शुक्रवार, 24 फ़रवरी 2023

अक्षय ऊर्जा क्रांति विकसित देश बनने की राह आसान बना सकती है

हमारे देश में जब कृषि क्षेत्र में हरित क्रांति हुई थी तो हम खाद्यान्न के लिए विदेशों पर निर्भर थे। ज़मीन से अधिक उपज लेना ही इस स्थिति से बाहर निकाल सकता था। इसके लिए खेतीबाड़ी में बदलाव ज़रूरी थे जिससे किसान को अपनी मेहनत का सही मुआवज़ा मिले और देश भुखमरी के चंगुल से बाहर निकल सके।


आज वैसी ही स्थिति ऊर्जा के क्षेत्र में है। पूरी दुनिया पर इसका असर दिखाई दे रहा है।कोयले, डीज़ल, पेट्रोल और दूसरे परंपरागत साधनों से प्राप्त होने वाली ऊर्जा न केवल महँगी होती जा रही है बल्कि उससे प्रदूषण और जलवायु परिवर्तन तथा उससे होने वाले दुष्प्रभाव जीवन पर संकट बनकर सामने आ रहे हैं। औद्योगिक भारत बनने के लिए विद्युत उत्पादन के नवीन स्रोतों को खोजना और उनका भरपूर इस्तेमाल करना ही अनिवार्य विकल्प है।

अक्षय ऊर्जा का महत्व

इंग्लैंड, अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया, चीन जैसे देशों ने बहुत पहले अनुमान लगा लिया था कि अक्षय ऊर्जा का उत्पादन ही एकमात्र विकल्प है जो इस परेशानी से मुक्ति दिला सकता है। उनकी कोशिश थी कि कैसे ऊर्जा के वैकल्पिक स्रोतों को खोजकर इस दिशा में अग्रणी बना जाए। सूर्य, जल,पवन से असीमित रूप से मिलने वाली ऊर्जा का इस्तेमाल ही एकमात्र उपाय है जो वर्तमान और भविष्य का आधार बनकर उद्योगों का कायाकल्प कर सकता है।

इन सभी देशों की अधिकांश औद्योगिक प्रगति सौर ऊर्जा पर आधारित हो रही है। इसके विपरीत भारत जिस पर सूर्य और पवन देवता की महती कृपा है, वह अभी सोचने तक ही सीमित है और मामूली प्रयत्न ही कर पा रहा है। हमारा ज़्यादातर औद्योगिक विकास प्रदूषण फैलाने वाली कोयले के इस्तेमाल से निर्मित होने वाली ऊर्जा पर ही निर्भर है। हमारे उद्योग जल से प्राप्त होने वाली ऊर्जा का भी सही प्रबंध नहीं कर पा रहे हैं।

हालाँकि हमारे देश में अस्सी के दशक में वैकल्पिक ऊर्जा के साधन तैयार करने और उन्हें जन सामान्य तक सुलभ कराने के लिए अलग से विभाग और मंत्रालय बना दिए गए थे लेकिन उनके अब तक के किए गए कामों को देखा जाए तो निराशा ही हाथ लगती है। इसका एक कारण यह है कि सरकार कोयले से चलने वाले पॉवर प्लांट से प्राप्त होने वाली बिजली के मोह से बाहर नहीं निकल पाई है। विडंबना यह है कि सोलर प्लांट लगाना और उससे प्राप्त बिजली की आपूर्ति करना इतना महँगा है कि चाहे उद्यमी हो या साधारण नागरिक, वह इसका इस्तेमाल करने में कोई रुचि नहीं दिखाता।

ग्रीन हाइड्रोजन

भारत की भौगोलिक स्थिति और मज़बूत हो रही आर्थिक क्षमता इस बात का प्रतीक है कि हम ग्रीन हाइड्रोजन हब बन सकते हैं।सूर्य और पवन देवता की मेहरबानी इतनी है कि ग्रीन हाइड्रोजन का उत्पादन करना कोई मुश्किल काम नहीं है बशर्ते कि सरकार इसके लिये समुचित संसाधन बहुत कम क़ीमत पर उपलब्ध कराए। हाइड्रोजन को सस्ता बनाना ज़रूरी है क्योंकि यह औद्योगिक ईंधन का कारगर विकल्प है। इसी के साथ लोगों को इसके इस्तेमाल तथा उपयोगिता के बारे में अभियान चलाना होगा और इसकी टेक्नोलॉजी हासिल करना सुगम बनाना होगा।

यह बहुत तकनीकी विषय है लेकिन इसे सामान्य भाषा में समझने की ज़रूरत है। नेशनल ग्रीन हाइड्रोजन मिशन इसी का एक कदम है। सामान्य व्यक्ति के लिए इतना जानना काफ़ी है कि यह उन स्रोतों से प्राप्त किया जाता है जो अक्षय हैं जैसे कि सूर्य, जल और वायु। इसकी ख़ास बात यह है कि इससे कार्बन नहीं बनता और इसलिए प्रदूषण नहीं फैलाता। दूसरे देशों से मँगवाए जाने वाले फॉसिल ईंधन यानी कोयले पर निर्भरता कम हो जाती है जिस पर अभी एक लाख करोड़ रुपया खर्च होता है। स्थानीय स्तर पर इसका निर्माण किए जाने से यह पैसा बचेगा और इसके साथ ही इसमें रोज़गार की बहुत अधिक संभावनायें हैं। दूसरे देशों को इसका निर्यात हो सकता है।इसी के साथ बिजली से चलने वाली गाड़ियों का निर्माण और उनका चलना सुगम हो जाएगा।

यदि देश को ईंधन के क्षेत्र में आत्मनिर्भर बनाना है तो यही एक विकल्प है। अभी तक हम सौर ऊर्जा का ही पूरा लाभ नहीं उठा पाए हैं जबकि इसकी संभावनायें इतनी हैं कि पूरे देश की बिजली की ज़रूरत पूरी की जा सकती है। कह सकते हैं कि ग्रीन हाइड्रोजन आधुनिक और विकसित भारत का निर्माण करने में मील का पत्थर साबित हो सकता है। ग्लोबल मार्केट लीडर की भूमिका में भारत आ सकता है। सरकार को चाहिए कि इसे जन जन तक पहुँचाने के लिए प्रचार और प्रसार की मज़बूत व्यवस्था करे ताकि आम जनता समझ सके कि इसके क्या लाभ हैं और कैसे इससे तरक़्क़ी की जा सकती है।

शुक्रवार, 17 फ़रवरी 2023

रामकृष्ण परमहंस के अनुसार धार्मिक एकता से ही ईश्वर के दर्शन संभव हैं

 

हमारा देश आध्यात्मिक संतों, महात्माओं, गुरुओं और वेदों को सभ्यताओं का पोषक मानने वाली विभूतियों, दार्शनिकों तथा महापुरुषों की जननी रहा है। कह सकते हैं कि अध्यात्म जीवन की नींव है। कैसी भी परिस्थिति हो, मनुष्य को उसे समझने, समाधान खोजने और उससे बाहर निकलने के लिए एक साधन के रूप में इस्तेमाल किया जा सकता है। लक्ष्य सिद्ध होने के बाद प्राप्त होने वाले आनंद की चरमावस्था यही है।

अठारहवीं सदी भारत के इतिहास में बहुत उथलपुथल भरी रही। अंग्रेज़ी शासन अपनी जड़ें जमा रहा था और भारतीय जनमानस उसे सफल न होने देने के लिए क्रांतिकारी विचारधारा पर चल रहा था। फ़िरंगी हमारी कमज़ोरियों को खोजकर हमें अपना ग़ुलाम बनाने की हरसंभव कोशिश कर रहे थे।यहाँ तक कि धर्म के आधार पर हमें आपस में लड़ाने और बाँटने का खेल रच रहे थे।

रामकृष्ण परमहंस

ऐसे में बंगाल की धरती पर एक साधारण और ग़रीबी झेल रहे परिवार में अठारह फ़रवरी को एक बालक का जन्म होता है जिसका नाम गजाधर रखा जाता है जो बड़े होकर स्वामी रामकृष्ण परमहंस के रूप में प्रसिद्धि पाता है।

आज हम उनका स्मरण और उनके द्वारा किए गए अनेक प्रयोगों की बात इसलिए करना चाहते हैं क्योंकि आज सभी धर्मों के अनुयायियों में अपने धर्म को दूसरे से बेहतर बताने की होड़ लगी हुई है। इसके लिए वे आपस में लड़ाई झगड़ा और संघर्ष तक करने पर आमादा हैं। इस बात का महत्व इसलिए भी है क्योंकि जहां एक ओर यह कहा जाता है कि कोई भी धर्म आपस में बैर करना नहीं सिखाता लेकिन कुछ लोग इसे लेकर ईर्ष्या, द्वेष और नफ़रत फैलाने का कोई भी मौक़ा नहीं छोड़ना चाहते ताकि अस्थिरता बढ़े और उनके निहित स्वार्थ सिद्ध हो सकें।

स्वामी रामकृष्ण को ऐसे ही परमहंस नहीं कहा गया। उसका कारण था कि वे एक शिक्षक की भाँति अपने शिष्यों से कुछ कहने से पहले स्वयं उस बात को अपने पर लागू कर के देखते थे और जब पूरी तरह संतुष्ट हो जाते तब ही उस पर चलने के लिए कहते थे।

उनका जन्म हिंदू धर्म में हुआ था और वे दूसरे प्रमुख धर्मों विशेषकर इस्लाम और ईसाईयत को समझना चाहते थे। इसे जानने के लिए उन्होंने स्वयं को इन दोनों धर्मों के प्रवर्तकों को अपने अंदर अर्थात् अपनी आत्मा के साथ मिला कर देखने का प्रयोग किया। उन्होंने पाया कि वे जितने हिंदू हैं, उतने ही मुस्लिम और ईसाई हैं। कुछ अंतर नहीं है।

कहते हैं कि जब नरेंद्र यानी स्वामी विवेकानंद उनसे अपनी गुरु की खोज के दौरान पहली बार मिलने गए तो रामकृष्ण के नेत्रों से आंसुओं की झड़ी लग गयी और उन्होंने इस युवक को नर अर्थात् नारायण का अवतार कहा। नरेंद्र कुछ समझ नहीं पाए लेकिन जैसे जैसे वे समीप आते गए, दोनों एक दूसरे में समाहित और एकाकार होते गए। गुरु और शिष्य की इससे सुंदर व्याख्या और क्या होगी ?

यह प्रयोग ऐसा नहीं था कि केवल नरेंद्र के साथ होता था बल्कि प्रत्येक उस साधक अर्थात् विद्यार्थी के साथ होता था जो उनसे शिक्षा ग्रहण करने अर्थात् उनका शिष्य बनने की इच्छा से उनके पास आता था।

नरेंद्र जब तीसरी बार मिलने पहुँचे तो केवल रामकृष्ण द्वारा उन्हें छूने भर से उनका पूरा शरीर रोमांचित हो उठा। नरेंद्र के दृढ़ मन को एक झटका सा लगा और उन्हें आभास हुआ कि यह व्यक्ति साधारण नहीं है। एक गुरु की भाँति उनकी प्रत्येक शंका का समाधान कर सकता है। उसके बाद पाँच वर्ष तक नरेंद्र उनकी प्रत्येक कथनी और करनी को तर्क की कसौटी पर कसते रहे।

रामकृष्ण को अपने शिष्यों द्वारा अपनी परीक्षा लिए जाने से आनंद प्राप्त होता था। वे अपनी जाँच पड़ताल किए जाने और अपने व्यवहार के परखे जाने को स्वयं अपने शिष्यों से कहते थे। यदि शिष्य अपने गुरु की बात से संतुष्ट नहीं है तब शिक्षक द्वारा दी जाने वाली शिक्षा का कोई अर्थ नहीं है। यह ऐसा ही है कि जैसे रट्टा लगाकर परीक्षा पास कर ली जाए। इसके विपरीत यदि अपने गुरु या शिक्षक के ज्ञान की थाह लेने के लिए अपने मन में आए प्रश्नों के जवाब माँगे जाएँ तब ही पढ़ाई और ज्ञान का वास्तविक अर्थ समझ में आ सकता है।

रामकृष्ण के अनुसार शिक्षक वही जो विद्यार्थी का मन पढ़ने की क्षमता रखता हो और इसे जानने के लिए अपने बनाए तरीक़ों का इस्तेमाल करता हो। इस तरह जो विद्यार्थी कम बुद्धि रखता हो वह भी गूढ़ विषयों को समझने की योग्यता हासिल कर लेता है। विद्यार्थी और शिक्षक एक दूसरे से निरंतर कुछ न कुछ सीखते रहते हैं। साधारण और सामान्य सी लगने वाली घटना से कुछ अनदेखा और महत्वपूर्ण ज्ञान प्राप्त कर लेने की कला ही व्यक्ति को शिक्षित बना सकती है वरना तो चाहे डिग्रियों के कितने भी ढेर जमा कर लिए जायें, उनसे केवल जीवन यापन किया जा सकता है, मानसिक और वैचारिक समृद्धि हासिल नहीं की जा सकती।

एक विद्यार्थी के रूप में स्वामी विवेकानंद कहते थे कि उनके शिक्षक स्वामी रामकृष्ण परमहंस हमेशा उनके मन और हृदय में ज्ञान की लौ जगाए रखते थे।जिस प्रकार किसी पौधे को बढ़ने के लिए केवल खाद और पानी चाहिए और वह भी एक निश्चित समय के लिए, जड़ पकड़ने पर तो पौधा अपना बढ़ना स्वयं निश्चित कर लेता है।

अपने अस्तित्व की पहचान

जहां तक अध्यात्म और धर्म की शिक्षा का संबंध है तो यह दोनों ही अपने को जानने और समझने के लिए ज़रूरी हैं क्योंकि यह पता होना ही चाहिए कि मैं क्या हूँ, मेरा अस्तित्व क्या है और संसार में आने का मेरा अर्थ क्या है ?

यदि हम आज की बात करें तो धर्म का अर्थ हिंदू, मुस्लिम, बौद्ध, जैन, सिख, ईसाई आदि होकर रह गया है जबकि ये सब केवल ज़िंदगी जीने का एक तरीक़ा या सिद्धांत हैं और परम् सत्य अर्थात् ईश्वर की आराधना करने और उसकी खोज करने तथा उस तक पहुँचने का साधन हैं। उसे चाहे जिस नाम से भी पुकारो, लक्ष्य वही सत्य है।

आज के दौर में जब धर्म के अनुसार राष्ट्र बनाने की बात सुनाई देती है तो वह बचकानी लगती है। इसे लेकर घोषणा करने वालों के अपने स्वार्थ हैं, सामान्य व्यक्ति के मन को विचलित करने का प्रयास हैं, इसका न केवल विरोध होना चाहिए बल्कि ऐसे लोगों के प्रति कठोर कार्यवाही भी हो क्योंकि यह समाज को बाँटने की कोशिश के अतिरिक्त कुछ नहीं है।

स्वामी रामकृष्ण परमहंस की मान्यता थी कि धर्म की पवित्रता का कोई अर्थ नहीं जब तक आत्मा शुद्ध नहीं है।धर्म की शिक्षा तब कट्टरपन बन जाती है जब ईश्वर या सर्वशक्तिमान् की सत्ता को नकारने के प्रयास शुरू हो जाते हैं और तब धर्म हमें बेक़ाबू कर देता है, परिणामस्वरूप दंगे होते हैं और जीवन बिखरने लगता है।

धर्म का लक्ष्य

धर्म मन की शांति के लिए है, उससे समाज में ख़ुशहाली की उम्मीद की जा सकती है। धर्म मानवता की सेवा के लिए है, उसका इस्तेमाल सामाजिक और आर्थिक समस्याओं को सुलझाने के लिए किया जा सकता है। धार्मिक संस्थाओं द्वारा ग़रीबी दूर की जा सकती है, ज़रूरतमंद विद्यार्थियों की मदद की जा सकती है, नौकरी या कारोबार करने के लिए सहायता दी जा सकती है, शिक्षा के प्रसार के लिए प्रबंध किए जा सकते हैं, स्वास्थ्य सेवाओं की पूर्ति की जा सकती है। इससे भी आगे बढ़कर समाज में एकरूपता लाने के लिए प्रयत्न किए जा सकते हैं।इसके अतिरिक्त धर्म का इस्तेमाल कोई व्यक्ति समाज में भेदभाव के लिए करता है तो सावधान होना आवश्यक है।

शुक्रवार, 10 फ़रवरी 2023

युवाओं के बीच बढ़ती निराशा और कुंठा की रोकथाम किए बिना प्रगति संभव नहीं

अक्सर युवावर्ग पर, उस पीढ़ी द्वारा जो अपने को अनुभवी, परिपक्व और समझदार कहती है, ग़ैर ज़िम्मेदार, एक सीमा से अधिक महत्वाकांक्षी और सब कुछ पल भर में पा लेने का आरोप लगाया जाता है। अब क्योंकि नियम बनाने और अपनी मर्ज़ी से निर्णय लेने की शक्ति उसके पास नहीं है तो वह सब होता है जो युवाओं के लिए हानिकारक है और उन्हें निराश करने के लिए काफ़ी है।


कुंठित रहने की संस्कृति

परिवार हो या आपका कार्यक्षेत्र यानी जहां नौकरी या व्यापार करते हैं, वहाँ यदि यह महसूस होने लगे कि हमारी बात तो सुनी ही नहीं जाती तो फिर वातावरण सहज नहीं रहता, बोझिल बन जाता है। ऐसे में यही विकल्प बचता है कि या तो जो है और चल रहा है उसे स्वीकार कर लो या छोड़छाड़ कर दूसरे रास्ते तलाश करो। मतलब यह कि जो आप हैं, वह नहीं रहते या मज़बूर कर दिये जाते हैं कि न रहें। इससे कुंठा और निराशा का जन्म होता जाता है। समय के साथ यह एक संस्कृति हो जाती है कि अपनी ज़ुबान बंद रखने में ही भलाई है। अपनी बात पर दृढ़ रहने की क़ीमत चुकानी पड़ती है और यह हरेक के बस की बात नहीं होती क्योंकि परिवार और समाज के बंधनों को तोड़ना आसान नहीं होता।

नये वर्ग और समीकरण

इस परिस्थिति में युवा वर्ग दो भागों में बंट जाता है; एक कि मेरी ज़ुबान बंद रहेगी, दूसरा मेरे साथ ज़बरदस्ती करने की कोशिश मत करना। विडंबना यह है कि परिणाम दोनों स्थितियों में नकारात्मक ही निकलते हैं। एक में आपकी प्रतिभा की कद्र नहीं होती और दूसरे में अपनी बात की अहमीयत सिद्ध करने के लिए एक ऐसी लड़ाई लड़नी पड़ जाती है जिसमें यह नहीं पता होता कि किसके ख़िलाफ़ लड़ रहे हैं और उससे भी बढ़कर यह कि क्यूँ लड़ रहे हैं ? ऐसे में अगर आप महिला हैं तब तो मुश्किलें और भी ज़्यादा हो जाती हैं क्योंकि नियम या क़ानून क़ायदे बनाने वाले ज़्यादातर पुरुष होते हैं और वही उनका पालन करवाने वाले होते हैं।

परिणामस्वरूप ऐसे में तीन वर्ग बन जाते हैं; अपने को सर्वश्रेष्ठ और सभी गुणों से संपन्न मानने वाले, दूसरे साधारण यानी आम व्यक्ति और तीसरे दास जिनकी कोई आवाज़ नहीं होती। इनका मूल्य भी इसी आधार पर तय होता है। पहले वर्ग का व्यक्ति सबसे अधिक, दूसरा उससे आधा और तीसरा चौथाई से भी कम पाता है। पुरुष हो या महिला उनका आकलन इसी आधार पर होता है।

उदाहरण के लिए यदि कोई तथाकथित माननीय किसी साधारण व्यक्ति के साथ अन्याय, ज़ोर ज़बरदस्ती, अमानवीय व्यवहार या दुष्कर्म करता है तो उसकी सज़ा कम होती है या होती ही नहीं और यदि किसी दास की श्रेणी में आने वाले के साथ करता है तब तो उसकी न तो सुनवाई होती है और न ही दुहाई दी जा सकती है। इसके विपरीत यदि यह स्थिति उलट हो अर्थात् साधारण या दास वर्ग का व्यक्ति किसी माननीय के साथ वही हरकत करता है जो उसके साथ पहले वर्ग के व्यक्ति ने की थी तो उस पर दण्ड, सज़ा और उसकी प्रताड़ना सब कुछ लागू हो जाता है। यह ठीक वैसा ही है कि समर्थ, संपन्न और ओहदेदार व्यक्ति कुछ भी कहे, करे तो वह नियम माना जाए और कोई साधारण या दास करे तो वह उसका भाग्य जैसे कि पति अपनी पत्नी के अतिरिक्त किसी अन्य से संबंध बनाए तो वह मर्दानगी और यदि पत्नी यही करे तो वह सज़ा की हक़दार।

निर्णय लेने का अधिकार

मूल बात यह है कि यदि समानता की रक्षा करनी है तो निर्णय लेने, नियम और क़ानून क़ायदे बनाने का काम तीनों वर्गों को सम्मिलित रूप से करना होगा। यदि ऐसा नहीं होता तब संपूर्ण समाज को मिलने वाले लाभ कभी समान या एक बराबर नहीं हो सकते।एक वर्ग अपने लिए बहुत कुछ रख लेता है और शेष दोनों वर्गों के लिए जो बचता है वह ऊँट के मुँह में जीरे के समान होता है। आज जो यह देखने को मिलता है कि एक वर्ग की संपत्ति कुछ ही समय में दुगुनी चौगुनी हो रही है और बाक़ी की हालत दयनीय होती जा रही है तो उसका कारण यही है कि समान अधिकार और एक जैसी न्याय व्यवस्था की बात केवल काग़ज़ों में कही जाती है, व्यवहार में इसका उलट होता है।

युवा वर्ग को यही बात खलती है कि उसके सपनों और उसके अंदर कुछ नया करने की क्षमता और उसकी ऊर्ज़ा का इस्तेमाल करने का ठेका उस वर्ग ने ले रखा है जो अपनी परंपरागत, दक़ियानूसी और सड़ी गली सोच से बाहर निकलना ही नहीं चाहता। यही कारण है कि अपने पैरों में बेड़ियाँ डाले जाने और पंख कुतर दिये जाने से पहले वह किसी दूसरे देश में उड़ान भर लेता है और जो ऐसा नहीं कर पाते वे जीवन भर निराशा, कुंठा और असमंजस के भँवर में गोते खाते रहते हैं।

युवाओं को अपनी संस्कृति स्वयं बनाने दीजिए। उनके काम करने के तरीक़ों का फ़ैसला उन पर छोड़ दीजिए।ग़लतियाँ उनकी, अपनी कमज़ोरियों के कारण हुए नुक़सान के भी वे ही ज़िम्मेदार तो फिर डर किस बात का ?


शनिवार, 4 फ़रवरी 2023

गर्भवती होना स्त्री की मर्ज़ी पर आधारित उसका क़ानूनी अधिकार होना चाहिए

 

जब कोई महिला गर्भ धारण करती है और फिर शिशु को जन्म देती है तो अक्सर ईश्वर की कृपा, अल्लाह की देन या जो भी कोई धर्म हो, उसके प्रवर्तक की अनुकंपा कहकर धन्यवाद करने की परंपरा है। हक़ीक़त यह है कि यह कहकर पुरुष और स्त्री दोनों अपनी करनी का जिम्मा किसी अज्ञात शक्ति पर डालकर अपना पल्ला झाड़ने का काम करते हैं जबकि सिवाय उनके इसमें किसी भी का कोई हाथ नहीं हैं चाहे वह ईश्वर हो या कोई दिव्य कही जाने वाली ताक़त।


मेरे शरीर पर मेरा अधिकार

हालाँकि प्रजनन या रिप्रोडक्शन की क्रिया में दोनों की मर्ज़ी होती है पर स्त्री पर सबसे ज़्यादा असर पड़ता है । उस पर नौ महीने तक गर्भ में और प्रसव होने के बाद घर या परिवार में शिशु का लालन पालन करने और एक अच्छी संतान के रूप में बड़ा करने की ज़िम्मेदारी होती है। अगर लड़का या लड़की बड़े होकर भले बने तो इसका श्रेय पिता या परिवार को जाता है और कहीं ग़लत निकले तो माता को बुरा कहने का दौर शुरू होकर उस पार लांछन लगाने से लेकर उसकी ज़िंदगी को दूभर तक करने में कोई कसर नहीं छोड़ी जाती।

प्रश्न यह है कि जब महिला को ही पति, परिवार और समाज को जवाब देना है तो फिर यह अधिकार भी उसका ही बनता है, उसे गर्भवती होना है या नहीं होना है, यह निर्णय उसका हो। यदि वह नहीं चाहती कि पुरुष उसके साथ असुरक्षित अर्थात् बिना किसी गर्भ निरोधक उपाय का इस्तेमाल किए शारीरिक संबंध बनाने पर ज़ोर डाले या नज़बूर करे तो उसका अधिकार है कि वह मना कर दे।

यदि घरवाले, सामाज के ठेकेदार यानी असरदार लोग जैसे मुखिया, सरपंच आदि और उससे भी आगे मामला अदालत में चला जाए और पति दावा करे कि यह उसके कंजुगल राइट्स यानी यौन संबंध बनाने के अधिकार का उल्लंघन है तो उसे कोई क़ानूनी राहत न मिले। यह तब ही हो सकता है जब इस बारे में पब्लिक हैल्थ सिस्टम के अंर्तगत क़ानून बनाया जाए। यह स्त्री की मर्ज़ी है कि वह निर्णय ले कि उसे संतान कब होनी चाहिए न कि पुरुष या घर के अन्य सदस्य क्योंकि यह उसका शरीर है जिस पर सबसे अधिक असर पड़ेगा।यदि वह इसके लिए राज़ी नहीं है तो आज के युग में बहुत से ऐसे साधन हैं जिनसे बिना स्वयं गर्भ धारण किए माता पिता बना जा सकता है।

यह अधिकार या इसे लेकर बना क़ानून सभी पर लागू हो, मतलब चाहे कोई खेत में काम करे, फैक्ट्री वर्कर हो, मज़दूरी करे, दिहाड़ी पर हो, किसी दफ़्तर में काम करे, अपना व्यवसाय करे या जीवन यापन के लिए कुछ भी करे, यदि संतान चाहिए तो यह स्त्री पर हो कि कब चाहिए और यदि वह न चाहे तो उस पर कोई दोष, कलंक न लगे या ज़बरदस्ती न की जाए। क़ानूनी व्यवस्था के साथ सामाजिक चेतना हो कि स्त्री के शरीर पर उसका हक़ है और इसमें धर्म, जाति, संप्रदाय या समुदाय का दखल न हो।

अधिकार के लाभ

गर्भ निरोधक का इस्तेमाल किए बिना न कहने का अधिकार मिल जाने से होने वाले लाभ इतने हैं कि अगर यह हो गया तो इसके दूरगामी परिणाम होने निश्चित हैं। चूँकि यह विषय बहुत संवेदनशील , नाज़ुक और पुरुष तथा स्त्री की भावनाओं से जुड़ा है इसलिए यह समझना ज़रूरी है कि इसके फ़ायदे क्या हैं ;

सबसे पहला लाभ तो यह होगा कि उतने ही बच्चे होंगे जितने की ज़रूरत परिवार, समाज और देश को होगी। जिसकी जितनी औक़ात या पालने की हिम्मत होगी, उससे ज़्यादा बच्चे नहीं होंगे। इस क़ानून के बन जाने से सरकार को पता होगा कि उसे कितनी आबादी के लिए स्वास्थ्य सेवाएँ मुहैया करानी है, उनकी शिक्षा के लिए कितनी व्यवस्था करनी है और रोज़गार एवं व्यापार तथा काम धंधों का इंफ़्रास्ट्रक्चर कितना बड़ा तैयार करना है।

इसका दूसरा लाभ यह होगा कि सरकार को परिवार नियोजन के लिए कोई नीति बनाने, कार्यक्रम या प्रचार प्रसार करने की ज़रूरत नहीं रहेगी और इस तरह करोड़ों रुपया बचेगा। इस पैसे का इस्तेमाल गर्भ निरोधक साधन जैसे कंडोम बनाने और उनकी सप्लाई सुनिश्चित करने पर होगा। इसके साथ ही गर्भवती महिलाओं को अपने घर से स्वास्थ्य केंद्र या अस्पताल में टीका लगवाने या प्रसव के लिए आने या उन्हें सुरक्षित तरीक़े से वहाँ तक ले जाने की सुविधा और साधन तैयार करने पर खर्च हो। प्रसव और उसके बाद जच्चा बच्चा के लिए निःशुल्क सैनिटोरियम या क्रैडल सुविधा, विशेषकर गाँव देहात और दूरदराज़ क्षेत्रों में देने पर सरकार को खर्चा करना होगा।

तीसरा लाभ यह होगा कि इस क़ानून से महिलाओं को यह एहसास और आभास होगा कि परिवार और समाज में उनकी एक हैसियत यानी आइडेंटिटी है, उनकी स्त्रियोचित गरिमा को कोई ठेस नहीं पहुँचा सकता।पति या परिवार उसके गर्भवती होने को लेकर लड़ाई झगड़ा, बदतमीज़ी या दुर्व्यवहार करता है तो समाज और क़ानून उसे सज़ा दे सकता है। इससे महिला का मनोबल बढ़ेगा और वे मेरे शरीर पर मेरे अधिकार की भावना के साथ अपनी मर्ज़ी के मुताबिक़ कोई भी फ़ैसला कर सकती हैं।

चौथा लाभ यह होगा कि चूँकि कोई भी महिला सोच समझकर अर्थात् अपनी आर्थिक स्थिति को ध्यान में रखकर ही गर्भवती होने का निर्णय लेगी तो आज यह जो सड़कों पर नंग धडंग बच्चे आवारा घूमते, चौराहों पर कारों के पीछे भागते दिखाई देते हैं या फिर माँ बाप के काम पर जाने के बाद ग़लत संगत में पड़ जाते हैं, ऐसे दृश्य देखने को नहीं मिलेंगे। इसी के साथ बच्चों में यौन हिंसा या संबंध होने के मामलों में भी कमी आएगी। असल में होता यह है कि एक ही कमरे में बच्चों की मौजूदगी अर्थात् एक साथ सोने से माता पिता के प्रेमालाप के कारण उनमें जो जिज्ञासा पैदा होती है, उसकी शांति के लिए वे वैसी हो हरकत करते हैं जो वे देखते हैं।

इस क़ानून का एक लाभ यह भी होगा कि गर्भपात के मामलों में कमी आयेगी। अक्सर इच्छा और ज़रूरत न होने के कारण जब गर्भ ठहर जाता है तो उसे गिराने में ही भलाई लगती है और जब यह बार बार होता है तो इसका नुक़सान स्त्री को ही अपनी सेहत की क़ीमत से चुकाना पड़ता है।

यह क़ानून ज़रूरी क्यों है ?

वास्तविकता यह है कि देश में ग़रीबी हो या बेरोज़गारी, इसका सबसे बड़ा कारण बढ़ती आबादी है और जो है उसका सही ढंग से परवरिश न कर पाना है। जब गर्भ धारण करने के अधिकार का इस्तेमाल महिला को अपनी मर्ज़ी से करना होगा तो वह कभी नहीं चाहेगी कि उसकी संतान किसी अभाव में रहते हुए बड़ी हो।

एक बात यह भी है कि बहुत से धर्मों में गर्भ निरोधक इस्तेमाल करने की मनाही है और धर्मगुरु, पादरी, पुजारी यह तक हिदायत देते हैं कि जन्म के बाद शिशु को माँ का पहला दूध कब पिलाया जाए। इसी के साथ वे संतान होने या न होने पर टोने टोटके भी कराते हैं। जब महिला यह फ़ैसला लेने के लिए तैयार हो जाएगी कि उसे बच्चा चाहिए या नहीं और वह मज़बूती से अपनी बात पर क़ायम रहने का मन बना लेगी तो वह किसी ढोंगी के चक्कर में नहीं पड़ेगी।

महिला सशक्तिकरण की दिशा में यह क़ानून जो सिर्फ़ इतना है कि स्त्री को न कहने का क़ानूनी और सामाजिक अधिकार मिले तो फिर देश की दशा और दिशा बदलना निश्चित है।