शुक्रवार, 27 मार्च 2020

स्वास्थ्य के अधिकार को मूलभूत अधिकार बनाने का यही समय है










दुनिया भर में फैली कोरोना वायरस की महामारी ने हमारे देश में कुछ मूल प्रश्नों को जन्म दिया है जिन पर विचार करना आवश्यक हो गया है और अब क्योंकि पूरा देश तालाबंदी में है इसलिए जनता अपने घर बैठकर इस बारे में सोच सकती है कि जब हम बीमारी मुक्त हो जाएंगे तो स्थाई रूप से क्या प्रावधान किए जाएं जिनसे भविष्य में ऐसी किसी आपदा का सुगमता से मुकाबला किया जा सके।

सेहतमंद रहने का मूलभूत अधिकार

हालांकि हमारे संविधान में स्वास्थ्य को लेकर अनेक अनुच्छेदों में इसका जिक्र है लेकिन मूलभूत अधिकार न होने से कोई भी अदालत इनमें कही गई बातों पर सख्ती से अमल नहीं करा सकती। यह वैसा ही है जैसे कि संविधान के मुताबिक बने कानूनों पर अमल करवा पाना इतना मुश्किल है कि दसियों वर्ष तक मुकदमें चलते रहते हैं। दो उदाहरण जो हाल ही के हैं, देने से इस मुश्किल को समझा जा सकता है। एक है संविधान संशोधन कानून का गैर कानूनी विरोध और दूसरा निर्भया के दोषियों को फांसी से बचाने के लिए कानूनी प्रावधानों में खोखलापन होने से लगातार उनका दुरुपयोग।


हमारे देश में ‘सेहत हजार नियामत है, पहला सुख निरोगी काया‘ जैसे मुहावरे प्रचलित हैं। जब हम सेहतमंद रहने के अधिकार को संविधान के मूलभूत अधिकारों में शामिल करने की वकालत करते हैं तो यह समझना जरूरी है कि हमारा प्रत्येक अधिकार हमारे कर्तव्य पालन से जुड़ा होता है जिसके बिना कोई भी अधिकार सफल नहीं हो सकता।


जब विश्व स्वास्थ्य संगठन ने 70 साल पहले इस पर चर्चा शुरू की थी और यह संगठन का शुरुआती दौर था तो इसे मानव अधिकारों से जोड़कर देखा गया था। मतलब यह कि जैसे हमारे मानवाधिकार होते हैं उसी तरह स्वस्थ रहने का अधिकार भी इससे जुड़ा है।


जरूरत क्यों है ?


भारत में इसे मूलभूत अधिकार बनाने की जरूरत इसलिए है क्योंकि जब भी कोई प्राकृतिक और मानवीय आपदा आती है तो सबसे पहले उसका असर औद्योगिक कामगारों और मजदूरों पर पड़ता है। उनकी बेरोजगारी का  मतलब है जीवन के लिए जरूरी भोजन का इंतजाम खत्म हो जाना अर्थात उनका शारीरिक और मानसिक रूप से कमजोर होते जाना, सेहत का लगातार गिरते जाना और एक दिन रोजी रोटी के अभाव में बीमार होकर मर जाना।


इस वर्ग के साथ वे भी जुड़ जाते हैं जो सरकारी और निजी दफ्तरों में काम करते हैं और आपदा के समय काम धंधे से निकाले जाने की नौबत आने पर पैसों के आने का रास्ता बंद होने से सबसे पहले खाने पीने की चीजों की कटौती करते हैं और स्वस्थ न रहने से बीमारियों का शिकार होकर शमशान घाट की राह पर चल पड़ते हैं।


बीमारी और संक्रमण

जब पौष्टिक भोजन न मिले, गंदगी में रहना पड़े तो कई तरह के घातक विषाणु शरीर पर हमला कर देते हैं और वह व्यक्ति अपने साथ दूसरों की जिन्दगी के लिए भी खतरा बन जाता है जैसा कि अब हो रहा है क्योंकि अस्वस्थ मनुष्य की रोगों से लडने की ताकत कम होती जाती है जो  पूरे समाज के लिए हानिकारक है।
इन सब बातों को देखते हुए जैसे हमारा जीने का अधिकार है, उसी तरह स्वस्थ रहने का भी मूलभूत अधिकार होना चाहिए जिससे सरकार, संविधान, कानून और समाज की जिम्मेदारी तय हो जाए कि किसी भी मुसीबत के समय नागरिकों को सेहत के नुकसान का सामना न करना पड़े और उसे इतना पैसा और सुविधाएं मिलती रहे जिससे वह स्वस्थ रह सके। इसी के साथ यह गरीब हो या अमीर सब पर समानता के सिद्धांत की तरह लागू हो।



स्वास्थ्य अधिकार की रूपरेखा


इस अधिकार के संविधान का मूलभूत अधिकार बनाने से पहले उसकी रूपरेखा तय करना भी जरूरी है वरना यह भी दिखावटी कानूनों की तरह बेकार हो जाएगा।

कोई भी व्यक्ति स्वस्थ तब ही रह सकता है जब उसे पौष्टिक भोजन, शुद्ध पीने का पानी, प्रदूषण रहित पर्यावरण, शौचालय सुविधा मिलने और बीमार होने पर इलाज करवाने का इंतजाम हो।


यह सब करने के लिए एक विशेष संस्थान बनाना होगा जो यह सब सुविधाएं देने के लिए बनी विभिन्न इकाईयों की नोडल इकाई हो जो किसी भी कारण से किसी भी व्यक्ति को सेहतमंद न रहने की संभावना होते ही तुरंत सहायता करने की पहल करे ताकि उसे स्वस्थ रहने में कोई कमी न होने पाए।


आज हमारे देश में स्वस्थ रहने, बीमार होने पर चिकित्सा कराने के लिए सरकारी और प्राइवेट संसाधन हैं जिनमें डॉक्टर, अस्पताल, नर्सिंग होम, स्वास्थ्य केंद्र, डिस्पेंसरी आदि हैं और इनकी सुविधाएं हैसियत यानी आमदनी से जुड़ी हैं।


अब हुआ यह कि जो धनवान थे उनके  लिए फाइव स्टार अस्पताल बन गए और जो सामान्य आय वाले थे उनके लिए सरकारी अस्पताल रह गए जहां इतनी भीड़ हो गई कि सब का सही इलाज करना असम्भव सा हो गया।
आज जो हम निजी क्षेत्र के डॉक्टरों और अस्पतालों की फीस तथा खर्चे भुगतने में असमर्थ होते जा रहे हैं और बिना सही चिकित्सा के मर रहे हैं तो इसका सबसे बड़ा कारण इन सब पर सरकार का कोई नियंत्रण न होना है। आज किसी भी डॉक्टर की फीस एक बार में पांच सौ के आसपास  से शुरू होकर हजारों में पहुंच रही है। इसी तरह पैथोलॉजिकल लैब के खर्चे आम आदमी के लिए बहुत ज्यादा हो गए हैं।



इसी तरह जो चिकित्सा उपकरण सरकारी अस्पतालों में निशुल्क उपलब्ध हैं, वे प्राइवेट में इतने महंगे हैं कि उनके इस्तेमाल की हिम्मत नहीं होती। जहां एक तरफ एक अनार और सौ बीमार हैं तो दूसरी तरफ एक धनवान के लिए डॉक्टरों और उपकरणों की फौज है।



स्वस्थ रहने का मूलभूत अधिकार होने से ये सब सुविधाएं सब के लिए निशुल्क उपलब्ध कराई जानी होंगी जिसका खर्च सरकार को करना होगा  और सभी प्राइवेट तथा सरकारी सुविधाओं का एक पूल बनाकर इन्हें प्रत्येक के इस्तेमाल के लिए तैयार करना होगा।


इसी तरह दवाइयों, प्रत्यारोपण और दूसरी सुविधाएं भी प्रत्येक के लिए निशुल्क उपलब्ध होंगी।
आज निजी अस्पतालों की लूट खसोट किसी से छिपी नहीं है, उनमें इलाज कराने की हिम्मत बहुत कम लोगों में है, इसलिए जब इन अस्पतालों को मिलाकर एक श्रृंखला में बांध दिया जाएगा तो हर कोई इनमें बेहतर और आधुनिक चिकित्सा सुविधाओं का लाभ उठा सकेगा और इस तरह अपने स्वास्थ्य की रक्षा कर सकेगा क्योंकि यह तब उसका मौलिक अधिकार होगा।

आज ऐम्स जैसे अस्पताल क्यों नहीं देश की जरूरत के मुताबिक खुल रहे तो कहीं इसका कारण यह तो नहीं है कि उनके खुलने से प्राइवेट अस्पतालों का अस्तित्व खतरे में पड़ जाएगा और यह अस्पताल के नाम पर जो व्यापार हो रहा है, वह बंद हो जाएगा ?


स्वास्थ्य सुरक्षा की गारंटी


स्वस्थ रहने का अधिकार मिलने पर प्रत्येक व्यक्ति के स्वस्थ रहने की गारंटी हो जाएगी। यदि कोई अपनी लापरवाही से स्वस्थ नहीं रह पाता या उसका परिवार इसमें कोई चूक करता है तो उसे दंडित किया जा सकता है क्योंकि स्वस्थ रहना एक स्वस्थ राष्ट्र का पैमाना बन जाएगा।
जरा सोचिए जब सरकार स्वस्थ रहने की गारंटी देगी, सभी को समान स्वास्थ्य सुविधाएं मिलेंगी तो ऐसे हालात बनने में कितनी देर लगेगी जिनसे किसी भी आपदा के समय पूरे देश को स्वस्थ रखा जा सकेगा? क्या इस अधिकार से देश की उत्पादन क्षमता नहीं बढ़ेगी? क्या स्वस्थ नागरिक राष्ट्रीय आय में वृद्धि नहीं करेंगे और देश शिक्षा, रोजगार, अनुसंधान के क्षेत्र में विकसित राष्ट्र बहुत कम समय में नहीं बन जाएगा ?


भारत

शुक्रवार, 20 मार्च 2020

मिस्र के पिरामिड, नील नदी और पर्यटन








इजिप्ट या मिस्र अफ्रीका के उत्तर और मिडिल ईस्ट के बगल में है, मेडिटेरेनियन समुद्र से घिरा और इस क्षेत्र को जीवन देने वाली विश्व की सबसे लंबी नदियों में से एक नील नदी के आगोश में स्थित एक ऐसा देश है जिसकी सभ्यता 4500 वर्ष पुरानी है। अगर नील नदी न होती तो पूरा इलाका रेगिस्तान कहलाता।

मिस्र में गीजा के पिरामिड या स्तूप  दुनिया  के अजूबों में से एक हैं। इन्हें देखने की इच्छा रखने वाले जब इनके करीब होते हैं, तब ही उन्हें एहसास होता है कि वास्तव में ये एक अजूबे ही हैं, वरना ये पिरामिड पत्थरों को जोड़कर रख देने से बनी एक त्रिकोणात्मक आकृति ही लगती है।

यह पिरामिड बनाने में बीस साल लगे और पत्थरों की भारी शिलाओं को यहां तक लाने के लिए केवल मजदूर ही थे, उस समय कोई क्रेन या कोई और तकनीक या मशीनरी नहीं थी। पत्थरों को इतनी ऊंचाई तक ले जाना और उन्हें जोड़े रखना वास्तव में कमाल का काम है। आज तक वोह अपनी जगह से हिले नहीं और  कुछ आक्रमणकारियों ने इन्हे मिटाने की कोशिश की भी तो नाकामयाब ही रहे।

इन पिरामिडों में इन्हें बनवाने वाले राजाओं के शव आज भी ममी के रूप में रखे हैं, लेकिन उन्हें सुरक्षा कारणों से देख पाना संभव नहीं है।

हिन्दू धर्म की भांति इनका भी पुनर्जन्म में विश्वास है। हमारे यहां आत्मा विलीन होकर किसी योनि में दुबारा जन्म लेती है, इनके यहां शरीर के साथ ही फिर से जीवित होने की मान्यता है और इसीलिए उनके साथ जरूरी समान और धन दौलत भी रखी जाती रही है ताकि जब जीवित हो जाएं तो उसी शरीर और राजसी ठाठबाट के साथ जिन्दगी जी सकें।

मिस्र का भारत की प्राचीन सभ्यता के साथ मिलान करें तो कोई समानता तो नहीं है  लेकिन प्राचीन इमारतों और उनके  अवशेषों में जरूर यह बात है कि इनसे दोनों की सभ्यता या सिविलाइजेशन को समझा जा सकता है।


हमारे यहां जीवनदायिनी गंगा है तो मिस्र में नील नदी है। अगर दोनों ही देशों  में ये  नदियां न होती तो क्या हालत होती उसकी कल्पना करना भी भयावह है। गंगा अनेक स्थानों पर बहुत ही प्रदूषित और गंदगी से भरी है जबकि नील नदी की सफाई देखकर तसल्ली होती है। इसी तरह इजिप्ट में गाय को सबसे अधिक सम्मान दिया जाता है क्योंकि उसे एक उपयोगी पशु के रूप में मान्यता दी गई है जिस प्रकार हमारे यहां गाय को विशेष और लाभदायक पशु होने का गौरव प्राप्त है।

क्रूज में बैठकर नील नदी के आसपास लहलहाते खेतों को देखकर इसकी उपयोगिता समझ में आती है। बस से पूरा रेगिस्तान पार कर नील नदी को देखना सुखद अनुभव है।
मिस्र के शासक जमाल अब्दुल नासिर ने इस देश के आजाद होने के बाद एक तरह से यहां की कायापलट ही कर दी और उसे एक ट्राइबल देश की जगह आधुनिक रूप देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।

नील नदी पर बांध बनाने के लिए ताकि बिजली का उत्पादन हो सके, पहले अमेरिका और ब्रिटेन से मदद मांगी गई लेकिन उनकी शर्तें एक तरह से  उनकी गुलामी करने जैसी थीं, तब नासिर ने रूस का हाथ थामा और रूस इसलिए मदद को तैयार हुआ क्योंकि उसे इजिप्ट में अपने हथियारों के कारोबार की अपार संभावनाएं दिखाई दीं और दोनों ने हाथ मिला लिया और इस तरह अमेरिका को अंगूठा दिखा दिया।

जमाल नासिर और पंडित नेहरू की मित्रता भी इसी आधार पर हुई कि दोनों की आजादी बरकरार रखते हुए रूस ने मदद की जिसका परिणाम दोनों की खुशहाली और बेहतर रिश्तों के रूप में हुआ।

इजिप्ट का सबसे बड़ा टैम्पल कर्णक में है जो अपनी विशालता और पुरातत्व के लिए प्रसिद्ध है। यह मिस्र की पहली रानी का भी स्थान है जिसने देश की समृद्धि में अद्भुत योगदान दिया। इसमें विशाल आकार के 138 खंबे हैं जिन पर इतिहास की व्याख्या करती आकृतियां हैं जो बताती हैं कि कब किस राजा ने साम्राज्य विस्तार के इरादे से दूसरे देशों पर अपना आधिपत्य स्थापित किया।

सूर्य को शक्ति का प्रतीक माना जाता है और इसीलिए पूर्व को जीवन और पश्चिम को मृत्यु का स्थान मानते हैं।

इजिप्ट में भारतीय मान्यता कि पिता ही सृष्टि का निर्माता है, की भांति उसे पिता ही कहा जाता है और वह अंधेरे में रहकर सृष्टि निर्माण करता रहता है।

यहां एक कुएं नुमा महल है जिसकी खोज कहते हैं कि संयोग से एक गधे ने की। उसमें 99 सीढ़ियां हैं और जैसे जैसे नीचे उतरते जाते हैं, इस महल का रहस्य खुलता जाता है। अंदर शवों को ममी के रूप में रखे जाने के लिए खाने बने हुए हैं ।

इजिप्ट में पपारायसस नामक पेड़ के बने पत्रों पर की गई लिखाई हमारे यहां के भोजपत्रों पर लिखी गई पांडुलिपियों की तरह आज भी सुरक्षित हैं। यह पत्र आज भी लिखने और आकृतियां गढ़ने के काम आते हैं और सजावटी सामग्री के रूप में पर्यटकों को लुभाते हैं। लेकिन इनके असली  और नकली होने में भेद कर पाना मुश्किल है, विशेषज्ञ ही फर्क बता सकता है।

इसी पेड़ के तने से बनी नावों पर ही पिरामिडों के लिए पत्थरों को लाने का काम किया जाता था।

इजिप्ट में शेर की आकृति और मनुष्य का चेहरा यहां का प्रतीक चिन्ह है।
यहां भी एक प्राचीन काल की कहानी के अनुसार दो भाइयों में एक भलाई और दूसरा बुराई का प्रतीक है। इससे अपने यहां बाली और सुग्रीव की कथा का स्मरण होता है।

भलाई के प्रतीक एक भाई को समाप्त करने के लिए बुराई के प्रतीक भाई ने सुलह करने का दिखावा करते हुए सभी सभासदों और अपने भाई को आमंत्रित किया। उसने एक खेल रचा जिसमें विभिन्न आकार के कॉफिन बनवाए और कहा कि जो भी अपने आकार के कॉफिन में फिट हो जाएगा, विजेता माना जाएगा। सभी कॉफिन या तो इतने बड़े या छोटे थे कि कोई फिट नहीं आया लेकिन एक कॉफिन बिल्कुल उस भाई के आकार का था जिसे समाप्त करने की चाल उसके ही भाई ने खेली थी।

इसी तरह की अनेक कथाएं इस देश में प्रचलित हैं जिनमें एक यह भी कि चारों ओर केवल पानी ही पानी था और घनघोर अंधेरा था। केवल  पिता ही था जिसने  सृष्टि निर्माण के लिए नमी और वायु की रचना की। फिर आदम की रचना की।  दोनो का संगम हुआ  जिससे दो शिशु जन्मे। उसके बाद यह सिलसिला आगे बढ़ता गया और पृथ्वी पर नर और मादा के  रूप में आबादी बनती गई।

एक और कथा है जिसमें रानी के शरीर को 14 अंगों में काट कर जगह जगह बिखेर दिया गया। 14 में से 13 अंग मिल गए और एक अंग समुद्र में मछली निगल गई। शेष अंग से गर्भ धारण हुआ और उसे प्रसव हुआ तो जिस शिशु ने जन्म लिया वह राजा बना।
इजिप्ट इतिहास और पुरातत्व का अद्भुत संगम है। यहां मीलों में फैले मंदिर और उनमें बनाई गई आकृतियां यहां की कहानी कहती हैं।

अंग्रेजों ने यहां भी शासन किया। जैसा कि उन्होंने अपने पूरे साम्राज्य से बेहतरीन वस्तुओं को अपने देश  ले जाकर संग्रह किया उसी तरह इजिप्ट से भी वे बहुत सी बहुमूल्य वस्तुएं ले गए जिनमें राजाओं के मुकुट, आभूषण या शिलाएं भी हैं।

अंग्रेजों की एक आदत और यहां देखी और वह यह कि जैसा कि उनकी प्रवृति है, अनेक दीवारों और खंबों पर ऊंचाई तक जो भी अंग्रेज पहुंच पाया उसने अपना नाम और सन इन पत्थरों पर खोद दिया।

कह सकते हैं कि इजिप्ट यात्रा का अनुभव रोमांचक और रहस्यमय कथाओं को जानने का रहा। जैसा कि कुछ लोगों की मान्यता है कि यहां का निर्माण करने में एलियंस का हाथ है लेकिन इसका कोई प्रमाण न होने से विश्वास नहीं होता।
अजूबे और अजब रीति रिवाजों के साथ साथ आधुनिक होने की दौड़ में भी यह देश अग्रणी है। पुराने मकानों और बेतरतीब गली मोहल्लों के साथ सरपट सड़कें और तेज गति से चलने वाले वाहन तथा आधुनिक तर्ज पर बने घर भी हैं।

कैरों, आस्वान, लुक्सर जैसे शहर यहां  की मिलीजुली संस्कृति, पहनावे और फैशन का प्रतीक हैं। लोग मिलनसार ज्यादा नहीं है, अपने काम से काम रखने वाले हैं। खानपान में मांसाहारी ही अधिकतर हैं लेकिन उसमें भी कोई अलग पहचान रखने वाला व्यंजन न के बराबर है। एक तरह से यात्रा सुखद ही रही। 

(भारत)


शनिवार, 7 मार्च 2020

डर जो जीने भी न दे और हैवान तक बना दे









सामान्य जीवन में व्यक्ति हर वक्त किसी न किसी अनहोनी, आशंका और जो कुछ उसके पास है उसके खो जाने से डरता रहता है जबकि यह सब उसकी अपनी काल्पनिक सोच होती  है। ज्यादातर मामलों में उसके डर का कोई कारण नहीं होता लेकिन उसका स्वभाव हर बात से डरने का हो जाता है। इसी डर के कारण व्यक्ति न सच कहने का साहस कर पाता है और न ही किसी अन्य से सच सुनने को तैयार होता है, बस अपने ही बनाए जाल में उलझकर रह जाता है। बचपन से लेकर युवा होने तक यदि परिवार में  भय व्याप्त रहता है तो बड़े  होकर व्यक्ति सच से दूर होकर  हरेक बात के लिए झूठे बहाने बनाने लगता है।




अगर कहीं बड़े होकर ऐसा व्यक्ति राजनीति के पेशे में आ गया और सत्ता पक्ष या विपक्ष का नेता  हो गया तब उसके लिए सच बोलना असंभव या बहुत साहस या दुस्साहस का काम होता है।



नागरिकता का सच और झूठ

एक ही उदाहरण से बात समझ में आ जाएगी कि नेता चाहे किसी भी पक्ष के हो, सच से दूर ही रहने में अपना भला समझते हैं।

यह जो नागरिकता कानून है उसे लेकर बराबर सरकार कह रही है कि किसी की नागरिकता नहीं छिनेगी बल्कि दी जाएगी।

इसका विरोध नहीं होना चाहिए लेकिन हो रहा है, इसका मतलब यह है कि दोनों ओर  से सच न बोलकर बहुत कुछ छिपाया जा रहा है।

अब जरा तथ्यों पर आते हैं। देश के बंटवारे के बाद जिस आबादी  की अदल बदल हुई, उनमें से अनेकों के भाई बहन, रिश्तेदार दोनों देशों में रह गए और उनमें धीरे धीरे  बातचीत, आना जाना और रिश्तेदारी  पनपती रही।

अनेकों गैर मुस्लिम धर्मों के लोग अपनी मर्जी से या धार्मिक आधार पर प्रताड़ित होकर या किसी और कारण जैसे कि व्यापार, रोजगार या कारोबार के लिए बिना वैध कागजात के भारत आ गए और बस गए। इसी तरह मुस्लिम धर्म के लोग भी यहां आ गए और बिना कागजात रहने लगे।

अब होता यह है कि सरकार कानून में संशोधन करती है कि गैर मुस्लिम धर्मों के लोगों को  नागरिकता दे दी जाएगी जिसका अर्थ यह कि जो मुस्लिम यहां बिना वैध कागजात के रह रहे हैं, उन्हें वापिस जाना होगा।

इस सच्चाई को सरकार और इस कानून का विरोध करने वाले दोनों ही समझते हैं लेकिन इसे कहने का साहस किसी में नहीं है। मिसाल के तौर पर जब ममता दीदी कहती हैं कि बांग्लादेश से आकर यहां बसे किसी भी मुसलमान को डरने की जरूरत नहीं है तो भाजपा वाले उन्हें घुसपैठिए मानकर यहां का नागरिक न बनाने पर अडे हुए हैं।

इसी तरह शाहीन बाग हो या देश में कहीं और, इस कानून का जहां भी विरोध हो रहा है, वहां मुस्लिम समुदाय की चिंता का कारण यही है कि जो लोग बिना कागजात यहां बरसों से रह रहे हैं और भारतीय मुसलमानों के परिवारों का हिस्सा भी बन गए हैं, उनका बोरिया बिस्तर इस कानून से बंधना निश्चित है जो उन्हें मंजूर नहीं है।

यह सच कहने या सुनने का साहस सरकार और विपक्ष में न होने के कारण असामाजिक तत्वों की पौ बारह हो गई जिसका नतीजा दिल्ली और दूसरी जगहों पर हिंसक दंगों के रूप में निकला।

शायद दंगों, आगजनी, हत्या और सांप्रदायिक मनमुटाव से बचा जा सकता था और अभी भी वक्त है कि आगे भविष्य में ऐसी किसी घटना को दोहराने से रोका जा सके, अगर सरकार यह सच कह दे कि इस कानून से उन गैर मुस्लिमों  को नागरिकता इसलिए दी जा रही है क्योंकि वे कहीं और नहीं जा सकते और इस प्रक्रिया में उन्हें सत्तारूढ़ दल अपना वोट बैंक भी  बनाना चाहता है ।


अगर सरकार यह भी कह दे कि उन मुस्लिमों को भी नागरिकता दी जा सकती है जिनका वापिस जाना मुमकिन नहीं है तो न केवल बात बन जाएगी बल्कि वे भी उसका वोट बैंक बन सकते हैं।

होना यह चाहिए कि जो असली घुसपैठिए, आतंकवादी और देश विरोधी गतिविधियों में लिप्त हैं  उनकी पहचान करने की कार्यवाही शुरू कर गिरफ्तारी और सजा दी जाए  और कहा जाए कि  इसका आधार कोई धर्म विशेष नहीं होगा बल्कि ऐसे लोग किसी भी धर्म के हो, उन्हें बख्शा नहीं जाएगा।


वोट बैंक की राजनीति

इसी तरह विरोध करने वाले दल यह सच कह दें कि उन्होंने इन मुस्लिम देशों से आए लोगों को अपना वोट बैंक बना लिया है और उन्हें आधार, वोटिंग, राशन कार्ड दे दिया है, इसलिए वे इस कानून का विरोध कर रहे हैं क्योंकि इसके लागू होने से इन सब मुस्लिमों जिन्हें रोहिंग्या या कुछ और कहा जाता है, को वापिस अपने देशों में जाना होगा और उन दलों का वोट बैंक बिखर जाएगा।

जो लोग जनगणना तक के लिए कागज न दिखाने की बात कह रहे हैं, वे इसलिए है कि उनके पास जरूरी कागज है ही नहीं तो दिखाएंगे क्या, उनका भारत में रहना संभव नहीं है। जो नेता उन मुस्लिमों से भी कागज न दिखाने की बात कह रहे हैं , जिनके पास सभी वैध कागजात हैं, सिर्फ  अपना उल्लू सीधा करना चाहते हैं। जो मुस्लिम उनकी चाल समझ रहे हैं, वे उनका साथ नहीं दे रहे, इसलिए ये लोग महिलाओं और बच्चों को आगे रखकर अपनी कुटिल चाल चल रहे हैं।

सामान्य जनता इस गहराई तक सोच नहीं पाती इसलिए वह इनके बहकावे में आकर धरना, आंदोलन और हिंसा तक कर रहे हैं।

हो सकता है कि अगर यह सत्य उन्हें समझाया जाए और वे अपनी बेबुनियाद जिद छोड़ने को मान जाएं तथा किसी के कहने में न आकर वास्तविकता समझें तो महीनों से चला आ रहा गतिरोध समाप्त हो जाए। पता नहीं किस आधार पर सुप्रीम कोर्ट द्वारा नियुक्त पैरोकारों ने यह बात उनसे छिपाई और केवल सड़क खाली करने की बात कही। सच बता देते तो हो सकता है, कामयाब हो जाते।

सरकारी व्यापार का सच

एक और सच बताते हैं । भारत सरकार का कानून है और  जिसे बहुत से देशों ने अपने यहां से हटा दिया है कि किसी भी सौदे में कमिशन का लेनदेन नहीं हो सकता जबकि सत्य यह है कि कोई भी सौदा बिना कमीशन के तय नहीं होता, उसका नाम चाहे कुछ भी रख लें पर यह होता ही है।

सरकार अगर तय कर दे कि इतने प्रतिशत कमीशन का लेनदेन कानूनी है तो न सिर्फ सौदे सस्ते होने लगेंगे बल्कि माल भी अच्छा मिलेगा क्योंकि सब कुछ पारदर्शी रखने की मजबूरी होगी वरना व्यापार नहीं होगा। यही नहीं नेताओं और अधिकारियों को घोटाले, स्कैम या धांधली नहीं करनी पड़ेगी।

इसे इस उदाहरण से समझा जा सकता है कि जब देश में आयकर 85 प्रतिशत और उससे भी ज्यादा हुआ करता था तो एक समानांतर अर्थव्यवस्था काले धन के रूप में स्थापित हो गई थी जो आजतक गले की हड्डी है। आज आयकर में सहूलियत है तो उन्हें छोड़कर जो  बेईमानी का पल्लू छोड़ने को तैयार नहीं हैं, शेष सब ईमानदारी से टैक्स देने लगे हैं।

इसी तरह समस्या कोई भी हो और उसके हल के लिए योजना या तरकीब कैसी भी हो, अगर सत्य का मार्ग नहीं छोड़ा तो उसका सही समाधान निकलना निश्चित है। यह भी एक सच है चाहे सरकार हो या  परिवार के लोग, यदि सत्य के रास्ते पर चलें तो बहुत सी परेशानियां तो दूर से ही नमस्ते कर लेंगी और समाज शांति से रह सकेगा। 

(भारत)