यह बात किसी से छिपी नहीं है, चाहे नेता हो, राजनीतिक दल हो या सरकार और उसे चुनने वाले हों कि राज्यों से लेकर केंद्रीय सरकार के लिए वोट देने वाले मतदाताओं की सूचियों में भारी चूक होती है, मतलब यह कि किसी का नाम अगर स्थानीय चुनावों की सूची में तो है लेकिन लोकसभा की मतदाता सूची में नहीं है अर्थात एक लिस्ट में है, दूसरी में नहीं।
अब होता यह है कि वोटर इसे मामूली बात समझकर नजरंदाज कर देता है और सोचता है कि उसने अगर किसी चुनाव में वोट नहीं दिया तो कौन से पहाड़ टूट जाते। इस तरह वोट के जरिए सरकार चुनने के अपने मौलिक, संवैधानिक और एकमात्र अधिकार से वह किसी की गलती से या फिर जानबूझकर वंचित कर दिया गया और कहीं भी कोई आवाज उठना तो दूर, किसी के कानों पर जूँ तक नहीं रेंगती। यह सब इसलिए हो पाता है क्योंकि हम अपने अधिकार हों या कर्तव्य, उनके प्रति न तो जागरूक हैं और न ही उसके नतीजों के बारे में जानने की रुचि होती है।
हंगामा क्यूँ करते हैं ?
जब हम अपने लिए कोई रोजगार करने या नौकरी करने के बारे में कदम उठाते हैं तो सबसे पहला काम अपने योग्य होने के प्रमाण पत्र, शिक्षा और अनुभव के विवरण जुटाते हैं और उन सब जानकारियों को हर सम्भव तरीके से उस संस्थान या व्यक्ति तक पहुँचाते हैं जो हमें व्यवसाय स्थापित करने या नौकरी देने में मदद कर सकता हो।
उदाहरण के लिए जब बैंक वाले हमें ऋण देने या सरकार का कोई विभाग अपनी योजनाओं का लाभ उठाने के लिए हमारी पात्रता का आकलन करने के लिए व्यक्तिगत हो या पारिवारिक, शैक्षिक हो या आर्थिक यहाँ तक कि जातिगत हो या धार्मिक, कोई भी जानकारी माँगता है तो हम देने के लिए सहर्ष तैयार हो जाते हैं और बिना कोई सवाल पूछे तुरंत दे देते हैं, यह तक नहीं पूछते कि बहुत सी बेमतलब की जानकारी भी क्यों ली जा रही है जिसका कर्ज देने या लाभ देने से दूर का भी सम्बंध नहीं होता।
इसी तरह बच्चों को स्कूल में दाखिला दिलाते समय भी कोई पूछताछ नहीं करते और यहाँ तक कि अधिकारियों के सामने माता पिता होने का प्रमाण पत्र भी देते हैं, यदि स्वयं इंटरव्यू देना पड़े तो वह भी देते हैं जिससे प्रमाणित हो जाए कि उनकी संतान उस संस्था में पढ़ने के योग्य है। बहुत से माता पिता अपने बच्चे की जन्मतिथि तक गलत बताने से परहेज नहीं करते, अगर इससे आगे चलकर परीक्षा या नौकरी या कोई सहायता मिलने की उम्मीद हो।
आजादी के आसपास जन्मी पीढ़ी की तो अक्सर पैदा होने की दो तारीखें जीवन भर इनके साथ चलती हैं। एक जो स्कूल में दाखिले के समय लिखाई गयी और जो बाद में सरकारी दस्तावेजों में अंतिम समय तक लिखी रहती है और दूसरी जो असली होती है और जन्मपत्री के अनुसार होती है। मेरी स्वयं की दो तिथियाँ हैं, एक तीन मई जो सरकारी रिकार्ड में है और दूसरी अठारह जुलाई जो जन्मपत्री में है और असली है। मेरे पिता का कहना था कि स्कूल में तीन मई इसलिए लिखवाई क्योंकि मास्टर जी ने कहा था कि इसका फायदा परीक्षा में मिलेगा।
इस मामले में अकेला नहीं हूँ जो जीवन भर दो जन्म तिथियों को ढोता रहा है, बल्कि मेरे जैसे काफी अधिक संख्या में होंगे।
जानकारी लेने और देने का सिलसिला इतना व्यापक हो गया है कि अब तो कोई वस्तु खरीदने पर दुकानदार हमारी व्यक्तिगत जानकारी माँगता है तो वह भी बिना एक भी प्रश्न पूछे दे देते हैं, चाहे बाद में इसका गलत इस्तेमाल होने का अंदेशा ही क्यों न हो ? मजेदार बात यह है कि कोई हंगामा नहीं होता !
जनसंख्या और जनगणना
यह किसी भी समझदार व्यक्ति की समझ से परे होने की बात है कि अगर सरकार जनसंख्या के आँकड़े जुटाना चाहती है तो इसमें गलत क्या है ? अब अगर हम सरकार को भी वह सब जानकारी दे देते हैं जो कोई काम धंधा, रोजगार या नौकरी पाने के लिए दूसरों को बिना किसी हिचकिचाहट के देते हैं,
बहुत ही कम मात्रा में सरकार के माँगने पर देने से न केवल मना कर देते हैं बल्कि इसे लेकर हिंसात्मक आंदोलन करने तक पर उतारू हो जाते हैं। यही नहीं इसे अपनी प्रतिष्ठा का प्रश्न बना लेते है और यहाँ तक कि राजनीतिक दलों के निजी स्वार्थ की पूर्ति के लिए उनकी कठपुतली बनने के लिए भी तत्पर हो जाते हैं।
जनकल्याण के लिए समर्पित किसी भी सरकार का यह दायित्व और कर्तव्य होता है कि वह देशवासियों के लिए इस तरह की योजनाएँ बनाए जो उसे सुख और शांति से जीवन जीने के साधन दे सकने की व्यवस्था कर सकें। यह तब ही सम्भव हो सकता है जब किसी भी सरकार या प्रशासनिक इकाई को यह पता होगा कि उसे कहाँ कितने लोगों के लिए कौन सी व्यवस्था करनी है।
इसे आसानी से इस तरह समझा जा सकता है कि जब रेल या हवाई यात्रा करने से पहले यह जानकारी ली जाती है कि यात्री को शाकाहारी भोजन चाहिए या माँसाहारी तो इसका मकसद केवल यह होता है कि कितने लोगों के लिए किस प्रकार के भोजन का इंतजाम करना होगा।
भारत जैसे विशाल देश के लिए सही, सटीक और उपयोगी योजनाएँ बनाने का काम कोई भी सरकार केवल तब ही कर सकती है जब उसे यह पता होगा कि हमारी आबादी कितनी है, उसका घनत्व क्या है, कौन सी सुविधाएँ उस तक तुरंत पहुँचनी चाहिएँ और किन के लिए उसे पंच वर्षीय योजनाओं से जोड़ा जाना है।
जनसंख्या के आँकड़े एकत्रित करने का सरकार के पास कोई और कारण या अजेंडा भी हो सकता है तो आंदोलन करने वालों को इसका खुलासा करना चाहिए ताकि असलियत तो सामने आए, कुछ लोगों के बहकाने से जानकारी न देना या अपना नाम और पता गलत बताने से नुकसान केवल सामान्य नागरिक का ही होता है। यहीं से गरीबी बढ़ने और पिछड़ेपन की शुरुआत होती है।
भारत में हर दस वर्ष बाद जनगणना करने का मतलब ही यही है कि यह अनुमान लगाया जा सके कि देश में कितनी सड़कों, स्कूलों, अस्पतालों और दूसरे संसाधनों की जरूरत है और अगर इस कवायद के साथ साथ इस बात का हिसाब भी रख लिया जाए कि आबादी कितनी है, हालाँकि यह डूप्लीकेट एक्सरसाइज है, फिर भी बिना किसी अतिरिक्त आर्थिक बोझ के इसे किए जाने की जरूरत सरकार समझती है तो उसे करने देने में हर्ज ही क्या है ?
भारतीय नागरिकता
यह तो तय होना ही चाहिए कि भारत में कितने नागरिक भारतीय हैं और कितने विदेशी। वसुधेव कुटुम्बकम का अर्थ यह नहीं कि कोई भी विदेशी अनधिकृत रूप से यहाँ रहता रहे और उस पर निष्कासन की कोई कार्यवाही न हो।
संविधान में नागरिकता को लेकर कोई भी विरोधाभास नहीं है, भारतीय नागरिक होने, उसके बनने और किसी को किन्हीं विशेष परिस्थितियों में नागरिक बनाने या किसी से उसकी भारतीय नागरिकता रद्द करने के लिए सब कुछ स्पष्ट रूप से वर्णित है तो फिर सभी भारतीय नागरिकों का एक रजिस्टर बनाने में हर्ज ही क्या है ?
जब कोई विदेशी देश में उत्पात मचाने, देशद्रोही गतिविधियाँ करने से लेकर आतंक फैलाने के इरादे से प्रवेश करता है और पकड़ा जाता है तो उसके खिलाफ कानूनी कार्यवाही होने तक डिटेन्शन सेंटर में रखा जाता है तो इसमें हर्ज ही क्या है ?
जब संविधान बना था, उस समय टेक्नालोजी का इतना विकास नहीं था, अब यदि प्रत्येक नागरिक को उसका एक ही पहचान पत्र मिल जाए जिसमें उसका सभी विवरण हो और सब ही जगह केवल एक ही कार्ड दिखाने से उसका काम चल जाए तो इसमें हर्ज ही क्या है ?
वर्ष अंत और नव वर्ष आगमन
यह वर्ष राजनीतिक, सामाजिक, धार्मिक, आर्थिक मोर्चों पर काफी उथल पुथल भरा होने के साथ साथ मंदी, बेरोजगारी, महँगाई के कारण भी याद किया जाएगा। युवा हों, अधेड़ हों या वृद्धावस्था का आलिंगन कर रहे बुजुर्ग हों, सभी के लिए इस वर्ष कुछ न कुछ था और इसका अंत भी एक साधारण परंतु मौलिक विषय नागरिकता पर जबरदस्त विवाद से हो रहा है, लेकिन फिर भी सभी पुरानी यादों को भुलाकर हँसी खुशी नए वर्ष में प्रवेश करने में हर्ज ही क्या है ?
(भारत)