शुक्रवार, 20 मई 2022

धर्म, धार्मिक स्थल और आस्था के बीच संघर्ष बेबुनियाद और काल्पनिक है

 

धर्म वही जो जन्म से मिले या मन को अच्छा लगे और उसे मानने, पूजने से चित्त शांत हो, दूसरों के प्रति कटुता और कड़वाहट न हो। 

यह एक आदर्श स्थिति हो सकती है लेकिन यदि वह लड़ाई झगडे, बहस और विवाद से लेकर जीने मरने का कारण बन जाए और उसके लिए नफरत, मारपीट, हिंसा होने लगे तो समझना चाहिए कि इस तरह का वातावरण तैयार करने में किसी का निजी स्वार्थ है, अपने को बेहतर सिद्ध कर दूसरे को नीचा दिखाकर अपना उल्लू सीधा करने की साजिश है !

धार्मिक आस्था
जब धर्म है तो उसके प्रति आस्था और विश्वास होना भी अनिवार्य है। इसी तरह अपने धर्म के लिए बनी पूजा का विधि विधान भी है। इसमें कोई आश्चर्य नहीं कि भिन्न भिन्न स्थानों पर यह अलग अलग है क्योंकि इसमें स्थानीय भाषा, परंपरा, रीति रिवाज और तौर तरीके मिल जाते हैं।

यही कारण है कि पूजा के लिए कहीं मानवीय आकृति दिखाई देती है तो कहीं कोई शिलाखंड ही पूजा जाने लगता है। ऐसा इसलिए है क्योंकि ईश्वर का कोई रूप नहीं, वह निराकार है और साधक या पूजा करने वाले के मन में अपने आराध्य की बनी छवि के अनुसार निरंतर बदलता रहता है।

दूसरा कारण है कि जब किसी मनुष्य का आचरण, व्यवहार और उसके कार्य मन में निर्मित ईश्वर के स्वरूप के अनुसार होते दिखाई देते हैं या जिनके बारे में पढ़ा और सुना होता है तो वह हमारे लिए पूज्य हो जाता है।

राम, कृष्ण, बुद्ध, महावीर, गुरु नानक से लेकर हजरत मुहम्मद और ईसा मसीह तक और इसी तरह विश्व के अनेक धर्मों के महापुरुष हमारे आराध्य पुरुष और इसी कड़ी में अपने शौर्य, पराक्रम से शत्रु विनाशक स्त्री पात्र हमारे लिए क्रमशः भगवान और देवी का स्वरूप बन जाते हैं।

ये हमारे आदर्श हो जाते हैं और हमें उनके कार्य अलौकिक, आश्चर्यजनक और अद्भुत लगते हैं। हम अपने मन में उनकी ऐसी छवि का निर्माण कर लेते हैं जिसके विरोध में या उसके प्रति किसी प्रकार का अनादर करने या उसकी छवि वाले धूमिल करने के किसी भी प्रयास को अपना स्वयं का अपमान समझकर उस व्यक्ति से बदला लेने से लेकर उसकी हैसियत को नेस्तनाबूद करने तक के बारे में सोचने लगते हैं। मौका मिला नहीं कि बिना सोचे समझे कोई न कोई ऐसा काम कर बैठते हैं जिसका परिणाम अच्छा या बुरा कुछ भी हो सकता है।

शासक की चाल
इतिहास गवाह हैं कि मनुष्य की इसी आस्था और उसके विश्वास को चोट पहुंचाने के उद्देश्य से शासक वर्ग ऐसे काम करता रहा है जिनका असर शताब्दियों तक कायम रहता है। वरना क्या कारण है कि किसी अन्य धर्म के पूजास्थल को तोड़कर या उसके बगल में कोई शासक अपने धर्म के प्रतीक धार्मिक स्थल का निर्माण वहीं करता।

उसके मन में दोनों धर्मों के बीच सौहार्द और भाईचारा कायम रखने की बात रही हो या फिर अपने धर्म को श्रेष्ठ साबित करने की होड़ हो अथवा उसका कोई ऐसा मंसूबा रहा हो जिसका असर पीढ़ी दर पीढ़ी पड़ने वाला हो।

यह एक वास्तविकता है चाहे किसी भी धर्म के धार्मिक स्थल हों, वे या तो ऐसी जमीन पर बने होंगे जो समतल और कभी किसी भी उपयोग में न लाई गई हो अथवा ऐसे स्थान पर जहां आने जाने की सुविधाएं उपलब्ध हों, नदी आसपास हो और खाने पीने की वस्तुएं आसानी से मिल जाती हों, साथ में वहां विश्राम करने या कुछ समय रहने की व्यवस्था हो। यह वैसा ही है जैसा किसी नए शहर के निर्माण करने से पहले यह सुनिश्चित कर लिया जाता है कि वह स्थल बसाए जाने योग्य है अथवा नहीं । इससे कोई अंतर नहीं पड़ता कि वहां कभी कोई ढांचा रहा होगा या कुछ ऐसा बना होगा जो उस जगह के अतीत की गवाही देता हो जिसे समझकर उस स्थान के इतिहास का बोध होता हो।

विचार करने वाली बात यह है कि क्या प्राचीन काल में घटी किसी घटना की जिम्मेदारी वर्तमान समय में किसी समाज पर डाली जा सकती है ?

हमारे देश में मुगल साम्राज्य का विस्तार हमलावर मानसिकता के साथ हुआ था लेकिन जब मुगलों को लगा होगा कि अब यही हमारा वतन है तो उन्होंने हिंदुओं के साथ मेल मिलाप करने और उनके साथ रोटी बेटी का संबंध स्थापित करने तथा संघर्ष के स्थान पर मिलजुलकर रहने की बात सोची होगी। यही कारण है कि जब अंग्रेज आए तो हिंदू और मुसलमान दोनों ही ने उनका मुकाबला किया।

यह बात सोचने वाली है कि ब्रिटिश साम्राज्य ने भारत में धार्मिक स्थलों से अधिक यहां ऐसे निर्माण करने को प्राथमिकता दी जो देश पर उनके शासन को अधिक सुविधाजनक बना सकें। दिल्ली, मुंबई, कोलकाता, चेन्नई और दूसरे नगरों में अंग्रेजों के बनाए भवनों को देखने से यही लगता है कि उनकी प्रवृत्ति अपने धर्म का विस्तार कम और शासन करने की अधिक थी। इसके विपरीत मुस्लिम और हिंदू शासक अपने धर्म के प्रतीकों और धार्मिक स्थलों के निर्माण को प्राथमिकता देते थे। यही क्रम आज भी जारी है और प्रशासन इसी भावना का लाभ उठाते हुए नागरिकों को धर्म में उलझाकर ऐसा माहौल बनाने में सफल हो जाता है जिससे उनकी प्राथमिकताएं बदल जाएं। इससे जरूरी समस्याओं से उसका ध्यान भटकाया जा सकता है, यह एक बार नहीं अनेक बार प्रमाणित हो चुका है।

क्या कभी ऐसा भी समय आ सकता है जब सिख, ईसाई, जैन, बौद्ध तथा अन्य धर्मों के प्रतीक धार्मिक स्थलों के निर्माण के बारे में यह जानकारी मिलते ही कि उनका निर्माण किसी अन्य धर्म के प्रतीक स्थल, किसी प्राचीन ढांचे के ऊपर या उसका विध्वंस करने पर हुआ है तो क्या उसकी भी खुदाई कराई जाएगी ? ऐसा समय आया तो यह वास्तव में देश के लिए और अधिक दुर्भाग्यपूर्ण होगा।


शुक्रवार, 13 मई 2022

राजद्रोह और देशद्रोह या अराजकता, स्पष्ट कानून बनने ही चाहिएं


हमारे देश में अक्सर इस तरह के हालात बनने आम हो गए हैं जिनकी व्याख्या ही विवाद पैदा कर देती है।


मिसाल के तौर पर सरकार के किसी काम का विरोध करने को देशद्रोह और देश के खिलाफ किसी साजिश दोनों को एक ही श्रेणी में डाल दिया जाना। विडंबना यह है कि समाज में दुश्मनी फैलाने, दंगा फसाद, आगजनी जैसे कामों को भी इसी खाते में दर्ज कर दिया जाता है।

असल में अंग्रेजी में इस सब के लिए एक ही शब्द है और वह है सेडिशन जिसे लेकर एक कानून उस अंग्रेज मैकाले ने बनाया था जिसने भारत में बाबू बनाने वाले शिक्षा नीति बनाई थी। हमारी राजभाषा हिंदी में इसके लिए दो अलग शब्द राजद्रोह और देशद्रोह हैं लेकिन अंग्रेजी परस्त सरकारों ने पुरानी नीति यानि सेडिशन कानून पर चलने में अपना कल्याण समझा। इसलिए जरूरी हो जाता है कि इसे विस्तार से समझा जाए।


राजद्रोह क्या है
जब राज्य हो या केंद्र की सत्तारूढ़ सरकार हो, उस के किसी काम से जनता में असंतोष हो, उसकी नीति जनविरोधी हो, सामान्य व्यक्ति के लिए जीवन के लिए आवश्यक चीजों का मिलना दूभर हो जाए, पीने का पानी गढ़े खोदकर निकालना पड़े, मीलों दूर जाना हो, साफ सफाई न हो, नालों की गंदगी ने नर्क बना दिया हो, हवा इतनी जहरीली हो कि सांस लेते ही बीमारियां घेर लें, सड़क ऊबडखाबड़ होने से दुर्घटना होना मामूली बात हो और इसी तरह की सभी चीजें जिनसे मानव जीवन प्रभावित होता हो।

कहने का मतलब यह कि एक नागरिक अपने अधिकारों के लिए आवाज उठाए तो उसे सरकार के खिलाफ बोलने, लिखने, इंसाफ की गुहार लगाने और जरूरी हो जाए तो आंदोलन करने का अधिकार हो और उसे देशद्रोह या अराजक मानकर सजा देने के बजाए उसकी परेशानियों को दूर करने वाले कदम उठाए जाएं।
इस बारे में कोई स्पष्ट नीति या कानून अथवा विधिसम्मत तरीका न होने से सरकार जिसकी लाठी उसकी भैंस पर चलती है जिसे मनमानी कहा जाता है।

उदाहरण के लिए जब सरकार अतिक्रमण करने पर बुलडोजर का इस्तेमाल करती है तो उन लोगों के खिलाफ कोई कार्यवाही नहीं करती जिनकी शह पर या मिलीभगत से यह स्थिति हुई। राजद्रोह का पहला कानून यह बनना चाहिए कि जिस भी व्यक्ति, चाहे अधिकारी हो या नेता, के कार्यकाल में यह सब हुआ उस पर और अतिक्रमण करने वाले पर एक साथ दंडात्मक कार्रवाई हो।

इसी प्रकार मनुष्य के सामान्य जीवन जीने की राह में कांटे बिछाने वाले व्यक्ति के लिए कानून में स्पष्ट प्रावधान हों और किसी के भी इससे बचने की गुंजाइश न हो।

जिस दल के शासन में रिश्वत दिए बिना काम न होता हो, भ्रष्टाचार पर लगाम लगाने में कोताही बरती जा रही हो, कुव्यवस्था का बोलबाला हो और अस्तव्यस्त्त हालात हों, यह राजद्रोह माना जाना चाहिए और इसके लिए सत्ता में बैठे लोगों और अधिकारियों के खिलाफ मामला दर्ज किया जाए और कानून इस तरह बनाए जाएं कि दिमाग में यह भय समाया रहे कि इस तरह के किसी भी आचरण जिससे अपने पद का गलत इस्तेमाल सिद्ध होता हो, सख़्त सजा का प्रावधान हो, यहां तक कि मृत्यु दण्ड भी दिया जा सकता है।

इसमें मिलावट करने वाले, जमाखोरी और कालाबाजारी करने वाले शामिल हों और उनके किसी भी गैर कानूनी काम या कानून की धाराओं में किसी प्रकार की विसंगति होने से उसका फायदा उठाने और इससे आम नागरिक का जीवन प्रभावित हो तो यह राजद्रोह के दायरे में लाया जाए।

इसी तरह धर्म और जाति, परंपरा और रीति रिवाज तथा संस्कृति और भाषा के आधार पर बंटवारा करने की नीयत से किए गए किसी भी काम को राजद्रोह माना जाए। इसके लिए कड़े फैसले लेने में यदि सरकार संकोच करती है तो उसके विरुद्ध जनमत तैयार करने को राजद्रोह के दायरे से बाहर रखा जाए।

देशद्रोह क्या है
ऐसा कोई भी काम जिससे देश की अखंडता, संप्रभुता और राष्ट्र के गौरव पर चोट लगती हो, वे सब देशद्रोह माना जाए। इसमें भारत से अलग होने की मांग या उसे तोड़ने के प्रयास अथवा विदेशी भूमि से देश को चुनौती देने और भारतीय नागरिकों की एकता को खंडित करने वाले किसी भी काम को इसके दायरे में रखा जाए।

इसी तरह देश का धन, संपत्ति और संसाधन किसी अन्य देश को सौंपने या ले जाने की साजिश हो या कोशिश, यह देशद्रोह है। इसके लिए जिम्मेदार व्यक्ति और उसकी मदद करने वाले दोनों ही पर देशद्रोह कानून के अंतर्गत कार्यवाही हो। इसमें किसी व्यक्ति का रुतबा, ताकत या उसके छल कपट से अर्जित सम्मान या धन दौलत को जब्त किए जाने का प्रावधान हो।

आधुनिक काल में मीडिया की भूमिका में टेक्नोलॉजी का महत्व बहुत बढ़ रहा है, इसका दुरुपयोग भी राष्ट्रद्रोह है। इस तरह की संभावनाओं को रोकने के लिए कानून में स्पष्ट धाराएं हों और जिस किसी पर भी देशद्रोह का आरोप लगाकर उसके खिलाफ कार्रवाई करने पर रोक लगाने की धारा हो, जब तक कि यह साबित न हो जाए। केवल संदेह और कानून की आड़ लेकर डराने धमकाने से लेकर गिरफ्तारी तक करने को देशद्रोह माना जाए और ऐसा करने वाले पर सख्त कार्रवाई हो।

देशद्रोह यह नहीं है कि किसी धार्मिक स्थल की असलीयत को चुनौती देने वाले के खिलाफ यह कानून लागू करने की छूट मिल जाए। राज सत्ता और धर्म सत्ता दो अलग अलग विचार धाराएं हैं। इन दोनों को मिलाने से ही ज्यादातर दंगे हुए हैं। यह किसी भी भारतीय के अस्तित्व को चुनौती देने के समान हैं और यही विवाद का कारण बनती है। यदि कोई व्यक्ति धर्म और राजनीति की मिलावट कर समाज में द्वेष और शत्रुता का वातावरण बनाता है तो यह देशद्रोह है।

ऐसे में प्रश्न उठता है कि फिर अराजकता क्या है तो इसकी भी व्याख्या राजद्रोह और देशद्रोह दोनों ही कानूनों में होनी चाहिए।

एक सवाल यह भी है कि क्या चुनाव के समय अपना वोट न डालना भी एक अपराध है ?  जी हां, यह अपराध है क्योंकि इससे एक सही सरकार बनने में रुकावट आती है। इसके साथ यह भी सच है कि प्रत्येक वोटर के लिए वोट डालना कई बार संभव नहीं होता जैसे कि वोटर सूची में नाम दर्ज न होना, वोटर कार्ड की मान्यता वोट डालने के लिए न होना अथवा वोटर के निर्धारित तिथि पर अपने क्षेत्र में न होना।

ऐसी स्थिति में यह उस विभाग, अधिकारी या प्रशासन द्वारा किया गया देशद्रोह है जिसके कारण कोई वोटर अपना वोट डालने से वंचित रह गया। सरकार की यह जिम्मेदारी है कि वह सुनिश्चित करे कोई भी वोटर जहां भी हो, अपनी पहचान के आधार पर कहीं से भी अपना वोट डालने के अधिकार का इस्तेमाल कर सके। अब क्योंकि मतदान करते समय नोटा बटन दबाकर भी वोट दिया जा सकता है तो यह प्रत्येक व्यक्ति का अधिकार है कि वह उसका इस्तेमाल करे और फिर भी न करे तो यह भी देशद्रोह है।

सरकार क्योंकि अब देशद्रोह कानून को लेकर फिर से एक कवायद करने जा रही है तो बेहतर होगा कि इसके लिए राष्ट्रीय स्तर पर लोगों की राय सार्वजनिक तौर पर ली जाए और गंभीर चर्चा चाहे वह सदन में हो या बाहर, की जाय और तब ही कोई निर्णय हो। जिस तरह देश में संविधान समिति बनी थी उसी तरह की व्यवस्था राजद्रोह और देशद्रोह कानून बनाने में की जाए।

किसी एक व्यक्ति या राजनीतिक दल, चाहे वह कितना भी पुराना या विशाल हो, की सोच, विचारधारा या धारणा के आधार पर यह कानून नहीं बनाया जा सकता, यह बात जितनी जल्दी समझ में आ जाए, उतना ही बेहतर होगा।


शनिवार, 7 मई 2022

कुरीतियों और परंपराओं का बोझ ढोते रहना कतई ज़रूरी नहीं है

 

अख़बार में एक खबर पढ़कर मन तो विचलित हुआ ही, साथ में एक तरह की निराशा, अवसाद और झुंझलाहट भी हुई कि क्या वास्तव में हम आधुनिक युग में जी रहे हैं जिसमें विज्ञान और टेक्नोलॉजी का बोलबाला है, ढोंग, अंधविश्वास को मान्यता न दी जाती हो और मनुष्यता को अहमियत दी जाती हो।

कथनी और करनी

खबर यह थी कि अल्मोड़ा जिले में एक अच्छी खासी नौकरी कर रहे सत्ताईस साल के युवक को अपनी बारात निकालने से रोक दिया गया जिसमें लगभग पचास बाराती थे।

लड़का दूल्हा बनकर घोड़ी पर सवार था। तब ही अपने को तथाकथित ऊंची जाति का बताने वाला एक समूह जिसमें महिलाएं अधिक थीं, दूल्हे को नीचे उतरने का हुक्म इस धमकी के साथ देता है कि यदि वह घोड़ी पर चढ़कर गया तो उसका और सभी बारातियों का वही हश्र होगा जो कुछ वर्ष पहले पास के ही एक गांव में हुआ था। उस समय घटी यह घटना बहुत ही ह्रदय विदारक थी और काफी चर्चित भी हुई थी। इसमें चैदह लोगों की लिंचिंग हुई थी, जिनमें से पांच को जिंदा जला दिया गया था।

इन दोनों घटनाओं में एक बात समान थी कि दूल्हे और बाराती दलित समाज के थे। वर्तमान घटना में दूल्हे के कुछ दोस्त जो दलित समुदाय के नहीं थे, इस तरह विवाह में अड़चन डाले जाने के खिलाफ़ थे। वर के पिता ने तय किया कि अब यह सहन नहीं होगा और अल्मोड़ा के डीएम और एससीएसटी कमीशन में शिकायत की। पुलिस आई और पांच स्त्रियों और एक पुरुष के विरुद्ध एफआईआर दर्ज़ की। ज़िला प्रशासन की एक टीम ने आकर इस घटना के बारे में अधिक विवरण जुटाए और आश्वासन दिया कि यदि सरकार से आदेश मिला तो पीड़ित पक्ष को पुलिस सुरक्षा प्रदान की जाएगी।

उल्लेखनीय यह है कि पहली घटना बीस साल से ज्यादा पहले हुई थी और दूसरी अब हुई है, मतलब यह कि इतने वर्ष बीत जाने पर भी उच्च जाति और निम्न जाति के बीच खाई पैदा करने वाली सोच में कोई बदलाव नहीं हुआ है।

इसका क्या कारण है ?  केवल कानून से इसका हल न निकला है, न निकलेगा, दण्ड देना बेकार साबित हुआ, शिक्षित होना भी काम न आया बल्कि समाज में एक प्रकार का डर बढ़ गया कि जिन लोगों को कानूनी संरक्षण मिला है, अगर वह न रहा तो क्या सामाजिक व्यवस्था में यह दोनों वर्ग एक दूसरे के साथ सामान्य रूप से एक ही छत के नीचे रह पाएंगे?

दोष कहां है ?

चलिए इस बात पर गौर करते हैं कि समाज में कुरीतियां कैसे पनपती हैं, गलत परंपराएं किस प्रकार पड़ती हैं और किसी का सामान्य व्यवहार क्योंकर दूसरों के लिए आपत्तिजनक ही नहीं, असहनीय भी हो जाता है।

इन दिनों देश के अनेक स्थानों से हनुमान चालीसा का पाठ करने बनाम मस्जिदों में लाउडस्पीकरों से अज़ान का मुद्दा जोरशोर से चर्चा में है।  यह पूजा, प्रार्थना, अर्चना या इबादत करने का एक तरीका भर न रहकर धार्मिक संघर्ष से लेकर दुश्मनी मोल लेने का साधन और कुछ लोगों की मतलबपरस्ती यानि अपनी स्वार्थसिद्धि का मौका बन गया है।

ज़रा सोचिए कि क्या यह व्यापक स्तर पर अशांति फैलाने और सांप्रदायिक सौहार्द बिगाड़ने की पृष्ठभूमि तो नहीं है ?

एक दूसरा उदाहरण है कि आज भी हिंदुओं की कुछ जातियों, महिलाओं और अन्य धर्म के लोगों के प्रवेश पर अनेक मंदिरों में रोक लगी हुई है। इसका पालन न करने पर आपसी मनमुटाव, तिरस्कार, हीन भाव का व्यवहार करने से लेकर हिंसक घटनाएं तक घटती रहती हैं और विडंबना यह कि यह वर्तमान भारत में हो रहा है।

कोई परंपरा कब पड़ी होगी या किसी कुरीति का जन्म कैसे हुआ होगा, इस पर सोचने से ज्यादा ज़रूरी यह है कि आज तक यह चल क्यों रही है ? लोग इस व्यवस्था से चिपके हुए क्यों हैं ? इसमें परिवर्तन करने या इसे समाप्त करने के बारे में सामाजिक पहल क्यों नहीं होती ?  सबसे बड़ी बात यह कि सरकार क्यों नहीं भेदभाव करने की परंपरा से जुड़े धार्मिक स्थलों की व्यवस्था को अपने हाथ में लेकर समस्या की जड़ को ही नष्ट करने के लिए कदम क्यों नहीं उठाती ?

इस बात पर विश्वास करने से भय लगता है और वो आज की युवा पीढ़ी के लिए किसी अजूबे से कम नहीं है कि अब भी कुएं, हैंडपंप या तालाब से पानी लेने के लिए जातियों के बीच झगड़े, मारपीट और हिंसक वारदातें हो जाती हैं। लेकिन सच यही है !

छुआछूत कानूनन तो जुर्म है लेकिन यह आज भी समाज के लगभग प्रत्येक वर्ग में व्याप्त है चाहे वह पढ़ा लिखा हो या अनपढ़, गरीब हो या अमीर, साधन संपन्न हो या कमज़ोर और यही नहीं अपने विभिन्न रूपों में हरेक व्यक्ति इसका पालन करता दिखाई देता है। उदाहरण के लिए घर में काम करने वाले घरेलू नौकरों के खाने पीने के बर्तन अलग रखना, कितनी मामूली बात है लेकिन कितनी गंभीर है क्योंकि इसी एक व्यवहार ने एक कभी न भरी जा सकने वाली खाई को जन्म दे दिया है।

शादी ब्याह, त्यौहार, उत्सव या सामूहिक भोज के दौरान अक्सर इस परंपरा का पालन किया जाता है कि जो अपनी जाति से कम है, उसके खाने पीने से लेकर रहने तक का इंतजाम अलग हो और गलती से अगर कहीं बड़ी जाति जिसके यहां यह आयोजन हो रहा है, किसी वस्तु या खाद्य पदार्थ की अदला बदली हो जाए तो समझिए कि कयामत ही आ जाएगी।  ऐसा बवंडर मचेगा कि समारोह का मज़ा ही जाता रहेगा।

पढ़े लिखे तथा प्रबुद्ध वर्ग और विशेषकर उच्च शिक्षा प्राप्त युवा वर्ग के लिए इन बातों का कोई मतलब न होने पर भी वे कुछ अपवादों को छोड़कर यह सब मानते और करते हैं क्योंकि उनके सामने परिवार या खानदान की इज़्ज़त बनाए रखने का डर इस हद तक भरा होता है कि वह इस सब को ढोंग मानते हुए भी अपनी सहमति और स्वीकृति ही नहीं देते बल्कि यह सब करने में अपनी भागीदारी का निर्वाह करते हैं।

कहने का अर्थ यह कि जब शिक्षा ही सोच नहीं बदल पाई तो फ़िर कानून या उसके अंतर्गत मिलने वाला दंड उसे कैसे बदल सकता है ?

असल में इस सब का सबसे बड़ा कारण हमारे राजनीतिक दलों, उनके नेताओं द्वारा इन भेदभाव की बातों का अपने मतलब के लिए इस्तेमाल करने की कला है।

क्या यह देखकर अज़ीब नहीं लगता कि कोई स्थानीय नेता हो, मंत्री, मुख्यमंत्री और प्रधान मंत्री ही क्यों न हो, किसी दलित या गरीब के यहां भोजन करने को इतना महत्व देते हैं कि यह सामान्य सी घटना देश भर में चर्चा का विषय बन जाती है।

किसी धर्म या जाति अथवा संप्रदाय के एक तबके को इस ढोंग से अपनी तरफ करने का यह प्रयास उन्हें कुछ वोट तो दिला सकता है लेकिन उनके इस अकेले व्यवहार ने किस गलत परम्परा को जन्म दे दिया इसका पता नेताओं को तो होता है लेकिन इसका आभास सामान्य नागरिक को होने तक बहुत देर हो चुकती है। तब तक यह एक सामान्य व्यवहार बन जाता है और दो तबकों के बीच दुश्मनी का बीज पड़ चुका होता है।

परंपरा अपने आप में गलत नहीं होती लेकिन वह कुरीति तब बन जाती है जब उसका इस्तेमाल व्यक्तिगत स्वार्थ के लिए किया जाता है या फिर अपना दबदबा कायम रखने और कमज़ोर व्यक्ति को सताने के लिए किया जाता हैं।

इसी के साथ सच यह भी है कि जब सरकार ऐसे लोगों को प्रश्रय देती है, उन्हें बढ़ावा देती है और यही नहीं, इस तरह के काम करने पर ईनाम भी देती है तो समझना चाहिए कि समाज को धर्म और जाति के नाम पर बांटा जा रहा है। इसका परिणाम आज न दिखाई दे लेकिन भविष्य में कितना घातक सिद्ध होगा, यह समझना कोई रॉकेट साइंस नहीं है बल्कि बहुत साधारण सी बात है।

भारत विभाजन से लेकर समय समय पर होने वाले जातीय संघर्ष और धर्म के नाम पर फैलाई जाने वाली हिंसा से भी अगर हम न सीख पाएं हों तो इससे बड़ा दुर्भाग्य क्या हो सकता है ? क्या इससे विश्व में हमारी छवि धूमिल नहीं होती और हम चाहे कितनी भी उपलब्धियां हासिल कर लें, जब तक देश में धर्म और जाति को भूलकर एकजुटता नहीं है, हम अपने पर गर्व कैसे कर सकते हैं ?