शुक्रवार, 17 दिसंबर 2021

प्रतिभा पलायन से होने वाले नुकसान को रोकने के उपाय करने ही होंगे

संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा घोषित अनेक दिवसों में एक है; अंतरराष्ट्रीय प्रवासी दिवस जो प्रति वर्ष दस दिसंबर को मनाया जाता है। भारत के संदर्भ में इसका महत्व इसलिए है कि यह देश की प्रतिभा का दूसरे देशों को समृद्ध बनाने के लिए पलायन यानी ब्रेन ड्रेन पर गंभीरता से विचार करने का दिन है। कड़वा सच है कि हमें पिछड़ा, गरीब और याचक बनाए रखने के लिए यह अमीर देशों का षड्यंत्र है जिसकी नींव स्वतंत्रता हासिल करने के कुछ समय बाद ही पड़ गई थी।

पढ़ेगा इंडिया बढ़ेगा अमरीका

सोशल मीडिया पर एक संदेश देखा जा रहा है जो कुछ इस तरह से है: जब पढ़ेगा भारत, तब ही बढ़ेगा अमेरिका। यह एक प्रकार से सच या हकीकत को पूरी नग्नता के साथ बयान करना है जिसकी टीस प्रत्येक नागरिक के मन में उठना स्वाभाविक है। यह सोच गलत नहीं है कि अगर भारत से प्रतिभा पलायन न होता या न होने दिया जाता तो आज हम विकसित देश कहलाते ?

एक उदाहरण याद आ रहा है ; बात साठ के दशक की है जब पत्रकारिता और लेखन को अपना व्यवसाय बनाने का निश्चय कर इसे सीखना शुरू किया था। उस दौरान एक अमरीकन से मुलाकात हुई जो मित्रता में बदल गई।  आपस में एक दूसरे के बारे में बहुत सी बातें बातचीत में शामिल होने लगीं। एक दिन उसने कहा कि “ मुझे खर्च करने दिया करो क्योंकि तुम्हारे देश से मुझे इतना वेतन मिलता है कि मैं यहां पूरे ऐशो आराम से रह सकता हूं। “ उस समय उसका वेतन लगभग दस हजार होगा जो आज दस लाख से अधिक तो होगा ही।

एक झटका लगा जब एक दिन उसने कहा कि “ पता नहीं क्यूं इंडियन गवर्नमेंट ने मुझे नियुक्त किया जबकि मैं अपने अधीन जिनके साथ काम करता हूं, वे योग्यता में मुझसे तनिक भी कम नहीं, बल्कि सच तो यह है कि मुझसे अधिक योग्य हैं। “ कुछ समय बाद उसका सरकार के साथ एग्रीमेंट समाप्त हो गया। हालांकि भारत सरकार उसे बढ़ाना चाहती थी लेकिन वह इंकार कर वापिस अपने देश चला गया।

यह उदाहरण इस बात का सबूत है कि देश की सरकार ने अपने नागरिकों की योग्यता पर न केवल भरोसा ही नहीं किया बल्कि उन्हें यहां से किसी भी तरह विदेश में जाकर बसने के लिए विवश कर दिया। अब यह तो सब ही जानते हैं कि देश की योग्य पीढ़ी के सामने अपने सपनों को पंख लगाने के लिए विदेश की धरती हमेशा से लुभाती रही है। इसका परिणाम यह हुआ कि अमरीका जैसे देशों को बिना कुछ करे असीम योग्यता वाले भारतीय मिलने लगे।

यह कहते हुए कुछ लोगों को गर्व हो सकता है लेकिन वास्तविकता यह कि इससे अधिक शर्म की बात नहीं हो सकती कि आज अमरीका जैसे देशों में भारत के लोग सबसे ऊंचे ओहदों पर हैं। अगर इन्हें उस समय रोक कर रखा जा सकता तो इसकी कल्पना करना कोई रॉकेट साइंस नहीं है कि भारत विश्व में किस स्थान पर होता !

एक और उदाहरण है। रूस, चीन और जापान तथा अमरीका, इंग्लैंड, जर्मनी तक  ने अपने नागरिकों की प्रतिभा का पलायन रोकने के लिए इस तरह का वातावरण बनाया, ऐसी बंदिशें लगाईं तथा कानून बनाए और अपने देश में ही रहकर अपनी प्रतिभा दिखाने के इतने अवसर प्रदान किए कि कोई अपना देश छोड़कर नौकरी या रोज़गार के लिए कहीं और जाने की सोच को अपने अंदर आने ही नहीं देता था। क्या यही एकमात्र कारण नहीं है कि इन देशों का लोहा पूरी दुनिया मानती है। अभी भी इन देशों के नागरिक विदेशों में अपने कारोबार को बढ़ाने के लिए जाते हैं, बाहर हमेशा के लिए रहने के लिए नहीं। हमारे यहां इसका नितांत उल्टा है कि भारतीय को तनिक भी अवसर मिले वह विदेश जा कर वहां बसने के लिए तैयार रहता है।

ऐतिहासिक तथ्य

विश्व प्रवास दिवस पर यह बात भी ध्यान में आती है कि भारत से तो हमेशा से ही प्रतिभा का पलायन होता रहा है। महात्मा गांधी को भी अपनी वकालत की योग्यता दिखाने का अवसर विदेश में ही मिला और वे वहां बस भी गए। यदि वे, किसी भी परिस्थिति के कारण हो, भारत  न लौटते तो क्या कभी राष्ट्रपिता बन सकते थे ?

इस दिन यह स्मरण होना स्वाभाविक है कि अपने देश में अवसर होते हुए भी विदेश में रहने और वहां खाने कमाने की अधिक संभावनाएं दिखाई देने का सबसे बड़ा कारण हमारे देश की सरकारों का विदेशियों को यहां आकर भारतीयों को मानसिक गुलाम बनाए रखने की सुविधाएं प्रदान करना है।

यह कहने और मान लेने में कोई हेठी नहीं है कि आज़ादी के बाद ऐसे हालात बनाए ही नहीं गए कि देश की प्रतिभा और उसके नागरिकों की योग्यता की सही परख हो पाती। यदि ऐसा होता तो चाहे कितने भी प्रलोभन होते, कोई भी भारतवासी देश से बाहर जाकर अपनी योग्यता दिखाने के बारे में सोचता तक नहीं ! 

चलिए मान लेते हैं कि जो हुआ उसे लौटाया नहीं जा सकता लेकिन आज भी सरकार यह समझने को तैयार नहीं है कि देश की प्रतिभा को बाहर न जाने दिया जाए, रोक कर रखने के लिए वे सब सुविधाएं उसे दी जाएं कि उसके मन में कहीं और जाकर अपनी योग्यता दिखाने की बात मन में ही न आने पाए।

यह सोचना कि जो भारतीय विदेशों में बस गए हैं, वे सब कुछ छोड़कर यहां वापिस आयेंगे, कोरी कल्पना और अपने को गलतफहमी में रखना है, इसलिए ऐसे उपाय करने होंगे  कि जो यहां रहकर अपनी प्रतिभा दिखाना चाहते हैं उन्हें कैसे रोक कर रखा जाए। यह कहना भी छलावा है कि राष्ट्र भक्ति और देश सेवा की भावना के कारण वे रुक सकते हैं ! मनुष्य अपनी प्रकृति से स्वार्थी होने के कारण जहां उसे अवसर मिलेगा, वह उसे पहले पाने के लिए कोशिश करेगा, बाकी सब बेकार है।

मर्ज़ी और मज़बूरी

कोई भी व्यक्ति अपनी मर्ज़ी से विदेश तब जाता है जब उसके सामने ऐसे अवसरों की कोई कमी न हो जिनके बल पर वह अपनी प्रतिभा के अनुसार वेतन और अन्य सुविधाएं हासिल कर सके। इसका मतलब यह है कि वह तुलना करता है कि देश में उसे यह सब कुछ मिल सकता है या नहीं, अगर नहीं तो वह किसी भी तरीके से वहां जायेगा जहां उसे यह सब आसानी से मिल जायेगा। इस श्रेणी में अधिकतर वे युवा आते हैं जो इतने काबिल हैं कि कोई भी संस्थान उन्हें अपने साथ जोड़ने और साथ ही जोड़े रखने के लिए उनकी सोच से भी अधिक वेतन और भत्ते देने की पेशकश करता है।  जब उसके सामने किसी एक को चुनने का अवसर आता है तो वह बेहिचक मल्टी नेशनल कंपनियों को चुनकर अपनी मातृभूमि को अलविदा कहने में कतई संकोच नहीं करता।

दूसरी स्थिति में कोई व्यक्ति विदेश तब जाता है जब उसके सामने कोई मजबूरी होती है जिसके कारण बाहर जाने में ही वह अपना भला समझता है। इन कारणों में देश में प्रशासनिक स्तर पर व्याप्त भ्रष्टाचार, कोटा सिस्टम, योग्यता के स्थान पर आरक्षण को मान्यता और राजनीतिक स्तर पर भाई भतीजावाद प्रमुख हैं।

जो भी भारतीय विदेशों में रहने का सपना देखते हैं, उनमें दो प्रकार के लोग होते हैं ; एक तो वे जो पढ़ लिख कर सब कुछ समझते हुए अपनी दिशा निर्धारित करते हैं और दूसरे वे जो विदेश में जाकर ज्यादा कमाई करने और देश में अपने परिवार को सुखी जीवन देने के लिए कोई भी काम मिलते ही चले जाते हैं। इनमें मज़दूर, कारीगर और कम पढ़े लिखे लोग होते हैं।

इन दोनों ही श्रेणियों के लोगों को देश में ही रोके रखा जा सकता है बशर्ते कि सरकार की नीतियां इस प्रकार की हों जिनमें किसी के साथ भेदभाव या ज्यादती होने की संभावना न हो। यह नीतियां तब और भी अधिक तत्परता से बनाए जाने की ज़रूरत है जब सच यह हो कि एक बार विदेश में जाने, मज़दूरी, नौकरी, व्यवसाय और सुविधा संपन्न जीवन जीने की राह इतनी आसान है  तो वह किसी के रोके नहीं रुकता ।

जब समृद्ध और विकसित देशों के प्रतिभाशाली युवा अपने देश की नीतियों के कारण भारत में नहीं बसते तो फिर भारतीय युवाओं को क्यों नहीं देश में रहकर अपनी योग्यता के अनुसार अवसर देने की व्यवस्था की जा सकती, ज़रा सोचिए ? 


शुक्रवार, 10 दिसंबर 2021

विश्व मानवाधिकार दिवस पर क्या संदेश होना चाहिए ?

 


दस दिसंबर 1948 को संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा समानता पर आधारित और भेदभाव रहित संसार की कल्पना को साकार करने के लिए विश्व मानवाधिकार दिवस मनाए जाने की परंपरा की शुरुआत की गई।

मनमानी का अधिकार नहीं

चीन में 2022 के ओलंपिक शीतकालीन खेलों का बहिष्कार दुनिया के बड़े और छोटे देशों द्वारा किया गया है। इसका अर्थ यह है कि चीन की नज़रों में मनुष्य के अधिकार का कोई मूल्य नहीं और इसका एहसास उसे कराया जाना चाहिए कि अगर उसने इसी तरह मानवाधिकारों का उल्लंघन किया तो उसे दुनिया की बिरादरी में बैठने लायक नहीं समझा जायेगा।

चीन अपनी ज़िद और हठधर्म का पालन करने से अपने इस बहिष्कार पर चाहे ध्यान न दे और अपने आचरण में कोई परिवर्तन न करे, फ़िर भी जगहंसाई और निंदा से तो वह बच नहीं सकता। क्या इसका मतलब यह नहीं कि आप चाहे कितने भी अपने घमंड में चूर होकर अपनी सोच को न बदलें पर अंदर से एक टीस तो उठेगी ही और दिल से आवाज़ भी आयेगी कि मैं जो कर रहा हूं या करने जा रहा हूं , वह गलत है।

अगर अपने देश में देखें तो किसान आंदोलन पर सरकार की माफी और उनकी बातों को सुनना और जो हुआ उस पर अफसोस ज़ाहिर कर मान लेना यही बताता है कि इस मामले में गलती तो हुई है और उसे मान लेने में कोई हानि नहीं बल्कि सरकार का बड़प्पन ही है कि उसने वास्तविकता को समझकर कदम उठाया और इस तरह अपनी गरिमा को कायम रखा तथा किसानों के मानवाधिकारों को भी समझा।

कठिनाइयों से सबक

जहां तक विश्व मानवाधिकार दिवस का संबंध है तो इसकी रूपरेखा उस समय बनाई गई जब दुनिया ने दूसरे विश्व युद्ध में हुए मनुष्यता के पतन को देख लिया था। पूरा संसार उसके परिणामों से उत्पन्न हालात से दुःखी था और भविष्य में कभी इस तरह के युद्ध न हों जिसकी चपेट में सभी देशों को अपनी मर्ज़ी या मजबूरन आना पड़े, इसके लिए विश्व स्तर पर कोई ऐसा संगठन बनाया जाए जो यह सुनिश्चित करे कि अगर किसी देश में मनुष्य के अधिकारों का उल्लंघन होता है तो उसके विरुद्ध जन मत तैयार किया जा सके ताकि समय रहते वह देश अपनी गलती समझे और जो वह कर रहा है, उसे रोकने की  व्यवस्था करे। हालांकि ऐसा करना उसकी कोई मज़बूरी नहीं, फ़िर भी अगर उसने दुनिया में सिर उठाकर जीना है और भाईचारे के साथ रहना है तो उसे अपने कदम पीछे हटाने ही होंगे और मानवाधिकारों का पालन करना होगा।

संयुक्त राष्ट्र ने जब विश्व मानवाधिकार संगठन बनाया तो शुरू में इसमें वे देश भी शामिल हो गए जो हत्या, बलात्कार और अन्य जघन्य अपराधों के लिए जाने जाते थे। हो सकता है कि वे अपने दुष्कर्मों पर पर्दा डालने के लिए इसमें सम्मिलित हुए हों लेकिन जब विश्व के शांतिप्रिय देश अधिक मात्रा में इसके उद्देश्यों को मानकर शामिल होने लगे तो उनकी एकता के सामने ऐसे सदस्यों को झटका लगना स्वाभाविक था। इसी का परिणाम आज पूरा विश्व देख रहा है।

मानवाधिकार असल में क्या हैं तो यह बिल्कुल सामान्य और साधारण हैं जिन्हें समझने के लिए दिमाग़ पर ज्यादा ज़ोर डालने की जरूरत नहीं है। संसार से गरीबी मिटाने, सब को समान अवसर देने, शिक्षा, स्वास्थ्य को प्राथमिकता देते हुए जीवन जीने के अधिकार को समझते हुए ऐसी स्थितियों का निर्माण करना ही तो है जिससे वसुधैव कुटुंबकम् की भावना का विकास हो और सभी प्रेम, शांति तथा सद्भावना के माहौल में रह सकें।

जन्म से ईश्वर ने किसी भी प्राणी के साथ कोई भेदभाव नहीं किया, उसका धर्म, जाति तय नहीं की।  पुरुष तथा स्त्री केवल उसके जन्म के साधन मात्र हैं तो फ़िर किस आधार पर धार्मिक, जातिगत, लिंगभेद के कारण उसके साथ भेदभाव ही नहीं करते, बल्कि उसे यह सिखाते भी हैं कि वह भी इन सब बातों को मानते हुए ही बड़ा हो ?

हमारे मानवाधिकारों में नागरिक, राजनीतिक, आर्थिक,सामाजिक और सांस्कृतिक अधिकार ही तो आते हैं जिनका संरक्षण करने की जिम्मेदारी सरकार और संविधान के अंतर्गत उसके बनाए कानूनों द्वारा सुनिश्चित करने की है। इनका उल्लंघन करने पर कानून के मुताबिक न्याय देने की जिम्मेदारी तत्कालीन सरकार और उसके आधीन व्यवस्था की है कि वह एक निश्चित समय में निर्णय लेकर पीड़ित के साथ हुए अन्याय का निराकरण करे।

संघर्ष तब ही होता है जब कोई भी पक्ष मनमानी करने पर उतर आता है और तर्क, न्याय, कानून से लेकर संविधान तक को ताक पर रख देता है और धर्म, जाति, लिंग के आधार पर स्वयं फ़ैसला करने लगता है। यदि न्यायसंगत आधार पर निर्णय किया गया है तब संघर्ष की ज़रूरत नहीं है । यह आधार केवल संविधान के अनुसार बनाए गए कानून का ही हो सकता है। किसी भी अधिकार की मान्यता अथवा उसे अस्वीकार किया जाना न्यायप्रणाली का दायित्व हो जाता है कि वह धैर्य के साथ दोनों पक्षों को न्याय सुलभ कराने में सफल हो।

मानवाधिकारों का यह अर्थ नहीं है कि आप उसे अपने व्यक्तिगत और सामूहिक विरोध का आधार बनाकर अपनी मनमानी करें और कानून व्यवस्था को न मानें। उदाहरण के लिए बोलने की आजादी का मतलब यह नहीं कि जो मन में आया, वह कह दिया बिना इस बात पर ध्यान दिए कि उससे कानून के अंतर्गत मिले अधिकारों का अतिक्रमण तो नहीं हो रहा?  इसी तरह चलने फिरने, आने जाने की आज़ादी का अर्थ यह नहीं कि आप दूसरे के अधिकारों को नज़रंदाज़ कर रास्ते रोक दें, सड़कों पर जाम लगा दें और आवागमन के साधनों पर रुकावटें खड़ी कर दी जाएं।

कहीं भी रहने की आजादी का अर्थ यह नहीं कि दूसरों जीवों का जीना मुश्किल कर दिया जाए। कोई भी व्यवसाय या नौकरी करने का अर्थ यह नहीं कि अपराध, तस्करी करने लगें और देश की आर्थिक स्थिति को कमज़ोर कर दें। इसमें स्थानीय कानून का वर्चस्व किसी भी मानवाधिकार पर माना जायेगा।

मानवाधिकार दिवस पर यह संकल्प तो लिया ही जा सकता है कि जहां हम अपने अधिकारों की सुरक्षा चाहते हैं, वहां दूसरों के लिए मुसीबतें न खड़ी करें क्योंकि मनमुटाव से शुरू होकर यह धार्मिक और जातिगत दंगों की नींव को ही मज़बूत करता है।

शनिवार, 25 सितंबर 2021

आश्रम, अखाड़ा, मठ का अपराधीकरण रोकना ही धर्म है

हिंदू धर्म बहुत प्राचीन, सनातन और जीवन शैली के रूप में जाना जाता है। इसके अनुयायी इसकी महानता से गदगद दिखाई देते हैं। यह धर्म  सहनशील, परोपकारी, दयावान, मैत्री और सद्भाव का पोषक तथा मनुष्य की पूर्णता का प्रतीक माना जाता है। सभी धर्मों की भांति इसमें भी भाईचारे, मिलजुलकर रहने और दूसरों का सम्मान तथा बराबर का स्थान देने की बात कही गई है।


यहां तक तो ठीक है लेकिन जब धर्म को कारोबार का जरिया बना दिया जाता है तो उसमें वे सभी दोष जाते हैं जो किसी भी व्यापार के गुण माने जाते हैं जिसमें प्रतियोगितादूसरे की हानि, झूठ, फरेब, बेईमानी, धोखाधड़ी, हेराफेरी, कालाबाजारी, जमाखोरी, मिलावट जैसी चीज़ों को ज़रूरी समझा जाता है। इसे ही धर्म हो या व्यापार, उसका अपराधीकरण कहा जाता है। 

संन्यास और वैराग्य

हिंदू धर्म में चार आश्रम अर्थात ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यास को जीवन जीने के तरीक़े के रूप में अपनाने की बात कही गई है। यहां हम केवल संन्यास की बात करना चाहते हैं क्योंकि इसे लेकर समाज में जो गंदगी फैलती है उसे जानना और साफ़ करना आवश्यक है। 

कुछ लोग छोटी उम्र से ही संसार से विरक्त होने का बहाना कर घर से भाग जाते हैं   इसका कारण ज्यादातर  घर परिवार के काम तथा पढ़ाई लिखाई में मन लगना, मातापिता का डर और कोई गलत काम करने पर सज़ा मिलने की आशंका हो सकती है। कुछ विरले ही ऐसे होते हैं जिनके मन में बचपन से ही जीवन का सार जानने, आत्मा और परमात्मा के संबंध में जिज्ञासा होने और शांति प्राप्त करने की इच्छा होती है और वे बताकर या बिना कुछ कहे घर द्वार का त्याग कर देते हैं। 

वास्तविक संन्यासी के मन में व्यक्तिगत स्वार्थ के स्थान पर सर्वजन सुखाए, सर्वजन हिताय की भावना रहती है। पद, धन, सुविधाओं से भरपूर जीवन का महत्व होकर सामान्य जन, समाज और देश की उन्नति का कार्य प्रमुख रहता है। ऐसे व्यक्ति क्रोध, हिंसा, भय, अहंकार से बचते हुए सादा जीवन जीने का प्रयास करते रहते हैं।

इसके विपरीत ऐसे लोगों की संख्या बहुत अधिक होती है जो संन्यासी का चोला इसलिए ओढ़ते हैं ताकि वे इस रूप में लोगों को भरमा सकें, उनकी श्रद्धा, आस्था, विश्वास के साथ छल कपट कर उनका शोषण कर सकें और व्यक्तिगत रूप से अकूत धन संपदा, ज़मीन जायदाद जमा कर सकें। 

आदि शंकराचार्य की विरासत

आठवीं सदी में दक्षिण भारत के केरल प्रांत में कलडी नामक गांव जो अब कोच्चि के उपनगर का रूप ले चुका है, प्रभु भक्ति में लीन धार्मिक विधि विधान को मानने वाले ज्ञान के प्रतीक दंपति नमबूदरी ब्राह्मण शिवगुरु और आर्यम्बा रहते थे। उन्हें भी  अपने इष्टदेव भगवान शिव से संतान की कामना थी। एक रात आर्यम्बा ने स्वप्न में देखा कि शिव जी पूछ रहे हैं कि उन्हें क्या ऐसी संतान चाहिए जिसकी उम्र तो बहुत हो लेकिन मूर्ख हो अथवा ऐसी संतान जिसकी आयु कम लेकिन विश्व में उसकी ख्याति हो। माता ने कम उम्र की संतान की इच्छा की। उसके बाद उनके यहां एक पुत्र का जन्म हुआ जिसका नाम उन्होंने शंकर रखा। 

यही शंकर आगे चलकर आदि शंकराचार्य के नाम से प्रसिद्ध हुए जिन्होंने केवल  32 वर्ष की आयु पाई। कहते हैं कि तीन वर्ष की आयु तक वेद कंठस्थ हो गए थे, संस्कृत में लिखे ग्रंथों का पाठ करने लगे थे और केवल एक बार सुनने पर उन्हें याद हो जाता था। बचपन से ही शंकर के मन में त्याग और वैराग्य की भावना थी और वे संन्यासी बनना चाहते थे। माता को चिंता हुई। पिता की मृत्यु हो चुकी थी इसलिए मां अपने पुत्र का विवाह करने की बात सोचने लगीं परंतु शंकर के मन में तो वैराग्य समाया हुआ था।

एक दिन शंकर नदी में स्नान कर रहे थे कि एक मगरमच्छ ने उनकी टांग अपने जबड़े में दबा ली। शंकर ने मां को पुकारा और कहा कि जब तक वे उसे सन्यास धारण करने की अनुमति नहीं देंगी, उसका बचना मुश्किल है। कहते हैं कि मां के हां कहते ही मगरमच्छ ने टांग छोड़ दीऔर शंकर की जान बच गई। यह कथा सत्य है या कल्पना या मिथक लेकिन शंकर के विरक्त होकर संन्यास लेने का मार्ग खुल गया। माता की विनती पर उन्होंने वायदा किया कि जब भी वे उन्हें पुकारेंगी, वे अवश्य जायेंगे और उनकी मृत्यु होने पर दाह संस्कार भी वही करेंगे। यह कहकर उन्होंने विदा ली और सत्य, आत्मा, परमात्मा और गुरु की ख़ोज में निकल पड़े। 

श्री आदि शंकराचार्य ने भारत में अध्यात्म, वेदांत, नैतिकता और हिंदुत्व को मजबूत करने और स्वयं को पहचानने की ऐसी परंपरा का श्रीगणेश किया कि आज तक उनके योगदान को याद किया जाता है। अनेक बार पूरे देश का भ्रमण किया, अनेक ग्रंथों की रचना की और अद्वैत दर्शन की व्याख्या की। इस कड़ी में उत्तर में जोशीमठ, दक्षिण में श्रृंगेरी, पूर्व में पुरी और पश्चिम में द्वारका में मठ स्थापित किए। 

आज जो पूरे देश में विभिन्न स्थानों पर मठ, आश्रम, अखाड़ों आदि के रूप में हिंदू धर्म के प्रचार प्रसार के लिए अनेक संगठन दिखाई देते हैं, उनका श्रेय आदि शंकराचार्य द्वारा स्थापित मठों को दिया जाता है। आज देश भर में सौ शंकराचार्य हैं, मठाधीश हैं, महा मंडलेश्वर हैं और हिंदू धर्म के नाम पर जाने कितने आश्रम और अखाड़े चलते हैं।

धर्म का कारोबार 

समय के साथ इनमें से अधिकांश संगठन वैभव, विलासिता, अकूत संपत्ति जमा करने के साधन बनते गए। इसी के साथ राजनीति पर भी इनका असर दिखाई देने लगा।  अगर किसी दल या उम्मीदवार को जीत हासिल करनी है तो इन आश्रमों , मठों, अखाड़ों आदि का आशीर्वाद देने  के नाम पर समर्थन और चुनाव के लिए धन तथा अन्य साधन जुटाने के लिए इस्तेमाल होने लगा। 

सामान्य जनता द्वारा दिया गया धन जिसमें नकदी, आभूषण से लेकर ज़मीन जायदाद तक शामिल है, इन संगठनों के संचालकों को बिना किसी प्रयास के प्राप्त होने लगी। करोड़ों, अरबों, खरबों की संपत्ति इनके पास गई जिस पर सरकार की निगाह होते हुए भी अपने स्वार्थ के कारण आज तक उसने कोई ऐसा कानून, नियम, कायदा लागू नहीं किया जिससे यह पता लगाया जा सके कि यह विशाल संपदा कितनी है, किस के नाम पर है और कहां से आई है ?

कहने का तात्पर्य यह है कि धार्मिकता की आड़ लेकर ये संगठन व्यापार का केंद्र बनते चले गए और इनमें ऐसे लोग शामिल ही नहीं बल्कि हावी होते गए जिनका समाज कल्याण, परोपकार जैसी चीज़ों में कोई रुचि होकर केवल शुद्ध व्यापार करने की भावना थी। 

इसका परिणाम यही हुआ कि इन स्थानों पर कब्ज़ा करने और किसी भी प्रकार से उसे बनाए रखने का  सिलसिला शुरू हो गया।  इनमें भ्रष्टाचार, अनैतिकता से लेकर अपना वर्चस्व बनाए रखने के लिया हत्या तक करने की घटनाएं आम हो गईं। इनमें धर्म, शुचिता, पवित्रता, नैतिकता, शुद्ध आचरण, विरक्ति, वैराग्य, सांसारिक वस्तुओं से मोह रखने जैसी बातें होकर षडयंत्र रचने, विलासितापूर्ण जीवन जीने और अपने अनुयायियों के बल पर किसी से भी कैसा भी मोलभाव करने की प्रवृत्ति शुरू हो गई अब  हालत यह है कि प्रतिदिन ऐसे खुलासे होते हैं जिन पर यकीन नहीं होता लेकिन वे सत्य और वास्तविक हैं। 

इन सभी धार्मिक स्थलों जिनमें मंदिर भी सम्मिलित हैं, बहुत वर्ष पहले आई एक फिल्म का यह गाना चरितार्थ होता हुआ दिखाई देता है : चल संन्यासी मंदिर में, तेरा चिमटा मेरी चूड़ियां दोनों हम बजाएंगे, साथ साथ हम गायेंगे। 

समय की मांग

वर्तमान परिस्थितियों में क्या सामान्य जन द्वारा यह आवाज़ उठाने का समय नहीं गया है कि इन सभी धार्मिक संगठनों और उनके पास एकत्रित धन संपत्ति की जांच पड़ताल हो और इन्हें सरकार द्वारा अपने कब्जे में लेकर इस सब को जनता की सुविधा के लिए शिक्षा, चिकित्सा, सामुदायिक विकास और देश के लिए वैज्ञानिक शोध संस्थान बनाने के लिए इस्तेमाल किया जाए

इस के लिए सरकार से कोई पहल करने की उम्मीद रखना भ्रम पालना होगा क्योंकि इन सब को यदि सरकार का संरक्षण मिला होता तो आज यह हालत होती ही नहीं। इसलिए ज़रूरी यह है कि जनता की ओर से आवाज़ उठे, इसके लिए चाहे बड़े पैमाने पर ऐसे लोगों को आंदोलन करना पड़े जो इन संगठनों और इनके संचालकों की असलीयत जानते हैं और इससे अधिक इनके बहकावे में आकर अपनी संपत्ति गवां बैठे हैं, अनाचार और शोषण का शिकार हुए हैं लेकिन संगठित होने से कोई कदम उठाने के लिए विवश हैं। 

इसे सामाजिक परिवर्तन और आंदोलन को अन्याय का प्रतिकार और अपने अधिकार का रक्षण करने की श्रेणी में रखा जा सकता है।