शनिवार, 25 जून 2022

समय के साथ सिद्धांत, मूल्य, नैतिकता का बदलना आवश्यक नहीं है।

 एक कहावत है, जहां देखी तवा परात, वहां गंवाई सारी रात। इसका सीधा सा अर्थ है कि जिस स्थान पर पेट भरने का साधन हो, जीवन के लिए आवश्यक वस्तुओं का अभाव न हो, रहने की व्यवस्था हो और अपना अंत समय आने तक आराम से रहा जा सके, वह सर्वश्रेष्ठ है।


जीवन की राह

जन्म से लेकर मृत्यु तक की यात्रा में अनेक पड़ाव आना निश्चित है, जिन्हें व्यक्ति अपनी सामथ्र्य और इच्छा के अनुसार पार भी करता है। अपने स्वभाव के अनुसार सिद्धांत और मूल्य बनाता है।  यही नहीं, अपनी जरूरतों को पूरा करने के साथ साथ स्वयं अपने और दूसरों के लिए नैतिकता, ईमानदारी, भलमनसाहत तथा व्यवहार के मापदंड तैयार कर लेता है और अपेक्षा करता है कि वर्तमान और भविष्य की पीढियां उनका पालन करें। बहुतों ने अपना वर्चस्व यानि कि यह मनवाने के लिए कि वह औरों से श्रेष्ठ है, अपने नाम से उन्हें प्रसिद्ध और नैतिकता परखने की कसौटी के रूप में प्रचारित भी किया है। 

प्राचीन काल के हमारे ग्रंथों में कहा गया है कि धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की धुरियों पर हमारा जीवन टिका है। इनकी व्याख्या करने के लिए सत्य, अहिंसा, आस्तेय, अपरिग्रह और ब्रह्मचर्य के पांच सूत्र भी बनाए। इन पर चलने के लिए दूसरों के प्रति आदर, सहानुभूति, प्रेम और मानवीयता का व्यवहार करने की परंपरा बनाई ताकि सुख शांति से और मिलजुलकर जीवन का मार्ग तय हो जाए।

यह एक आदर्श स्थिति हो सकती है लेकिन इसके विपरीत जीवन में ईष्र्या, द्वेष, अहंकार जैसी प्रवृत्तियां कहां से आ गईं, यही नहीं वे मनुष्य पर हावी भी हो गईं और बेईमानी, छल कपट और धोखाधड़ी एक सामान्य व्यवहार बन गया।

इसका अर्थ यही है कि जीवन में चाहे सहनशीलता, संवेदना, परस्पर आत्मीयता और एक दूसरे के प्रति सद्भावना का कोई स्थान हो या न हो पर सफल होने के लिए किसी भी साधन को अपनाने में कोई बुराई नहीं है चाहे उसका स्वरूप अन्याय, शोषण, भ्रष्टाचार और नैतिक पतन ही क्यों न हो?


आधुनिकता और नैतिकता

क्या कभी इस बात पर गंभीरता से विचार किया गया है कि हमारे देश में चैदह पन्द्रह वर्ष से पैंतीस से चालीस वर्ष के युवा वर्ग के लिए अपराधों में हिस्सा लेना, हिंसक व्यवहार करना, नशे और ड्रग्स का सेवन और किसी भी कीमत पर अपनी धाक जमाए रखना जीवन शैली बन गया है ?

इसे आधुनिकीकरण, शहरीकरण या वैश्वीकरण कहकर किनारे नहीं किया जा सकता क्योंकि यह एक वास्तविकता है कि जिन देशों में इस तरह के व्यवहार पनपे, उनका पतन होने में अधिक समय नहीं लगा और निश्चित रूप से वहां की अर्थव्यवस्था बिगड़ी ही नहीं बल्कि बेकाबू होकर उस देश को ले डूबी।

इन देशों में निरंकुश शासक अपनी शोषण करने की आदत के बल पर अपनी प्रजा को विदेशी दासता से बचा नहीं पाए, अब चाहे यह राजनीतिक हो, आर्थिक हो, सामाजिक हो या फिर उन पर कब्ज़ा हो। और जब दुनिया इतनी छोटी हो गई है कि कुछ भी छिपाना आसान नहीं है तो फिर यह सोचने का यही सही वक्त है कि हम अपने देश में ऐसी परिपाटी को अपनी जड़ न मजबूत होने दें जिससे अनैतिक आचरण करना मामूली बात समझी जाने लगे।

ऐसी शिक्षा व्यवस्था को क्या कहेंगे जिसमें पढ़ाया तो यह जाता हो कि जीवन में ईमानदारी का होना आवश्यक है लेकिन घर, परिवार और समाज में यह देखने को मिले कि बेईमानी, रिश्वतखोरी, अत्याचार और कदम कदम पर भेदभाव करना एक सामान्य व्यवहार माने जाने की परंपरा है और उसका पालन करना अनिवार्य है ?

शिक्षा का उद्देश्य केवल जब इतना रह जाए कि जीवन में सुख सुविधाओं का अंबार लगाया जाए, उसके लिए कोई भी रास्ता अपनाने पर रोक न हो, कुछ भी करने की छूट हो और इसके साथ ही अगर किसी की नज़र में आ गए तो बच निकलने के अनेक रास्ते हों, तब समझना चाहिए कि देश का पतन होना निश्चित है।

इसे और स्पष्ट रूप से कहना हो तो कह सकते हैं कि अपने व्यक्तिगत स्वार्थ की पूर्ति के लिए सत्ता का दुरुपयोग करना सामान्य घटना बन जाए और किसी का उत्पीड़न और शोषण समाज को विचलित न कर सके। ऐसी स्थिति होने पर यदि पीड़ित शस्त्र उठा लें, आंदोलन का रास्ता अपना लें और किसी भी प्रकार से अपने साथ हुई ज्यादती का बदला लेने निकल पड़ें तो इसमें आश्चर्य क्यों होना चाहिए ?

डार्विन का सिद्धांत सर्वाइवल ऑफ द फिटेस्ट का यह अर्थ तो कदापि नहीं है कि जो समर्थ है, ताकतवर है, वह कुछ भी करने के लिए स्वतंत्र है। उस पर न कोई दोष लग सकता है और उसे यदि अपराधी ठहरा भी दिया गया हो तो उस पर कोई कार्यवाही तब तक नहीं की जा सकती जब तक वह कानून और संविधान में दिए गए सभी विकल्प न आजमा ले।

कोई भी व्यक्ति हो, उसका परिवार या जहां रहता है, वहां का समाज हो, सत्ताधारियों और उनके राजनैतिक प्रभाव से अछूता नहीं रह सकता। यही कारण है कि यह जानते हुए भी कि उनके नेता का रास्ता गलत है, उसकी हिमायत करने और साथ देने के लिए वे विवश हैं।

इसका कारण यही है कि जीवन में नैतिक मूल्यों, सिद्धांतों और सही तथा सत्य का साथ देने की परिभाषा बदल गई है। यह बदलाव केवल गिरावट का संकेत है और आशंका इस बात की है कि जब साधारण नागरिक के सब्र का घड़ा भर जाएगा, तब क्या होगा ? सत्ता पाने और उस पर अधिकार जमाए रखने के लिए किसी भी साधन का इस्तेमाल सही लगने लगे, तो समझिए कि अशांति और विद्रोह होना तय है।

जब तक सत्ता, शासन और उसके कर्णधार अपने जीवन में नैतिक आचरण करने और भेदभाव न करने की नीति का पालन नहीं करेंगे, तब तक सामान्य नागरिक से यह उम्मीद करना कि वह केवल हाथ जोड़कर सब कुछ स्वीकार करता रहेगा, एक ऐसी गलतफहमी है जिसका शिकार बनने में देर नहीं लगती। यह जितनी जल्दी समझ में आ जाए कि शासक नहीं बल्कि जनता कर्णधार है, उतना बेहतर होगा।


शुक्रवार, 17 जून 2022

अनुशासनहीन होने का अर्थ अराजकता के रास्ते देशद्रोह तक जाना है

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शुक्रवार, 10 जून 2022

ब्रिटिश राज की मानसिकता भारत के विकास में रुकावट

 

यह कहावत, बीती ताहि बिसार दे, आगे की सुध ले, अपने आप में सही है लेकिन सत्य यह है कि भूतकाल हमेशा वर्तमान पर हावी होता आया है। यह कैसे भुलाया जा सकता है कि आज जो हम हैं, उस पर हमारे कल की छाया की बहुत बड़ी भूमिका है।

गुलामी की विरासत

सांसद और कांग्रेस नेता शशि थरूर ने अंग्रेज युग के बारे में एक शोधपूर्ण और ऐतिहासिक तथ्यों के आधार पर ‘एन ईरा ऑफ डार्कनेस, द ब्रिटिश अंपायर इन इंडिया‘ लिखी है। इसे पढ़कर यह लगता ही नहीं बल्कि सिद्ध होता है कि स्वतंत्रता के बाद से अब तक भारतीयों के मन से अंग्रेजी राज की छाप या असर मिटा नहीं है।

यहां इस बात का जिक्र करना जरूरी है कि अंग्रेजों और मुगलों से भी पहले भारत की पहचान सोने की चिड़िया के रूप में थी। इसका कारण यह था कि हम संसार में अनेक क्षेत्रों में अद्वितीय थे, हमारे मुकाबले बहुत कम साम्राज्य थे। कोई भी विषय हो, हमारी राय का सबसे अधिक महत्व होता था। यह बात नोबल पुरस्कार से सम्मानित अमृत्य सेन से लेकर, रविंद्रनाथ टैगोर और अन्य विश्व प्रसिद्ध लेखकों और इतिहासकारों ने कही है। उदाहरण के लिए दर्शन, कृषि, शिक्षा, विज्ञान, कला, साहित्य, वास्तुकला, संगीत, व्यापार, उद्योग, निर्यात चिकित्सा, खगोल शास्त्र से लेकर ब्रह्माण्ड की अनेक गुत्थियों को सुलझाने में भारत सब से आगे था।

जब अंग्रेज आए तो सबसे पहले उन्होंने हमारी बुद्धि, कौशल, विरासत और सबसे आगे रहने के गर्व को चकनाचूर करने की नीतियां बनाईं ताकि हम मानसिक रूप से उनके गुलाम बन कर रह जाएं। इसके साथ यह भी कि अंग्रेज हमारी शारीरिक ताकत का अपने ही लोगों का दमन करने में इस्तेमाल कर सके।

जहां तक मुगल शासन का संबंध है, हालांकि वह क्रूरता के मामले में बहुत निर्मम थे और इसी के बल पर हमारे शासक बने लेकिन उन्होंने हमारी बहुत सी विरासत को नष्ट न कर उसमें वृद्धि करने का काम भी किया। वे दिखाना चाहते थे कि मुगल साम्राज्य की विरासत हमसे कम नहीं है और इसीलिए उन्होंने हमारे मंदिरों, भवनों और गढ़ तथा किलों से मुकाबला करने वाली बहुत सी मस्जिदों और इमारतों का निर्माण किया। इनमें से आज बहुत सी हिंदुओं और मुस्लिमों के बीच विवाद का कारण बनी हुई हैं।

शशि थरूर की पुस्तक पढ़कर यह समझा जा सकता है कि अंग्रेजों ने जो भी कानून बनाए या नीतियों को लागू किया, वे सब अंग्रेजी साम्राज्य के लाभ और उसके विस्तार के लिए थे। इसमें से किसी भी काम में भारतीयों का हित नहीं होता था।

दुःख की बात यह है कि आजादी के बाद से अब तक बहुत से ऐसे कानून और नीतियां लागू हैं जो भारत में लूट खसोट के लिए अंग्रेजों ने बनाई थीं। विडंबना यह है कि हमारे संविधान में इन कानूनों को मान्यता मिली हुई है।


जुल्म पर आधारित कानून अब तक

एक उदाहरण है। जलियांवाला बाग में हत्याकांड के दोषी डायर को अंग्रेज सरकार ने इंग्लैंड में न केवल सम्मानित किया बल्कि उसे भारतीयों की कीमत पर बेशकीमती उपहार भी दिए। मतलब यह कि जुल्म करने वाले को सजा के बजाए पुरस्कार। इसी तरह बहुत से ब्रिटिश अधिकारियों को भारतीयों पर अत्याचार करने के लिए ईनाम दिए जाते थे। इस कड़ी में भ्रष्टाचार में लिप्त, बलात्कारी और कुशासन के लिए जाने जाने वाले अंग्रेज शामिल थे।

अब हम अपने देश की बात करते हैं। आज हमारी सरकारों में, चाहे केंद्र हो या राज्य सरकारें, अत्याचार के लिए मशहूर लोगों, भ्रष्ट नेताओं, रिश्वतखोर अधिकारियों और छल कपट से अपार संपत्ति हासिल करने वाले लोगों का बोलबाला उनसे कहीं ज्यादा है जो ईमानदार, मेहनती और अपने बल पर विभिन्न क्षेत्रों में भारत का नाम रौशन कर रहे हैं।

अगर ऐसा न होता तो किसी भी दोषी व्यक्ति और जेल में बंद अपराधी का दबंगई, गुंडागर्दी और धन के बल पर कोई भी चुनाव लडना संभव और सुविधाजनक न होता। अगर संविधान का संरक्षण न मिला होता तो ये चुनाव लड़कर मंत्री न बन पाते और यह भी न होता कि जिस पुलिस अधिकारी ने जिस गुंडे को गिरफ्तार किया हो, उसी की सुरक्षा करने की जिम्मेदारी उसे दे दी जाए।

यह हमारे ही देश में हो सकता है क्योंकि हमने अनेक दावों के बावजूद ऐसे कानून नहीं बदले हैं जो अंग्रेजों ने हमारा दमन करने के लिए बनाए थे।

शशि थरूर ने बहुत ही साफगोई से वर्णन किया है कि किस तरह हमारी कॉटन और दूसरे कृषि उत्पादों का अंग्रेज अपने मुनाफे के लिए निर्यात करते थे। आज भी यह हो रहा है कि किसान केवल उगाएं, व्यापारी तथा उद्योगपति उत्पादन करें लेकिन उसका सबसे अधिक फायदा सरकार और उसके अमीर साथियों को मिले।

एक दूसरा उदाहरण है । अक्सर कहा जाता है कि अंग्रेज ने भारत की यातायात व्यवस्था को सुधारने के लिए रेल चलाकर बहुत बड़ा काम किया। कुछ लोग तो यह भी कहते हैं कि अगर अंग्रेज रेल न लाए होते तो हम कितना और अधिक पिछड़े हुए होते। वास्तविकता यह है कि रेल का फायदा अंग्रेज के अपने लिए था क्योंकि उसे एक सस्ता साधन आने जाने और चीजों को लाने ले जाने के लिए चाहिए था। जब भी किसी भारतीय को इससे लाभ लेने की बात आती तो उसे नकार दिया जाता। यहां तक कि थर्ड क्लास डिब्बे में ही कोई हिंदुस्तानी जा सकता था और अंग्रेज जब चाहे तब वहां से उसे बाहर फिंकवा सकता था। सामान्य भारतीय को थर्ड क्लास का मानते हुए हमने भी इस व्यवस्था को बहुत समय तक कायम रखा।

अब हम शिक्षा की बात करते हैं । यह तर्क दिया जाता है कि भारत में अंग्रेजी भाषा नहीं पढ़ाई जाती और आज भी अगर न पढ़ाई जाए तो भारतवासी दुनिया में तरक्की नहीं कर सकते। हकीकत यह है कि अंग्रेज ने अंग्रेजी पढ़ाने का इंतजाम इसलिए किया ताकि वह ऐसे लोग तैयार हों जो शासन चलाने में मदद कर सकें। यह पढ़ाई भी बस इतनी कि कहीं बाबू जैसे कर्मचारी की जरूरत पूरी हो।

आज भी अंग्रेजी इसलिए पढ़ी जाती है ताकि उसके बलबूते बड़ी नौकरी, अधिकार संपन्न पद और अपनी एक अलग पहचान हासिल की जा सके। हमारी जो शिक्षा है वो रट्टा मारकर सफल तो कर देती है लेकिन उससे मानसिक विकास या अपनी अलग सोच पैदा नहीं होती। परीक्षा परिणाम तो सौ फीसदी आ सकते हैं लेकिन उसके आधार पर, केवल कुछेक अपवादों को छोड़कर जीवन में कोई कीर्तिमान स्थापित नहीं किया जा सकता। 

अगर हम अपनी प्राचीन शिक्षा पद्धति को देखें तो उस समय ओरल यानी मुंहजुबानी शिक्षा देने का प्रचलन अधिक था। पढ़ने के लिए वेद, उपनिषद और दूसरे ग्रंथ थे लेकिन उनका पढ़ना उनके लिए ही अनिवार्य था जो उनके पठन पाठन से कोई नया शोध करना चाहें, वैज्ञानिक उपलब्धि हासिल करना हो या भविष्य की कोई नीति बनाने के लिए आवश्यक हो और  इसके लिए विशेष रूप से विश्वविद्यालयों में पढ़ाई की व्यवस्था होती थी।

सामान्य व्यक्ति को ग्रंथों से अधिक व्यावहारिक ज्ञान के विषयों की शिक्षा दी जाती थी ताकि वह नौकरी या व्यवसाय अपनाकर अपनी गृहस्थी का पालन कर सके। इसके साथ ही गुरुकुल और बाद में पाठशाला या मदरसा उसकी शिक्षा का केंद्र होता था और सीमित सब्जेक्ट होते थे । अंग्रेजों ने इतने विषय सिखाने शुरू कर दिए जिनका जीवन में कोई महत्व नहीं था । ऐसा इसलिए किया गया ताकि विद्यार्थी के मन में अपने को दूसरों से श्रेष्ठ समझने की मानसिकता बन सके । मतलब यह कि देसी अंग्रेज बन कर वे हुकूमत करने में मददगार हो सकें।

यह परंपरा या परिपाटी आज तक बदस्तूर जारी है। सरकार को वैज्ञानिक, शोधकर्ता, प्रोफेशनल और अपनी अलग सोच रखने वाले भारतीय नहीं चाहिएं बल्कि ऐसे कर्मचारी चाहिएं जो बाबूगिरी कर सकें और किसी भी गलत आदेश का पालन बिना किसी विरोध के कर सकें। इसीलिए शिक्षा, विशेषकर उच्च शिक्षा को इतना मुश्किल और महंगा कर दिया गया है कि कुछ ही के लिए यह संभव है। इसके साथ ही विद्यार्थी को ज्यादातर वे सब विषय पढ़ने पड़ते हैं जिनका उसके जीवन में कभी कोई उपयोग होने वाला ही नहीं होता।


दासता की सोच

आज हम आजादी का अमृत महोत्सव मना रहे हैं। न जाने कितने समारोह अपनी आजादी को सुरक्षित रखने और स्वयं पर गर्व अनुभव करने के लिए मनाते रहे हैं। क्या यह वास्तविकता नहीं कि चाहे शासक हो या प्रजा, हम सब की सोच और मानसिकता अंग्रेजी शासन की गुलामी से अपने को मुक्त नहीं कर पाई है। बात बात पर अंग्रेजी शासन का उदाहरण देना क्या इसका प्रतीक नहीं है कि अभी तक ऐसी सोच रखने वाले इस देश में हैं कि अंग्रेजों के बनाए कानूनों और उनकी भाषा से ही हम उन्नति कर सकते हैं।े

यहां यह कहना जरूरी है कि सामान्य नागरिक द्वारा अपनी सोच का दायरा व्यापक और भारतीयता से ओतप्रोत करने का कोई अर्थ नहीं है जब तक कि शासन अर्थात सत्ताधारी व्यक्ति और राजनीतिक दल अपनी मानसिकता में आमूल चूल परिवर्तन नहीं करते। यथा राजा तथा प्रजा की उक्ति पूरी तरह लागू होती है।

ऐसा करने के लिए हिम्मत चाहिए, संविधान में संशोधन करने की तैयारी करनी होगी, सभी कानून जो गुलामी के दौर में बनाए गए थे, उन्हें रद्दी की टोकरी में फेंकना होगा।


एक उम्मीद

क्या इस बात की उम्मीद की जा सकती है कि किसी अपराधी को चुनाव लड़ने न दिया जाए, रिश्वतखोरी के बिना सरकारी काम करवाए जा सकें, भ्रष्ट नेताओं और अधिकारियों को राजनीतिक संरक्षण न मिल सके, बेसिक जरूरतों को पूरा करने के लिए सत्ता में बैठे लोगों का मुंह न ताकना पड़े और यदि किसी के साथ अन्याय हुआ है तो उसे वर्षों तक न्याय पाने के लिए लड़ना न पड़े । वर्तमान सरकार, क्योंकि पूर्ण बहुमत में है, इसलिए उसके लिए यह करना कतई मुश्किल नहीं, केवल इच्छाशक्ति चाहिए।  


शुक्रवार, 3 जून 2022

युद्ध या आपदा से हुए अनाथ बच्चों के भविष्य की जिम्मेदारी


प्रतिवर्ष चार जून को एक ऐसा विश्व दिवस मनाया जाता है जो ऐसे बच्चों के भविष्य को लेकर है जिनके माता पिता, संरक्षक युद्ध में मारे गए हों। इसकी शुरुआत चालीस साल पहले हुई थी।  इसका संदर्भ फिलिस्तीन और लेबनान पर इजरायल के हमले के कारण अनाथ हो गए बच्चों के पालन पोषण की समस्या पर दुनिया का ध्यान दिलाना था।  संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा इस दशक के अंत तक ऐसे बच्चों के भविष्य को सुरक्षित करने के लिए कदम उठाए जाने की बात कही गई है और सभी देशों से इस बारे में ठोस कार्रवाई करने की अपेक्षा है।


बच्चों पर असर

वर्तमान संदर्भ में इस समस्या को रूस और यूक्रेन के बीच चल रहे युद्ध के कारण अपने माता पिता और अभिवावकों की लड़ाई में मृत्यु हो जाने पर बच्चों को हो रही परेशानियों को सामने रखकर  समझा जा सकता है। युद्ध में बच्चों की फौज में भर्ती, स्कूल और अस्पताल पर हमले, यौन हिंसा से लेकर अपहरण और किसी भी मानवीय सहायता के मिलने में रूकावट के कारण होने वाली स्थिति बहुत गंभीर हो जाती है। इसका बच्चों की मानसिक और शारीरिक स्थिति पर बुरा प्रभाव पड़ना निश्चित है।

युद्ध या आपदा का शारीरिक, मानसिक और मनोवैज्ञानिक प्रभाव समझने के लिए एक घटना का जिक्र है। एक दिन एक परिचित अपने साथ लगभग अठारह वर्ष के युवक को लेकर आए। कहने लगे कि जब यह दस साल का था तो इसके सामने इसके माता पिता की कुछ गुंडों ने बेरहमी से हत्या कर दी थी। अपने रिश्तेदारों के बीच यह बड़ा होने लगा लेकिन इसे वह घटना भुलाए नहीं भूलती और यह अक्सर हिंसक रूप धारण कर लेता है। जब तब इसे एक दौरा सा पड़ता है और जो भी इसके हाथ में आता है, तोड़ने फोड़ने लगता है। इसी के साथ यह पढ़ने लिखने में होशियार है लेकिन शिक्षक इसकी हिंसक प्रवृत्ति के कारण बहुत डरते हैं। शरीर से भी यह काफी मजबूत है और अगर किसी का हाथ पकड़ ले तो छुड़ाना मुश्किल हो जाता है।

आम तौर पर यह एक नॉर्मल व्यक्ति की तरह रहता है लेकिन कभी इतना बेकाबू हो जाता है कि संभाले नहीं संभलता। अब रिश्तेदारों ने भी इसे अपने साथ रखने से मना कर दिया है इसलिए इसमें चोरी की आदत भी आ गई है। इसके भविष्य के बारे में मेरे मित्र की चिंता कुछ इसलिए भी है क्योंकि यह उनके पडौस में रहता है और जो कुछ इसके साथ हुआ वह सब जानते हैं।

एक मनोचिकित्सक से मिलवाने के बाद उसकी समस्या का हल निकलने की उम्मीद हुई लेकिन मन में यह बात आई कि हमारे यहां ऐसे बच्चों को लेकर कोई ऐसी नीति या व्यवस्था क्यों नहीं है जिससे कोई स्थाई समाधान निकल सके ?

यह सोचकर कि युद्ध के कारण तो ऐसे हजारों लाखों बच्चों का न केवल बचपन ही समाप्त हो जाता होगा बल्कि उनके सामने जीवन जीने की भी कठिन चुनौती रहेगी, चिंतित होना स्वाभाविक है।

अगर इतिहास पर नजर डालें तो भारत विभाजन के समय जिन लोगों ने बचपन में हिंसा, बलात्कार के दृश्य देखे, वे जिंदगी भर उन्हें नहीं भूल पाए हैं। इसके अलावा जितने भी अब तक युद्ध हुए हैं, उनके कारण कितने बच्चों का बचपन खो चुका होगा, इसकी संख्या तो हो सकता है सरकार के पास हो लेकिन उनके साथ जीवन में क्या हुआ होगा, इसका लेखा जोखा किसी के पास नहीं है।


कानून और सुरक्षा

इस परिस्थिति में बाल अधिकार को लेकर बने कानून भी ऐसे बच्चों को सुरक्षा नहीं दे पाते। हालांकि कानूनन देश में बहुत से बाल सुधार गृह या ऐसी ही बहुत सी संस्थाएं हैं जिन पर इनका भविष्य संवारने की जिम्मेदारी है। वास्तविकता यह है कि एक सर्वेक्षण के अनुसार इन सभी जगहों की हालत ज्यादातर एक कारागार की तरह है जहां इन बच्चों के साथ एक अपराधी जैसा व्यवहार होता है। मासूमियत के स्थान पर उनके चेहरे पर कठोरता दिखाई देती है। बचपन की चपलता या शरारत की जगह आक्रोश और क्रोध देखने को मिलता है।

ऐसे बच्चे जब किसी अनाथालय या सुधार गृह से वयस्क होकर निकलते हैं तो उन्हें सम्मानपूर्वक जीवन जीने की राह में रोड़े बिछे हुए लगते हैं। उनका नाम स्ट्रीट चिल्ड्रन पड़ जाता है और वे चाहे कितने भी मेघावी हों, उनके साथ पढ़ाई लिखाई से लेकर नौकरी तक के मामले में भेदभाव किया जाता है। असल में होता यह है कि बचपन और युवा होने के बीच उनकी स्वयं अपने आप से लगातार होने वाली लड़ाई उन्हें कहीं सफल नहीं होने देती।

ऐसे बच्चों की स्थिति भी कम दुखदाई नहीं है जिनके माता पिता में से कोई एक या दोनों किसी आपदा, बीमारी या दुर्घटना के कारण न रहे हों और उनके सामने दूसरों की दया पर रहने के अतिरिक्त कोई विकल्प न हो। वर्तमान में कोरोना के कारण ऐसे बच्चों की संख्या काफी अधिक है जो अनाथ हो गए हैं और किसी सरकारी या गैर सरकारी व्यवस्था के न होने से नारकीय जीवन जीने को विवश हैं।

हमारे संविधान में जीने का अधिकार है और बाल अधिकारों को लेकर पॉक्सो जैसे कानून भी हैं। प्रश्न यह है कि क्या यह किसी बच्चे को उसके जीने के अधिकार के साथ उसके विकास करने का अधिकार भी दिलाते हैं। उसकी पढ़ाई लिखाई, शिक्षा और रोजगार उपलब्ध कराने के बारे में भी कुछ कहते हैं ? व्यवहार में ऐसा कुछ नहीं होने से ये बच्चे अपने सर्वाइवल यानी जीवित रहने और वह भी सम्मान सहित जीवन यापन करने के अधिकार से वंचित रहते हैं।

उल्लेखनीय है कि युद्ध या आपदा के कारण बेसहारा हुए बच्चों की संख्या हजारों में नहीं बल्कि लाखों में है। अभी तक इतनी बड़ी जनसंख्या जैसे तैसे बड़ी होती रही है और किसी संरक्षण या सरपरस्ती के न होने से एक तरह से दिशाहीन होकर उम्र का फासला तय करती रही है। इनमें से कुछ का स्वभाव इतना उग्र होता है कि सब कुछ तहस नहस करने की सोच बनने लगती है, कुछ की फितरत इतनी दबी कुचली हो जाती है कि हमेशा एक बेचारगी रहती है और वे जीवन को बस ढोते रहने को ही अपना भाग्य समझते हैं।

क्या कभी इस बात पर किसी का ध्यान गया है कि समाज में एक युवा पीढ़ी क्यों इतनी असहनशील हो रही है कि उसे किसी बात पर विश्वास नहीं होता, उसे लगता है कि हर कोई उससे कुछ न कुछ छीनने के लिए तैयार है। इसका मूल कारण उनमें से अधिकांश के जीवन में उनके बचपन में भोगी गई असामान्य घटनाएं हैं जिनका समय रहते कोई हल नहीं निकला और ऐसे व्यक्तियों को उपचार के स्थान पर प्रताड़ित किया गया।

क्या यह सही समय नहीं है कि सरकार कोई ऐसी नीति बनाए, उसे कानूनी जामा पहनाए और लागू करने का पुख्ता इंतजाम करे जिसमें किसी भी कारण से बेसहारा हर बच्चे को सुरक्षा और संरक्षण मिलने की तुरंत व्यवस्था हो। यह ध्यान रखना जरूरी है कि ऐसे बच्चे का हरेक पल कीमती है और उसे यदि तुरंत सही तरीके से उसके अधिकार मिलने में देरी हुई ती वह जीवन भर अपने साथ हुई त्रासदी से उबर नहीं सकता।

सरकार के पास अपना तंत्र है, अपनी व्यवस्था है और अपनी ताकत भी और वह अगर निश्चय कर ले कि एक पूरी पीढ़ी को अंधकार में खोने से बचाना है तो यह काम कतई मुश्किल नहीं है। जरूरत केवल संवेदनशीलता के साथ समस्या को समझने और उसका हल निकालने की है। बच्चों को केवल देश का भविष्य कहने भर से काम नहीं चलेगा बल्कि उनके लिए ठोस और कारगर नीति तथा कानून बनाकर उन्हें लागू करने की व्यवस्था करनी होगी, जरा सोचिए?