दूसरों की लड़ाई लड़ने के बहाने दूसरे देशों को कमज़ोर करना है
दुनिया भर में अमेरिका और रूस का डंका इस बात के लिए बजता रहा है कि वे धनी हैं, ताकतवर हैं और किसी को भी आसमान पर बिठाने और कोई न माने तो धरती पर धूल भी चटाने में माहिर हैं। ये दोनों दूसरे देशों पर अपना सिक्का चलाने के चक्कर में फौज का इस्तेमाल, आर्थिक नाकेबंदी और अंतर्राष्ट्रीय बिरादरी में बदनामी तथा अपनी जी हुजूरी न करने वाले देश को सब से अलग थलग भी कर सकते हैं। यही नहीं स्वयं अपने को सुपर पावर भी कहते और मानते हैं।
अब इस कड़ी में चीन का भी जिक्र होने लगा है और वह इन दोनों महा शक्तियों के साथ सैद्धांतिक और वैचारिक मतभेद होते हुए भी इन्हीं के नक्शे कदम पर चल रहा है। उसे भी संसार में केवल अपनी ही तूती बोलती देखने का शौक है।
चक्की के दो पाट
अमेरिका और रूस ने अपने ब्लॉक बना लिए और इनमें समर्थक देशों को शामिल कर लिया। जिसने इनके साथ असहयोग या इनकी नीतियों का विरोध किया उसे लालच देकर, बहला फुसलाकर और कोई देश तब भी न माने तो उसे बर्बाद और यहां तक कि नेस्तनाबूद करने तक में कोई कसर न छोड़ने की नीति का पालन करने में तनिक भी न हिचकिचाए।
अमेरिकी और रूसी ब्लॉक के देशों ने पूरी दुनिया पर राज करने के लिए अनेक ऐसे संगठन बना लिए जिनकी बात अगर कोई देश न माने तो उसका बहिष्कार करने की नीति का पालन किया जाने लगा। इसमें हथियारों की ख़रीद फरोख्त से लेकर आर्थिक पाबंदियां लगाने तक की धमकी देने और फिर भी कोई न माने तो उसे दबाने के लिए सख्ती होने लगी।
ज्यादातर राष्ट्र गरीबी, भुखमरी, बेरोजगारी और प्राकृतिक संसाधनों की कमी से इनकी बात मानने को तैयार हो गए और उन्हें इन शक्तियों में से किसी एक के साथ जाने के लिए मज़बूर होना पड़ा। मतलब यह कि ये देश चक्की के दो पाटों के बीच घुन की तरह पिसने लगे।
गुट निरपेक्षता का ढोंग
भारत ने हालांकि किसी भी गुट में शामिल न होकर अपने को अलग रखने का दावा किया लेकिन यह कितना खोखला था, इसका पता इस बात से ही चल जाता है कि संकट के समय रूस का अपने साथ खड़ा दिखाई देना हमारे लिए जरूरी हो गया । इसकी देखादेखी अमेरिका भी हमें अपनी तरफ करने के लिए डोरे डालने लगा।
अमेरिकी ब्लॉक हो या रूसी दोनों की नीयत एक ही थी कि अविकसित देशों के मानव संसाधनों से लेकर प्राकृतिक स्रोतों तक पर अपना अधिकार कर लें। विकासशील देशों को आर्थिक सहायता देकर इतना निर्भर कर दें कि एक सीमा से आगे उनका विकास ही न हो सके। इन दोनों को डर था कि कहीं उनके मुकाबले कोई तीसरी ताकत न खड़ी हो जाए। यह तीसरी ताकत भारत जैसे देश बनते दिखाई दिए तो दोनों गुटों ने उन पर दवाब डालने और इन प्रगतिशील देशों को कभी एक न होने देने के लिए सभी तरह के उपाय करने शुरू कर दिए।
यहां एक बात का जिक्र करना भी जरूरी है कि अमेरिका और रूस मुख्य रूप से अपने हथियारों और सैन्य शक्ति के बल पर दुनिया को अपनी मुठ्ठी में करना चाहते थे, वहां चीन ने नागरिकों की जरूरत की चीजें मुहैया कराकर अपना वर्चस्व स्थापित करने की नीति अपनाई। आज मेड इन चाइना का जलवा दुनिया भर में सिर चढ़कर बोल रहा है।
अमेरिका और रूस द्वारा अपने सैनिकों को दूसरे देशों में लड़ने के लिए भेजने के विरोध में उनके अपने नागरिक अब आवाज उठाने लगे हैं कि उनके शासक अपनी वाहवाही के लिए अपने लोगों को इन देशों में मरने के लिए भेजकर कौन सा देशहित का काम कर रहे है और यह भी कि क्या फौजी ताकत के बल पर उन देशों का भला हो पाया जहां उनके परिवार के लोग अपनी जान की बाजी लगा रहे हैं ?
उदाहरण के लिए क्या बीसियों वर्ष तक आर्थिक और सैन्य सहायता देने के बावजूद उन लोगों की मानसिकता को बदल पाए जिनके लिए आतंकवाद, हिंसा और लूटपाट ही जीवन का ध्येय रहा है ? कह सकते हैं कि इन्हें पाल पोसकर अपने निजी स्वार्थों की पूर्ति करना ही इन महा शक्तियों का उद्देश्य था। इसके लिए दुनिया भर में इन्हें समाप्त करने का ढोंग रचकर यह ताकतें दिखाना चाहती थीं कि वे कितनी संवेदनशील हैं और उनकी सहानुभूति आतंक का पर्याय बन चुके देशों के असहाय और मासूम नागरिकों के साथ है।
यदि अमेरिका पर ओसामा बिन लादेन का हमला न होता तो वह कभी अफगानिस्तान, पाकिस्तान जैसे आतंक का पर्याय बन चुके देशों की नकेल कसने के बारे में नहीं सोचता। यह बात और है कि यहां भी हाथी के दांत खाने के और दिखाने के और की कहावत लागू होती है। अमेरिका और रूस दोनों ही दिखावा अधिक और वास्तविक सहायता न के बराबर करते हैं।
भारत के लिए सबक
अमेरिकी, रूसी अधिकारियों और तथाकथित विशेषज्ञों की भारत के विभिन्न क्षेत्रों में तैनाती आजादी के बाद से होती रही है। इसके विपरीत भारत के युवाओं की प्रतिभा और ज्ञान को नकारने और उन्हें विदेशियों की तुलना में निकम्मा साबित करने में हमारी सरकारों ने कोई कमी नहीं रहने दी। इसका परिणाम यह हुआ कि भारत मं रहने की बजाय अमेरिका, यूरोप तथा अन्य समृद्ध देशों में जाने और वहीं बस जाने तथा भारत कभी न लौटने और भारत को बुरा भला कहने तक का जो सिलसिला शुरू हुआ, वह आज तक बदस्तूर जारी है।
इसे चाहे ब्रेन ड्रेन कह लीजिए, सुविधाओं के लिए प्रतिभाओं का पलायन कहिए या कुछ और, सत्य यही है कि जब तक अपने देश के प्रति अगाध समर्पण और राष्ट्रवाद की लहर आगे नहीं बढ़ेगी तब तक भारत का अग्रणी देशों की पंक्ति में स्थान पाना एक कठिन कार्य है।
इसका अर्थ यही है कि अपनी लड़ाई स्वयं और अपने ही शस्त्रों से लड़नी होगी। विदेशी भाषा, तकनीक और ज्ञान को भारतीयता की कसौटी पर परख कर ही अपनाना होगा। इसके लिए जहां नागरिकों को विदेशी वस्तुओं, टेक्नोलॉजी के प्रति अपनी सोच बदलनी होगी, वहां सरकार को भी अपनी आर्थिक नीतियों, कर निर्धारण संबंधी कानूनों और प्रशासनिक सुविधाओं को अपने देश के उद्यमियों के लिए सरल बनाना होगा। केवल विदेशी निवेश को ध्यान में रखकर विदेशियों के हित की नीतियां बनाने से बचकर भारतीयों को ही प्रत्येक क्षेत्र में सभी प्रकार की सहायता देने की व्यावहारिक नीति बनाने से ही देश आगे बढ़ पाएगा।