यह देख और सुन कर अब कोई हैरानी नहीं होती कि जिन्हें हम अपना रक्षक समझते रहे, वे क्या से क्या हो गए, भक्षक बन गए और जनता उनके आगे हमेशा की तरह मूक बनी रही क्योंकि उसके पास नतमस्तक होने के अतिरिक्त और कोई विकल्प ही नहीं है। कहते हैं कि समरथ को न दोष गुसाईं तो जिसके हाथ में डंडे की ताकत है, वह कुछ भी कर सकता है, उसका न कोई कसूर पहले माना जाता था और न अब उसे कुसुरवार ठहराया जा सकता है।
इसमें आश्चर्यचकित होने जैसा कुछ नहीं है कि एक पुलिस अधिकारी सरेआम यह कहे कि राज्य के गृह मंत्री चाहते हैं कि उनके लिए सौ करोड़ की उगाही का लक्ष्य पूरा किया जाय वरना कहीं उन्हें अपनी शक्ति का इस्तेमाल न करना पड़ जाए ?
असल में क्या होता है कि कोई जब जड़ की बजाय पत्तों और टहनियों को साफ कर देने से समाज में बदलाव लाने की डींग हांकता है तो समझ लेना चाहिए कि व्यवस्था में जहर घुल चुका है। इसे इस तरह से समझें कि कानून, संविधान और नियम जब अपनी मर्जी से तोड़े मरोड़े जाने लगें तब प्रजातांत्रिक मूल्यों का कोई मतलब नहीं रह जाता।
उगाही क्यों
होती है ?
इसे समझने के लिए इतना ही काफी है कि अंग्रेजों के सन् 1861 के पुलिस कानून को रद्दी की टोकरी में फेंककर नया कानून बनाने के स्थान पर उसकी ही लीपा पोती कर दी गई क्योंकि उसमें पुलिस की भूमिका सेवक की नहीं मालिक की थी। जनता उनकी गुलाम जिससे केवल वसूली ही की जा सकती थी और उस पर दबाव से लेकर सभी तरह के जुल्म कर सकने की आजादी होती थी ।
आजादी के बाद इसी व्यवस्था को अपनाने और इसका विस्तार करने का एक लाभ यह था कि अपने राजनीतिक आकाओं को प्रसन्न रखा जा सकता था। उन्हें खुश रखना इसलिए जरूरी था क्योंकि पुलिस वालों के ट्रांसफर और पोस्टिंग का नियमों के खिलाफ होने पर भी उनका एकमात्र अधिकार नेताओं का था । उन के इस अधिकार को न तो चुनौती दी जा सकती थी और न ही उनके हुक्म को टालने की हिम्मत हो सकती थी। अगर किसी अधिकारी ने ऐसा करने का साहस दिखाया तो उसके बुरे दिनों की शुरुआत होने में कोई देर नहीं लगती।
आज भी अगर कोई थाने में जाता या बाहर आता दिख जाए या किसी के घर पुलिस वाला चाहे किसी व्यक्तिगत काम से ही क्यों न आया हो, उस व्यक्ति को शक की नजरों से देखा जाने लगता है कि कुछ तो गड़बड़ है तब ही थाने के चक्कर लग रहे हैं। इसका कारण केवल यह मानना है कि पुलिस की दोस्ती अच्छी नहीं और दुश्मनी हो जाए तो इज्जत, घर बार सब कुछ दांव पर लग सकता है।
जब इतना भय हो तो कौन सा दुकानदार, व्यापारी, उद्योगपति पुलिस की हफ्ता वसूली का विरोध कर बैठे बिठाए अपनी शामत बुलाने की गलती करेगा। कोई भी काम धंधा, रोजगार, व्यवसाय हो, यहां तक कि रेहड़ी पटरी से लेकर आटो रिक्शा, टैक्सी वाले हों, पुलिस का हिस्सा अपनी कमाई में से उसी तरह अलग रखते हैं जैसे कोई अपनी आमदनी का कुछ भाग ईश्वर के निमित्त अलग रखता हो !
सुधार का कारगर
न होना
जहां तक पुलिस की कार्यशैली में सुधार करने की बात है तो एक रिटायर्ड पुलिस कमिश्नर का ही यह कहना है कि ये सब सुधार डस्टबिन में फेंक दिए जाने चाहिएं क्योंकि जब तक राजनीतिज्ञों के हाथ में ट्रांसफर और पोस्टिंग का अधिकार रहेगा तब तक पुलिस को कोई नहीं सुधार सकता। इसीलिए न्यायाधीशों तक ने अपनी अनेक टिप्पणियों में पुलिस को संगठित अपराधियों का गिरोह तक कहने में संकोच नहीं किया। एक बड़े प्रदेश के सत्ताधारी दल के मुखिया के परिवार से मंत्री बने एक नेताजी के मुंह से यह सुनकर कोई अचंभा नहीं हुआ कि जब तक एक करोड़ रुपया हर रोज उनकी तिजोरी में न पहुंचे उन्हें ठीक से नींद नहीं आती।
एक रिटायर्ड महिला पुलिस कमिश्नर ने एक मुलाकात में जब अपने मनोभाव को छिपाए बिना यह कहा कि नेताओं द्वारा उन्हें किसी खास मामले की जांच का काम अक्सर यह कहकर दिया जाता था कि आप एक ईमानदार अफसर हैं इसलिए आपको ही सौंप रहा हूं। उन्होंने आगे कहा कि नेताजी के इस वाक्य का अर्थ यह होता था कि यदि अपनी छवि को बरकरार रखना है तो मेरे हिसाब से रिपोर्ट बना दीजिएगा, कोई उंगली नहीं उठाएगा। यह कहते हुए इन महिला के चेहरे पर के भावों से साफ पता चल रहा था कि उन्हें छवि बनाए रखने के लिए कितने पापड़ बेलने पड़े होंगे।
यदि कानून में खामियां नहीं होती तो देश की जेलों में बंद लोगों में दो तिहाई से ज्यादा अंडर ट्रायल नहीं होते। दशकों तक बिना किसी अपराध के जेलों में सड़ने वालों के आंकड़े कम नहीं हैं। बीसियों वर्ष जेल में बंद रहने के बाद अदालत द्वारा निर्दोष घोषित कर दिए जाने वालों की दास्तान कानून के माथे पर कलंक के सिवाय और क्या है, यही नहीं उनके भरे पूरे परिवार को नारकीय यातनाएं भोगने के लिए बेसहारा कर देने के पीछे व्यवस्था का षड्यंत्र ही तो है ?
ऐसा नहीं है कि पुलिस का केवल विद्रूप चेहरा ही ही है, सच्चाई यह भी है कि यदि पुलिस अधिकारी अपना संवेदनशील स्वरूप न दिखाते तो बच्चों, महिलाओं और बुजुर्गों का इस समाज में रहना ही दूभर हो जाता। यह एक तरह का विरोधाभास ही है कि पुलिस और जनता का रिश्ता कभी खुलकर सामने नहीं आ पाता क्योंकि उसमें बहुत से किंतु परंतु जुड़े रहते हैं। यह रिश्ता इतना नाजुक है कि जरा सी ठेस लगने पर टूटने के कगार पर पहुंच जाता है। इसका एक कारण यह हो सकता है कि पुलिस में भर्ती का अर्थ अपनी ताकत का एहसास कराने से लेकर अतिरिक्त आमदनी का जरिया हाथ लगना मान लिया जाता है।
यही कारण है कि अधिकतर झगड़ों के सुलझने की शुरुआत आपस में ही सुलह करने से हो जाती है। यदि यही काम पुलिस अधिकारी कर ले अर्थात दोनों पक्षों को यह बताने की कोशिश करे कि उनका विवाद उतना बड़ा नहीं है जिसके लिए थाने कचहरी की जरूरत पड़े तो बहुत से झगड़े आगे बढ़ने से पहले ही सुलझ जाएं। अनेक रिटायर्ड पुलिस अधिकारियों से बातचीत का निष्कर्ष यही निकला कि उनकी भूमिका में यदि राजनीतिक दखलंदाजी और ब्यूरोक्रेसी की अकड़ से मुक्ति मिल जाए तो हमारे देश की पुलिस व्यवस्था दुनिया में सब से बेहतरीन हो सकती है।
अगर इस बात को समझना है कि कोई पुलिस वाला उगाही क्यों करता है, रिश्वत क्यों लेता है और गैर कानूनी गतिविधियों की तरफ से नजर क्यों फेर लेता है तो इसका कारण उसकी कम तनख्वाह या नौकरी के घंटों का कोई हिसाब न होना नहीं है बल्कि यह है कि बड़े अफसरों की जी हुजूरी करना और अपनी ड्यूटी से अलग ऐसे सभी काम करना है जिसका उसके काम से कोई संबंध ही नहीं है। यह पूरी श्रृंखला है जिसकी पहली कड़ी सिपाही है और अंतिम सिरा नेताजी के हाथ में होता है।