अक्सर स्वयं हम यह कहते सुनाई देते हैं और अपने आसपास के लोगों से भी अक्सर सुनने को मिलता है कि जीवन में कुछ नहीं हो पा रहा, जीने का कोई मतलब नहीं रहा, कैसा होगा कल, परेशानियां ख़त्म नहीं होतीं, समस्याएं बहुत हैं, उनका हल दिखता नहीं, क्या करें और क्या न करें ? इसी उधेड़बुन में दिन समाप्त हो जाता है और अगला दिन भी इन्हीं बातों में निकल जाता है।
इसके विपरीत कुछ लोग और हम स्वयं भी यह सोचते और कहते सुनाई देते हैं कि सब कुछ ठीक है, कोई दिक्कत है ही नहीं, किसी तरह की उलझन नहीं, जो हुआ, वह ठीक, जो हो रहा है, बेहतर है और जो होगा, सब से बढ़िया होगा।
सरोकार
संसार में जितने भी ऐसे व्यक्ति हुए हैं जिनके काम याद आते रहते हैं, उनके अविष्कार, अनुसंधान, प्रयोग और उपलब्धियों से निरंतर लाभ उठाते रहते हैं, उनके प्रति आभार मानते हुए यह कहते नहीं थकते कि उन्होंने यह न किया होता तो हमारा जीवन कैसा होता !
इनमें वैज्ञानिक, सामाजिक कार्यों से जुड़े लोग और राजनेता सभी शामिल हैं । यह एक लगातार चलने वाली प्रक्रिया है। आज भी कुछ लोग बिना किसी बात से विचलित हुए अपनी धुन में लगे, कुछ न कुछ नया करने की कोशिश करते रहते हैं।
उनके लिए सफल होने या अपने काम में कामयाब न होने का अर्थ एक जैसा ही है और उनकी सेहत पर, चाहे मानसिक हो या शारीरिक, सफलता या असफलता से कोई फ़र्क नहीं पड़ता। असल में इन दोनों शब्दों का उनके लिए कोई अर्थ नहीं, उनका लक्ष्य या उद्देश्य ही प्रमुख है। ऐसा इसलिए है कि उनकी दुनिया केवल स्वयं से सरोकार रखने की है, बाहर की कोई चीज़ उन्हें प्रभावित नहीं कर पाती। इनमें नायक भी हो सकते हैं, खलनायक और अधिनायक भी जो अपने मिशन को पूरा करने के लिए किसी भी हद तक जा सकते है।
विचार का सिद्धांत
दुनिया की कोई भी चीज हो, उसकी शुरुआत एक विचार से होती है और जैसे जैसे वह वस्तु बढ़ने लगती है, दूसरे लोगों की सोच उसमें शामिल होती जाती है और एक दिन उसका आकार इतना बड़ा हो जाता है कि वह व्यक्तित्व का हिस्सा बन जाती है। उसके बिना रहने की कल्पना से भी डर लगता है। ज़रा सोचिए कि अगर हम अपने मन से उस वस्तु को हटा देते, उस पर ध्यान नहीं देते तो क्या उसका ऐसा अस्तित्व होता कि जिसके बिना जीवन की कल्पना भी आसान नहीं होती ।
इसके पीछे और कुछ नहीं, बस एक छोटा सा सिद्धांत है कि जब हम किसी वस्तु, व्यक्ति या वातावरण के प्रति खिंचाव महसूस करते हैं तो उसके हमारे जीवन का अंग बन जाने से यह अनुभव होता है कि वह साथ में ही तो है, चिंता की क्या बात है, सब कुछ ठीक होगा, बस अपने काम से काम रखिए।
मान लीजिए कि आपको धन का आकर्षण है और धनी बनना चाहते हैं तो क्या मन में यह बात नहीं बस जाती कि धन दौलत जमा करने के लिए किसी भी उपाय का सहारा लेने में कोई हर्ज नहीं है । वह सही है या गलत, इसका विचार किए बिना सम्पत्ति, वैभव और उसका विस्तार करते जाना ही एकमात्र लक्ष्य होता है। यह सोच जितनी ताकतवर होती है उतना ही व्यक्ति अमीर होता जाता है।
यही कारण है कि केवल एक प्रतिशत लोगों का कब्ज़ा पूरी दुनिया के छियानवे प्रतिशत संसाधनों पर है जिसकी बदौलत उनके पास अकूत संपत्ति है। बाकी निन्यानवे प्रतिशत लोग उनसे ईष्र्या करते रहते हैं, नकारात्मक ढंग से सोचते रहने से हमेशा अपने लिए बुरे विचारों की कल्पना करते रहते हैं और उनकी यही सोच उनके अपने लिए सत्य होती दिखाई देती है।
आग में घी डालने की तरह संपन्न और ताकतवर लोग आपको गरीब होने, बेरोजगार रहने और कभी भी संपन्न न होने देने के लिए लगातार आपका मनोबल गिराते रहते हैं और वही बात मानने पर ज़ोर डालते रहते हैं जो असल में आप नहीं हैं। इस तरह वे हतोत्साहित करते रहते हैं और आपको स्वयं अपना और एक दूसरे का प्रतिद्वंदी बनाने से लेकर दुश्मन तक बना देते हैं।
हकीकत यह है कि न आप निर्धन हैं, न निकम्मे और प्रतिभाहीन हैं । आप सभी तरह से सक्षम हैं, बस आपकी सोच पर धनीमानी, अभिमानी और सत्ताधीशों का कब्ज़ा हो जाने से अपने को कमज़ोर और अयोग्य मान लेते हैं।
आभार और आकार
असल में होता यह है कि व्यक्ति आपनी परिस्थितियों के वश में आकर स्वयं के बारे में इस तरह का एक आकार या डिज़ाइन बना लेता है जिसमें वह अपने बारे में बुरा सोचता है, अपनी कमियों को हावी होने देता है और पूर्ण रूप से ईश्वर अर्थात भाग्य पर निर्भर हो जाता है।
इस स्थिति में उसके मन और विचार पर उसका अधिकार नहीं रहता तथा वह सरल शब्दों में कहें तो दूसरों के हाथों की कठपुतली बन जाता है। उनके इशारों पर चलने लगता है और अपना स्वाभिमान तक खो बैठता है। होता यह है कि वह अपने प्रति आभार मानने और अपनी बुद्धि के अनुसार चलने को अहमियत न देते हुए दूसरों की कुटिलता का शिकार होता जाता है। वह जैसी स्थिति है उसी में रहने को ही अपनी किस्मत मान लेता है और पीछे रह जाता है।
इसे समझने के लिए क्या इतना ही काफ़ी नहीं है कि आज भी हमारे देश में एक बड़ी आबादी को अब से पचास साल पहले की स्थिति में रहना पड़ रहा है। इसका एक ही कारण है कि हम अपना धन्यवाद करने, अपने प्रति आभार मानने और अपने को समर्थ समझने के स्थान पर उन लोगों की बातों को पत्थर की लकीर मान लेते हैं जिनका उद्देश्य हमें कभी भी अपने बराबर न होने देना है।
अपने से सरोकार
जीवन में सफल होने, परिवार हो या समाज या फिर देश हो, अपनी जगह पाने तथा किसी भी कीमत पर स्वयं का निरादर न तो करने और न ही होने देने का एक ही मंत्र है कि आपके पास जो भी है, उसके प्रति आभार मानिए क्योंकि वही आपकी समृद्धि का बीज है। उसमें अंकुर फूटने दीजिए और फिर देखिए कि किस प्रकार यह एक मज़बूत पेड़ बनता है जिस पर किसी और का नहीं, केवल आपका अधिकार है।
आपके अपने पास जो है और जो आसपास है, वह अमूल्य है, उसकी प्रशंसा करने से उसका आशीर्वाद मिलेगा और तब व्यक्ति किसी अन्य पर निर्भर रहने के स्थान पर स्वयं अपने पर ही भरोसा करेगा। खुशहाली का मूल तत्व यही है। ऐसा होने पर आसानी से समझा जा सकता है कि कोई दूसरा उस पर क्यों मेहरबान हो रहा है, मुफ्त में कुछ देने या मिलने का वायदा कर अपना कौन सा स्वार्थ पूरा कर रहा है ? क्या इसके बदले में वह आपका स्वाभिमान तथा स्वतंत्रता तो नहीं छीन रहा ?
आत्मविश्वास, आत्मनिर्भर, आत्मसम्मान जैसे भारी भरकम शब्दों के फेर में पड़ने से अच्छा है कि जैसे आप हैं, जो कुछ अपने पास है, उस पर भरोसा रखिए, उसके बाद कुछ भी करने की हिम्मत तो अपने आप आ ही जायेगी।
शुक्रवार, 25 फ़रवरी 2022
सब कुछ ठीक या कुछ भी सही नहीं का द्वंद सोच बदल सकता है
शनिवार, 19 फ़रवरी 2022
धार्मिक चिन्ह/पढ़ाई से बेहतर है ऐसी शिक्षा जो वैज्ञानिक सोच बढ़ाए
संसार में जितने भी धर्म हैं, प्रत्येक का एक न एक प्रतीक अवश्य है जिसके आधार पर उसके मानने वालों की पहचान से लेकर उनके जीवन जीने के तरीकों का ज्ञान होता है।
धर्म और जीवन शैली
धार्मिक प्रतीकों के अतिरिक्त सभी धर्मो में इस बात का वर्णन है कि जीवन जीने के लिए किन सिद्धांतों, मान्यताओं, परंपराओं, रीति रिवाजों और अन्य धर्मों के साथ तालमेल बिठाए रखने के लिए किन नियमों का पालन करना चाहिए। इसका उद्देश्य यही है कि धार्मिक आधार पर कोई लड़ाई झगड़ा, तनाव, संघर्ष और वैमनस्य न हो और सभी शांति और सद्भाव से एक दूसरे से प्रेमपूर्वक व्यवहार करते हुए मिलजुलकर रहें।
यहां तक तो ठीक था लेकिन जब इस धार्मिक समझदारी में अपने धर्म को दूसरों से श्रेष्ठ समझने की मानसिकता बढ़ने लगी तो उसमें एक तरह का जिद्दीपन शामिल होता गया।
इसका खतरनाक नतीज़ा यह निकला कि धार्मिकता का स्थान धर्मांध कट्टरता ने ले लिया और लोग इसे ही वास्तविक धर्म समझने लगे। यहीं से असहिष्णुता यानी टॉलरेंस न होने की शुरुआत हुई और समाज विरोधी तत्वों को मौका मिल गया कि वे धार्मिक आधार पर समाज को बांट सकें।
संयोग देखिए कि दुनिया के लगभग एक तिहाई देशों के राष्ट्रीय ध्वजों में धार्मिक प्रतीकों का इस्तेमाल हुआ है और इनमें भारत का तिरंगा भी है।
जहां एक ओर धर्म का आधार मन और शरीर की पवित्रता, विचारों की पावनता, अध्यात्म की ओर ले जाने वाली मानसिकता, दैवीय शक्तियों की अनुकंपा है, वहां दूसरी ओर जीवन जीने की अपनी विशिष्ट शैली भी है। ज़िंदगी और मौत के बीच का सफर किस तरह से तय किया जाए, यह प्रत्येक धर्म में अलग अलग भले ही हो लेकिन उसका लक्ष्य केवल एक ही है कि धार्मिक भावनाओं को कभी भी आपसी मतभेद का आधार न बनने दिया जाए।
धर्म और शिक्षा
धर्म का काम है लोगों को जोड़कर रखना और शिक्षा का उद्देश्य है कि बिना धार्मिक भेदभाव किए व्यक्ति का बौद्धिक विकास कैसे हो, इसकी रूपरेखा बनाकर व्यक्ति को इतना सक्षम कर देना कि वह अपनी रोज़ी रोटी कमा सके और स्वतंत्र होकर जीवन यापन कर सकने योग्य हो जाए।
किसी भी शिक्षण संस्थान द्वारा धार्मिक प्रतीक चिन्हों का इस्तेमाल उचित तो नहीं है लेकिन यह किया जाता है। हो सकता है कि अपनी अलग पहचान बनाए रखने के लिए ऐसा किया जाता हो लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि वहां पढ़ने वालों के लिए यह ज़रूरी कर दिया जाए कि वे उस धर्म के अनुयायी भी बन जाएं।
शिक्षा का आधार किसी धर्म की मान्यताओं के अनुसार शिक्षा नहीं बल्कि आधुनिक और वैज्ञानिक सोच का विकास होना चाहिए। यही कारण है कि शिक्षण संस्थानों से यह उम्मीद की जाती है कि वे उनमें पढ़ने वाले विद्यार्थियों को धर्म का महत्व तो बताएं लेकिन किसी एक धर्म को बेहतर और दूसरों को कमतर न दिखाएं। इसके साथ एक ही धर्म क्यों, देश में प्रचलित सभी धर्मों के बारे में इस प्रकार बताया जाए कि उनमें आपस में तुलना, प्रतिस्पर्धा और प्रतियोगिता की भावना विद्यार्थियों में न पनपे।
अब हम इस बात पर आते हैं कि क्या धर्म के आधार पर विद्यार्थियों का पहनावा अर्थात उनकी ड्रेस को तय किया जा सकता है ? इस बारे में अनेक मत हो सकते हैं लेकिन व्यावहारिकता यही है कि इसमें धर्म, उसके प्रतीक चिन्ह और धार्मिक आधार पर तय किए गए लिबास का कोई स्थान नहीं होना चाहिए।
एक दूसरा मत यह है कि जब विभिन्न धर्मों के विद्यार्थी अपनी धार्मिक पहचान दर्शाने वाले वस्त्र पहनकर स्कूलों में जायेंगे तो उनमें बचपन से ही एक दूसरे के धर्म को समझने और उसका आदर करने की भावना विकसित होगी। वे बड़े होकर अपने धर्म का पालन करते हुए अन्य धर्मों के मानने वालों का सम्मान करेंगे और इस तरह धार्मिक एकता की नींव पड़ना आसान होगा।
एक तीसरा मत यह भी है कि जिस प्रकार फ्रांस ने अपने यहां शिक्षा को धार्मिक प्रतीकों और धार्मिक आचरण से अलग रखा है और किसी भी प्रकार का दखल न होने देने की व्यवस्था की है, उसी प्रकार हमारे देश में भी किया जा सकता है !
यह व्यवस्था हमारे यहां लागू होना संभव नहीं लगती क्योंकि सिख धर्म के विद्यार्थियों द्वारा अपने केश बांधने के लिए पगड़ी धारण करने की परम्परा है और इसी आधार पर इस्लाम को मानने वाले मुस्लिम छात्राओं के लिए भी हिजाब और बुर्का पहनने की अपनी मांग को उचित बता रहे हैं।
विवाद का हल चाहे जो हो लेकिन इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता है कि विद्यार्थियों की शिक्षा किसी भी कीमत पर नहीं रुकनी चाहिए। इसके लिए यदि उन्हें नियमों में कुछ ढील भी देनी पड़े तो यह ठीक होगा क्योंकि ज़िद्दी रुख अपनाने से अच्छा लचीला बर्ताव करना है।
इस संदर्भ में इकबाल का यह अमर गीत आज एक बार फिर गुनगुनाना जरूरी हो गया है।
तराना. ए. हिन्दी
सारे जहां से अच्छा हिन्दोस्तां हमारा,
हम बुलबुले हैं इसकी यह गुलिस्तां हमारा।
गुबर्त में हों अगर हम रहता है दिल वतन में,
समझो वहीं हमें भी दिल हो जहां हमारा।
पर्वत वह सबसे उंचा हमसाया आसमां का,
वह संतरी हमारा वह पासबां हमारा।
गोदी में खेलती हैं इसकी हजारों नदियां,
गुलशन है जिसके दम से रश्के-जिनां हमारा।
ऐ आबे-रूदे-गंगा वह दिन है तुझ को,
उतरा तिरे किनारे जब कारवां हमारा।
मज़हब नहीं सिखाता आपस में बैर रखना,
हिंदी हैं हम, वतन है हिन्दोस्तां हमारा।
यूनानो-मिस्त्रो-रोमा, सब मिट गए जहां से,
अब तक मगर है बाकी नामो--निशां हमारा।
कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी,
सदियों रहा दुश्मन दौरे-ज़मां हमारा।
इक़बाल, कोई महरम अपना नहीं जहां में।
मालूम क्या किसी को दर्दे-निहां हमारा।
शनिवार, 5 फ़रवरी 2022
भोलापन, सादगी और भलमनसाहत कब बेईमान बना देती है ?
मानव का स्वभाव है कि वह जैसे वातावरण और जिन लोगों के बीच रहता है, उसी के अनुसार अपने को ढाल लेता है। अगर वह न भी ढलना चाहे तो उसके साथी, संघाती और परिवार के लोग दूसरों के उदाहरण देकर ढलने के लिए विवश कर देते हैं।
अगर कहीं इसमें सरकार के नियम, उसके कर्मचारी और ओहदेदार शामिल हों तब तो व्यक्ति के पास कोई विकल्प ही नहीं रहता कि वो अपने को यथा राजा तथा प्रजा की कहावत के अनुसार पूरी तरह से समय रहते न बदल ले।
गरीब से गरीबदास
हमारे देश के उपन्यास सम्राट मुंशी प्रेमचंद की कहानी का एक पात्र है जिसका नाम उन्होंने गरीब रखा जो बाद में अपने सहयोगियों की कृपा से गरीबदास हो गया।
गरीब एक गांव से शहर आकर चपरासी की नौकरी कर लेता है। यहां उसके साथी उसके भोलेपन और सादगी तथा भलमनसाहत का पूरा फ़ायदा उठाते हैं। वह मेहनत से काम करता है और उसके साथी अपना काम भी किसी न किसी बहाने से उससे कराते रहते हैं और यह बिना किसी विरोध के उनके काम करता रहता है। इस सब के बावजूद उसके साथी उसका अपमान करते रहते हैं और तनिक सी भी भूल होने पर गाली देने से लेकर पिटाई तक कर देते हैं।
एक दिन बड़े बाबू की मेज साफ करते हुए दवात के उलट जाने से स्याही फैल गई और इस बात पर बहुत डांट पड़ी। एक व्यक्ति ने बीच बचाव करते हुए कहा कि इसे माफ कर दें लेकिन तब ही दूसरा साथी बोला कि इसके गांव में इसके खेतों में अनाज, सब्जी, फल खूब होते हैं, पशुधन भी है लेकिन क्या मजाल कि इसके मन में कभी विचार भी आया हो कि यहां अपने साथियों को कुछ लाकर दे, कंजूस ही नहीं मक्खीचूस है।
गरीब अब तक सोचता था कि उसके खेत में जो उगता है, पशु जो दूध देते हैं, वह सब इन शहर में रहने वालों को क्योंकर अच्छा लगेगा बल्कि उसे गंवार कहा जायेगा। उसके पास पुश्तैनी ज़मीन है जिस पर खेतीबाड़ी होती है, दुधारू पशु हैं जिनसे अच्छी खासी आमदनी होती है । गांव में उसके लिए करने को कुछ काम नहीं था तो वह शहर आ गया और यहां चपरासी की नौकरी कर ली ।
यहां तक तो ठीक था लेकिन वह अपने साथ अपनी सादगी और ईमानदारी को भी गांव से ले आया था जिसके कारण उसे हिकारत से देखा जाता था। घर आते समय उसके ही गांव का एक व्यक्ति मिला और उसे अपनी परेशानी बताई। उसने सलाह दी कि एक बार वह अपने घर से कुछ समान लाकर इन्हें देकर देख ले कि शायद फिर उसका अपमान न हो।
गरीब ने ऐसा ही किया । दूध, गन्ने का रस और मटर तथा कुछ दूसरी चीजें लेकर दफ्तर पहुंचा लेकिन अंदर जाकर किसी को देने की हिम्मत न हुई। इतने में बड़े बाबू आए और उन्होंने इन चीजों को देखकर डांटा कि यह सब क्या है ? गरीब ने कहा कि आपके लिए लाया हूं। बड़े बाबू ने नकली मुस्कान से उस पर एहसान करते हुए आधी चीजें अपने घर भिजवा दीं और बाकी अन्य साथियों में बांट दी।
इसके बाद उसका नाम गरीबदास हो गया, सब साथी खुश दिखाई दिए और उससे इज्जत से पेश आने लगे। उसे अपने प्रति व्यवहार में हुए बदलाव का मंत्र मिल गया था । वह अब अक्सर जो चीजें बेकार समझकर या उपयोग में न आने से फेंक दी जाती थीं, वह दफ्तर में अपने साथियों और अधिकारियों को देने लगा। जब मन करता छुट्टी कर लेता, देर से पहुंचता और बिना दफ्तर जाए हाज़िरी लगवा लेता।
ऊपरी कमाई का अवसर
एक दिन उसे रेलवे स्टेशन से कुछ पार्सल लाने का काम दिया गया। उसने ठेला किया और बारह आने मजदूरी तय की। दफ्तर पहुंचकर खजांची से पैसे लिए और ठेले वाले को देने से पहले अपने लिए चार आने मांगे। मजदूरों ने मना किया तो धमकी दी कि अब एक भी पैसा नहीं देगा, जो चाहो कर लो। मज़बूरी में मज़दूरों ने आठ आने लेकर बारह आने की रसीद दी और चले गए।
यह कहानी बहुत साधारण है और आज़ादी के बाद अब से साठ साल पहले लिखी गई थी लेकिन सोच में डालने के लिए काफी है कि तब से लेकर आज तक हमारी सामाजिक व्यवस्था, सोच और कार्यप्रणाली में कोई फर्क ही नहीं पड़ा । मनुष्य काईयां, बेईमान, रिश्वतखोर क्यों बनता है और ऊपर की आमदनी को क्यों अपनी प्रमुख आय समझता है, इस सोच में कोई परिवर्तन नहीं हुआ।
यह सिलसिला यहीं नहीं रुकता । जमाखोरी, कालाबाजारी, मिलावट करने से लेकर टैक्स चोरी के नए तरीकों की खोज तथा कर्ज़ लेकर उसे न चुकाने की मानसिकता बनने और आर्थिक घोटालों पर जाकर भी नहीं थमता।
यह एक सच्चाई है कि जिस व्यवस्था में ईमानदारी को मूर्खता समझा जाए और दंड से अनैतिक आधार पर बच जाने को चतुराई तो वहां के निवासियों के सामने विकल्प ही नहीं रहता कि वह नियमों का उल्लंघन और कानून का निरादर न करें।
किसी भी देश, समाज या परिवार का आधार उसकी वर्तमान पीढ़ी होती है, अगर वह चाहे तो समय की विपरीत धारा को भी मोड़ सकती है और न चाहे तो बहती धारा में गोते लगाकर अपने स्वार्थ की पूर्ति कर सकती है।
आज जो आपाधापी और कोई भी मार्ग अपनाकर दूसरों से आगे निकलने की होड़ है, उसके सामने नैतिक मूल्यों, आदर्शों का कोई मोल नहीं है। गरीबी इतना बड़ा अभिशाप नहीं है जितना कि गरीबदास बनकर छल कपट से अपने लिए सुख साधन और संपत्ति अर्जित करना।