शुक्रवार, 19 अगस्त 2022

साहित्य, विज्ञान तथा फिल्म सामाजिक बदलाव की कड़ियां हैं


यह हमेशा से विवाद का विषय रहा है कि साहित्य ने समाज पर असर डाला है या फिल्मों से सामाजिक परिवर्तन हुआ। इसी कड़ी में यह भी जोड़ा जा सकता है कि वैज्ञानिकों को कुछ नया अविष्कार करने में साहित्यिक लेखन ने प्रेरित किया या किसी गूढ़ रहस्य की कल्पना को साकार करने के लिए की गई खोज को वैज्ञानिक उपलब्धि का नाम दिया गया। 


साहित्य और विज्ञान का संबंध

एक उदाहरण है। मैरी शैली ने फ्रैंकेंस्टेन की रचना की जिसमें मनुष्य के अंग प्रत्यारोपण यानि ऑर्गन ट्रांसप्लांटेशन का जिक्र किया। वैज्ञानिकों द्वारा एक साहित्यकार की रचना से प्रेरित होकर ही यह संभव हुआ, इसे स्वीकार करना होगा। इसी प्रकार साहित्यिक रचनाओं में यह बात बहुत मजेदार और रहस्य की तरह से की गई कि हमारे सभी काम हमारी ही तरह कोई और बिना हाड़ मांस का पुतला कर रहा है। यह मानने में कोई संकोच नहीं करना चाहिए कि इससे आधुनिक रोबोट का अविष्कार हुआ। जासूसी साहित्य में बहुत से ऐसे चरित्र मिलते हैं जो अपनी सूरत बदलते रहते हैं, ऐयारी से इस प्रकार अपना मेकअप करते हैं कि एकदम बदल जाते हैं तो इसे भी विज्ञान ने वास्तविकता बना दिया।

साहित्य में संचार साधनों की कल्पना बहुत पहले कर ली गई थी। तेज गति से चलने वाले आने जाने के संसाधनों के बारे में भी काल्पनिक उड़ान लेखक भर चुके थे।  धरती, समुद्र और आकाश में होने वाले परिवर्तनों को साहित्य में उकेरा जा चुका था। आज इन क्षेत्रों में जो अविष्कार हो रहे हैं, उन पर साहित्य के प्रभाव को नकारा नहीं जा सकता।

साहित्य लेखन चाहे किसी भी विधा में हो, कविता, कहानी, उपन्यास या कुछ भी हो सकता है, उनमें जो श्रेष्ठ और ऐसी रचनाएं हैं जिन पर समय भी अपना असर नहीं दिखा पाया और जिन्हें शाश्वत कहा गया, उनके हमेशा ही प्रासंगिक बने रहने का एकमात्र कारण यह है कि उनमें भविष्य में झांकने का प्रयास था। विज्ञान भी तो यही करता है, वह भी इसी आधार पर चलता है कि आगे क्या होगा या क्या ऐसा भी हो सकता है ?


यह एक सच्चाई है कि सामाजिक व्यवस्था में परिवर्तन की नींव साहित्य से ही पड़ती है। सामान्य व्यक्ति जो सोचता है, लेखक उसे शब्दों में व्यक्त करता है। आपने देखा होगा कि कैसा भी अवसर या मंच हो, वह चाहे राजनीतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक या फिर खेल कूद का ही क्यों न हो, अक्सर उनकी शुरुआत किसी लेखक की लिखी हुई बात से की जाती है। इसका मतलब यही है कि अपनी बात को सिद्ध करने में भी साहित्यिक रचनाओं की शरण में जाना पड़ता है।

साहित्य केवल कल्पना नहीं है बल्कि ऐसा दर्पण है जिसमें झांका जाए तो पाठक को उसमें अपनी छवि दिखाई देने लगती है। यही कारण है कि कोई रचना पढ़ते समय मन में गुदगुदी, चेहरे पर हंसी या आंखों से आंसू निकल पड़ते हैं। लेखन की कसौटी भी यही है कि उससे आप अपने को अलग न कर पा रहे हों और उसका प्रभाव स्थाई रूप से मन में बैठ गया हो।


साहित्य और फिल्म

हमारे देश में साहित्यिक रचनाओं पर फिल्म बनाने का काम बहुत कम हुआ है लेकिन जितना भी हुआ, वह निर्माता के लिए घाटे का सौदा नहीं रहा। एक चादर मैली सी, पिंजर, तीसरी कसम, आंधी, ट्रेन टु पाकिस्तान तथा और भी बहुत से उदाहरण हैं। साहित्यकारों के जीवन पर फिल्म या बायोपिक बनाने का काम तो लगभग न के बराबर ही हुआ है।

इसका कारण यह है कि फिल्म बनाना और उससे कमाई करना मुहावरे की भाषा में कहा जाए तो बच्चों का खेल नहीं है। यह सब जानते हुए भी यदि कोई निर्माता निर्देशक किसी साहित्यिक रचना पर फिल्म बनाने के बारे में आगे आता भी है तो हमारे यहां लेखक चाहता है कि उसकी रचना के साथ न्याय हो, मतलब यह कि जो उसने लिखा वह वैसा ही पर्दे पर नजर आए। यह प्रैक्टिकल नहीं होता क्योंकि फिल्म बनाते समय सिनेमेटिक लिबर्टी लेना अनिवार्य है वरना दर्शक उसे देखने नहीं आयेंगे।

इसका एक ही उपाय है कि फिल्म बनाने की सहमति देने के बाद लेखक को यह मानकर अलग हो जाना चाहिए कि अब यह उसकी नहीं निर्माता की रचना होगी और इसमें उसकी दखलंदाजी नहीं हो सकती। जिस प्रकार उसकी कृति को पाठकों की प्रतिक्रिया मिली, उसी प्रकार फिल्म के दर्शकों की राय और नजरिया उसके निर्देशक के बारे में होगा न कि उस साहित्यकार के बारे में जिसकी पुस्तक पर उसका निर्माण हुआ है।

इसका कारण यह है कि पूरे उपन्यास या कहानी के सभी पात्रों और विवरणों को फिल्म में शामिल करना संभव नहीं है और केवल कुछेक पक्षों और किरदारों को लेकर ही फिल्म बनाई जाती है। इसलिए क्या छोड़ा, क्या शामिल किया, इसके पचड़े में न पड़कर फिल्म को एक नई रचना की तरह उसका आनंद लेने की मनस्थिति उसके लेखक को रखनी होगी। ऐसा होने पर ही हमारे देश में वह दौर आ सकता है जिसमें साहित्य पर बनने वाली फिल्म की कद्र उन फिल्मों से अधिक होने लगेगी जो बिना किसी थीम के, बस मनोरंजन और वक्त बिताने के लिए बनाई जाती हैं।

इसी प्रकार विज्ञान और उसकी उपलब्धियों तथा वैज्ञानिकों पर फिल्म निर्माण काफी चर्चित और सफल रहा है। रा वन, कोई मिल गया, कृष, मिस्टर इंडिया जैसी फिल्मों से लेकर मिशन मंगल और रॉकेट्री तक विज्ञान फिल्में अपना जलवा दिखा चुकी हैं।


विज्ञान प्रसार

यहां भारत सरकार के विज्ञान और प्रौद्योगिकी मंत्रालय के संस्थान विज्ञान प्रसार का जिक्र करना आवश्यक है जो प्रति वर्ष देश के विभिन्न भागों में राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय विज्ञान फिल्म महोत्सव आयोजित करता रहा है। इसी के साथ इंडिया साइंस चैनल एक ऐसी उपलब्धि है जो देश में ओटीटी प्लेटफॉर्म को एक नई दिशा देने में सफल रही है। इस फेस्टीवल में विज्ञान और तकनीक से संबंधित वे सभी फिल्म प्रदर्शित और पुरस्कृत की जाती हैं जिनका संबंध सामान्य नागरिक पर पड़ने वाले व्यापक प्रभाव से है। वैज्ञानिक उपलब्धियों को हासिल करने में जो समय, धन, परिश्रम और ऊर्जा लगी, अक्सर उसका जिक्र नहीं होता, इसलिए इस तरह की फिल्मों का प्रदर्शन जरूरी है जिनमें किसी ख़ोज या अनुसंधान का प्रोसेस विस्तार से बताया गया हो।

विज्ञान महोत्सव इस बात को दर्शकों तक ले जाने का प्रयास है जिससे साधारण व्यक्ति समझ सके कि उसके व्यक्तिगत और सामाजिक जीवन में जो बदलाव आ रहे हैं, उनका आधार विज्ञान और टेक्नोलॉजी है। ये सभी फिल्में इंडिया साइंस चैनल पर देखी जा सकती हैं। अंधविश्वास, दकियानूसी विचारों और सड़ी गली परंपराओं से मुक्ति पानी है तो उसके लिए अपनी सोच को बदलना ही होगा। इस चैनल पर दिखाई जाने वाली फिल्में दर्शक के सामने एक नई दुनिया का निर्माण करते हुए दिखाई देती हैं।

उम्मीद की जानी चाहिए कि साहित्य और विज्ञान का स्थान फिल्म निर्माण में महत्वपूर्ण समझा जायेगा। इसका कारण यह है कि अब पुस्तकों के पाठक हों या फिल्मों के दर्शक, उनकी रुचि तेजी से बदल रही है। उन्हें मनोरंजन के साथ कुछ ऐसा चाहिए जिसे वह पुस्तक पढ़ने या फिल्म देखने के बाद अपने मन के किसी कोने में संजो कर रख सकें।


शुक्रवार, 12 अगस्त 2022

समुद्र मंथन से लेकर आजादी के अमृत महोत्सव तक

 

हमारी पौराणिक कथाओं में समुद्र या क्षीरसागर मंथन की महिमा सबसे सबसे अधिक है। देवताओं और असुरों के बीच निरंतर संघर्ष होते रहने के कारण यह उपाय निकाला गया कि समुद्र को मथा जाए और उससे जो कुछ निकले, आपस में बांटकर बिना एक दूसरे के साथ लड़ाई झगड़ा किए शांति से रहा जाए। देखा जाए तो यह मंथन तब की ही नहीं आज की भी सच्चाई है और आपसी द्वेष समाप्त करने का एक स्वयंसिद्ध उपाय है।


टीमवर्क की महिमा

समुद्र मंथन के लिए दोनों पक्षों के बीच बनी सहमति का संदर्भ लेकर यह कहा जाए कि अंग्रेजी दासता से मुक्ति पाने के लिए भारत के सभी धर्मों और वर्गों के लोग स्वतंत्रता रूपी अमृत प्राप्त करने के लिए एकजुट हुए और आजादी हासिल की।  जिस प्रकार तब देवताओं और असुरों ने अपना बलिदान दिया था, उसी प्रकार सभी धर्मों विशेषकर हिंदू और मुसलमान दोनों ने अपनी आहुतियां देकर सिद्ध कर दिया कि वे अपने लक्ष्य की प्राप्ति के प्रति समर्पित हैं। यहां तक कि इसके लिए देश का दो टुकड़ों में बांट दिया जाना भी स्वीकार करना पड़ा।

आजादी मिली, साथ में विभाजन की त्रासदी भी और समुद्र मंथन की तरह स्वतंत्रता संग्राम से निकला सांप्रदायिक विष दंगों के रूप में अपना असर दिखाने लगा। इसका पान करने के लिए शिव की भांति आचरण करने के प्रयत्न भी हुए लेकिन सफलता नहीं मिली।

समुद्र मंथन से महालक्ष्मी अर्थात धन, वैभव, सौभाग्य और संपन्नता प्राप्त हुई, उसी प्रकार आजादी के बाद सभी प्राकृतिक संसाधन हमारे लिए उपलब्ध थे। इन पर कब्जा करने की होड़ लगी और जो ताकतवर थे, इसमें सफल हुए और इसी के साथ हलाहल विष अपने दूसरे रूपों भ्रष्टाचार, शोषण, अनैतिकता, बेईमानी और रिश्वतखोरी के पांच फन लेकर प्रकट हुआ। इसका परिणाम गरीबी, बेरोजगारी, आर्थिक असमानता और वर्ग संघर्ष के रूप में सामने आया।

समुद्र मंथन से जो मिला, उसमें कामधेनु, ऐरावत, सभी मनोकामनाएं पूरी करने वाला कल्पवृक्ष, परिजात वृक्ष अर्थात हमारी वन्य संपदा और साथ में धनवंतरी वैद्य जो जीवन को बीमारियों से बचा सकें तथा अन्य बहुत सी वस्तुएं मिलीं। यहां तक कि भगवान विष्णु ने मोहिनी रूप धारण कर अमृत को देवताओं यानी मानवीय मूल्यों पर चलने वालों के लिए सुगमता से प्राप्त किए जाने का प्रबंध भी कर दिया। दैत्य राहु द्वारा भेष बदलकर अमृत प्राप्त करने की कोशिश को भी उसके दो टुकड़े कर आंशिक रूप से विफल कर दिया। सम्पूर्ण नाश संभव न होने के कारण जब तब मनुष्य में आसुरी शक्तियों के रूप में धार्मिक, सांप्रदायिक और अन्य विनाशकारी रूपों में यह प्रकट होता ही रहता है।

इसके नाश के लिए संविधान और विधि विधान के अनुसार कार्यवाही होती है लेकिन फिर भी पूरी तरह समाप्त नहीं होता क्योंकि कुछ लोग राहु की भांति अमृत पान कर चुके हैं। इसलिए लगता है कि देश को इन बुराईयों को साथ लेकर ही चलना होगा और इन पर नियंत्रण रख कर आगे बढ़ना होगा।


एक विवेचना

वर्तमान समय में समुद्र मंथन को समझना जरूरी है। समुद्र क्या है, और कुछ नहीं, मानवीय मूल्यों का महासागर है जिसमें लहरें और तरंगें उठती गिरती रहती हैं। यह हमारी पीड़ा, प्रसन्नता, भावुकता, स्नेह और सौहार्द का प्रतीक हैं। इसी प्रकार मंदारगिरी ऐसा पर्वत है जो जीवन को स्थिरता प्रदान करता है और समुद्र में उसके हिलने डुलने से होने वाली हलचल को रोकने के लिए कछुए को आधार बनाना मनुष्य की सूक्ष्म प्रवृत्तियों को मजबूत बनाने की भांति है। वासुकी नाग रस्सी अर्थात मथानी के रूप में यही तो प्रकट करते हैं कि मनुष्य का अपनी इच्छाओं पर काबू पाना बहुत कठिन है और केवल साधना अर्थात जन कल्याण के काम करने की इच्छा रखने से ही सफलता प्राप्त की जा सकती है। सर्पराज का मुंह पकड़ना है या उसकी दुम, यह निर्णय करने का काम हमारे अंदर विद्यमान विवेक और बुद्धि का है। गलती होने से विनाश और सही कदम उठाने से निर्माण होता है, यही इसका मतलब है।

यह देव और दानव क्या हैं, हमारे अंदर व्याप्त सत्य और असत्य की प्रवृत्तियां ही तो है जो प्रत्येक मनुष्य में विद्यमान रहती हैं। यह हम और हमारे परिवेश, संस्कार और वातावरण पर निर्भर है कि हम किन्हें कम या अधिक के रूप में अपनाते हैं। सफलता प्राप्त करने के लिए सकारात्मक ऊर्जा और नकारात्मक सोच का संतुलन होना आवश्यक है। कोई भी व्यक्ति केवल अच्छा या बुरा नहीं हो सकता, वह दोनों का मिश्रण है, यह स्वयं पर है कि हम किसे अहमियत देते हैं क्योंकि सुर और असुर एक ही सिक्के के दो पहलू हैं।

जीवन को एक झटके में समाप्त कर सकने वाला हलाहल विष और अमरता प्रदान करने वाला अमृत कलश, प्रत्येक क्षण होने वाले क्रियाकलाप, मनुष्य की दिनचर्या और सही या गलत निर्णय का परिणाम ही तो हैं। इसे अपने कर्मों का लेखा जोखा या जैसा करोगे, वैसा भरोगे कहा जा सकता है।

कथा है कि भगवान विष्णु ने देवताओं से कहा था कि वे समुद्र से निकलने वाले विभिन्न रत्नों को हासिल करने के स्थान पर अमृत कलश प्राप्त करने के लिए एकाग्रचित्त होकर प्रयत्न करें। इसका अर्थ यही है कि जीवन में आए विभिन्न प्रलोभनों और बेईमानी, रिश्वतखोरी, भ्रष्टाचार के अवसरों पर ध्यान न देकर अंतरात्मा की आवाज सुनकर निर्णय करना ही श्रेष्ठ है।


निष्कर्ष यही है

आजादी का अमृत महोत्सव मनाने का अर्थ है कि धर्म और संप्रदाय के आधार पर मनमुटाव, नफरत और हिंसा के स्थान पर मानवीय सरोकार और संवेदनाओं को अपनाया जाए वरना तो जो बिखराव की ताकतें हैं, वे हमारा सुखचैन छीनने को तैयार ही हैं। समुद्र मंथन की प्रक्रिया का इस्तेमाल आज शोध, प्रबंधन, प्रशिक्षण और अलग अलग मत या विचार रखने वाली टीमों द्वारा अपने लक्ष्य अर्थात अमृत प्राप्त करने की दिशा में किए जाने वाले प्रयत्न ही हैं।

आज हम कृषि उत्पादन में अभाव की सीमा पार कर आत्मनिर्भर हो गए हैं, विज्ञान और तकनीक में विश्व भर में नाम दर्ज कर चुके हैं, व्यापार और उद्योग में बहुत आगे हैं, अपनी जरूरतें स्वयं पूरा करने में सक्षम हैं, आधुनिक संचार साधनों का इस्तेमाल करने में अग्रणी हैं तो फिर सामाजिक और आर्थिक भेदभाव का क्या कारण है ? इस पर कोई सार्थक बहस इस अमृत महोत्सव में शुरू हो तो यह एक बड़ी उपलब्धि होगी।

अमृत महोत्सव में हमारे स्वतंत्रता संग्राम के भुला दिए गए नायक और नायिकाओं का स्मरण, आजादी के बाद अब तक विभिन्न क्षेत्रों में हुए परिवर्तन, प्रगति, विकास और संसाधनों के इस्तेमाल के बारे में जानना आवश्यक है। इसके साथ ही इस बात पर मंथन जरूरी है कि आज तक हर बच्चे को शिक्षा और हर हाथ को रोजगार देना क्यों संभव नहीं हो सका ? कुछ लोगों के पास अकूत धन कैसे पहुंच गया और आगे संपत्ति का सही बंटवारा कैसे हो ताकि हरेक को उसका हक मिल सके? यह कुछ ऐसे प्रश्न हैं जिनका उत्तर प्रत्येक भारतवासी को मिलना चाहिए।


शुक्रवार, 5 अगस्त 2022

अभियान शुरू तब हों जब उनके पूरे होने का प्रबंध हो

 

कह सकते हैं कि हमारी सरकार घोषणाएं करने में महारथी और संकल्प लेने और तरह तरह के अभियान शुरू करने के मामले में सब से आगे है। अब यह और बात है कि इनके पूरे होने का जिम्मा कोई नहीं लेता, इसलिए ये सभी वक्त की धूल पड़ने से कुछ समय बाद दिखाई भी नहीं देते और न केवल भुला दिए जाते हैं बल्कि अगर कोई याद दिलाए तो एक नया अभियान आगे कर दिया जाता है।

हम अपनी आजादी का अमृत महोत्सव मना रहे हैं जो गर्व करने और राष्ट्र प्रेम की ज्वाला हृदय में धधकते रहने की भांति है। प्रत्येक देशवासी अपने घर में अपनी राष्ट्रीय पहचान स्वरूप राष्ट्र ध्वज तिरंगा फहराए, यह इस स्वतंत्रता दिवस का संकल्प है। याद आता है कि कभी केवल सरकारी भवनों और राष्ट्रीय समारोहों में अपना झंडा फहराने की परंपरा या इजाजत थी, भला हो कि अदालती कार्यवाही के बाद अब हर भारतवासी कभी भी कहीं भी तिरंगा फहरा सकता है। हालांकि इसके बनाने से लेकर इस्तेमाल, रखरखाव और सुरक्षित रखने के लिए नियम हैं लेकिन अधिकतर लोग जानकारी के अभाव में इसके उपयोग के बाद इसकी तरफ से लापरवाह हो जाते हैं। उम्मीद है कि इस बारे में भी हर घर तिरंगा अभियान में सरल भाषा में जो नियम हैं उनका बड़े पैमाने पर प्रचार प्रसार किया जाएगा।


अभियानों की बाढ़

चार फरवरी 1916 की बात है जब महात्मा गांधी वाराणसी के विश्वनाथ मंदिर और उसके आसपास फैली गंदगी, कीचड़, पान की पीक देखकर बहुत विचलित हुए और वहां रहने वालों की जबरदस्त भर्त्सना की थी। विडंबना यह है कि लगभग एक सदी तक हम कमोबेश पूरे देश में इसी तरह रहते रहे , यद्यपि गाहे बगाहे सफाई व्यवस्था में सुधार के लिए कोशिशें चलती रहीं लेकिन देशव्यापी अभियान के रूप में भारत के गांवों, कस्बों और शहरों को स्वच्छता का पाठ पढ़ाने की शुरुआत 2014 में बापू के जन्मदिन से हुई।

इसमें कोई संदेह नहीं कि यह खुले में शौच करने के खिलाफ और हर घर में टॉयलेट के इस्तेमाल, रास्तों पर जन सुविधाओं के निर्माण और नागरिकों के मन में सफाई से रहने और इस बारे में अपनी सोच बदलने के बारे में एक ऐसा अभियान था जिसका पूरा होना देश के प्रत्येक नागरिक के भले के लिए आवश्यक था।

कह सकते हैं कि इस दिशा में काफी हद तक सफलता मिली है लेकिन पिछले कुछ समय से इस तरह की खबरें मिल रही हैं कि लोग अपने पुराने ढर्रे पर लौट रहे हैं। इसकी वजह यह नहीं कि सफाई से रहने के प्रति आकर्षण कम हो गया है बल्कि यह है कि सीवर लाईन बिछाने, सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट न लगने और देहात हो या शहर, गंदगी भरे नालों से मुक्ति न मिलने तथा सबसे बड़ी बात यह कि वैज्ञानिक ढंग और देश में ही विकसित टेक्नोलॉजी के इस्तेमाल में कोताही के कारण लोगों में निराशा बढ़ रही है।

हमारा मतलब व्यर्थ की आलोचना करना नहीं बल्कि यह है कि अटल जी की सरकार में जो निर्मल भारत अभियान शुरू हुआ था, उसकी खामियों और असफल रहने के कारणों को नजरंदाज न करते हुए स्वच्छ भारत अभियान चलाया जाता तो उसके नतीजे कुछ और ही होते। सीवेज डिस्पोजल की सही व्यवस्था न तब थी और न अब है। टॉयलेट में पानी की जरूरत के बारे में पहले भी ध्यान नहीं दिया गया और न अब, केवल शौचालय बनाना ही काफी नहीं, उसके लिए घर के बाहर गंदगी जमा न होने देने के लिए नालियों का इंतजाम और उनकी निरंतर सफाई होने और गंदगी का ट्रीटमेंट प्लांट तक पहुंचने की व्यवस्था भी आवश्यक है।

कुछ साल पहले बड़े जोरशोर से स्किल डेवलपमेंट प्रोग्राम शुरू किया गया था, उसकी नियति क्या हुई, किसी से छिपा नहीं और यह सरकार की विफलता का एक बदनुमा प्रमाण बन गया। अब तो इसकी कोई बात ही नहीं करता जबकि बेरोजगारी दूर करने में यह गेमचेंजर बन सकता था।

इसी तरह स्वस्थ भारत अभियान चलाया गया जो बिना इस बारे में कोई प्रबंध किए शुरू हो गया जिसमें हमारे देश में ग्रामीण और दूरदराज के क्षेत्रों में स्वास्थ्य सेवाओं की खराब हालत को पहले सुधारना और व्यवस्थित करना आवश्यक था। अभी भी यहां डॉक्टर नहीं जाते, गर्भावस्था और प्रसव के बाद देखभाल नहीं होती, पौष्टिक खुराक का मिलना तो दूर, तुरंत मजदूरी करने जाने की मजबूरी है, बेसिक इन्फ्रास्ट्रक्चर ही इन इलाकों में नहीं है तो ग्रामीण भारत कैसे स्वस्थ रह सकता है।

इसी कड़ी में जन आरोग्य और जन स्वास्थ्य अभियान चलाए गए जिनका कोई अतापता नहीं है। केवल मुफ्त इलाज की सुविधा से सेहतमंद नहीं रहा जा सकता, उसके लिए बड़े पैमाने पर अस्पताल, डिस्पेंसरी, डॉक्टर, नर्स और अन्य स्टाफ चाहिए जिसकी कितनी कमी है, यह बताने की न तो जरूरत है और न ही कोई आंकड़े देने की क्योंकि सरकारी खानापूर्ति के लिए जाली और भ्रामक दस्तावेज तैयार करने में सभी सरकारों को महारत हासिल है।

देश में शिक्षा को लेकर अक्सर चिंता प्रकट की जाती है लेकिन इसके लिए बजट में इजाफा करने के बजाय हर साल कटौती कर दी जाती है। स्कूलों की दशा सुधारने का काम शहरों में होता है, देहात में उनके बनने, खुलने और विद्यार्थियों के पढ़ने जाने का निर्णय सरपंच, मास्टर और दबंग नेता करते हैं। इसका प्रमाण यह है कि विषय कोई भी हो, विद्यार्थी के लिए उसकी जानकारी होना जरूरी न होकर केवल पास होकर अगली कक्षा में पढ़ने जाना है। अध्यापकों और पढ़ने वालों के ज्ञान के नमूने अक्सर सुर्खियों में रहते हैं।

अक्सर आपसी बातचीत और नेताओं के भाषणों में पर्यावरण संरक्षण मतलब प्राकृतिक साधनों जैसे वायु, जल, जंगल, जमीन, नदी, पर्वत, पशु, जीव जंतुओं और जीवन के लिए आवश्यक सामग्री को बचाए रखने के महत्व का जिक्र सुनने में आता रहता है। इसमें गंभीरता इसलिए नहीं होती क्योंकि यदि इन सभी चीजों के अनावश्यक इस्तेमाल पर रोक लगा दी गई तो इससे सरकार, नेता और अधिकारियों के व्यक्तिगत स्वार्थ पूरे होने के रास्ते में रूकावट आ जायेगी।

प्रति वर्ष जो यह देश भर में नदियों में उफान, बाढ़ का तांडव और जन तथा धन की हानि होती है या फिर सूखे के कारण भयंकर बर्बादी होती है, रेगिस्तान का फैलाव होता है, तो क्या इसे रोकने के लिए सरकार के पास संसाधनों का अभाव है, नहीं ऐसा कतई नहीं है, बल्कि सच यह है कि यह सब जिन्हें हम अक्सर प्राकृतिक आपदा या कुदरत का कहर कह कर बचने की कोशिश करते हैं, यह एक साजिश की तरह है जिसमें अधिकारी, स्थानीय नेता से लेकर राज्य और केंद्र सरकार के मंत्री, सभी शामिल हैं।

अगर यह सब हर साल न हो तो फिर बाढ़, सूखा, अतिवृष्टि और संपत्ति के नष्ट होने के ऐवज में राहत के नाम पर धन की हेराफेरी करने पर अंकुश लग सकता है जो किसी को मंजूर नहीं है।

यह सब समझना कि ज्यादातर अभियान जनता के हित के लिए नहीं, कुछ मुठ्ठी भर लोगों की स्वार्थपूर्ति के लिए चलाए जाते हैं, कोई टेढ़ी खीर नहीं है बल्कि आसानी से समझ में आ जाने वाली साधारण सी बात है। इसलिए क्या यह जरूरी नहीं लगता कि जब भी कोई अभियान शुरू करने की घोषणा हो, जनता की तरफ से तर्क के आधार पर उसकी समीक्षा के बाद उसका समर्थन या विरोध करने की आदत डालना देशवासियों के लिए आवश्यक है?