शनिवार, 27 मार्च 2021

पुलिस और पब्लिक का रिश्ता क्या कहता है

यह देख और सुन कर अब कोई हैरानी नहीं होती कि जिन्हें हम अपना रक्षक समझते रहे, वे क्या से क्या हो गए, भक्षक बन गए और जनता उनके आगे हमेशा की तरह मूक बनी रही क्योंकि उसके पास नतमस्तक होने के अतिरिक्त और कोई विकल्प ही नहीं है। कहते हैं कि समरथ को न दोष गुसाईं तो जिसके हाथ में डंडे की ताकत है, वह कुछ भी कर सकता है, उसका न कोई कसूर पहले माना जाता था और न अब उसे कुसुरवार ठहराया जा सकता है।

इसमें आश्चर्यचकित होने जैसा कुछ नहीं है कि एक पुलिस अधिकारी सरेआम यह कहे कि राज्य के गृह मंत्री चाहते हैं कि उनके लिए सौ करोड़ की उगाही का लक्ष्य पूरा किया जाय वरना कहीं उन्हें अपनी शक्ति का इस्तेमाल न करना पड़ जाए ?

असल में क्या होता है कि कोई जब जड़ की बजाय पत्तों और टहनियों को साफ कर देने से समाज में बदलाव लाने की डींग हांकता है तो समझ लेना चाहिए कि व्यवस्था में जहर घुल चुका है। इसे इस तरह से समझें कि कानून, संविधान और नियम जब अपनी मर्जी से तोड़े मरोड़े जाने लगें तब प्रजातांत्रिक मूल्यों का कोई मतलब नहीं रह जाता।

उगाही क्यों होती है ?

इसे समझने के लिए इतना ही काफी है कि अंग्रेजों के सन् 1861 के पुलिस कानून को रद्दी की टोकरी में फेंककर नया कानून बनाने के स्थान पर उसकी ही लीपा पोती कर दी गई क्योंकि उसमें पुलिस की भूमिका सेवक की नहीं मालिक की थी।  जनता उनकी गुलाम जिससे केवल वसूली ही की जा सकती थी और उस पर दबाव से लेकर सभी तरह के जुल्म कर सकने की आजादी होती थी ।

आजादी के बाद इसी व्यवस्था को अपनाने और इसका विस्तार करने का एक लाभ यह था कि  अपने राजनीतिक आकाओं को प्रसन्न रखा जा सकता था। उन्हें खुश रखना इसलिए जरूरी था क्योंकि पुलिस वालों के ट्रांसफर और पोस्टिंग का नियमों के खिलाफ होने पर भी उनका एकमात्र अधिकार नेताओं का था । उन के इस अधिकार को न तो चुनौती दी जा सकती थी और न ही उनके हुक्म को टालने की हिम्मत हो सकती थी। अगर किसी अधिकारी ने ऐसा करने का साहस दिखाया तो उसके बुरे दिनों की शुरुआत होने में कोई देर नहीं लगती।

आज भी अगर कोई थाने में जाता या बाहर आता दिख जाए या किसी के घर पुलिस वाला चाहे किसी व्यक्तिगत काम से ही क्यों न आया हो, उस व्यक्ति को शक की नजरों से देखा जाने लगता है कि कुछ तो गड़बड़ है तब ही थाने के चक्कर लग रहे हैं। इसका कारण केवल यह मानना है कि पुलिस की दोस्ती अच्छी नहीं और दुश्मनी हो जाए तो इज्जत, घर बार सब कुछ दांव पर लग सकता है।

जब इतना भय हो तो कौन सा दुकानदार, व्यापारी, उद्योगपति पुलिस की हफ्ता वसूली का विरोध कर बैठे बिठाए अपनी शामत बुलाने की गलती करेगा। कोई भी काम धंधा, रोजगार, व्यवसाय हो, यहां तक कि रेहड़ी पटरी से लेकर आटो रिक्शा, टैक्सी वाले हों, पुलिस का हिस्सा अपनी कमाई में से उसी तरह अलग रखते हैं जैसे कोई अपनी आमदनी का कुछ भाग ईश्वर के निमित्त अलग रखता हो !

सुधार का कारगर न होना

जहां तक पुलिस की कार्यशैली में सुधार करने की बात है तो एक रिटायर्ड पुलिस कमिश्नर का ही यह कहना है कि ये सब सुधार डस्टबिन में फेंक दिए जाने चाहिएं क्योंकि जब तक राजनीतिज्ञों के हाथ में ट्रांसफर और पोस्टिंग का अधिकार रहेगा तब तक पुलिस को कोई नहीं सुधार सकता। इसीलिए न्यायाधीशों तक ने अपनी अनेक टिप्पणियों में पुलिस को संगठित अपराधियों का गिरोह तक कहने में संकोच नहीं किया। एक बड़े प्रदेश के सत्ताधारी दल के मुखिया के परिवार से मंत्री बने एक नेताजी के मुंह से यह सुनकर कोई अचंभा नहीं हुआ कि जब तक एक करोड़ रुपया हर रोज उनकी तिजोरी में न पहुंचे उन्हें ठीक से नींद नहीं आती।

एक रिटायर्ड महिला पुलिस कमिश्नर ने एक मुलाकात में जब अपने मनोभाव को छिपाए बिना यह कहा कि नेताओं द्वारा उन्हें किसी खास मामले की जांच का काम अक्सर यह कहकर दिया जाता था कि आप एक ईमानदार अफसर हैं इसलिए आपको ही सौंप रहा हूं। उन्होंने आगे कहा कि नेताजी के इस वाक्य का अर्थ यह होता था कि यदि अपनी छवि को बरकरार रखना है तो मेरे हिसाब से रिपोर्ट बना दीजिएगा, कोई उंगली नहीं उठाएगा। यह कहते हुए इन महिला के चेहरे पर के भावों से साफ पता चल रहा था कि उन्हें छवि बनाए रखने के लिए कितने पापड़ बेलने पड़े होंगे।

यदि कानून में खामियां नहीं होती तो देश की जेलों में बंद लोगों में दो तिहाई से ज्यादा अंडर ट्रायल नहीं होते। दशकों तक बिना किसी अपराध के जेलों में सड़ने वालों के आंकड़े कम नहीं हैं। बीसियों वर्ष जेल में बंद रहने के बाद अदालत द्वारा निर्दोष घोषित कर दिए जाने वालों की दास्तान कानून के माथे पर कलंक के सिवाय और क्या है, यही नहीं उनके भरे पूरे परिवार को नारकीय यातनाएं भोगने के लिए बेसहारा कर देने के पीछे व्यवस्था का षड्यंत्र ही तो है ?

ऐसा नहीं है कि पुलिस का केवल विद्रूप चेहरा ही ही है, सच्चाई यह भी है कि यदि पुलिस अधिकारी अपना संवेदनशील स्वरूप न दिखाते तो बच्चों, महिलाओं और बुजुर्गों का इस समाज में रहना ही दूभर हो जाता। यह एक तरह का विरोधाभास ही है कि पुलिस और जनता का रिश्ता कभी खुलकर सामने नहीं आ पाता क्योंकि उसमें बहुत से किंतु परंतु जुड़े रहते हैं। यह रिश्ता इतना नाजुक है कि जरा सी ठेस लगने पर टूटने के कगार पर पहुंच जाता है। इसका एक कारण यह हो सकता है कि पुलिस में भर्ती का अर्थ अपनी ताकत का एहसास कराने से लेकर अतिरिक्त आमदनी का जरिया हाथ लगना मान लिया जाता है।

यही कारण है कि अधिकतर झगड़ों के सुलझने की शुरुआत आपस में ही सुलह करने से हो जाती है। यदि यही काम पुलिस अधिकारी कर ले अर्थात दोनों पक्षों को यह बताने की कोशिश करे कि उनका विवाद उतना बड़ा नहीं है जिसके लिए थाने कचहरी की जरूरत पड़े तो बहुत से झगड़े आगे बढ़ने से पहले ही सुलझ जाएं। अनेक रिटायर्ड पुलिस अधिकारियों से बातचीत का निष्कर्ष यही निकला कि उनकी भूमिका में यदि  राजनीतिक दखलंदाजी और ब्यूरोक्रेसी की अकड़ से मुक्ति मिल जाए तो हमारे देश की पुलिस व्यवस्था दुनिया में सब से बेहतरीन हो सकती है।

अगर इस बात को समझना है कि कोई पुलिस वाला उगाही क्यों करता है, रिश्वत क्यों लेता है और गैर कानूनी गतिविधियों की तरफ से नजर क्यों फेर लेता है तो इसका कारण उसकी कम तनख्वाह या नौकरी के घंटों का कोई हिसाब न होना नहीं है बल्कि यह है कि बड़े अफसरों की जी हुजूरी करना और अपनी ड्यूटी से अलग ऐसे सभी काम करना है जिसका उसके काम से कोई संबंध ही नहीं है। यह पूरी श्रृंखला है जिसकी पहली कड़ी सिपाही है और अंतिम सिरा नेताजी के हाथ में होता है।

शुक्रवार, 19 मार्च 2021

तरक्की का उम्मीद सरकार से नहीं, अपने से होनी चाहिए

 

आत्मविश्वास, आत्मनिर्भरता, अपनी सहायता स्वयं करना जैसे शब्द आज से नहीं सैंकड़ों वर्षों में जनमानस के कानों में पड़ते रहे हैं।  नेताओं का तो यह एक तरह से तकिया कलाम ही है जिसका इस्तेमाल वे अक्सर करते हैं, विशेषकर तब जब उन्हें किसी की मदद करने से बचना होता है। परिवार हो या समाज जब सब ओर से निराशा होने लगती है तब एक ही वाक्य काम आता है कि खुद ही कुछ करना होगा क्योंकि अपने मरे बिना स्वर्ग नहीं पहुंचा जा सकता

बहकावे का खेल

सामान्य नागरिक को बहकाए रखने, उसे छलने, उसके साथ कपट करने से लेकर आसमान के तारे तोड़कर उसकी झोली में डाल देने के वायदे तक करना नेताओं और उनसे बनी सरकारों का  प्रतिदिन का काम है। स्पष्ट नीतियों और दृढ़ तथा सुनिश्चित  विचारधारा के अभाव और योजनाओं पर अमल करने की अयोग्यता के कारण जब किसी सरकार  के काम की आलोचना होती है तो उसका नतीजा एक से एक शानदार बहाने बना कर लोगों को भरमाए रखने के अंतहीन सिलसिले के रूप में शुरू हो जाता है।

उदाहरण के लिए जब मंत्री से लेकर प्रधानमंत्री तक गरीबी न मिटने के लिए यह कहते हैं कि ये जो रोहिंग्या आबादी हमारे देश में घुस आई है, वह इसके लिए जिम्मेदार है, जबकि हकीकत यह है कि वे केवल कुछेक लाख होंगे और देश एक सौ तीस करोड़ का है जिसमें वे समुद्र की एक बूंद की तरह हैं। लोगों के मन में यह बात भी भरी जाती है कि  पिछली सरकारों के निकम्मे होने के कारण  अब हमें ही सब कुछ शुरू से करना पड़ रहा है, इसलिए वक्त तो लगेगा ही। विपक्ष भी यह दोहराता रहता है कि ये सरकार तो बस दो चार पूंजीपतियों को ही मालामाल करने में लगी है और हमारे हाथ में सत्ता आते ही सारी परेशानियां चुटकी भर में दूर हो जाएंगी।

इस तरह के छलावे करना राजनीतिज्ञों  के लिए ती सही हो सकता है लेकिन जब यही नजरिया  समाज और परिवार में अपनी जड़ें जमाने लगता है तो अपने पर से विश्वास उठने लगता है, व्यक्ति असहाय महसूस करते हुए अपनी सोच को कुंद कर लेता है, अपने पौरुष पर शंका करने लगता है और हालात से समझौता करने के अलावा उसे कोई रास्ता नहीं सूझता ।

अपने पर विश्वास कैसे हो

इसे समझने के लिए एक घटना का जिक्र करता हूं। बहुत साल पहले चलो गांव की ओर कार्यक्रम का निर्माण करता था जो देश की सभी भाषाओं में आकाशवाणी से प्रसारित होता था। एक तेलुगु महिला का पत्र आया कि वह अपने चार बच्चों के साथ आत्महत्या करने जा रही थी और एक दुकान के पास  कुछ देर आराम करने के लिए रुक गई। दुकान में रेडियो से यह प्रोग्राम सुनने लगी जिसका असर यह हुआ कि सोचने लगी कि मैं आत्महत्या क्यों कर रही हूं ?

इस कार्यक्रम में मुख्य भूमिका में नट और नटी अपने अभिनय से औरतों द्वारा अपनी मदद खुद करने की बात कहते हुए गांव के सरपंच या ब्लॉक डेवलपमेंट अधिकारी के पास जाने को कह रहे थे। इस महिला ने पत्र में इसका जिक्र करते हुए लिखा कि वह पंचायत में गई जिसकी सरपंच महिला थी और अपनी आपबीती सुनाई तो सरपंच ने डांट कर कहा कि मरने से तुझे और तेरे बच्चों को क्या मिलेगा ?

उसके बाद उसे गांव में सरपंच के बनाए महिला स्वयं सहायता समूह से बिना ब्याज कुछ रुपए मिले जिससे भूख मिटी और जो काम उसे आता था उसे करने के साधन मिले जिससे वह आज अपने पैरों पर खड़ी है और यह चिट्ठी लिख रही है।

अगर इस घटना को बड़ा कर के देखा जाए तो यह देश के हरेक उस नागरिक का भला कर सकती है जो भूख, गरीबी, बेरोजगारी से जूझ रहा है। इसका मतलब यह है कि अगर सामान्य नागरिक के मन में अपने सहयोगी, कर्मचारी, सेवक या फिर पड़ौसी के किसी दुःख का पता चलने पर उसकी दिक्कत दूर करने का भाव पैदा हो जाए और वह अपनी हैसियत के अनुसार मदद कर दे तो यह किसी क्रांति से कम नहीं होगा।

ऐसी ही एक और घटना है जो बाल मजदूरों और बेसहारा भीख मांगते बच्चों और मजबूरी में किसी के आगे हाथ फैलाते लोगों से जुड़ी है। आम तौर से सरकार का व्यवहार इन्हें पकड़कर किसी आश्रम या अनाथालय या जेल जैसे सुधार घर में डाल दिए जाने का होता है।

कुछेक संवेदनशील लोगों जैसे कि बचपन बचाओ आंदोलन के प्रवर्तक कहे जाने वाले कैलाश सत्यार्थी ने बाल मजदूरों और भीख मांगते बच्चों को बिना किसी सरकारी सहायता या हस्तक्षेप के उनकी प्रतिभा के अनुसार उन्हें शिक्षित करने और उनके हुनर को पहचान कर प्रशिक्षित करने का इंतजाम किया तो अनेक परिवारों की पीढ़ियों तक का भला हो गया।

इसी तरह दुनिया की सबसे धनी महिलाओं में से एक मेलिंडा गेट्स ने भारत में उन दूर दराज के इलाकों की महिलाओं को आत्मनिर्भर बनाने का काम करना शुरू किया जिन तक पहुंचना किसी भी सरकार की प्राथमिकता नहीं थी।

परिवार सीमित रखने के लिए गर्भ निरोधक, गर्भवती महिलाओं के सुरक्षित प्रसव और शिशुओं को बाल मृत्यु से बचाने के लिए उनके पोषण का प्रबंध और प्रसव के बाद माता की सेहत बनाए रखने की व्यवस्था की। इसी के साथ उन्हें अपने परिवार का खर्चा चलाने के लिए आर्थिक मदद और उससे भी अधिक उनमें स्वाभिमान तथा आत्मविश्वास की पूर्ति की ताकि वे अपने आसपास ही अपना कुछ रोजगार कर सकें।

हमारे देश में ऐसे बहुत से व्यक्ति हैं जो बिना किसी उम्मीद के आसपास रहने वालों की यथा संभव मदद करते रहते हैं जिसे न वे याद रखते हैं और न ही उस व्यक्ति को जताते हैं जिसके प्रति उन्होंने कुछ किया था।

आदत सी बन जाए

असल में यह एक ऐसी प्रवृत्ति है जो जीना सिखाती है और अगर धार्मिक अंदाज में कहें तो इसे पुण्य कमाना या अपना परलोक सुधारना कह सकते हैं। बिना किसी प्रकार की अपेक्षा रखते हुए अपनी संतान और पूरे परिवार के लिए यदि कोई व्यक्ति कुछ करता है तो यह अनजाने में अपनी ही मदद हो जाती है जिसका परिणाम मानसिक तनाव से मुक्ति और एक प्रकार का सुखद अहसास होने जैसा होता है। इसे न तो शब्दों में कहा जा सकता है और न ही इसकी व्याख्या की जा सकती है।

व्यापार की दुनिया, विशेषकर विज्ञापन के व्यवसाय में यह कहा जाता है कि यदि आप अपने क्लाइंट अर्थात उपभोक्ता की भलाई को सबसे प्रमुख रखकर काम करेंगे तो आपका अपना भला स्वयं हो जाएगा। मतलब आपको इस मानसिक द्वंद का सामना नहीं करना पड़ेगा कि अगर मुझे घाटा हो गया तो मैं बर्बाद हो जाऊंगा !

इसके विपरीत सोच यह बनेगी कि मैंने अपनी ओर से ईमानदारी से पूरी कोशिश की लेकिन अगर परिणाम अपने मन के मुताबिक नहीं निकले तो इसका मतलब यह है कि कहीं कुछ कमी थी जिसे दूर कर फिर से कोशिश की जाय तो कामयाबी मिलना कोई बड़ी बात नहीं है। इसके मूल में केवल यही भावना रहती है कि मैं जो कर रहा हूं उससे किसी का नुकसान न होकर उसका फायदा ही होगा। अगर यह सोच बन जाए तो व्यक्ति बहुत से ऐसे काम करने से बच सकता है जो समाज के लिए नुकसानदायक हैं जैसे कि कम तोलना, खाने पीने की चीजों में मिलावट करना या किसी दूसरे के घायल होने पर  सहायता करने की जगह बच कर निकल जाना अथवा किसी को दुःखी देखकर उसमें अपने लिए खुशी ढूंढना।

इस सब का निष्कर्ष यही है कि जब तक व्यक्ति को अपनी मदद स्वयं करना नहीं आयेगा तब तक वह दूसरों का मुंह ताकता रहेगा और आत्मनिर्भर बनना दूर, अपना आत्मविश्वास भी खो बैठेगा। 

शुक्रवार, 12 मार्च 2021

अहंकार से जन्मा क्रोध जीवन के सभी रसों का नाश कर देता है

 


जहां एक ओर शरीर पंच तत्वों से बना है वहां हमारा मन और हृदय अनेक भावों के वशीभूत होकर संचालित होता है। बुद्धि और विवेक से जुड़े ये भाव हमसे अपने स्वरूप के अनुसार निर्णय कराते हैं और शरीर को उनके अच्छे या बुरे परिणाम झेलने पड़ते हैं।

ये सभी भाव विभिन्न रसों के रूप में हमारे मस्तिष्क, विचार और व्यवहार को नियंत्रित करते हैं और प्रेरक भी बनते हैं। हमारे शास्त्रों में इनका वर्णन श्रृंगार, करुणा, हास्य, वीर, अद्भुत, रौद्र, भय, वीभत्स और शांत के रूप में किया गया है।  जिस प्रकार रक्त का प्रवाह मनुष्य को जीवित रखता है, उसी प्रकार इन रसों का संचरण हमारे चित्त को प्रसन्न, सुखी या दुखमय बनाता है।

जीवन के रस और रंग

हमारा जीवन जब तक अनेक रसों से सराबोर रहता है तब तक हमें उनका आनंद मिलता है। सबसे श्रेष्ठ कहे गए रस श्रृंगार में सुंदरता की झलक तन और मन को प्रफुल्लित बनाए रखती है लेकिन जब इसका अभिमान हो जाय तो नतीजा कुरूपता में भी निकल सकता है।

जीवन में जब तक अपने और दूसरों के प्रति करुणा का भाव रहता है तब तक मन में सेवा का भाव बना रहता है लेकिन जैसे ही दया का भाव उसमें मिल जाता है, उससे उत्पन्न घमंड सभी किए कराए पर पानी फेर देता है।

हास्य रस अर्थात स्वयं को हंसी खुशी रखने और दूसरों को अपनी उपस्थिति से आनंद का अनुभव कराने का नाम है। लेकिन जब इसका स्वरूप किसी की पीड़ा पर मुस्कराने और मजा लेने का हो जाए तो इसका असर दूसरों का अपने प्रति नफरत का हो जाता है। जो व्यक्ति हंसता नहीं, वह हीन भावना का शिकार होकर अपने आप को ही दंड देता रहता है और उसकी हालत इतनी खराब हो जाती है कि उसके इलाज के लिए किसी मनोचिकित्सक की जरूरत पड़ सकती है।

वीरता अपने आप में श्रेष्ठ और सम्मान योग्य है और कहा भी गया है कि वीर ही पृथ्वी के सभी सुखों का उपभोग करते हैं। लेकिन यही वीरता जब किसी कमजोर को दबाने में इस्तेमाल की जाती है तो इसका स्वरूप आताताई का हो जाता है। ऐसे व्यक्ति अपने लिए केवल घृणा का ही वातावरण छोड़ जाते हैं और कोई भी उन्हें आदरपूर्वक याद नहीं करता।

संसार में बहुत सी अदभुत वस्तुएं हैं और बहुत सी चीजों के अस्तित्व की प्रक्रिया तक समझ नहीं आती। इन्हें कुदरत का करिश्मा कहकर संतोष कर लेते हैं। मनुष्य का स्वभाव इनसे छेड़छाड़ करने का हो तो इनका प्रकोप किसी विनाश लीला से कम नहीं होता। पर्वत, वन, नदी जल प्रवाह और इनसे निर्मित अनेक आश्चर्य हमारा मन मुग्ध करने के लिए पर्याप्त हैं लेकिन जैसे ही मानव अपने स्वभाव के अनुसार इन पर अपना नियंत्रण करने की कोशिश करता है तो विनाश को ही जन्म देता है।

इसी प्रकार रौद्र रस है जो क्रोध में बदल जाय तो सब कुछ भस्म करने के लिए पर्याप्त है। भय का संचार जहां संसार में निर्भय होकर जीने का संकेत देता है, वहां इसका विकृत रूप आतंक का पर्याय बन जाता है।

सब से अंत में शांत रस आता है जो अगर मिल जाए तो जीवन धन्य हो जाता है। मनुष्य को जीवन का अर्थ और इसका मूल्य समझ में आ जाता है। अपने से किसी का अहित न हो और कोई मेरा नुकसान न कर सके, यह जब समझ में आने लगता है तब ही व्यक्ति, परिवार, समाज,  देश और संसार जीवंत हो पाता है, जीने लायक बन पाता है । अहंकार के स्थान पर गर्व की अनुभूति होती है तथा वसुधैव कुटुंबकम् की भावना का जन्म होता है। 

मार्च का महीना वसंत ऋतु के आने का प्रतीक है जिसे ऋतुराज भी कहा जाता है । यह मनुष्य की कोमल भावनाओं का प्रतीक है। प्रकृति भी इन दिनों करवट लेती है और हरियाली तथा खुशहाली अपनी निराली छटा बिखेरती है जिससे मन और शरीर को सुकून और आराम का एहसास होता है। इसी कारण वर्ष में इस माह का सबसे अधिक महत्व माना गया है।

हमारे जीवन में सभी रस तरह तरह के रंग भरते हैं और हम उनसे सराबोर होकर अपनी दिनचर्या तय करते हैं। जिंदगी जीने लायक बनती है और अकेले अपनी राह चलते हुए भी अकेलेपन का एहसास नहीं होता । लगता है कि आप भीड़ में अकेले नहीं हैं बल्कि सब के साथ चल रहे हैं ।

जीव और जीवन के शत्रु

जब अहंकार की यह भावना घर कर जाए कि मैं चाहे व्यक्तिगत हो या सामूहिक, किसी भी रूप में सर्वश्रेष्ठ, सर्वगुणसंपन्न, शक्तिशाली और कुछ भी करने के लिए स्वतंत्र हूं तब जो सात गुण जीवन की डोर थामने के लिए बनाए गए हैं उनका अस्तित्व समाप्त होने लगता है । पवित्रता, शांति, स्नेह, प्रसन्नता, ज्ञान, शक्ति और गंभीरता के रूप में कहे गए ये सभी गुण समाप्त हो जाते हैं और अहंकार से जन्मा क्रोध जंगल की आग की भांति सब कुछ नष्ट करने हेतु अपने विकराल रूप में दिखाई देता है।

क्रोध की आयु पानी में खींची गई एक लकीर से अधिक नहीं होती लेकिन इससे उत्पन्न हठ या जिद इतनी ताकतवर होती है कि एक क्षण में हमसे  हिंसा, हत्या, आत्महत्या जैसे भयानक अपराधों से लेकर वह सब कुछ करा देती है जिसका परिणाम जीवन भर भुगतना पड़ सकता है।

अचानक जैसे आंधी तूफान जैसा कुछ हो जाए, सब कुछ बिखरता हुआ सा लगे तो समझ लेना चाहिए कि केवल एक तत्व अहंकार और उससे जन्मा क्रोध तांडव कर रहा है  यह  एक पल में वह सब नष्ट करने की शक्ति रखता है जिसे हमने वर्षों की मेहनत से संजो कर रखा था और अपना सर्वस्व दांव पर लगा दिया था । इसका स्वरूप इतना भयंकर हो सकता है कि जैसे मानो व्यक्ति, परिवार, समाज और देश तक नष्ट होने जा रहा हो। ऐसा लगता है कि मन के पांच विकार काम, क्रोध, मद मोह, लोभ और अहंकार मनुष्य को अपनी चपेट में लेते जा रहे हैं और उसकी हालत अजगर की कुंडली की गिरफ्त में होने जैसी होती जा रही है जिससे बाहर निकलने की कोशिश का परिणाम अक्सर अपने अंत के रुप में ही निकलता है।

शुक्रवार, 5 मार्च 2021

दंगा फसाद और अंधेर नगरी चौपट राजा की मिसाल

 

हमारे देश में दंगे विशेषकर वे जिनका आधार विभिन्न धर्मों के अनुयायियों की धार्मिक भावनाओं को ठेस लगना हो और अचानक वे एक दूसरे को मारने मरने के लिए दुश्मनी का रास्ता अपना लें तो समझना चाहिए कि कहीं तो कुछ ऐसा है जिससे  कल तक एक दूसरे के पड़ोसी रहे, अचानक शत्रु क्यों बन गए ?

जहां तक दंगों का इतिहास है तो इसकी शुरुआत भारत विभाजन के दौरान हुए भीषण रक्तपात से लेकर फरवरी 2020 में हुए दिल्ली के एक खास इलाके में हुए हिंदू मुस्लिम संघर्ष तक जाती है।

जो पीढ़ी इन दंगों की साक्षी रही है और जिन्होंने अपनी आंखों के सामने मारकाट होते देखी है वे इस बात से सहमत होंगे कि इनके पीछे जो सबसे बड़ा कारण है, वह यह है कि एक ऐसी अफवाह फैला दी जाती है जो एकदम झूठ होती है लेकिन लोगों को सच्ची लगती है और जब तक सच्चाई सामने आए तब तक विध्वंस हो चुका होता है।

सरकार पर सवालिया निशान    

प्रश्न उठता है कि इस प्रकार की अफवाहों को फैलने से रोकने के लिए हमारा खुफिया सरकारी तंत्र क्या कर रहा था कि उसे इसकी भनक तक नहीं लगी और अगर उसे पता था तो समय पर कार्यवाही क्यों नहीं की ?  क्या उस पर किसी तरह का दवाब था कि हाथ पर हाथ रखकर बैठ जाए और कुछ न करे, क्या अफवाह से होने वाली हानि का अनुमान तक नहीं लगा पाई और इसलिए उसने इसे हलके में लेकर कुछ नहीं किया ?

इन प्रश्नों के उत्तर जानने से पहले यह समझ लीजिए कि हमारा खुफिया तंत्र बहुत विशाल है और ऐसा संभव नहीं है कि कोई अफवाह उसकी जानकारी में आने से बच जाए। हमारे यहां सीबीआई है जो इंटरपोल के बराबर है, एनआईए है जो कहीं भी जाकर किसी को भी तनिक सा संदेह होने पर हिरासत में ले सकती है, राज्यों की अपनी सीआईडी टीम हैं, रॉ है जो अंतरराष्ट्रीय साजिशों की निगरानी करती है। ये संस्थाएं लगभग पच्चीस हैं जिनमें आयकर, आर्थिक घोटाले, सूचना तंत्र का नियंत्रण तथा सभी कुछ आता है। इन संस्थाओं पर अपराधों को होने से पहले रोकने और अगर हो जाएं तो अपराधियों को पकड़ने, सजा दिलाने की जिम्मेदारी है।

दिल्ली के दंगों का फिल्मांकन

अब हम बात करते हैं पिछले साल दिल्ली में हुए दंगों को लेकर फिल्मकार कमलेश मिश्रा की फिल्म की जो उन्होंने दंगों के बाद बनाई थी लेकिन लॉकडाउन के कारण अब दर्शकों को दिखा पाए हैं। उनके निमंत्रण पर फिल्म देखी और कुछ सवाल मन में आए जो जानने जरूरी हैं।

इस फिल्म में दंगों के दौरान हुई तबाही के दृश्य हैं, किस तरह बरसों से साथ रह रहे पड़ोसी अचानक एक दूसरे की जान लेने पर उतर आए।  जो लोग मारे गए, उनके परिवार के लोगों का मार्मिक रूदन है, आंखों को नम करने वाले और मन में क्रोध का उबाल पैदा कर सकने की ताकत रखने वाले बयान हैं, करोड़ों की संपत्ति ख़ाक में मिला दिए जाने और अपना कारोबार, व्यापार, दुकान, दफ्तर, स्कूल, शिक्षण संस्थान सब कुछ लूट लिए जाने की दास्तान हैं, जिंदगी भर की कमाई नष्ट कर दिए जाने के प्रमाण हैं, पुरुषों, महिलाओं, बच्चों की आंखों में बेबसी की झलक है और ऐसा बहुत कुछ है जो किसी को भी सोचने के लिए मजबूर कर दे कि हम किस युग में जी रह रहे हैं और क्या बिना डरे और सहमे जिया जा सकता है?

इस फिल्म को अदालत में एक साक्ष्य के रूप में भी रखा जा सकता है, अगर यह दंगों पर निर्णय देने के लिए जिम्मेदार न्यायपालिका चाहे क्योंकि यह एक ऐसा दस्तावेज है जो न्याय करने में सहायक हो सकता है।

अफवाह का मायाजाल

इस फिल्म के बारे में ज्यादा कुछ न कहते हुए अब हम इस बात पर आते हैं कि इन दंगों के पीछे क्या था, दामन के नीचे क्या छुपा था और वह किसी को दिखाई क्यों नहीं दिया, अगर पता था तो पहले से कार्यवाही क्यों नहीं हुई ?

इन दंगों की पृष्ठभूमि में एक अफवाह यह थी कि पांच मार्च को मुसलमानों को देश निकाला दे दिया जाएगा इसलिए सरकार को सबक सिखाया जाए। इसके लिए समय और तारीख ऐसी तय की गई जो दुनिया के सबसे शक्तिशाली कहे जाने वाले देश अमेरिका के राष्ट्रपति के भारत दौरे के लिए रखी गई थी। इसे उस समय सुरक्षा एजेंसियों का ध्यान बांटने की कोशिश कही जा सकती है या अमेरिका की नजरों में भारत की छवि धूमिल करने का लक्ष्य हो सकता है या फिर पूरे देश को सांप्रदायिक हिंसा में झोंक देने की कवायद हो सकती है !

अब एक बार फिर इस फिल्म के उन दृश्यों के बारे में बताते हैं जो गवाही देते हैं कि राजनीति के चोले में छिपे नेता, सामाजिक कार्यकर्ता का लिबास पहने एक्टिविस्ट और धर्म का लबादा ओढ़कर आतंक का कारोबार करने वाले सौदागर एक जगह मिलकर सरकार को पलटने का प्रोग्राम बना रहे हैं। इन दृश्यों में छतों पर जमा ईंट पत्थर, पेट्रोल बम, गुलेल और हथियार हैं जो हिंसा करने में इस्तेमाल हुए और सड़कों पर वाहनों का कब्रिस्तान बनाने, लोगों को लाशों में तब्दील करने तथा मकान, दुकान, बिल्डिंग, कारखानों को मलबे का ढेर बनाने में कामयाब हुए।

यह सब इंतजाम कुछ मिनटों या घंटों में नहीं हो सकता था, इसके लिए कई दिन लगे होंगे और यह सब करने के लिए प्लानिंग हुई होगी, पैसे और रसूख का इस्तेमाल हुआ होगा और लोगों के मन में शंका भी हुई होगी कि कुछ अनर्थ होने वाला है।

अनसुनी दास्तान

उल्लेखनीय है कि रिकॉर्ड के मुताबिक लगभग 700 कॉल पुलिस का ध्यान दिलाने के लिए जागरूक नागरिकों द्वारा 23 फरवरी को की गई थीं जिन पर ध्यान नहीं दिया गया। उससे पहले भी संदिग्ध सामग्री ले जाए जाने और कुछ खास स्थानों पर रखे जाने की सूचना पुलिस को दी गई थी। पांच मार्च की अफवाह की जानकारी पूरे तंत्र को थी। नागरिकता कानून के विरोध में आंदोलन चल ही रहा था और सुरक्षा एजेंसियों से इस सब की जानकारी होने की उम्मीद प्रत्येक नागरिक को थी और उसे अपनी जान और सम्पति की हिफाजत किए जाने का भरोसा था।

यह सब होते हुए इतने बड़े पैमाने पर हिंसा हो जाना अपने आप में हमारे खुफिया तंत्र पर सवालिया निशान लगाता है कि उसके फैलाव की विशालता और असीमित शक्तियों के बावजूद यह कांड हो जाना क्या चिराग तले अंधेरा होने की कहावत चरितार्थ नहीं करता ?

अब हम एक दूसरी घटना का जिक्र करते हैं जो इस वर्ष छब्बीस जनवरी को दिल्ली में लालकिले पर एक धार्मिक झंडा फहराने और भयंकर हिंसा करने की पूरी तैयारी के साथ हुई। हो सकता है कि सुरक्षा एजेंसियों, पुलिस और प्रशासनिक अधिकारियों को इस बात की जानकारी हो और उसने पुलिस को कोई कार्यवाही न करने की हिदायत दी हो। यह सोचकर ही सिहरन हो जाती है कि उस दिन अगर सुरक्षा बलों ने समझदारी न दिखाई होती तो दिल्ली आग में झुलस जाती।

इन दोनों घटनाओं से यह स्पष्ट सिद्ध हो जाता है कि यदि प्रशासन चाहता तो दिल्ली में हुए दंगों को होने से रोका जा सकता था जैसा कि इस बार हुआ।

यहां हम एक दूसरे देश इजरायल की एक घटना का जिक्र करते हैं जो वहां की गुप्तचर एजेंसी मोसाद के बारे में है। इसका वर्णन इसी शीर्षक की पुस्तक में है जो इस प्रकार हैः

साठ के दशक में मोसाद को पता चलता है कि पड़ोसी इजिप्ट में जर्मनी के वैज्ञानिकों की मदद से ऐसे हथियार तैयार किए जा रहे हैं जिनसे इजरायल को हमेशा के लिए नेस्तनाबूद किया जा सकता है। इनमें ऐसे केमिकल, कीटाणु और गैस छोड़ने की योजना है जो इजरायल की आबादी को मारने, हमेशा के लिए अपाहिज बना देने और सभी इमारतों को ध्वस्त करने के लिए बनाई गई है। मोसाद को इसकी छानबीन करने की जिम्मेदारी दी जाती है। उसे पता चलता है कि इसमें केवल इतनी सच्चाई है कि इजिप्ट में यह सब कुछ हो तो रहा है और इसमें जर्मनी के वैज्ञानिक शामिल हैं लेकिन वे इतने काबिल नहीं कि ये सब हथियार बनाने में सफल हो सकें। इनमें हिटलर के नाजी अत्याचारों में भूमिका निभाने वाले भी थे और इजिप्ट को उनकी योग्यता पर भरोसा था।

मोसाद ने अंतरराष्ट्रीय स्तर पर कार्यवाही करते हुए इस साजिश का खुलासा किया, अपने देश की सुरक्षा का भरपूर प्रबंध किया और दुनिया को संदेश दिया कि कोई भी देश इजरायल को हलके में लेने की गलती न करे।

अब एक बार फिर दिल्ली के दंगों पर आते हैं। अगर सुरक्षा एजेंसियों को जानकारी थी तो दंगे रोकने की योजना क्यों नहीं बनी जिससे साजिश का पर्दाफाश करते हुए नागरिकों की जान और सम्पति की रक्षा हो जाती ? अगर जानकारी नहीं थी तो फिर इसके लिए उन संस्थाओं के शीर्ष पर बैठे अधिकारियों को तलब किए जाने और उन्हें इस भूल की सजा देने की कार्यवाही के विषय में सरकार ने क्या किया ?

जनता को यह सब जानने का अधिकार है ताकि वह अपनी सुरक्षा के प्रति आश्वस्त और निर्भय होकर जिंदगी जी सके।

यहां एक और घटना का जिक्र करना ठीक होगा। कुछ वर्ष पूर्व एक फिल्म बनाते समय अहमदाबाद में अपनी यूनिट के साथ जैसे ही एक स्थल पर कैमरा लगाया कि पुलिस की गाड़ी आकर पूछताछ करने लगी और अनुमति पत्र दिखाने को कहा। हमारे पास वह था नहीं क्योंकि उसकी जरूरत नहीं समझी और क्योंकि यह फिल्म सरकारी आदेश से बना रहा था इसलिए भी इस ओर ध्यान नहीं दिया। परिणाम के रूप में हमें शूटिंग रोकनी पड़ी, गुजरात सरकार के संबंधित विभाग की खिंचाई हुई और हमें चेतावनी देकर तुरंत चले जाने के लिए कहा गया। यह घटना तब हुई थी जब वर्तमान प्रधानमंत्री वहां के मुख्यमंत्री थे।

यह प्रश्न स्वाभाविक है कि जो व्यक्ति अपने प्रदेश की सुरक्षा में सेंध न लगने के लिए चाक चैबंद व्यवस्था कर सकता है, वह देश की राजधानी में किस प्रकार चूक गया जिससे दिल्ली को दंगों की विभीषिका से गुजरना पड़ा। इन सभी सवालों के जवाब मिलने ही चाहिएं वरना कहीं अंधेर नगरी चैपट राजा की कहावत आने वाले समय में सिद्ध न हो जाए !