके प्रचार प्रसार के लिये लगातार विज्ञापन और फ़िल्म के ज़रिए जागरूक किया जाए।


शुक्रवार, 16 दिसंबर 2022

अनैतिक होते हुए भी वेश्यावृत्ति कानूनी मान्यता प्राप्त व्यवसाय है

 

अंतरराष्ट्रीय स्तर पर सत्रह दिसंबर को एक ऐसा दिवस मनाया जाता है जिसका संबंध वेश्यावृत्ति व्यवसाय को आदर और सम्मान दिलाना तथा इसमें शामिल व्यक्तियों के जीवन को सुरक्षित बनाना है । अमेरिका के सीएटल में ग्रीन रिवर किलर रूप में कुख्यात व्यक्तियों द्वारा वेश्याओं की बेरहमी से हत्या की घटनाएं इसकी प्रेरक थीं। सन 2003 से यह दिन सेक्स वर्करों, उनकी पैरवी करने वालों, मित्रों और परिवारों द्वारा मनाया जाता है।


वेश्यावृत्ति के प्रति नज़रिया

वेश्याओं के साथ हिंसक व्यवहार के खिलाफ़ यह दिवस मनाने का उद्देश्य यही है कि दुनिया भर में इस व्यवसाय में लगे लोगों के प्रति नफ़रत दूर करने और उनके साथ दुव्र्यवहार और भेदभाव करने से लेकर हिंसक बर्ताव करने की मानसिकता को कम करते हुए समाप्त किया जा सके। आम तौर से इनके साथ हुई मारपीट, हिंसा और हत्या की घटनाएं सामाजिक चेतना के अभाव में उजागर नहीं हो पातीं और अपराधी को कोई दंड नहीं मिलता।

वास्तविकता यह है कि हम चाहे जो भी कहें, इस व्यवसाय में लगे लोग हमारे आसपास रहने वाले समाज और परिवारों से ही आते हैं। लाल छतरी इनके अधिकारों का एक महत्वपूर्ण चिह्न है और इसका चलन सबसे पहले इटली के वेनिस शहर में सेक्स वर्करों द्वारा सन 2001 में किया गया था। उसके बाद इसे व्यापक रूप से मान्यता मिली।

भारत में वेश्यावृत्ति का इतिहास बहुत पुराना है और राजा महाराजा, नवाब और समाज के प्रतिष्ठित लोगों द्वारा मान्यता भी मिली। इन्हें नर्तकी, गणिका, देवदासी तथा अन्य जो भी अनेक नाम दिए गए, समाज और परिवार में इनके प्रति घृणा कम नहीं हुई। इनका शोषण, इनके साथ अपमानजनक और अमानवीय व्यवहार तथा हर किसी का इन्हें दुत्कारा जाना, हमेशा से मामूली बात समझा गया।

हमारे देश में ऐसे बहुत से शहर, कस्बे और गांव हैं जहां वेश्यावृत्ति एक व्यवसाय है । परिवार के लोग अर्थात पिता और भाई ही इसे चलाते हैं।

गुजरात का वाडिया गांव जो राजस्थान की सीमा से लगे उत्तरी गुजरात के बनासकांठा ज़िले में है, वहां सरानिया घुमंतु कबीले के पुरुष अपने परिवार की महिलाओं का सौदा करते हैं और लड़कियों को छोटी उम्र से ही वैश्या बनने और लड़कों को इनके लिए ग्राहक ढूंढने का प्रशिक्षण देते हैं। इसी तरह उत्तर प्रदेश के हरदोई जिले का नटपुरवा गांव है जहां बच्चों को उनके पिता का नाम नहीं मालूम और वे अपनी मां के नाम से जाने जाते हैं। कर्नाटक में बेल्लारी और कोप्पल जिले में देवदासी बस्ती है जहां कन्या के कौमार्य की नीलामी होती है। हालांकि 1982 में देवदासी प्रथा को समाप्त कर दिया गया था लेकिन महाराष्ट्र, आंध्र प्रदेश और तमिलनाडु में आज भी यह प्रचलन में है। इसमें कोई संदेह नहीं कि देश के विभिन्न क्षेत्रों में यह व्यवसाय अनेक रुकावटों के होते हुए भी प्रचलित है और पनप रहा है।


व्यवसाय के रूप में मान्यता

भारत में इस व्यवसाय में लगे पुरुषों और महिलाओं की संख्या कितनी है, इसके बारे में कोई निश्चित आंकड़ा नहीं है। उच्चतम न्यायालय ने इसे एक व्यवसाय के रूप में हाल ही में मान्यता दी है और पुलिस को हिदायत दी है कि यदि कोई व्यक्ति अपनी मर्ज़ी से इस व्यवसाय में है तो उसके काम में दखलंदाजी न करे और उसे अपराधी न माने।

किसी भी व्यक्ति को वयस्क होने पर अपनी रजामंदी से यह व्यवसाय करने का अधिकार है। उसे भी किसी अन्य व्यक्ति की तरह सुरक्षा, आदर और सम्मान पाने का कानूनी अधिकार है। इससे यह नहीं समझना चाहिए कि इससे उन लोगों को भी राहत मिलेगी जो नारी शोषण और उन्हें इस धंधे में जबरदस्ती या लालच देकर धकेलने के लिए जिमनेदार हैं।

गैरकानूनी न होते हुए भी वेश्यावृत्ति के अंतर्गत  आने वाली बहुत सी गतिविधियां दंडनीय है जैसे कि दलाली और वेश्यालय के लिए किराए पर जगह देना।

असल में हमारे देश में वेश्यावृत्ति को लेकर कोई प्रभावी कानून नहीं है जिसके कारण जिसके जो मन में आता है, किसी भी न्यायिक फैसले का अर्थ लगा लेता है। सबसे अधिक असर उन बच्चों पर पड़ता है जो ऐसे माहौल में परवरिश पाते हैं जिसमें उनके साथ भेदभाव होना सामान्य बात है। उनकी शिक्षा का कोई प्रबंध न होने से वे इसी काम में लग जाते हैं। पुलिस और समाजसेवी संस्थाओं द्वारा छापे की कार्यवाही से इन बच्चों को कुछ राहत मिलती है और एक उम्मीद होती है कि इनका जीवन बेहतर हो।

इस पेशे को अपनी मर्ज़ी या किसी मजबूरी से अपनाने वाले व्यक्तियों के लिए शिक्षा और किसी प्रकार के व्यावसायिक प्रशिक्षण का प्रबंध होने से ही उनका जीवन बदल सकता है। इसके लिए कुछ ऐसा कानून बनाने की दिशा में पहल की जानी चाहिए कि यदि इस व्यवसाय को छोड़कर कोई महिला कुछ और करना चाहती है और अपनी संतान का भविष्य बनाना चाहती हैं तो उसे सरकार तथा सामाजिक संगठनों द्वारा आर्थिक सहायता मिले। उसके लिए पुनर्वास योजना बनाई जाए और इस तरह का वातावरण बने कि वह सामान्य जीवन जी सके। उसके नाम के साथ जुड़ा सेक्स वर्कर का ठप्पा हटे और गलत काम करने का एहसास हावी न रहे।

यह भी आवश्यक है कि जिन कारणों से कोई महिला इस व्यवसाय को अपनाती है, उन्हें दूर किया जाए। सबसे पहले यह बात आती है कि यदि बहका फुसला कर, दवाब डालकर, लोभ लालच देकर कोई व्यक्ति किसी महिला को इस व्यवसाय में आने के लिए मजबूर करता है तो उसे सज़ा का डर हो। देखा जाए तो हमारे यहां महिलाओं और बच्चों के अधिकारों को लेकर बहुत से कानून हैं लेकिन उनके प्रावधान इतने लचीले और भ्रम पैदा करने वाले हैं कि दोषी व्यक्ति बच जाता है और जो प्रताड़ित है, साधनहीन है, वह फंस जाता है और सज़ा पाता है।

वेश्यावृत्ति के पनपने का सबसे बड़ा कारण नैतिक मूल्यों का ह्रास, सामाजिक चेतना का अभाव, गरीबी और अशिक्षा है। यदि इस दिशा में काम किया जाए तो इस व्यवसाय को अपनाने के प्रति आकर्षण सहज रूप से कम होते हुए एक दिन पूरी तरह समाप्त हो सकता है। अभी इसे जो अपनाते हैं, उनके लिए यह बहुत आसान लगता है और अधिकतर लोगों के पास इसके अलावा कोई विकल्प नहीं होता।

बहुत से देशों में यह व्यवसाय सम्मानजनक और कानूनी मान्यता तथा संरक्षण प्राप्त है। सेक्स वर्करों के बच्चों के लिए शिक्षा, स्वास्थ्य और सुरक्षा की व्यवस्था है। इन्हें सामाजिक सम्मान प्राप्त है और इनके साथ जबरदस्ती या हिंसक व्यवहार करने पर दण्ड दिया जाता है।  इन्हें एक इंसान की तरह देखा जाता है और इनके साथ अपमानजनक शब्द इस्तेमाल नहीं किए जा सकते।

हमारे देश में भी कुछ ऐसी व्यवस्था होनी चाहिए जिससे इस व्यवसाय के प्रति आकर्षण समाप्त हो।  जिन्होंने इसे अपनाया है, उनके प्रति इंसानियत का नज़रिया हो और उन्हें सहज रूप में सामान्य नागरिक अधिकार मिलें।


शुक्रवार, 2 दिसंबर 2022

दिव्यांग व्यक्ति को भय, अपराध और हीन भावनाओं से मुक्त रहना होगा


जब हम किसी ऐसे व्यक्ति से मिलते या उसे देखते और सुनते हैं जो किसी शारीरिक या मानसिक कमी से पीड़ित है तो दया दिखाते हैं या चिढ़ जाते हैं। उसके लिए सहानुभूति प्रकट करते हैं या उसे दूर हटने के लिए कहने से लेकर फटकार तक लगा देते हैं।

यह अभिशाप नहीं

मनुष्य की इन्हीं हरकतों को देखकर संयुक्त राष्ट्र संघ ने तीस वर्ष पहले प्रति वर्ष 3 दिसंबर को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर दिव्यांग दिवस मनाने की शुरुआत की ताकि सभी प्रकार से ठीकठाक लोग ऐसे व्यक्तियों का अनादर न करें और उन्हें अपने जैसा ही सामान्य जीवन जीने देने में सहायक बनें।

आज दुनिया भर में लगभग पचास करोड़ लोग किसी न किसी प्रकार से दिव्यांग होने के कारण ज़िंदगी को जैसे तैसे ढोने के लिए बाध्य हैं। भारत में यह संख्या तीन करोड़ के आसपास है जिनमें से ज्यादातर गांव देहात में रहते हैं और बाकी छोटे बड़े शहरों में किसी तरह अपना जीवन चला रहे हैं।

हकीकत यह है और जोकि अपने आप में बहुत बड़ा सवाल भी है कि शारीरिक हो या मानसिक, दिव्यांग व्यक्तियों को परिवार और समाज अपने ऊपर बोझ समझने की मानसिकता से ग्रस्त रहता है। उसके बाद ऐसे लोग समाज की हिकारत का शिकार बनते जाते हैं और इस तरह देश के लिए भी निकम्मे बन जाते हैं।

दूसरे दर्जे के नागरिक

सरकार को क्योंकि इन लोगों को लेकर समाज में अपनी अच्छी छवि बनानी होती है तो वह इनकी देखभाल, स्वास्थ्य, रोज़गार को लेकर जब तब योजनाएं बनाती रहती है। इनके पीछे यह उद्देश्य बहुत कम रहता है कि उन्हें समाज में बराबरी का दर्ज़ा मिले बल्कि यह रहता है कि वे दूसरे दर्जे के नागरिक बनकर सरकार की मेहरबानी से किसी तरह जीवित रहें। मिसाल के तौर पर उन्हें केवल चटाई बनाने, टोकरी बुनने और थोड़े बहुत दूसरे काम जो उनके लिए हाथ की कारीगरी से हो सकते हों, के योग्य ही समझा जाता है।

हालांकि सरकार ने शिक्षा और नौकरी में उनके लिए आरक्षण की व्यवस्था की हुई है लेकिन उनके लिए पढ़ाई लिखाई के विशेष साधन न होने से वे अनपढ़ ही रह जाते हैं और जब पढ़ेंगे नहीं तो नौकरी के लिए ज़रूरी शैक्षिक योग्यता को कैसे पूरा करेंगे, इसलिए उनके लिए आरक्षित पद ख़ाली पड़े रहते हैं। आंकड़े बताते हैं कि उनकी आधी आबादी को अक्षर ज्ञान तक नहीं होता और बाकी ज्यादा से ज्यादा चैथी कक्षा तक ही पढ़ पाते हैं। ऐसी हालत में उनकी किस्मत में बस कोई छोटा मोटा काम या फिर भीख मांगकर गुज़ारा करना लिखा होता है।

उल्लेखनीय है कि दिव्यांग व्यक्तियों ने ही अपने लिए ऐसे साधन जुटाए हैं जिनसे वे एक आम इंसान की तरह जी सकें। इसका सबसे बड़ा उदाहरण लुईस ब्रेल हैं जिन्होंने ब्रेल लिपि के आविष्कार से नेत्रहीन व्यक्तियों के जीवन को उम्मीदों से भर दिया। परंतु यहां भी मनुष्य ने अपनी भेदभावपूर्ण नीति को नहीं छोड़ा और उनके लिए ब्रेल लिपि में केवल वही सामग्री तैयार कराने को प्राथमिकता दी जिससे वे केवल सामान्य ज्ञान प्राप्त कर सकें न कि उनकी योग्यता को परखकर विभिन्न विषयों जैसे कि मेडिकल, इंजीनियरिंग जैसे विषयों की पाठ्य पुस्तकें तैयार कराने पर जोर दिया जाता।

जहां तक किसी अन्य रूप से दिव्यांग व्यक्तियों जैसे कि सुनने, बोलने, किसी अंग के न होने या विकृत होने का प्रश्न है तो उनके लिए कोई विशेष व्यवस्था नहीं है कि वे सामान्य विद्यार्थी की तरह शिक्षा प्राप्त कर सकें। इसी के साथ उनकी मदद करने के लिए बनाए जाने वाले उपकरण भी इतने महंगे और साधारण क्वालिटी के होते हैं कि वे कुछ ही समय में इस्तेमाल करने लायक नहीं रहते। हमारे देश में अभी तक आने जाने के साधनों तक में दिव्यांग व्यक्तियों के लिए ज़रूरी साधनों और उपकरणों का अभाव है।

जिसके पास पैसा है, साधन हैं या उसके असरदार लोगों से संबंध हैं, तो वह तो देश हो या विदेश कहीं से भी अपने लिए सब से बढ़िया इक्विपमेंट मंगवा सकता है लेकिन शेष दिव्यांग व्यक्तियों के जीवन में कुछ खुशी तब ही आ पाती है जब वे स्वयं अपने बलबूते पर और आपस में मिलजुलकर अपने लिए कुछेक सुविधाओं को जुटाने में अनेक कठिनाइयों के बावजूद सफल हो पाते हैं।

हमारे देश में ऐसी निजी संस्थाएं, एनजीओ हैं जिन्होंने बिना सरकारी या गैर सरकारी सहायता से अपने जीवन को सुखी और खुशहाल बनाया है। एक उदाहरण है। एनटीपीसी, टांडा के लिए फिल्म बनाते समय एक ऐसी क्रिकेट टीम से मुलाकात हुई जिसमें सभी खिलाड़ी नेत्रहीन थे, यहां तक कि उनके प्रशिक्षक भी। उन्होंने एक ऐसी गेंद बनाई जिसमें उसे फेंकने पर आवाज होती थी और बल्लेबाज उसे सुनकर बैटिंग करता था। इसी प्रकार फील्डर भी आवाज से ही उसे मैदान में पकड़ने के लिए भागता था। क्रिकेट खेलने के लिए सभी नियम जिनका पालन आसानी से संभव हो सके, वे सब इस टीम ने सीख लिए थे  और वे मज़े से खेल का आनंद ले रहे थे।

दिव्यांग होने से बचाव

अब हम इस बात पर आते हैं कि क्या दिव्यांग होने से बचा जा सकता है ? जहां तक जन्म के समय होने वाली विकृतियों का संबंध है तो  केवल थोड़ी सी सावधानी बरतने से इनसे बचा जा सकता है। गर्भवती महिला को प्रसव होने तक गर्भ में पल रहे शिशु और अपनी सेहत का ज्ञान और ध्यान रखने से यह बहुत आसान है। अल्ट्रासाउंड एक ऐसी तकनीक है जो गर्भ में हो रही किसी भी विकृति का पता लगा सकती है। यदि इस बात की ज़रा भी संभावना हो कि गर्भ में कोई भी विकार हो तो गर्भपात करा लेना ही समझदारी है क्योंकि विकलांग शिशु का पालन बहुत चुनौतीपूर्ण और कष्टदायक होता है। कानून भी इसकी इजाज़त देता है।

ऐसी दिव्यांगता जो सामान्य जीवन के दौरान हुई हो जैसे कि किसी दुर्घटना का शिकार हुए हों, युद्ध में हताहत होने से कोई अंग खो बैठे हों या फिर किसी अन्य परिस्थिति के कारण अक्षम हो जाएं तो यह न समझते हुए कि ज़िंदगी समाप्त हो गई है, इसे सहज भाव से स्वीकार कर लें और उसके अनुरूप जीवन जीने की बात मानने के लिए अपने मन और शरीर को तैयार करें तो लगेगा ही नहीं कि दिव्यांग हैं।

दिव्यांग होने की सबसे कड़ी और कठिन परिस्थिति तब होती है जब शरीर से अधिक मानसिक तनाव से ग्रस्त व्यक्ति किसी तरह अपना जीवन जीने की कोशिश करता है। अक्सर वह इसमें हार जाता है और अकेलेपन की भावना को अपने मन पर हावी होने देने के बाद आत्महत्या करने में ही अपना भला समझने लगता है।

मानसिक उलझनों या व्याधियों से जूझ रहे व्यक्तियों को भी दिव्यांग माने जाने की आवश्यकता है और उनके लिए भी विशेष उपाय किए जाने चाहिएं जैसे कि आसानी से मिलने वाली काउंसलिंग और समाज में ऐसे व्यक्ति को स्वीकार करने की मानसिकता और परिवार का समर्थन तथा उन परिस्थितियों को ध्यान में रखकर ऐसे उपाय जिनसे वह उबर सके।

आम तौर से अपने साथ हुए भयानक हादसे जैसे बलात्कार, शारीरिक उत्पीड़न और किसी की धोखाधड़ी का शिकार होने पर अपना सब कुछ गवां देने के बाद मनुष्य की मानसिक स्थिति उलट पलट हो जाती है। वह स्वयं इन चीजों से ऊपर उठने की कितनी भी कोशिश करे, सफल नहीं हो पाता। ऐसे व्यक्तियों की संख्या आज के भौतिकतावादी युग में बहुत तेज़ी से बढ़ रही है। इनके लिए ज़रूरत है कि ऐसे विद्यालयों, विशेष शिक्षा पाठ्यक्रमों, प्रयोगशालाओं और काउंसलिंग इकाईयों की स्थापना हो जहां उनके उपचार की आधुनिक टेक्नोलॉजी पर आधारित व्यवस्था हो। इसके बाद सबसे अधिक ज़रूरी है कि मानसिक रूप से दिव्यांग व्यक्तियों को चिकित्सा के लिए तैयार करना। दिल्ली, मुंबई जैसे बड़े शहरों में कुछ ऐसे संस्थान हैं जो मानसिक बीमारियों से मुक्ति प्राप्त करने वाले व्यक्तियों ने शुरू किए हैं। इनके बारे में इंटरनेट पर काफी कुछ उपलब्ध है।

दिव्यांग होना कोई अभिशाप नहीं है, इसलिए यह कतई सही नहीं है कि यदि कोई इस श्रेणी में है तो वह अपने आप को दीन हीन समझे, दूसरों की दया या सहानुभूति की उम्मीद पर जिए, डरता रहे या फिर इसे अपना अपराध समझे। सत्य यह है कि जब वह स्वयं अपनी कमान संभालेगा तो वह किसी भी क्षेत्र में कीर्तिमान स्थापित करने में सक्षम हो पाएगा।  



शुक्रवार, 25 नवंबर 2022

संविधान दिवस पर इसके महत्व पर मंथन आवश्यक है

 26 नवंबर देश के जीवन में एक महत्वपूर्ण तिथि है । इस दिन देश की दिशा निर्धारित हुई, संविधान के अनुसार चलने की प्रक्रिया आरंभ हुई और स्वतंत्र भारत के नए अध्याय की शुरुआत हुई। जिस प्रकार आज आजादी का अमृत महोत्सव मनाया जा रहा है और अब तक की उपलब्धियों तथा कमियों पर विचार विमर्श किया जा रहा है, उसी तरह संविधान और उसके अंतर्गत बने कानूनों एवं उन्हें लागू करने वाली व्यवस्था के बारे में बातचीत करना आवश्यक हो गया है। संविधान दिवस के अवसर पर यह और भी जरुरी है।


सर्वोच्च पद और संविधान

सबसे पहली बात तो यह है कि वर्तमान संविधान के अनुसार किसी भी संवैधानिक पद और प्रशासनिक पदों पर भी प्रधान मंत्री की सिफारिश पर ही राष्ट्रपति द्वारा नियुक्ति की जाती है। यहां तक कि राष्ट्रपति पद पर नियुक्ति के लिए भी उसी की राय सबसे महत्वपूर्ण होती है। राज्यपाल, मुख्य न्यायाधीश, चुनाव आयुक्त से लेकर अंतिम निर्णय करने वाले सभी पदों पर, कहना चाहिए, उसी की मर्जी चलती है।

बेशक कहा जाए कि प्रधान मंत्री किसी एक दल का नहीं, सब का होता है लेकिन वास्तविकता यही है कि देश में सत्तारूढ़ दल का वर्चस्व, अधिकार और उसका मनमानापन बढ़ता है और इस पद पर आसीन व्यक्ति सब कुछ करने में सक्षम होता है और ऐसा इसलिए संभव है क्योंकि संविधान में इसकी व्यवस्था है। इसका सबसे बड़ा उदाहरण एक प्रधान मंत्री द्वारा आपातकाल का लगाया जाना है।

इस तरह सबसे पहले प्रधान मंत्री के अधिकारों पर संविधान द्वारा दी गई छूट या व्यवस्था पर फिर से विचार करना जरूरी है ताकि कोई भी व्यक्ति निरंकुश न हो सके।



संविधान में भेदभाव

इसके बाद इस बात पर आते हैं कि हमारे संविधान में समानता, धर्म, सेकुलर होने  तथा अन्य बातों को लेकर जो व्यवस्था दी गई हैं, वर्तमान समय में उनका क्या उपयोग तथा कैसा दुरुपयोग हो रहा है।

जहां तक समानता की बात है तो इस पर गंभीरता से विचार किया जाए कि इससे क्या लाभ और क्या हानि हो रही है। मिसाल के तौर पर क्या कभी अमीर और गरीब, अधिकारी और आधीन, ताकतवर और कमजोर तथा शासक और प्रजा एक समान हो सकते हैं ? कभी नहीं !

इस स्थिति पर चिंतन कीजिए । यदि कोई व्यक्ति किसी अपराध के लिए सजा पा चुका है, वह किसी सरकारी, पब्लिक सेक्टर और निजी क्षेत्र में भी नौकरी करने के अयोग्य हो जाता है। यहां तक कि अपना रोजगार, व्यापार या व्यवसाय करना भी आसान नहीं होता। वह सरकारी सहायता, विभिन्न योजनाओं के तहत मिलने वाली आर्थिक मदद, बैंक का सहयोग और जनता की सहानुभूति से भी वंचित हो जाता है । इस के विपरीत किसी साधारण या संगीन जुर्म में जेल में रहकर भी घोषित अपराधी चुनाव लड़ सकता है, सांसद, विधायक, मंत्री बनकर कानून बनाने वाला बन सकता है। यह इसलिए संभव है क्योंकि संविधान इसकी इजाजत देता है। क्या इस व्यवस्था पर नए सिरे से विचार नहीं होना चाहिए ? हकीकत यह है कि दोनों ही वेतन और दूसरे भत्ते पाते हैं, समय सीमा से बंधे हैं लेकिन व्यवहार के मामले में यह सीधे पक्षपात है लेकिन संवैधानिक है इसलिए मान्य है।

इसके बाद बात करते हैं धर्म की, तो इसमें यह है कि सभी देशवासी अपने धर्म का पालन और उसके अनुरूप बर्ताव कर सकते हैं। इसका मतलब यह है कि यदि एक धर्म के मानने वाले कहते हैं कि उनके लिए संविधान और उसके अंतर्गत बने कानूनों को मानने से ज्यादा जरूरी है कि वे अपनी धार्मिक मान्यताओं के अनुसार चलें और क्योंकि संविधान इसकी अनुमति देता है तो वे वही करेंगे जो उनके धर्म के मुताबिक है। इसके लिए चाहे उन पर कट्टर होने का ही आरोप क्यों न लगे 

धर्म के पालन की संवैधानिक व्यवस्था होने से और अपने धर्म को सब से बड़ा मानने की मनस्थिति से विवाद, संघर्ष, आंदोलन से लेकर उन्माद तथा दंगे फसाद तक के नजारे देखे जा सकते हैं। यही नहीं अपने स्वार्थ सिद्ध करने के लिए प्राचीन परम्पराओं, बेमतलब के रीति रिवाजों, मान्यताओं, कुरीतियों, अंधविश्वास, दिखावा, पाखंड और इंसानियत तक के विरोध में जनमानस को नुकसान पहुंचाने वाले कारनामें करना बहुत आसान हो जाता है। यह इसलिए क्योंकि संविधान में अपने धर्म के नाम पर कुछ भी करने की इजाजत है।

अब जरा इस बात पर गौर कीजिए कि चाहे कितने भी अपराधियों को सबूत के अभाव में छोड़ना पड़े और किसी भी निरपराध को उसके निर्दोष होने का प्रमाण न होने से जेल में बंद होना पड़े तो यह संवैधानिक और कानून के मुताबिक है और इसकी कोई अपील या दलील नहीं हो सकती। क्या यह सही संवैधानिक व्यवस्था है और क्या यह उसके दुरुपयोग की श्रेणी में नहीं आती ? तो क्या इस विसंगति को रोकने के लिए फिर से विचार करना जरूरी नहीं है ?

आज हमारी अदालतों द्वारा दिए गए ऐसे अनेक उदाहरण हैं जो उसके अन्याय के प्रतीक हैं लेकिन उन्हें मानने के लिए बाध्य हैं क्योंकि वे कानून के मुताबिक हैं। और यह जो पीढ़ियों तक चलने वाले मुकदमों के भंडार हमारी अदालतों में लंबित पड़े हैं, वे संविधान के अनुसार बनी न्यायिक व्यवस्था की नाकामी नहीं तो और क्या है?

उल्लेखनीय है कि जिस समय संविधान बनाया जा रहा था तब स्थितियां बिल्कुल भिन्न थीं, इसमें शामिल विद्वान अंग्रेजी हुकूमत के दौर के गवाह थे और उनकी सोच का दायरा गुलामी की परिधि से बाहर निकलने तक सीमित था। उन परिस्थितियों में जो उन्होंने किया, वह तर्कसंगत था और संविधान के रचने में उनका योगदान सर्वोत्तम था। उन्होंने जैसे भारत की कल्पना की होगी, उनकी दृष्टि में उससे बेहतर कुछ और नहीं था। परंतु वास्तविकता यह है कि आजाद भारत की जरूरतें, उसके अनुभव, संसाधन और वैश्विक स्तर पर देश की प्रगति का अनुमान उन्हें नहीं हो सकता था।

इसी तरह की बहुत सी धाराएं, व्यवस्थाएं हैं जो आज बेमानी हो गई हैं, यहां तक कि मूलभूत अधिकारों को लेकर भी वक्त गुजरने के कारण बहुत सी विसंगतियां पैदा हो गई हैं जो संविधान बनाते समय नहीं थीं। मौलिक अधिकार, समानता का सिद्धांत, धर्म के अनुसार आचरण, आरक्षण व्यवस्था, जाति और लिंग के आधार पर भेदभाव जैसी बहुत सी बातें हैं जिन पर नए सिरे से विचार करना जरूरी है।


परिवर्तन कैसा हो

जब ऐसा है तो क्या इसमें कोई बुराई है कि संविधान में कही गई बहुत सी ऐसी बातें जो वर्तमान समय से मेल नहीं खाती, उन्हें बदलने की दिशा में काम किया जाए ?

बेहतर रहेगा कि एक ऐसी संवैधानिक पीठ का गठन किया जाए जिसमें सभी मान्यताप्राप्त राजनैतिक दलों के प्रतिनिधि हों, सामाजिक संगठनों के गणमान्य व्यक्ति हों और समाज के वे लोग हों जिन्होंने किसी भी क्षेत्र में कीर्तिमान स्थापित किए हों। इनमें वैज्ञानिक, व्यापारी, व्यवसाय करने वाले, अर्थशास्त्री, नौकरीपेशा, शिक्षा, खेल और उन सभी चीजों से जुड़े लोग हों जो वर्तमान समय की आवश्यकताएं हैं। यदि ऐसा हो तो जब हम संविधान का अमृत महोत्सव मना रहे हों तो एक नए शोध पर आधारित संविधान की रचना हो चुकी हो। वैसे भी हम संविधान संशोधन के जरिए काफी कुछ बदल चुके हैं तो एक बार इसके संपूर्ण आकार के बारे में ही सोच विचार कर लिया जाए तो यह एक सही शुरुआत होगी।  


शुक्रवार, 18 नवंबर 2022

दिन अशुभ हो, क्या इसकी कामना की जा सकती है ?

आम तौर पर इस बात की उम्मीद की जाती है कि दूसरे आप के लिए आपका दिन शुभ रहने की बात कहें, ऐसे संदेश भेजें जिनसे लगे कि वे शुभचिंतक हैं, जब कुछ कहीं से खरीदें तो सामान तो मिले ही, साथ में बेचने वाला शुक्रिया कहे। परंतु यदि विक्रेता मुस्कराते हुए कहे कि आपका दिन अशुभ हो तो अटपटा लगना स्वाभाविक है।


अजब गजब संसार

इंटरनेट पर कुछ न कुछ खोजने की आदत सी पड़ गई है। ऐसे ही निगाह पड़ी कि एक दंपति ने न जाने किस परिस्थिति में एक दिन जो 19 नवंबर था, दूसरों को उनका दिन अशुभ होने की कामना करने की शुरुआत कर दी। यह अटपटा तो था लेकिन अपने अंदर छिपी भावनाओं को बिना किसी लागलपेट के कहने का साहस भी लगा। 

अब यह जरूरी तो नहीं कि मन में प्रत्येक व्यक्ति के लिए उनके दिन के शुभ होने की कामना की जाए। दुकानदार या वस्तु विक्रेता द्वारा उसके यहां से कुछ खरीदने पर ग्राहक का दिन खराब होने या अशुभ होने की मुस्कराते हुए की गई कामना अजब है तो गजब भी है और वह भी चेहरे पर मुस्कान के साथ।

अक्सर हम बिना बात किसी को भी और विशेषकर आधुनिक दौर में उसके दिन के शुभ होने की कामना करते हैं । व्हाट्सएप, फेसबुक और दूसरे संवाद साधनों को खोलते ही न जाने किस किस से दिन भर खुश रहने के संदेश मिलते रहने से एक तरह की खीज सी होती है।  कोई काम की बात तो की नहीं, बस शुभ प्रभात, आपका दिन शुभ हो, आप खुश रहें जैसे संदेश और साथ में कैसी भी फोटो जिसका कोई मतलब समझ नहीं आता। इसे मिटाने या डिलीट करने का मन करता है। कुछ ग्रुपों में यह ताकीद भी होती है कि इस तरह के संदेश न भेजें जाएं क्योंकि यह सब एक जैसे होते हैं और इन्हें पढ़ना समय नष्ट करना है।


भगवान भला करे

भारतीय संस्कृति में किसी के अपमान करने, बुरा भला कहने पर या फिर लड़ाई झगड़ा टालने के लिए यह कहने की परंपरा है कि भगवान तेरा भला करे। मतलब कि मेरे साथ अच्छा नहीं किया तो कोई बात नहीं लेकिन मेरी तरफ से बात समाप्त, अब जो भी है वह ईश्वर या ऊपर वाला है, वह देख लेगा। इस एक वाक्य, इच्छा या कामना से किसी विवाद का अंत न भी हो पर उसकी शुरुआत तो हो ही जाती है। हो सकता है कि वक्त गुजरने के साथ मन की कटुता और बदला लेने की भावना अपने आप धीरे धीरे कमजोर पड़ते हुए गायब ही हो जाए।

जीवन में यह संभव नहीं कि उतार चढ़ाव न हों, इसी लिए कहा जाता है कि वक्त के गुजरने का इंतजार किया जाए। जब समय एक जैसा रहना ही नहीं तो फिर सुख हो या दुःख, क्या अंतर पड़ता है! अगर यह न हो तो जिंदगी एकदम सपाट हो जाएगी, न कोई उत्साह, रोमांच या कुछ नया होने का इंतजार, क्या ऐसा जीवन बोरियत से भरा नहीं होगा ?

इसे इस तरह भी लिया जा सकता है कि जो होने वाला है, उसके बारे में अनुमान तो लगाया जा सकता है लेकिन निश्चित कुछ नहीं कहा जा सकता। यही स्थिति मनुष्य को कुछ न कुछ करते रहने के लिए बाध्य करती रहती है और अगर यह न हो तो जीवन नीरस हो जायेगा जिसे जीने को भी मन नहीं चाहेगा। जब तक मन में यह बात रहती है कि ऊंट किस करवट बैठेगा, तब तक जिंदगी जीने लायक लगती है।

यह एक मनोरंजक स्थिति है कि मन में कुछ और हो और कहना या करना कुछ और पड़े तो सोच कैसी होगी ? ऐसे क्षण अक्सर आते हैं जिनमें चाह कर भी अपनी वास्तविक भावनाओं को व्यक्त करना तो दूर, ऐसा सोचते हुए भी डर लगता है कि अगर गलती से भी यह प्रकट हो गया कि हमारे मन में क्या है तो न जाने कैसा तूफान आ जाएगा। और यही डर हमसे वह करा लेता है जो हम करना नहीं चाहते। शायद ऐसी ही स्थिति रही होगी जब उस दंपति ने शुभ की जगह अशुभ दिन होने की कामना करने की शुरुआत की। कहा जा सकता है कि यह एक तरह से अपने मन में छिपे अंजाने भय से मुक्ति पाने की क्रिया है जो  अक्सर सही समय पर सही बात कहने के लिए तैयार करती है।


न कहने या करने की हिम्मत

यदि इस बात को व्यापक संदर्भ में देखा जाए तो एक तरह से अपने मन में जो कुछ भी हो, उसे कहने की हिम्मत आ जाए तो बहुत से ऐसे निर्णय लेना आसान हो जाएगा जिनके बारे में मन में दुविधा या संशय रहता है।

मान लीजिए, परिवार के बीच कोई मतभेद है और संकोचवश मन की बात कह नहीं पा रहे हैं तो उससे मिलने वाले लाभ या हानि का सही अंदाजा नहीं लगाया जा सकता। इसी तरह नौकरी, व्यापार या कोई सौदा करते समय अपनी बात रखने में हिचकिचाहट हो गई तो अर्थ का अनर्थ हो सकता है। आपके बारे में गलत राय बन सकती है जो आगे चलकर किसी बड़ी परेशानी या चुनौती का कारण बन सकती है। क्षण भर की चुप्पी जीवन का जंजाल बन सकती है।

इसका और भी विस्तार करें या देशव्यापी संदर्भ में देखें तो व्यक्ति के चुप रह जाने से राजनीति में गलत व्यक्ति का चुनाव हो जाता है। हमारा भ्रम हानिकारक हो जाता है और जो चतुर और चालाक है, वह अयोग्य होते हुए भी हम पर शासन करता है। यहीं से रिश्वत लेने देने तथा भ्रष्ट होने की शुरुआत होती है।  यही स्थिति अगर परिवार में हो तो उसके बिखराव का कारण बन जाती है। अपने ही घर में बेगाना होने का एहसास अनेक समस्याओं को जन्म देता रहता है जिसका परिणाम परिवार में बंटवारा ही होता है।

इस दिन को यदि सही ढंग से मनाया जाए और चाहे किसी को अच्छा लगे या बुरा, बिना मुंह बनाए या नाक भौं सिकोड़े, हलकी सी मुस्कान के साथ जो सोचते हैं, वह कह दिया जाए तो मन में अफसोस नहीं रहेगा। इससे सामने कुछ और, पीछे उसके विपरीत आचरण करने से भी मुक्ति मिल जाएगी।


शुक्रवार, 4 नवंबर 2022

परिवारों में बिखराव का कारण विश्वास और समझ का अभाव

 

पारिवारिक पृष्ठभूमि पर लिखी कोई साहित्यिक रचना जैसे कहानी, कविता और उपन्यास पढ़ते हैं या फिल्म और सीरियल देखते हैं तो उनसे हमारा जुड़ाव तब ही हो पाता है जब उनमें कुछ ऐसा हो, जो लगे कि आसपास घटने वाली घटनाओं का चरित्र चित्रण है। पाठक या दर्शक इन्हें बेशक सास बहू टाईप की प्रस्तुति कहें और चाहे कितनी भी आलोचना करें, ये मन को भाती हैं, अच्छी लगती हैं और कितने भी विरोध हों, अपने कथानक के कारण लोकप्रियता के पायदान की सीढियां चढ़ती जाती हैं।

मन में यह बात आना स्वाभाविक है कि ऐसा क्यों होता है कि परिवारों में तनाव देखने को मिलता है, साधारण सी बात पर बिखराव हो जाता है और जीवन का अधिकांश समय एक साथ व्यतीत करने पर बंटवारे की नौबत आ जाती है। यही नहीं, आपसी मनमुटाव सड़कों पर आ जाता है और अडौसी पडौसी से लेकर नाते रिश्तेदार तक आश्चर्य करते पाए जाते हैं कि इस परिवार से ऐसी उम्मीद नहीं थी, सब लोग हमेशा एक साथ खड़े नज़र आते थे, इन्हें क्या हो गया कि एक दूसरे का मुंह तक नहीं देखना चाहते। यही नहीं, ऐसे उदाहरण हैं जिनमें मारपीट से लेकर हत्या तक की घटनाएं हो जाती हैं और आपसी रंजिश या दुश्मनी इतनी बढ़ जाती है कि खानदानी या पुश्तैनी बन जाती है। पीढ़ियां गुजर जाती हैं और यह तक याद नहीं रहता कि मनमुटाव की शुरुआत कब और कैसे हुई थी, बस एक परंपरा सी हो जाती है जिसे कायम रखना है।


अनावश्यक हस्तक्षेप

यह विधि का विधान है कि हम अपने मातापिता या संतान का चुनाव नहीं कर सकते। पति पत्नी द्वारा एक दूसरे का चुनाव करना अपने वश में होता है और उसके लिए सभी के पास बहुत से विकल्प होते हैं। यह भी मान्यता है कि जोड़ियां ऊपर से बनकर आती हैं और कौन किस का जीवन साथी बनेगा, यह सब भाग्य की बात है। परंतु वास्तविकता यह है कि आज के दौर में बहुत कुछ खोजबीन करने और अपने मन मुताबिक संबंध मिलने पर ही वैवाहिक जीवन का आरंभ हो पाता है। अक्सर जिन्हें हम बेमेल जोड़ी कहते हैं, चाहे किसी भी कारण से हों, वे जीवन भर साथ निभाती हैं और बहुत से संबंध शुरू से ही बिगड़ने लगते हैं और एक स्थिति ऐसी आती है जिसमें संबंध विच्छेद ही एकमात्र उपाय बचता है।

आखिर ऐसा क्या होता है कि बहुत देखने भालने के बावजूद रिश्तों में खटास आ जाती है, एक दूसरे से कोई बहुत बड़ी शिकायत न होने पर भी अलग होना ही बेहतर लगता है। इसका कारण परिवार में जिन्हें हम अपने कहते हैं, उनकी अनावश्यक दखलंदाजी है जो दरार पैदा करने का काम करती है ।

व्यावहारिक उपाय

यहां एक दूसरी व्यवस्था का ज़िक्र करना है जो नौकरी या व्यवसाय से जुड़ी है। किसी भी संस्थान में यह नियम लागू रहता है कि कोई भी कर्मचारी अपने काम के बारे में अपने परिवार वालों को केवल यह बता सकता है कि वह कहां काम करता है और ज्यादा से ज्यादा यह कि वहां मोटे तौर पर क्या काम होता है। इससे अधिक कुछ नहीं। यह पाए जाने पर कि कर्मचारी के घरवाले जब तब ऑफिस में उससे मिलने बिना किसी काम के आते रहते हैं तो इसके लिए चेतावनी से लेकर नौकरी तक पर आंच आ सकती है।

इसके पीछे यह तर्क है कि घरवालों से यदि कर्मचारी ने अपने काम के बारे में कोई चर्चा की या किसी समस्या के बारे में सलाह ली तो उसके परिणाम अच्छे नहीं होते। मान लीजिए, किसी सदस्य के मशविरे को मानकर कार्यवाही कर ली और उससे उलझन सुलझने के बजाए ज्यादा उलझ गई तो जिसकी सलाह ली गई, वह तुरंत कहेगा कि उसने अपनी समझ से कहा था, अगर वह गलत निकली तो उसके लिए वह जिम्मेदार नहीं, यदि सही निकली तो वह पूरा श्रेय लेने को तैयार हो जाएगा ।

अब हम उस परिवार की बात करते हैं जो बिखरने के कगार पर है। मान लीजिए, आपकी बेटी या बहन का विवाह हो गया है और वह अपने घर यानी ससुराल की कोई समस्या या अपनी परेशानी अथवा अपने साथ हो रहे व्यवहार के बारे में कोई बात बताती है और आपने अपनी समझ से कुछ ऐसा कह या कर दिया जो उसके परिवार वालों के व्यवहार से मेल नहीं खाता और लड़की ने आपके कहे अनुसार अपना कदम उठा लिया तो बात बिगड़ना निश्चित है। 

इसे गैर ज़रूरी दखलंदाजी से दोनों परिवारों के बीच दरार पड़नी शुरू हो सकती है। इसी तरह यदि परिवार की बहु अपने मायके वालों की रुचि, उनकी आवभगत और जब चाहे तब उससे मिलने आ जाने की आदत को आवश्यकता से अधिक महत्व देती है तो समझिए कि संबंधों के बिगड़ने की शुरुआत हो चुकी है।

अक्सर परिवारों में मुखिया की मृत्यु होने पर संपत्ति को लेकर वाद विवाद होता है जिसका कारण अधिकतर किसी वसीयत के न होने या उसमें किसी को कम या ज्यादा देने से होता है।

कई मामलों में मृत्यु के समय जो व्यक्ति पास था, वह सहमति या जबरदस्ती यदि संपत्ति अपने नाम लिखा लेता है तो ऐसी स्थिति में परिवार के अन्य सदस्यों के सामने लंबी मुकदमेबाजी के अतिरिक्त कोई उपाय नहीं रहता। इसका एक ही हल है कि अपने जीवन काल में ऐसी लिखित व्यवस्था कर दी जाए जिससे बाद में विवाद या झगड़ा होने की संभावना न रहे।

व्यापक स्तर पर प्रभाव

परिवार में यदि सब कुछ ठीक नहीं है तो उसका प्रभाव समाज पर पड़ना स्वाभाविक है क्योंकि मनुष्य सामाजिक प्राणी है। इसे यदि व्यापक अर्थों में देखा जाए तो पारिवारिक असंतुलन या उसके विघटन का असर देश पर भी पड़ता है। आर्थिक विकास भी प्रभावित होता है और एकजुट रहने की शक्ति कमज़ोर पड़ती है।

बहुत से देशों में यह एक पारिवारिक और सामाजिक व्यवस्था बन गई है कि जब संतान के पालन पोषण और उसकी शिक्षा की जिम्मेदारी पूरी हो जाती है और वह वयस्क होकर अपने मुताबिक जीवन जीने के लिए तैयार हो जाता है, उसे अलग कर दिया जाता है । वह अपने निर्णय लेने के लिए स्वतंत्र हो जाता है। मातापिता उसका साथ तो देते हैं लेकिन दखलंदाजी नहीं करते, न ही अपनी बात थोपते हैं। इसमें सरकार भी उनका साथ देती है और यह उसकी नीतियों की जिम्मेदारी है कि वह युवा अपने व्यक्तिगत जीवन में  समर्थ हो और अपने देश की प्रगति में योगदान करे।

हमारे देश में संयुक्त परिवार की परंपरा रही है इसलिए विदेशी मॉडल अपनाना सरल नहीं है। जिस तरह से आज एकल परिवार की धारणा को बल मिल रहा है, उससे स्थिति में बदलाव आना निश्चित है लेकिन वर्तमान समय में सबसे ज्यादा ज़रूरी है कि परिवार में बिखराव को रोकने के प्रयत्न किए जाएं। यह परिवार से लेकर सरकार तक का दायित्व है।


शुक्रवार, 28 अक्तूबर 2022

विश्व इंटरनेट दिवस


प्रति वर्ष 29 अक्टूबर को विश्व इंटरनेट दिवस मनाने की परंपरा सन 1969 में पड़ी जब दो व्यक्तियों ने पहली बार एक कंप्यूटर से दूसरे कंप्यूटर तक दो शब्द एल और ओ भेजने में सफलता पाई। ये थे चार्ली क्लाइन जो अपने सहयोगी बिल दुवेल को लॉगिन शब्द भेजना चाहते थे लेकिन केवल दो अक्षर ही भेज पाए और सिस्टम क्रैश हो गया। इसी के साथ दुनिया को एक ऐसी खोज मिल गई जो आज जीवन की एक महत्वपूर्ण गतिविधि या कहें कि आपस में संवाद करने की जबरदस्त ताकत बन गई है। यह अंतरिक्ष यात्री नील आर्मस्ट्रांग के चंद्रमा पर कदम रखने के दो माह बाद हुआ था। उसके बाद सन 2005 से इंटरनेट का आकार बढ़ते बढ़ते पूरी दुनिया पर इस तरह छा गया कि इसने काम करने के तरीके, सोचने की दिशा और अपनी बात पलक झपकते ही दूसरों तक पहुंचाने की क्रिया को एक नया रूप दे दिया।

देखा जाए तो इंटरनेट क्या है, बस डाकखाने का परिवर्तित रूप है। जैसे पहले हम पत्र लिखकर डाक के डिब्बे में डालकर उसके अपने गंतव्य तक पहुंच जाने की व्यवस्था करते थे, वही इंटरनेट करता है। जिस तरह डाकघर में पत्रों को छांट कर अलग अलग खानों में रखकर और फिर वहां से जहां पहुंचाना है, सुनिश्चित किया जाता था, उसी तरह इंटरनेट से हमारा संदेश एक से दूसरे कंप्यूटर तक पहुंचता है। अंतर केवल इतना है कि जिस काम में पहले दिन से लेकर सप्ताह तक लग जाते थे, अब वह पलक झपकते ही हो जाता है।

आज पोस्ट ऑफिस की जगह सर्च इंजन हैं जो हुक्म मेरे आका की तर्ज़ पर अलादीन के चिराग की तरह तुरंत आपकी मनचाही सूचना हाज़िर कर देते हैं। मिसाल के तौर पर किसी शब्द का अर्थ जानना हो तो डिक्शनरी की ज़रूरत नहीं, बस टाईप कीजिए और जितने भी संभव अर्थ हैं, वे सामने स्क्रीन पर दिखाई दे जायेंगे। उनमें जो आपके मतलब का है, वह उठा लीजिए और अपना काम कीजिए।

इंटरनेट का काम है कि आपने जो जानकारी मांगी है, वह सबसे पहले, सबसे तेज़ और अनेक विकल्पों के साथ आप तक पहुंचाए।

इंटरनेट और सोशल नेटवर्किंग

इसके बाद मार्क जुकरबर्ग ने फेसबुक पकड़ा दी और उसके साथ व्हाट्सअप, ट्विटर, इंस्टाग्राम से लेकर कितने ही ऐसे प्लेटफॉर्म आते गए कि इंसान उन्हीं में इतना व्यस्त हो गया या कहें कि उलझ गया कि लगा कि कुछ और करने के लिए वक्त निकलना मुश्किल है।

अमेजन ने तो जैसे चमत्कार ही कर दिया। कहीं जाने की ज़रूरत नहीं, घर पर ही जो चाहो मिल जाएगा।

इंटरनेट केवल संदेश यानि मेल भेजने का साधन ही नहीं रहा, उसने शॉपिंग, बैंकिंग और लेनदेन को इतना सुगम और हरेक की पहुंच में ला दिया कि उसके लिए न पहले से कुछ इंतजाम करना है और न कहीं जाना है, बस कंप्यूटर हो या मोबाईल, उस पर उंगलियां चलानी हैं, जो चाहते हैं,वह हो सकता है। न लाईन में लगकर धक्कामुक्की करना, न कर्मचारी से बहस में उलझना और न ही किसी पर निर्भर रहकर इंतजार करना।

दुरुपयोग की असीमित संभावना

यहां तक तो ठीक लेकिन जब भारत जैसे देश में जहां सरकारी तंत्र हो या निजी व्यवस्था, समय पर काम न करने, चीज़ों को लटकाने और अपने किसी  स्वार्थ के लिए किसी काम को करने में टालमटोल करने की आदत वर्षों पुरानी हो, उसे बदलने में इंटरनेट कोई मदद नहीं कर सकता।

इसके अलावा जिस प्रकार किसी अविष्कार या अनुसंधान अथवा खोज के गुणों के बारे में बहुत कुछ कहा जा सकता है और उनसे लाभ उठाया जा सकता है लेकिन यदि कोई उसका गलत इस्तेमाल करना चाहे तो उसकी एक सीमित हद तक रोकथाम तो की जा सकती है, परंतु उसे फुलप्रूफ करना असम्भव है। ऐसा ही इंटरनेट के साथ है। इसका दुरुपयोग करना भी उतना ही आसान है, जितना इसका सदुपयोग।

आज इंटरनेट के ज़रिए साईबर क्राईम हो रहे हैं। लोगों को ठगने की इसमें बहुत आसानी है क्योंकि ठग तक पहुंचना मुश्किल है। इसके साथ ही ब्लैकमेल करने की कला जिसे आती है, उसके लिए यह एक अचूक साधन हैं। गलत संदेश देकर, बहका फुसलाकर अपने मनमुताबिक शिकार के अज्ञान या जानकारी के अभाव का पूरा फायदा उठाते हुए लूटपाट करना बहुत आसान है। अपराधी को पकड़ना मुश्किल होने से केवल हाथ मलने के अतिरिक्त कोई रास्ता नहीं है।

इंटरनेट व्यक्ति को उसकी व्यक्तिगत स्वतंत्रता से इस तरह वंचित करता है कि पता ही नही चलता कि कब वह इसका आदी हो गया है। दिन रात कंप्यूटर, मोबाईल या किसी अन्य उपकरण के ज़रिए वह इसमें इतना लिप्त रह सकता है कि उसे समय का भी अंदाज़ नहीं रहता।

इंटरनेट के ज़रिए लोगों की भावनाओं को भड़काना बहुत आसान है, इससे दंगे कराए जा सकते हैं, आतंकी गतिविधियों को बढ़ावा दिया जा सकता है और समाज में उथलपुथल से लेकर युद्ध जैसे हालात पैदा किए जा सकते हैं। मनोरंजन के नाम पर अश्लीलता और पोर्नोग्राफी के ज़रिए बहुत कुछ ऐसा दिखाया जा सकता है जो सामान्य रूप से निंदा की परिधि में आता है।

इसमें कोई संदेह नहीं कि इंटरनेट कामकाजी दुनिया के लिए एक वरदान है, महामारी के समय यही सबसे बड़ा साथी रहा है, घर बैठकर पढ़ाई करने से लेकर अपनी नौकरी या व्यवसाय करने की सुविधा और अपार संभावनाएं इसकी बदौलत प्राप्त हुई हैं।

इसी के साथ कुछ देशों में अब इंटरनेट के बिना न रहने की आदत अर्थात इसकी लत छुड़ाने के लिए अनेक कार्यक्रम या कहें कि ईलाज के तरीक़े अपनाने की पहल होने लगी है। 

इंटरनेट आपके अकेलेपन का साथी भी है और बाकी दुनिया से अलग रखने का साधन भी लेकिन यह एक तरह के मानसिक तनाव को भी जन्म दे रहा है। एक अनुमान के अनुसार हमारे देश की आधी आबादी इंटरनेट का इस्तेमाल करती है। उसकी निर्भरता अब ऑनलाइन रहने तक सिमट गई है। इससे उसके व्यक्तिगत जीवन से लेकर स्वास्थ्य तक पर गंभीर प्रभाव पड़ रहा है। यह स्थिति चिंताजनक है। इसका हल भी स्वयं व्यक्ति के पास है, उसे ही सोचना है कि वह इसकी आदत पड़ने से पहले किस तरह ऐसा व्यवहार करे जिससे सांप भी मर जाए और लाठी भी न टूटे।



शुक्रवार, 21 अक्तूबर 2022

ब्रिटेन की ताकत शिक्षा व्यवस्था और रोजगार तथा कम आबादी है

 

यह सही है कि हम अंग्रेजों की हुकूमत सह रहे थे और कितने ही संकल्पों और बलिदानों के बाद स्वतंत्र हुए लेकिन उतना ही बड़ा सच यह है कि आज भी ब्रिटेन एक आम भारतीय को यहां आकर रहने, नागरिकता प्राप्त करने के लिए लालायित करता रहता है।

यात्रा वृत्तांत

इंग्लैंड, वेल्स और स्कॉटलैंड के संयुक्त रूप ग्रेट ब्रिटेन की यात्रा एक सैलानी के रूप में करने पर अनेक बातें मन में उमड़ती घुमड़ती रहीं। इनमें सबसे अधिक यह था कि आखिर कुछ तो होगा जो अंग्रेज हम पर सदियों तक शासन कर पाए !

इसका जवाब यह हो सकता है कि इसकी एक बड़ी वजह यह थी कि यहां शताब्दियों से शिक्षा की ऐसी व्यवस्था स्थापित होती रही थी जो विद्यार्थी हो या जिज्ञासु, उसे किसी भी विषय के मूल तत्वों को समझने और फिर जो उलझन है, समस्या है, उसका हल निकालने का सामथ्र्य प्रदान करती है।

पूरे देश में कॉलेजों और विश्वविद्यालयों का जाल फैला हुआ है और दुनिया का कोई भी विषय हो, यहां उसे पढ़ने का प्रबंध है और यही नहीं उसमें पारंगत होना लक्ष्य है। उद्देश्य यह नहीं कि इसका गुणगान किया जाए लेकिन वास्तविकता आज भी यही है और तब भी थी जब हमारे देश के गुलामी की जंजीरों को काटना सीखने से पहले भारतीय यहां पढ़ने आते थे। इनमें बापू गांधी, नेहरू, बोस भी थे तो वर्तमान दौर के अमृत्य सेन भी है।

ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय को देखने से लगता है कि जैसे एक पूरा शहर ही शिक्षा का केंद्र हो। यहां के भवन, क्लासरूम, पुस्तकालय इतने भव्य और विशाल हैं कि भारत में उनकी केवल कल्पना ही की जा सकती है। विद्यार्थियों की लगन भी कमाल की है। सदियों से यहां शोध के लिए संसार के सभी देशों से लोग पढ़ने आते रहे हैं। हमारी गाईड ने एक किस्सा बताया कि जब बिजली नहीं थी तो दोपहर तीन बजे अंधेरा होने से पहले लाइब्रेरी बंद हो जाती थी। एक बार कुछ विद्यार्थी यहां पढ़ते पढ़ते सो गए और दरवाजे बंद होने का उन्हें पता नहीं चला। रात भर में उनके शरीर ठंड से अकड़ गए और सुबह मृत मिले। तब न बिजली थी, न हीटर और न आज की तरह एयरकंडीशन।

जहां तक यहां की शिक्षा प्रणाली है, उसके बारे में इतना कहना काफी है कि यह विद्यार्थियों को ब्रिटेन के तौर तरीके सिखाती है और जो कुछ पढ़ा है उसका पूरा लाभ केवल इसी देश में मिल सकता है। इसका मतलब यह हुआ कि जो पढ़ने आयेगा, वह शिक्षित होकर यहीं का होकर रहने और अंग्रेजों की प्रशासन व्यवस्था का एक अंग बन जाने को प्राथमिकता देते हुए यहीं बस जायेगा। उसकी पढ़ाई लिखाई की पूछ या उपयोगिता उसके अपने देश में बहुत कम होने से वह लौटने के बारे में नहीं सोचता। यहीं नौकरी, फ़िर शादी भी किसी अपने देश की यहां पढ़ने वाली या स्थानीय लड़की से कर गृहस्थी बसा लेगा। अपने मातापिता को, अगर यह चाहे और वे भी आना चाहें, तो बुला लेगा वरना ख़ुद मुख्तार तो वह हो ही जाता है।

कोई भी भारतीय अपने बच्चों को यहां पढ़ने भेजने से पहले यह सोच कर रखे कि काबिल बनने के बाद वे भारत लौटकर आने वाले नहीं हैं। इसका कारण यह कि उसे पढ़ाई के दौरान पार्ट टाइम जॉब करने की सुविधा होती है, स्कॉलरशिप हो तो और भी बेहतर और सबसे बड़ी बात यह कि नौकरी के अवसर बहुत मिलने लगते हैं। अपने देश में न इतनी जल्दी नौकरी मिलेगी और न ही यहां जितना वेतन और सुविधाएं।

यहां भारत, पाकिस्तान, बांग्लादेश से आए लोग बहत अधिक हैं। जहां हमारे देश से पढ़ने के लिए आते हैं, वहां दूसरे देशों से कोई भी काम, जैसे टैक्सी ड्राइवर, खानसामा, वेटर या जो भी मिल जाए, करने वाले आते हैं।


ब्रेन ड्रेन रुक सकता है

यह सोचना काफ़ी हद तक सही है कि यदि यहां पढ़ने के बाद भारतवासी लौट आएं और नौकरी, व्यवसाय करें तो देश की अर्थव्यवस्था में कितना फर्क पड़ेगा। इसके विपरीत भारत सरकार ने अभी हाल ही में समझौता किया है जिसमें भारत से आने वालों को यहां की नागरिकता प्राप्त करने को बहुत आसान बना दिया गया है। होना तो यह चाहिए कि शिक्षा पूरी होने के बाद उसका अपने देश लौटना अनिवार्य हो ताकि भारत का जो उस पर धन लगा है, उसकी भरपाई हो सके।

यहां शिक्षित व्यक्ति को नौकरी या व्यवसाय करने के लिए सरकार को विशेष योजना बनानी होगी ताकि ब्रिटेन में नौकरी करने का उसके लिए विशेष आकर्षण न हो। यहां गोवा, गुजरात, पंजाब से आए लोग बहुत बड़ी संख्या में हैं। लंदन, ब्रिस्टल, मैनचेस्टर, कार्डिफ, एडिनबरा, ग्लासगो जैसे शहरों में दूसरे देशों से आए लोग सभी जगहों पर मिल जायेंगे। भारतीय खाने के शौकीन अंग्रेज़ इंडियन रेस्टोरेंट में अक्सर देखने को मिल जायेंगे। हाथ से खाने की आदत नहीं तो रोटी का टुकड़ा दाल या सब्जी में डुबोकर खाते देखना मनोरंजक है, ठीक उसी तरह जैसे कांटे छुरी से खाने का अभ्यास।

लंदन में मैडम टुसाद के संग्रहालय में विश्व के नामचीन लोगों के मोम से बने पुतले आपनी तरह की कारीगरी की बढ़िया मिसाल है। धोखा होता है कि कोई जीवित व्यक्ति तो नहीं खड़ा, उसका चेहरा जैसे कि बस अभी बात करने लगेगा। पुतले बनाने की विधि भी बताई जाती है।

यहां का एक दूसरा आकर्षण हैरी पॉटर म्यूज़ियम है जो बच्चों से लेकर बड़ों तक को आकर्षित करता है। सिरीज़ बनाने में कितनी मेहनत और कितनी तैयारी करनी पड़ती है, उसका सूक्ष्म विवरण यहां देखने और समझने को मिलता है।

लंदन से कुछ दूरी पर बाथ स्पा शहर है। यहां रोमन स्नानागार अपने प्राचीन रूप में देखने को मिल जायेंगे। उस समय की संस्कृति की झलक दिखाई देती है।

ब्रिटेन में जहां एक ओर विशाल और भव्य गिरिजाघर या कैथेड्रल हैं, जिन्हें देखकर इसकी प्राचीन संस्कृति और सभ्यता का पता चलता है, दूसरी ओर प्राकृतिक सौंदर्य के बेशुमार स्थल हैं। रोची नदी का विशाल पाट अपनी गंगा या नर्मदा जैसा लगता है। निर्मल जल, कभी शांत तो कभी अपने उग्र रूप में बहता हुआ, नाव या क्रूज की सैर को रोमांचक बना देता है।

स्कॉटलैंड को व्हिस्की का देश भी कहा जाता है। सत्रहवीं सदी की डिस्टलरीज आज भी शराब बना रहीं हैं जो पूरी दुनिया में अपने शौकीनों की प्यास बुझा रहीं हैं। मदिरा पीने का अपना अलग अंदाज़ है, उसके स्वाद, महक और रंग रूप का विवरण मोहक है। जौ, पानी और यीस्ट का इस्तेमाल कर बनाई जा रही मदिरा को बनते हुए देखना अपने आप में एक अनुभव है।

यहां के हरे भरे वन, बर्फ से ढकी चोटियां और नंगे पर्वत तथा मैदानी इलाकों का सौंदर्य देखते ही बनता है। दूर तक फैली हरियाली, हल्की बारिश और तेज हवा के झोंके ठंडक का एहसास कराते हैं। सारांश यह कि ग्रेट ब्रिटेन की सैर रोमांचक, शिक्षाप्रद और शानदार रही, यह तो कहा ही जा सकता है।

सच यह भी है कि अंग्रेज़ हमारे बौद्धिक, अद्योगिक और व्यापारिक संसाधनों का तब भी शोषण करते थे, जब यहां शासन करते थे। आज भी हमारे युवाओं को अपनी समृद्धि के लिए इस्तेमाल करते हैं। पहले यहां से कृषि और उद्योग के लिए रॉ मेटीरियल मुफ्त ले जाते थे और उनसे बने उत्पाद हमें ही बेचते थे, आज उच्च शिक्षा के नाम पर हमारे कुशाग्र और परिश्रमी युवाओं को लुभाते हैं। आश्चर्य होगा यदि जैसे तब विदेशी वस्तुओं के खिलाफ़ आंदोलन हुआ था, आज भी ब्रिटेन में शिक्षा प्राप्त कर वहीं न बस जाने को लेकर कोई मुहिम शुरू हो।


शनिवार, 8 अक्तूबर 2022

लंदन की सैर का मतलब भारत से तुलना करना भी है

 

प्रत्येक भारतवासी के मन में कभी तो यह बात आती ही होगी कि आखिर अंग्रेज़ी सल्तनत में ऐसा क्या था कि उनका सूरज कभी डूबता नहीं था ? काफी समय से यह बात  मन में थी कि अगर मौका मिले तो एक बार इंग्लैंड ज़रूर जाया जाए और अपने पाठकों को इस मुल्क की सैर कराई जाए । मन में इच्छा थी और वह पूरी भी हो गई और सत्ताईस सितंबर को मुंबई से लंदन के हीथ्रो हवाई अड्डे पर कदम रख दिए।

सुबह साढ़े सात बजे प्लेन ने लैंड किया और औपचारिकताएं निभाते हुए बाहर आने में दो घंटे लग गए। यह हवाई अड्डा बहुत विशाल है लेकिन भारत के दिल्ली और मुंबई के हमारे भी इसके सामने कुछ कम नहीं लगे। टैक्सी से केंसिंगटन में होटल तक की दूरी तय करने के दौरान इस आधुनिक शहर की झलक मिलने लगी। साफ़ सुथरी सड़कें, यातायात एकदम व्यवस्थित और उससे भी अधिक अनुशासित ढंग से अपने आप चल रहा था। अपनी लेन में चलना है, क्रॉसिंग पर सिग्नल का पालन ज़रूरी है और अगर जल्दबाजी या लापरवाही हुई तो कैमरे की निगाहें आप पर हैं। इसीलिए दुर्घटनाएं न के बराबर होती हैं।

हमारे यहां अभी केवल कुछ ही शहरों में और वह भी खास जगहों पर चालान कटने का डर होने से ट्रैफिक ठीकठाक तरीके से चलता है। वरना तो ज्यादातर जगहों पर नियम पालन करना अपनी हेठी समझी जाती है । कानून के डर के बिना जब तक ट्रैफिक नियम मानने की आदत नहीं बनती और सब कुछ चलता है जैसी मानसिकता रहती है तो सुधार होना ज़रा कठिन है।


यातायात

लंदन में आने जाने के लिए अंडरग्राउंड ट्यूब रेल है जो यहां की लाइफलाइन है, कहीं से कहीं भी जाना बहुत आसान है और वह भी निश्चित समय में। कई स्टेशनों पर नीचे से ऊपर पंद्रह बीस मंजिल तक रेल चलती है । इन स्टेशनों पर लिफ्ट की व्यवस्था है और पैदल इतना ऊपर चढ़ना उतरना परेशानी का कारण बन सकता है, इसकी चेतावनी दी जाती है।

दुनिया की पहली अंडरग्राउंड रेल की शुरुआत लंदन में सन 1863 में सड़कों पर भीड़भाड़ कम करने के लिए हुई थी । तब स्टीम इंजन का जमाना था। उसके बाद इलेक्ट्रिक पावर और लिफ्ट्स का इस्तेमाल शुरू हुआ और 1908 से 1930 तक इसका काफी विस्तार हो गया। इस रेल को चलते हुए 160 वर्ष हो जायेंगे। अब इसकी 11 लाईन हैं और 402 किलोमीटर तक 270 स्टेशनों के बीच फैलाव है। प्रतिदिन पचास लाख यात्री इनमें सफर करते हैं।


दर्शनीय स्थल

लंदन में वेस्टमिंस्टर एक तरह से शहर का केंद्र है। यहां विशाल और अद्भुत कारीगरी, अनोखी वास्तु कला तथा प्राचीन इतिहास की गवाह एक शानदार इमारत के रूप में बना चर्च वेस्टमिंस्टर एबे है। यह सन 1066 से राजशाही और राजतिलक की परंपरा निभा रहा है। अब तक यहां 17 मोनार्क अंतिम विश्राम कर चुके हैं। इनके अतिरिक्त बहुत से गणमान्य और प्रभावशाली और बड़ी हैसियत रखने वाले भी यहां मरने के बाद शान से अपने अपने रुतबे के मुताबिक आराम फरमा रहे हैं । यह पहले काफी छोटी जगह थी । हेनरी तृतीय ने सन 1245 में वर्तमान निर्माण शुरू कराया जो सोलहवीं शताब्दी तक चला। यहां शाही घराने के विवाह भी संपन्न हुए हैं । यहां का प्रशासन किसी आर्चबिशप या बिशप के पास नहीं बल्कि यह सीधे राजसिंहासन के अधिकार क्षेत्र में है।

इस इलाके में यहां की संसद है। इस के साथ थेम्स नदी की सैर भी क्रूज से की जा सकती है। क्रूज से यात्रा के दौरान लंदन ब्रिज, लंदन आई और आसपास की सामान्य ऊंचाई से लेकर बहुमंजिली शानदार इमारतों को देखते हुए वापिस आया जा सकता है।

यहां पार्लियामेंट स्क्वायर में राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की मूर्ति स्थापित है। यहीं पर सबसे आगे विंस्टन चर्चिल का विशालकाय बुत भी है जिसे देखकर याद हो आया कि यही वह शख्स था जिसने भारत विभाजन की रूपरेखा तैयार की थी और लॉर्ड माउंटबेटन को अपनी योजना को अमल में लाने के लिए भेजा था। पीछे खड़े गांधी जी भी उसके इरादों को भांप नहीं पाए। वह तो नेहरू और सबसे अधिक सरदार पटेल थे जिन्होंने चर्चिल के मंसूबों को कामयाब नही होने दिया।  एक बार फिर वह घटनाक्रम घूमने लगा जिसमें स्वतंत्र कहलाकर भी अंग्रेजों की गुलामी करने की गंदी राजनीतिक चाल चली गई थी जो सफल न हो सकी, बेशक उसके लिए बहुत कुछ कुर्बान करना पड़ा।

हमारे नेताओं की समझदारी से देश एक कुचक्र से तो बच गया लेकिन दो टुकड़ों में बांट दिया गया। यह भी चर्चिल की ही सनक थी कि दो अलग देश होकर भी एक दूसरे के विरोधी बने रहें।

सहूलियत वाला शहर

लंदन में भी कभी वायु और जल प्रदूषण हुआ करता था। अब यह बीते दिनों की बात हो गई है। यहां की हवा साफ और सांस लेने पर ताज़गी का अहसास कराती है। थोड़े थोड़े अंतराल पर बहुत से पार्क हैं, उनमें घने पेड़ हैं, रंग बिरंगे फूलों की छटा देखते ही बनती है। नल से साफ पीने का पानी मिलता है।

बकिंघम पैलेस के आसपास और सामने के पार्क में रानी एलिजाबेथ को श्रद्धांजलि देते हुए लोग एक निश्चित स्थान पर फूलों के गुलदस्ते रख जाते हैं। यहां सामने जेम्स पार्क में एक नहर है जिसमें जलपक्षी तैरते रहते हैं। बहुत ही सुन्दर और मनोहारी दृश्य है। पैदल सैर करने वाले लोग बढ़ते जा रहे हैं, हल्की सी ठंडक अनुभव होने से मौसम के बदलाव का संकेत मिल रहा है।

यह शहर प्राचीन वैभव, संस्कृति और सभ्यता का प्रतीक होने के साथ आधुनिक शिक्षा, विज्ञान और साहित्य का भी केंद्र है। वास्तुकला की दृष्टि से यहां के घर अपनी विशिष्ट पुरातन शैली के हैं। उन्हीं के साथ जब बाजार का रुख करते हैं तो वर्तमान शैली के भवन दिखाई देते हैं। प्राचीन और नवीन का संगम अपनी अनोखी अदा से इठलाता नज़र आता है जैसे दोनों एक दूसरे के विरोधी नहीं बल्कि पूरक हों।

असल में यही अंग्रेजी शासन का मुख्य आधार रहा है। वे जहां भी गए और शासन की बागडोर अपने हाथ में ली तो उन्होंने उन सब चीजों के साथ तालमेल बिठाने को प्राथमिकता दी जिससे उनके लिए लोगों में विश्वास पैदा हो और वे उन्हें आक्रांता समझने के बजाय मित्र समझें।

भारत पर उनके शासन की जड़ें जमाए रखने में अंग्रेजों की यही तरकीब कामयाब हुई और बहुत से भारतीयों  ने उनके साथ कदम से कदम मिलाकर चलने में भलाई समझी। अंग्रेज़ तो मुट्ठी भर थे लेकिन साथ हमारे ही लोगों ने दिया।  इसका लाभ हुकूमत ने यहां लोगों को आपस में फूट डालकर राज करने की नीति अपनाकर लिया।

लंदन एक खूबसूरत शहर है, इसमें दो राय नहीं लेकिन इसके साथ साथ यह अपने स्वार्थ सिद्ध करने के लिए भी प्रसिद्ध है। यहां के लोग दूसरों के साथ व्यवहार करते समय एक हो जाते हैं और अपने मतभेद भुला देते हैं। यहीं से इनकी असली मंशा शुरू होती है।  यह एक ओर अपने व्यवहार से अपना बनाए रखते हैं और दूसरी ओर अपनी होशियारी से उनका सब कुछ कब्जाने में सफल हो जाते हैं। इसका प्रमाण यह है कि लंदन में जितने भी म्यूजियम, संग्रहालय और गैलरी हैं उनमें दुनिया भर

से लाई गई नायाब चीजें हैं जिनमें भारत का कोहिनूर हीरा भी है।

कहना होगा कि लंदन समावेशी शहर है। यहां कई जगह पर स्थानीय आबादी से ज्यादा दूसरे देशों से पढ़ने, नौकरी, व्यवसाय या व्यापार करने के लिए आए लोग बस गए हैं। अचानक कोई अपनी भाषा में बात करने लगे तो सुखद आश्चर्य होता है। उसके बाद तो बातों बातों में भारत के किसी भी प्रदेश से यहां आकर बसे हों, अपनेपन के साथ बातचीत का सिलसिला शुरू हो जाता है जो एक यादगार क्षण रहता है।   


शुक्रवार, 23 सितंबर 2022

सृष्टि के अनुसार मनुष्य और पशु पक्षी एक दूसरे पर निर्भर तथा पूरक हैं


अक्सर इंसान और जानवर के बीच संघर्ष होने, एक दूसरे पर हमला करने की वारदात होती रहती हैं। मनुष्य क्योंकि सोच सकता है इसलिए वह अपने लाभ के लिए उनकी नस्ल मिटाने में भी संकोच नहीं करता जबकि प्रकृति की अनूठी व्यवस्था है कि दोनों अपनी अपनी हदों में एक साथ रह सकते हैं।


प्राकृतिक संतुलन

देश में चीते समाप्त हो गए थे और जानकारों के मुताबिक उससे प्राकृतिक संतुलन में विघ्न पड़ रहा था, इसलिए उन्हें फिर से यहां बसाया जा रहा है। कुछ तो महत्वपूर्ण होगा कि यह कवायद की गई। चीता सबसे तेज दौड़ने वाला जीव है, अपनी हदें पार न करने के लिए जाना जाता है, जैव विविधता और इकोसिस्टम बनाए रखने में सहायक है। वन संरक्षण के लिए जरूरी जानवरों की श्रेणी में आता है जैसे शेर, बाघ, तेंदुआ, हाथी, गैंडा जैसे बलशाली, भारी भरकम और बहुउपयोगी पशु हैं।

सभी पशु पक्षी मनुष्य के सहायक हैं लेकिन यदि उनके व्यवहार को समझे बिना उनके रहने की जगह उजाड़ने की कोशिश की जाती है तो वे हिंसक होकर  विनाश कर सकते हैं। उदाहरण के लिए हाथी जमीन को उपजाऊ बना सकता है लेकिन उसे क्रोध दिला दिया तो पूरी फसल चैपट कर सकता है। इसी तरह गैंडा कीचड़ में रहकर मिट्टी की अदलाबदली का काम करता है, प्रतिदिन पचास किलो वनस्पति की खुराक होने से जंगल में कूड़ा करकट नहीं होने देता और उसके शरीर पर फसल के लिए हानिकारक कीड़े जमा हो जाते हैं, वे पक्षियों का भोजन बनते हैं और इस तरह संतुलन बनाए रखते हैं। लेकिन यदि वह विनाश पर उतर आए तो बहुत कुछ नष्ट कर सकता है।

हाथी के दांत और गैंडे के सींग के लिए मनुष्य इनकी हत्या कर देता है जबकि ये दोनों पदार्थ उसकी कुदरती मौत होने पर मिल ही जाने हैं। इन पशुओं के सभी अंग और उनके मलमूत्र दवाइयां बनाने से लेकर खेतीबाड़ी के काम आते हैं और कंकाल उर्वरक का काम करते हैं। ये दोनों पशु कीचड़ में रहकर दूसरे जानवरों के पीने के लिए किनारे पर पानी का इंतजाम करते हैं और सूखा नहीं पड़ने देते, सोचिए अगर ये न हों तो जंगल में प्यास, गर्मी और सूखे से क्या हाल होगा?

मांसाहारी पशु शाकाहारियों का शिकार करते हैं और उनकी आबादी को नियंत्रित करने का काम करते हैं। जो घास फूस खाते हैं, वे वनस्पतियों को जरूरत से ज्यादा नहीं बढ़ने देते और इस तरह जंगल में अनुशासन बना रहता है। इसका प्रभाव मनुष्य पर पड़ता है और वह प्राकृतिक संतुलन होने से मौसम का मिजाज बिगड़ने से होने वाले नुकसान से बचा रहता है। यदि हम वन विनाश करते हैं, अंधाधुंध जंगलों को नष्ट करते हैं तो उसका सीधा असर हम पर पड़ता है।


निर्भरता

बहुत से पशु पक्षी ऐसे हैं जो न हों तो मनुष्य का जीना मुश्किल हो जाएगा। चमगादड़ जैसा जीव कुदरती कीटनाशक है। यह एक घंटे में खेतीबाड़ी के लिए हानिकारक एक हजार से अधिक कीड़े मकोड़े खा जाता है। मच्छरों को पनपने नहीं देता और इस तरह कृषि और उसमें इस्तेमाल होने वाले जानवरों और दुधारू पशुओं की बहुत सी बीमारियों से रक्षा करता है। उदाबिलाव जैसा जीव बांधों और तालाबों में जमीन की नमी और हरियाली बनाए रखता है। इससे सूखा पड़ने पर आग नहीं लग पाती। वेटलैंड का निर्माण भी करते हैं और जरूरी कार्बन डाइऑक्साइड का भंडार देते हैं।

मधुमक्खी, तितली और चिड़ियों की प्रजाति के पक्षी अन्न उगाने में किसान की भरपूर सहायता करते हैं। परागण में कितने मददगार हैं, यह किसान जानता है। पेस्ट कंट्रोल का काम करते हैं। गिलहरी को तो कुदरती माली कहा गया है। केंचुआ जमीन को उपजाऊ बनाने के लिए कितना जरूरी है, यह किसान जानता है।

हमारे जितने भी पाले जा सकने योग्य जानवर और दूध देने वाले पशु हैं, उनकी उपयोगिता इतनी है कि अगर वे न हों या उनकी संख्या में भारी कमी हो जाए तो मनुष्य की क्या दशा होगी, इसकी कल्पना की जा सकती है। गाय, भैंस, गधे, घोड़े, बैल, सांड से  लेकर कुत्ते बिल्ली तक किसी न किसी रूप में मनुष्य के सहायक हैं। इसीलिए कहा जाता है कि पशु पक्षी आर्थिक संपन्नता के प्रतीक हैं।

हमारी अर्थव्यवस्था को मजबूत बनाने वाले घटकों में पर्यावरण संतुलन, वन संरक्षण, जैव विविधता और मजबूत इकोसिस्टम आता है। हमारा औद्योगिक विकास इन्हीं पर निर्भर है। इसके साथ ही पर्यटन, मनोरंजन, खेलकूद और जीवन के लिए आवश्यक वस्तुएं जुटाने के लिए वन विकास और वन्य जीव संरक्षण जरूरी है। यह समझना सामान्य व्यक्ति के लिए आवश्यक है।

आज विश्व में इस बात की होड़ है कि गंभीर बीमारियों की चिकित्सा के लिए औषधियों की खोज और निर्माण के लिए भारतीय जड़ी बूटियों और पारंपरिक नुस्खों को प्राप्त किया जाए। इसके लिए अंतरराष्ट्रीय षडयंत्र हो रहे हैं और इस बहुमूल्य संपदा की तस्करी करने वाले बढ़ रहे हैं। यह एक तरह से अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारने जैसा है क्योंकि लालच में आकर हम जो कर रहे हैं वह विनाश का निमंत्रण है।

इस स्थिति में सुधार तब ही संभव है जब सामान्य व्यक्ति यह समझ सके कि मनुष्य और पशु एक दूसरे पर न केवल निर्भर हैं बल्कि पूरक भी हैं। दोनों का अस्तित्व ही खुशहाली का प्रतीक है। यदि जंगल से एक जीव लुप्त हो जाता है तो उसका असर सम्पूर्ण पर्यावरण पर पड़ना स्वाभाविक है। चीता इसका उदाहरण है। इस लुप्त हो गए जीव को फिर से स्थापित करने का प्रयास यही बताता है कि किसी भी भारतीय पशु के लुप्त होने का क्या अर्थ है। इसलिए आवश्यक है कि यह समझा जाए कि इसके क्या कारण हैं?

यदि हम गैर कानूनी शिकार, जानवरों की बस्तियों में इंसान के दखल और थोड़े से पैसों के लाभ को छोड़ने का मन बना लें तो कोई कारण नहीं कि इनकी उपयोगिता समझ में न आए।

औद्योगिक विकास देश की अर्थव्यवस्था के लिए आवश्यक है लेकिन यदि इससे जलवायु परिवर्तन और प्राकृतिक असंतुलन पैदा होता है तो दोबारा सोचना होगा। आधुनिक विज्ञान ने इतनी प्रगति कर ली है कि बिना वन विनाश किए उद्योग स्थापित किए जा सकते हैं। यह प्राकृतिक असंतुलन का ही परिणाम है कि हमें प्रति वर्ष अतिवृष्टि या अत्यधिक सूखे का सामना करना पड़ता है। इससे बचना है तो प्रकृति के साथ टकराव नहीं, सहयोग करने की आदत डालनी होगी।


शुक्रवार, 16 सितंबर 2022

प्रसन्न रहने की आदत या दुःख को स्वीकार करना अपने हाथ में है


इस बात का कोई निश्चित पैमाना नहीं है कि एक व्यक्ति क्यों खुश रहता है और लगभग वैसी ही परिस्थितियों में दूसरा क्यों दुःख का अनुभव करता है ? असल में हमारा दिमाग किसी भी घटना चाहे वह कैसी भी हो, उसके बारे में दो तरह से प्रतिक्रिया करता है। एक तो यह कि जो हुआ उस पर वश नहीं इसलिए उसे सहज भाव से स्वीकार कर लेने में ही भलाई है और दूसरा यह कि आखिर मेरे साथ ही ऐसा क्यों हुआ जो यह दिन देखना पड़ा, इसे खु़द पर हावी होने देना।

सब कुछ वश में नहीं होता

अक्सर जीवन में ऐसा कुछ होता रहता है, ऐसे मोड़ आते हैं और इस तरह के हालात बन जाते हैं जिनसे  व्यक्ति स्वयं को किसी मुसीबत में घिरा हुआ और असहाय महसूस करता है। बाहर निकलने के लिए  कोई उपाय नहीं सूझता, उम्मीद लगाता है कि एक तिनके की तरह किसी का सहारा मिल जाए या अचानक कोई रास्ता निकल आए ।

दूसरा विकल्प यह रहता है कि निराशा के भंवर में डूबने के बजाए अपने को उस वक्त तक के लिए तैयार कर लिया जाए जब तक परिस्थितियां सामान्य न हो जाएं। कहने का अर्थ यह कि हर किसी को अपनी समस्या का हल स्वयं ही निकालने के लिए अपने को तैयार करना होता है और जो करना है उसकी भूमिका से लेकर अंतिम प्रयास तक की रूपरेखा बनाने और उस पर अमल करने की जिम्मेदारी अपने ऊपर लेनी पड़ती है।

उदाहरण के लिए मान लीजिए कि आपके साथ कोई व्यक्तिगत या पारिवारिक त्रासदी हुई है, कुछ ऐसा हुआ है कि वह हर समय मन पर छाया रहता है, उस घटना ने मानसिक रूप से डावांडोल और विचलित कर दिया है, उसका असर शरीर यानी सेहत पर पड़ने लगा है,  अनमनेपन का भाव और अकेले रहने की आदत बनती जा रही हो तो समझिए कि मामला गंभीर है।

किसी दुर्घटना या जो हुआ उसे बदलना आम तौर से संभव नहीं होता, इसलिए इस तथ्य को स्वीकार करना ही पड़ता है कि जिस चीज के होने पर हमारा वश नहीं तो उसे लेकर हमारी दिनचर्या क्यों प्रभावित हो। क्या ऐसा नहीं हो सकता कि वह घटना हम पर हावी न हो और हम पहले की तरह अपना काम करते रहें। व्यवहार में बदलाव न आने दें और सहज भाव से जो हुआ या हो रहा है, स्वीकार करते हुए आगे जो होगा, उसे भी इसी रूप में लेने के लिए अपने को तैयार कर लें। ऐसा करने का सबसे बड़ा लाभ यह होगा कि शरीर और मन एक स्वस्थ वातावरण का निर्माण करने के लिए स्वतंत्र होकर तत्पर हो जायेगा।

सुख या दुःख का हावी होना

दुःख हो या सुख, उसे अपने मन पर अधिकार कर लेने देने का कोई औचित्य नहीं क्योंकि दोनों ही हमेशा अपने साथ रहने वाली चीजें नहीं हैं । बेहतर तो यही है कि दोनों को ही कपड़ों पर पड़ी धूल की तरह छिटक देने का प्रयास ही उन्हें हावी न होने देने के लिए काफी है।

दुःख के बेअसर करने की प्रक्रिया यह है कि आप जो काम करते हैं, नौकरी या किसी व्यवसाय का संचालन करते हैं, उसमें पहले से ज्यादा जुट जाएं ताकि जिस चीज ने आपको विचलित किया हुआ है और जिसकी वजह से सुख चैन छिन गया लगता है, उसका ध्यान ही न रहे। अधिक श्रम चाहे मानसिक हो या शारीरिक, थकाने के लिए काफी है और इससे आप को आराम करने, सोने और जो हुआ, उसे याद न करने अर्थात भुलाने में मदद मिलेगी। इससे जल्दी ही वह क्षण आ सकता है जिसमें वह बात याद ही न रहे जिसने आपके खुश रहने में रुकावट डाली है।

यही प्रक्रिया तब भी अपनाई जा सकती है जब हमें कोई अपार सफलता प्राप्त हुई हो और जिसके परिणामस्वरूप प्रसन्नता स्वाभाविक रूप से मिल गई हो और आप उससे फूले न समा रहे हों। मान कर चलिए कि जिस तरह दुःख की सीमा तय है, उसी तरह सुख की अवधि भी सीमित है। इसलिए उसे भी अगर धूल समझकर छिटकना न चाहें तो कम से कम उसे अपने से लिप्त न होने दें क्योंकि न जाने कब वह आपसे दूर चली जाए और आप उसकी याद से ही बाहर न निकल सकने के कारण अपना वर्तमान स्वीकार न कर सकें और हमेशा उसकी याद से अपने भूतकाल से ही जूझते रहें।

एक बात और है और वह यह कि प्रसन्नता या खुशी और दुःख ऐसी वस्तुएं नहीं हैं जो बस हो जाएं या अचानक मिल जाएं। यह प्रत्येक व्यक्ति के अंतर में पहले से ही विद्यमान हैं। इसका मतलब यह कि उन्हें समझने के लिए अपने साथ दोस्ती करनी पड़ेगी, अपने मन को लेकर स्वार्थी बनना होगा। वास्तविकता यह है कि किसी अच्छी बुरी घटना का प्रभाव गरम तवे पर पड़े पानी के छीटों की तरह अधिक समय तक नहीं रहेगा।

यह कुछ ऐसा है जैसे कि अपनी कहानी आप स्वयं लिख रहे हैं, इससे किसी दूसरे का कोई लेना देना नहीं है।  आपकी भावनाओं पर केवल आपका अपना अधिकार है, इसमें किसी दूसरे की दखलंदाजी नहीं है। मतलब यह कि इस मानसिक कसरत के बाद यदि आपने इस बात के लिए अपने को तैयार कर लिया है कि कोई क्या कहता है, उसका असर अपने ऊपर हावी नहीं होने दिया तो खुश रहने से वंचित नहीं रहा जा सकता। कैसे भी हालात हों, उनके अनुसार अपने मन को तैयार कर लेना ही किसी भी अच्छी बुरी घटना को स्वीकार करते हुए जीवन जीने की कला है।

इससे होगा यह कि किसी होनी या अनहोनी के लिए आप न तो स्वयं को व्यक्तिगत रूप से जिम्मेदार मानेंगे और न ही बिना भली भांति विचार किए किसी अन्य को दोषी मानेंगे। इससे होगा यह कि मन बेकार में तनाव से ग्रस्त नहीं होगा और जो भी परिस्थिति है उस पर सकारात्मक सोच से निर्णय लेने में सक्षम होगा। नकारात्मक विचारों से प्रभावित न होकर किसी भी समस्या का हल निकालने में सक्षम हुआ जा सकता है। इसका एक सबसे बड़ा लाभ यह होगा कि जीतना या हारना महत्वपूर्ण न होकर सही फैसला लेना ही उद्देश्य होगा और तब जो हासिल होगा, वही अपने को खुशी प्रदान करेगा।

तालमेल जरूरी है

वर्तमान समय कुछ ऐसा है कि बड़े शहरों की आपाधापी और दौड़भाग और सब कुछ जल्दी से जल्दी प्राप्त कर लेने की प्रवृत्ति ग्रामीण क्षेत्रों में भी बहुत तेजी से बढ़ रही है। देखा जाए तो यह समाज का एक स्वाभाविक स्वरूप है क्योंकि जब माह, सप्ताह, दिन और घंटों की दूरियां कुछ पलों में सिमट जाएं तो नगरों और गांवों को एक दूसरे के प्रभाव में आकर होने वाले बदलाव से रोकना संभव नहीं है।

जब व्यक्तिगत हो या पारिवारिक, खुश रहना अपनी आदत बन जाए तो फिर सकारात्मक परिणाम हों या नकारात्मक, कोई अंतर नहीं पड़ता। असल में होता यह है कि जब समाज को हर हाल में खुश रहने की आदत पड़ जाती है तो वह अधिक तेजी से आगे बढ़ता है क्योंकि उसकी प्रतियोगिता किसी दूसरे से नहीं बल्कि अपने आप से होती है। उसका कोई भी शत्रु उस पर विजयी नहीं हो पाता क्योंकि उसे प्रसन्न होकर अपना काम करना आता है।

निष्कर्ष यही है कि प्रसन्न रहना है तो स्वयं को केंद्र में रखकर व्यवहार करना सीखना होगा, इसे निजी स्वार्थ न कहकर प्रकृति के साथ संतुलन बनाकर जीना कहना ठीक होगा।  


शुक्रवार, 9 सितंबर 2022

शिक्षा या साक्षरता में कमी होगी तो देश का पिछड़ना तय है

 

विश्व साक्षरता दिवस हर साल आठ सितंबर को मनाया जाता है। हमारे देश में भी इसकी खानापूर्ति की जाती है। इस साल तो अध्यापक दिवस पर यह घोषणा भी सुनी कि देश में साढ़े चैदह हजार स्कूलों का कायाकल्प किए जाने का इंतजाम किया गया है जो अगले पांच सात साल में पूरा होगा।

बेशक हम आजादी का अमृत महोत्सव मना रहे हैं लेकिन शिक्षा के मामले में इतने पीछे हैं कि हमारे देश की गिनती सबसे कम साक्षर देशों में नीचे से कुछ ही ऊपर है। साक्षरता दर लगभग सत्तर प्रतिशत है, मतलब यह कि बाकी आबादी पढ़ना लिखना नहीं जानती जिनमें महिलाएं तो आधी से ज्यादा अनपढ़ हंै। यह शर्म की बात तो है ही, साथ में सरकारी शिक्षा और साक्षर बनाने वाली नीतियों का खोखलापन भी है।

विज्ञान की अनदेखी

अगर उन कारणों पर गौर करें जिनकी वजह से पढ़ाई लिखाई और अक्षर ज्ञान को लेकर कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई देती तो वह यह है कि अब तक शिक्षा देने का जो तरीका या ढांचा रहा है, उसमें बचपन से ही बेमतलब के विषयों को पढ़ना जरूरी बना दिया गया। जिन विषयों से जिंदगी जीने की राह निकलती हो, उनकी अनदेखी की जाती रही । पढ़ने वाले के मन में जब यह बात गहरी होने लगती है कि जो पढ़ाया जा रहा है, उससे व्यापार, रोजगार, नौकरी तो आसानी से मिलनी नहीं, केवल डिग्री मिलेगी तो वह पढ़ कर क्या करे? देहाती इलाकों में माता पिता भी सोचते हैं कि इससे तो अच्छा है कि बालक खेतीबाड़ी या घरेलू कामधंधा कर उनका सहारा बने तो वे भी स्कूल जाने पर जोर नहीं देते।

इसका कारण यह है कि विज्ञान की पढ़ाई को लेकर एक तरह का हौवा बना दिया गया कि यह बहुत खर्चीली है, इसमें पास होना मुश्किल है, हमारी औकात से बाहर है और यह पैसे वालों के लिए है या जिन्हें अपने बच्चों को डॉक्टर, इंजीनियर बनाना है, जबकि ऐसा कतई नहीं है। यदि बचपन से यह शिक्षा दी जाए कि आसपास का वातावरण, पशु पक्षी का साथ, प्रकृति के साथ तालमेल और जीवन यापन के लिए आवश्यक वस्तुएं हमारे चारों ओर बिखरी हुई हैं तो चाहे लड़का हो या लड़की, पढ़ाई के प्रति उसकी रुचि न हो, तो यह हो नहीं सकता।  मां बाप भी ऐसी शिक्षा प्राप्त करने के बारे में उसे स्वयं ही प्रोत्साहित करेंगे क्योंकि ऐसा न करने का उनके पास कोई कारण नहीं होगा। वे अपने बच्चों को राजी खुशी या जबरदस्ती पढ़ने भेजेंगे।

जीवन से जुड़ी पढ़ाई

अगर यह समझाया जाए कि बुलेट ट्रेन के आगे का हिस्सा नुकीला होने की प्रेरणा किंगफिशर पक्षी से मिली, हवाई जहाज और हेलीकॉप्टर बाज की तर्ज पर बने हैं, एक प्रजाति के जंगली चूहे सौ मील दूर तक सूंघ सकते हैं या फिर मेढ़क के फुदकने को समझने से आरामदायक जूते बनाए जा सकते हैं तो फिर कौन इन सब बातों पर ध्यान देना नहीं चाहेगा?  इसी तरह कमल के फूल की पंखुड़ियों पर धूल या गंदगी का असर नहीं होता और उससे पहनने लायक कपड़े बनाए जा सकते हंै। नारियल के पेड़ों के तने और भिंडी जैसी सब्जी से वस्त्र बनाए जा सकते हैं तो विद्यार्थी में इसके बारे में जानने की उत्सुकता अवश्य होगी।

अगर उसे स्कूल में यह पढ़ाया जाए कि खेती में इस्तेमाल होने वाले हल, ट्रैक्टर ट्रॉली, अन्य औजार कैसे आधुनिक बनते हैं या फिर बताया जाए कि कचरे, वेस्ट डिस्पोजल से कैसे ऊर्जा बनती है, बरसाती पानी को बचा कर कैसे रखा जाए, बाढ़ और सूखे से कैसे निपटा जाए और प्राकृतिक संसाधनों का इस्तेमाल विभिन्न आपदाओं से बचाने में किस प्रकार मदद कर सकता है, साधारण बीमारियों को आदिवासी क्षेत्रों में मिलने वाली औषधियों से ठीक किया जा सकता है और इसी तरह की सामान्य जीवन से जुड़े विषयों को सिलेबस में रखा जाएगा तो किसे पढ़ने से ऐतराज होगा !


शिक्षा नीति और विज्ञान

नई शिक्षा नीति में विज्ञान की शिक्षा को लेकर बहुत कुछ कहा गया है। उस पर अमल हो जाए तो निरक्षरता दूर करने और शिक्षा को जन जन तक पहुंचने में मदद मिलेगी। इसमें स्कूलों का समूह बनाकर उन्हें विज्ञान शिक्षा के केंद्र तैयार करने की महत्वाकांक्षी योजना है। इसी तरह चलती फिरती प्रयोगशालाओं को बनाने का लक्ष्य है। ये सभी स्कूलों, शिक्षा संस्थानों से जुड़कर विद्यार्थियों को कुदरत की प्रक्रिया समझने में सहायक होंगी।

एक सीमित संख्या में विद्यालयों को आधुनिक सुविधाओं से लैस करने, सीखने के नवीनतम तरीकों का इस्तेमाल करने से लेकर विद्यार्थियों में प्रदूषण नियंत्रण करने की विधि जानने, ऊर्जा स्रोतों, जल, जंगल जमीन से जुड़ी बातों को समझने, पौष्टिक भोजन, स्वस्थ रहने और खेलकूद को भी पढ़ाई जितना महत्व देने की बात कही गई है। इनमें प्रकृति से तालमेल रखना सिखाया जाएगा क्योंकि कुदरत की प्रक्रिया को समझना ही विज्ञान है।

यदि ये स्कूल स्थापित हो जाते हैं, लालफीताशाही और नेताओं की नेतागिरी का शिकार नहीं बनते तो शिक्षा के क्षेत्र में आमूल चूल परिवर्तन होने की उम्मीद की जा सकती है।

अशिक्षा और निरक्षरता का एक और बड़ा कारण  जनसंख्या का बेरोकटोक बढ़ते जाना है। विज्ञान की शिक्षा इस पर भी लगाम लगा सकती है। शिक्षित होने और साक्षर होने का अंतर यही है कि एक से हमें जीवन जीने के सही तरीके पता चलते हैं और दूसरे से अपना भला बुरा और नफा नुकसान समझने की तमीज आती है।

यूनेस्को ने जब अंतरराष्ट्रीय साक्षरता दिवस मनाए जाने की घोषणा की तो तब मकसद यही था कि दुनिया भर के लोग इतना तो अक्षर ज्ञान हासिल कर ही लें कि अनपढ़ न कहलाएं ताकि कोई उन्हें मूर्ख न बना सके। दुर्भाग्य से भारत में लगभग एक तिहाई आबादी निरक्षर है, पढ़ लिख नहीं सकती और मामूली बातों के लिए दूसरों पर निर्भर रहती है।

यदि देश को शत प्रतिशत शिक्षित और साक्षर बनाना है तो सबसे पहले पढ़ने लिखने की सामग्री, विषयों का चयन करने में सावधानी और शिक्षा देने में आधुनिक तरीकों का इस्तेमाल करना होगा। हमारे देश में शिक्षकों की भारी कमी है और उन्हें तैयार करने में वक्त भी बहुत लगता है। कोरोना महामारी ने इतना सबक तो सिखा ही दिया है कि बिना संपर्क में आए या आमने सामने न होने पर किस प्रकार पढ़ाई की जा सकती है। आज सैटेलाइट द्वार शिक्षा को दूर दराज के क्षेत्रों तक सुगमता से पहुंचाया जा सकता है। वर्चुअल क्लासरूम और मोबाईल टेक्नोलॉजी तथा रोबोट तकनीक का इस्तेमाल एक सामान्य बात है। जरूरत इस बात की है कि इसे सस्ता और सुलभ कर दिया जाए। इससे पूरे देश को एक ही समय में एक शिक्षक द्वारा अपनी बात समझाई जा सकती है।

किसी भी समाज के पतन के सबसे बड़े चार कारण गरीबी, निरक्षरता, जनसंख्या और बेरोजगारी हैं। इनसे मुकाबला करने का एक ही रामबाण उपाय है और वह है सही शिक्षा। क्या यह जरूरी है कि हम देशी, विदेशी शासकों की जीवनियां, प्राचीन इतिहास के विवरण, जो भूतकाल है उस की खोजबीन, यहां तक कि सांस्कृतिक विरासत, परंपराओं के चलन जैसे विषयों को पढ़ने पढ़ाने पर जोर दें और जो जिंदगी को जीने लायक बनाने में मदद करें, उससे विद्यार्थियों को दूर रखें। ये विषय केवल वे पढ़ें जिनकी इनमें रुचि हो, उनके कैरियर की संभावना हो लेकिन हर कोई तारीखों को याद रखने, शासकों के कारनामों, युद्धों के विवरणों और अत्याचारों या सुशासन को लेकर पूछे जाने वाले सवालों के जवाब रटने में अपना समय और धन क्यों नष्ट करे ?

शिक्षा हो या साक्षरता, वही सही है जो जीवन की दशा और दिशा निर्धारित करने में सहायक हो। यह काम स्वतंत्रता प्राप्त करने के बाद से ही शुरू हो जाना चाहिए था। अगर तब हो जाता तो हम आज यह नहीं सोच रहे होते कि पूरी आबादी शिक्षित या साक्षर क्यों नहीं हैं?

यहां एक बात और स्पष्ट करनी होगी कि शिक्षा नीति तब ही सफल हो सकती है जब वह बिना आर्थिक, सामाजिक और धार्मिक भेदभाव के प्रत्येक व्यक्ति के लिए समान रूप से सुलभ हो, उसमें स्वस्थ प्रतियोगिता करने की भावना हो और निराशा का कोई स्थान न हो। यह काम केवल विज्ञान, वैज्ञानिक ढंग से की गई पढ़ाई और आधुनिक सोच बनाने से ही हो सकता है, इसके अतिरिक्त कोई अन्य उपाय नहीं है जो हमारी एक बड़ी आबादी पर लगे अशिक्षित और निरक्षर होने का कलंक दूर कर सके। 


शुक्रवार, 19 अगस्त 2022

साहित्य, विज्ञान तथा फिल्म सामाजिक बदलाव की कड़ियां हैं


यह हमेशा से विवाद का विषय रहा है कि साहित्य ने समाज पर असर डाला है या फिल्मों से सामाजिक परिवर्तन हुआ। इसी कड़ी में यह भी जोड़ा जा सकता है कि वैज्ञानिकों को कुछ नया अविष्कार करने में साहित्यिक लेखन ने प्रेरित किया या किसी गूढ़ रहस्य की कल्पना को साकार करने के लिए की गई खोज को वैज्ञानिक उपलब्धि का नाम दिया गया। 


साहित्य और विज्ञान का संबंध

एक उदाहरण है। मैरी शैली ने फ्रैंकेंस्टेन की रचना की जिसमें मनुष्य के अंग प्रत्यारोपण यानि ऑर्गन ट्रांसप्लांटेशन का जिक्र किया। वैज्ञानिकों द्वारा एक साहित्यकार की रचना से प्रेरित होकर ही यह संभव हुआ, इसे स्वीकार करना होगा। इसी प्रकार साहित्यिक रचनाओं में यह बात बहुत मजेदार और रहस्य की तरह से की गई कि हमारे सभी काम हमारी ही तरह कोई और बिना हाड़ मांस का पुतला कर रहा है। यह मानने में कोई संकोच नहीं करना चाहिए कि इससे आधुनिक रोबोट का अविष्कार हुआ। जासूसी साहित्य में बहुत से ऐसे चरित्र मिलते हैं जो अपनी सूरत बदलते रहते हैं, ऐयारी से इस प्रकार अपना मेकअप करते हैं कि एकदम बदल जाते हैं तो इसे भी विज्ञान ने वास्तविकता बना दिया।

साहित्य में संचार साधनों की कल्पना बहुत पहले कर ली गई थी। तेज गति से चलने वाले आने जाने के संसाधनों के बारे में भी काल्पनिक उड़ान लेखक भर चुके थे।  धरती, समुद्र और आकाश में होने वाले परिवर्तनों को साहित्य में उकेरा जा चुका था। आज इन क्षेत्रों में जो अविष्कार हो रहे हैं, उन पर साहित्य के प्रभाव को नकारा नहीं जा सकता।

साहित्य लेखन चाहे किसी भी विधा में हो, कविता, कहानी, उपन्यास या कुछ भी हो सकता है, उनमें जो श्रेष्ठ और ऐसी रचनाएं हैं जिन पर समय भी अपना असर नहीं दिखा पाया और जिन्हें शाश्वत कहा गया, उनके हमेशा ही प्रासंगिक बने रहने का एकमात्र कारण यह है कि उनमें भविष्य में झांकने का प्रयास था। विज्ञान भी तो यही करता है, वह भी इसी आधार पर चलता है कि आगे क्या होगा या क्या ऐसा भी हो सकता है ?


यह एक सच्चाई है कि सामाजिक व्यवस्था में परिवर्तन की नींव साहित्य से ही पड़ती है। सामान्य व्यक्ति जो सोचता है, लेखक उसे शब्दों में व्यक्त करता है। आपने देखा होगा कि कैसा भी अवसर या मंच हो, वह चाहे राजनीतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक या फिर खेल कूद का ही क्यों न हो, अक्सर उनकी शुरुआत किसी लेखक की लिखी हुई बात से की जाती है। इसका मतलब यही है कि अपनी बात को सिद्ध करने में भी साहित्यिक रचनाओं की शरण में जाना पड़ता है।

साहित्य केवल कल्पना नहीं है बल्कि ऐसा दर्पण है जिसमें झांका जाए तो पाठक को उसमें अपनी छवि दिखाई देने लगती है। यही कारण है कि कोई रचना पढ़ते समय मन में गुदगुदी, चेहरे पर हंसी या आंखों से आंसू निकल पड़ते हैं। लेखन की कसौटी भी यही है कि उससे आप अपने को अलग न कर पा रहे हों और उसका प्रभाव स्थाई रूप से मन में बैठ गया हो।


साहित्य और फिल्म

हमारे देश में साहित्यिक रचनाओं पर फिल्म बनाने का काम बहुत कम हुआ है लेकिन जितना भी हुआ, वह निर्माता के लिए घाटे का सौदा नहीं रहा। एक चादर मैली सी, पिंजर, तीसरी कसम, आंधी, ट्रेन टु पाकिस्तान तथा और भी बहुत से उदाहरण हैं। साहित्यकारों के जीवन पर फिल्म या बायोपिक बनाने का काम तो लगभग न के बराबर ही हुआ है।

इसका कारण यह है कि फिल्म बनाना और उससे कमाई करना मुहावरे की भाषा में कहा जाए तो बच्चों का खेल नहीं है। यह सब जानते हुए भी यदि कोई निर्माता निर्देशक किसी साहित्यिक रचना पर फिल्म बनाने के बारे में आगे आता भी है तो हमारे यहां लेखक चाहता है कि उसकी रचना के साथ न्याय हो, मतलब यह कि जो उसने लिखा वह वैसा ही पर्दे पर नजर आए। यह प्रैक्टिकल नहीं होता क्योंकि फिल्म बनाते समय सिनेमेटिक लिबर्टी लेना अनिवार्य है वरना दर्शक उसे देखने नहीं आयेंगे।

इसका एक ही उपाय है कि फिल्म बनाने की सहमति देने के बाद लेखक को यह मानकर अलग हो जाना चाहिए कि अब यह उसकी नहीं निर्माता की रचना होगी और इसमें उसकी दखलंदाजी नहीं हो सकती। जिस प्रकार उसकी कृति को पाठकों की प्रतिक्रिया मिली, उसी प्रकार फिल्म के दर्शकों की राय और नजरिया उसके निर्देशक के बारे में होगा न कि उस साहित्यकार के बारे में जिसकी पुस्तक पर उसका निर्माण हुआ है।

इसका कारण यह है कि पूरे उपन्यास या कहानी के सभी पात्रों और विवरणों को फिल्म में शामिल करना संभव नहीं है और केवल कुछेक पक्षों और किरदारों को लेकर ही फिल्म बनाई जाती है। इसलिए क्या छोड़ा, क्या शामिल किया, इसके पचड़े में न पड़कर फिल्म को एक नई रचना की तरह उसका आनंद लेने की मनस्थिति उसके लेखक को रखनी होगी। ऐसा होने पर ही हमारे देश में वह दौर आ सकता है जिसमें साहित्य पर बनने वाली फिल्म की कद्र उन फिल्मों से अधिक होने लगेगी जो बिना किसी थीम के, बस मनोरंजन और वक्त बिताने के लिए बनाई जाती हैं।

इसी प्रकार विज्ञान और उसकी उपलब्धियों तथा वैज्ञानिकों पर फिल्म निर्माण काफी चर्चित और सफल रहा है। रा वन, कोई मिल गया, कृष, मिस्टर इंडिया जैसी फिल्मों से लेकर मिशन मंगल और रॉकेट्री तक विज्ञान फिल्में अपना जलवा दिखा चुकी हैं।


विज्ञान प्रसार

यहां भारत सरकार के विज्ञान और प्रौद्योगिकी मंत्रालय के संस्थान विज्ञान प्रसार का जिक्र करना आवश्यक है जो प्रति वर्ष देश के विभिन्न भागों में राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय विज्ञान फिल्म महोत्सव आयोजित करता रहा है। इसी के साथ इंडिया साइंस चैनल एक ऐसी उपलब्धि है जो देश में ओटीटी प्लेटफॉर्म को एक नई दिशा देने में सफल रही है। इस फेस्टीवल में विज्ञान और तकनीक से संबंधित वे सभी फिल्म प्रदर्शित और पुरस्कृत की जाती हैं जिनका संबंध सामान्य नागरिक पर पड़ने वाले व्यापक प्रभाव से है। वैज्ञानिक उपलब्धियों को हासिल करने में जो समय, धन, परिश्रम और ऊर्जा लगी, अक्सर उसका जिक्र नहीं होता, इसलिए इस तरह की फिल्मों का प्रदर्शन जरूरी है जिनमें किसी ख़ोज या अनुसंधान का प्रोसेस विस्तार से बताया गया हो।

विज्ञान महोत्सव इस बात को दर्शकों तक ले जाने का प्रयास है जिससे साधारण व्यक्ति समझ सके कि उसके व्यक्तिगत और सामाजिक जीवन में जो बदलाव आ रहे हैं, उनका आधार विज्ञान और टेक्नोलॉजी है। ये सभी फिल्में इंडिया साइंस चैनल पर देखी जा सकती हैं। अंधविश्वास, दकियानूसी विचारों और सड़ी गली परंपराओं से मुक्ति पानी है तो उसके लिए अपनी सोच को बदलना ही होगा। इस चैनल पर दिखाई जाने वाली फिल्में दर्शक के सामने एक नई दुनिया का निर्माण करते हुए दिखाई देती हैं।

उम्मीद की जानी चाहिए कि साहित्य और विज्ञान का स्थान फिल्म निर्माण में महत्वपूर्ण समझा जायेगा। इसका कारण यह है कि अब पुस्तकों के पाठक हों या फिल्मों के दर्शक, उनकी रुचि तेजी से बदल रही है। उन्हें मनोरंजन के साथ कुछ ऐसा चाहिए जिसे वह पुस्तक पढ़ने या फिल्म देखने के बाद अपने मन के किसी कोने में संजो कर रख सकें।


शुक्रवार, 12 अगस्त 2022

समुद्र मंथन से लेकर आजादी के अमृत महोत्सव तक

 

हमारी पौराणिक कथाओं में समुद्र या क्षीरसागर मंथन की महिमा सबसे सबसे अधिक है। देवताओं और असुरों के बीच निरंतर संघर्ष होते रहने के कारण यह उपाय निकाला गया कि समुद्र को मथा जाए और उससे जो कुछ निकले, आपस में बांटकर बिना एक दूसरे के साथ लड़ाई झगड़ा किए शांति से रहा जाए। देखा जाए तो यह मंथन तब की ही नहीं आज की भी सच्चाई है और आपसी द्वेष समाप्त करने का एक स्वयंसिद्ध उपाय है।


टीमवर्क की महिमा

समुद्र मंथन के लिए दोनों पक्षों के बीच बनी सहमति का संदर्भ लेकर यह कहा जाए कि अंग्रेजी दासता से मुक्ति पाने के लिए भारत के सभी धर्मों और वर्गों के लोग स्वतंत्रता रूपी अमृत प्राप्त करने के लिए एकजुट हुए और आजादी हासिल की।  जिस प्रकार तब देवताओं और असुरों ने अपना बलिदान दिया था, उसी प्रकार सभी धर्मों विशेषकर हिंदू और मुसलमान दोनों ने अपनी आहुतियां देकर सिद्ध कर दिया कि वे अपने लक्ष्य की प्राप्ति के प्रति समर्पित हैं। यहां तक कि इसके लिए देश का दो टुकड़ों में बांट दिया जाना भी स्वीकार करना पड़ा।

आजादी मिली, साथ में विभाजन की त्रासदी भी और समुद्र मंथन की तरह स्वतंत्रता संग्राम से निकला सांप्रदायिक विष दंगों के रूप में अपना असर दिखाने लगा। इसका पान करने के लिए शिव की भांति आचरण करने के प्रयत्न भी हुए लेकिन सफलता नहीं मिली।

समुद्र मंथन से महालक्ष्मी अर्थात धन, वैभव, सौभाग्य और संपन्नता प्राप्त हुई, उसी प्रकार आजादी के बाद सभी प्राकृतिक संसाधन हमारे लिए उपलब्ध थे। इन पर कब्जा करने की होड़ लगी और जो ताकतवर थे, इसमें सफल हुए और इसी के साथ हलाहल विष अपने दूसरे रूपों भ्रष्टाचार, शोषण, अनैतिकता, बेईमानी और रिश्वतखोरी के पांच फन लेकर प्रकट हुआ। इसका परिणाम गरीबी, बेरोजगारी, आर्थिक असमानता और वर्ग संघर्ष के रूप में सामने आया।

समुद्र मंथन से जो मिला, उसमें कामधेनु, ऐरावत, सभी मनोकामनाएं पूरी करने वाला कल्पवृक्ष, परिजात वृक्ष अर्थात हमारी वन्य संपदा और साथ में धनवंतरी वैद्य जो जीवन को बीमारियों से बचा सकें तथा अन्य बहुत सी वस्तुएं मिलीं। यहां तक कि भगवान विष्णु ने मोहिनी रूप धारण कर अमृत को देवताओं यानी मानवीय मूल्यों पर चलने वालों के लिए सुगमता से प्राप्त किए जाने का प्रबंध भी कर दिया। दैत्य राहु द्वारा भेष बदलकर अमृत प्राप्त करने की कोशिश को भी उसके दो टुकड़े कर आंशिक रूप से विफल कर दिया। सम्पूर्ण नाश संभव न होने के कारण जब तब मनुष्य में आसुरी शक्तियों के रूप में धार्मिक, सांप्रदायिक और अन्य विनाशकारी रूपों में यह प्रकट होता ही रहता है।

इसके नाश के लिए संविधान और विधि विधान के अनुसार कार्यवाही होती है लेकिन फिर भी पूरी तरह समाप्त नहीं होता क्योंकि कुछ लोग राहु की भांति अमृत पान कर चुके हैं। इसलिए लगता है कि देश को इन बुराईयों को साथ लेकर ही चलना होगा और इन पर नियंत्रण रख कर आगे बढ़ना होगा।


एक विवेचना

वर्तमान समय में समुद्र मंथन को समझना जरूरी है। समुद्र क्या है, और कुछ नहीं, मानवीय मूल्यों का महासागर है जिसमें लहरें और तरंगें उठती गिरती रहती हैं। यह हमारी पीड़ा, प्रसन्नता, भावुकता, स्नेह और सौहार्द का प्रतीक हैं। इसी प्रकार मंदारगिरी ऐसा पर्वत है जो जीवन को स्थिरता प्रदान करता है और समुद्र में उसके हिलने डुलने से होने वाली हलचल को रोकने के लिए कछुए को आधार बनाना मनुष्य की सूक्ष्म प्रवृत्तियों को मजबूत बनाने की भांति है। वासुकी नाग रस्सी अर्थात मथानी के रूप में यही तो प्रकट करते हैं कि मनुष्य का अपनी इच्छाओं पर काबू पाना बहुत कठिन है और केवल साधना अर्थात जन कल्याण के काम करने की इच्छा रखने से ही सफलता प्राप्त की जा सकती है। सर्पराज का मुंह पकड़ना है या उसकी दुम, यह निर्णय करने का काम हमारे अंदर विद्यमान विवेक और बुद्धि का है। गलती होने से विनाश और सही कदम उठाने से निर्माण होता है, यही इसका मतलब है।

यह देव और दानव क्या हैं, हमारे अंदर व्याप्त सत्य और असत्य की प्रवृत्तियां ही तो है जो प्रत्येक मनुष्य में विद्यमान रहती हैं। यह हम और हमारे परिवेश, संस्कार और वातावरण पर निर्भर है कि हम किन्हें कम या अधिक के रूप में अपनाते हैं। सफलता प्राप्त करने के लिए सकारात्मक ऊर्जा और नकारात्मक सोच का संतुलन होना आवश्यक है। कोई भी व्यक्ति केवल अच्छा या बुरा नहीं हो सकता, वह दोनों का मिश्रण है, यह स्वयं पर है कि हम किसे अहमियत देते हैं क्योंकि सुर और असुर एक ही सिक्के के दो पहलू हैं।

जीवन को एक झटके में समाप्त कर सकने वाला हलाहल विष और अमरता प्रदान करने वाला अमृत कलश, प्रत्येक क्षण होने वाले क्रियाकलाप, मनुष्य की दिनचर्या और सही या गलत निर्णय का परिणाम ही तो हैं। इसे अपने कर्मों का लेखा जोखा या जैसा करोगे, वैसा भरोगे कहा जा सकता है।

कथा है कि भगवान विष्णु ने देवताओं से कहा था कि वे समुद्र से निकलने वाले विभिन्न रत्नों को हासिल करने के स्थान पर अमृत कलश प्राप्त करने के लिए एकाग्रचित्त होकर प्रयत्न करें। इसका अर्थ यही है कि जीवन में आए विभिन्न प्रलोभनों और बेईमानी, रिश्वतखोरी, भ्रष्टाचार के अवसरों पर ध्यान न देकर अंतरात्मा की आवाज सुनकर निर्णय करना ही श्रेष्ठ है।


निष्कर्ष यही है

आजादी का अमृत महोत्सव मनाने का अर्थ है कि धर्म और संप्रदाय के आधार पर मनमुटाव, नफरत और हिंसा के स्थान पर मानवीय सरोकार और संवेदनाओं को अपनाया जाए वरना तो जो बिखराव की ताकतें हैं, वे हमारा सुखचैन छीनने को तैयार ही हैं। समुद्र मंथन की प्रक्रिया का इस्तेमाल आज शोध, प्रबंधन, प्रशिक्षण और अलग अलग मत या विचार रखने वाली टीमों द्वारा अपने लक्ष्य अर्थात अमृत प्राप्त करने की दिशा में किए जाने वाले प्रयत्न ही हैं।

आज हम कृषि उत्पादन में अभाव की सीमा पार कर आत्मनिर्भर हो गए हैं, विज्ञान और तकनीक में विश्व भर में नाम दर्ज कर चुके हैं, व्यापार और उद्योग में बहुत आगे हैं, अपनी जरूरतें स्वयं पूरा करने में सक्षम हैं, आधुनिक संचार साधनों का इस्तेमाल करने में अग्रणी हैं तो फिर सामाजिक और आर्थिक भेदभाव का क्या कारण है ? इस पर कोई सार्थक बहस इस अमृत महोत्सव में शुरू हो तो यह एक बड़ी उपलब्धि होगी।

अमृत महोत्सव में हमारे स्वतंत्रता संग्राम के भुला दिए गए नायक और नायिकाओं का स्मरण, आजादी के बाद अब तक विभिन्न क्षेत्रों में हुए परिवर्तन, प्रगति, विकास और संसाधनों के इस्तेमाल के बारे में जानना आवश्यक है। इसके साथ ही इस बात पर मंथन जरूरी है कि आज तक हर बच्चे को शिक्षा और हर हाथ को रोजगार देना क्यों संभव नहीं हो सका ? कुछ लोगों के पास अकूत धन कैसे पहुंच गया और आगे संपत्ति का सही बंटवारा कैसे हो ताकि हरेक को उसका हक मिल सके? यह कुछ ऐसे प्रश्न हैं जिनका उत्तर प्रत्येक भारतवासी को मिलना चाहिए।


शुक्रवार, 5 अगस्त 2022

अभियान शुरू तब हों जब उनके पूरे होने का प्रबंध हो

 

कह सकते हैं कि हमारी सरकार घोषणाएं करने में महारथी और संकल्प लेने और तरह तरह के अभियान शुरू करने के मामले में सब से आगे है। अब यह और बात है कि इनके पूरे होने का जिम्मा कोई नहीं लेता, इसलिए ये सभी वक्त की धूल पड़ने से कुछ समय बाद दिखाई भी नहीं देते और न केवल भुला दिए जाते हैं बल्कि अगर कोई याद दिलाए तो एक नया अभियान आगे कर दिया जाता है।

हम अपनी आजादी का अमृत महोत्सव मना रहे हैं जो गर्व करने और राष्ट्र प्रेम की ज्वाला हृदय में धधकते रहने की भांति है। प्रत्येक देशवासी अपने घर में अपनी राष्ट्रीय पहचान स्वरूप राष्ट्र ध्वज तिरंगा फहराए, यह इस स्वतंत्रता दिवस का संकल्प है। याद आता है कि कभी केवल सरकारी भवनों और राष्ट्रीय समारोहों में अपना झंडा फहराने की परंपरा या इजाजत थी, भला हो कि अदालती कार्यवाही के बाद अब हर भारतवासी कभी भी कहीं भी तिरंगा फहरा सकता है। हालांकि इसके बनाने से लेकर इस्तेमाल, रखरखाव और सुरक्षित रखने के लिए नियम हैं लेकिन अधिकतर लोग जानकारी के अभाव में इसके उपयोग के बाद इसकी तरफ से लापरवाह हो जाते हैं। उम्मीद है कि इस बारे में भी हर घर तिरंगा अभियान में सरल भाषा में जो नियम हैं उनका बड़े पैमाने पर प्रचार प्रसार किया जाएगा।


अभियानों की बाढ़

चार फरवरी 1916 की बात है जब महात्मा गांधी वाराणसी के विश्वनाथ मंदिर और उसके आसपास फैली गंदगी, कीचड़, पान की पीक देखकर बहुत विचलित हुए और वहां रहने वालों की जबरदस्त भर्त्सना की थी। विडंबना यह है कि लगभग एक सदी तक हम कमोबेश पूरे देश में इसी तरह रहते रहे , यद्यपि गाहे बगाहे सफाई व्यवस्था में सुधार के लिए कोशिशें चलती रहीं लेकिन देशव्यापी अभियान के रूप में भारत के गांवों, कस्बों और शहरों को स्वच्छता का पाठ पढ़ाने की शुरुआत 2014 में बापू के जन्मदिन से हुई।

इसमें कोई संदेह नहीं कि यह खुले में शौच करने के खिलाफ और हर घर में टॉयलेट के इस्तेमाल, रास्तों पर जन सुविधाओं के निर्माण और नागरिकों के मन में सफाई से रहने और इस बारे में अपनी सोच बदलने के बारे में एक ऐसा अभियान था जिसका पूरा होना देश के प्रत्येक नागरिक के भले के लिए आवश्यक था।

कह सकते हैं कि इस दिशा में काफी हद तक सफलता मिली है लेकिन पिछले कुछ समय से इस तरह की खबरें मिल रही हैं कि लोग अपने पुराने ढर्रे पर लौट रहे हैं। इसकी वजह यह नहीं कि सफाई से रहने के प्रति आकर्षण कम हो गया है बल्कि यह है कि सीवर लाईन बिछाने, सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट न लगने और देहात हो या शहर, गंदगी भरे नालों से मुक्ति न मिलने तथा सबसे बड़ी बात यह कि वैज्ञानिक ढंग और देश में ही विकसित टेक्नोलॉजी के इस्तेमाल में कोताही के कारण लोगों में निराशा बढ़ रही है।

हमारा मतलब व्यर्थ की आलोचना करना नहीं बल्कि यह है कि अटल जी की सरकार में जो निर्मल भारत अभियान शुरू हुआ था, उसकी खामियों और असफल रहने के कारणों को नजरंदाज न करते हुए स्वच्छ भारत अभियान चलाया जाता तो उसके नतीजे कुछ और ही होते। सीवेज डिस्पोजल की सही व्यवस्था न तब थी और न अब है। टॉयलेट में पानी की जरूरत के बारे में पहले भी ध्यान नहीं दिया गया और न अब, केवल शौचालय बनाना ही काफी नहीं, उसके लिए घर के बाहर गंदगी जमा न होने देने के लिए नालियों का इंतजाम और उनकी निरंतर सफाई होने और गंदगी का ट्रीटमेंट प्लांट तक पहुंचने की व्यवस्था भी आवश्यक है।

कुछ साल पहले बड़े जोरशोर से स्किल डेवलपमेंट प्रोग्राम शुरू किया गया था, उसकी नियति क्या हुई, किसी से छिपा नहीं और यह सरकार की विफलता का एक बदनुमा प्रमाण बन गया। अब तो इसकी कोई बात ही नहीं करता जबकि बेरोजगारी दूर करने में यह गेमचेंजर बन सकता था।

इसी तरह स्वस्थ भारत अभियान चलाया गया जो बिना इस बारे में कोई प्रबंध किए शुरू हो गया जिसमें हमारे देश में ग्रामीण और दूरदराज के क्षेत्रों में स्वास्थ्य सेवाओं की खराब हालत को पहले सुधारना और व्यवस्थित करना आवश्यक था। अभी भी यहां डॉक्टर नहीं जाते, गर्भावस्था और प्रसव के बाद देखभाल नहीं होती, पौष्टिक खुराक का मिलना तो दूर, तुरंत मजदूरी करने जाने की मजबूरी है, बेसिक इन्फ्रास्ट्रक्चर ही इन इलाकों में नहीं है तो ग्रामीण भारत कैसे स्वस्थ रह सकता है।

इसी कड़ी में जन आरोग्य और जन स्वास्थ्य अभियान चलाए गए जिनका कोई अतापता नहीं है। केवल मुफ्त इलाज की सुविधा से सेहतमंद नहीं रहा जा सकता, उसके लिए बड़े पैमाने पर अस्पताल, डिस्पेंसरी, डॉक्टर, नर्स और अन्य स्टाफ चाहिए जिसकी कितनी कमी है, यह बताने की न तो जरूरत है और न ही कोई आंकड़े देने की क्योंकि सरकारी खानापूर्ति के लिए जाली और भ्रामक दस्तावेज तैयार करने में सभी सरकारों को महारत हासिल है।

देश में शिक्षा को लेकर अक्सर चिंता प्रकट की जाती है लेकिन इसके लिए बजट में इजाफा करने के बजाय हर साल कटौती कर दी जाती है। स्कूलों की दशा सुधारने का काम शहरों में होता है, देहात में उनके बनने, खुलने और विद्यार्थियों के पढ़ने जाने का निर्णय सरपंच, मास्टर और दबंग नेता करते हैं। इसका प्रमाण यह है कि विषय कोई भी हो, विद्यार्थी के लिए उसकी जानकारी होना जरूरी न होकर केवल पास होकर अगली कक्षा में पढ़ने जाना है। अध्यापकों और पढ़ने वालों के ज्ञान के नमूने अक्सर सुर्खियों में रहते हैं।

अक्सर आपसी बातचीत और नेताओं के भाषणों में पर्यावरण संरक्षण मतलब प्राकृतिक साधनों जैसे वायु, जल, जंगल, जमीन, नदी, पर्वत, पशु, जीव जंतुओं और जीवन के लिए आवश्यक सामग्री को बचाए रखने के महत्व का जिक्र सुनने में आता रहता है। इसमें गंभीरता इसलिए नहीं होती क्योंकि यदि इन सभी चीजों के अनावश्यक इस्तेमाल पर रोक लगा दी गई तो इससे सरकार, नेता और अधिकारियों के व्यक्तिगत स्वार्थ पूरे होने के रास्ते में रूकावट आ जायेगी।

प्रति वर्ष जो यह देश भर में नदियों में उफान, बाढ़ का तांडव और जन तथा धन की हानि होती है या फिर सूखे के कारण भयंकर बर्बादी होती है, रेगिस्तान का फैलाव होता है, तो क्या इसे रोकने के लिए सरकार के पास संसाधनों का अभाव है, नहीं ऐसा कतई नहीं है, बल्कि सच यह है कि यह सब जिन्हें हम अक्सर प्राकृतिक आपदा या कुदरत का कहर कह कर बचने की कोशिश करते हैं, यह एक साजिश की तरह है जिसमें अधिकारी, स्थानीय नेता से लेकर राज्य और केंद्र सरकार के मंत्री, सभी शामिल हैं।

अगर यह सब हर साल न हो तो फिर बाढ़, सूखा, अतिवृष्टि और संपत्ति के नष्ट होने के ऐवज में राहत के नाम पर धन की हेराफेरी करने पर अंकुश लग सकता है जो किसी को मंजूर नहीं है।

यह सब समझना कि ज्यादातर अभियान जनता के हित के लिए नहीं, कुछ मुठ्ठी भर लोगों की स्वार्थपूर्ति के लिए चलाए जाते हैं, कोई टेढ़ी खीर नहीं है बल्कि आसानी से समझ में आ जाने वाली साधारण सी बात है। इसलिए क्या यह जरूरी नहीं लगता कि जब भी कोई अभियान शुरू करने की घोषणा हो, जनता की तरफ से तर्क के आधार पर उसकी समीक्षा के बाद उसका समर्थन या विरोध करने की आदत डालना देशवासियों के लिए आवश्यक है?


शुक्रवार, 29 जुलाई 2022

वैज्ञानिक सोच नास्तिक होना या धर्म को न मानना नहीं है

 

अक्सर यह बात सुनने को मिलती है कि हमारी सोचने समझने की योग्यता का आधार विज्ञान के अनुसार अर्थात वैज्ञानिक होना चाहिए। परंतु यह कोई नहीं जानता कि यह आधार क्या है? क्या यह कोई ऐसी वस्तु हैं जो कहीं बाजार में मिलती है, मोलभाव कर उसे हासिल किया जा सकता है या फिर इसका संबंध परंपराओं, धर्म के अनुसार की गई व्याख्याओं और पूर्वजों द्वारा निर्धारित कर दिए गए जीवन के मानदंडों से है ?


विज्ञान के सरोकार

विज्ञान का अर्थ यह लगाया जा सकता है कि ऐसा ज्ञान जो विशेष हो, उसे प्राप्त करने के लिए तथ्यों और तर्कों की कसौटियों से गुजरना पड़ा हो, वह इतना लचीला हो कि उसमें चर्चा, वादविवाद, शोध के जरिए परिवर्तन और संशोधन किया जा सके।

एक छोटा सा उदाहरण है। तेज़ हवा चलने से घर के खिड़की दरवाजे कई बार बजने, आवाज करने लगते हैं। कुछ लोग कह सकते हैं कि यह कोई भूत है जो खड़कड़ कर रहा है लेकिन दूसरा सोचता है कि कहीं इसकी चैखट तो ढीली नहीं पड़ गई और वह जाकर उसे कस देता है। आवाज़ आनी बंद हो जाती है।

यही वह ज्ञान है जो सामान्य से अलग है इसलिए यह विज्ञान कहा जाता है। हमारे संविधान में भी इस बात की व्यवस्था है जिसके अनुसार हमारे फंडामेंटल कर्तव्यों का पालन वैज्ञानिक ढंग से सोच विचार कर किया जाना चाहिए। इससे ही लोकतंत्र सुरक्षित और मानवीय गुणों का विकास हो सकता है।

जब हमें किसी बात पर उसके सही होने के बारे में संदेह होता है, उसे जांचने परखने के लिए उत्सुकता होती है तो यहीं से वैज्ञानिक सोच की शुरुआत होती है। इसके विपरीत जब किसी बात को केवल इसलिए माना जाए कि उसे पूर्वजों ने कहा है, उनकी परंपरा का निर्वाह कर्तव्य बन जाए, उसमें कतई बदलाव स्वीकार न हो तब यह कट्टरपन बन जाता है और यही लड़ाई झगडे, मनमुटाव और शत्रुता का कारण बन जाता है।

जो लोग यह कहते हैं कि विज्ञान में ईश्वर या परम सत्ता या किसी भी नाम से कहें, उसका कोई महत्व नहीं है तो यह अपने आप को भुलावे में रखने और वास्तविकता को स्वीकार न करने के बराबर है। हमारी सभी वैज्ञानिक प्रयोगशालायें और उनमें शोध और एक्सपेरिमेंट कर रहे सभी लोग चाहे सामने होकर यह न मानें कि परमेश्वर जैसी कोई चीज़ है लेकिन वे भी अपने अंतःकरण में मानते हैं कि कुछ तो है जो उनकी कल्पना से परे है, समय समय पर किसी अदृश्य शक्ति का नियंत्रण महसूस होता है।

कुछ लोग धर्म और धार्मिक विधि विधान को मानना अवैज्ञानिक कहते हैं और उनमें आस्था रखना और हवन, पूजन और कर्मकांड जैसी चीजों का उपहास करते हैं। इस बारे में केवल इतना कहा जा सकता है कि जब यह सब करने के लिए चढ़ावा, दिखावा धन की मांग और न देने पर ईश्वर का प्रकोप, दंड मिलने और अहित होने जैसी बातों के बल पर लूटखसोट, जबरदस्ती और शोषण किया जाए तो यह अपराध की श्रेणी में आता है। इसका विज्ञान से कोई संबंध नहीं है वरना तो इन सब चीजों के करने से वातावरण शुद्ध होता है, मानसिक और भावनात्मक तनाव कम होता है, मन केंद्रित होता है और शरीर में नवीन ऊर्जा का संचार होता है।

हमारे जीव, प्राणी और वन विज्ञान ने अनेक ऐसी संभावनाओं को हकीकत में बदला है जिन पर आश्चर्य हो सकता है। औषधियों के तैयार करने में जीवों से प्राप्त किए गए अनेक प्रकार के ठोस और तरल पदार्थ, जड़ी बूटियों के सत्व और प्राकृतिक तत्वों के मिश्रण का इस्तेमाल होता है और बाकायदा बने एक सिस्टम से गुजरने के बाद उनके प्रयोग की इज़ाजत दी जाती है। इसके स्थान पर यदि कोई व्यक्ति झाड़फूंक, गंडे ताबीज़, भभूत जैसी चीजों से ईलाज करने की बात करता है तो यह अपराध है क्योंकि विज्ञान इन्हें मान्यता नहीं देता। कोरोना जैसी महामारी से लेकर किसी भी दूसरे रोग की चिकित्सा दवाई, वैक्सीन, इंजेक्शन से होती है न कि किसी पाखंडी और झोलाछाप लोगों के इलाज़ से, इसलिए यह लोग भी अपराधी हैं।

विज्ञान का आधार हमेशा से तर्क यानी जो है उस पर शक या संदेह करना है। इसका मतलब यह है कि जो चाहे सदियों से चला आ रहा है लेकिन जिसकी सत्यता का कोई प्रमाण नहीं है और जो केवल परंपरा निबाहने के लिए होता रहा है, उसे न मानकर नई शुरुआत करना वैज्ञानिक है ।

यहां इस बात का ज़िक्र करना आवश्यक है कि जो लोग गणेश जी को प्लास्टिक सर्जरी का उदाहरण मानते हैं और इसी तरह की निराधार बातों का समर्थन करते हुए आधुनिक विज्ञान और टेक्नोलॉजी को चुनौती देते हैं, वे समाज का अहित कर रहे हैं और देश को आगे बढ़ाने के स्थान पर पीछे ले जाने का काम कर रहे हैं।


विज्ञान और धर्म

कोई भी धर्म किसी कुरीति या मानवता विरोधी काम का न तो समर्थन करता है और न ही मान्यता देता है, इसलिए धर्म अवैज्ञानिक नहीं है। इसी प्रकार चाहे कोई भी धर्म अपनी निष्ठा किसी भी अवतार, गुरु, पैगंबर, यीशु, तीर्थंकर, बुद्ध आदि महापुरुषों में रखे तो यह विज्ञानसम्मत है। इसलिए विज्ञान और धर्म का गठजोड़ तर्कसंगत है।

भारत तो अपनी प्राचीन संस्कृति, वैज्ञानिक उपलब्धियों और उनकी वर्तमान समय में उपयोगिता के बारे में विश्व भर में जाना जाता है जिसके कारण हम अनेक क्षेत्रों में अग्रणी भूमिका निभा रहे हैं। तब फ़िर उन सब बुराइयों को ढोते हुए चलना कतई समझदारी नहीं है जो हमें दूसरों की नज़रों में हंसी का पात्र बनाती हैं।

वैज्ञानिक सोच और उसके आधार पर जब हमारे देश में सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक निर्णय लेने की शुरुआत एक अनिवार्य प्रक्रिया के रूप में हो जाएगी, तब ही हम गरीबी, बेरोज़गारी और विदेशों में प्रतिभा के पलायन को समाप्त करने की दिशा में ठोस कदम उठा पाएंगे।