शुक्रवार, 21 जून 2019

महिला सशक्तिकरण सीमित परिवार, शिक्षा और बराबरी से ही सम्भव है








मलिंडा गेट्स 


विश्व के सबसे धनी परिवार और अपने उद्यम, सोच और दानशीलता के लिए प्रसिद्ध बिल और मलिंडा गेट्स की छाप आज दुनिया भर में उनके विभिन्न कार्यों के माध्यम से देखी जा सकती है।

मलिंडा गेट्स दुनियाभर में समाज के लिए उपयोगी कार्यक्रमों के लिए जानी जाती हैं। हाल ही में उनकी पुस्तक ‘द मोमेंट ऑफ लिफ्ट‘ पढ़ी जिसमें उनके द्वारा किए गए कार्यों का संक्षिप्त लेखा जोखा तो है ही, परंतु उससे भी अधिक समाज में महिलाओं की सोच बदलने और उन्हें स्वयं को पहचान कर अपनी उपस्थिति का एहसास कराने की बात बड़ी मजबूती से रखने का एक प्रमाणित दस्तावेज है।


इस पठनीय पुस्तक में उन्होंने संसार भर के विकासशील और गरीबी से लड़ रहे  देशों में महिलाओं की हालत का जायजा तो लिया ही है, साथ ही वह वहाँ उनकी हालत  में सुधार लाने की दृष्टि से जो कुछ भी अपनी फाउंडेशन तथा व्यक्तिगत रूप से कर सकती हैं, उसकी रूपरेखा तैयार करने से लेकर उन्हें अमली जामा पहनाने का भी महत्वपूर्ण कार्य किया है।यह जानकर सुखद आश्चर्य होता है कि एक धनवान व्यक्ति एक गरीब और जिंदगी तथा समाज के सबसे निचले पायदान पर खड़ी महिला के दर्द और तकलीफ को न केवल महसूस कर पाता है बल्कि उसे हाथ पकड़ कर ऊपर लाने की कोशिश करता है और उसमें कामयाब भी होता है।



महिला की मर्जी जरूरी


भारत के संदर्भ में इस किताब में अनेक ऐसी कहानियाँ हैं जो हमारी बदलती दुनिया का आइना हैं और यह बात सिद्ध करती हैं कि अगर महिला को ताकतवर बनाना है तो सबसे पहली शर्त उसे पुरुष की मर्जी से नहीं बल्कि अपनी पहल पर संतान को जन्म देने का अधिकार मिलना है, उसके बाद उसके पढ़ने लिखने और अपनी इच्छा से जो वह चाहे करने की इजाजत पुरुष से लेने की जरूरत न हो।


मलिंडा ने अपनी माँ की बात को अपने जीवन का मूल मंत्र बना लिया कि ‘अगर आप अपना अजेंडा खुद नहीं बनाते तो कोई और तय कर देगा कि क्या करना है और क्या नहीं करना है। अगर मैं अपने अजेंडा में उन चीजों को शामिल नहीं करती जो मेरे लिए जरूरी हैं तो दूसरे लोग मेरे लिए वह सब तय कर देंगे जो वे जरूरी समझते हैं‘। इस अवस्था में पुरुष केवल अपना स्वार्थ और फायदा ही देखेगा, यह बात सदियों से चली आ रही है और महिलाओं के पिछड़ेपन, दब्बू बने रहने और मर्द के इशारे पर ही कुछ करने या न करने की कुप्रथा दशकों तथा सदियों से चली आ रही है।


एक उदाहरण है : कानपुर जिले के एक गाँव की बहुत ही गरीब बेटी जिसका नाम सोना है, जब वह दस साल की थी तो उसने जिद पकड़ ली कि उसे पढ़ना है और शिक्षक चाहिए। जब यह बात उसने मलिंडा से कही तो उन्हें लगा कि इस बच्ची ने तो उन्हें झकझोर कर रख दिया और यह कि उससे उन्हें सीखने की जरूरत है।


अनेक विरोधों के बावजूद वह अपनी बात पर कायम रही । जहाँ वह रहती थी, वह सरकारी रिकार्ड में गैर कानूनी होने के कारण सभी सरकारी सुविधाओं से वंचित जगह थी। सोना का कहना था कि उसे आगे बढ़ने के लिए मदद करो, चाहे कुछ भी करो। मलिंडा और उनके सहयोगियों के प्रयास से जगह नियमित हुई, स्कूल और सभी सरकारी सुविधाएँ मिलने का रास्ता साफ हुआ, पूरी बस्ती का कायाकल्प हो गया।



इस बदलाव के पीछे की कहानी यह है कि पहले औरतों ने तय किया कि वे संतान को जन्म तब ही देंगी जब वह उसकी जरूरत समझेंगी और तब तक गर्भ निरोधक और अन्य तरीकों के इस्तेमाल से गर्भधारण नहीं करेंगी जब तक संतान के पालन पोषण, शिक्षा और आगे बढ़ने के समुचित साधन उपलब्ध नहीं हो जाएँगे।



हमारे देश की सबसे बड़ी समस्या यह है कि गरीबी, भुखमरी, बीमारी का मूल कारण जनसंख्या को बढ़ने से रोकने के लिए किए जाने वाले उपायों को आधे अधूरे तरीकों से लागू करना है। यह उपाय फेल होने का कारण यही है कि स्त्री को न तो अपनी मर्जी से संतान को जन्म देने का अधिकार है और न ही पुरुष द्वारा गर्भनिरोधक इस्तेमाल करने की अनिवार्यता है। नतीजा यही होता है कि आबादी बढ़ने पर कोई अंकुश नहीं लगता और जितने भी संसाधन तैयार होते हैं, वे लगातार कम पड़ते जाते हैं।



इसे इस उदाहरण से समझा जा सकता है। इन दिनों बिहार और कुछेक अन्य स्थानों से चिकित्सा सुविधाओं के अभाव और साफ सफाई के प्रति उदासीनता के कारण बच्चों को हो रही बीमारी से होने वाली मौतों का आँकड़ा बढ़ता जा रहा है। क्या यह सच्चाई नहीं है कि जिस तरह से आबादी बढ़ी, उसकी तुलना में चिकित्सा सुविधाओं का विस्तार न हो पाना है?



अस्पताल में डॉक्टर और नर्स, शिक्षा संस्थाओं में शिक्षक उस संख्या में तैयार नहीं हो पाते जिस तादाद में आबादी बढ़ रही है। ऐसे में पूरा सिस्टम चरमरायेगा नहीं तो क्या होगा और इसका कारण आबादी पर नियंत्रण न होना नहीं है तो और क्या है? जरा सोचिए ! बिना सोचे समझे संतान उत्पन्न करना एक तरह से पूरे सिस्टम को अव्यवस्थित करने की पहल करने में अपनी आहुति देना है।



महिलाओं को न केवल गर्भवती होने के समय का चुनाव करने की आजादी होनी चाहिए, बल्कि यह भी कि प्रसव से पहले और बाद में मिलने वाली सुविधाओं को हासिल करने का भी अधिकार होना चाहिए।


लेखिका ने इस किताब में भारत में महिलाओं द्वारा स्वयं सहायता समूहों के जरिए एक दूसरे को ताकतवर बनाने का जिक्र करते हुए कहा है कि इनकी सफलता के पीछे यही है कि महिलाएँ यहाँ आकर एक दूसरे से बात करती हैं, अपने सुख दुःख साँझा करती हैं और आत्मनिर्भर बनने के उपायों पर चर्चा ही नहीं करतीं, बल्कि उन पर अमल भी करती हैं। वे जो कमाती हैं, उसे अपने ऊपर खर्च करने की आदत हो रही है और परिवार में अपनी हैसियत और पहचान के साथ पुरुष प्रधान परिवार में अपनी उपस्थिति दर्ज कराने में सफल हो रहीं हैं।



स्त्री का अनादर 


क्या कारण है कि एक पुत्र के रूप में जिस माता का अपनी शिशु अवस्था में वह स्तनपान करता है और किसी तरह के अनादर की भावना उसमें नहीं होती, वही पुत्र बड़ा होकर उसका अपमान करने से भी नहीं चूकता।


लेखिका का मत है कि इसका कारण पुरुषों द्वारा बनाए गए धार्मिक नियम और परम्पराएँ हैं जो उसके बड़ा होने तक उसके अंदर महिलाओं का सम्मान न करने और उन्हें अपने हाथ का खिलौना बनाए रखने की भावना को मजबूत करती रहती हैं। पुरुष और स्त्री या लड़के और लड़की के बीच भेदभाव करने की गलत सोच के बढ़ने का भी यही आधार है। महिलाओं को जीवन भर इस लांछन को ढोना पड़ता है कि उन्हें नजरें नीची रखनी हैं,


पुरुष की कही हर बात उनके लिए पत्थर की लकीर है, अपना शारीरिक और मानसिक शोषण होने पर भी चुप रहना है और घर से बाहर कदम तक नहीं रखना है चाहे अपने बीमार बच्चे को डॉक्टर के पास ही ले जाना हो। यहाँ तक कि यदि घर के मर्द उसकी बेटी को वेश्या बनाने के लिए सौदा कर रहे हों, तब भी उसे चुप रहना है।
लेखिका ने अनेक ऐसी समस्याओं को उजागर करने के साथ साथ उनका समाधान भी देने का प्रयास किया है जो भारत ही नहीं, सभी  विकासशील और गरीबी के चंगुल में फँसे देशों में आम तौर से देखी जा सकती हैं, जैसे कि बाल विवाह, दहेज, यौन उत्पीड़न, बिना वेतन के मजदूरी और महिलाओं को अपने को हीन भावना से ग्रस्त रखे रहने की पुरुष मानसिकता।



महिला सशक्तिकरण के लिए बनाए गए कार्यक्रमों और नीतियों के असफल रहने का सबसे बड़ा कारण यह है कि इन्हें बनाने और अमल में लाने का जिम्मा पुरुष को दे दिया जाता है जो औरत की तरह न तो सोच सकता है और न ही उसमें उनकी भावनाओं को समझने की बुद्धि होती है और जरूरी संवेदनाओं का नितांत अभाव होता है। इसके पीछे यही सोच होती है कि न तो महिलायें इतनी सक्षम होती हैं कि वे नीतियाँ बना सकें और न ही वे उनके लिए जरूरी साधन जुटा सकती हैं।



लेखिका ने अपनी पुस्तक में न केवल इस बात को पूरी तरह  सिद्ध किया है कि महिलाओं में निर्णय लेने और सफलतापूर्वक किसी भी काम को पूरा करना करने की अपूर्व क्षमता होती है बल्कि यह भी कि वे किसी भी परिस्थिति में पुरुषों से अधिक बेहतर नेतृत्व दे सकती हैं। इसका उदाहरण स्वयं उन्होंने अपने और अपने पति के बीच बराबरी के व्यावसायिक सम्बन्धों और पारिवारिक निर्णयों का उल्लेख कर दिया है।



यह पुस्तक पुरुष और स्त्री के व्यवहार को लेकर अनेक तथ्यों को उजागर करने का काम करती है और इसे पढ़ने में पाठक की रुचि बराबर बनाए रखने में सक्षम है, विशेषकर भारत के सम्बंध में वर्णित अनेक घटनाओं को सच्चाई के साथ पेश करने में। यह पुस्तक स्वागत योग्य और इतनी लयपूर्ण है कि शुरू से अंत तक कहीं बोरियत नहीं होती।


शुक्रवार, 14 जून 2019

कृषि, उद्योग, शिक्षा और स्वरोजगार बजट का मूल मंत्र होना चाहिए








वित्त मंत्री ने जनता से पूछा है कि वह बजट कैसा बनायें। यह मात्र औपचारिकता है क्योंकि एक तो सरकार के मंत्रियों अधिकारियों और बाबुओं तक की रुचि ज्यादातर केवल अंग्रेजी भाषा में प्रकाशित अखबारों में छपे लेखों और सम्पादकीय टिप्पणियों में होती है और भाषाई समाचार पत्रों पर नजर डालने की उनकी कोई इच्छा नहीं होती, दूसरी बात यह कि उद्योग और व्यापार करने वालों के संगठनों को सरकार ज्यादा महत्व देती है 


क्योंकि वे संगठित तो होते ही है, साथ में सरकारी नीतियों और निर्णयों पर अपनी छाप डालने में माहिर होते हैं। इसीलिए अधिकतर योजनाएँ केवल एक वर्ग अर्थात सम्पन्न और प्रभावशाली लोगों तक ही सीमित रह जाती हैं और उनके बीच ही इन योजनाओं की बंदरबाँट हो जाती है। सामान्य नागरिक के हिस्से में वही कुछ आता है जो इन लोगों के या तो किसी इस्तेमाल का नहीं होता या फिर इनके द्वारा लाभ लेने के बाद छीजन के रूप में बच जाता है।

असल में सरकार की योजनाएँ और उनके लिए बजट बनाने की प्रक्रिया अपनाते समय हालाँकि कहा यही जाता है  कि सामान्य नागरिक के हित को ध्यान में रखकर ही इसका प्रारूप तैयार किया गया है लेकिन उसका तानाबाना इतना पेचीदा होता है कि लाभ केवल उच्च वर्ग को ही मिलता है। खैर, जो भी हो वित्त मंत्री के लिए कुछ सुझाव हैं जो एक पत्र के रूप में प्रस्तुत हैं

माननीय वित्त मंत्री, 

किसान और युवा शक्ति को लेकर सरकार हर बार किसानों की दुर्दशा और युवाओं की बेरोजगारी का रोना रोते हुए बजट में खैरात के रूप में कुछ टुकड़े उनकी तरफ उछाल देती है तो सबसे पहले किसान को दी जाने वाली किसी भी सब्सिडी को बंद कर उसके स्थान पर उन्हें लगभग मुफ्त में कृषि कर्म के लिए कुछेक मूल सुविधाएँ प्रदान कर दे।

सबसे पहले बिजली देने का प्रबंध कर दे ताकि वे अपने खेतों में सिंचाई और दूसरी जरूरतों को पूरा कर सकें। 

सरकार को बजट में यह प्रावधान करने की जरूरत है । कृषि क्षेत्रों में ऊर्जा की पूर्ति थर्मल या हाइड्रो प्लांट से करने के बजाय सौर, पवन और बायोमास ऊर्जा उत्पादन के प्लांट लगाने की विशाल योजना बनाई जाए जिसका पूरा खर्च सरकार उठाए और उससे पैदा होने वाली बिजली बिना किसी प्रकार के शुल्क के किसान को दी जाए। ये ऊर्जा प्लांट शुरू कर दिए जाने के बाद इन्हें ग्राम, ब्लाक और जिला पंचायत को उनकी क्षमता के अनुसार संचालित करने के लिए सौंप दिए जाए, उनके रखरखाव का खर्च पंचायत उठाए और बिजली के वितरण की जिम्मेदारी एक सहकारी संस्था को दी जाए जो किसान और पढ़े लिखे ग्रामवासियों को शामिल कर बनाई गयी हो। उसका ऑडिट हो और पारदर्शिता का पालन हो।

विकसित देशों में कृषि कार्यों के लिए सौर, पवन और बायोमास ऊर्जा का प्रयोग सफल रहा है और अनेक देशों में तो खेतीबाड़ी के अतिरिक्त अन्य कार्यों के लिए इसी क्लीन एनर्जी के जरिए उद्योग भी चलाए जा रहे हैं। इससे जहाँ बिजली उत्पादन का खर्च न्यूनतम हो गया है वहाँ पर्यावरण के लिए घातक प्रदूषण से भी मुक्ति मिली है। 

इसका कारण यह है कि कोयले, तेल और प्राकृतिक गैस से जितनी ऊर्जा का उत्पादन होता है उतना केवल बीस दिन में सूर्य देवता से मिल जाता है।

इसके बाद आती है सिंचाई की व्यवस्था जिसके लिए किसान आज के आधुनिक युग में भी केवल आसमान की ओर ताकता रहता है, वर्षा हो गयी तो बल्ले बल्ले और न हुई तो सूखे की चपेट से मरने तक की नौबत। सरकार को बजट में इसके लिए समस्त देश के कृषि क्षेत्रों के लिए ऐसे संयंत्र लगाने होंगे जिनसे जल संरक्षण हो सके, तालाब, पोखर और कूप के साथ साथ बड़े जलाशय बनें जिनमे पानी के ठहरने का प्रबंध हो और वर्षा का पानी इनमे जमा होता रहे और एक बूँद भी व्यर्थ न जाए। 

इन संयंत्रों के संचालन के लिए सौर या पवन ऊर्जा का इस्तेमाल हो और इस पानी का वितरण करने के लिए भी कृषि सहकारी समिति बिजली के साथ साथ पानी भी सिंचाई की जरूरत के हिसाब से उसका कोटा बनाकर किसानों को दे। इस तरह पानी की आपूर्ति भी किसान को बिना एक भी पैसा खर्च किए हो जाएगी और उसके खेत कभी सिंचाई के बिना सूखे नहीं रहेंगे। 

इसी तरह खाद, उर्वरक, बीज और कीटनाशक भी किसान को लगभग बिना किसी लागत के देने के लिए बजट में प्रावधान कर दीजिए। 

कृषि उत्पादों की खपत के लिए इन पर आधारित उद्योगों की स्थापना ग्रामीण इलाकों से सटे क्षेत्रों में हो जिनका संचालन भी सौर ऊर्जा से किया जाए। खेत से अनाज, दाल, फल, सब्जी और सभी तरह की दूसरी उपज सीधे इन उद्योगों में प्रासेसिंग के लिए आ जाएँ और फिर देश भर में इनके वितरण की व्यवस्था भी सहकारी समिति के माध्यम से हो। भंडारण के लिए कोल्ड स्टोर हों और इस तरह बिक्री में बिचौलियों की जरूरत न रहे। 

इस तरह पूरा ग्रामीण क्षेत्रफल कृषि उत्पादन, कृषिजनित उद्योग और कृषि व्यापार की एक सम्पूर्ण इकाई बन जाएगा और प्रधान मंत्री का किसानों की आमदनी दुगुना करने का संकल्प भी पूरा हो जाएगा। 

इसे इस प्रकार से समझिए कि जैसे सरकार का दायित्व प्रत्येक गाँव में स्कूल, कस्बे में कॉलेज और जिला तथा राज्य में विश्वविद्यालय खोलने का है , उसी प्रकार किसान और ग्राम तथा वनवासियों को विद्युत शक्ति, खाद की उपलब्धता, सिंचाई के लिए पानी की व्यवस्था, प्रमाणित और उन्नत बीज का वितरण और कीटनाशकों की सुगमता देना भी उसका कर्तव्य ही नहीं बल्कि अनिवार्यता है। 

कांग्रेस और कुछ हद तक आपकी पिछली सरकार ने उन्हें पहले कर्ज और फिर उसकी माफी से ग्रामीण क्षेत्रों में निकम्मेपन को बढ़ावा दिया है। इसकी जगह उसे खेती के लिए मुफ्त संसाधन दे दीजिए और लक्ष्य निर्धारित कर दीजिए कि एक निश्चित अवधि जो तीन से चार साल की हो सकती है, उसके बाद उसे इन सब साधनों की वाजिब कीमत चुकाने होगी।

शिक्षा और स्वरोजगार 

वित्त मंत्री जी यह कहावत सुनिए, ऐसी शिक्षा दीजिए कि रोजगार सुगम हुई जाए, को मूल मंत्र बनाकर सबसे पहले उच्च शिक्षा और व्यावसायिक प्रशिक्षण प्राप्त करने के लिए योग्य विद्यार्थियों को दस से पच्चीस लाख तक का ब्याज मुक्त ऋण चार साल के लिए देने का प्रावधान इस बजट में कर दीजिए। इस अवधि में विद्यार्थी अपने को इस काबिल बना लेगा कि उसके लिए बढ़िया रोजगार करना या नौकरी पाना आसान हो जाए।

जब तक विद्यार्थी चार वर्ष की अवधि समाप्त करे तो उसके सामने रोजगार की कोई समस्या न हो तो इसके लिए आप इस अवधि में ऐसे इंक्युबेशन सेंटर, ट्रेनिंग संस्थान, वेंचर सेंटर और टेक्नॉलोजी संस्थान बनाने या पहले से स्थापित केंद्रों का विस्तार करने के लिए एक मोटी रकम खर्च कीजिए ताकि शिक्षा प्राप्त करने के बाद विद्यार्थी यहाँ आए और अपने अनुसंधान, व्यावसायिक प्रोजेक्ट, मोडयूल और जीवन में जो करना चाहता है उसे अमली जामा पहना सके। यह सुविधा उसे प्राथमिकता के आधार पर एक या दो वर्ष के लिए मिले और उसके लिए केवल उसकी रुचि को ही पैमाना माना जाए और यह सब उसे बिना किसी शुल्क के प्राप्त हो।

इस प्रकार की ठोस व्यवस्था करने का परिणाम चार या पाँच साल बाद देखने को मिलेगा जब यह युवा शक्ति अपने सपनों को साकार करने के लिए सक्षम हो चुकी होगी। उसके पास नौकरी से ज्यादा स्वरोजगार करने के अधिक अवसर होंगे और इस तरह यह सरकार एक ऐसा माहौल बना सकेगी जिसमें युवाओं को न तो बेरोजगारी का सामना करना होगा और न ही अपनी प्रतिभा के सही मूल्याँकन के लिए विदेशों का रूख करने की इच्छा होगी। 

वित्त मंत्री जी, हमारे देश में बेरोजगारी की समस्या इसलिए है क्योंकि युवा न तो रोजगार या नौकरी के काबिल बन पाते हैं और इस तरह अधकचरे शिक्षित बेरोजगार हो जाते हैं और न ही अपना कोई व्यवसाय या स्वरोजगार करने के योग्य बन पाते हैं। सरकार को उन्हें केवल काबिल बनाना है, उसके बाद तो वे आपसे न कुछ माँगेंगे और न ही अपेक्षा रखेंगे। वे स्वावलंबी, आत्मनिर्भर और स्वयं पर विश्वास करने वाली पीढ़ी का नेतृत्व करने के लिए भली भाँति तैयार हो जाएँगे और फिर देखिए किस तरह से देश दिन दूनी और रात चौगुनी तरक्की करता है।

इस बार का बजट किसान और युवाओं को समर्पित कर दीजिए, उसके बाद आपको उनके लिए कुछ करने की जरूरत नहीं रह जाएगी।

वित्त मंत्री जी, एक जरूरी काम यह करना होगा कि इस बजट में आयकर मुक्त आमदनी की सीमा दस लाख कर दीजिए और उसके बाद पंद्रह, बीस और पच्चीस प्रतिशत आयकर के तीन स्लैब बना दीजिए। इसी प्रकार जी एस टी के दो स्लैब जो पाँच और पंद्रह प्रतिशत के हों, उसकी घोषणा कर दीजिए।  वे सभी वस्तुएँ और सेवाएँ जो दैनिक उपयोग की हैं या सामान्य रूप से उनकी जरूरत पड़ती है उन्हें इसके दायरे से मुक्त कर दीजिए।

आशा है आपको यह सुझाव पसंद आएगें और आगामी बजट में इनका समावेश होगा। पाठकों से अनुरोध है कि वे अपने सुझाव मेरे ई मेल पर या सीधे ही  ूूण्उलहवअण्पद पर भेज दें। 


(भारत)

शुक्रवार, 7 जून 2019

वन शक्ति और जल शक्ति से मिल सकता है जीने लायक पर्यावरण











रस्म अदायगी 

हर साल की तरह इस बार भी पाँच जून को पर्यावरण दिवस कुछ वायदों, भाषणों, आयोजनों के साथ गुजर गया, पहले की भाँति बढ़ते ताप, घटते जल स्रोत, गहराते प्रदूषण और जिंदगी जीने के कम होते जा रहे प्राकृतिक संसाधनों को लेकर चिन्ताएँ और आशंकाएँ व्यक्त की गयीं और पुराने आश्वासनों को दोहराने के साथ यह दिन भूतकाल में बदल गया।


अब जरा हकीकत पर नजर डालें। हमारे जंगल जहाँ वातावरण से कार्बन सोखने में माहिर हैं और एक वृक्ष का तीन चौथाई हिस्सा जल से पूर्ण होता है, वहाँ उसे ही अपना अस्तित्व खतरे में लगता है क्योंकि हर साल लाखों हेक्टेयर वन कट जाते हैं और वहाँ की जमीन बंजर होती जाती है। एक ओर देश के लगभग तीस करोड़ लोग जंगलों पर निर्भर हैं, रोजी रोटी और रहने के लिए उस पर निर्भर हैं, दूसरी ओर भयंकर आग उन्हें तेजी से भस्म करती जा रही है। ऐसा कोई साल नहीं बीतता जब अग्नि का प्रकोप जंगलों को नहीं लीलता।


देश के एक चौथाई हिस्से को वनों से घिरा माना जाता है, विडम्बना यह है कि इसमें से आधे विनाश के कगार पर पहुँच चुके है और आधे ठीकठाक घने जंगल हैं। इसका क्या नतीजा देखने को मिल रहा है उसे समझने के लिए यह जानना होगा कि आखिर यह पौधे करते क्या हैं जिन्हें लगाने और बचाने के लिए दुनिया भर में इतनी हायतोबा मची रहती है। यह जो पेड़ पौधे हैं, वे पानी, कार्बन और दूसरे रसायन धरती और वायु को देते हैं और चारों ओर फैली वनस्पति दूर से मौसम पर नियंत्रण रखते हुए हम तक साँस लेने के लिए शुद्ध हवा और पीने के लिए विभिन्न स्रोतों से साफ पानी पहुँचाते रहते हैं।


वन शक्ति 

वनों की इस महत्ता को जिन लोगों ने समझा वे अपनी जान की बाजी लगाकर भी इनकी रक्षा और पालन पोषण करते हैं। चलिए आपको 19 जनवरी, 2019 को 96 वर्ष की आयु में मृत्यु को प्राप्त हुए एक ऐसे व्यक्ति के बारे में बताते हैं जिन्हें वृक्ष मानव के नाम से पुकारा जाता था। ये थे विश्वेश्वर दत्त सकलानी जो टिहरी गढ़वाल के एक गाँव में पैदा हुए और आठ साल की उम्र से ही ऐसी धुन सवार हुई कि पेड़ लगाने शुरू कर दिए और जीवन में पचास लाख से ज्यादा पेड़ लगाए।


कई बार गाँव वालों से झगड़ा भी हुआ क्योंकि कुछ लोगों ने समझा कि ये इस तरह जमीन को कब्जाना चाहते हैं लेकिन यह अपनी धुन के पक्के होने से पेड़ लगाने और उनकी सेवा करने के काम में लगे रहे। ओक, देवदार, भीमल और चौड़े पत्तों वाले पेड़ लगाते थे जो आज इस प्रदेश की अनमोल वन सम्पदा है, लेकिन इसी उत्तराखंड में वनों को आग से बचाने के लिए न तो पर्याप्त साधन हैं और न ही इसके लिए कोई सार्थक और दूरगामी योजना है जिससे वन संरक्षण हो सके।


यह बात मैं इसलिए कह रहा हूँ क्योंकि वन विभाग के लिए कुछ समय पहले फिल्म बनाते समय स्वयं वनों की दुर्दशा देखी है। जब कभी किसी पेड़ कटने का दृश्य सामने आता है तो सुंदर लाल बहुगुणा की याद आ जाती है जो पेड़ से लिपट जाते थे और बाद में चिपको आन्दोलन के सूत्रधार बने। हमारे देश में वनों को बचाने के लिए अनेक तरह के परम्परागत उपाय किए जाते रहे हैं। एक उदाहरण है मेघालय में पवित्र वनस्थली के रूप में विशाल वनसंपदा जहाँ से कोई एक पत्ता या टहनी तक नहीं ले जा सकता। इसे आस्था और विश्वास से जोड़ दिया गया कि यदि कोई ऐसा करने की कोशिश भी करेगा तो वन देवता के दंड का भागी होना निश्चित है।


जल शक्ति 

इसे हम इस तरह से समझें कि आज मरुस्थल से घिरे जैसलमेर में स्थानीय लोगों के जागरूक और हरियाली के प्रति संवेदनशील होने के कारण पानी की कमी नहीं है जबकि विश्व में सर्वाधिक वर्षा का रिकार्ड रखने वाला चेरापूंजी पानी की कमी होने के खतरे से जूझ रहा है और वहाँ जाने पर अब वैसे मनमोहक दृश्य नहीं दिखाई देते जैसे अब से तीस चालीस साल पहले दिखाई देते थे।

इसका कारण केवल यही हुआ कि एक जगह जल संरक्षण के सभी उपाय किए गए क्योंकि वहाँ के लोगों को पानी की कीमत मालूम थी और दूसरी जगह पर पानी भरपूर था इसलिए जल संरक्षण के प्रति उदासीनता और लापरवाही से काम लिया गया।



पेड़ पानी सोखते हैं और उसे वातावरण में छोड़ते हैं। एक औसत पेड़ एक दिन में ढाई सौ से चार सौ गैलन पानी सोखने और छोड़ने का काम करता है। कह सकते हैं कि धरती को तीन चौथाई पानी वनों से वर्षा के जरिए मिलता है। यही नहीं एक पेड़ पानी को बाढ़ का रूप लेने से भी रोकता है।



इससे समझना आसान हो जाता है वृक्ष और जल एक दूसरे के पर्याय हैं और एक के बिना दूसरे का न तो महत्व है और न ही उनका स्वतंत्र अस्तित्व बना रह सकता है।


क्या आपने किसी पेड़ से बात करने का लुत्फ उठाया है, उसके किसी रखवाले से पूछिए तो पता चलेगा कि पेड़ को भी खुशी और आनंद से झूमना आता है और वह अपने कटने या सूखा ठूँठ बन जाने पर रुदन और चीतकार भी करता है। इसीलिए पेड़ों में जीवन की कल्पना की जाती है। इसी तरह किसी नदी, झरने या ताल के आसपास उनकी ध्वनि सुनी जा सकती है।


कुदरत की व्यवस्था देखिए कि पानी की नमी को पेड़ आत्मसात कर लेते हैं और फिर पूरे वातावरण को शीतल कर देते हैं। इसी आधार पर आज उमस से पीने के लिए पानी इकट्ठा करने की विधि पर सफलतापूर्वक काम हो रहा है और हम हैं कि वन और जल दोनों ही संसाधनों को बर्बाद करने पर तुले हुए हैं और केवल बातबाजी से इनका संरक्षण करना चाहते हैं।


आज हम जो साँस लेने के लिए शुद्ध हवा के संकट से जूझ रहे हैं उसका सबसे बड़ा कारण पेड़ और पानी की कद्र न करना है। वन क्षेत्र कम होते जाने से वायु प्रदूषण बढ़ रहा है। खबरों के मुताबिक उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र, बिहार, बंगाल, राजस्थान में होने वाली पचास प्रतिशत से ज्यादा मौतों के लिए वायु प्रदूषण जिम्मेदार है। मरने वालों में से आधे सत्तर साल से कम उम्र के हैं मतलब युवा पीढ़ी और समाज के विकास में सार्थक और कर्मठ होकर योगदान कर सकने वाली जनसंख्या असामयिक मौत का शिकार हो रही है। इसके विपरीत यदि वायु प्रदूषण न हो तो इंसान की उम्र सत्रह साल बढ़ सकती है।


जहाँ तक जल शक्ति की बात है, हमारी सभी नदियाँ प्रदूषित होने के भयंकर दौर से गुजर रही हैं। दूषित पानी से होने वाली बीमारियों से होने वाली मौतों के आँकड़े परेशान कर सकते हैं।


रुकावट कहाँ है?


असल में हमारी सोच और कथनी तथा करनी में कोई तालमेल न होना और विज्ञान तथा टेक्नॉलोजी के प्रति उदासीनता है। मिसाल के तौर पर हमारे शहरों, कस्बों और देहाती इलाकों में एक बड़ी समस्या नालों और नालियों, वहाँ कोई तालाब, नहर या झील है तो उनमें गंदगी को बेरोकटोक डालने और जमा होते जाने का अंतहीन सिलसिला चल रहा है। वर्षों तक इनकी सफाई न होने से यहाँ रहने वालों को नई नई बीमारियों का शिकार होना पड़ता है और कई जगह तो इस कदर गंदगी रहती है कि वहाँ रहना तो क्या उस जगह से गुजरना भी किसी खतरे से कम नहीं है।


अब हमारे यहाँ हमारी ही स्वदेशी लैब जो नागपुर में है और नीरी के नाम से दुनिया भर में प्रतिष्ठा पा चुकी है उसने एक ऐसी टेक्नालोजी का विकास किया है जिससे इन नाले, नालियों, झीलों और तालाबों में इस्तेमाल कर उस जगह को अच्छे खासे घूमने के स्थान में बदला जा सकता है।


इसी तरह शहर हो या देहात, कई जगह तो कूड़े के पहाड़ बन गए हैं, इन्हें हमारे ही लैब में बनी टेक्नॉलोजी के इस्तेमाल से सस्ते इंर्धन और जैविक खाद में बदला जा सकता है। ऐसा नहीं है कि इनका इस्तेमाल नहीं हो रहा है। मैंने स्वयं अपनी फिल्मों के निर्माण के दौरान ऐसे बहुत से कस्बे और जिले देखे हैं जहाँ इनका सही इस्तेमाल हुआ और आज वहाँ भरपूर खुशहाली है।


जब ऐसा है तो उदाहरण के लिए दिल्ली में कूड़े के पहाड़ का कुतुब मीनार के आकार का हो जाना क्या कहानी कहता है, यह समझना कोई मुश्किल नहीं है। इसी तरह दिल्ली और नोएडा में जो नाला वहाँ आफत का कारण बन चुका है और मुंबई में बीचों बीच बहता विशाल नाला और इसी तरह के दूसरे महानगरों में बदबू और गदंगी से भरे नाले इन शहरों के माथे पर कलंक की तरह लगे दिखाई देते हैं, तो उसके बारे में कुछ न कहा जाए, वही बेहतर होगा। यह हालत इसलिए है क्योंकि यह प्रादेशिक सरकारों से लेकर केन्द्र सरकार तक इस मामले में कुम्भकरण की तरह नींद में सोए हुए होने के कारण हो रहा है।


यह हमारे नीति निर्धारकों और शासन की बागडोर पकड़े सत्ताधारी दलों की मानसिकता पर निर्भर है कि वे जनमानस को प्रदूषण से मुक्ति दिलाने का काम करें, वरना तो पर्यावरण दिवस की खानापूर्ति तो हर साल होती ही रहती है।