शुक्रवार, 24 मार्च 2023

अजन्मे बच्चे के अधिकार , क़ानूनी मान्यता और भारतीय संस्कार

शिशु के गर्भ में रहने अर्थात् उसके जन्म लेने तक उसके अधिकार हैं, यह हमारे देशवासियों के लिए कुछ अटपटा हो सकता है लेकिन असामान्य या बेतुका क़तई नहीं है। बहुत से देशों में इसके लिए क़ानून भी हैं। इसके साथ ही उन्हें तरोताज़ा बनाए रखने के लिए प्रतिवर्ष 25 मार्च को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर गर्भ में पल रहे शिशु के लिए विशेष दिवस मनाए जाने की परंपरा है।


देखा जाए तो यह केवल अजन्मे बच्चे के अधिकारों की बात नहीं है बल्कि उस माँ के अधिकारों का रक्षण है जो उसे नौ महीने तक अपने गर्भ में रखकर उसका पालन पोषण करती है।

अजन्मे शिशु के अधिकार

गर्भस्थ शिशु जैसे जैसे अपना आकार प्राप्त करता जाता है, वैसे वैसे उसकी ज़रूरतें भी बढ़ती जाती हैं। उसके लिए ज़रूरी है कि उसकी माता बनने के लिए महिला को अपना खानपान और रहन सहन बदलना है। इसकी ज़िम्मेदारी पिता बनने जा रहे पुरुष पर भी आती है कि वह वे सब साधन जुटाए और सभी प्रकार की एहतियात बरते जिससे कि अजन्मे शिशु को कोई कष्ट न हो।

इस प्रक्रिया में सही समय पर डॉक्टरी जाँच और टीकाकरण तथा दवाइयों का सेवन आता है। यह बात केवल महिला ही जानती है कि उसके गर्भ में जो जीव पल रहा है, उसकी ज़रूरतें क्या हैं और उन्हें पूरा कैसे करना है ?

अब हम इस बात पर आते हैं कि हमारे देश में क़ानून तो बहुत हैं लेकिन उनसे अधिक पारिवारिक संस्कारों, सामाजिक परंपराओं और न जाने कब से चली आ रही कुरीतियों को मान्यता देने का रिवाज अधिक है। इस प्रक्रिया में क़ानून या तो कहीं मुँह छिपाकर बैठ जाता है और अपनी पीठ के पीछे हो रही घटनाओं को अनदेखा करने को ही अपनी ज़िम्मेदारी निभाना समझ लेता है या फिर अपना डर दिखाकर धौंस जमाते हुए दंड देने लगता है। क़ानून की नज़र में जो अपराधी है, चाहे परिवार और समाज के नज़रिए से सही माना जाए, सज़ा तो पाता ही है।

इस बात की गंभीरता को समझने के लिए कुछ उदाहरण देने आवश्यक हैं। हम चाहे अपने को कितना ही पढ़ा लिखा और आधुनिक कहें लेकिन जब यह बात आती है कि कन्या की जगह पुत्र ही होना चाहिए तो यह हमारे लिए बहुत सामान्य सी इच्छा है। अजन्मे बच्चे के अधिकारों का शोषण यहीं से शुरू हो जाता है। यह पता चलते ही कि गर्भ में कन्या है तो गाँव देहात का परिवार हो या शहर क़स्बे का, मन में उदासी छा जाती है। इस स्थिति में गर्भावस्था में सही देखभाल करने के स्थान पर भ्रूण हत्या करवाने के बारे में सोचा जाने लगता है। अब यह क़ानून सम्मत तो है नहीं इसलिए चोरी छिपे गर्भपात कराने का इंतज़ाम कर लिया जाता है।

अजन्मे बच्चे का पारिवारिक संपत्ति में जन्मसिद्ध क़ानूनी अधिकार है इसलिए भी भ्रूण हत्या होती है और यह परिवार की परंपरा है कि केवल लड़कों को ही उत्तराधिकारी माना जाएगा, इसलिए अगर गर्भ में कन्या है तो उसे जन्म ही क्यों लेने दिया जाए, यह मानसिकता हमारे संस्कार हमें देते हैं।

जहां अल्ट्रासाउंड जैसी तकनीक से यह जाना जा सकता है कि गर्भस्थ जीव में कोई विकृति तो नहीं और यदि है तो गर्भपात का सहारा लेना ठीक भी है और क़ानून के मुताबिक़ भी तो फिर इसकी बजाए इस बात को क्यों प्राथमिकता दी जाती है कि कन्या अगर गर्भ में है तो उसे इस प्रावधान का सहारा लेते हुए उसे जन्म न लेने दिया जाए।

अजन्मे शिशु का एक अधिकार यह भी है कि उसका सही ढंग से विकास होने के लिए गर्भावस्था के दौरान और प्रसव से पूर्व तक वे सब उपचार और सुविधाएँ मिलें जो उसे इस संसार में स्वस्थ रूप में आने का रास्ता प्रशस्त कर सकें। इस कड़ी में माता का निरंतर मेडिकल चेकअप, निर्धारित समय पर टीकाकरण और पौष्टिक भोजन और जन्म लेने से पहले एक सुरक्षित वातावरण जिससे न केवल माँ उसे जन्म देने के लिए तैयार हो बल्कि शिशु भी हृष्ट पुष्ट अवस्था में जन्म ले।

जो साधन संपन्न हैं उनके लिए ये सब करने में कोई समस्या नहीं है लेकिन गाँव देहात, दूरदराज़ के क्षेत्रों, विभिन्न कामों में लगी मज़दूर औरतों से लेकर कामकाजी और घरेलू महिलाओं तथा ग़रीबी में रह रही स्त्रियों के लिए यह सब प्रबंध कौन करेगा ? ज़ाहिर है कि यह सरकार और उसके द्वारा इस काम के लिए बनाई गई संस्थाओं की यह ज़िम्मेदारी है लेकिन यह बात किससे छिपी है कि आज भी अधिकतर ग्रामीण इलाक़ों में डिस्पेंसरी है तो दवा नहीं, अस्पताल है तो डॉक्टर नहीं और अगर ये दोनों हैं तो ईलाज और जाँच पड़ताल तथा ऑपरेशन आदि की सुविधाएँ नहीं। स्वास्थ्य केंद्रों की हालत दयनीय है और चिकित्सा सुविधाओं के अभाव में मरीज़ को दम तोड़ते देखना मामूली बात है। आज भी प्रसव के समय मृत्यु दर डर पैदा करती है।

इसी के साथ जुड़ा है कि यदि किसी की हैसियत नहीं है कि वह आने वाले बच्चे का ठीक प्रकार से पालन पोषण नहीं कर सकता तो उसे अपनी पत्नी को गर्भवती करने का अधिकार नहीं है।इसके साथ ही यदि पत्नी नहीं चाहती कि वह गर्भधारण करे तो पति को समझना होगा कि वह इसके लिए ज़बरदस्ती नहीं कर सकता। अनचाहा गर्भ अजन्मे शिशु के अधिकारों का भी हनन है।

जनसंख्या नियंत्रण

यह परिस्थिति एक और वास्तविकता को भी उजागर करती है और वह यह कि अजन्मे बच्चे के अधिकारों की सुरक्षा के लिए आबादी का बिना किसी हिसाब किताब के बढ़ते जाना घातक है। इसके लिए जनसंख्या नियंत्रण क़ानून की ज़रूरत है और उस पर स्वेच्छा अर्थात् अपनी मर्ज़ी और सहमति से अमल करना आवश्यक है।

हमारे आर्थिक संसाधन तब ही तक उपयोगी हैं जब तक उन पर बढ़ती आबादी का ज़रूरत से ज़्यादा दबाव नहीं पड़ता। ग़रीब के यहाँ ही अधिक संतान जन्म लेती है और पालन पोषण की सुविधाएँ न होने से उसके कुपोषित, अशिक्षित और समाज के लिए अनुपयोगी बने रहने का ख़तरा सबसे ज़्यादा इसी तबके में होता है। यह भी अजन्मे बच्चे के अधिकारों का हनन है क्योंकि जब संतान के पालन पोषण की व्यवस्था नहीं तो माता पिता बनने का भी अधिकार नहीं।

जब हम अपने गली मोहल्लों, चौराहों और सड़कों पर भीड़ देखते हैं तो यह अनुमान लगाना कठिन नहीं है कि इसमें अधिकतर लोगों के पास कोई कामधंधा, नौकरी या रोज़गार नहीं है और ये सब उसी की तलाश में भटक रहे हैं या कहें कि दर दर की ठोकरें खा रहे हैं। ये लोग ऐसा नहीं है कि पढ़े लिखे नहीं हैं या मेहनत नहीं करना चाहते। परंतु जब स्थिति एक अनार और सौ बीमार वाली हो तो फिर उसे क्या कहा जाएगा ?

यह विषय गंभीर है और इस बात की तरफ़ इशारा करता है कि संतान को लेकर एक ऐसे नज़रिए से सोचा जाए जिसमें सांस्कृतिक और पारंपरिक मान्यताओं को तो स्थान मिले लेकिन कुरीतिओं का पालन न हो, लिंगभेद के कारण भेदभाव न हो और सभी संसाधनों पर सब का बराबरी का अधिकार हो।इससे ग़रीब और अमीर के बीच की खाई भी कम करने में मदद मिलेगी, परिवार एक कड़ी के रूप में बढ़ेगा और समाज समान रूप से विकसित हो सकेगा।

शुक्रवार, 10 मार्च 2023

महिलाओं का भविष्य सुनिश्चित करने पर ही महिला दिवस की सार्थकता है

 

प्रति वर्ष राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर देश और दुनिया भर की स्त्रियों के लिए एक निर्धारित तिथि पर उनके बारे में सोचने और कुछ करने की इच्छा ज़ाहिर करने की परंपरा महिला दिवस के रूप में बनती जा रही है।

आम तौर पर इस दिन जो आयोजन किए जाते हैं उनमें ज़्यादातर इलीट यानी संभ्रांत और पढ़े लिखे तथा वे संपन्न महिलायें जो दान पुण्य कर अपना दबदबा बनाए रखना चाहती हैं, उन वर्गों की महिलायें भाग लेती हैं। भाषण आदि होते हैं और कुछ औरतों को जो दीनहीन श्रेणी की होती हैं, उन्हें सिलाई मशीन जैसी चीज़ें देकर अपने बारे में अखबार में छपना और टीवी पर दिखना सुनिश्चित कर वे अपनी दुनिया में लौट जाती हैं। प्रश्न यह है कि क्या उनका संसार बस इतना सा ही है ?


एकाकी जीवन जीतीं महिलाएँ

यह एक खोजपूर्ण तथ्य है कि आँकड़ों के अनुसार दुनिया भर में महिलाओं की औसत आयु पुरुषों से अधिक होती है। उदाहरण के लिए किसी भी घर में देख लीजिये चाहे मेरा हो, दोस्तों और रिश्तेदारों का हो, माँ, बहन, दादी, नानी, बुआ, मौसी जैसे रिश्तों के रूप में कोई न कोई महिला अवश्य होगी जो अकेले जीवन व्यतीत कर रही होगी। किसी का पति नहीं रहा होगा तो किसी का बेटा और अगर हैं भी तो वे काम धंधे, नौकरी, व्यवसाय के कारण कहीं बाहर रहते होंगे। उन्हें कभी फ़ुरसत मिलती होगी या ध्यान आता होगा तो फ़ोन पर बात कर लेते होंगे या सैर सपाटे या घूमने फिरने अथवा मिलने की वास्तविक इच्छा रखते हुए कभी कभार अकेले या बच्चों के साथ आ जाते होंगे।

ये भी बस घड़ी दो घड़ी अकेली बुजुर्ग महिला के साथ बिताकर और जितने दिन उन्हें रहना है, उसमें दूसरे दोस्तों या मिलने जुलने वाले लोगों के पास उठने बैठने चले जाते हैं। मतलब यह कि जिससे मिलने और उसके साथ समय बिताने के लिए आए, उसे बस शक्ल दिखाई और वापिसी का टिकट कटा लिया। कुछ लोग इसलिए भी आते होंगे कि जिस ज़मीन जायदाद, घर मकान पर वो अपना हक़ समझते हैं उसे निपटा दिया जाए और जो महिला है उसके लिए किसी आश्रम आदि की व्यवस्था कर दी जाए ताकि उनके कर्तव्य की पूर्ति हो सके।

इन एकाकी जीवन जी रही महिलाओं की आयु की अवधि एक दो नहीं बल्कि तीस से पचास वर्षों तक की भी हो सकती है।

अब एक दूसरी स्थिति देखते हैं। संयुक्त परिवार में अकेली वृद्ध स्त्री का जीवन कितना एकाकी भरा होता है, इसका अनुमान इस दृश्य को सामने रखकर किया जा सकता है कि उससे बात करने की न बेटों को फ़ुरसत है और न बहुओं को ज़्यादा परवाह है, युवा होते बच्चों की तो बात छोड़ ही दीजिए क्योंकि उनकी दुनिया तो बिलकुल अलग है। ऐसे में अकेलापन क्या होता है, इसका अनुभव केवल तब हो सकता है, जब इस दौर से गुजरना पड़े।

कोरोना काल या अकाल मृत्यु के अभिशाप से ग्रस्त ऐसे बहुत से परिवार मिल जाएँगे जिनमें पति और पुत्र दोनों काल का ग्रास बन गए और घर में सास, बहू या बेटी के रूप में स्त्रियाँ ही बचीं। घर में मर्द न हो तो हालत यह होती है कि अगर वे समझदार हैं तो क़ायदे से जीवन की गाड़ी चलने लगती है और अगर अक़्ल घास चरने चली गई तो फिर लड़ाई झगड़ा, कलह से लेकर अपना हक़ लेने के लिए कोर्ट कचहरी तक की नौबत आ जाती है। ऐसे में भाई बन्धु और रिश्तेदार आम तौर पर जो सलाह देते हैं वह मिलाने की कम अलग करने की ज़्यादा होती है। ऐसे बहुत से परिवारों से परिचय है जो पुरुष के न रहने पर लंबी क़ानूनी लड़ाई लड़ रहे हैं।

एक तीसरी स्थिति उन महिलाओं की है जिन्होंने किसी भी कारणवश अकेले जीवन जीने का निर्णय लिया। उन्हें भी एक उम्र के बाद अकेलापन खटकने लगता है ख़ासकर ऐसी हालत में जब वे नौकरी से रिटायर हो चुकी हों और अब तक जो कमाया उसके बल पर ठीक ठाक लाइफ़स्टाईल जी रही हों लेकिन एकाकी जीवन की विभीषिका उन पर भी हावी होती है। ऐसी अनेकों महिलाएँ हैं जो कोई काम न रहने पर मानसिक रूप से असंतुलन का शिकार हो जाती हैं, उम्र बढ़ने पर युवा उनका साथ नहीं देतीं और वे भी कब तक पुरानी यादों के सहारे जीवन जियें या कितना घूमें या किसी घरेलू काम में मन लगाएं, अकेलेपन का एहसास तो होने ही लगता है।


महिलाओं पर सख्त नज़र

व्यापक तौर पर देखा जाए किसी भी महिला की आवश्यकताएँ बहुत साधारण होती हैं। इनमें सब से पहले ग्रामीण क्षेत्रों में शौचालय, लड़कियों की शिक्षा और स्वास्थ्य तथा चिकित्सा सुविधाओं का होना, रसोई में धुएँ से मुक्ति और सामान्य सुरक्षा का प्रबंध है।


यही सब शहरों में भी चाहिए लेकिन उसमें बस इतना और जुड़ जाता है कि वे अपनी रुचि, योग्यताओं और इच्छा के मुताबिक़ किसी भी क्षेत्र में कुछ करना चाहती हैं तो उन्हें कड़वे अनुभव नहीं हों और वे अपनी शारीरिक, मानसिक और आर्थिक सुरक्षा के साथ रह सकें।

शहरों में एक बात और देखने को मिलती है कि यहाँ ऐसी महिलाओं की संख्या बहुत तेज़ी से बढ़ रही है जो गाँव देहात में अपना पति और परिवार होते हुए भी घरेलू काम करने आती हैं। वे कमाती तो यहाँ हैं लेकिन उन पर अंकुश पति का ही रहता है मतलब उनकी बराबर निगरानी रखी जाती है।

यही स्थिति उन लड़कियों की होती है जो अपना भविष्य उज्जवल करने की दृष्टि से पढ़ने, नौकरी करने या व्यापार के लिए नगरों और महानगरों में आती हैं। ये कितना भी कोशिश करें इन्हें भी हर बात में दूर बैठे पुरुषों जैसे कि पति, पिता या भाई की अनुमति अपने लगभग सभी फ़ैसलों के लिए लेनी पड़ती है। यह जो महिलाओं पर नज़र रखने की मानसिकता का पहलू है, इस पर न केवल बात होनी चाहिए बल्कि कहीं भी आने जाने और काम करने की आज़ादी की सामाजिक गारंटी होनी चाहिए।


समाज और क़ानून

महिलाओं की अभिव्यक्ति और उन्हें कुछ भी करने की आज़ादी मिलना एक सामाजिक पक्ष है लेकिन उनके अधिकारों को सुरक्षित रखने के लिए क़ानून बनाने और उन पर अमल होना सुनिश्चित करना सरकार का जिम्मेदारीपूर्ण कार्यवाही करना है। इसमें समान काम के लिए समान वेतन, पद देते समय उनकी गरिमा बनाए रखना और उनकी सुरक्षा की जवाबदेही वाली व्यवस्था बनाना आता है।

इसके साथ यह सुनिश्चित करना भी समाज और सरकार का कर्तव्य है कि वे नीर क्षीर विवेक अर्थात् दूध का दूध और पानी का पानी करने के सिद्धांत पर चलते हुए महिला हो या पुरुष दोनों के साथ समान न्याय की व्यवस्था लागू करने के लिए ठोस कदम उठाये। क़ानून होते हुए भी व्यवहार में भेदभाव किया जाना बंद हो। ऐसा होने पर ही महिला दिवस की सार्थकता है अन्यथा यह केवल एक परिपाटी बन कर रह जायेगा।


शुक्रवार, 3 मार्च 2023

सपूत हो या कपूत , पुत्र दिवस पर पिता - पुत्र के संबंधों की व्याख्या क्या हो ?

 


एक कहावत है कि अगर बेटा कुपुत्र है तो उसके लिए धन संपत्ति जुटाना और छोड़कर क्यों जाना क्योंकि वह तो इसे नष्ट ही करेगा। इसके विपरीत अगर सुपुत्र है तो भी क्यों यह सब करना क्योंकि वह तो अपनी योग्यता से सब कुछ जुटा ही लेगा।

इस सोच का आधार यही रहा होगा कि जीवन में जो कुछ जमा करो, वह अपने अर्थात् माता पिता के उपयोग और उपभोग के लिए ही है। मतलब यह कि संतान के लिए ज़मीन जायदाद, रुपया पैसा जमा करने का कोई अर्थ नहीं, यह सब जोड़ना अपने सुख और आरामदायक ज़िंदगी बिताने के लिए ही होना चाहिए। अपने मरने के बाद कौन इसका कैसा इस्तेमाल करेगा, यह सोचकर अपना वर्तमान बिगाड़ने की ज़रूरत नहीं है।

पुत्र दिवस

आज यह विषय इसलिए चुना क्योंकि कुछ वर्षों से अमेरिका और इंग्लैंड जैसे विकसित देशों और अब भारत में भी चार मार्च को राष्ट्रीय पुत्र दिवस मनाने की परंपरा चल पड़ी है।

पश्चिमी देशों में वयस्क होने पर बेटे को अपना डेरा तंबू अलग गाड़ने की परम्परा उनके विकसित देश होने के दौर से पड़ती गई और अब वहाँ यह मामूली बात। है। पिता यह सोचकर अपने को परेशान महसूस नहीं करता कि बेटा बालिग़ होकर अपनी दुनिया अलग बसाने जा रहा है बल्कि वह सहयोग करता है कि अलग होने की प्रक्रिया के दौरान बेटे को कुछ मदद चाहिये तो पिता इसके लिए तैयार है।

कह सकते हैं कि एकल परिवार यानी अब बड़ा हो गया हूँ तो मुझे अपने जीवन की दिशा स्वयं तैयार करनी है और मेरी जो भी दशा होगी. वह मेरी अपनी बनाई होगी, इसके लिए ख़ुद ज़िम्मेदार हूँ और मातापिता तो क़तई नहीं। इसके साथ ही उन्होंने अब तक मुझे जो जीवन दिया, उसके लिए उनका आभार मानने या ऋणी महसूस करने की न तो आवश्यकता है और न ही उसकी उम्मीद की जाती है।

फ़लसफ़ा यही है कि मैं यह करूँ, वह करूँ, मेरी मर्ज़ी, इसमें किसी की दख़लंदाज़ी नहीं और माता पिता की तो बिलकुल नहीं। अलग रहने और अकेले सभी फ़ैसले करने की आज़ादी मिलने की आदत पड़ जाने से बाप बेटे को एक दूसरे पर निर्भर रहने से मुक्ति मिल जाती है। वे न तो सोचते और कहते हैं कि हमने तेरे लिए यह किया और तू हमारे साथ यह कर रहा है या आपने मेरे लिए किया ही क्या है, जैसी बातें दोनों के दिमाग़ में आम तौर से नहीं आतीं। भावुक होकर या भावनाओं में बहकर अपने मन या इच्छा के ख़िलाफ़ कुछ कहने या करने की ज़रूरत नहीं पड़ती। जो कुछ होता है या जैसे भी संबंध बनते या बनाए जाते हैं, वे प्रैक्टिकल यानी व्यावहारिक आधार पर बनते हैं।

इन देशों में परिवारों के लिए विकसित होने का यही अर्थ है कि न अपने साथ कोई ज़्यादती होने दो और न ही अपने पिता से उम्मीद रखो कि उनसे क्या मिला और क्या नहीं मिला या यह मिलना चाहिये जो नहीं मिल रहा और उसे हासिल करने के लिए मुझे यह करना है। इस व्यवस्था में एक अच्छी बात यह है कि पिता के न रहने पर संतानों के बीच झगड़े होने की संभावना न के बराबर रहती है क्योंकि जिसे जो मिलता है, उसे उसकी उम्मीद नहीं होती, इसलिए वह उसे बिना किसी शिकायत के स्वीकार कर लेता है।

राष्ट्रीय पुत्र दिवस पर मक़सद यही रहता है कि पिता और पुत्र अपने परिवारों सहित एक दूसरे से मेलमिलाप करें, चाहे वर्ष में एक बार ही सही। इसके पीछे यही भावना है कि अगर यह न हो और बरसों तक न मिलें तो शायद अचानक सामना होने पर एक दूसरे को पहचान भी न पाएँ और अजनबियों की तरह मिलें। असल में होता यह है कि अलग रहने से आपस में बाप बेटे से ज़्यादा दोस्ती का रिश्ता पनप चुका होता है जिसमें एक दूसरे के प्रति मित्र की भाँति स्नेह और लगाव रहता है। इस स्थिति में ताने, उलाहने देने और शिकवे शिकायत करने जैसे हालात नहीं बनते। बस आपस में मिलजुल लिए, एक दूसरे की कुशल पूछी और फिर अपने अपने बसेरों पर जाने के लिए विदा हो गए। न मिलते और बिछड़ते समय रोना धोना और न ही मन में कोई मलाल रखना, बस मुस्कान लिए आए और मुस्कराहट बिखेरते चले गये।

भारतीय व्यवस्था

अब जहां तक हमारे देश की बात है, हम अभी विकासशील हैं मतलब विकसित होने की राह पर चल रहे हैं। हम संयुक्त परिवार व्यवस्था में पालन पोषण होने के लिए जाने जाते हैं। पारिवारिक परंपराओं को मानने और उन पर चलने को मज़बूर तक कर दिए जाने की बाध्यता रहती है। पुत्र पर तो इसकी ज़्यादा ही ज़िम्मेदारी रहती है। उसके किसी भी व्यवहार या कदम से जिसमें पिता की सहमति या आज्ञा न ली गई हो, पिता के लिए नाक कटने जैसा हो जाता है। पुत्र चाहे कितना भी संभलकर चले, पिता के लिए उसके किसी भी काम को नकारना बहुत सामान्य सी बात है। पुत्र पर पिता की पगड़ी उछालने, इज़्ज़त की बखिया उधेड़ने और सरे आम मुँह पर कालिख पोतने के आरोप लगना भारतीय परिवारों में आम बात है। पुत्र यही सोचता रहता है कि उसने आख़िर ऐसा किया ही क्या है जो पिता इतना बखेड़ा खड़ा कर रहे हैं। यहीं से दोनों के बीच अनबोलेपन अर्थात् बोलचाल बंद होने से लेकर एक दूसरे की सूरत तक न देखने की परंपरा शुरू हो जाती है। संयुक्त परिवार में यह स्थिति असहनीय हो जाती है और हरेक सदस्य पर इसका असर पड़ना स्वाभाविक है।

संबंध और तनाव

हमारे परिवारों में पिता को सबसे ज़्यादा चिढ़ या परेशानी अपने बेटे के दोस्तों से होती है। वो मान कर चलते हैं कि यही वे लोग हैं जिनकी संगत में बेटे का बिगड़ना तय है। इसी के साथ वे अपनी जानकारी में आए या जान पहचान वालों के बेटों की तुलना अपने बेटे और उसके मित्रों से करने लगते हैं। इसका परिणाम यह होता है कि पुत्र अपना कोई दोस्त बना ही नहीं पाता। पिता द्वारा पुत्र को लेकर अक्सर ग़ैरज़रूरी टिप्पणी करना, उसकी सराहना के स्थान पर आलोचना और हरेक काम में मीनमेख निकालना तथा पुत्र को चाहे वह कितना भी बड़ा हो जाए, नादान, नासमझ मानकर कुछ भी करने से पहले उसकी हिम्मत तोड़ देने जैसा है। नतीज़ा यह होता है कि जाने अनजाने पुत्र धीरे धीरे हीनभावना का शिकार होने लगता है, उसमें अपने स्तर पर या बलबूते कुछ करने का साहस कमज़ोर पड़ता जाता है और वह एक तरह से जीवन भर पिता की उँगली थामे अर्थात् प्रत्येक निर्णय के लिए उन पर निर्भर रहने की आदत का ग़ुलाम बनने लगता है।

अब क्योंक भारत तेज़ी से बदल रहा है, इसलिए राष्ट्रीय पुत्र दिवस पर पिताओं को यह सोचना होगा कि वे अपने पुत्र को भारतीय परंपरा के अनुसार जीवन भर आश्रित रखना चाहते हैं या उसे वयस्क होते ही अपनी तथाकथित छत्रछाया से मुक्त कर अपने पैरों पर खड़े होकर अपनी मंज़िल तक उसके अपने फ़ैसलों से पहुँचने देना चाहते हैं।

पुत्र अकेले अपनी राह बना सकता है, उसके लिए पारिवारिक वैभव, धन दौलत पाने के लोभ को उससे जितना दूर रखा जाए उतना ही पुत्र और पिता दोनों के लिए बेहतर होगा। पिता के मन में पुत्र के लिए अपनी विरासत छोड़ने का भाव नहीं होगा तो फिर पुत्र के मन में उसे पाने का लोभ भी नहीं होगा। जब ऐसी सोच बन जाएगी तो फिर संतानों के बीच विवाद से लेकर संघर्ष भी नहीं होंगे। ऐसी घटनायें भी कम होंगी जिनमें भाई बहनों के बीच मुक़दमे चलें और वे एक दूसरे के लिए शुभ की बजाय अशुभ कामना करें।

पिता और पुत्र दोनों को स्वीकार करना ही होगा कि अब संयुक्त परिवार व्यवस्था का टूटना ही भविष्य है। एकल परिवार के रूप में निजी संबंधों की व्याख्या करनी होगी जिसमें अलग अलग रहते हुए भी मिलना जुलना होता रहे और बिखराव के स्थान पर अच्छा बुरा वक़्त आने पर आपस में जुड़ाव का अनुभव कर सकें। पिताओं को अपने पुत्र की तरफ़दारी से बचना होगा और पुत्र को अपने पिता या परिवार से कुछ मिलने की उम्मीद रखने से दूर रहना होगा।आपसी तनाव न होने देने के लिए न तो किसी चीज़ की अपेक्षा हो और न ही इसे लेकर एक दूसरे की उपेक्षा हो, यही राष्ट्रीय पुत्र दिवस का लक्ष्य होना चाहिए।