शुक्रवार, 27 जनवरी 2023
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शनिवार, 21 जनवरी 2023
पहाड़ों की बस्तियों के विनाश के लिए ज़िम्मेदार गुनहगारों को पहचानना है
उत्तराखण्ड के खुबसूरत शहर जोशीमठ में जो हुआ और हो रहा है, इस बात की चेतावनी है कि अगर सही नीति नहीं बनी तो यह विनाशलीला इस बेल्ट के अन्य नगरों में भी देखने को मिल सकती है।
त्रासदी की शुरुआत
यह सिलसिला समय पर ठोस कार्यवाही किए बिना रुकने वाला नहीं है। इसकी चपेट में टिहरी, उत्तरकाशी, पौड़ी, रुद्रप्रयाग, पिथौरागढ़, नैनीताल की बस्तियाँ आ सकती हैं। हिमाचल प्रदेश में भी दस्तक हुई थी लेकिन वहाँ सरकार ने जो फ़ौरी कदम उठाये, उससे स्थिति क़ाबू से बाहर नहीं हुई लेकिन ख़तरा वहाँ भी है। ज़रूरी है कि केंद्रीय और राज्य सरकारें इसे गंभीरता से लें, स्थानीय आबादी की बात सुनें और पर्यावरण बचाने की मुहिम में लगे लोगों को आंदोलनकारी न मानकर उनका सहयोग और समर्थन लें।
इसी के साथ वैज्ञानिकों की भूमिका भी महत्वपूर्ण हो जाती है। देखने में आता है कि उनसे खोजबीन करने को कहा तो जाता है लेकिन उनके सुझावों को दरकिनार करने और विकसित की गई टेक्नोलॉजी का इस्तेमाल न होने से हालात बद से बदतर होते जाते हैं। यह कोई डराने की बात नहीं है क्योंकि प्रकृति कभी भी अन्यायी नहीं होती और संभलने का वक़्त देती रहती है। विनाश एकदम नहीं होता, यदि उसकी आहट सुनाई दे और मनुष्य चेते नहीं तो उसकी गति अवश्य बढ़ जाती है।
कुछ वास्तविकताएँ
हिमालय पर्वत शृंखला के बारे में कहा जाता है कि यह अभी नाज़ुक अवस्था में है और शायद इसकी उम्र दुनिया के पर्वतों से बहुत कम है अर्थात् प्रकृति द्वारा इसकी जड़ों को मज़बूती देने और इसके फलने फूलने का काम पूरा नहीं हुआ है। इसलिए इस पर उतना ही बोझ या दबाव डालना चाहिये जिससे यह लड़खड़ाए नहीं और वरदान की जगह श्राप न देने लगे।
उत्तराखण्ड के पहाड़ों के बारे में कहा जाता है कि इसकी मिट्टी रेतीली और भुरभुरी है। रेत और चट्टान से मिलकर बना पहाड़ अक्सर ज़मीन के खिसकने या भू स्खलन का कारण बनता है। इसीलिए यहाँ लैंड स्लाईड होते रहते हैं और जब बारिश होती है तो बाढ़ का रूप लेकर भयंकर तबाही होती है। यह त्रासदी न हो तो ज़रूरी है कि इसके बीच में रुकावट खड़ी की जाए। कुदरत ने यह काम इस पूरे क्षेत्र में पेड़ पौधे लगाकर और उनसे बने वनों का विकास कर पूरा किया। उसे वनस्पति से भर दिया और यह हरित प्रदेश बन गया। इतनी तरह की जड़ी बूटियाँ, औषधियाँ और बेल पत्र तथा जीवनदायी पेड़ों की सौग़ात दी जिससे जीवन निर्बाध गति से चलता रहे।
अब शुरुआत होती है कि किस तरह मनुष्य ने प्रकृति के वरदान को अभिशाप में बदलना शुरू कर दिया। सबसे पहले उसकी निगाह जंगलों पर पड़ी और उसने बिना सोचे समझे अंधाधुंध इन्हें नष्ट करना शुरू कर दिया। पहाड़ नंगे होते गये और वे शिलाखंडों के रूप में लुढ़कने लगे। जंगलों की रुकावट जैसे जैसे हटती गई, वर्षा होने पर पानी के बहाव के साथ ये नीचे नदियों में गिरते रहे और जमा होकर उनका जलस्तर बढ़ने का कारण बने और इस प्रकार बाढ़ आई और अपनी चपेट में सब कुछ ले लिया। इसमें सड़कें, रिहायशी बस्तियाँ और खेत खलिहान सब कुछ आ गया।
नदियों को ख़ाली करने का काम हुआ और उससे जो निकला वह इमारतें बनाने की सामग्री थी। यह सरकार के लिए आमदनी और लोगों को रोज़गार देने का साधन बना। इससे वन विनाश को बढ़ावा मिला वन संरक्षण की बातें हवा हवाई हो गयीं।
उल्लेखनीय है कि यह सब कुछ आज़ादी मिलने के बाद हुआ, विशेषकर साठ के दशक से इसमें बहुत बढ़ौतरी होती गई। जंगलात के ठेकेदार और भवन निर्माता की साँठगाँठ इतनी बढ़ गई कि उनके लालच की कोई सीमा नहीं रही। तब कोई ऐसा कोई विशेष क़ानून भी नहीं था जो इनके कारनामों पर रोक लग पाता और इस तरह यह लूटपाट बढ़ती रही।
इसके साथ पर्यटन की सुविधाएँ बढ़ाने के नाम पर जहां से प्राकृतिक दृश्यों का सौंदर्य दिखाई देता, वहाँ होटल और दूसरी चीज़ें बनने लगीं जिनसे रातोंरात मालामाल हुआ जा सके।
जोशीमठ का हाल यह हुआ कि अपनी लोकेशन की वजह से यह धन कमाने की फैक्ट्री बन गया। कोई नियम तो था नहीं या जो भी था उसका पालन किए बिना बहुमंज़िली इमारतें बनने लगीं। एक नियम का उल्लेख करना आवश्यक है। निर्माण से पहले यहाँ की मिट्टी की जाँच ज़रूरी थी ताकि यह तय हो सके कि उसमें कितनी पकड़ है और वह कितना भार उठा सकती है। इसमें यह भी था कि यहाँ एक मंज़िल से ज़्यादा के निर्माण नहीं हो सकते और वर्षा के पानी की निकासी के लिये नालियाँ बनानी ज़रूरी हैं ताकि जलभराव न हो और यह क्षेत्र सीपेज से मुक्त रहे।
विडंबना यह है कि ज़्यादातर निर्माण कार्यों में इन साधारण से नियमों की अनदेखी की गई और बिना किसी नक़्शे या मंज़ूरी के होटल और रिहायशी इलाक़े बनते गये। इसका एक प्रमाण यह है कि आज जहां दरारों से तबाही हुई है इनमें से आधे बिना किसी नियम के बने हैं और वे किसी भी सहायता या मुआवज़े के अधिकारी नहीं हैं।
जब बात हाथ से निकलती गई और भविष्य में किसी ज़बरदस्त त्रासदी के आसार दिखाई देने लगे तो अब से लगभग पचास साल पहले एक समिति बना दी जिसकी रिपोर्ट आजतक धूल चाट रही है। इसका परिणाम यह हुआ कि आज यहाँ की पूरी आबादी के सामने अपना सिर छिपाने की जगह का संकट है, किसी रोज़गार या रोज़ी रोटी का साधन न होने से अधिकांश लोग विस्थापित हो चुके हैं। अपने नाते रिश्तेदारों के यहाँ कब तक आश्रय ले सकते हैं, जीवन की आवश्यक सुविधाएँ नहीं हैं और मज़े की बात यह कि केवल बयानबाज़ी के कोई ठोस कदम उठता नहीं दिख रहा। शायद किसी दूसरे नगर में इस तरह की एक और घटना होने का इंतज़ार है।
यह सही है कि विकास के नज़रिए से यहाँ हाइड्रो प्लांट लगने चाहिएँ लेकिन ऐसे नहीं कि कुछ साल पहले की तबाही में हज़ारों करोड़ की पूँजी वाला पूरा संयंत्र ही बह जाए। आज तपोवन विष्णुगढ़ प्रोजेक्ट का अस्तित्व ख़तरे में इसलिए है क्योंकि प्राकृतिक नियमों की अनदेखी की गई और मनुष्य द्वारा अपने लाभ के लिए बनाये गये नियमों का पालन किया गया। इसमें सबसे बड़ा कारण पेड़ों की कटाई और पानी की धारा को अपने हिसाब से मोड़ने का प्रयास था। विस्फोट से ब्लासिं्टग करना दूसरा कारण है लेकिन उसके बिना पहाड़ में सुरंगं नहीं बन सकती। टर्बाइन और दूसरे भारी उपकरण लगने और उनके संचालन से पैदा होने वाले कंपन का असर पर्वत पर पड़ना स्वाभाविक है। इसके बिना बिजली नहीं बन सकती।
इन परिस्थितियों में यह हो नहीं सकता कि विकास के कामों को रोक दिया जाए लेकिन इतना तो किया ही जा सकता है कि कुदरत से छेड़छाड़ करने के स्थान पर उसका सहयोग लिया जाए।
उत्तराखण्ड को देव भूमि कहा जाता है लेकिन लोभ लालच की राक्षसी प्रवृत्ति ने यहाँ के सभी सौंदर्य तथा पर्यटक स्थलों पर अपनी काली छाया डालनी शुरू कर दी है। हिमालय के ग्लेशियर पिघल रहे हैं जो जलवायु परिवर्तन का संकेत है। इसलिए यह समस्या केवल घरों में दरारें पड़ने की नहीं हैं बल्कि प्रकृति के साथ तालमेल रखकर कदम उठाने की है। ऐसा करना कोई अधिक कठिन भी नहीं है बशर्ते कि कुछेक साधारण कदम उठा लिए जायें जैसे कि; वन विनाश नहीं वन संरक्षण सुनिश्चित किया जाए। ज़रूरत से ज़्यादा और नियमों का उल्लंघन कर पेड़ काटने वालों को कठोर दंड जो आजीवन कारावास भी हो सकता है, दिया जाए।
पर्यटन पर नियंत्रण इस तरह से हो कि एक समय में निश्चित संख्या से अधिक पर्यटक उस स्थान पर न जा सकें।
सड़कों का निर्माण मैटेलिक तकनीक से हो ताकि वे बारिश में बह न जायें। अक्सर पहाड़ों पर टूटी सड़कों के कारण यातायात रुक जाता है जिससे केवल तब ही बचा जा सकता है जब उनका निर्माण, रखरखाव और मरम्मत आधुनिक तकनीक से हो।
ज़मीन से नियमों से अधिक पानी निकालने पर प्रतिबंध हो। असल में अंडरग्राउंड वाटर सतह से नीचे पहाड़ियों की चट्टानों को आपस में टकराने से रोकता है। यदि ज़्यादा पानी खींच लिया तो यह चट्टानें टकराने से सतह पर तबाही मचा सकती हैं।
वन संपदा के दोहन और शोषण पर नियंत्रण हो ताकि वनवासियों की आजीविका और उनके रहन सहन पर असर न पड़े। उनके स्वास्थ्य की देखभाल और शिक्षा का प्रबंध हो जिससे वे समाज की मुख्यधारा में आसानी से सम्मिलित हो सकें।
यदि भविष्य में जोशीमठ जैसी किसी दर्दनाक घटना को होने से रोकना है तो उसके लिए केंद्र और राज्य की सरकारों को मिलजुलकर स्थानीय जनता की भलाई को ध्यान में रखकर काम करना होगा।
एक सामान्य व्यक्ति के लिए जंगलों और पहाड़ों की भाषा समझना ज़रूरी है। इसके लिए यदि इच्छा हो तो कुछ समय एक सैलानी की तरह वनों से मित्रता करने के लिए वहाँ जाना चाहिए।
शुक्रवार, 6 जनवरी 2023
राजनीति से मुक्ति मिलने पर ही विज्ञान और वैज्ञानिक सोच संभव
हमारे देश में जब तब राजनीतिज्ञ जिसमें मंत्री, मुख्य मंत्री और प्रधानमंत्री तथा राज्यपालों से लेकर राष्ट्रपति तक ज़्यादातर रस्म अदायगी की तरह और बहुत कम वास्तविकता को समझकर बयानबाज़ी करते रहते हैं। लेकिन इससे न तो विज्ञान का भला होता है, न ही वैज्ञानिक सोच बन पाती है। यही नहीं कथनी और करनी में इतना अंतर होता है कि वैज्ञानिक अगर इन पर भरोसा कर ले तो अपनी मंज़िल पाने में उसे अनंत काल तक प्रतीक्षा करनी पड़ सकती है।
वैज्ञानिक प्रयोगशाला
प्रधानमंत्री का यह वक्तव्य या कहें कि उनका सपना भारत को इस सदी में विश्व की सबसे आधुनिक वैज्ञानिक प्रयोगशाला के रूप में देखने का है तो इस पर प्रत्येक भारतवासी को गर्व होना स्वाभाविक है। यदि वे इसके साथ ही वैज्ञानिकों के साथ नौकरशाही यानी ब्यूरोक्रैट्स द्वारा किए जाने वाले भेदभाव, लालफ़ीताशाही और उनकी ज़रूरतें पूरी करने में जानबूझकर या लेटलतीफ़ी के कारण देरी न होने देने के बारे में कुछ बंदोबस्त करते तो बेहतर होता।
क्योंकि विज्ञान से संबंधित फ़िल्में तथा रेडियो कार्यक्रम बनाने का काफ़ी अनुभव रहा है तो कुछ ऐसे उदाहरणों से बात समझने में आसानी होगी। दक्षिण भारत की एक बड़ी विज्ञान प्रयोगशाला में शरीर के तन्तुओं पर गहन शोध करने के लिए महिला वैज्ञानिक ने प्रस्ताव दिया कि आगे की खोज जर्मनी में उपलब्ध संसाधनों से ही हो सकती है इसलिए उसे आवश्यक सुविधाएँ दी जायें। आश्चर्य होगा कि इसके इंतज़ार में तीन साल बीत गये। तब ही ऑस्ट्रेलिया के एक संस्थान से उसे न्यौता मिला कि उसे वे सब सुविधाएँ तुरंत मिलेंगी अगर वे उनके लिये अनुसंधान करें। उसने स्वीकृति दी और अपनी मंज़िल पाई लेकिन उसका लाभ दूसरे देश को मिला।
एक प्रसिद्ध लेबोरेटरी में एक वैज्ञानिक सरकारी छात्रवृत्ति पर जर्मनी गये और वहाँ से जब आये तो अपने क्षेत्र में बहुत कुछ नया करने की इच्छा और जोश के साथ सरकार को प्रस्ताव दिया और उसके लिये संसाधन उपलब्ध कराने का प्निवेदन किया। फ़ाइलों की उठापटक और बेमतलब के सवाल जवाब तथा अनेक अनावश्यक स्पष्टीकरण में चार साल बीत गये। वैज्ञानिक महोदय निराश होकर शांत बैठ गये और रिटायर होने का इंतज़ार करने लगे। नौकरी छोड़कर विदेश जाकर अपनी खोज को आगे बढ़ाने का निर्णय भी उनके लिए एक विकल्प था लेकिन उसका लाभ किसी अन्य देश को मिलता, इसलिए उन्होंने अपना सपना अधूरा ही रहने दिया।
सरकारी प्रयोगशालाओं में काम कर रहे हमारे वैज्ञानिकों से अपनी खोज या किसी नयी टेक्नोलॉजी का विकास करने पर यह अपेक्षा की जाती है कि वे उसके बेचने का काम यानी मार्केटिंग भी करें। क्योंकि बेचने की कला उन्हें नहीं आती इसलिए ज़्यादातर टेक्नोलॉजी अलमारी में बंद होकर और समय के साथ उनमें बदलाव न होने के कारण किसी इस्तेमाल की नहीं रहतीं, पुरानी पड़ जाती हैं।
यह भी उम्मीद की जाती है कि जो ग्राहक अर्थात् टेक्नोलॉजी ख़रीदने और उससे अपना व्यापार या उद्योग विकसित करने वाला उद्यमी है, वह इनके पास जाये और यदि ख़रीदने का मन बनाये तो उसे उस तक पहुँचने यानी डिलीवरी होने में बरसों लग जाते हैं। इसीलिए उद्योगपति सरकारी प्रयोगशालाओं को ज़्यादा महत्व न देते हुए, जबकि उनमें अधिक संभावनाएँ होती हैं, निजी प्रयोगशालाओं से टेक्नोलॉजी लेने में अधिक रुचि दिखाते हैं।
असल में क्या है कि आज़ादी का अमृत महोत्सव आने तक भी सरकारी कामकाज़ में अंग्रेज़ी शासन की दासता समाप्त नहीं हो पाई है। अंग्रेज़ ने भारत में केवल उतने वैज्ञानिक विकास को महत्व दिया था जिससे उनकी ज़रूरतें पूरी हों और वे अपने देश में उनका व्यापारिक और औद्योगिक विकास कर सकें और फिर ज़बरदस्त मुनाफ़े तथा मुँहमाँगे दाम पर हमें और दूसरों को बेचें। इसका मतलब है कि दिमाग़ और कौशल हमारा और फ़ायदा उनका होता था। आज भी बहुत कुछ अपने बदले स्वरूप में जिसे ब्रेन ड्रेन कहते हैं, यही होता है।हमारी यही विडंबना है कि हमारे वैज्ञानिक विदेशों को मालामाल कर रहे हैं क्योंके हमारे यहाँ उनकी बात ध्यान से सुनने तक की फ़ुरसत नहीं, संसाधन उपलब्ध कराने की बात तो बहुत दूर की है।
किसी से कम नहीं पर विवश हैं
हमारे देश में प्रतिभा, कौशल, वैज्ञानिक सोच और स्वदेशी संसाधनों की कोई कमी नहीं हैं। कृषि क्षेत्र में हमारे वैज्ञानिकों ने हरित क्रांति की, स्वराज जैसे कम लागत के ट्रेक्टर का निर्माण किया, खेतीबाड़ी में आधुनिक मशीनों के इस्तेमाल को बढ़ावा दिया। लेकिन यहाँ भी इंपोर्टेड या विदेशी तकनीक ने हमारा पीछा नहीं छोड़ा। भैंस के दूध से फैट अलग कर बेबी मिल्क पाउडर हमने ही बनाया वरना तो इसके लिए भी निर्भर थे।
चमड़ा उद्योग पचास लाख लोगों को रोज़गार देता है, जो कभी कच्चे माल के रूप में अग्रेज़ ले जाते थे, आज यूरोप की फैशन इंडस्ट्री को टक्कर दे रहा है। एक खोज जिसने चुनावों का ढर्रा ही बदल दिया, जो मतदान के समय लगाई जाने वाली स्याही और इलेक्ट्रिक वोटिंग मशीन है। इसी तरह स्वास्थ्य, चिकित्सा और बीमारियों की रोकथाम के लिये आधुनिक दवाईयों का निर्माण भी हमने किया है और वह भी घोर विदेशी कम्पटीशन के होते हुए। अणु विज्ञान में हम बहुत आगे हैं अंतरिक्ष में एक से बढ़कर एक कुलाँचें भर रहे हैं। जहां तक ऊर्जा की बात है तो उसमें भी हमने सोलर ग्रिड की खोज से सब को चैंकाया है।
हमारे वैज्ञानिकों और अनुसंधान में लगे कर्मियों ने सीमित साधनों के बावजूद कमाल किए हैं। ज़रा सोचिए कि यदि समय पर सही सहायता मिलती और राजनीतिज्ञ अपनी पीठ थपथपाने के बजाय इन्हें पूरा श्रेय देते तो हम जहां हैं उससे बहुत आगे होते। हमारे सामने पीने के पानी की समस्या नहीं होती, नदियों में प्रदूषण नहीं घुलता और हवा में धुएँ के कारण फ़ेफ़डे ख़राब न होते। शहरों में गंदगी और कूड़े के ढेर नहीं होते, बदबू न होती और रिहायशी इलाक़ों में गंदे नालों को सहन न करना पड़ता।
यह सब बदल सकता है पर इसके लिए ज़रूरी राजनीतिक इच्छाशक्ति, समय नष्ट किए बिना वैज्ञानिकों को समुचित संसाधनों की पूर्ति और जनता का सहयोग तथा सरकार की संकल्प शक्ति अपेक्षित है। अगर यह हो जाए तब ही प्रधान मंत्री का निश्चय सार्थक हो पाएगा अन्यथा दुनिया बहुत आगे निकल जाएगी और हम देखते रहेंगे।