शुक्रवार, 25 नवंबर 2022

संविधान दिवस पर इसके महत्व पर मंथन आवश्यक है

 26 नवंबर देश के जीवन में एक महत्वपूर्ण तिथि है । इस दिन देश की दिशा निर्धारित हुई, संविधान के अनुसार चलने की प्रक्रिया आरंभ हुई और स्वतंत्र भारत के नए अध्याय की शुरुआत हुई। जिस प्रकार आज आजादी का अमृत महोत्सव मनाया जा रहा है और अब तक की उपलब्धियों तथा कमियों पर विचार विमर्श किया जा रहा है, उसी तरह संविधान और उसके अंतर्गत बने कानूनों एवं उन्हें लागू करने वाली व्यवस्था के बारे में बातचीत करना आवश्यक हो गया है। संविधान दिवस के अवसर पर यह और भी जरुरी है।


सर्वोच्च पद और संविधान

सबसे पहली बात तो यह है कि वर्तमान संविधान के अनुसार किसी भी संवैधानिक पद और प्रशासनिक पदों पर भी प्रधान मंत्री की सिफारिश पर ही राष्ट्रपति द्वारा नियुक्ति की जाती है। यहां तक कि राष्ट्रपति पद पर नियुक्ति के लिए भी उसी की राय सबसे महत्वपूर्ण होती है। राज्यपाल, मुख्य न्यायाधीश, चुनाव आयुक्त से लेकर अंतिम निर्णय करने वाले सभी पदों पर, कहना चाहिए, उसी की मर्जी चलती है।

बेशक कहा जाए कि प्रधान मंत्री किसी एक दल का नहीं, सब का होता है लेकिन वास्तविकता यही है कि देश में सत्तारूढ़ दल का वर्चस्व, अधिकार और उसका मनमानापन बढ़ता है और इस पद पर आसीन व्यक्ति सब कुछ करने में सक्षम होता है और ऐसा इसलिए संभव है क्योंकि संविधान में इसकी व्यवस्था है। इसका सबसे बड़ा उदाहरण एक प्रधान मंत्री द्वारा आपातकाल का लगाया जाना है।

इस तरह सबसे पहले प्रधान मंत्री के अधिकारों पर संविधान द्वारा दी गई छूट या व्यवस्था पर फिर से विचार करना जरूरी है ताकि कोई भी व्यक्ति निरंकुश न हो सके।



संविधान में भेदभाव

इसके बाद इस बात पर आते हैं कि हमारे संविधान में समानता, धर्म, सेकुलर होने  तथा अन्य बातों को लेकर जो व्यवस्था दी गई हैं, वर्तमान समय में उनका क्या उपयोग तथा कैसा दुरुपयोग हो रहा है।

जहां तक समानता की बात है तो इस पर गंभीरता से विचार किया जाए कि इससे क्या लाभ और क्या हानि हो रही है। मिसाल के तौर पर क्या कभी अमीर और गरीब, अधिकारी और आधीन, ताकतवर और कमजोर तथा शासक और प्रजा एक समान हो सकते हैं ? कभी नहीं !

इस स्थिति पर चिंतन कीजिए । यदि कोई व्यक्ति किसी अपराध के लिए सजा पा चुका है, वह किसी सरकारी, पब्लिक सेक्टर और निजी क्षेत्र में भी नौकरी करने के अयोग्य हो जाता है। यहां तक कि अपना रोजगार, व्यापार या व्यवसाय करना भी आसान नहीं होता। वह सरकारी सहायता, विभिन्न योजनाओं के तहत मिलने वाली आर्थिक मदद, बैंक का सहयोग और जनता की सहानुभूति से भी वंचित हो जाता है । इस के विपरीत किसी साधारण या संगीन जुर्म में जेल में रहकर भी घोषित अपराधी चुनाव लड़ सकता है, सांसद, विधायक, मंत्री बनकर कानून बनाने वाला बन सकता है। यह इसलिए संभव है क्योंकि संविधान इसकी इजाजत देता है। क्या इस व्यवस्था पर नए सिरे से विचार नहीं होना चाहिए ? हकीकत यह है कि दोनों ही वेतन और दूसरे भत्ते पाते हैं, समय सीमा से बंधे हैं लेकिन व्यवहार के मामले में यह सीधे पक्षपात है लेकिन संवैधानिक है इसलिए मान्य है।

इसके बाद बात करते हैं धर्म की, तो इसमें यह है कि सभी देशवासी अपने धर्म का पालन और उसके अनुरूप बर्ताव कर सकते हैं। इसका मतलब यह है कि यदि एक धर्म के मानने वाले कहते हैं कि उनके लिए संविधान और उसके अंतर्गत बने कानूनों को मानने से ज्यादा जरूरी है कि वे अपनी धार्मिक मान्यताओं के अनुसार चलें और क्योंकि संविधान इसकी अनुमति देता है तो वे वही करेंगे जो उनके धर्म के मुताबिक है। इसके लिए चाहे उन पर कट्टर होने का ही आरोप क्यों न लगे 

धर्म के पालन की संवैधानिक व्यवस्था होने से और अपने धर्म को सब से बड़ा मानने की मनस्थिति से विवाद, संघर्ष, आंदोलन से लेकर उन्माद तथा दंगे फसाद तक के नजारे देखे जा सकते हैं। यही नहीं अपने स्वार्थ सिद्ध करने के लिए प्राचीन परम्पराओं, बेमतलब के रीति रिवाजों, मान्यताओं, कुरीतियों, अंधविश्वास, दिखावा, पाखंड और इंसानियत तक के विरोध में जनमानस को नुकसान पहुंचाने वाले कारनामें करना बहुत आसान हो जाता है। यह इसलिए क्योंकि संविधान में अपने धर्म के नाम पर कुछ भी करने की इजाजत है।

अब जरा इस बात पर गौर कीजिए कि चाहे कितने भी अपराधियों को सबूत के अभाव में छोड़ना पड़े और किसी भी निरपराध को उसके निर्दोष होने का प्रमाण न होने से जेल में बंद होना पड़े तो यह संवैधानिक और कानून के मुताबिक है और इसकी कोई अपील या दलील नहीं हो सकती। क्या यह सही संवैधानिक व्यवस्था है और क्या यह उसके दुरुपयोग की श्रेणी में नहीं आती ? तो क्या इस विसंगति को रोकने के लिए फिर से विचार करना जरूरी नहीं है ?

आज हमारी अदालतों द्वारा दिए गए ऐसे अनेक उदाहरण हैं जो उसके अन्याय के प्रतीक हैं लेकिन उन्हें मानने के लिए बाध्य हैं क्योंकि वे कानून के मुताबिक हैं। और यह जो पीढ़ियों तक चलने वाले मुकदमों के भंडार हमारी अदालतों में लंबित पड़े हैं, वे संविधान के अनुसार बनी न्यायिक व्यवस्था की नाकामी नहीं तो और क्या है?

उल्लेखनीय है कि जिस समय संविधान बनाया जा रहा था तब स्थितियां बिल्कुल भिन्न थीं, इसमें शामिल विद्वान अंग्रेजी हुकूमत के दौर के गवाह थे और उनकी सोच का दायरा गुलामी की परिधि से बाहर निकलने तक सीमित था। उन परिस्थितियों में जो उन्होंने किया, वह तर्कसंगत था और संविधान के रचने में उनका योगदान सर्वोत्तम था। उन्होंने जैसे भारत की कल्पना की होगी, उनकी दृष्टि में उससे बेहतर कुछ और नहीं था। परंतु वास्तविकता यह है कि आजाद भारत की जरूरतें, उसके अनुभव, संसाधन और वैश्विक स्तर पर देश की प्रगति का अनुमान उन्हें नहीं हो सकता था।

इसी तरह की बहुत सी धाराएं, व्यवस्थाएं हैं जो आज बेमानी हो गई हैं, यहां तक कि मूलभूत अधिकारों को लेकर भी वक्त गुजरने के कारण बहुत सी विसंगतियां पैदा हो गई हैं जो संविधान बनाते समय नहीं थीं। मौलिक अधिकार, समानता का सिद्धांत, धर्म के अनुसार आचरण, आरक्षण व्यवस्था, जाति और लिंग के आधार पर भेदभाव जैसी बहुत सी बातें हैं जिन पर नए सिरे से विचार करना जरूरी है।


परिवर्तन कैसा हो

जब ऐसा है तो क्या इसमें कोई बुराई है कि संविधान में कही गई बहुत सी ऐसी बातें जो वर्तमान समय से मेल नहीं खाती, उन्हें बदलने की दिशा में काम किया जाए ?

बेहतर रहेगा कि एक ऐसी संवैधानिक पीठ का गठन किया जाए जिसमें सभी मान्यताप्राप्त राजनैतिक दलों के प्रतिनिधि हों, सामाजिक संगठनों के गणमान्य व्यक्ति हों और समाज के वे लोग हों जिन्होंने किसी भी क्षेत्र में कीर्तिमान स्थापित किए हों। इनमें वैज्ञानिक, व्यापारी, व्यवसाय करने वाले, अर्थशास्त्री, नौकरीपेशा, शिक्षा, खेल और उन सभी चीजों से जुड़े लोग हों जो वर्तमान समय की आवश्यकताएं हैं। यदि ऐसा हो तो जब हम संविधान का अमृत महोत्सव मना रहे हों तो एक नए शोध पर आधारित संविधान की रचना हो चुकी हो। वैसे भी हम संविधान संशोधन के जरिए काफी कुछ बदल चुके हैं तो एक बार इसके संपूर्ण आकार के बारे में ही सोच विचार कर लिया जाए तो यह एक सही शुरुआत होगी।  


शुक्रवार, 18 नवंबर 2022

दिन अशुभ हो, क्या इसकी कामना की जा सकती है ?

आम तौर पर इस बात की उम्मीद की जाती है कि दूसरे आप के लिए आपका दिन शुभ रहने की बात कहें, ऐसे संदेश भेजें जिनसे लगे कि वे शुभचिंतक हैं, जब कुछ कहीं से खरीदें तो सामान तो मिले ही, साथ में बेचने वाला शुक्रिया कहे। परंतु यदि विक्रेता मुस्कराते हुए कहे कि आपका दिन अशुभ हो तो अटपटा लगना स्वाभाविक है।


अजब गजब संसार

इंटरनेट पर कुछ न कुछ खोजने की आदत सी पड़ गई है। ऐसे ही निगाह पड़ी कि एक दंपति ने न जाने किस परिस्थिति में एक दिन जो 19 नवंबर था, दूसरों को उनका दिन अशुभ होने की कामना करने की शुरुआत कर दी। यह अटपटा तो था लेकिन अपने अंदर छिपी भावनाओं को बिना किसी लागलपेट के कहने का साहस भी लगा। 

अब यह जरूरी तो नहीं कि मन में प्रत्येक व्यक्ति के लिए उनके दिन के शुभ होने की कामना की जाए। दुकानदार या वस्तु विक्रेता द्वारा उसके यहां से कुछ खरीदने पर ग्राहक का दिन खराब होने या अशुभ होने की मुस्कराते हुए की गई कामना अजब है तो गजब भी है और वह भी चेहरे पर मुस्कान के साथ।

अक्सर हम बिना बात किसी को भी और विशेषकर आधुनिक दौर में उसके दिन के शुभ होने की कामना करते हैं । व्हाट्सएप, फेसबुक और दूसरे संवाद साधनों को खोलते ही न जाने किस किस से दिन भर खुश रहने के संदेश मिलते रहने से एक तरह की खीज सी होती है।  कोई काम की बात तो की नहीं, बस शुभ प्रभात, आपका दिन शुभ हो, आप खुश रहें जैसे संदेश और साथ में कैसी भी फोटो जिसका कोई मतलब समझ नहीं आता। इसे मिटाने या डिलीट करने का मन करता है। कुछ ग्रुपों में यह ताकीद भी होती है कि इस तरह के संदेश न भेजें जाएं क्योंकि यह सब एक जैसे होते हैं और इन्हें पढ़ना समय नष्ट करना है।


भगवान भला करे

भारतीय संस्कृति में किसी के अपमान करने, बुरा भला कहने पर या फिर लड़ाई झगड़ा टालने के लिए यह कहने की परंपरा है कि भगवान तेरा भला करे। मतलब कि मेरे साथ अच्छा नहीं किया तो कोई बात नहीं लेकिन मेरी तरफ से बात समाप्त, अब जो भी है वह ईश्वर या ऊपर वाला है, वह देख लेगा। इस एक वाक्य, इच्छा या कामना से किसी विवाद का अंत न भी हो पर उसकी शुरुआत तो हो ही जाती है। हो सकता है कि वक्त गुजरने के साथ मन की कटुता और बदला लेने की भावना अपने आप धीरे धीरे कमजोर पड़ते हुए गायब ही हो जाए।

जीवन में यह संभव नहीं कि उतार चढ़ाव न हों, इसी लिए कहा जाता है कि वक्त के गुजरने का इंतजार किया जाए। जब समय एक जैसा रहना ही नहीं तो फिर सुख हो या दुःख, क्या अंतर पड़ता है! अगर यह न हो तो जिंदगी एकदम सपाट हो जाएगी, न कोई उत्साह, रोमांच या कुछ नया होने का इंतजार, क्या ऐसा जीवन बोरियत से भरा नहीं होगा ?

इसे इस तरह भी लिया जा सकता है कि जो होने वाला है, उसके बारे में अनुमान तो लगाया जा सकता है लेकिन निश्चित कुछ नहीं कहा जा सकता। यही स्थिति मनुष्य को कुछ न कुछ करते रहने के लिए बाध्य करती रहती है और अगर यह न हो तो जीवन नीरस हो जायेगा जिसे जीने को भी मन नहीं चाहेगा। जब तक मन में यह बात रहती है कि ऊंट किस करवट बैठेगा, तब तक जिंदगी जीने लायक लगती है।

यह एक मनोरंजक स्थिति है कि मन में कुछ और हो और कहना या करना कुछ और पड़े तो सोच कैसी होगी ? ऐसे क्षण अक्सर आते हैं जिनमें चाह कर भी अपनी वास्तविक भावनाओं को व्यक्त करना तो दूर, ऐसा सोचते हुए भी डर लगता है कि अगर गलती से भी यह प्रकट हो गया कि हमारे मन में क्या है तो न जाने कैसा तूफान आ जाएगा। और यही डर हमसे वह करा लेता है जो हम करना नहीं चाहते। शायद ऐसी ही स्थिति रही होगी जब उस दंपति ने शुभ की जगह अशुभ दिन होने की कामना करने की शुरुआत की। कहा जा सकता है कि यह एक तरह से अपने मन में छिपे अंजाने भय से मुक्ति पाने की क्रिया है जो  अक्सर सही समय पर सही बात कहने के लिए तैयार करती है।


न कहने या करने की हिम्मत

यदि इस बात को व्यापक संदर्भ में देखा जाए तो एक तरह से अपने मन में जो कुछ भी हो, उसे कहने की हिम्मत आ जाए तो बहुत से ऐसे निर्णय लेना आसान हो जाएगा जिनके बारे में मन में दुविधा या संशय रहता है।

मान लीजिए, परिवार के बीच कोई मतभेद है और संकोचवश मन की बात कह नहीं पा रहे हैं तो उससे मिलने वाले लाभ या हानि का सही अंदाजा नहीं लगाया जा सकता। इसी तरह नौकरी, व्यापार या कोई सौदा करते समय अपनी बात रखने में हिचकिचाहट हो गई तो अर्थ का अनर्थ हो सकता है। आपके बारे में गलत राय बन सकती है जो आगे चलकर किसी बड़ी परेशानी या चुनौती का कारण बन सकती है। क्षण भर की चुप्पी जीवन का जंजाल बन सकती है।

इसका और भी विस्तार करें या देशव्यापी संदर्भ में देखें तो व्यक्ति के चुप रह जाने से राजनीति में गलत व्यक्ति का चुनाव हो जाता है। हमारा भ्रम हानिकारक हो जाता है और जो चतुर और चालाक है, वह अयोग्य होते हुए भी हम पर शासन करता है। यहीं से रिश्वत लेने देने तथा भ्रष्ट होने की शुरुआत होती है।  यही स्थिति अगर परिवार में हो तो उसके बिखराव का कारण बन जाती है। अपने ही घर में बेगाना होने का एहसास अनेक समस्याओं को जन्म देता रहता है जिसका परिणाम परिवार में बंटवारा ही होता है।

इस दिन को यदि सही ढंग से मनाया जाए और चाहे किसी को अच्छा लगे या बुरा, बिना मुंह बनाए या नाक भौं सिकोड़े, हलकी सी मुस्कान के साथ जो सोचते हैं, वह कह दिया जाए तो मन में अफसोस नहीं रहेगा। इससे सामने कुछ और, पीछे उसके विपरीत आचरण करने से भी मुक्ति मिल जाएगी।


शुक्रवार, 4 नवंबर 2022

परिवारों में बिखराव का कारण विश्वास और समझ का अभाव

 

पारिवारिक पृष्ठभूमि पर लिखी कोई साहित्यिक रचना जैसे कहानी, कविता और उपन्यास पढ़ते हैं या फिल्म और सीरियल देखते हैं तो उनसे हमारा जुड़ाव तब ही हो पाता है जब उनमें कुछ ऐसा हो, जो लगे कि आसपास घटने वाली घटनाओं का चरित्र चित्रण है। पाठक या दर्शक इन्हें बेशक सास बहू टाईप की प्रस्तुति कहें और चाहे कितनी भी आलोचना करें, ये मन को भाती हैं, अच्छी लगती हैं और कितने भी विरोध हों, अपने कथानक के कारण लोकप्रियता के पायदान की सीढियां चढ़ती जाती हैं।

मन में यह बात आना स्वाभाविक है कि ऐसा क्यों होता है कि परिवारों में तनाव देखने को मिलता है, साधारण सी बात पर बिखराव हो जाता है और जीवन का अधिकांश समय एक साथ व्यतीत करने पर बंटवारे की नौबत आ जाती है। यही नहीं, आपसी मनमुटाव सड़कों पर आ जाता है और अडौसी पडौसी से लेकर नाते रिश्तेदार तक आश्चर्य करते पाए जाते हैं कि इस परिवार से ऐसी उम्मीद नहीं थी, सब लोग हमेशा एक साथ खड़े नज़र आते थे, इन्हें क्या हो गया कि एक दूसरे का मुंह तक नहीं देखना चाहते। यही नहीं, ऐसे उदाहरण हैं जिनमें मारपीट से लेकर हत्या तक की घटनाएं हो जाती हैं और आपसी रंजिश या दुश्मनी इतनी बढ़ जाती है कि खानदानी या पुश्तैनी बन जाती है। पीढ़ियां गुजर जाती हैं और यह तक याद नहीं रहता कि मनमुटाव की शुरुआत कब और कैसे हुई थी, बस एक परंपरा सी हो जाती है जिसे कायम रखना है।


अनावश्यक हस्तक्षेप

यह विधि का विधान है कि हम अपने मातापिता या संतान का चुनाव नहीं कर सकते। पति पत्नी द्वारा एक दूसरे का चुनाव करना अपने वश में होता है और उसके लिए सभी के पास बहुत से विकल्प होते हैं। यह भी मान्यता है कि जोड़ियां ऊपर से बनकर आती हैं और कौन किस का जीवन साथी बनेगा, यह सब भाग्य की बात है। परंतु वास्तविकता यह है कि आज के दौर में बहुत कुछ खोजबीन करने और अपने मन मुताबिक संबंध मिलने पर ही वैवाहिक जीवन का आरंभ हो पाता है। अक्सर जिन्हें हम बेमेल जोड़ी कहते हैं, चाहे किसी भी कारण से हों, वे जीवन भर साथ निभाती हैं और बहुत से संबंध शुरू से ही बिगड़ने लगते हैं और एक स्थिति ऐसी आती है जिसमें संबंध विच्छेद ही एकमात्र उपाय बचता है।

आखिर ऐसा क्या होता है कि बहुत देखने भालने के बावजूद रिश्तों में खटास आ जाती है, एक दूसरे से कोई बहुत बड़ी शिकायत न होने पर भी अलग होना ही बेहतर लगता है। इसका कारण परिवार में जिन्हें हम अपने कहते हैं, उनकी अनावश्यक दखलंदाजी है जो दरार पैदा करने का काम करती है ।

व्यावहारिक उपाय

यहां एक दूसरी व्यवस्था का ज़िक्र करना है जो नौकरी या व्यवसाय से जुड़ी है। किसी भी संस्थान में यह नियम लागू रहता है कि कोई भी कर्मचारी अपने काम के बारे में अपने परिवार वालों को केवल यह बता सकता है कि वह कहां काम करता है और ज्यादा से ज्यादा यह कि वहां मोटे तौर पर क्या काम होता है। इससे अधिक कुछ नहीं। यह पाए जाने पर कि कर्मचारी के घरवाले जब तब ऑफिस में उससे मिलने बिना किसी काम के आते रहते हैं तो इसके लिए चेतावनी से लेकर नौकरी तक पर आंच आ सकती है।

इसके पीछे यह तर्क है कि घरवालों से यदि कर्मचारी ने अपने काम के बारे में कोई चर्चा की या किसी समस्या के बारे में सलाह ली तो उसके परिणाम अच्छे नहीं होते। मान लीजिए, किसी सदस्य के मशविरे को मानकर कार्यवाही कर ली और उससे उलझन सुलझने के बजाए ज्यादा उलझ गई तो जिसकी सलाह ली गई, वह तुरंत कहेगा कि उसने अपनी समझ से कहा था, अगर वह गलत निकली तो उसके लिए वह जिम्मेदार नहीं, यदि सही निकली तो वह पूरा श्रेय लेने को तैयार हो जाएगा ।

अब हम उस परिवार की बात करते हैं जो बिखरने के कगार पर है। मान लीजिए, आपकी बेटी या बहन का विवाह हो गया है और वह अपने घर यानी ससुराल की कोई समस्या या अपनी परेशानी अथवा अपने साथ हो रहे व्यवहार के बारे में कोई बात बताती है और आपने अपनी समझ से कुछ ऐसा कह या कर दिया जो उसके परिवार वालों के व्यवहार से मेल नहीं खाता और लड़की ने आपके कहे अनुसार अपना कदम उठा लिया तो बात बिगड़ना निश्चित है। 

इसे गैर ज़रूरी दखलंदाजी से दोनों परिवारों के बीच दरार पड़नी शुरू हो सकती है। इसी तरह यदि परिवार की बहु अपने मायके वालों की रुचि, उनकी आवभगत और जब चाहे तब उससे मिलने आ जाने की आदत को आवश्यकता से अधिक महत्व देती है तो समझिए कि संबंधों के बिगड़ने की शुरुआत हो चुकी है।

अक्सर परिवारों में मुखिया की मृत्यु होने पर संपत्ति को लेकर वाद विवाद होता है जिसका कारण अधिकतर किसी वसीयत के न होने या उसमें किसी को कम या ज्यादा देने से होता है।

कई मामलों में मृत्यु के समय जो व्यक्ति पास था, वह सहमति या जबरदस्ती यदि संपत्ति अपने नाम लिखा लेता है तो ऐसी स्थिति में परिवार के अन्य सदस्यों के सामने लंबी मुकदमेबाजी के अतिरिक्त कोई उपाय नहीं रहता। इसका एक ही हल है कि अपने जीवन काल में ऐसी लिखित व्यवस्था कर दी जाए जिससे बाद में विवाद या झगड़ा होने की संभावना न रहे।

व्यापक स्तर पर प्रभाव

परिवार में यदि सब कुछ ठीक नहीं है तो उसका प्रभाव समाज पर पड़ना स्वाभाविक है क्योंकि मनुष्य सामाजिक प्राणी है। इसे यदि व्यापक अर्थों में देखा जाए तो पारिवारिक असंतुलन या उसके विघटन का असर देश पर भी पड़ता है। आर्थिक विकास भी प्रभावित होता है और एकजुट रहने की शक्ति कमज़ोर पड़ती है।

बहुत से देशों में यह एक पारिवारिक और सामाजिक व्यवस्था बन गई है कि जब संतान के पालन पोषण और उसकी शिक्षा की जिम्मेदारी पूरी हो जाती है और वह वयस्क होकर अपने मुताबिक जीवन जीने के लिए तैयार हो जाता है, उसे अलग कर दिया जाता है । वह अपने निर्णय लेने के लिए स्वतंत्र हो जाता है। मातापिता उसका साथ तो देते हैं लेकिन दखलंदाजी नहीं करते, न ही अपनी बात थोपते हैं। इसमें सरकार भी उनका साथ देती है और यह उसकी नीतियों की जिम्मेदारी है कि वह युवा अपने व्यक्तिगत जीवन में  समर्थ हो और अपने देश की प्रगति में योगदान करे।

हमारे देश में संयुक्त परिवार की परंपरा रही है इसलिए विदेशी मॉडल अपनाना सरल नहीं है। जिस तरह से आज एकल परिवार की धारणा को बल मिल रहा है, उससे स्थिति में बदलाव आना निश्चित है लेकिन वर्तमान समय में सबसे ज्यादा ज़रूरी है कि परिवार में बिखराव को रोकने के प्रयत्न किए जाएं। यह परिवार से लेकर सरकार तक का दायित्व है।