शनिवार, 28 अगस्त 2021

दूसरों की लड़ाई लड़ने के बहाने दूसरे देशों को कमज़ोर करना है

 दूसरों की लड़ाई लड़ने के बहाने दूसरे देशों को कमज़ोर करना है

दुनिया भर में अमेरिका और रूस का डंका इस बात के लिए बजता रहा है कि वे धनी हैं, ताकतवर हैं और किसी को भी आसमान पर बिठाने और कोई न माने तो धरती पर धूल भी चटाने में माहिर हैं। ये दोनों  दूसरे देशों पर अपना सिक्का चलाने के चक्कर में फौज का इस्तेमाल, आर्थिक नाकेबंदी और अंतर्राष्ट्रीय बिरादरी में बदनामी तथा अपनी जी हुजूरी न करने वाले देश को सब से अलग थलग भी कर सकते हैं। यही नहीं स्वयं अपने को सुपर पावर भी कहते और मानते हैं।

अब इस कड़ी में चीन का भी जिक्र होने लगा है और वह इन दोनों महा शक्तियों के साथ सैद्धांतिक और वैचारिक मतभेद होते हुए भी इन्हीं के नक्शे कदम पर चल रहा है। उसे भी संसार में केवल अपनी ही तूती बोलती देखने का शौक है।

चक्की के दो पाट

अमेरिका और रूस ने अपने ब्लॉक बना लिए और इनमें समर्थक देशों को शामिल कर लिया।  जिसने इनके साथ असहयोग या इनकी नीतियों का विरोध किया उसे लालच देकर, बहला फुसलाकर और कोई देश तब भी न माने तो उसे बर्बाद और यहां तक कि नेस्तनाबूद करने तक में कोई कसर न छोड़ने की नीति का पालन करने में तनिक भी न हिचकिचाए।

अमेरिकी और रूसी ब्लॉक के देशों ने पूरी दुनिया पर राज करने के लिए अनेक ऐसे संगठन बना लिए जिनकी बात अगर कोई देश न माने तो उसका बहिष्कार करने की नीति का पालन किया जाने लगा। इसमें हथियारों की ख़रीद फरोख्त से लेकर आर्थिक पाबंदियां लगाने तक की धमकी देने और फिर भी कोई न माने तो उसे दबाने के लिए सख्ती होने लगी।

ज्यादातर राष्ट्र गरीबी, भुखमरी, बेरोजगारी और प्राकृतिक संसाधनों की कमी से इनकी बात मानने को तैयार हो गए और उन्हें इन शक्तियों में से किसी एक के साथ जाने के लिए मज़बूर होना पड़ा। मतलब यह कि ये देश चक्की के दो पाटों के बीच घुन की तरह पिसने लगे।

गुट निरपेक्षता का ढोंग

भारत ने हालांकि किसी भी गुट में शामिल न होकर अपने को अलग रखने का दावा किया लेकिन यह कितना खोखला था, इसका पता इस बात से ही चल जाता है कि संकट के समय रूस का अपने साथ  खड़ा दिखाई देना हमारे लिए जरूरी हो गया । इसकी देखादेखी अमेरिका भी हमें अपनी तरफ करने के लिए डोरे डालने लगा।

अमेरिकी ब्लॉक हो या रूसी दोनों की नीयत एक ही थी कि अविकसित देशों के मानव संसाधनों से लेकर प्राकृतिक स्रोतों तक पर अपना अधिकार कर लें। विकासशील देशों को आर्थिक सहायता देकर इतना निर्भर कर दें कि एक सीमा से आगे उनका विकास ही न हो सके। इन दोनों को डर था कि कहीं उनके मुकाबले कोई तीसरी ताकत न खड़ी हो जाए। यह तीसरी ताकत भारत जैसे देश बनते दिखाई दिए तो दोनों गुटों ने उन पर दवाब डालने और इन प्रगतिशील देशों को कभी एक न होने देने के लिए सभी तरह के उपाय करने शुरू कर दिए।

यहां एक बात का जिक्र करना भी जरूरी है कि अमेरिका और रूस मुख्य रूप से अपने हथियारों और सैन्य शक्ति के बल पर दुनिया को अपनी मुठ्ठी में करना चाहते थे, वहां चीन ने नागरिकों की जरूरत की चीजें मुहैया कराकर अपना वर्चस्व स्थापित करने की नीति अपनाई। आज मेड इन चाइना का जलवा दुनिया भर में सिर चढ़कर बोल रहा है।

अमेरिका और रूस द्वारा अपने सैनिकों को दूसरे देशों में लड़ने के लिए भेजने के विरोध में उनके अपने नागरिक अब आवाज उठाने लगे हैं कि उनके शासक अपनी वाहवाही के लिए अपने लोगों को इन देशों में मरने के लिए भेजकर कौन सा देशहित का काम कर रहे है और यह भी कि क्या फौजी ताकत के बल पर उन देशों का भला हो पाया जहां उनके परिवार के लोग अपनी जान की बाजी लगा रहे हैं ?

उदाहरण के लिए क्या बीसियों वर्ष तक आर्थिक और सैन्य सहायता देने के बावजूद उन लोगों की मानसिकता को बदल पाए जिनके लिए आतंकवाद, हिंसा और लूटपाट ही जीवन का ध्येय रहा है ?  कह सकते हैं कि इन्हें पाल पोसकर अपने निजी स्वार्थों की पूर्ति करना ही इन महा शक्तियों का उद्देश्य था। इसके लिए दुनिया भर में इन्हें समाप्त करने का ढोंग रचकर यह ताकतें दिखाना चाहती थीं कि वे कितनी संवेदनशील हैं और उनकी सहानुभूति आतंक का पर्याय बन चुके देशों के असहाय और मासूम नागरिकों के साथ है।

यदि अमेरिका पर ओसामा बिन लादेन का हमला न होता तो वह कभी अफगानिस्तान, पाकिस्तान जैसे आतंक का पर्याय बन चुके देशों की नकेल कसने के बारे में नहीं सोचता। यह बात और है कि यहां भी हाथी के दांत खाने के और दिखाने के और की कहावत लागू होती है। अमेरिका और रूस दोनों ही दिखावा अधिक और वास्तविक सहायता न के बराबर करते हैं।

भारत के लिए सबक

अमेरिकी, रूसी अधिकारियों और तथाकथित विशेषज्ञों की भारत के विभिन्न क्षेत्रों में तैनाती आजादी के बाद से होती रही है। इसके विपरीत भारत के युवाओं की प्रतिभा और ज्ञान को नकारने और उन्हें विदेशियों की तुलना में निकम्मा साबित करने में हमारी सरकारों ने कोई कमी नहीं रहने दी।  इसका परिणाम यह हुआ कि भारत मं रहने की बजाय अमेरिका, यूरोप तथा अन्य समृद्ध देशों में जाने और वहीं बस जाने तथा भारत कभी न लौटने और भारत को बुरा भला कहने तक का जो सिलसिला शुरू हुआ, वह आज तक बदस्तूर जारी है।

इसे चाहे ब्रेन ड्रेन कह लीजिए, सुविधाओं के लिए प्रतिभाओं का पलायन कहिए या कुछ और, सत्य यही है कि जब तक अपने देश के प्रति अगाध समर्पण और राष्ट्रवाद की लहर आगे नहीं बढ़ेगी तब तक भारत का अग्रणी देशों की पंक्ति में स्थान पाना एक कठिन कार्य है।

इसका अर्थ यही है कि अपनी लड़ाई स्वयं और अपने ही शस्त्रों से लड़नी होगी। विदेशी भाषा, तकनीक और ज्ञान को भारतीयता की कसौटी पर परख कर ही अपनाना होगा। इसके लिए जहां नागरिकों को विदेशी वस्तुओं, टेक्नोलॉजी के प्रति अपनी सोच बदलनी होगी, वहां सरकार को भी अपनी आर्थिक नीतियों, कर निर्धारण संबंधी कानूनों और प्रशासनिक सुविधाओं को अपने देश के उद्यमियों के लिए सरल बनाना होगा। केवल विदेशी निवेश को ध्यान में रखकर विदेशियों के हित की नीतियां बनाने से बचकर भारतीयों को ही प्रत्येक क्षेत्र में सभी प्रकार की सहायता देने की व्यावहारिक नीति बनाने से ही देश आगे बढ़ पाएगा।


शुक्रवार, 6 अगस्त 2021

अधिकतम खुदरा मूल्य की छूट, उपभोक्ताओं की लूट


कोई भी व्यापार, कारोबार करने वाले, उद्योग, कारखाना लगाने वाले व्यक्ति का सब से पहला लक्ष्य यह होता है कि मुनाफा या प्रॉफिट हो लेकिन यह कितना हो इसकी कोई सीमा नहीं होनी चाहिए! सरकार का कोई ऐसा कानून भी नहीं है और न ही कोई फार्मूला जो तय करे कि कितना मार्जिन रखा जाए। यह सब निर्माता के नियंत्रण और मर्ज़ी पर निर्भर है कि वह अपने उत्पाद की कितनी कीमत रखे। बस इतना ध्यान रखना जरूरी होता है कि जो भी मूल्य छापा जाए उसमें सभी कर शामिल हों ।

एम आर पी का अर्थ ?

अधिकतम खुदरा मूल्य, निर्माता द्वारा निर्धारित करने का चलन केवल भारत और बांग्लादेश में है और दुनिया के लगभग सभी देशों में यह दुकानदार और रिटेलर के हाथ में होता है कि वह स्थानीय बातों का ध्यान रखते हुए अपनी चीज़ अपने तय किए दाम पर बेचे। निर्माता को वस्तु की क्वालिटी, वह जिन चीज़ों से बनी है, उसका विवरण और बनाने तथा कब तक इस्तेमाल की जा सकती है, यह बताना जरूरी होता है और इन बातों को उपभोक्ता के अधिकारों का ध्यान रखते हुए स्पष्ट शब्दों और पढ़े जाने लायक अक्षरों में पैकेजिंग और वस्तु पर छापना होता है।

आपने देखा होगा कि अक्सर जब आप खरीददारी करने जाते हैं तो अन्य बातों के अतिरिक्त उसके मूल्य पर भी नज़र डालते हैं कि उसकी कीमत वाजिब है या नहीं। मान लीजिए उस पर एक हजार रुपए लिखा है, आपको महंगी लगती है और आप बाहर जाने को होते हैं तो दुकानदार या उसके कर्मचारी आपके पास आकर वही वस्तु कम दाम पर  बेचने की पेशकश करते हैं।  आप सोचते हैं कि कहीं और जाकर फ़िर से तलाश करने के बजाय यहीं मोलभाव कर ख़रीद लेना बेहतर है। आप आश्चर्य में पड़ जाते हैं कि वह वस्तु उस पर छपी कीमत से आधे दाम पर आपको बेची जा रही हो सकती है।

यह मोलभाव, छपी कीमत से आधे से भी कम दाम पर वस्तु का मिल जाना क्या बताता है, यही कि बहुत ज्यादा झोल है और निर्माता तथा दुकानदार की मिलीभगत से आपको ठगने का प्रयास है। अगर आपने सीधे सीधे बिना भली भांति चेक किए वस्तु खरीद ली होती तो घर आकर परिवार वालों की बातें सुननी पड़ती और हो सकता है आपको मूर्ख होने की उपाधि भी मिल जाती जबकि आपने विक्रेता के विश्वास को आधार मानकर खरीददारी की थी।

मतलब यह कि आपके साथ विश्वासघात हुआ लेकिन इसकी कहीं सुनवाई नहीं हो सकती।

क्या उपभोक्ता संरक्षण कानून में ऐसी व्यवस्था नहीं होनी चाहिए कि इस स्थिति में आप निर्माता और दुकानदार के खिलाफ़ कार्यवाही कर सकें और  धोखाधड़ी का मामला दर्ज़ किया जाए ?

एम आर पी का सामान्य अर्थ यही है कि छपी कीमत से ज्यादा नहीं वसूला जा सकता, सब जगह एक ही दाम होंगे, व्यक्ति अपनी जेब के हिसाब से खरीदेगा और उसके उपभोक्ता अधिकारों का हनन नहीं होगा। यहां तक तो ठीक है लेकिन इस बात की क्या गारंटी है कि किराए भाड़े के नाम पर ज्यादा दाम नहीं देने होंगे, पुराने स्टॉक पर छपी कीमत को नया स्टॉक बताकर वस्तु पर बढ़ी कीमत का एक और स्टीकर लगाकर ज्यादा दाम नहीं वसूले जायेंगे ?

यहां यह बताना भी ज़रूरी है कि ऑनलाइन शॉपिंग करने पर वही वस्तु कम दाम पर उपलब्ध हो जाती है जो दुकान या मॉल में ज्यादा दाम पर मिलेगी। आप सोचेंगे कि इसमें आने जाने का समय और खर्च भी बचता है और घर बैठे सामान आ जायेगा। हालांकि ऑनलाइन शॉपिंग में धोखाधड़ी की काफी संभावना है लेकिन इसे प्रतिष्ठित और जानी मानी ऑनलाइन शॉपिंग व्यवस्था से खरीदने पर इस बारे में भरोसा किया जा सकता है कि सही दाम पर सही वस्तु मिलेगी। एक और सुविधा है कि आप बार्गेनिंग कर सकते हैं लेकिन डर यही रहता है कि कहीं दाम कम कराने के चक्कर में घटिया चीज़ न मिल जाए?

दुकान या मॉल में यह सुविधा तो रहती है कि आप देखभाल कर, कीमत का मिलान कर मोलभाव कर सकते हैं। 

निर्माता, विक्रेता और ग्राहक

किसी ज़माने में ग्राहक को भगवान मानकर दुकानदार द्वारा उसे पूरी तरह संतुष्ट कर चीज़ बेचने का चलन था, आज उपभोक्ता संरक्षण कानून होते हुए भी इस बात की कोई गारंटी नहीं है कि ठगी, बेईमानी, धोखाधड़ी नहीं होगी। इस बात का कोई मायना नहीं रहा कि विक्रेता और खरीददार के संबंध कितने पुराने हैं और दोनों को एक दूसरे पर एक अरसे से भरोसा है कि कोई  चालबाजी नहीं होगी। हकीकत यह है कि निर्माता हो या विक्रेता, उसका ग्राहक से रिश्ता गैर बराबरी का होता है। कितनी भी जान पहचान हो, कितने भी पुराने संबंध हों, किसी का कोई मोल नहीं होता जब  ज्यादा से ज्यादा मुनाफा कमाने की बात हो।

एमआरपी का गोरखधंधा ऐसा है कि ग्राहक समझ नहीं पाता कि किस पर विश्वास करे और इस दुविधा में वह वस्तु की क्वालिटी, उसका नापतोल, वजन और दूसरी ज़रूरी बातों पर ध्यान देना भूलकर केवल दाम कम कराने पर ज़ोर देता रहता है। वह यह भी नजरंदाज कर देता है कि सुरक्षा की दृष्टि से, विशेषकर बिजली से चलने वाले उपकरणों के मामले में दाम से अधिक महत्वपूर्ण यह है कि जो वस्तु वह ख़रीद रहा है, कितनी सुरक्षित है, कहीं उससे किसी दुर्घटना के होने का अंदेशा तो नहीं है ?

कहीं उस पर महंगा रोए एक बार और सस्ता रोए बार बार की कहावत तो लागू नहीं हो रही ?

एक बात और है और वह यह कि चाहे छपी हुई एमआरपी से अधिक न लेने की बंदिश विक्रेता पर हो लेकिन वह उसे न मानकर बढ़िया सर्विस देने के नाम पर आपसे बहुत अधिक कीमत वसूल करने के लिए आज़ाद है, ख़ास तौर पर होटल, रेस्त्रां, थियेटर, ट्रेन या हवाई यात्रा में उस पर कोई कानून लागू नहीं होता।

यह अनफेयर ट्रेड प्रैक्टिस नहीं है तो और क्या है ?  इसी के साथ उपभोक्ता अधिकारों का हनन भी है, यही नहीं कानून का मज़ाक भी है जिसके बारे में न तो सरकार और न ही उपभोक्ता संगठन कोई कार्यवाही करते हैं। इस स्थिति में एमआरपी का मतलब ही क्या रह जाता है ? यह घोटाला है जो निर्माता और सप्लायर मिलकर करते हैं और उपभोक्ता ठगे जाने के लिए मजबूर है।

उल्लेखनीय है कि एमआरपी की बदौलत सब से ज्यादा ठगी का शिकार दवाइयां, चिकित्सा उपकरण खरीदने वाले होते हैं जिनके लिए अक्सर कीमत से ज्यादा बीमारी से छुटकारा पाना अहमियत रखता है। अस्पताल में इलाज़ करा रहे मरीजों की तो और भी मुसीबत है।  उनसे तो मानो एक के चार वसूल करना अस्पताल का अधिकार ही है और अगर कहीं आपने बीमा पॉलिसी ली हुई है तब तो एमआरपी से कई गुना रकम बिल में जोड़ दी जाती है। मरीज़ और उसके परिवार वाले कुछ बोलते भी नहीं हैं क्योंकि उनके लिए पहले बीमारी से ठीक होना है और दूसरी बात वे यह सोचते हैं कि भुगतान तो बीमा कंपनी को करना है, इसलिए क्यों बिल को लेकर ज्यादा माथापच्ची की जाए ?

हल क्या है ?

अगर ऐसी व्यवस्था बनाई जाए कि सरकार मूल्य नियंत्रण करते हुए कीमत तय करे तो यह एक और बुराई को जन्म देगा क्योंकि इससे इंस्पेक्टर राज के लौटने की पूरी संभावना है। हालांकि सरकार कानून द्वारा यह सुनिश्चित कर सकती है कीमत तय करने का कोई फॉर्मूला अपनाया जाए और तय मानकों के अनुसार मूल्य निर्धारण हो लेकिन इसमें सब से बड़ा खतरा यह है कि इससे भ्रष्टाचार बढ़ सकता है क्योंकि अफसरों की मुठ्ठी गरम करने से मनमानी कीमत निर्धारित कराई जा सकती है।

एक तरीका यह भी है कि विक्रेता, दुकानदार और सप्लायर पर कीमत तय करने का काम छोड़ दिया जाए और वे स्थानीय परिस्थिति, प्रतियोगिता और वस्तु को लाने पर खर्च हुए भाड़े तथा अन्य खर्चों को ध्यान में रखते हुए कीमत तय करें और ग्राहक को भी यह सुविधा हो कि वह वस्तु की गुणवत्ता के आधार पर मोलभाव कर सके।

यह भी हो सकता है कि निर्माता की ओर से वस्तु का होलसेल और खुदरा मूल्य सुझाया जाए जिसके आधार पर उसका बिक्री मूल्य तय किया जा सके जो ग्राहक की खरीदने की क्षमता पर निर्भर हो। इससे होगा यह कि विक्रेता बहुत अधिक दाम रखने से बचेगा क्योंकि उसे डर रहेगा कि ग्राहक कहीं और भी खरीददारी करने जा सकता है।

एक तरीका यह भी है कि फिक्की, चैंबर ऑफ कॉमर्स और ऐसे ही संस्थान हैं वे उपभोक्ता संगठनों और निर्माताओं के साथ विचार विमर्श कर कोई फॉर्मूला बनाएं जिसके आधार पर खुदरा मूल्य तय किए जा सकें। ये संस्थान इस बात की भी गारंटी लें कि निर्माता द्वारा निर्माण करते समय गुणवत्ता और सुरक्षा का पूरा ध्यान रखा गया है और वस्तु सभी सरकारी मानकों पर खरी है। इसी के साथ गुमराह करने वाले विज्ञापन प्रकाशित किए जाने पर कठोर कार्यवाही का प्रावधान हो।

एमआरपी की भुलभुलैया से जितना जल्दी निकला जा सके, उतना ही उपभोक्ता के लिए बेहतर होगा और इसमें सरकार की जिम्मेदारी सब से अधिक है क्योंकि उपभोक्ता संरक्षण के लिए वही जिम्मेदार है।