शुक्रवार, 23 सितंबर 2022

सृष्टि के अनुसार मनुष्य और पशु पक्षी एक दूसरे पर निर्भर तथा पूरक हैं


अक्सर इंसान और जानवर के बीच संघर्ष होने, एक दूसरे पर हमला करने की वारदात होती रहती हैं। मनुष्य क्योंकि सोच सकता है इसलिए वह अपने लाभ के लिए उनकी नस्ल मिटाने में भी संकोच नहीं करता जबकि प्रकृति की अनूठी व्यवस्था है कि दोनों अपनी अपनी हदों में एक साथ रह सकते हैं।


प्राकृतिक संतुलन

देश में चीते समाप्त हो गए थे और जानकारों के मुताबिक उससे प्राकृतिक संतुलन में विघ्न पड़ रहा था, इसलिए उन्हें फिर से यहां बसाया जा रहा है। कुछ तो महत्वपूर्ण होगा कि यह कवायद की गई। चीता सबसे तेज दौड़ने वाला जीव है, अपनी हदें पार न करने के लिए जाना जाता है, जैव विविधता और इकोसिस्टम बनाए रखने में सहायक है। वन संरक्षण के लिए जरूरी जानवरों की श्रेणी में आता है जैसे शेर, बाघ, तेंदुआ, हाथी, गैंडा जैसे बलशाली, भारी भरकम और बहुउपयोगी पशु हैं।

सभी पशु पक्षी मनुष्य के सहायक हैं लेकिन यदि उनके व्यवहार को समझे बिना उनके रहने की जगह उजाड़ने की कोशिश की जाती है तो वे हिंसक होकर  विनाश कर सकते हैं। उदाहरण के लिए हाथी जमीन को उपजाऊ बना सकता है लेकिन उसे क्रोध दिला दिया तो पूरी फसल चैपट कर सकता है। इसी तरह गैंडा कीचड़ में रहकर मिट्टी की अदलाबदली का काम करता है, प्रतिदिन पचास किलो वनस्पति की खुराक होने से जंगल में कूड़ा करकट नहीं होने देता और उसके शरीर पर फसल के लिए हानिकारक कीड़े जमा हो जाते हैं, वे पक्षियों का भोजन बनते हैं और इस तरह संतुलन बनाए रखते हैं। लेकिन यदि वह विनाश पर उतर आए तो बहुत कुछ नष्ट कर सकता है।

हाथी के दांत और गैंडे के सींग के लिए मनुष्य इनकी हत्या कर देता है जबकि ये दोनों पदार्थ उसकी कुदरती मौत होने पर मिल ही जाने हैं। इन पशुओं के सभी अंग और उनके मलमूत्र दवाइयां बनाने से लेकर खेतीबाड़ी के काम आते हैं और कंकाल उर्वरक का काम करते हैं। ये दोनों पशु कीचड़ में रहकर दूसरे जानवरों के पीने के लिए किनारे पर पानी का इंतजाम करते हैं और सूखा नहीं पड़ने देते, सोचिए अगर ये न हों तो जंगल में प्यास, गर्मी और सूखे से क्या हाल होगा?

मांसाहारी पशु शाकाहारियों का शिकार करते हैं और उनकी आबादी को नियंत्रित करने का काम करते हैं। जो घास फूस खाते हैं, वे वनस्पतियों को जरूरत से ज्यादा नहीं बढ़ने देते और इस तरह जंगल में अनुशासन बना रहता है। इसका प्रभाव मनुष्य पर पड़ता है और वह प्राकृतिक संतुलन होने से मौसम का मिजाज बिगड़ने से होने वाले नुकसान से बचा रहता है। यदि हम वन विनाश करते हैं, अंधाधुंध जंगलों को नष्ट करते हैं तो उसका सीधा असर हम पर पड़ता है।


निर्भरता

बहुत से पशु पक्षी ऐसे हैं जो न हों तो मनुष्य का जीना मुश्किल हो जाएगा। चमगादड़ जैसा जीव कुदरती कीटनाशक है। यह एक घंटे में खेतीबाड़ी के लिए हानिकारक एक हजार से अधिक कीड़े मकोड़े खा जाता है। मच्छरों को पनपने नहीं देता और इस तरह कृषि और उसमें इस्तेमाल होने वाले जानवरों और दुधारू पशुओं की बहुत सी बीमारियों से रक्षा करता है। उदाबिलाव जैसा जीव बांधों और तालाबों में जमीन की नमी और हरियाली बनाए रखता है। इससे सूखा पड़ने पर आग नहीं लग पाती। वेटलैंड का निर्माण भी करते हैं और जरूरी कार्बन डाइऑक्साइड का भंडार देते हैं।

मधुमक्खी, तितली और चिड़ियों की प्रजाति के पक्षी अन्न उगाने में किसान की भरपूर सहायता करते हैं। परागण में कितने मददगार हैं, यह किसान जानता है। पेस्ट कंट्रोल का काम करते हैं। गिलहरी को तो कुदरती माली कहा गया है। केंचुआ जमीन को उपजाऊ बनाने के लिए कितना जरूरी है, यह किसान जानता है।

हमारे जितने भी पाले जा सकने योग्य जानवर और दूध देने वाले पशु हैं, उनकी उपयोगिता इतनी है कि अगर वे न हों या उनकी संख्या में भारी कमी हो जाए तो मनुष्य की क्या दशा होगी, इसकी कल्पना की जा सकती है। गाय, भैंस, गधे, घोड़े, बैल, सांड से  लेकर कुत्ते बिल्ली तक किसी न किसी रूप में मनुष्य के सहायक हैं। इसीलिए कहा जाता है कि पशु पक्षी आर्थिक संपन्नता के प्रतीक हैं।

हमारी अर्थव्यवस्था को मजबूत बनाने वाले घटकों में पर्यावरण संतुलन, वन संरक्षण, जैव विविधता और मजबूत इकोसिस्टम आता है। हमारा औद्योगिक विकास इन्हीं पर निर्भर है। इसके साथ ही पर्यटन, मनोरंजन, खेलकूद और जीवन के लिए आवश्यक वस्तुएं जुटाने के लिए वन विकास और वन्य जीव संरक्षण जरूरी है। यह समझना सामान्य व्यक्ति के लिए आवश्यक है।

आज विश्व में इस बात की होड़ है कि गंभीर बीमारियों की चिकित्सा के लिए औषधियों की खोज और निर्माण के लिए भारतीय जड़ी बूटियों और पारंपरिक नुस्खों को प्राप्त किया जाए। इसके लिए अंतरराष्ट्रीय षडयंत्र हो रहे हैं और इस बहुमूल्य संपदा की तस्करी करने वाले बढ़ रहे हैं। यह एक तरह से अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारने जैसा है क्योंकि लालच में आकर हम जो कर रहे हैं वह विनाश का निमंत्रण है।

इस स्थिति में सुधार तब ही संभव है जब सामान्य व्यक्ति यह समझ सके कि मनुष्य और पशु एक दूसरे पर न केवल निर्भर हैं बल्कि पूरक भी हैं। दोनों का अस्तित्व ही खुशहाली का प्रतीक है। यदि जंगल से एक जीव लुप्त हो जाता है तो उसका असर सम्पूर्ण पर्यावरण पर पड़ना स्वाभाविक है। चीता इसका उदाहरण है। इस लुप्त हो गए जीव को फिर से स्थापित करने का प्रयास यही बताता है कि किसी भी भारतीय पशु के लुप्त होने का क्या अर्थ है। इसलिए आवश्यक है कि यह समझा जाए कि इसके क्या कारण हैं?

यदि हम गैर कानूनी शिकार, जानवरों की बस्तियों में इंसान के दखल और थोड़े से पैसों के लाभ को छोड़ने का मन बना लें तो कोई कारण नहीं कि इनकी उपयोगिता समझ में न आए।

औद्योगिक विकास देश की अर्थव्यवस्था के लिए आवश्यक है लेकिन यदि इससे जलवायु परिवर्तन और प्राकृतिक असंतुलन पैदा होता है तो दोबारा सोचना होगा। आधुनिक विज्ञान ने इतनी प्रगति कर ली है कि बिना वन विनाश किए उद्योग स्थापित किए जा सकते हैं। यह प्राकृतिक असंतुलन का ही परिणाम है कि हमें प्रति वर्ष अतिवृष्टि या अत्यधिक सूखे का सामना करना पड़ता है। इससे बचना है तो प्रकृति के साथ टकराव नहीं, सहयोग करने की आदत डालनी होगी।


शुक्रवार, 16 सितंबर 2022

प्रसन्न रहने की आदत या दुःख को स्वीकार करना अपने हाथ में है


इस बात का कोई निश्चित पैमाना नहीं है कि एक व्यक्ति क्यों खुश रहता है और लगभग वैसी ही परिस्थितियों में दूसरा क्यों दुःख का अनुभव करता है ? असल में हमारा दिमाग किसी भी घटना चाहे वह कैसी भी हो, उसके बारे में दो तरह से प्रतिक्रिया करता है। एक तो यह कि जो हुआ उस पर वश नहीं इसलिए उसे सहज भाव से स्वीकार कर लेने में ही भलाई है और दूसरा यह कि आखिर मेरे साथ ही ऐसा क्यों हुआ जो यह दिन देखना पड़ा, इसे खु़द पर हावी होने देना।

सब कुछ वश में नहीं होता

अक्सर जीवन में ऐसा कुछ होता रहता है, ऐसे मोड़ आते हैं और इस तरह के हालात बन जाते हैं जिनसे  व्यक्ति स्वयं को किसी मुसीबत में घिरा हुआ और असहाय महसूस करता है। बाहर निकलने के लिए  कोई उपाय नहीं सूझता, उम्मीद लगाता है कि एक तिनके की तरह किसी का सहारा मिल जाए या अचानक कोई रास्ता निकल आए ।

दूसरा विकल्प यह रहता है कि निराशा के भंवर में डूबने के बजाए अपने को उस वक्त तक के लिए तैयार कर लिया जाए जब तक परिस्थितियां सामान्य न हो जाएं। कहने का अर्थ यह कि हर किसी को अपनी समस्या का हल स्वयं ही निकालने के लिए अपने को तैयार करना होता है और जो करना है उसकी भूमिका से लेकर अंतिम प्रयास तक की रूपरेखा बनाने और उस पर अमल करने की जिम्मेदारी अपने ऊपर लेनी पड़ती है।

उदाहरण के लिए मान लीजिए कि आपके साथ कोई व्यक्तिगत या पारिवारिक त्रासदी हुई है, कुछ ऐसा हुआ है कि वह हर समय मन पर छाया रहता है, उस घटना ने मानसिक रूप से डावांडोल और विचलित कर दिया है, उसका असर शरीर यानी सेहत पर पड़ने लगा है,  अनमनेपन का भाव और अकेले रहने की आदत बनती जा रही हो तो समझिए कि मामला गंभीर है।

किसी दुर्घटना या जो हुआ उसे बदलना आम तौर से संभव नहीं होता, इसलिए इस तथ्य को स्वीकार करना ही पड़ता है कि जिस चीज के होने पर हमारा वश नहीं तो उसे लेकर हमारी दिनचर्या क्यों प्रभावित हो। क्या ऐसा नहीं हो सकता कि वह घटना हम पर हावी न हो और हम पहले की तरह अपना काम करते रहें। व्यवहार में बदलाव न आने दें और सहज भाव से जो हुआ या हो रहा है, स्वीकार करते हुए आगे जो होगा, उसे भी इसी रूप में लेने के लिए अपने को तैयार कर लें। ऐसा करने का सबसे बड़ा लाभ यह होगा कि शरीर और मन एक स्वस्थ वातावरण का निर्माण करने के लिए स्वतंत्र होकर तत्पर हो जायेगा।

सुख या दुःख का हावी होना

दुःख हो या सुख, उसे अपने मन पर अधिकार कर लेने देने का कोई औचित्य नहीं क्योंकि दोनों ही हमेशा अपने साथ रहने वाली चीजें नहीं हैं । बेहतर तो यही है कि दोनों को ही कपड़ों पर पड़ी धूल की तरह छिटक देने का प्रयास ही उन्हें हावी न होने देने के लिए काफी है।

दुःख के बेअसर करने की प्रक्रिया यह है कि आप जो काम करते हैं, नौकरी या किसी व्यवसाय का संचालन करते हैं, उसमें पहले से ज्यादा जुट जाएं ताकि जिस चीज ने आपको विचलित किया हुआ है और जिसकी वजह से सुख चैन छिन गया लगता है, उसका ध्यान ही न रहे। अधिक श्रम चाहे मानसिक हो या शारीरिक, थकाने के लिए काफी है और इससे आप को आराम करने, सोने और जो हुआ, उसे याद न करने अर्थात भुलाने में मदद मिलेगी। इससे जल्दी ही वह क्षण आ सकता है जिसमें वह बात याद ही न रहे जिसने आपके खुश रहने में रुकावट डाली है।

यही प्रक्रिया तब भी अपनाई जा सकती है जब हमें कोई अपार सफलता प्राप्त हुई हो और जिसके परिणामस्वरूप प्रसन्नता स्वाभाविक रूप से मिल गई हो और आप उससे फूले न समा रहे हों। मान कर चलिए कि जिस तरह दुःख की सीमा तय है, उसी तरह सुख की अवधि भी सीमित है। इसलिए उसे भी अगर धूल समझकर छिटकना न चाहें तो कम से कम उसे अपने से लिप्त न होने दें क्योंकि न जाने कब वह आपसे दूर चली जाए और आप उसकी याद से ही बाहर न निकल सकने के कारण अपना वर्तमान स्वीकार न कर सकें और हमेशा उसकी याद से अपने भूतकाल से ही जूझते रहें।

एक बात और है और वह यह कि प्रसन्नता या खुशी और दुःख ऐसी वस्तुएं नहीं हैं जो बस हो जाएं या अचानक मिल जाएं। यह प्रत्येक व्यक्ति के अंतर में पहले से ही विद्यमान हैं। इसका मतलब यह कि उन्हें समझने के लिए अपने साथ दोस्ती करनी पड़ेगी, अपने मन को लेकर स्वार्थी बनना होगा। वास्तविकता यह है कि किसी अच्छी बुरी घटना का प्रभाव गरम तवे पर पड़े पानी के छीटों की तरह अधिक समय तक नहीं रहेगा।

यह कुछ ऐसा है जैसे कि अपनी कहानी आप स्वयं लिख रहे हैं, इससे किसी दूसरे का कोई लेना देना नहीं है।  आपकी भावनाओं पर केवल आपका अपना अधिकार है, इसमें किसी दूसरे की दखलंदाजी नहीं है। मतलब यह कि इस मानसिक कसरत के बाद यदि आपने इस बात के लिए अपने को तैयार कर लिया है कि कोई क्या कहता है, उसका असर अपने ऊपर हावी नहीं होने दिया तो खुश रहने से वंचित नहीं रहा जा सकता। कैसे भी हालात हों, उनके अनुसार अपने मन को तैयार कर लेना ही किसी भी अच्छी बुरी घटना को स्वीकार करते हुए जीवन जीने की कला है।

इससे होगा यह कि किसी होनी या अनहोनी के लिए आप न तो स्वयं को व्यक्तिगत रूप से जिम्मेदार मानेंगे और न ही बिना भली भांति विचार किए किसी अन्य को दोषी मानेंगे। इससे होगा यह कि मन बेकार में तनाव से ग्रस्त नहीं होगा और जो भी परिस्थिति है उस पर सकारात्मक सोच से निर्णय लेने में सक्षम होगा। नकारात्मक विचारों से प्रभावित न होकर किसी भी समस्या का हल निकालने में सक्षम हुआ जा सकता है। इसका एक सबसे बड़ा लाभ यह होगा कि जीतना या हारना महत्वपूर्ण न होकर सही फैसला लेना ही उद्देश्य होगा और तब जो हासिल होगा, वही अपने को खुशी प्रदान करेगा।

तालमेल जरूरी है

वर्तमान समय कुछ ऐसा है कि बड़े शहरों की आपाधापी और दौड़भाग और सब कुछ जल्दी से जल्दी प्राप्त कर लेने की प्रवृत्ति ग्रामीण क्षेत्रों में भी बहुत तेजी से बढ़ रही है। देखा जाए तो यह समाज का एक स्वाभाविक स्वरूप है क्योंकि जब माह, सप्ताह, दिन और घंटों की दूरियां कुछ पलों में सिमट जाएं तो नगरों और गांवों को एक दूसरे के प्रभाव में आकर होने वाले बदलाव से रोकना संभव नहीं है।

जब व्यक्तिगत हो या पारिवारिक, खुश रहना अपनी आदत बन जाए तो फिर सकारात्मक परिणाम हों या नकारात्मक, कोई अंतर नहीं पड़ता। असल में होता यह है कि जब समाज को हर हाल में खुश रहने की आदत पड़ जाती है तो वह अधिक तेजी से आगे बढ़ता है क्योंकि उसकी प्रतियोगिता किसी दूसरे से नहीं बल्कि अपने आप से होती है। उसका कोई भी शत्रु उस पर विजयी नहीं हो पाता क्योंकि उसे प्रसन्न होकर अपना काम करना आता है।

निष्कर्ष यही है कि प्रसन्न रहना है तो स्वयं को केंद्र में रखकर व्यवहार करना सीखना होगा, इसे निजी स्वार्थ न कहकर प्रकृति के साथ संतुलन बनाकर जीना कहना ठीक होगा।  


शुक्रवार, 9 सितंबर 2022

शिक्षा या साक्षरता में कमी होगी तो देश का पिछड़ना तय है

 

विश्व साक्षरता दिवस हर साल आठ सितंबर को मनाया जाता है। हमारे देश में भी इसकी खानापूर्ति की जाती है। इस साल तो अध्यापक दिवस पर यह घोषणा भी सुनी कि देश में साढ़े चैदह हजार स्कूलों का कायाकल्प किए जाने का इंतजाम किया गया है जो अगले पांच सात साल में पूरा होगा।

बेशक हम आजादी का अमृत महोत्सव मना रहे हैं लेकिन शिक्षा के मामले में इतने पीछे हैं कि हमारे देश की गिनती सबसे कम साक्षर देशों में नीचे से कुछ ही ऊपर है। साक्षरता दर लगभग सत्तर प्रतिशत है, मतलब यह कि बाकी आबादी पढ़ना लिखना नहीं जानती जिनमें महिलाएं तो आधी से ज्यादा अनपढ़ हंै। यह शर्म की बात तो है ही, साथ में सरकारी शिक्षा और साक्षर बनाने वाली नीतियों का खोखलापन भी है।

विज्ञान की अनदेखी

अगर उन कारणों पर गौर करें जिनकी वजह से पढ़ाई लिखाई और अक्षर ज्ञान को लेकर कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई देती तो वह यह है कि अब तक शिक्षा देने का जो तरीका या ढांचा रहा है, उसमें बचपन से ही बेमतलब के विषयों को पढ़ना जरूरी बना दिया गया। जिन विषयों से जिंदगी जीने की राह निकलती हो, उनकी अनदेखी की जाती रही । पढ़ने वाले के मन में जब यह बात गहरी होने लगती है कि जो पढ़ाया जा रहा है, उससे व्यापार, रोजगार, नौकरी तो आसानी से मिलनी नहीं, केवल डिग्री मिलेगी तो वह पढ़ कर क्या करे? देहाती इलाकों में माता पिता भी सोचते हैं कि इससे तो अच्छा है कि बालक खेतीबाड़ी या घरेलू कामधंधा कर उनका सहारा बने तो वे भी स्कूल जाने पर जोर नहीं देते।

इसका कारण यह है कि विज्ञान की पढ़ाई को लेकर एक तरह का हौवा बना दिया गया कि यह बहुत खर्चीली है, इसमें पास होना मुश्किल है, हमारी औकात से बाहर है और यह पैसे वालों के लिए है या जिन्हें अपने बच्चों को डॉक्टर, इंजीनियर बनाना है, जबकि ऐसा कतई नहीं है। यदि बचपन से यह शिक्षा दी जाए कि आसपास का वातावरण, पशु पक्षी का साथ, प्रकृति के साथ तालमेल और जीवन यापन के लिए आवश्यक वस्तुएं हमारे चारों ओर बिखरी हुई हैं तो चाहे लड़का हो या लड़की, पढ़ाई के प्रति उसकी रुचि न हो, तो यह हो नहीं सकता।  मां बाप भी ऐसी शिक्षा प्राप्त करने के बारे में उसे स्वयं ही प्रोत्साहित करेंगे क्योंकि ऐसा न करने का उनके पास कोई कारण नहीं होगा। वे अपने बच्चों को राजी खुशी या जबरदस्ती पढ़ने भेजेंगे।

जीवन से जुड़ी पढ़ाई

अगर यह समझाया जाए कि बुलेट ट्रेन के आगे का हिस्सा नुकीला होने की प्रेरणा किंगफिशर पक्षी से मिली, हवाई जहाज और हेलीकॉप्टर बाज की तर्ज पर बने हैं, एक प्रजाति के जंगली चूहे सौ मील दूर तक सूंघ सकते हैं या फिर मेढ़क के फुदकने को समझने से आरामदायक जूते बनाए जा सकते हैं तो फिर कौन इन सब बातों पर ध्यान देना नहीं चाहेगा?  इसी तरह कमल के फूल की पंखुड़ियों पर धूल या गंदगी का असर नहीं होता और उससे पहनने लायक कपड़े बनाए जा सकते हंै। नारियल के पेड़ों के तने और भिंडी जैसी सब्जी से वस्त्र बनाए जा सकते हैं तो विद्यार्थी में इसके बारे में जानने की उत्सुकता अवश्य होगी।

अगर उसे स्कूल में यह पढ़ाया जाए कि खेती में इस्तेमाल होने वाले हल, ट्रैक्टर ट्रॉली, अन्य औजार कैसे आधुनिक बनते हैं या फिर बताया जाए कि कचरे, वेस्ट डिस्पोजल से कैसे ऊर्जा बनती है, बरसाती पानी को बचा कर कैसे रखा जाए, बाढ़ और सूखे से कैसे निपटा जाए और प्राकृतिक संसाधनों का इस्तेमाल विभिन्न आपदाओं से बचाने में किस प्रकार मदद कर सकता है, साधारण बीमारियों को आदिवासी क्षेत्रों में मिलने वाली औषधियों से ठीक किया जा सकता है और इसी तरह की सामान्य जीवन से जुड़े विषयों को सिलेबस में रखा जाएगा तो किसे पढ़ने से ऐतराज होगा !


शिक्षा नीति और विज्ञान

नई शिक्षा नीति में विज्ञान की शिक्षा को लेकर बहुत कुछ कहा गया है। उस पर अमल हो जाए तो निरक्षरता दूर करने और शिक्षा को जन जन तक पहुंचने में मदद मिलेगी। इसमें स्कूलों का समूह बनाकर उन्हें विज्ञान शिक्षा के केंद्र तैयार करने की महत्वाकांक्षी योजना है। इसी तरह चलती फिरती प्रयोगशालाओं को बनाने का लक्ष्य है। ये सभी स्कूलों, शिक्षा संस्थानों से जुड़कर विद्यार्थियों को कुदरत की प्रक्रिया समझने में सहायक होंगी।

एक सीमित संख्या में विद्यालयों को आधुनिक सुविधाओं से लैस करने, सीखने के नवीनतम तरीकों का इस्तेमाल करने से लेकर विद्यार्थियों में प्रदूषण नियंत्रण करने की विधि जानने, ऊर्जा स्रोतों, जल, जंगल जमीन से जुड़ी बातों को समझने, पौष्टिक भोजन, स्वस्थ रहने और खेलकूद को भी पढ़ाई जितना महत्व देने की बात कही गई है। इनमें प्रकृति से तालमेल रखना सिखाया जाएगा क्योंकि कुदरत की प्रक्रिया को समझना ही विज्ञान है।

यदि ये स्कूल स्थापित हो जाते हैं, लालफीताशाही और नेताओं की नेतागिरी का शिकार नहीं बनते तो शिक्षा के क्षेत्र में आमूल चूल परिवर्तन होने की उम्मीद की जा सकती है।

अशिक्षा और निरक्षरता का एक और बड़ा कारण  जनसंख्या का बेरोकटोक बढ़ते जाना है। विज्ञान की शिक्षा इस पर भी लगाम लगा सकती है। शिक्षित होने और साक्षर होने का अंतर यही है कि एक से हमें जीवन जीने के सही तरीके पता चलते हैं और दूसरे से अपना भला बुरा और नफा नुकसान समझने की तमीज आती है।

यूनेस्को ने जब अंतरराष्ट्रीय साक्षरता दिवस मनाए जाने की घोषणा की तो तब मकसद यही था कि दुनिया भर के लोग इतना तो अक्षर ज्ञान हासिल कर ही लें कि अनपढ़ न कहलाएं ताकि कोई उन्हें मूर्ख न बना सके। दुर्भाग्य से भारत में लगभग एक तिहाई आबादी निरक्षर है, पढ़ लिख नहीं सकती और मामूली बातों के लिए दूसरों पर निर्भर रहती है।

यदि देश को शत प्रतिशत शिक्षित और साक्षर बनाना है तो सबसे पहले पढ़ने लिखने की सामग्री, विषयों का चयन करने में सावधानी और शिक्षा देने में आधुनिक तरीकों का इस्तेमाल करना होगा। हमारे देश में शिक्षकों की भारी कमी है और उन्हें तैयार करने में वक्त भी बहुत लगता है। कोरोना महामारी ने इतना सबक तो सिखा ही दिया है कि बिना संपर्क में आए या आमने सामने न होने पर किस प्रकार पढ़ाई की जा सकती है। आज सैटेलाइट द्वार शिक्षा को दूर दराज के क्षेत्रों तक सुगमता से पहुंचाया जा सकता है। वर्चुअल क्लासरूम और मोबाईल टेक्नोलॉजी तथा रोबोट तकनीक का इस्तेमाल एक सामान्य बात है। जरूरत इस बात की है कि इसे सस्ता और सुलभ कर दिया जाए। इससे पूरे देश को एक ही समय में एक शिक्षक द्वारा अपनी बात समझाई जा सकती है।

किसी भी समाज के पतन के सबसे बड़े चार कारण गरीबी, निरक्षरता, जनसंख्या और बेरोजगारी हैं। इनसे मुकाबला करने का एक ही रामबाण उपाय है और वह है सही शिक्षा। क्या यह जरूरी है कि हम देशी, विदेशी शासकों की जीवनियां, प्राचीन इतिहास के विवरण, जो भूतकाल है उस की खोजबीन, यहां तक कि सांस्कृतिक विरासत, परंपराओं के चलन जैसे विषयों को पढ़ने पढ़ाने पर जोर दें और जो जिंदगी को जीने लायक बनाने में मदद करें, उससे विद्यार्थियों को दूर रखें। ये विषय केवल वे पढ़ें जिनकी इनमें रुचि हो, उनके कैरियर की संभावना हो लेकिन हर कोई तारीखों को याद रखने, शासकों के कारनामों, युद्धों के विवरणों और अत्याचारों या सुशासन को लेकर पूछे जाने वाले सवालों के जवाब रटने में अपना समय और धन क्यों नष्ट करे ?

शिक्षा हो या साक्षरता, वही सही है जो जीवन की दशा और दिशा निर्धारित करने में सहायक हो। यह काम स्वतंत्रता प्राप्त करने के बाद से ही शुरू हो जाना चाहिए था। अगर तब हो जाता तो हम आज यह नहीं सोच रहे होते कि पूरी आबादी शिक्षित या साक्षर क्यों नहीं हैं?

यहां एक बात और स्पष्ट करनी होगी कि शिक्षा नीति तब ही सफल हो सकती है जब वह बिना आर्थिक, सामाजिक और धार्मिक भेदभाव के प्रत्येक व्यक्ति के लिए समान रूप से सुलभ हो, उसमें स्वस्थ प्रतियोगिता करने की भावना हो और निराशा का कोई स्थान न हो। यह काम केवल विज्ञान, वैज्ञानिक ढंग से की गई पढ़ाई और आधुनिक सोच बनाने से ही हो सकता है, इसके अतिरिक्त कोई अन्य उपाय नहीं है जो हमारी एक बड़ी आबादी पर लगे अशिक्षित और निरक्षर होने का कलंक दूर कर सके।