शुक्रवार, 25 दिसंबर 2020

उपभोक्ता अदालत में ‘तारीख पर तारीख‘ का चलन और मुकदमों का ढेर

 


24 दिसंबर उपभोक्ता दिवस के रूप में मनाया जाना अब केवल एक लकीर पीटने की तरह हो गया है। अखबार के किसी कोने में या टीवी के एक छोटे से समाचार के जरिए इसकी खबर इस तरह से मिलती है कि उसकी प्रतिक्रिया आश्चर्य से यह कहने जैसी होती है ओके, उपभोक्ता दिवस जैसी भी कोई चीज हैऔर फिर उसे भुला दिया जाता है।

असल में बात यह है कि दुनिया भर में उपभोक्ताओं के साथ हो रही जालसाजी, धोखाधड़ी, फरेब आदि के खिलाफ सशक्त कानून बनाए जाने की जरूरत महसूस हुई। उपभोक्ताओं को संगठित कर और इसे आंदोलन का रूप देने की नीयत से भारत में भी यह सोचा जाने लगा कि हमारे यहां तो रोज ही इस तरह के मामले होते हैं और खरीददार कुछ नहीं कर पाता तो यह सब सोच कर भारत सरकार ने उपभोक्ता संरक्षण कानून बना दिया।

दूर के ढोल सुहावने

यह कानून बहुत ताम झाम से बनाया गया और लगा कि अब गलत काम करने वालों की खैर नहीं, मानो उपभोक्ता को एक ऐसा शस्त्र या कवच मिल गया हो जिसके भरोसे वह निश्चिंत होकर खरीददारी कर सकता है और अगर किसी ने उसके साथ कुछ भी ज्यादती करने की कोशिश की तो कानून उसे तुरंत सजा देगा।

इस कानून पर अमल करने के लिए प्रत्येक जिले में उपभोक्ता मंच, राज्य में राज्य आयोग और राष्ट्रीय स्तर पर राष्ट्रीय आयोग और उसके बाद उच्चतम न्यायालय से न्याय पाने की सुविधा, यह सब गठित कर दिया गया।

न्याय पाने की प्रक्रिया को सरल बनाने के लिए सादे कागज पर शिकायत लिखने, वकील की जरूरत न होने और कुछ ही हफ्तों में मामले में न्याय मिल जाने की व्यवस्था देख सुन कर मन में तसल्ली हुई कि अब दीवानी अदालतों में बरसों तक मुकदमेबाजी से बचा जा सकेगा और पैसे तथा समय की भी बचत होगी।

यहां तक तो सब ठीक था लेकिन वास्तविकता यह थी कि कागजों पर तो यह सब क्रियान्वित होता दिख रहा था लेकिन उस पर अमल करने की प्रक्रिया इतनी सुस्त, कमजोर और ढीली ढाली थी कि लोगों में इस कानून के प्रति अविश्वास होना शुरू हो गया।

नीति और नीयत का तालमेल

प्रारम्भ में इस कानून का व्यापक प्रचार प्रसार करने और जागो ग्राहक जागो की संकल्पना को साकार करने के लिए देश भर में उपभोक्ता आंदोलन जैसा माहौल बना।

यह गलत या बढ़ा चढ़ा कर कहने वाली बात नहीं है कि शुरुआत में इस कानून की वजह से लोगों को न्याय मिलने लगा था और वह काफी हद तक जागरूक होने लगा था।

इस कानून की बदौलत मिले अधिकारों को समझने भी लगा था। उसमें चीजों को देख परख कर, दूसरे उत्पादों से तुलना करने और दुकानदार से मोलभाव कर खरीददारी करने की आदत आने लगी थी। इसी के साथ वह यह कहना भी सीख गया था कि कंज्यूमर कोर्ट में घसीट लिया जाएगा अगर मेरे साथ कोई हेराफेरी करने की कोशिश भी की गई।

इसका असर भी देखने को मिलने लगा क्योंकि न्याय मिलने में बहुत देर नहीं लगती थी। मामले बढ़ने लगे और विडंबना यह हुई कि उपभोक्ताओं को संरक्षण देने वाली इस व्यवस्था में सेंध लगनी शुरू हो गई।

सरकार ने हरेक जिले और राज्य में उपभोक्ता अदालत तो बना दिए लेकिन उनके लिए जरूरी इन्फ्रास्ट्रक्चर बनाने का काम सरकार की लालफीताशाही और ब्यूरोक्रेसी की भेंट चढ़ गया।

जिला उपभोक्ता मंचों में आज भी हालत यह है कि सदस्यों यानी न्यायाधीशों के बैठने के लिए टूटा फूटा फर्नीचर, सुविधाओं का अभाव और अपने मुकदमों की पैरवी के लिए आए लोगों के शोर से यह जगह किसी कबूतरखाने की तरह लगती है।

जब सदस्यों के लिए ही पर्याप्त सुविधाएं नहीं है तो फिर आम शिकायतकर्ता की तो बिसात ही क्या है। उसके बैठने तक की सुविधा ढंग की नहीं है और अगर कहीं किसी दिन ज्यादा केस हुए तो खड़े होने की भी जगह नहीं मिलती।

पता नहीं यह नियम है या परंपरा बन गई है कि उपभोक्ता अदालत में मामलों की सुनवाई पूरे दिन नहीं बल्कि केवल कुछ घंटों में ही सिमट गई है। अगर कहीं माननीय सदस्य गैरहाजिर हो गए फिर तो यह भी मुमकिन नहीं। इसी से जुड़ा है उनकी नियुक्ति का मामला। आज हजारों की संख्या में सदस्यों और अध्यक्षों के पद खाली पड़े हैं, वे कब भरे जाएंगे, कोई नहीं जानता। इस बीच मुकदमों के ढेर बढ़ते जाते हैं और कोई सुनवाई करना तो दूर यह बताने को तैयार नहीं कि यह इंतजार कब खत्म होगा।

एक मामले में तो उपभोक्ता अदालत को यह बताने में बारह साल लग गए कि संबंधित मामला उनकी परिधि में नहीं आता।

जो कानून निश्चित महीनों की अवधि में फैसला देने की बात कहता है, उसमें अब न्याय पाने के लिए सामान्य हालात में भी तीन से पांच साल तक लग सकते हैं। अगर मामला पेचीदा हुआ तो कितना वक्त लगेगा कोई नहीं जानता क्योंकि उच्चतम न्यायालय तक जाने या फैसलों को टालने की सुविधा पक्ष और विपक्ष दोनों के पास है।

इसके साथ यह भी सच है कि शिकायतकर्ता के सामने उत्पाद निर्माता के पास ऐसे वकीलों की कोई कमी नहीं जो किसी भी मामले को बरसों तक लटकाए रखने में उस्ताद हैं।

उपभोक्ता अपनी लड़ाई खुद लड़ता है क्योंकि कानून तो उसे यह सुविधा देता ही है पर वह आर्थिक दृष्टि से भी इतना संपन्न नहीं होता कि वकीलों की फीस दे सके, इसलिए वह ज्यादातर हार मान लेने और न्याय पाने को भूल जाने में ही अपनी भलाई समझता है।

उपभोक्ता अदालत में आने वाले अधिकतर मामले एकाध लाख या कुछेक हजार रूपए के होते हैं। अब अगर वह वकील की सेवा ले तो उसकी फीस देने में ही दसियों हजार देने पड़ जाएंगे। ऐसे में अगर उसके पक्ष में फैसला हुआ भी तो उसे क्या मिलेगा, यह सोचकर वह अन्याय सहने को ही अपनी किस्मत मान लेता है।

एक मामले में नामी कंपनी का लैपटॉप जिसकी कीमत 85 हजार थी, उसके खराब निकलने पर  शिकायत की तो उसका निपटारा होने में देर लगती देख अपने एक मित्र की सलाह पर वकील कर लिया तो उसके खर्च मे ही चालीस हजार निकल गए। दो साल बाद  न्याय मिलने की उम्मीद छोड़ दी और अपने को कम से कम मानसिक तनाव से तो मुक्त कर ही लिया।

उपभोक्ता संरक्षण कानून लागू करने में सबसे बड़ी दिक्कत यह है कि इसमें पीड़ित व्यक्ति को हरियाली यानी सब्जबाग ज्यादा दिखाए जाते हैं और वह अपने को झूठ मूठ का पहलवान समझने लगता है।

हकीकत में यह कानून उपभोक्ता की मदद कम करता है और निर्माता की ज्यादा क्योंकि उसके साथ अन्याय हुआ है यह सिद्ध करने की जिम्मेदारी उसकी होती है जिसे वह इसलिए पूरी नहीं कर पाता क्योंकि कानून के छेदों का इस्तेमाल करने में दूसरा पक्ष माहिर, शातिर और ताकतवर होता है।

ज्यादातर मामले इसी बात पर खारिज कर दिए जाते हैं कि उपभोक्ता को सभी नियमों की जानकारी दे दी गई थी  ये नियम कुछ इस तरह से लिखे जाते हैं कि कोई वकील ही उन्हें समझ सकता है। फिर इतने छोटे अक्षरों में होते हैं कि पढ़ने के लिए दूरबीन खरीदनी पड़े, इसके साथ ही इतनी जल्दबाजी में उससे दस्तखत करा लिए जाते हैं कि उसके पास कोई चारा नहीं होता।

उपभोक्ता कानून से खिलवाड़ के मामले चिकित्सा के क्षेत्र में बहुत होते हैं और स्पष्ट लापरवाही होने के बावजूद डॉक्टर या अस्पताल साफ बच जाता है क्योंकि मरीज की जान का हवाला देकर सभी तरह के कागजों पर पहले ही हस्ताक्षर करवा लिए जाते हैं।

अगर इस बात पर विचार करें कि उपभोक्ता अदालत में पद कैसे भरे जाते हैं तो यह निकल कर आएगा कि इनके लिए राजनीतिक रसूख ज्यादा चाहिए, बनिस्बत इस पद की गरिमा के अनुकूल योग्यता के जिसमें किसी प्रकार की कानूनी डिग्री होने की बाध्यता न होकर केवल समाज सेवा का मुखौटा लगा लेना ही पर्याप्त है।

यही कारण है कि बरसों तक जिला फोरमों में नियुक्ति ही नहीं होती क्योंकि मंत्रियों या नियुक्ति अधिकारियों को अपनी पसंद का कोई बंदा ही नहीं मिलता।

पांच लाख से ज्यादा मामले पेंडिंग होना यही बताता है कि इस अच्छी न्याय प्रणाली में भी तारीख पर तारीख का चलन शुरू हो गया है जो इस बात को दिखाता है कि उपभोक्ताओं में शीघ्र न्याय पाने के प्रति अविश्वास की शुरुआत हो चुकी है। हालांकि इस कानून को नए कलेवर में 2020 में लागू किया जा चुका है लेकिन मूल प्रश्न वही है कि बिना समुचित इन्फ्रास्ट्रक्चर के कैसे इसका पालन होगा ?

हम जो हर बात में विदेशों की मिसाल देते हैं तो अमरीका, यूरोप, ऑस्ट्रेलिया और एशियाई देशों में भी यह इतना सख्त है कि उपभोक्ता अधिकारों के उल्लंघन की हिम्मत करना निर्माता के लिए बर्बादी की तरफ बढ़ना है। हमारे यहां सख्त कानून के होते हुए भी उपभोक्ता अदालत में न्याय पाने की आशा करना मृग मरीचिका ही है।

शुक्रवार, 18 दिसंबर 2020

जमीन का आदर और किसान का सम्मान


किसान या जो लोग खेतीबाड़ी और इससे जुड़े काम और व्यवसाय से जुड़े हैं, उन्हें दो वर्गों में रखा जा सकता है, एक वे जो बहुत समृद्ध और खुशहाल हैं और दूसरे वे जिनकी आमदनी इतनी नहीं होती कि उनका गुजारा भी ठीक से हो सके।  हमेशा कर्जदार बने रहते हैं, गरीबी के कारण अपने बच्चों को भी खेतीबाड़ी न करने के लिए प्रोत्साहित करते हैं, कहीं दूसरा काम खोजने के लिए कहते हैं, चाहे अपना घरबार छोड़कर किसी शहर में छोटी मोटी नौकरी ही क्यों न करनी पड़े।

ऐसा इसलिए होता है कि क्योंकि जो आज संपन्न है उसने अपनी जमीन, उसकी मिट्टी को आदर सम्मान दिया, उसकी देखभाल अपने कुनबे की तरह की और उसे पोषक तत्वों की खुराक से ताकतवर बनाए रखा तथा पूरा ध्यान रखा कि जमीन को न तो किसी तरह की बीमारी लगे और न ही उसकी उपज में कमी हो। वे जानते थे कि खुशहाल होने पर ही उनका सम्मान होगा।

इसके विपरीत विपन्न किसान ने ज्यादातर अपनी जमीन और खेतीबाड़ी को राम भरोसे छोड़ दिया, देखभाल और पौष्टिकता के अभाव में उसे बंजर हो जाने दिया, उपजाऊपन खत्म होता दिखने पर भी जमीन का इलाज नहीं किया। जमीन लावारिस होकर सरकार की किसी भूमि अधिग्रहण योजना का इंतजार करने लगी ताकि उस पर कोई सड़क, हाईवे बन सके या कोई उद्योग लग सके या उसके एवज में उसके मालिक को मुआवजा मिल जाए।

कृषि एक उद्योग है

हमारे देश में लगभग 130 मिलियन हेक्टेयर जमीन इस समय बंजर या मरुस्थल का रूप ले चुकी है जो कुल कृषि भूमि का आधे से भी अधिक है। सरकार के वायदे के अनुसार इसे 2030 तक कृषियोग्य बनाना होगा क्योंकि ऐसा अंतरराष्ट्रीय स्तर पर करने के लिए जरूरी है और दबाव तथा चेतावनी भी कि यदि ऐसा न हुआ तो देश में भारी संकट आ सकता है।

हमारे देश में खेतीबाड़ी की दृष्टि से जो उन्नत प्रदेश हैं उनमें सबसे पहले पंजाब, हरियाणा और उत्तर भारत के राज्य है । समस्या की दृष्टि से राजस्थान, गुजरात, महाराष्ट्र, जम्मू कश्मीर और कर्नाटक हैं जहां प्राकृतिक और मानवीय दोनों ही कारणों से जमीन से उतना लाभ नहीं मिलता जितना अपेक्षित है।

यह कोई कहावत नहीं बल्कि हकीकत है कि पंजाब और हरियाणा के जाट कहीं भी जाकर खेतीबाड़ी करें, वहां की जमीन उपजाऊ और उस इलाके को चमन न बना दें तो अपना नाम बदलवा लें।

जो किसान यह समझते हैं कि सही देखभाल न होने से जमीन इंसान की तरह बीमार पड़ सकती है, उसका इलाज करने में कोई कसर नहीं छोड़ते। घर में किसी के अस्वस्थ होने का पता मुखिया को तुरंत चल जाता है उसी तरह किसान को भी अपनी जमीन और उसमें होने वाली फसल में किसी भी तरह का रोग होने का अहसास हो जाता है।

संवेदनशील किसान फौरन बीमारी की दवाई लाता है और लापरवाह उसे उसके हाल पर छोड़ देता है। विडंबना है कि आज देश में कृषि योग्य इतनी जमीन है कि कई महाद्वीपों की आबादी का पेट भर सके और हमारा किसान  अपनी उपज का सही मूल्य पाने के लिए ही संघर्ष करते हुए दिखाई देता है। जिन्हें देश के विभिन्न राज्यों के ग्रामीण क्षेत्रों में जाने और काम करने का मौका मिला है, वे इस बात से भली भांति परिचित होंगे कि समान मौसम, सुविधाओं के होने पर भी एक जगह भरपूर फसल होती है तो दूसरी जगह जरूरत से भी कम होती है। इसका अर्थ यह हुआ कि जो मिट्टी का सम्मान करने पर ही आदर मिलता है।

किसान अगर खेतीबाड़ी को एक उद्योग की तरह मानकर अपनी जमीन पर खेती करें तो   किसी के आगे झुकना नहीं पड़ेगा बल्कि वह मोहताज कहलाना तो दूर, किसी भी उद्योगपति से आर्थिक दृष्टि से बराबरी कर सकता है।

पानी, सिंचाई, प्रदूषण

जिन क्षेत्रों में कृषि भूमि बदतर हालत में है उसका प्रमुख कारण पानी है जो कभी वर्षा अधिक होने के कारण बाढ़ बनकर अपने साथ उपजाऊ मिट्टी की परत को बहाकर ले जाता है और कभी कम या बिल्कुल नहीं होने पर सूखे की स्थिति पैदा कर देता है और जमीन प्यासी रहकर कुछ भी उगाने के लायक नहीं रहती।

पानी से संबंधित दूसरा कारण है जल प्रदूषण जो  कल कारखानों, उद्योगों से निकलने वाले रसायनों के नदी नालों के पानी में घुलकर सिंचाई के लिए किसान के खेत तक पहुंचकर उसकी फसल को प्रदूषित कर देता है। इसके अतिरिक्त अंडरग्राउंड वाटर भी जहरीले रसायनों से प्रदूषित होकर फसल खराब करने में बहुत तेजी से काम करता है।

इसके लिए सरकार से किसानों को यह मांग करनी चाहिए कि यदि प्रदूषित पानी से सिंचाई करने पर फसल को नुक्सान होता है तो उसकी भरपाई हो और जो भी सरकारी या गैर सरकारी उद्योग हो उसे तुरंत बंद किया जाए।

संरक्षण खेती

कृषि वैज्ञानिकों ने संरक्षण  खेती या कंजर्वेशन एग्रीकल्चर के रूप में काफी समय पहले किसान को एक विकल्प दिया था। इस तरह की खेती का महत्वपूर्ण पक्ष जीरो टिलेज है जिसमें काफी कम लागत की मशीन से जुताई किए बिना बीजारोपण होता है। नीचे एक खुरपा लगा होता है जो जमीन की उतनी खुदाई करता है जितने में बीज समा जाए और फिर उसके बाद खेत में जो छीजन  है वह उसे ढंक लेती है। इस तरह दो काम हो जाते है, बिना जुताई किए बुआई हो गई और छीजन या पराली जलाने की नौबत नहीं आई और वायु प्रदूषण के आरोप से बच गए।

संरक्षण खेती में जो मूल तत्व है वह यह कि इससे खेतों की उपजाऊ परत के नष्ट न होने में मदद मिलती है। इसके साथ ही इस परत पर छीजन पड़ जाने से सुरक्षित भी हो जाती है और स्थाई रूप से ऑर्गेनिक मिट्टी की परत बन जाती है।

इस तरह की खेती से फसल की अदला बदली यानी आज एक और कल दूसरी फसल ली जा सकती है।  बहुत से देशों में इसके सफल परीक्षण हुए हैं और भारतीय कृषि वैज्ञानिकों के अनुसार यह श्रेष्ठ पद्धति है।

इस बारे में मेरा निजी अनुभव है और विशेषज्ञों से चर्चा के अतिरिक्त इस पर एक फिल्म भी बनाई है ताकि इस तरीके का प्रचार प्रसार हो और किसान इसे अपनाने में रुचि दिखाएं।

संरक्षण खेती के अतिरिक्त एक सुझाव यह था कि किसान का पशुधन चरागाहों की समुचित व्यवस्था न होने से खेत में पौधों को अपना भोजन बनाता है और साथ में नष्ट भी बहुत करता है। इस समस्या का हल पशु चारे के लिए उपयुक्त चरागाहों का प्रबंध कर निकाला जा सकता है।

जमीन को उपजाऊ बनाए रखने के लिए कृषि वैज्ञानिकों और अनुभवी किसानों तथा जानकारों के अनुसार वाटर शेड मैनेजमेंट और वाटर हार्वेस्टिंग के जरिए जल संरक्षण और जल भंडारण के लिए बनाए गए जलाशयों, तालाबों के निर्माण और उनके रखरखाव के लिए समुचित योजनाएं बनाकर उन पर अमल किया जाय तो स्थाई रूप से किसान की अधिकतर समस्याएं हल हो सकती हैं। 

भंडारण की व्यवस्था

कृषि के क्षेत्र में एक सबसे अधिक लाभदायक और किसानों के फायदे का काम होना चाहिए,, वह यह है कि किसान को उसके खेत के पास ही भंडारण यानी स्टोरेज की सुविधा मिलनी चाहिए जहां वह अपनी फसल रख सके और उसकी फसल के बिकने तक बैंक उसे एडवांस रकम दें ताकि वह अगली फसल के लिए अपने खेत तय्यार कर सके। इससे उसे अपनी उपज जिस किसी भी दाम पर बेचने की मजबूरी नहीं होगी और वह मंडी या बिचैलियों के शोषण से बच सकेगा।

सरकार इसमें उसकी मदद के लिए इतना तो कर ही सकती है कि किसान की आर्थिक स्थिति के अनुसार या तो उसे बिल्कुल मुफ्त दे या ज्यादा से ज्यादा सब्सिडी दे ताकि वह निश्चिंत होकर खेतीबाड़ी पर अपना पूरा ध्यान और समय लगा सके। अभी तो उसे इसके लिए पैसा और साधन जुटाने में अपना खून पसीना बहाना पड़ता है जो खेत में बहे तो उसके दिन फिर सकते हैं और वह खुशहाली की तरफ कदम बढ़ा सकता है।

सरकार की उदासीनता

असल में हमारे यहां दिक्कत यह है कि सरकार अपने पास खेती की नई तकनीक और टेक्नोलॉजी के होते हुए भी किसान तक पहुंचा नहीं पाती। किसान की आमदनी बढ़ाने की बात तो की जाती है  लेकिन उसके लिए कोई कमिटमेंट न होने से किसान  पुराने तरीकों से ही खेतीबाड़ी करता रहता  है।

जहां तक कृषि भूमि के खराब होने के प्राकृतिक कारण जैसे भूकंप, सुनामी, भू स्खलन या वनों में लगने वाली आग है तो उस पर इंसान का वश न होने से ज्यादा कुछ तो नहीं किया जा सकता लेकिन यह तो किया ही जा सकता है कि हम अंधाधुंध कटाई कर वन विनाश न करें। पहाड़ों की जड़ों के खोखला होते जाने से उनके टूट कर गिरने से होने वाली तबाही से बचने का एकमात्र उपाय यही है कि वन संरक्षण के उपायों को अपनाया जाए और नदियों तथा पर्वतों में खनन का काम पैसों के लालच में आकर अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारने की तरह न किया जाए।

हमारे देश में कृषि और भूमि सुधार के लिए सरकार द्वारा अनेक योजनाएं और नीतियां बनती रही हैं और उन पर अमल करने के लिए अनेक कार्यक्रम चलाए जाते रहे हैं। इनका कितना असर होता है यह अपने आप में एक जांच का विषय है लेकिन इतना तो सच है कि खेतीबाड़ी की दशा और उपज की तादाद और गुणवत्ता में ज्यादा फर्क देखने को नही मिलता।

अगर हमें अपनी खेतीबाड़ी के लिए निर्धारित जमीन को पूरी तरह से अगले दस वर्ष में बंजर और मरुस्थल बनने से रोककर अंतरराष्ट्रीय मानकों पर खरा उतरना है, पूरी कृषि भूमि को उपजाऊ बनाना है तो उसके लिए अभी से इस तरह के उपाय करने होंगे जिनके सुखद और दूरगामी परिणाम हों ।


शुक्रवार, 4 दिसंबर 2020

किसान की मुसीबत, अफसरशाही और सरकार की फजीहत

 


हमारे देश में किसान को अन्नदाता, धरतीपुत्र, पालनहार तथा और भी न जाने कितने विशेषणों से पुकारा जाता है और इसी लय में उन्हें मूर्ख, गंवार कहते हुए होशियार, लालची से लेकर अदूरदर्शी और सीमित दायरे की सोच रखने वाला कुएं का मेंढक भी कह देते हैं। 

एसडीएम नही उपभोक्ता अदालत में फैसला

नए कृषि कानूनों को लेकर यही कहा जा सकता है कि वे बनाए तो किसान के हित में गए लेकिन उनका लाभ किसी और को होगा। इसीलिए उनके विरोध में आंदोलन हो रहा है और यह बात गौर करने की है कि इस बार इसकी अगुआई वे किसान कर रहे हैं जो पढ़े लिखे हैं और संपन्न हैं, उनके दोस्त, रिश्तेदार अमरीका, कनाडा, ऑस्ट्रेलिया जैसे देशों में किसानी कर रहे हैं और इन्हें गुमराह करना मुश्किल है।

किसान को सबसे बड़ी आपत्ति यह है कि निजी क्षेत्र के लोग आकर उनकी उपज मनमाने दाम पर खरीदेंगे, मंडियां खत्म हो जाएंगी और उन्हें एमएसपी से भी कम दाम मिलेंगे। कोई विवाद होने पर वे एसडीएम की अदालत का दरवाजा खटखटा सकते हैं।

इस समस्या को हल करने का बहुत ही आसान तरीका है और जिस का जिक्र  स्वामीनाथन जी ने भी किया है और वह न्यायसंगत भी है।

उदाहरण के लिए एक  घटना की याद दिलाई जा सकती है जिसमें एक महिला किसान ने निजी क्षेत्र की कंपनी से अपनी उपज का कॉन्ट्रैक्ट किया और जब पैसे देने की बारी आई तो अपने को चालाक समझने वाली कंपनी के अधिकारियों ने बहुत सी  कमियां निकालते हुए कम दाम देने चाहे।

यह किसान महिला उपभोक्ता अदालत में गई तो उसे इसकी परिधि में न आने वाला मामला बताकर नामंजूर कर दिया गया। मुकदमा राज्य आयोग और फिर राष्ट्रीय आयोग गया जहां उसे उपभोक्ता मानते हुए उसको न्याय मिला और दाम के साथ हर्जाना भी मिला।

इस घटना से सबक लेकर सरकार को कानून में संशोधन करना चाहिए कि एसडीएम की अदालत के स्थान पर उपभोक्ता अदालतों मे विवाद के निपटारे के लिए जाया जाय जहां सिविल अदालतों से जल्दी न्याय मिल जाता है।

सरकार भी कॉन्ट्रैक्ट का हिस्सा हो

दूसरी बात पर आते है और वह यह कि खरीददारी करते वक्त दाम कम देने के लिए यह बहाना बनाया जाता है कि जो पैदावार हुई है उसके आकार और गुणवत्ता में अंतर है। मामूली समझ रखने वाला भी यह जानता है कि एक ही पेड़ पर लगने वाला फल या एक ही खेत में होने वाली पूरी उपज एक जैसी नहीं हो सकती।

यह ठीक वैसा ही है जैसे कि एक ही मातापिता की संतान होने पर भी उनके गुण दोष अलग होते हैं लेकिन मां बाप उनके पालन पोषण में भेदभाव नहीं करते। इसी तरह उपज के मामले में किसान को कम कीमत क्यों मिले जबकि उसकी मेहनत उसे उगाने में एक जैसी हुई है।

इसलिए कानून में यह बदलाव होना चाहिए कि किसान की पूरी फसल के लिए एक ही कीमत दी जाएगी और अगर कोई कॉन्ट्रैक्ट करता है तो उसे  जो कीमत तय हुई है उसे कम करने का अधिकार नहीं होगा और उसे पूरी उपज एक ही दाम पर खरीदनी होगी।

खरीदने के बाद वह बाजार में किसी  जिंस के आकार, क्वालिटी या वैरायटी के मुताबिक कम ज्यादा कीमत पर जैसे चाहे बेच कर कितना भी मुनाफा कमाए।

तीसरी बात यह कि किसान को यह डर लगता है कि खरीददार अपने वायदे से मुकर गया तो वह बर्बाद हो जाएगा।

इसका भी सरल उपाय यह है कि जो एग्रीमेंट हो वह त्रिपक्षीय हो यानी उसमें किसान, खरीददार के साथ डीएम स्तर का अधिकारी भी दस्तखत करे। ऐसा होने पर न तो किसान और न ही खरीददार कॉन्ट्रैक्ट की शर्तों का उल्लंघन करने की गलती करेगा क्योंकि कानून के हाथ लंबे होते हैं और आम तौर से कोई भी सरकार से दुश्मनी मोल लेना नहीं चाहेगा।

चैथी बात यह कि पचास वर्षों से भी अधिक समय से जो मंडी व्यवस्था आज अपनी जड़ें मजबूती से कृषि क्षेत्र में जमा चुकी है, उसे कमजोर करने से सरकार को क्या हासिल होगा, कुछ नहीं और फिर नई मंडियों को खड़ा करने के लिए समय और धन का अपव्यय नहीं होगा ?

इसका उपाय यह है कि वक्त के साथ जो बुराइयां मंडी व्यवस्था में आ गई हैं और वे राजनीतिक अखाड़े बनती जा रही हैं तथा नेताओं को उन पर कब्जा करने की होड़ लगी रहती है क्योंकि मंडियों की ताकत पैसे और वोट बैंक से आंकी जाने लगी है, तो बस इतना प्रावधान कर दीजिए कि मंडियां राजनीतिज्ञ नहीं बल्कि खेतीबाड़ी के विशेषज्ञों द्वारा चलाई जाएंगी और उन्हें आधुनिक टेक्नोलॉजी से संपन्न कर किसान की उपज बढ़ाने के उपायों पर काम करना होगा।

पांचवीं बात यह कि किसान तक खेती के नए तरीके, आधुनिक उपकरण, खाद, उर्वरक और बिजली पहुंचने के उपाय इस तरह किए जाएं कि उस पर आर्थिक बोझ न पड़े और वह इनका इंतजाम करने में अपना समय न लगाए बल्कि उस तक यह ऑटोमैटिक ढंग से पहुंच जाएं और वह भी लगभग मुफ्त मिलें।

इसी के साथ इन्हें इस्तेमाल करना सीखने के लिए उसे कहीं जाना न पड़े, मतलब यह कि उसके खेत में ही प्रयोगशाला बनाई जाए, शिक्षक वहीं उसे प्रैक्टिकल ट्रेनिंग दें और उसके सामने ही यह सिद्ध हो कि नई टेक्नोलॉजी सही है या पुरानी पारंपरिक तकनीक ज्यादा सही है। किसान पर दबाव न हो क्योंकि वह जो कहेगा या सवाल पूछेगा वह उसके अनुभव पर आधारित होंगे।

थोपने की गलती न हो।

अभी तक किसान पर नई टेक्नोलॉजी के नाम पर बहुत सी चीजें थोपी जाती रही हैं जिनका उसके लिए खास उपयोग नहीं होता। यह ठीक वैसे ही है जैसे कि सिपाही को कोई हथियार तब तक चलाने के लिए नहीं दिया जाता जब तक उसे पूरी तरह सिखा न दिया गया हो। यही बात किसान पर लागू है। हकीकत यह है कि उस तक नई टेक्नोलॉजी या उपकरण आसानी से पहुंच जाएं, यह होता ही नहीं है, उन्हें इस्तेमाल करना सिखाया जाना तो दूर की बात है।

कृषि मेले, प्रदर्शनियां और ऐसे ही तामझाम उसके नाम पर आयोजित होते हैं लेकिन वह किसान के लिए सैर सपाटे से अधिक नहीं होता और वह अपने खेत तक आते आते सब कुछ भूलकर अपने पुराने तरीकों से ही खेतीबाड़ी करने लगता है।

छटी बात यह कि कृषि मंत्रालय, उसके अंतर्गत विस्तार निदेशालय और कृषि अनुसंधान परिषद और उसके द्वारा संचालित कृषि प्रयोगशालाएं कही तो उसके लिए जाती हैं लेकिन उनकी उपयोगिता उसके लिए कितनी है, इस बारे में आजतक कोई अध्ययन नहीं हुआ। इन पर कितना धन व्यय हुआ और इनसे किसको कितना लाभ हुआ इसका आकलन अगर कभी हुआ तो ऐसी तस्वीर सामने आ सकती है जो कमीशन, रिश्वत और आर्थिक षड्यंत्र उजागर कर सकती है।

इनमें काम करने वाले अधिकारी हों या कृषि वैज्ञानिक, वे सभी किसान की दिनचर्या से अनभिज्ञ, सूटबूट पहनकर वातानुकूलित कमरों में बैठकर किसान की भलाई के लिए काम करने का दिखावा करते रहते हैं। उन्हें यह पता नहीं होता कि दफ्तर या लेबोरेटरी में केमिकल की गंध और खेत की मिट्टी की महक में कितना अंतर होता है। जिस तरह किसान यदि किसी प्रयोगशाला में चला जाय तो उसे रसायनों से बदबू आयेगी उसी तरह लैब के कर्मचारी को खेत में दुर्गंध ही आएगी।

नई दिल्ली के पूसा इंस्टीट्यूट के खेतों में विकसित टेक्नोलॉजी या बीज या तकनीक दूर देहात में रहने वाले किसान के लिए लाभकारी होगी, यह मुंगेरी लाल के सपनों जैसा है क्योंकि दोनों जगहों के मौसम या हालात बिल्कुल अलग हैं। इसीलिए अगर प्रयोगशाला हो तो वह किसान के खेत में हो और उसकी जरूरत के अनुसार तय हो और उसकी सलाह को मानने की मानसिकता कृषि वैज्ञानिकों में हो। ऐसा होने पर ही किसान की धरती सोना उगल सकती है।

किसान विद्यालय स्थापित हों

सातवीं बात यह कि किसान को खेतीबाड़ी की शिक्षा देने और उसे सभी नए अविष्कारों, खोज और संसाधनों को बताने का काम करना है तो उसके लिए उसी तरह के किसान विद्यालय खोले जाएं जैसे कि बड़ी उम्र के लोगों के लिए प्रौढ़ शिक्षा केंद्र खोले जाते हैं।

उसके बच्चों को लिए गांव में ही कृषि विद्यालय हों जैसे कि प्राइमरी या मिडिल स्कूल होते है। इनमें उसे सामान्य पढ़ाई के साथ खेतीबाड़ी की शिक्षा का सिलेबस इस तरह का हो जो उसके किसान मातापिता के विचारों के साथ मेल खाता हो ताकि थियोरी और प्रैक्टिकल का तालमेल बना रहे।

आठवीं बात यह कि किसान को नकद पैसे की खैरात न देकर उस तक वे संसाधन पहुंचाए जाएं जिनकी उसे खेती के लिए जरूरत है और जिनका इस्तेमाल कर वह अपनी आमदनी बढ़ा सकता है। मिसाल के तौर पर  75 हजार करोड़ सालाना उसके खाते में डालने के बजाय उसके खेत के लिए खाद, बीज, ट्यूब वेल, ड्रिप इरिगेशन, तालाब, जौहड़ आदि का निर्माण कर स्थाई सुविधाएं मुहैय्या करा दी जाती तो उसके बेहतर परिणाम निकलते।

किसान आंदोलन तो एक न एक दिन अभी या कुछ समय बाद समाप्त हो ही जाना है लेकिन यदि सरकार अपनी सोच में परिवर्तन कर ले और बनावटी किसान हितैषी दिखने के बजाय वास्तविक रूप में किसानों के हित में काम करने लगे तो न तो कानून की खामियों के कारण किसान को आंदोलन करना पड़ेगा और न ही उसकी इतनी फजीहत होगी जो अपनी कहीं बात को वापिस लेने से होती है।

 

शुक्रवार, 27 नवंबर 2020

भावनाओं को भड़काने का खेल खतरे की घंटी है

 

भावनाओं को लेकर आम तौर पर किसी भी व्यक्ति की सोच दो प्रकार की होती है, एक तो वे जो किसी के कुछ भी कहने पर ध्यान देने या मानने से पहले उसे तर्क की कसौटी पर कसते हैं और फिर कोई निर्णय लेते हैं, और दूसरे वे जो किसी की कही बात को तुरंत मान लेते हैं और यही नहीं उसके कहे अनुसार आचरण भी करने लगते हैं।

इस श्रेणी के लोग अक्सर जल्दबाजी में  गलत फैसले कर लेते हैं और एक तरह से उस व्यक्ति की बातों में आ जाते हैं जो उनसे अपने मन मुताबिक काम कराना चाहता है, मतलब उसका अपना कोई स्वार्थ है जिसे वह सिद्ध करना चाहता है।

भावनाओं को ठेस पहुंचना

अनेक बार ऐसा होता है कि हम किसी बात को भूल नहीं पाते चाहे कितना भी समय बीत चुका हो और वो सब कुछ फौरन याद आ जाता है जिससे उस वक्त ठेस पहुंची थी जब वह बात कही गई थी।  उसका ध्यान आते ही उसी प्रकार अपने को आहत महसूस करने लगते हैं जैसे तब किया था जब वह बात हुई थी।

इसके विपरीत कुछ लोग जीवन में घटी अनेक घटनाओं या किसी की कभी भी कही कोई भी बात दिमाग में  रखकर भूल जाते हैं । यही नहीं, उस बात को याद करने की जरूरत पड़ने पर भी भुलाए रखना ही बेहतर समझते हैं और यह मानने में ही भलाई समझते है  कि जो बीत गया वो लौटकर तो आ नहीं सकता और आज उसका महत्व भी नहीं है तो फिर पुरानी बातों को कुरेदकर अपना आज क्यों खराब किया जाय।

ऐसी सोच रखने वाले स्वयं तो खुश रहते ही हैं, साथ में दूसरों से कुछ भी अपेक्षा न रखने के कारण उन्हें भी खुश रहने का मौका देते हैं क्योंकि अक्सर पुरानी बातों को याद कर ऐसे निर्णय हो जाते हैं जिनसे अपने आज में तो उथल पुथल हो ही जाती है और जिसने वह बात कही या की थी उसकी मानसिक स्थिति  बिगाड़ने का काम भी कर देते हैं।

कई बार तो आवेश में आकर पुरानी बात का बदला आज लेने लगते हैं जबकि उसकी कोई जरूरत नहीं होती और इस चक्कर में पड़कर कुछ ऐसा भी कर जाते हैं जो अपराध करने जैसा होता है, चाहे वह अपने साथ हो या किसी दूसरे के साथ किया जाए। कई बार यह बदला लेने जैसा काम उसके न रहने पर परिवार के साथ भी कर देते हैं। इसे बैठे बिठाए मुसीबत मोल लेना या आ बैल मुझे मार की कहावत पर चलना भी कह सकते हैं।

भावनाएं भड़काने के ठेकेदार

कुछ लोग, विशेषकर, राजनीति की दुनिया में रहने वाले समाज में अपना सिक्का जमाए रखने के लिए लोगों की भावनाओं को भड़काने, उन्हें पुरानी बातों को याद दिलाने और जिन बातों का आज कोई अर्थ ही नहीं, उन्हें दोहराकर ऐसा वातावरण बनाने में कामयाब हो जाते हैं जो उनके तो फायदे का होता है लेकिन समाज में उसके कारण मन मुटाव से लेकर दुश्मनी तक हो जाती है।

ये लोग इतने शातिर होते हैं कि किसी को सोचने का मौका ही नहीं मिलता और कोई न कोई ऐसा कांड हो जाता है जो न व्यक्ति के हित में होता है और न ही समाज के बल्कि अव्यवस्था फैलने से किसी का स्वार्थ पूरा होने का साधन बन कर उसके हाथ की कठपुतली बनना तय हो जाता है।

ऐसे एक नहीं दर्जनों उदाहरण दिए जा सकते हैं जिनमें बिना भली भांति सोच विचार किए सामान्य नागरिकों को ऐसे हालात बनाये जाने का हिस्सा बना दिया जाता है, जिनका परिणाम केवल अफरा तफरी और आपसी वैमनस्य में ही निकलता है। इसमें उन तत्वों का भला होता रहता है जो दूसरों का घर जलने पर अपने हाथ सेंकने में माहिर होते हैं।

आम तौर से जिन पुरानी बातों को याद दिलाकर माहौल खराब किया जाता है उनमें राजनीतिक दलों के स्वार्थ तो होते ही हैं, साथ में सामाजिक एकता भी खतरे में पड़ जाती है।

इनमे धर्म, संस्कृति, जाति, परंपरा, रीति रिवाज, पुश्तैनी व्यवहार, पीढ़ियों से चली आ रही मान्यता से लेकर अंध विश्वास तक कुछ भी हो सकता है जिनके आधार पर इन सब चीजों के ठेकेदार जन भावनाओं को भड़काने का खेल तब तक खेलना जारी रखते हैं जब तक ऐसा करने वालों की पूरी तरह से स्वार्थ सिध्दि न हो जाय।

अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता

यह सोच ही अपने आप में कितनी बचकानी लगती है कि हम लिखने, बोलने की आजादी के नाम पर वह सब कुछ सहने को विवश हो जाते हैं जो गलत है, अपमानजनक है और परिवार हो या समाज, बिखराव को जन्म देता है और कभी कभी तो उसके भयावह परिणाम निकलना तय होता है।

संविधान में दी गई अभिव्यक्ति की आजादी का जितना दुरुपयोग हमारे देश में होता है उसकी मिसाल शायद ही दुनिया में कहीं और मिले। इसके तहत वह सब काम करना भी बहुत आसान हो जाता है जो कदाचित देशद्रोह की श्रेणी में आसानी से रखा जा सकता है।

इसके विपरीत व्यंग्य, मुहावरे और ताना देने के लहजे में कही गई किसी बात को इतना तूल दिया जाने लगता है कि उसका बतंगड़ बनने में देर नहीं लगती।

यह कैसी विडंबना है कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को लेकर हमारा कानून मौन है लेकिन उसके कारण समाज में यदि अव्यवस्था फैलती हैं तो लॉ एंड ऑर्डर का विषय बन जाता है।

आजादी के नाम पर किसी को नीचा दिखाना, जाति सूचक शब्द इस्तेमाल कर बेइज्जती करना,  धार्मिक आस्था का मजाक उड़ाना, पूजा अर्चना के तौर तरीकों पर उंगली उठाना और यहां तक कि अपने आराध्य देवी देवताओं, ईश्वर, पैगम्बर तक को विवाद में खींच लेना जायज हो जाता है।

यही नहीं तनिक भी विरोध करने पर अपने से अलग विचारधारा मानने वालों को धर्म भ्रष्ट होने का तमगा दे दिया जाता है, उन्हें जाति से बाहर कर उनका सामाजिक वहिष्कार तक कर दिया जाता है।  यह सब इसलिए होता है क्योंकि भावनाओं को भड़का कर किसी से कुछ भी करवा लिया जाना सबसे आसान है और फिर ऐसा कोई कानून भी नहीं है जिससे ऐसा करने वालों को दण्डित किया जा सके।

क्या होना चाहिए

सबसे पहले तो एक व्यक्ति के तौर पर अपनी भावनाओं पर काबू रखकर तुरंत कोई कदम उठाने से पहले अच्छी तरह किसी भी बयान, कथन या घटना के बारे में सोच विचार कर लेना चाहिए कि अनजाने में कोई हमारा फायदा तो नहीं उठा रहा और हम जो करने जा रहे हैं उसका आगे चलकर क्या नतीजा निकल सकता है।

जहां तक सरकार का संबंध है, उसे इस बात की पहल करनी ही होगी कि कोई ऐसा कानून बनाया जाय जिससे संविधान में दी गई अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का कोई गलत लाभ न ले सके। इसके लिए अगर हमारे मूलभूल अधिकारों यानी फंडामेंटल राईट्स पर भी नए सिरे से विचार करना पड़े तो भी कोई हर्ज नहीं है क्योंकि संविधान तो सर्वोपरि है ही लेकिन उससे भी ऊपर सामाजिक समरसता है और वह अगर नष्ट होने लगी तो फिर देश के एकजुट रहने में संकट की घड़ी आने से रोकना संभव नहीं है।

शुक्रवार, 20 नवंबर 2020

टेलीविजन, कितना शक्तिशाली हथियार है यह इडियट बॉक्स


विश्व संस्था संयुक्त राष्ट्र की महासभा द्वारा 21 नवंबर को विश्व टेलीविजन दिवस मनाने की घोषणा के साथ ही यह तय मान लिया गया था कि यह कोई मामूली डिब्बा नहीं है बल्कि दुनिया के ऐसे सबसे शक्तिशाली हथियारों में से एक है जो देखने में तो छोटा सा मासूम की तरह दिखाई देता है लेकिन ऑन करते ही बड़े बड़े महारथियों को हिलाने की शक्ति रखता है।

लोगों के विचार बदलने, किसी को भी पटखनी देने और घर हो या बाहर, रोजगार हो या व्यापार, किसी भी क्षेत्र में उथल पुथल मचाने का काम इसके जरिए कुछ ही मिनटों में हो सकता है।

विश्व टेलीविजन दिवस पर विशेष

हमारे देश में तीन चैथाई से ज्यादा घरों में यह महाशय विराजमान रहते हैं और अब तो मोबाइल फोन और इंटरनेट की बदौलत चलने फिरने भी लगे हैं । कहीं भी, कभी भी संसार के किसी भी कोने में होने वाली कैसी भी घटना का विवरण दिखाकर खुश कर सकते हैं, उदास कर सकते हैं और यदि कोई समाचार या दृश्य दिल को छू जाए तो विचलित करने से लेकर नींद तक गायब कर सकते हैं।

अठारहवीं शताब्दी में कैमरे से खींची गई तस्वीरों को बिजली की तरंगों के माध्यम से चलती फिरती हालत में एक जगह से दूसरी जगह पहुंचाने की खोज शुरू करने वाले वैज्ञानिक को यह अनुमान भी नहीं होगा कि उन्नीसवीं सदी में इसका इतना विस्तार हो जाएगा कि लोग इसके बिना जीवन और उससे जुड़ी बातों को जानने की कल्पना भी नहीं कर पाएंगे।

ताकत का अनुमान सही था

किसी भी देश की ताकत जानने के प्रतीक के रूप में टेलीविजन का इस्तेमाल यूरोप और अमेरिका में इस कदर बढ़ गया कि एशियाई और अफ्रीकी देशों के अविकसित देशों पर अपना वर्चस्व दिखाने की होड़ लग गई। रंगीन टेलीविजन के आविष्कार ने दुनिया भर की ताकतों को एक दूसरे से अपने को बड़ा दिखाने, किसी मामूली मतभेद को जातीय संघर्ष में बदलने और हिंसात्मक दृश्यों को घरों में पहुंचा कर नफरत का वातावरण तैयार करने में इसका इस्तेमाल मनचाहे परिणाम देने लगा।

ऐसे में दबे स्वर में इस पर अंकुश लगाने की बात उठने लगी लेकिन यह संभव नहीं था क्योंकि बोतल में बंद जिन को बाहर निकाल देने के बाद उसे काबू करना असम्भव था।

भारत में इसकी शुरुआत खबरों के दर्शन कराने से हुई जो अब तक लोग अखबारों में पढ़कर जान पाते थे। शुरू में इसे आकाशवाणी के ही एक हिस्से की तरह संचालित करने का निर्णय किया गया और जैसे जैसे इसकी जरूरत अनिवार्य प्रतीत होती गई और इससे पड़ने वाले प्रभाव का आकलन हुआ तो यह सरकार के लिए जनता पर सबसे अधिक असर डाल सकने के हथियार के रूप में साबित हुआ।

विकसित देशों में यह बक्सा अपना चमत्कार दिखा चुका था कि किस प्रकार लोगों की सोच पर पहरा लगाने से लेकर उन्हें अपने फायदे के लिए  इस्तेमाल किया जा सकता है।

हमारे देश में भी इसकी शुरुआत खबरों के जरिए सरकार द्वारा अपनी छवि का उज्जवल पक्ष दिखाने से हुई और एक ही दल कांग्रेस का प्रचार प्रसार दिखाई देने से उसके लिए देश पर शासन करने में आसानी होने लगी।

कह सकते हैं कि समाचार दर्शन के साथ शिक्षा, कृषि तथा इसी तरह के तथाकथित ज्ञानवर्धक कार्यक्रमों से लोगों की सोच को प्रभावित करने का जो सिलसिला शुरू हुआ वह आजतक कायम है और दूरदर्शन को सरकार के प्रचार तंत्र का हिस्सा बना कर रखना फायदे का सौदा बन गया। आज भी जब तब उसे स्वायत्तता देने की बात होती है लेकिन चाहे किसी भी दल की सरकार हो, इसे वह अपने ही चंगुल में फंसाए रखना चाहती है।

समाचारों और शैक्षिक तथा उपदेश देने जैसे कार्यक्रमों की श्रंखला में मनोरंजन के नाम पर शाम को फिल्म दिखाने से लोगों को घरों में ही रखने में मदद मिली। उद्देश्य यह भी रहा होगा कि लोग बाहर कम निकलेंगे तो बहुत से भेद छिपाए रखना आसान हो जाएगा।

मनोरंजन के नाम पर

इसी के साथ आस्था, भक्ति, अध्यात्म तथा प्राचीन संस्कृति का परिचय कराने के नाम पर रामायण, महाभारत जैसे धार्मिक और हमलोग, बुनियाद जैसे सामाजिक सीरियल शुरू हुए तो दूरदर्शन की शक्ति पहचानी जाने लगी जो आज तक कायम है।

अपने मन की बात करनी हो, राजनीतिक संदेश देना हो, आर्थिक मोर्चे पर कोई घोषणा करनी हो या देश से वास्तविकता छिपाए रखने का काम बड़ी सफाई से करना हो तो दूरदर्शन को इसमें उसके आकाओं की स्पष्ट दखलंदाजी से महारत हासिल है।

इसी के साथ यह भी सत्य है कि किसी घटना की विश्वसनीयता की परख करने के लिए दूरदर्शन ही सबसे अधिक भरोसेमंद चैनल है। जबकि दूसरे चैनल किसी खबर को दिखाने के लिए जबरदस्त नाटकीयता का इस्तेमाल करने में अपनी ऊर्जा और धन की शक्ति का प्रयोग करते रह जाते हैं, दूरदर्शन आज भी अपनी सादगी से उन्हें दिखाकर जरूरी प्रभाव डालने में कामयाब हो जाता है।

निजी क्षेत्र में फिल्म और मनोरंजन के कार्यक्रमों को दिखाने से शुरुआत कर प्राइवेट सेक्टर का प्रवेश हुआ तो दूसरे देशों की तरह हमारे यहां भी न्यूज चैनल शुरू करने की अनुमति देनी पड़ी। इसका असर यह हुआ कि जो चीजें सरकार छिपाने में कामयाब हो जाती थी, वे अब खुलकर सामने आने लगीं। यही नहीं उन्हें ज्यादा से ज्यादा नंगा कर दिखाने की प्रतिस्पर्धा शुरू हो गई। अब सरकार हो या विपक्ष किसी के लिए भी बहुत देर तक जनता से कुछ छिपाना या यूं कहें कि धूल झोंकना संभव नहीं रह गया है।

अगर टेलीविजन दिवस पर इस इडियट बॉक्स पर कुछ गर्व करने लायक है तो बस इतना ही कि अब सच सात पर्दों में भी नहीं छिपाया जा सकता और अब यह इतना ताकतवर है कि किसी भी तरह की उठापटक राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक क्षेत्र में कर सकने में सक्षम है।

मनोरंजन के नाम पर हिंसा, भय, यौन विकृति तथा वीभत्स दृश्यों को दिखाना या उन्हें देखना अब दर्शक वर्ग के चुनाव पर निर्भर हो गया है कि वह क्या देखना चाहता है और क्या नहीं। सरकारी हो या निजी चैनल उनकी अर्थव्यवस्था अब इस बात से चलती है कि किसकी टीआरपी पर कितनी पकड़ है।

दर्शक केवल इतना कर सकते हैं कि वे अपनी बुद्धि और विवेक के बल पर चैनलों में कार्यक्रम निर्माताओं को अपनी पसंद के हिसाब से धारावाहिक हों या टीवी फिल्म, निर्माण करने के लिए विवश करते रहें। यदि ऑडियंस यह चाहती है कि कार्यक्रम ऐसे हों जिन्हें देखने के लिए उन्हें छिपना न पड़े या परिवार के साथ न देख सकते हों तो इस टेलीविजन दिवस पर इतना ही संकल्प कर लेना बहुत है।