शुक्रवार, 28 सितंबर 2018

स्वच्छ, स्वस्थ और समृद्ध भारत का सपना









बीमारी बढ़ाए गरीबी

हमारे देश में लगभग एक करोड़ लोग इसलिए हर साल गरीब बन जाते हैं क्योंकि किसी न किसी गम्भीर बीमारी की बजह से उनकी नौकरी छूट जाती है, काम धंधा बंद हो जाता है और वे काफी समय तक कोई रोजगार करने लायक नहीं रहते। यहाँ तक कि कई बार तो घरबार खेत खलिहान जेवर बर्तन भांडे सब डाक्टरों की भेंट चढ़ जाता है।
फिर से कुछ कमाने लायक बनने में महीनों लग जाते हैं। कुछ बीमारियों के कारण उनकी कार्य क्षमता इतनी कम हो जाती है कि वे पहले की तरह न तो काम कर पाते हैं और न ही दोबारा उन्हें कोई नौकरी या रोजगार मिलता है।


आदत बदलने की शुरुआत

साफ सफाई से रहने, खुले में शौच न करने और शौचालय बनवाने और उनका इस्तेमाल करने के प्रति उस समाज की सोच में काफी बदलाव आया है जो इन बातों को अब तक बड़े लोगों के चोंचले और पैसे का दुरुपयोग समझता था। अब उसकी सूरत और सीरत के साथ आदत भी बदल रही है। यह अब लोगों की समझ में आने लगा है कि गंदगी ही ज्यादातर बीमारियों की जड़ है।

जब किसी गरीब के यहाँ कोई बीमार पड़ता है तो सबसे पहली समस्या यह होती है कि उसे कौन अस्पताल ले जाएगा, कौन देखभाल करेगा और कौन जाँच पड़ताल और दवाइयों का खर्च उठाएगा। दुर्भाग्य से हमारे देश की हकीकत यह है कि कमाने वाला एक और खाने वाले दस या दस भी कमाएँ तो एक को बिठाकर खिला नहीं सकते, तीमारदार बनकर सेवा करना तो दूर की बात है।


इन हालात का दोष किसी को देने से बात नहीं बनती इसलिए सरकार की घोषित आयुष्यमान योजना से कुछ उम्मीद है कि गरीब के दिन बहूरेंगे और वह बेफिकर होकर बीमार पड़ने पर अपना इलाज करा सकेगा।
कुछ वर्ष पहले जब गुजरात में नरेंद्र मोदी सरकार थी तो वहाँ प्रचलित ‘चिरंजीवी‘ योजना पर एक फिल्म बनानी थी। इसमें गर्भवती महिला को प्रसव के लिए ले जाने, अस्पताल में बिना किसी खर्च के शिशु को जन्म देने और एक माह तक उसकी देखभाल करने का खर्च सरकार द्वारा दिया जाता था।


एक बड़े क्लीनिक के संचालक ने बताया कि वह एक प्रसव के डेढ़ लाख तक कमाता था और अब उसे पाँच प्रसव के लिए इतने ही पैसे सरकार से मिलते हैं। गनीमत है कि वर्तमान स्टाफ से ही यह पूरा काम हो जाता है। कोई अतिरिक्त खर्च नहीं होता। आगे बताया कि सी एम (मोदी) का डंडा ऐसे ही चलता है।
विशेष एम्बूलेंस दूर दराज के इलाकों से गर्भवती महिलाओं को गाँव में आशा वर्कर की मदद से अस्पताल लाती थी और स्वस्थ होने पर छोड़ने आती थी।


कोई भी जनहित की योजना तब तक सफल होना नामुमकिन है जब तक उसे अमल में लाने के लिए पूरी नाकेबंदी न की जाए। गरीबी में रह रहे दस करोड़ परिवारों को उसके पाँच सदस्यों के लिए पाँच लाख का बीमा कवर साधारण मदद नहीं है। ट्रान्स्पोर्ट से लेकर जाँच, इलाज ऑपरेशन और दवाइयों तक का खर्च सरकार द्वारा उठाने का इंतजाम भी मामूली बात नहीं है। इस योजना से लाखों लोगों के रोजगार की भी सम्भावनाएँ हैं। आयुषमान मित्र, कॉल सेंटर, रीसर्च सेंटर और बीमा कारोबारी इससे जुड़ेंगे तो स्वस्थ भारत का सपना साकार हो सकता है। फिलहाल इसके लिए हेल्पलाईन नम्बर 1455 की घंटी बजने लगी है।


परिवार और समाज को खुशहाल बनाने की किसी भी कोशिश का स्वागत होना चाहिए चाहे वह सरकार करे या कोई निजी संस्थान, मकसद तो एक ही है कि देश स्वच्छ, स्वस्थ और समृद्ध हो जिससे किसी भी दल या नेता को एतराज नहीं होना चाहिए।


ढोल की पोल और भ्रष्टाचार 

सरकार का ध्यान इस ओर भी जाना चाहिए की बीमा कम्पनी और निजी अस्पताल किस प्रकार उन लोगों का शोषण करते हैं जो गरीबी की परिधि में नहीं आते। एक उदाहरण से बात समझ में आ जाएगी जिससे वर्तमान योजना को ठीक से लागू करने में भी मदद मिलेगी।


बीमाधारक से गैर बीमाधारक के मुकाबले बीमा कम्पनी से निजी अस्पताल पच्चीस से पचास प्रतिशत तक ज्यादा चार्ज करते हैं। बीमा धारक इस पर ध्यान नहीं देता हालाँकि बढ़े प्रीमीयम के रूप में यह उसी की जेब से निकलता है। कम्पनी और अस्पताल की मिलीभगत से लूट का यह ऐसा गड़बड़झाला है जिसे रोकने के लिए अगर सरकार कोई कार्यवाही करे तो बीमा पॉलिसी का प्रीमीयम काफी कम हो सकता है और धारकों को सहूलियत। यह ढोल की पोल वर्तमान योजना में न हो इसकी यह चेतावनी है।


देशवासियों के स्वस्थ और खुशहाल भारत के सपने को साकार करने का दम यह योजना रखती है बशर्ते कि इसमें कोई भ्रष्टाचार और ढोल की पोल न हो।


जसदेव सिंह


“मैं जसदेव सिंह बोल रहा हूँ“ और बुलंद आवाज के साथ बीच में ‘लेकिन’ शब्द का इस्तेमाल करने वाला स्वर जिसने आकाशवाणी और दूरदर्शन में अपनी अलग पहचान बनाई, वह हमेशा के लिए शांत हो गया। जिस दौर में खेल जगत में अंग्रेजी कमेंटेरी के सामने हिंदी को उपेक्षा से देखा जाता था जसदेव ने उसे उसका सही स्थान दिलाया। यहाँ तक कि उनका उपहास करने की हद तक लोग टिप्पणी कर देते थे कि जिन खेलों की वर्तनी अंग्रेजी पर आधारित है उन शब्दों को हिंदी में क्या बोलेंगे तो जसदेव ने उन्हें अपनी ही अलग शैली में गढ़े शब्दों को आसान बनाकर अपनी वाणी दी तो आलोचकों से कुछ कहते न बना। उनका कहना था कि हमारे ज््यादातर खिलाड़ी चाहे शहरों से आए हों लेकिन उनके खेल के बारे में सुनने वाले देश के कस्बों और गाँव में खेत में बैठकर सुनते हैं।


मेरे साथ उनका सम्पर्क एक मित्र के जरिए हुआ जो दिल्ली में ग्रीन पार्क में रहते थे और मैंने पास ही में अपनी फीचर एजेन्सी भारत इंटनेशनल न्यूज का दफ्तर खोला था। मैं लेखकों को अपने साथ जोड़ रहा था। वह सरकारी नौकरी से मुक्त हो चुके थे। मैंने उनसे अपने ग्राहक समाचारपत्रों के लिए एक खेल स्तंभ लिखने की पेशकश की तो कहने लगे कि उन्हें बोलना आता है लिखना नहीं।

 मैंने कहा कि जो आप बोलते रहे है और जो बोलना चाहते थे लेकिन नहीं बोल पाए बस वही लिख दीजिए और सप्ताह में केवल एक बार ही तो लिखना है। कुछ सोचकर उन्होंने हाँ कर दी और उनका कॉलम नियमित रूप से पाठकों को मिलने लगा जो इतना पसंद किया गया कि मेरे ग्राहकों की संख्या बढ़ी और हिंदी को एक नया खेल लेखक मिल गया जो पत्रकार नहीं वाणी का जादूगर था।


जसदेव की लेखनी से निकली शब्दों की सरिता पढ़ने वालों को उनकी वाणी की तरह ही सुनाई देती थी। सुनना हो या पढ़ना उनकी आवाज की खनक इतनी अलग थी कि पढ़ते हुए लगता था कि उन्हें सुन रहे हैं।
शब्द और स्वर का यह चितेरा एक साधारण व्यक्ति की तरह रहता था। कोई अपमान कर दे तो सहता नहीं था, केवल शांत रहकर उसकी बोलती बंद कर देता था।

दूरदर्शन ने अपनी परम्परा के अनुसार उनकी भी कद्र नहीं की तो उसका दुःख उन्हें था लेकिन मलाल नहीं था। स्पोर्ट्स के महानिदेशक की कुर्सी पर बैठकर खेल प्रसारण में भारत को किसी भी विदेशी चैनल से आगे देखना चाहते थे लेकिन नौकरशाही कहाँ किसी किसी प्रतिभा का सम्मान करती है विशेषकर दूरदर्शन जो बढ़िया प्रोग्राम तो बनवाना चाहता है लेकिन प्रतिभा की कद्र करना तो दूर उनका सही मेहनताना भी नहीं देना चाहता। शायद इसीलिए उसकी छवि सरकारी लाउड्स्पीकर से अधिक नहीं आँकी जाती। जसदेव को भी दूरदर्शन से निराशा ही मिली।


जसदेव सिंह ने ओलम्पिक, वल्र्ड कप और एशियाई खेलों में भाग लेने वाले देशों की टीमों का प्रदर्शन नजदीक से न केवल देखा बल्कि बारीकी से उनकी कार्यशाली को भी समझा। खेल प्रसारण की गुणवत्ता बढ़ाने और खेल कार्यक्रमों के निर्माण को एक नई दिशा देने के प्रति वह पूर्ण रूप से समर्पित थे।


शनिवार, 15 सितंबर 2018

‘स्वच्छता अभियान‘ रोजगार का वरदान




जन आन्दोलन


प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी 15 सितम्बर को स्वच्छता ही सेवा जन आन्दोलन शुरू कर रहे हैं। इसे 2 अक्तूबर को स्वच्छ भारत अभियान की चौथी वर्षगांठ और बापू गांधी की 150वीं जयन्ती की शुरूआत से जोड़ा गया है। इस एक वर्ष के कार्यक्रम को देश को पूर्ण रूप से खुले में शौच से मुक्ति, साफ सफाई से रहने की आदत डालने और कूडे कचरे के निपटान के ठोस उपायों को व्यवहारिक रूप देने की प्रक्रिया के रूप में देखा जा रहा है।

उद्देश्य अच्छा है और कदाचित् वर्तमान सरकार की उपलब्धियों में स्वच्छता अभियान सबसे उपर रहेगा। अब इसे जन आन्दोलन बनाने की तैयारी चल रही है जो अपने आप में बहुत महत्वपूर्ण है लेकिन यदि इसे रोजगार से मजबूती और नियोजित ढंग से जोड़ दिया जाए तो यह देश की कायापलट करने की सामर्थ्य रखता है।

सरकार का यह दावा काफी हद तक सही है कि आज देशभर में इन चार वर्षों में 9 करोड़ के लगभग शौचालय बनाए गये हैं। 90 प्रतिशत जनसंख्या इनका इस्तेमाल करती है जबकि 2014 में 40 प्रतिशत से भी कम करते थे। आंकड़ो के मुताबिक सवा चार लाख गांव, 430 जिले, 2800 शहर और कस्बे, 19 राज्य खुले में शौच से पूर्णतया मुक्त हो चुके है। जयपुर और गाजियाबाद जैसे गंदगी का पर्याय माने जाने वाले शहर स्वच्छता के मामले में कीर्तिमान स्थापित कर रहे हैं। इधर उधर जहां जगह मिली कूड़ा डालने पर अब जुर्माना लगाने से लोगों की आदत बदल रही है और लोग गंदगी से होने वाली बीमारियों के प्रति सचेत हो रहे हैं।

यदि तुलना करें तो सन्् 2000 में शुरू किये गये संपूर्ण स्वच्छता कार्यक्रम और 2012 में इसे निर्मल भारत अभियान का स्वरूप देने के मुकाबले 2014 का स्वच्छता अभियान बहुत कम समय में तेजी से आगे बढ़ा है।

आर्थिक विकास में योगदान

अब तक जितने शौचालय बने हैं, उनका योगदान रोजगार और व्यापार दोनों को बढ़ाने में रहा है। इनमें लगने वाली सामग्री जैसे कि टाईल, पॉट, दरवाजे, खिड़की जैसी वस्तुओं के निर्माण में तेजी आई। एक शौचालय बनाने में 10 बोरी सीमेन्ट लगने से दस करोड़ बैग की मांग हुई । इसी तरह दूसरी सामग्री की जरूरत पड़ी तो उससे व्यापार बढ़ा। मान लीजिए एक शौचालय बनाने में 5 कामगार 5 दिन तक लगे तो पांच करोड़ कार्य दिवस के रोजगार का सृजन हुआ।

इस अभियान से जो अपरोक्ष फायदे हुए उनमें विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार गंदगी से होने वाली मृत्यु अब 3 लाख कम होगीं और जो 6-7 हजार रूपये हर साल गंदगी से होने वाली बीमारियों से बचाव के लिए प्रत्येक परिवार द्वारा व्यय होते थे, उसकी बचत हुई।

यहां तक पहुंचने के बाद अब जिस चीज की जरूरत है, वह यह कि इन शौचालयों और घरों से निकलने वाले सालिड और लिक्विड वेस्ट का यदि सही ढंग से प्रबंधन नहीं किया गया तो सब किये कराए पर पानी फिर सकता है। हमारा देश पहले ही कूड़े के सही ढंग से निपटान की समस्या से किसी ठोस नीति के अभाव में बुरी तरह जूझ रहा है।

यह चौकाने वाली बात नहीं तो क्या है कि हमें हर साल 1240 हेक्टेयर जमीन अर्थात् सवा चार सौ किलोमीटर भूमि केवल कूड़ा रखने के लिए चाहिए। यह धरती का दुरूपयोग ही तो है कि इस कूडे़ को निपटाने से प्राप्त होने वाली हजारो मेगावाट उर्जा और दूसरे पदार्थों से हम वंचित हैं। वजह यह है कि दुनिया में क्षेत्रफल के हिसाब से सातवें और आबादी के हिसाब से दूसरा देश होने के बावजूद हमारे यहां कूड़ा निपटान के केवल आधा दर्जन प्लाण्ट हैं। इसके विपरीत चीन में इनकी संख्या 300 से अधिक है।

अगर दूसरे देशों की बात करें तो यूरोप में जहां फ्रांस, स्विट्जरलैण्ड, जर्मनी जैसे देशों में गंदगी देखने को नहीं मिलती वहां इटली में घरों और सड़कों की हालत भारत से मिलती जुलती हैं। इसी तरह एशिया में जहां सिंगापुर हांगकांग और शंधाई स्वच्छता के प्रतीक हैं वहां थाईलैण्ड, मलेशिया, इण्डोनेशिया जैसे इलाके हैं जो साफ सफाई के मामले में लगभग भारत जैसे ही हैं।

इन देशों में आर्थिक विकास की दर भी स्वच्छता के पैमानों पर आंकी जाए तो विशाल अंतर है। पर्यटन से लेकर रहन सहन और औद्योगिक विकास साफ सफाई से प्रभावित होता है। अनुमान तो यह है कि यदि भारत में कूड़े कचरे के निपटान की सही व्यवस्था हो जाए तो भारतीय अर्थव्यवस्था का एक तिहाई हिस्सा इसी से पूरा हो सकता है।


रोजगार का साधन

अब हम इस बात पर आते हैं कि स्वच्छता अभियान को रोजगार के वरदान के रूप में कैसे बदला जा सकता है।

इस क्षेत्र में व्यापार और रोजगार की कितनी संभावनाएं है इसका अन्दाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि सालिड और लिक्विड वेस्ट के कलेक्शन ट्रांसपोर्टेशन, ट्रीटमेंट, सेफ डिस्पोजल, रिसाईक्लिंग और उससे प्राप्त विभिन्न वस्तुओं की मार्केटिंग तथा डिस्ट्रीब्यूशन के लिए बहुत बड़ी तादाद में सुविधाएं और व्यापारिक ईकाइयां चाहिएं। इन्हें चलाने के लिए समुचित मात्रा में निवेश और मानव संसाधन चाहिएं। मतलब यह कि धन के साथ साथ उपयुक्त मैन पावर भी चाहिए।


अनुमान तो यह है कि इन क्षेत्रों में एक रूपया लगाने पर दस रूपये तक प्राप्त हो सकते हैं। भारत में जिस किसी ने भी इस क्षेत्र में हाथ आजमाया उसके आज वारे न्यारे हो गये हैं। आधुनिक प्लाण्ट्स में कामगारों के  लिए जरूरी मोजे, दस्ताने, हैट, बूट, जैसी वस्तुओं की कितनी जरूरत है, इसका अनुमान लगाना कठिन नहीं। शहरों और ग्रामीण क्षेत्रों में हाथ की झाडू की बजाए सफाईकर्मियों को सफाई मशीनों पर काम करने की ट्रेनिंग देकर उनकी जिंदगी में सार्थक बदलाव लाया जा सकता है। विदेशों में सफाई कर्मचारियों को प्रति घंटे लगभग दस डालर तक मिल जाता है। हमारे यहां पूरे दिन में तीन चार सौ से अधिक नहीं मिलते । इसकी वजह ठेकेदारी प्रथा, जागरूकता का अभाव और आधुनिक टेक्नालॉजी का इस्तेमाल न होना है।

इण्डियन सेनीटेशन सर्विस बने

सैनीटेशन और वेस्ट डिस्पोजल के क्षेत्र में इतनी अधिक संभावनाएं हैं कि सरकार यदि प्रशासनिक स्तर पर आई ए एस की एलाईड सर्विस के तौर पर इण्यिन सैनीटेशन सर्विस की स्थापना कर दे तो जहां एक ओर लाखों लोगों को निरन्तर रोजगार मिल सकेगें वहां सबसीडियरी उद्योगों के खुलने की भी राह निकलेगी।

इसी तरह सरकारी स्तर पर पब्लिक सेक्टर अण्डरटेकिंग की स्थापना होनी चाहिए जो कूडे से उर्जा और दूसरे संसाधन निर्माण करने का कार्य करे। इस क्षेत्र में प्रायवेट सेक्टर के लिए निवेश के बेहतरीन अवसर है।

सरकारी उद्यम, निजी उपक्रम और पब्लिक प्रायवेट पार्टीसिपेशन के जरिये स्वच्छता अभियान मील का पत्थर साबित हो सकता है। जब तेल, गैस, रसायन, उवर्रक, थर्मल, हाईडो पावर जैसे क्षेत्रों में राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर अपनी पहचान स्थापित कर चुके है तो सेनीटेशन में ही क्यों पीछे रहे? यह केवल सोचने का नहीं बल्कि ठोस नीति बनाकर उसे क्रियान्वित करने का अवसर है।


यदि वर्तमान सरकार और प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्रमोदी इस दिशा में बापू गांधी की 150वीं जयन्ती के अवसर पर देश को यह उपहार देने का संकल्प कर लें तो न केवल वर्तमान पीढ़ी बल्कि आने वाली पीढ़ी भारत को स्वच्छ, सुन्दर बनाए रखने में पीछे नहीं रहेगी।



शनिवार, 8 सितंबर 2018

किस तरह हो कूड़े कचरे का निपटरा ?



अदालती फरमान

आधुनिक युग में जब विज्ञान, टेक्नालॉजी, इंटरनेट जैसे साधन पलक झपकते हाजिर हैं तो यह सुनकर बहुत अजीब लगता है कि सुप्रीम कोर्ट द्वारा निर्माण कार्य रोक देने के आदेश जारी होते हैं। यह आदेश सरकारों द्वारा झूठ पर आधारित आश्वासन देने के बाद वापिस लेने का भी फरमान  अदालत सुना देती है और पहले की तरह बिल्डर, कारखानेदार, उद्योगपति रिहायशी बस्तियों में कूड़े के ढेर बनाने में लग जाते हैं।

दिल्ली में तो कूड़े के ढेर की उंचाई कुतुबमीनार जितनी होने जा रही है, इसी तरह बड़े हों या छोटे शहर, कस्बे हों या गांव देहात, इनमें विशाल कूड़ेदानों की तादाद बढ़ती जा रही है।
ऐसा नहीं है कि केवल मनुष्य ही कूड़ा कचरा फैलाता है, प्रकृति भी ऐसा करती है लेकिन फर्क यह है कि कुदरत उसका निपटान भी प्राकृतिक तरीके से लगातार करती रहती है और इंसान कूड़े के ढेर को ऊंचे से ऊंचा करने और प्रदूषण फैलाने में ही लगा रहता है।

हमारी अदालतें आदेश में यह भी सुनिश्चित करें कि उस आदेश को पूरा कैसे करना है। कानूनों के बावजूद परनाला पहले की ही तरह गन्दगी बहाता रहता है।

उदाहरण  के लिए अदालत ने आदेश दिया कि एक निश्चित अवधि में वेस्ट मैनेजमेंट के बारे में सरकार ठोस योजना पेश करे। सरकार अपने किसी बाबू को इसे तैयार करने को कह देती है। वह बाबू ऐसा कुछ कर सकने के काबिल ही नहीं होता लिहाजा अवधि बीत जाती है और अदालत नया आदेश जारी करती है कि सभी निर्माण कार्य रोक दिये जाएं। जिसे कुछ दिन में वापिस भी ले लिया जाता है। इसके विपरीत यदि अदालत यह आदेश देती कि वेस्ट मैनेजेमेंट के लिए सबसे पहले ज्यादा से ज्यादा दो सप्ताह में एक समिति का गठन कर अदालत के सामने रखा जाए जिसमें वैज्ञानिक, पर्यावरणविद, समाजशास्त्री और सामान्य प्रशासन एंव प्रबन्धन से जुड़े लोग हों तो वह आदेश ज्यादा कारगर होगा।


वेस्ट मैनेजमेंट कैसा हो?

इस समिति को वेस्ट मैंनेजमेंट की नीति, उपाय और उनके क्रियान्वयन की जिम्मेदारी दी जाती। अगर ऐसा होता तो सरकारों के पास कोई बहाना नहीं होता और सुप्रीम कोर्ट के आदेशों का पालन इस तरह से होता कि सरकार तय समय सीमा के बाद यह बताने में गर्व महसूस करती कि उसने कूडे़ कचरे से इतने टन आर्गेनिक खाद बनाई है, इतनी मेगावाट बिजली का उत्पादन  किया है, बायो डीजल से इतनी गाड़ियां चलने लगी हैं और प्रदूषण का स्तर अब इतना घट गया है कि लोगों का स्वास्थ्य पहले से बेहतर रहने लगा है, बीमारियों का प्रकोप नहीं है और खुली हवा में सांस लेने में मज़ा आने लगा है।

यह बात वास्तविकता के आधार पर कह रहे हैं क्योंकि हमारे ही देश में केरल का अलैप्पी है, महाराष्ट्र का पूना और शोलापुर है, तमिलनाडू का तिरूनलवेली, कर्नाटक का बैंगलूरू, मैसूर है और इसी तरह के कुछ और शहर है जहां कुछेक उद्यमशील व्यक्तियों से लेकर राजनीतिज्ञों तक ने वेस्ट मैनेजमेंट प्लाण्ट लगाकर यह सिद्ध कर दिया है कि यदि कूड़े कचरे का ठीक से प्रबंधन किया जाए तो निरन्तर आमदनी का बेहतरीन जरिया और प्रदूश्षन रोकने का अचूक फार्मूला है। 

इसी तरह मुम्बई के एक शानदार क्लब ने अपने यहां का कूड़ा कचरा इस्तेमाल कर रसोई गैस का इंतजाम किया है, दमन में एक उद्योगपति प्लास्टिक से पोलियस्टर बना रहा है और एक अन्य दूषित पानी को पीने या बागवानी के लायक बना रहा है।

हमारे देश में आंकडों के मुताबिक 62 मिलियन टन वेस्ट प्रतिवर्ष निकलता है। उसमें 83 प्रतिशत कूड़े का ढे़र बन जाता है और 17 प्रतिशत इधर उधर बिखर जाता है। इसमें से 50 प्रतिशत लैण्डफिल यानी जहां जमीन मिली वहां जमा कर दिया जाता है। इससे नागरिकों का जीवन दिन प्रति दिन मुशकिल होता जाता है। अब जो बाकी कूड़ा बचा उसे ऊर्जा का साधन बनाने के लिए केवल 7 प्लाण्ट पूरे देश में हैं। इनसे लगभग 90 मेगावाट बिजली का उत्पादन और 20 से 30 हजार टन आर्गेनिक खाद बनती है।


जरा सोचिए यदि इनकी तादाद सैंकड़ों में होती तो कितनी बिजली, कितनी खाद और दूसरे जरूरी संसाधन मिलते। इसके साथ ही बेरोजगारी दूर करने में मदद मिलती, और लोगों की आमदनी बढ़ती लैण्डफिल की जगह का सही इस्तेमाल होता जैसा कि केरल में लैण्डफिल की जगह पर एक विशाल स्पोर्ट्स काम्पलैक्स बन रहा है। मतलब यह कि कूड़े के ढेर बनने बंद होने से जमीन का सही इस्तेमाल होता।

अमरीका का उदाहरण लें तो वहां जो 230 मिलियन टन कचरा हर साल इकट्ठा होता है। इसके सही इस्तेमाल का सीधा असर वहां की अर्थव्यवस्था पर पड़ता है। हमारे यहां भी अगर इस कचरे को आमदनी का जरिया बना लिया जाए तो हम विकसित देशों की कतार में खड़े होने के काबिल बन सकते हैं।

टेक्नोलॉजी का इस्तेमाल

हमारे देश के वैज्ञानिक जो टेक्नोलॉजी बनाते हैं वह अलमारियों में बंद रह जाती है या फिर कभी कभार किसी प्रदर्शनी में उसकी झलक दिखाकर सरकार वाहवाही लूट लेती है। अगर सरकार कुछ ऐसे नियम बना दे कि कचरा प्रबंधन की नवीनतम टेक्नोलॉजी सामान्य नागरिकों के साथ साथ उद्यमियों और उद्योगपतियों को आसानी से न केवल मिल जाए बल्कि उनका इस्तेमाल करने के लिए उन्हें प्रोत्साहित और सम्मानित भी किया जाए तो वह दिन दूर नहीं जब कूड़े कचरे के ढेर हमारी संपन्नता का स्त्रोत बन सकते हैं।


अभी जो कूड़ा कचरा लोगों की मुसीबत बन रहा है और गन्दगी का पर्याय माना जाता है, अगर उसे ऊर्जा का स्त्रोत बनने दिया जाए तो कूड़ा हासिल करने के लिए आम के आम और गुठलियों के दाम की कहावत सही सिद्ध हो सकती है। कूड़े के निपटान से साफ सफाई और उससे जबरदस्त कमाई का यह ऐसा मंत्र है जिसे फूंकने से शहर हो या देहात, सजे संवरे और आधुनिक दिखाई देने लगेंगे।


अदालत को यह आदेश देना चाहिए कि सरकार किसी बिल्डर के नक्शे तब तक न पास करे जब तक बनने वाली रिहायशी कालोनी, कमशि्र्ायल काम्पलैक्स या औद्योगिक क्षेत्र में कूड़े कचरे के निपटान के लिए उसी स्थान पर कचरा प्रबंधन से जुड़ी टेक्नोलॉजी से युक्त प्लाण्ट और मशीनरी लगाने की व्यवस्था न की जाए।  

इससे होगा यह कि बस्ती हो या उद्योग कूड़ा कचरा वहीं निपटा दिया जाएगा और उसे बाहर ले जाकर किसी लैण्डफिल में भरना नहीं पड़ेगा। इस तरह के संयत्र कम कीमत पर और आधुनिक टेक्नोलॉजी के साथ विश्वभर में उपलब्ध हैं जहां से इन्हें सस्ते दाम पर हासिल किया जा सकता है।