शुक्रवार, 27 नवंबर 2020

भावनाओं को भड़काने का खेल खतरे की घंटी है

 

भावनाओं को लेकर आम तौर पर किसी भी व्यक्ति की सोच दो प्रकार की होती है, एक तो वे जो किसी के कुछ भी कहने पर ध्यान देने या मानने से पहले उसे तर्क की कसौटी पर कसते हैं और फिर कोई निर्णय लेते हैं, और दूसरे वे जो किसी की कही बात को तुरंत मान लेते हैं और यही नहीं उसके कहे अनुसार आचरण भी करने लगते हैं।

इस श्रेणी के लोग अक्सर जल्दबाजी में  गलत फैसले कर लेते हैं और एक तरह से उस व्यक्ति की बातों में आ जाते हैं जो उनसे अपने मन मुताबिक काम कराना चाहता है, मतलब उसका अपना कोई स्वार्थ है जिसे वह सिद्ध करना चाहता है।

भावनाओं को ठेस पहुंचना

अनेक बार ऐसा होता है कि हम किसी बात को भूल नहीं पाते चाहे कितना भी समय बीत चुका हो और वो सब कुछ फौरन याद आ जाता है जिससे उस वक्त ठेस पहुंची थी जब वह बात कही गई थी।  उसका ध्यान आते ही उसी प्रकार अपने को आहत महसूस करने लगते हैं जैसे तब किया था जब वह बात हुई थी।

इसके विपरीत कुछ लोग जीवन में घटी अनेक घटनाओं या किसी की कभी भी कही कोई भी बात दिमाग में  रखकर भूल जाते हैं । यही नहीं, उस बात को याद करने की जरूरत पड़ने पर भी भुलाए रखना ही बेहतर समझते हैं और यह मानने में ही भलाई समझते है  कि जो बीत गया वो लौटकर तो आ नहीं सकता और आज उसका महत्व भी नहीं है तो फिर पुरानी बातों को कुरेदकर अपना आज क्यों खराब किया जाय।

ऐसी सोच रखने वाले स्वयं तो खुश रहते ही हैं, साथ में दूसरों से कुछ भी अपेक्षा न रखने के कारण उन्हें भी खुश रहने का मौका देते हैं क्योंकि अक्सर पुरानी बातों को याद कर ऐसे निर्णय हो जाते हैं जिनसे अपने आज में तो उथल पुथल हो ही जाती है और जिसने वह बात कही या की थी उसकी मानसिक स्थिति  बिगाड़ने का काम भी कर देते हैं।

कई बार तो आवेश में आकर पुरानी बात का बदला आज लेने लगते हैं जबकि उसकी कोई जरूरत नहीं होती और इस चक्कर में पड़कर कुछ ऐसा भी कर जाते हैं जो अपराध करने जैसा होता है, चाहे वह अपने साथ हो या किसी दूसरे के साथ किया जाए। कई बार यह बदला लेने जैसा काम उसके न रहने पर परिवार के साथ भी कर देते हैं। इसे बैठे बिठाए मुसीबत मोल लेना या आ बैल मुझे मार की कहावत पर चलना भी कह सकते हैं।

भावनाएं भड़काने के ठेकेदार

कुछ लोग, विशेषकर, राजनीति की दुनिया में रहने वाले समाज में अपना सिक्का जमाए रखने के लिए लोगों की भावनाओं को भड़काने, उन्हें पुरानी बातों को याद दिलाने और जिन बातों का आज कोई अर्थ ही नहीं, उन्हें दोहराकर ऐसा वातावरण बनाने में कामयाब हो जाते हैं जो उनके तो फायदे का होता है लेकिन समाज में उसके कारण मन मुटाव से लेकर दुश्मनी तक हो जाती है।

ये लोग इतने शातिर होते हैं कि किसी को सोचने का मौका ही नहीं मिलता और कोई न कोई ऐसा कांड हो जाता है जो न व्यक्ति के हित में होता है और न ही समाज के बल्कि अव्यवस्था फैलने से किसी का स्वार्थ पूरा होने का साधन बन कर उसके हाथ की कठपुतली बनना तय हो जाता है।

ऐसे एक नहीं दर्जनों उदाहरण दिए जा सकते हैं जिनमें बिना भली भांति सोच विचार किए सामान्य नागरिकों को ऐसे हालात बनाये जाने का हिस्सा बना दिया जाता है, जिनका परिणाम केवल अफरा तफरी और आपसी वैमनस्य में ही निकलता है। इसमें उन तत्वों का भला होता रहता है जो दूसरों का घर जलने पर अपने हाथ सेंकने में माहिर होते हैं।

आम तौर से जिन पुरानी बातों को याद दिलाकर माहौल खराब किया जाता है उनमें राजनीतिक दलों के स्वार्थ तो होते ही हैं, साथ में सामाजिक एकता भी खतरे में पड़ जाती है।

इनमे धर्म, संस्कृति, जाति, परंपरा, रीति रिवाज, पुश्तैनी व्यवहार, पीढ़ियों से चली आ रही मान्यता से लेकर अंध विश्वास तक कुछ भी हो सकता है जिनके आधार पर इन सब चीजों के ठेकेदार जन भावनाओं को भड़काने का खेल तब तक खेलना जारी रखते हैं जब तक ऐसा करने वालों की पूरी तरह से स्वार्थ सिध्दि न हो जाय।

अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता

यह सोच ही अपने आप में कितनी बचकानी लगती है कि हम लिखने, बोलने की आजादी के नाम पर वह सब कुछ सहने को विवश हो जाते हैं जो गलत है, अपमानजनक है और परिवार हो या समाज, बिखराव को जन्म देता है और कभी कभी तो उसके भयावह परिणाम निकलना तय होता है।

संविधान में दी गई अभिव्यक्ति की आजादी का जितना दुरुपयोग हमारे देश में होता है उसकी मिसाल शायद ही दुनिया में कहीं और मिले। इसके तहत वह सब काम करना भी बहुत आसान हो जाता है जो कदाचित देशद्रोह की श्रेणी में आसानी से रखा जा सकता है।

इसके विपरीत व्यंग्य, मुहावरे और ताना देने के लहजे में कही गई किसी बात को इतना तूल दिया जाने लगता है कि उसका बतंगड़ बनने में देर नहीं लगती।

यह कैसी विडंबना है कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को लेकर हमारा कानून मौन है लेकिन उसके कारण समाज में यदि अव्यवस्था फैलती हैं तो लॉ एंड ऑर्डर का विषय बन जाता है।

आजादी के नाम पर किसी को नीचा दिखाना, जाति सूचक शब्द इस्तेमाल कर बेइज्जती करना,  धार्मिक आस्था का मजाक उड़ाना, पूजा अर्चना के तौर तरीकों पर उंगली उठाना और यहां तक कि अपने आराध्य देवी देवताओं, ईश्वर, पैगम्बर तक को विवाद में खींच लेना जायज हो जाता है।

यही नहीं तनिक भी विरोध करने पर अपने से अलग विचारधारा मानने वालों को धर्म भ्रष्ट होने का तमगा दे दिया जाता है, उन्हें जाति से बाहर कर उनका सामाजिक वहिष्कार तक कर दिया जाता है।  यह सब इसलिए होता है क्योंकि भावनाओं को भड़का कर किसी से कुछ भी करवा लिया जाना सबसे आसान है और फिर ऐसा कोई कानून भी नहीं है जिससे ऐसा करने वालों को दण्डित किया जा सके।

क्या होना चाहिए

सबसे पहले तो एक व्यक्ति के तौर पर अपनी भावनाओं पर काबू रखकर तुरंत कोई कदम उठाने से पहले अच्छी तरह किसी भी बयान, कथन या घटना के बारे में सोच विचार कर लेना चाहिए कि अनजाने में कोई हमारा फायदा तो नहीं उठा रहा और हम जो करने जा रहे हैं उसका आगे चलकर क्या नतीजा निकल सकता है।

जहां तक सरकार का संबंध है, उसे इस बात की पहल करनी ही होगी कि कोई ऐसा कानून बनाया जाय जिससे संविधान में दी गई अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का कोई गलत लाभ न ले सके। इसके लिए अगर हमारे मूलभूल अधिकारों यानी फंडामेंटल राईट्स पर भी नए सिरे से विचार करना पड़े तो भी कोई हर्ज नहीं है क्योंकि संविधान तो सर्वोपरि है ही लेकिन उससे भी ऊपर सामाजिक समरसता है और वह अगर नष्ट होने लगी तो फिर देश के एकजुट रहने में संकट की घड़ी आने से रोकना संभव नहीं है।

शुक्रवार, 20 नवंबर 2020

टेलीविजन, कितना शक्तिशाली हथियार है यह इडियट बॉक्स


विश्व संस्था संयुक्त राष्ट्र की महासभा द्वारा 21 नवंबर को विश्व टेलीविजन दिवस मनाने की घोषणा के साथ ही यह तय मान लिया गया था कि यह कोई मामूली डिब्बा नहीं है बल्कि दुनिया के ऐसे सबसे शक्तिशाली हथियारों में से एक है जो देखने में तो छोटा सा मासूम की तरह दिखाई देता है लेकिन ऑन करते ही बड़े बड़े महारथियों को हिलाने की शक्ति रखता है।

लोगों के विचार बदलने, किसी को भी पटखनी देने और घर हो या बाहर, रोजगार हो या व्यापार, किसी भी क्षेत्र में उथल पुथल मचाने का काम इसके जरिए कुछ ही मिनटों में हो सकता है।

विश्व टेलीविजन दिवस पर विशेष

हमारे देश में तीन चैथाई से ज्यादा घरों में यह महाशय विराजमान रहते हैं और अब तो मोबाइल फोन और इंटरनेट की बदौलत चलने फिरने भी लगे हैं । कहीं भी, कभी भी संसार के किसी भी कोने में होने वाली कैसी भी घटना का विवरण दिखाकर खुश कर सकते हैं, उदास कर सकते हैं और यदि कोई समाचार या दृश्य दिल को छू जाए तो विचलित करने से लेकर नींद तक गायब कर सकते हैं।

अठारहवीं शताब्दी में कैमरे से खींची गई तस्वीरों को बिजली की तरंगों के माध्यम से चलती फिरती हालत में एक जगह से दूसरी जगह पहुंचाने की खोज शुरू करने वाले वैज्ञानिक को यह अनुमान भी नहीं होगा कि उन्नीसवीं सदी में इसका इतना विस्तार हो जाएगा कि लोग इसके बिना जीवन और उससे जुड़ी बातों को जानने की कल्पना भी नहीं कर पाएंगे।

ताकत का अनुमान सही था

किसी भी देश की ताकत जानने के प्रतीक के रूप में टेलीविजन का इस्तेमाल यूरोप और अमेरिका में इस कदर बढ़ गया कि एशियाई और अफ्रीकी देशों के अविकसित देशों पर अपना वर्चस्व दिखाने की होड़ लग गई। रंगीन टेलीविजन के आविष्कार ने दुनिया भर की ताकतों को एक दूसरे से अपने को बड़ा दिखाने, किसी मामूली मतभेद को जातीय संघर्ष में बदलने और हिंसात्मक दृश्यों को घरों में पहुंचा कर नफरत का वातावरण तैयार करने में इसका इस्तेमाल मनचाहे परिणाम देने लगा।

ऐसे में दबे स्वर में इस पर अंकुश लगाने की बात उठने लगी लेकिन यह संभव नहीं था क्योंकि बोतल में बंद जिन को बाहर निकाल देने के बाद उसे काबू करना असम्भव था।

भारत में इसकी शुरुआत खबरों के दर्शन कराने से हुई जो अब तक लोग अखबारों में पढ़कर जान पाते थे। शुरू में इसे आकाशवाणी के ही एक हिस्से की तरह संचालित करने का निर्णय किया गया और जैसे जैसे इसकी जरूरत अनिवार्य प्रतीत होती गई और इससे पड़ने वाले प्रभाव का आकलन हुआ तो यह सरकार के लिए जनता पर सबसे अधिक असर डाल सकने के हथियार के रूप में साबित हुआ।

विकसित देशों में यह बक्सा अपना चमत्कार दिखा चुका था कि किस प्रकार लोगों की सोच पर पहरा लगाने से लेकर उन्हें अपने फायदे के लिए  इस्तेमाल किया जा सकता है।

हमारे देश में भी इसकी शुरुआत खबरों के जरिए सरकार द्वारा अपनी छवि का उज्जवल पक्ष दिखाने से हुई और एक ही दल कांग्रेस का प्रचार प्रसार दिखाई देने से उसके लिए देश पर शासन करने में आसानी होने लगी।

कह सकते हैं कि समाचार दर्शन के साथ शिक्षा, कृषि तथा इसी तरह के तथाकथित ज्ञानवर्धक कार्यक्रमों से लोगों की सोच को प्रभावित करने का जो सिलसिला शुरू हुआ वह आजतक कायम है और दूरदर्शन को सरकार के प्रचार तंत्र का हिस्सा बना कर रखना फायदे का सौदा बन गया। आज भी जब तब उसे स्वायत्तता देने की बात होती है लेकिन चाहे किसी भी दल की सरकार हो, इसे वह अपने ही चंगुल में फंसाए रखना चाहती है।

समाचारों और शैक्षिक तथा उपदेश देने जैसे कार्यक्रमों की श्रंखला में मनोरंजन के नाम पर शाम को फिल्म दिखाने से लोगों को घरों में ही रखने में मदद मिली। उद्देश्य यह भी रहा होगा कि लोग बाहर कम निकलेंगे तो बहुत से भेद छिपाए रखना आसान हो जाएगा।

मनोरंजन के नाम पर

इसी के साथ आस्था, भक्ति, अध्यात्म तथा प्राचीन संस्कृति का परिचय कराने के नाम पर रामायण, महाभारत जैसे धार्मिक और हमलोग, बुनियाद जैसे सामाजिक सीरियल शुरू हुए तो दूरदर्शन की शक्ति पहचानी जाने लगी जो आज तक कायम है।

अपने मन की बात करनी हो, राजनीतिक संदेश देना हो, आर्थिक मोर्चे पर कोई घोषणा करनी हो या देश से वास्तविकता छिपाए रखने का काम बड़ी सफाई से करना हो तो दूरदर्शन को इसमें उसके आकाओं की स्पष्ट दखलंदाजी से महारत हासिल है।

इसी के साथ यह भी सत्य है कि किसी घटना की विश्वसनीयता की परख करने के लिए दूरदर्शन ही सबसे अधिक भरोसेमंद चैनल है। जबकि दूसरे चैनल किसी खबर को दिखाने के लिए जबरदस्त नाटकीयता का इस्तेमाल करने में अपनी ऊर्जा और धन की शक्ति का प्रयोग करते रह जाते हैं, दूरदर्शन आज भी अपनी सादगी से उन्हें दिखाकर जरूरी प्रभाव डालने में कामयाब हो जाता है।

निजी क्षेत्र में फिल्म और मनोरंजन के कार्यक्रमों को दिखाने से शुरुआत कर प्राइवेट सेक्टर का प्रवेश हुआ तो दूसरे देशों की तरह हमारे यहां भी न्यूज चैनल शुरू करने की अनुमति देनी पड़ी। इसका असर यह हुआ कि जो चीजें सरकार छिपाने में कामयाब हो जाती थी, वे अब खुलकर सामने आने लगीं। यही नहीं उन्हें ज्यादा से ज्यादा नंगा कर दिखाने की प्रतिस्पर्धा शुरू हो गई। अब सरकार हो या विपक्ष किसी के लिए भी बहुत देर तक जनता से कुछ छिपाना या यूं कहें कि धूल झोंकना संभव नहीं रह गया है।

अगर टेलीविजन दिवस पर इस इडियट बॉक्स पर कुछ गर्व करने लायक है तो बस इतना ही कि अब सच सात पर्दों में भी नहीं छिपाया जा सकता और अब यह इतना ताकतवर है कि किसी भी तरह की उठापटक राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक क्षेत्र में कर सकने में सक्षम है।

मनोरंजन के नाम पर हिंसा, भय, यौन विकृति तथा वीभत्स दृश्यों को दिखाना या उन्हें देखना अब दर्शक वर्ग के चुनाव पर निर्भर हो गया है कि वह क्या देखना चाहता है और क्या नहीं। सरकारी हो या निजी चैनल उनकी अर्थव्यवस्था अब इस बात से चलती है कि किसकी टीआरपी पर कितनी पकड़ है।

दर्शक केवल इतना कर सकते हैं कि वे अपनी बुद्धि और विवेक के बल पर चैनलों में कार्यक्रम निर्माताओं को अपनी पसंद के हिसाब से धारावाहिक हों या टीवी फिल्म, निर्माण करने के लिए विवश करते रहें। यदि ऑडियंस यह चाहती है कि कार्यक्रम ऐसे हों जिन्हें देखने के लिए उन्हें छिपना न पड़े या परिवार के साथ न देख सकते हों तो इस टेलीविजन दिवस पर इतना ही संकल्प कर लेना बहुत है।


सोमवार, 16 नवंबर 2020

अंतरधार्मिक हो या अंतर्जातीय, विवाह, लव जिहाद नहीं है

 


विवाह को पवित्र बंधन माना गया है जो जीवन भर चलता है और पति पत्नी की कुछ जोड़ियां तो एक दूसरे के प्रति इतनी समर्पित होती हैं कि अगले जन्म से लेकर सात जन्मों तक अपने संबंधों के इसी रूप की कामना ही नहीं करतीं बल्कि उसके लिए मन्नत मांगने से लेकर उपवास, व्रत आदि भी रखती हैं।

रिश्तों का बिगड़ना

जब वैवाहिक संबंध खराब होते होते टूटने के कगार तक पहुंच जाएं तो यह बात मन में तो आती ही है कि कहीं कुछ तो गलत हुआ है, चाहे वह विवाह से पहले की जाने वाली छानबीन में कमी रही हो या फिर बाद में एक दूसरे की प्रकृति से मेल न खाने से हुआ हो या दोनों के परिवारों में से किसी एक की अनावश्यक दखलंदाजी के कारण हुआ हो।

हमारे देश में विभिन्न धर्मों के लोग रहते हैं जो अपनी एक से अधिक जातियों या बिरादरियों में बटे हुए हैं। जहां तक कामकाज करने, नौकरी, व्यवसाय, व्यापार करने की बात है, सभी आपस में किसी न किसी रूप से जुड़े होते हैं और अपनी हैसियत, ओहदे, सामाजिक, आर्थिक, पारिवारिक स्थिति के अनुसार एक दूसरे के साथ व्यवहार करते हैं और अगर थोड़ा विस्तार करें तो यह भावना या रिश्ता वसुधैव कुटुंबकम् की धारणा तक चला जाता है, मतलब कि संसार में सभी मिलजुलकर और सुरक्षा तथा एक दूसरे के प्रति विश्वास रखते हुए अनेक बातों में बिल्कुल अलग होते हुए भी एक परिवार की तरह रहें।

यह आदर्श स्थिति तब एकदम पलट जाती है जब दो व्यक्तियों के आपस में विवाह करने और जीवन भर साथ रहने का निर्णय करने की बात आती है। उस समय वे सब बातें महत्वपूर्ण हो जाती हैं जिनकी ओर कभी ध्यान नहीं जाता।  जैसे कि जो व्यक्ति शादी करना चाहते हैं, उनकी और उनके परिवार की हैसियत, रुतबा, धन, संपत्ति, जमीन, जायदाद, रहन सहन का ढंग और सबसे अधिक विचारों का मेल होने से लेकर संबंधों के निर्वाह करने के प्रति कमिटमेंट होने तक को जांचा परखा जाता है ताकि बाद में कोई परेशानी न हो और एक आदर्श स्थिति बनी रहे, चाहे परिस्थिति कैसी भी हो और उसमें कितना भी परिवर्तन हो जाए, मतलब कि साथ तो निभाना ही है।

विवाह में दरार और कानून

अक्सर जब वैवाहिक संबंधों में बिखराव, रिश्तों में कड़वाहट और एक दूसरे के प्रति अविश्वास के  कारण अलग रहने में ही भलाई नजर आने लगती है तो उसके लिए पहले तो व्यक्तिगत या पारिवारिक सलाह मशविरा या आपसी रजामंदी से विवाद को सुलझाने की कोशिश की जाती है और जब किसी भी तरह बात न बने तो कानूनन अलग होने का रास्ता अपना लिया जाता है।

यह तब अधिक आसान हो जाता है जब दोनों पक्षों के धर्म और जाति एक हों लेकिन अगर ये अलग अलग हैं तो फिर बहुत सी मुश्किलों का सामना करना पड़ सकता है। इसका कारण यह है कि सभी धर्मों में विवाह को लेकर अपने अपने कानून हैं, तलाक लेने और देने के तरीके हैं और उसके बाद बच्चों को लेकर एक दूसरे के  अधिकारों को तय करने के कानून है। इसी तरह बाकी चीजों के बारे में निर्णय करने के प्रावधान हैं।

विभिन्न धर्मों के कानूनों में यह विसंगतियां कभी कभी बहुत बड़े विवाद का कारण बनकर  जघन्य अपराध करने तक के लिए उकसाने का काम करती हैं। असामाजिक तत्वों द्वारा  साम्प्रदायिक तनाव, हिंसा और धर्म का सहारा लेकर नफरत फैलाने तक का वातावरण बनाना आसान हो जाता है। अगर सही समय पर कार्यवाही न हो तो गांव, शहर, कस्बा, प्रदेश और फिर पूरा देश इसकी चपेट में आ जाता है, जबकि बात केवल इतनी सी होती है कि अलग अलग धर्म या जाति के लड़के और लड़की ने विवाह करने का निर्णय कर लिया है। जरा सी बात का अफसाना बन जाता है और यहां तक कि कई बार सरकारें तक केवल इसी मुद्दे पर पलट जाती हैं।

धार्मिक विभिन्नता या लव जिहाद

हमारे देश में जिन धर्मों के बीच काफी समानताएं हैं जैसे कि हिन्दू और सिख तो उनके बीच जब विवाह संबंध स्थापित होते हैं तो कोई खास फर्क नहीं पड़ता लेकिन जैसे ही  मुस्लिम तथा इसाई धर्म और हिन्दू तथा सिख धर्म के पालन करने वालों के बीच विवाह जैसी घटना  होती है तो अगर समझदारी से काम न लिया गया तो बात का बतंगड़ बनने में देर नहीं लगती।

इस तरह की परिस्थिति इसलिए बनती है क्योंकि इन धर्मों के नियम, रीति रिवाज, तौर तरीके और वैवाहिक जीवन की अनेक गतिविधियों में बहुत अधिक अंतर होता है, इसलिए जरूरी यह हो जाता है कि यदि मान लीजिए हिन्दू और मुस्लिम लड़के और लड़की के बीच विवाह संबंध तय होता है तो दोनों के परिवारों को सबसे पहले एक दूसरे के धर्म की मान्यताओं को सम्मान देते हुए उन्हें अपनाने की पहल करनी होगी। इसमें ऐसा नहीं हो सकता कि एक पक्ष तो मान ले और दूसरा न माने बल्कि इस कहावत पर चलना होगा कि एक ने कही, दूजे ने मानी, बाबा कह गए दोनों ही ज्ञानी।

धर्म और जाति से अलग हटकर वैवाहिक संबंध स्थापित करने में कोई बुराई नहीं है बशर्ते कि इसका आधार अय्याशी, कट्टरपन और समाज विरोधी गतिविधियां जैसे कि आतंकवाद न हो।

दो धर्मों के मानने वालों के बीच प्रेम संबंध हो जाना और फिर विवाह कर लेने में कोई हर्ज नहीं है और समाज भी इसे इसी नजरिए से देखता है लेकिन जब इसमें निहित स्वार्थों से लेकर  राजनीतिक हितों की पूर्ति देखी जाने लगती है, तब ही भ्रम फैलता है और छोटी सी घटना विशाल आकार धारण कर लेती है।

असल में दोनों धर्मों के बीच आस्था, पूजा और तीज त्योहारों में अंतर को आधार बनाकर जब संघर्ष की स्थिति पैदा करने की नीति अपनाई जाती है तब ही हालात बिगड़ते हैं वरना तो विवाह  एक ऐसा पवित्र बंधन है जिसमें दो व्यक्तियों के मिलन के साथ दो आत्माओं का भी मिलन होता है।

इसे  लव जिहाद का नाम देकर कानून बनाने तक का फैसला करने से पहले नेताओं, बुद्धिजीवियों और समाज के प्रबुद्ध लोगों को एक साथ बैठकर चिंतन करना होगा क्योंकि कहीं ऐसा न हो कि जिस सौहार्द की डाली पर हम सभी बैठे हैं, उसी को काटकर फेंक दें और फिर एक नए विवाद को जन्म दे दिया जाए।

विभिन्न धर्मावलंबियों के बीच वैवाहिक संबंध स्थापित होने से कम से कम किसी का धर्म खतरे में नहीं आता है और न ही ऐसी परिस्थिति बनती है जिसे लेकर ज्यादा चिंता की जाय बल्कि इसे एक सामान्य सामाजिक और पारिवारिक गतिविधि के रूप में देखना ही श्रेयस्कर है।

शनिवार, 7 नवंबर 2020

कानून की कमजोर कड़ी और सरकार की नीयत से ही अपराध पनपता है

 


सामान्य नागरिक को जब प्रतिदिन वही कुछ सुनने, पढ़ने और देखने को मिले जो गैर कानूनी है, न्यायिक व्यवस्था के खिलाफ है तो उसे सरल भाषा में कहा जाय तो वह नैतिक,पारिवारिक और सामाजिक तथा आर्थिक मोर्चे पर गिरावट का प्रतीक है।

कानून और अपराध की जुगलबंदी

बलात्कार, शोषण, मारपीट, हिंसा, धोखाधड़ी और इसी तरह की घटनाएं न केवल गैर कानूनी हैं बल्कि कानून में उनके लिए कड़ी सजा का भी प्रावधान है।

क्या कभी इस पर ध्यान गया है कि अपराध करना कुछ लोगों की आदत क्यों बन जाता है? असल में जब आपराधिक मानसिकता किसी परिवार या जिस समाज में वह रहता है उसके जीवन मूल्यों का हिस्सा बन जाए तो फिर अपराध करना वैसा ही हो जाता है जैसे कि भूख लगने पर खाना खा कर अपनी मूंछों पर ताव देना या डकार मारना।

यह एक आम प्रवृत्ति है कि जब परिवार, समाज या फिर सरकार की तरफ से भी कोई नियम या कानून बनाया जाता है तो ज्यादातर लोगों की यही प्रतिक्रिया होती है: लो एक और कानून आ गया, हमें बताने चले हैं कि क्या करना है, पहले खुद तो इसे मानें, हमसे पूछ कर बनाया था, कोई हम पर अपनी मर्जी नहीं थोप सकता या फिर यह कि वैसे तो कानून में कोई कमी नहीं है लेकिन विरोधी पक्ष का होने के नाते हम इसे कतई नहीं मान सकते, चाहे कुछ भी हो जाए ।

विरोध की आदत

आगे बढ़ने से पहले एक घटना का जिक्र जरूरी है ताकि समझा जा सके कि यह आदत नाम की चिड़िया है क्या ?

कुछ समय पहले एक कॉरपोरेट संस्थान द्वारा अपने कर्मचारियों के लिए एक फिल्म बनाने का प्रस्ताव मिला। प्रबंधकों ने बताया कि उनके यहां फैक्टरी और दफ्तर में बड़ी संख्या में लोग समय पर नहीं आते और अगर कोई एक्शन लो तो लाल झंडा या फिर हड़ताल तक कर देते हैं। दूसरी बात यह कि कारखाने में कामगार लापरवाही से काम करते हैं और भारी नुकसान करते है, चाहे वेतन काट लें, सजा दे दें, कोई फर्क नहीं पड़ता क्योंकि यहां यूनियन बहुत ताकतवर है।

बहुत सोचने के बाद फिल्म बनानी शुरू की और उसमें पहला सीन यह रखा कि सुबह के नौ बजे हैं लेकिन कोई काम पर नहीं आया, दूसरा सीन दस बजे का था और कुछ लोग काम पर आते दिखाए, इसके बाद ग्यारह बजे का सीन दिखाया जिसमें सभी कर्मचारी काम पर आते और अपनी ड्यूटी करते दिखे।

इसके बैकग्राउंड में यह कमेंट्री सुनाई:

हो सकता है कि आज आप देर से उठे हों, किसी घरेलू काम से कहीं जाना जरूरी हो, कोई मिलने आ गया हो या फिर किसी भी कारण से काम पर समय से यह सोचकर न पहुंच पाए हों कि जल्दी क्या है, चले जाएंगे- नौकरी तो पक्की है। लेकिन ध्यान रखिए कि कहीं काम पर देर से जाना आपकी आदत न बन जाए और कहीं ऐसा हुआ तो जीवन में आप सभी जगह देर से पहुंचेंगे जिसकी वजह से न केवल दूसरों से पीछे रह जाएंगे बल्कि हो सकता है कि आपका कोई बहुत बड़ा नुकसान हो जाए।

यह फिल्म रोज शूट होती और अगले दिन गेट पर दिखाई जाती। कुछ ही दिनों में लगभग शत प्रतिशत लोग नौ बजे आने लगे। कारण था कि कोई भी निजी जीवन में पीछे नहीं रहना चाहता और यह समझ में आने लगा था कि देरी की आदत एक बार पड़ गई तो नुकसान अपना ही होने वाला है। कोई भी कर्मचारी अब दस या ग्यारह बजे काम पर आता हुआ दिखाई देना नहीं चाहता था।

अब दूसरी समस्या को हल करने के लिए एक ट्रेनिंग फिल्म बनाई जिसमें विस्तार से उत्पाद बनाने की प्रक्रिया दिखाई गई और उसे टी वी रूम में सब के देखने के लिए रख दिया।

इसी के साथ इस संदेश वाली फिल्म सब को दी गई कि यदि आप की समझ में प्रोसेस न आए या कहीं अटक जाएं तो तुरंत काम बंद कर दें और इसके लिए आपसे न तो कुछ पूछा जाएगा और न ही प्रोडक्शन में कमी आने की जिम्मेदारी आपकी होगी। आपको बस यह करना है कि काम रोकने के बाद टी वी रूम मे जाकर ट्रेनिंग फिल्म देखिए और समझिए कि आप क्या गलती कर रहे थे और फिर उसके अनुसार अपना काम कीजिए। फिर भी उत्पाद ठीक न बने तो अपने सुपरवाइजर को सूचित कर दीजिए और जब तक कि समाधान न निकले, कुछ मत कीजिए।

इस फिल्म का असर यह हुआ कि प्रोडक्शन तो बढ़ा ही, साथ में सही क्वालिटी का भी बनने लगा।

यह किस्सा सुनाने का अर्थ यह है कि कानून बनाने वाले कोई भी नियम बनाने से पहले यह सुनिश्चित नहीं करते कि उसके पालन करने में कोई दिक्कत तो नहीं आयेगी, बस उसकी घोषणा कर देते हैं।

वास्तविकता तो यह है कि जब कोई ऐसा नियम, कायदा, कानून बनता है जो व्यवहार में न लाया जा सकता हो, तब ही लोग उसका उल्लंघन करने, न मानने या विरोध करने पर उतारू होते हैं वरना कौन नहीं चाहता कि  कानून का पालन न करने पर मिलने वाले दंड से बचा रहे और अच्छा नागरिक भी कहलाए।

नसीहत नहीं हकीकत

मिसाल के तौर पर ट्रैफिक कानूनों को ही ले लीजिए। सड़कों पर कट, डिवाइडर, सही दूरी पर मुड़ने की जगह, चैराहे पर लाइट्स, ट्रैफिक संकेत और चलने तथा ड्राइविंग के लिए सही सड़क ठीक से न होने के कारण ही ज्यादातर लोग ट्रैफिक नियमों का पालन न करने के लिए मजबूर होते हैं।

जिस व्यवस्था में सिपाही की हल्की सी मुठ्ठी गरम करने पर जुर्माने से बचा जा सकता हो, घर पर ही बिना ड्राइविंग सीखे लाइसेंस मिल जाता हो, परिवार में ही नियम मानने पर जोर न दिया जाता हो, दुर्घटना होने पर मदद करने वाले को ही पुलिस, थाने, कचहरी के चक्कर लगाने से लेकर गुनहगार सिद्ध करने का चलन हो तो मन में कानून को लेकर क्या धारणा बनेगी, सोचना कोई रॉकेट साइंस नहीं है

इसी तरह हर वर्ष अक्टूबर नवंबर में पराली जलाने या त्योहारों पर पटाखे चलाने से होने वाले प्रदूषण की बात होती है लेकिन कभी सरकार ने इसका कोई इंतजाम नहीं किया जिससे किसान हों या आम नागरिक, कैसे यह काम करने से अपने को रोक सकते हैं ?

गलती कहां है ?

जिस देश में प्रधान मंत्री को चुनाव जीतने के लिए यह कहना पड़े कि उनकी पार्टी को वोट देने पर कोरोना की दवाई मुफ्त मिलेगी, बिना किसी ठोस योजना के लाखों लोगों को रोजगार देने का वायदा कर वोट बटोरने के लिए लॉलीपॉप दिया जाता हो, योग्यता की बजाय भाई भतीजावाद, धन, बाहु बल और भ्रष्टाचार का बोलबाला हो तो वहां कानून को ठेंगा दिखाने का चलन तो होगा ही, अपराधियों का विधान सभा और संसद सदस्य बन जाना तो मामूली बात है !

नियम कानून की अनदेखी का परिणाम टैक्स चोरी, घटिया उत्पादन, असुरक्षित सामग्री और जान का जोखिम तो होता ही है, साथ में जहां से भी खरीदो वही सामान मिलता है जिसे बनाते समय क्वालिटी का नहीं ज्यादा से ज्यादा मुनाफा  कमाने का ध्यान रखा जाता है।

अगर इस बात पर बहस हो या चिंतन किया जाय कि सामान्य व्यक्ति हो या विशिष्ट कहलाए जाने वाला अर्थात संभ्रांत,  कानून या नियम कायदों को न मानने या उनकी धज्जियां उड़ाने के लिए क्यों तत्पर ही नहीं बल्कि अपना धर्म तक समझने लगता है तो यही बात सामने आयेगी कि इसके पीछे नासमझी, बिना किसी विश्लेषण, जरूरत से ज्यादा कड़ाई और अपने निजी स्वार्थों की पूर्ति पर ही सबसे ज्यादा ध्यान देना है।

किसी भी कानून की अवज्ञा, उसका विरोध, आंदोलन या उसका कचरे की पेटी में फेंक दिया जाना और उसका इस्तेमाल केवल तब करना जब उससे किसी दल, सरकार या सत्ताधारियों का मतलब पूरा होता हो या आम जनता को अपनी ताकत का एहसास कराना हो, तब ही ऐसे हालात बनते हैं जिनसे अराजकता फैलती है।  कर्फ्यू, लाठी चार्ज, गोली चलाने से लेकर किसी भी प्रकार से दमन करना न्यायसंगत हो जाय और नैतिक मूल्यों की बात तो छोड़िए, परिवार और समाज को बचाए रखना मुश्किल ही नहीं, असंभव जैसा लगने लगता है।

सरकार को कोई कानून बनाने के बाद उसमें ढिलाई क्यों देनी पड़ती है, एमनेस्टी और रियायत देने को क्यों विवश होना पड़ता है, यह तब ही होता है जब कानून बनाने का आधार नैतिक और सामाजिक मूल्यों का बलिदान कर देना होता है।

बड़ा हो या छोटा कोई भी कानून हो, जैसे कि नोटबंदी, जीएसटी, नागरिकता से लेकर नए कृषि कानून की फजीहत या फिर टैक्स में राहत के नाम पर शिकंजे को और अधिक मजबूत करना, सामान्य व्यक्ति को यह लगना कि कानून या नियम अव्यावहारिक ही नहीं, अनैतिक भी है तो फिर अव्यवस्था तो होगी ही, कानून तोड़ना ही विकल्प बन जाएगा और तरक्की के रास्ते बंद होने की नौबत तो आयेगी ही, ऐसी हालत में या तो अपने को कोसने या फिर विद्रोह तक करने के अतिरिक्त और कुछ उपाय बचता ही कहां है ?