शुक्रवार, 24 अप्रैल 2020

युग बदलने पर भी मूल प्रश्न वहीं रहते हैं !









इन दिनों दूरदर्शन पर जो दो पुराने धारावाहिक फिर से प्रसारित हो रहे हैं, उनके बारे में यह एक हकीकत है कि जब पहले इन्हे दिखाया गया था तो दर्शक घरों में ही रहते थे और सड़कें, बाजार सूने हो जाते थे। आज भी इनके देखने वाले कम नहीं हुए हैं इसलिए लॉकडाउन में घर पर ही रहकर समय व्यतीत करने के अतिरिक्त कुछ सोचने, मतलब चिंतन मनन करने का भी समय मिल जाता है।

सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि उस युग में जो सामाजिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक स्थितियां थीं, आज भी वे देखी जा सकती हैं। लगता है भारत जैसा तब था, वैसा ही आज है अर्थात मनुष्य की सोच और उसकी समझ तथा कार्य शैली में कुछ खास बदलाव नहीं आया है।
आज का युग क्योंकि तर्क प्रधान अधिक है और संवाद तथा संचार के आधुनिक साधन हैं, इसलिए चलिए इन पर विचार करते हैं।

बड़ों की आज्ञा और नारी सम्मान

समय चाहे राम का हो या कृष्ण का, उनमें परिवार के बुजुर्गों यानी मातापिता, सगे संबंधी या जनमानस जो कह दें, उसे मानना अनिवार्य ही नहीं, बल्कि उसके सही गलत होने, कोई तर्क या बहस करने और अपनी बात रखने की तनिक भी गुंजाइश नहीं, बस पालन करना ही करना होता था।

राम को कैकई और दशरथ के किसी पुराने वचन को निभाने के लिए वनवास का हुक्म मिल गया और न तो राम यह पूछ सकते हैं कि मातापिता के अंतरंग क्षणों के बीच अगर कोई करार हुआ है तो उसका उत्तरदायित्व निर्वाह के लिए संतान को क्यों घसीटा जा रहा है और न ही यह कि इसे मानने या न मानने का जो परिणाम होगा उसके लिए कौन जिम्मेदार होगा?

दृश्य बदलता है, महाभारत में युधिष्ठर जो अपने परिवार में सबसे बड़े हैं, भाइयों तथा जनता के सहयोग से इंद्रप्रस्थ का निर्माण कर लेते हैं, चक्रवर्ती सम्राट बन जाते हैं। सब ओर सुख शांति है, प्रजा अपने राजा से प्रसन्न है और राज परिवार भी उनका पूरा ध्यान रखता है।




पांडवों के सगे संबंधियों में धृतराष्ट्र और उनके पुत्र एक षड्यंत्र के तहत जुआ खेलने का आयोजन करते हैं। यहां तक तो चलिए मान लेते हैं कि मनोरंजन के नाम पर ही इस विनाशकारी खेल के लिए पांडवों की ओर से युधिष्ठर ने सहमति दे दी होगी।

योग्यता की कसौटी

यह सच था कि न तो युधिष्ठर और न ही उनके भाई इस खेल में पारंगत थे जबकि दूसरी ओर दुर्योधन भी इसे खेलना नहीं जानता था। अब युधिष्ठर ने तो अपने सर्व ज्ञानी होने के अहंकार के कारण किसी अन्य मंजे हुए खिलाड़ी को साथ लेने के स्थान पर स्वयं अनाड़ी होते हुए भी खेलना शुरू कर दिया और दूसरी ओर दुर्योधन ने अपना अनाड़ीपन स्वीकार करते हुए इस खेल में पारंगत खिलाड़ी शकुनि को खेलने के लिए आगे कर दिया।

जब दांव लगने लगे तो युधिष्ठर ने अपनी प्रजा की तो छोड़िए, अपने भाइयों और अपनी पत्नी तक से कुछ नहीं पूछा और सब को एक के बाद दांव पर लगाते गए और अपने बुद्धि, विवेक से हीन होने और अनाड़ी होने के कारण सब को हारते गए।

 ऽ प्रश्न यह है कि क्या शासक द्वारा बिना अपनी प्रजा की मर्जी जाने उसे दांव पर लगाया जा सकता है ?  दूसरा प्रश्न यह है कि क्या छोटे भाई और पत्नी बड़े भाई की निजी संपत्ति हैं, मतलब उनकी कोई स्वतंत्र हैसियत नहीं है कि वे पूछ सकें कि, हे भाई या पति महोदय, आप बर्बाद होना चाहें तो हो सकते हैं, पर हमें बर्बाद करने का अधिकार आपको किसने दिया?
लेकिन द्रौपदी को छोड़कर किसी भी भाई ने यह प्रश्न नहीं किया, यहां तक कि अपने वस्त्र हरण का प्रयत्न किए जाने तक कोई उसकी हिमायत लेने नहीं उठा और यह तो भला हो कृष्ण का कि वे अपनी सखा या मित्र की पुकार पर उन्होंने उसे बचाने का प्रबंध कर दिया वरना द्रौपदी तो बुरी तरह लुट ही चुकी थी।

युधिष्ठर अपने पुरुष होने के अहंकार से इतना पीड़ित थे कि द्रौपदी के द्वारा सब कुछ लौटा लिए जाने पर भी फिर से जुआ खेलने लगे और दोबारा हार गए और वनवास तथा अज्ञात वास के भागी बने। उनके कारण ही उनके भाइयों और द्रौपदी की कष्ट गाथा फिर से शुरू हो गई।
यह उनका पुरुषत्व ही बोल रहा था कि वन में द्रौपदी द्वारा कुछ कहने पर वे उसे अपने मायके जाने के लिए कह देते हैं। यही नहीं गंधर्वों द्वारा दुर्योधन को पकड़ लेने पर अपने भाइयों को उसे छुड़ाने भेजते हैं और जब जयद्रथ ने द्रौपदी के हरण की कोशिश की तो वे उसे भी अपना रिश्तेदार होने के नाते मामूली दंड देकर छोड़ देते हैं और कोई उनसे प्रश्न नहीं कर सकता क्योंकि वे सबसे बड़े हैं।

प्रश्न उठता है कि क्या युधिष्ठिर को जुआ खेलने से इंकार नहीं कर देना चाहिए था, जयद्रथ को कठोर दण्ड नहीं देना चाहिए था और धृतराष्ट्र के आवरण में दुर्योधन की महत्वाकांक्षाओं का शुरू में ही अंत नहीं कर देना चाहिए था ?





शासक का कर्तव्य

आज की स्थिति में देखें तो प्रजातंत्र होने के बावजूद अगर शासक निरंकुश हो जाए तो वह अपने स्वार्थ के लिए क्या कुछ करने को तैयार नहीं हो जाता ?

अब जरा नारी के सम्मान, उसके गौरव और प्रतिष्ठा की बात करें तो लगता है कि रामायण और महाभारत के युग से लेकर वर्तमान काल तक उसकी स्थिति में कुछ खास परिवर्तन नहीं हुआ है।

राम द्वारा अपने रामराज्य में एक व्यक्ति द्वारा अपनी पत्नी को इसलिए छोड़ दिया जाता है क्योंकि वह कोई भी विकल्प न होने के कारण एक रात अपने घर नहीं लौट सकी थी।

राम को अपने राजा होने के कारण ऐसा नियम बनाना चाहिए था कि बिना किसी अपराध के केवल अपने पुरुष होने के कारण कोई भी पति अपनी मर्जी से अपनी पत्नी को बेसहारा नहीं कर सकता।

हालांकि उन्होंने खोजबीन कर यह पता कर लिया था कि उनके शासन में स्त्री का स्थान वह नहीं है जो होना चाहिए। उन्होंने न केवल स्त्री को उसकी गरिमा वापिस दिलाने और उसे बराबरी का अधिकार दिलाने के प्रति कोई नियम कानून नहीं बनाया बल्कि लोगों द्वारा उनके द्वारा अपनी पत्नी सीता को स्वीकार करने पर आपत्ति जताने के प्रतिकार स्वरूप सीता का ही त्याग करना मान लिया जबकि वह गर्भवती भी थीं।

प्रश्न उठता है कि क्या उस काल में भी स्त्री हमारे देश में स्वतंत्र नहीं थी, अपने बारे में स्वयं निर्णय लेने के स्थान पर समाज और अपने पति की सोच पर निर्भर थी।

क्या कुछ बदला है ?

आज भारत में अनेक कानूनों के बावजूद स्त्री का शोषण होता है, उससे छेड़छाड़ से लेकर उसका शील हरण तक होता है और उसके निर्दोष होने के बावजूद समाज से लेकर परिवार तक उसे ही सजा देने को तत्पर रहता है तो क्या यह समझ लिया जाय कि तब से लेकर आज तक कुछ भी नहीं बदला है।

यह तब भी होता था कि हम अपनी संतान को जो शिक्षा दें, वह वहीं ग्रहण करे, हम जो उसे बनाना चाहें, वह वही बने और कहीं उसने अपनी इच्छा और मर्जी के हिसाब से शिक्षा लेने की बात की या अपने मन का रोजगार या व्यवसाय करने की बात की तो वह माता पिता और परिवार का दुश्मन नंबर एक हो गया।




पिछले दिनों एक सत्य घटना पर आधारित फिल्म सांड की आंख आई थी जिसमें घर की बेटियां तो दूर, दादियां तक अपनी मर्जी से कुछ भी करने के लिए स्वतंत्र नहीं थीं। वे चोरी छिपे न केवल स्वयं अपने मन की बात सुनती हैं बल्कि अपनी पोतियों को भी प्रोत्साहित करती हैं कि वे जो उनका मन चाहे, उन्हें करना चाहिए।

अब यहां भी पुरुष का पौरुष हावी हो जाता है जिसका अंत वृद्ध हो चुकी दादियों तक को पिंजरे में बंद रहने में ही उनकी भलाई कहकर चुप कराने की कोशिश से होता है। परिणाम वही कि आत्म सम्मान जाग उठता है और दादियां अपने ही पुरुषों के अभिमान को ठिकाने लगा देती हैं।

बदलाव क्यों न हो ?

भारत में जब यह लगता है कि मूलभूत प्रश्न वैसे ही हैं जैसे रामायण और महाभारत के काल में थे तो क्या यह सोचने का समय नहीं आ गया है कि विश्व में हो रहे परिवर्तन को सामने रखते हुए हमें भी उनमें बदलाव करना चाहिए।

हमारे यहां संतान पर उसके बड़े और अपने पैरों पर खड़ा हो जाने पर भी बड़े बुजुर्ग उन्हें अपने आधीन होने का भ्रम पाले रहते हैं और इसे सिद्ध करने के लिए उन पर तरह तरह के अंकुश लगाने से भी नहीं चूकते।

क्या ऐसी व्यवस्था नहीं होनी चाहिए, जैसी कि अनेक प्रगतिशील देशों में है, कि उन्हें युवा होते होते और उनकी शिक्षा पूरी हो जाने पर उन्हें अपनी ही पहनाई गई बेड़ियों से मुक्त कर समाज में अपना योगदान करने के लिए बिना उनसे किसी भी तरह की अपेक्षा रखे छोड़ दें।

स्त्री को हम तब तक स्वतंत्र सोच और अपनी किस्मत का नियामक नहीं बना सकते जब तक हम उसके रहन सहन, आने जाने और अपनी मर्जी से अपने बारे में फैसला लेने के लिए खुला नहीं छोड़ देते।

जो यह सोचते हैं कि ऐसा करने से भारतीय संस्कृति और प्राचीन सभ्यता का बंटाधार हो जाएगा तो उन्हें सीता के वन गमन और द्रौपदी के चीर हरण के बारे में सोचना चाहिए कि क्या वह युक्तिसंगत था ?


भारत

शनिवार, 18 अप्रैल 2020

तालाबंदी, कर्ज देने की पेशकश, वसूली और शोषण का जाल










इस समय पूरा देश एक ऐसी आपदा के दौर से गुजर रहा है जिसका कोई उपाय न होने के कारण हर व्यक्ति असहाय हो गया है। ऐसे में जहां मानवीयता के उदाहरण मिल रहे हैं, वहां मुसीबत में फंसे लोगों के साथ स्वार्थी लोग उनका शोषण करने की अमानुषिक हरकत करने की मिसाल भी कायम कर रहे हैं।





कर्ज वसूली का माया जाल

पहले ऐसे कर्ज लेने वालों की बात करते हैं जिन्होंने सरकारी या ऐसी गैर सरकारी संस्थाओं से ऋण लिया है जो रिजर्व बैंक के निर्देशानुसार काम करने को बाध्य हैं। सरकार की घोषणा के मुताबिक ये कर्जदार चाहें तो जून तक किश्त न चुकाएं और इससे उनकी क्रेडिट रेटिंग पर कोई असर नही पड़ेगा। इसमें झोल यह है कि किश्त पर जो ब्याज लगता है वह तो इकठ्ठा देना ही पड़ेगा पर इस ब्याज पर भी इस छूट की अवधि का ब्याज लगेगा। समझदारी यही है कि इस विकल्प को चुनने के बजाय किश्त का भुगतान पहले की तरह ही करते रहें।
दूसरे कर्जदार वे हैं जो देश में कुकुरमुत्तों की तरह उग आई फाइनेंस कंपनियों के जाल में फंसे हुए हैं। वे कोई सरकारी निर्देश नहीं मानती और अपने ही नियमों और ब्याज की दर पर उन लोगों को कर्ज देती हैं जिन्हें सरकार के निर्देशानुसार चलने वाली संस्थाओं से कर्ज नहीं मिल सकता।


इनका ब्याज वैसा ही होता है जैसा किसी जमाने में गांव के साहूकार का हुआ करता था और जिसका कर्ज पीढ़ियों तक उतरने का नाम ही नहीं लेता था और वह कर्जदार से मनमाना ब्याज तो वसूलता ही था, साथ में उसकी फसल, जमीन,घर से लेकर वह खुद और उसका परिवार तक उसके पास गिरवी रखा रहता था।



आज लॉकडाउन के कारण वेतन न मिलने, खर्च न निकलने और नौकरी छूट जाने या काम धंधा चैपट हो जाने से इन कर्जदारों के पास दिन रात लेनदारों की धमकियां तो आ ही रही हैं, बल्कि उनके दिए रेफरेंस मतलब दोस्तों, रिश्तेदारों तक को धमकियां मिल रही हैं कि या तो किश्त फौरन दो वरना उनकी वसूली ब्रिगेड कुछ भी कर सकती है, दुगुनी चैगुनी पेनल्टी लगा दी जाती है और कर्जदार का जीना मुश्किल करने के लिए सभी हथकंडे अपनाए जा रहे हैं।



जो लोग लॉकडाउन में जिन्दगी का जोखिम उठाकर भी शहर छोड़कर जाने की कोशिश कर रहे हैं उनमें बहुत बड़ी संख्या में ऐसे कर्जदार भी हैं जो किश्त और ब्याज पर भारी जुर्माना न देने के कारण भागने में ही अपना भला समझ रहे हैं कि किसी तरह इनसे छुटकारा तो मिले।
ये ब्याज कितना होता है उसे सुनते ही होश उड़ जायेंगे और समझा जा सकता है कि जिसने लिया वह कितना बेबस है। ज्यादातर कर्जदार वे है जिन्होंने अपने बच्चों की शिक्षा के लिए बैंकों की फॉर्मेलिटी पूरी न कर सकने के कारण इनसे उधार लिया, फिर वे है जिन्होंने शहर में घर का किराया और सिक्योरिटी की रकम जुटाने के लिए पैसा लिया, उनके बाद वे जिन्होंने कोई रोजगार जैसे ऑटो टैक्सी चलाने या गुजारा करने के लिए कोई दुकान या छोटा मोटा काम खोलने के लिए रकम ली और ऐसे ही दूसरे कर्जदार हैं जो इन गैर कानूनी कर्जदाताओं के शिकंजे में फंस गए और अब उनके पास इस सब से बाहर निकलने का कोई रास्ता नहीं है क्योंकि सब कुछ बंद है।



इनके पास आधी रात से लेकर सुबह होने तक फोन आते हैं, दोस्त रिश्तेदारों को परेशान किया जाता है और किश्त, भारी ब्याज और उस पर जुर्माना वसूलने के लिए बाउंसरों को भेजने की धमकी दी जाती है।


उपाय क्या है !


सबसे पहले तो इन सभी देनदारों को हिम्मत जुटानी होगी, लेनदारों की धमकी का जवाब इन्हीं की जुबान में देते हुए पहले तो इनकी लिखित शिकायत इन्हें भेजनी होगी, जिसका असर इन पर नहीं होगा लेकिन एक कानूनी प्रक्रिया पूरी हो जाएगी, उसके बाद रिजर्व बैंक को इनकी शिकायत करनी होगी और फिर स्थानीय प्रशासन, पुलिस में इनके खिलाफ धमकी देने की एफ आई आर करनी होगी। जो डर गया वो मर गया के ब्रह्म वाक्य को अपनाते हुए इनसे डरना छोड़कर इनका मुकाबला करने की हिम्मत जुटानी होगी और उसकी वजह यह कि इनका कर्ज देने और उस पर मनमाना ब्याज वसूलने का पूरा कारोबार ही गैर कानूनी है और यह या तो सीधे रास्ते पर आ जाएंगे अथवा जेल की हवा खाएंगे।


इसके अतिरिक्त जब देनदार को घर में रहना है तो लेनदार या उसके गुंडों को भी तो घर में ही रहना पड़ेगा क्योंकि जान सभी को प्यारी है।


ऋण की बरसात


अब आगे जो होने वाला है, उसकी एक बानगी यह है कि लॉकडाउन के दौरान और उसके बाद बैंक और दूसरे संस्थान जो उधार देने के व्यापार से जुड़े हैं, उनके पास इतनी लिक्वडिटी यानी अतिरिक्त धन जुटने वाला है कि वे एक प्रकार से ऋण देने के लिए उत्सुक और तैयार रहेंगे लेकिन यहीं कर्ज लेने वालों को सावधानी बरतनी होगी।

अभी से ऐसे फोन आने शुरू हो गए हैं जिनमें आपकी गाड़ी का लोन उतरने या अगर कोई किश्त बाकी नहीं बची है तो नया ऋण लेने की पेशकश की जा रही है। आपके घर के लोन पर भी नया लोन मिल सकता है। व्यवसाय, कारोबार से लेकर नई गाड़ी या घरेलू और विलासिता की सामग्री खरीदने के लिए पहले से ज्यादा आसान किश्तों की ऑफर आने लगी है।  भ्रामक कम ब्याज की दर का लालच देकर ग्राहकों को भरमाने की पूरी तैयारी के साथ ये सभी बैंकिंग या नॉन बैंकिंग संस्थान आपके घर या दफ्तर का चक्कर लगाने वाले हैं।

यह ऐसा मायाजाल है जिसमें बिना सोचे समझे अगर एक बार फंस गए तो निकलना इतना कठिन है कि आपकी जमापूंजी, बचत समाप्त होने के अतिरिक्त जीवन का जोखिम भी बढ़ सकता है।

ऋण लेना आसान है क्योंकि बैंक वाले अपने इतने एजेंट रखते हैं कि कोई न कोई तो अपने चंगुल में फंसाने में कामयाब हो ही जाता है। इसलिए केवल और केवल बहुत ही ज्यादा जरूरी होने पर ही कर्ज लेने के बारे में सोचें, कर्ज के दस्तावेजों की भली भांति जांच परख कर लें, ब्याज मिलाकर बनाई गई किश्त की स्वयं गणना कर लें क्योंकि धोखे की शुरुआत यहीं से होती है।

बच्चों की शिक्षा के लिए सरकारी योजनाओं के लिए यदि पात्रता नहीं है तो कभी भी अपना घर, जमीन जायदाद या जेवर आदि गिरवी रखकर ऋण न लें क्योंकि ऐसा करना  अपने पैरों पर स्वयं कुल्हाड़ी मारना होगा।

बच्वों को लेकर न तो ऐसे सपने बुनें और न ही उन्हें देखने दें जो आपकी सामर्थ्य से बाहर हैं। ऐसे एक दो नहीं बल्कि सैकड़ों और हजारों भी नहीं बल्कि लाखों मां बाप हैं जो नकली और गैर कानूनी तरीके से शिक्षा की दुकान चलाने वालों के जाल में फंसकर अपना सुख चैन गवां चुके हैं। युवा बेरोजगारों में ऐसी ही दुकानों से पढ़ाई कर आने वाले लड़के लड़कियां है जो अक्सर सब कुछ लुटाने के बाद भी होश में नहीं आते।


सरकार की नाकामी


जहां तक सरकार का प्रश्न है तो ऐसा नहीं है कि वह और उसके अधिकारी इन सब बातों को जानते न हों पर उनमें बैंकिंग व्यवस्था को लेकर कोई गंभीरता नहीं है और जनता को सस्ता ऋण और कम ब्याज दर से लुभाने वाली इन कर्ज देने वालों की दुकानों पर ताला लगाने में कोई रुचि नहीं है।

इसका कारण कुछ भी हो लेकिन इससे एक बड़ी आबादी का इतना शोषण हो रहा है कि वह निराश होकर या तो आत्म हत्या की ओर बढ़ने लगती है या विद्रोही होकर हिंसक रूप धारण करने की बात सोचने लगती है। यह दोनों ही स्थितियां बेहद खतरनाक हैं जबकि इनसे निपटने का एक हो रास्ता है कि कड़े कानून बना कर उन पर सख्ती से अमल किया जाए।

आज देश में स्टार्ट अप कंपनियों की विफलता, कौशल विकास योजनाओं की असफलता और युवाओं के सपनों को साकार करने के लिए बनाई गई आधी अधूरी योजनाओं की नाकामयाबी बताती है कि गरीबी और बेरोजगारी बढ़ने की असली वजह यह है कि राजनीतिक और प्रशासनिक तरीकों में सरकार के मुखिया का ईमानदार और परिश्रमी होने के बावजूद कोई परिवर्तन नहीं हुआ है।

सरकार को गैर कानूनी ढंग से चलने वाली कर्ज की दुकानों को बंद करने के लिए कड़ाई से काम लेना होगा, सरकारी या निजी संस्थाओं से जरूरत पड़ने पर ऋण लेने की शर्तों को आसान बनाना होगा और ज्यादा ब्याज वसूलने वालों पर लगाम लगाने के उपाय करने होंगे। यह होने पर ही तालाबंदी के बाद होने वाली मंदी और बढ़ने वाली बेरोजगारी पर अंकुश लगाया जा सकेगा।

यह न केवल आज की जरूरत है बल्कि भविष्य का भी संकेत है। 


भारत

शुक्रवार, 10 अप्रैल 2020

सोने में निखार उसके भट्टी में तपने के बाद









मन में डर छुपा है, दिल में घबराहट बढ़ रही है, अतीत और भविष्य की बजाय वर्तमान पर विश्वास नहीं हो रहा कि अगले ही क्षण क्या होने वाला है। इस अनिश्चय की हालत में अपने अंदर गहराई तक पहुंचने की कोशिश में लगी हीनभावना को रोकने और उसे स्वयं पर काबू करने में असफल बनाना ही वक््त की जरूरत है। यही सोचने को मन करता है कि हम होंगे कामयाब

मन में धैर्य
शरीर में स्फूर्ति
हृदय में विश्वास
एक स्वर में
सुख शांति का आह्वान
रोग शक्ति को हराने का संकल्प
स्वस्थ रहने का विकल्प
घर में रहकर करें
चिंतन और मनन
योजना बनाएं
आने वाले समय में
कैसे बनाए रखना है
अपना व्यापार और रोजगार
नए उद्योग नए विचार
करेंगें नए जीवन का संचार
प्रकृति ने नदियों में बहाई
निर्मल जल की धार
वन झूमने लगे फिर एक बार
पर्वत राज दिखाने लगे
अपनी दिव्य छटा


इतिहास पर एक नजर

भारत जब आजाद हुआ तब हमारे सामने जिस तरह कि समस्याएं उत्पन्न होने लगीं थीं उनमें सबसे बड़ी यह थी कि कैसे देशवासियों को गुलामी की मानसिकता से बाहर निकाला जाए। दसियों वर्ष बाद भी लोग कहते मिल जाते थे कि अंग्रेज का शासन आजाद भारत के शासकों से अच्छा था, हालांकि कोई यह कभी नहीं चाहता था कि अंग्रेजी शासन फिर से आ जाए।
बस यही सोच थी जिसने इस देश को कभी कमजोर पड़ने नहीं दिया।

आज विश्व जिस बीमारी से जूझ रहा है और उसके नतीजे के तौर पर दुनिया भर में भारी मंदी की भविष्यवाणी की जा रही है, वह वैसा ही है जैसा कि दूसरे विश्व युद्ध के बाद विशेषज्ञ अनुमान लगा रहे थे। जिन देशों ने इसे गंभीरता से लिया और इससे निपटने के लिए अपनी अर्थव्यवस्था को मजबूत बनाने के लिए तैयार किया वे जल्दी ही इतने सक्षम हो गए कि अपनी मिसाल खुद बन गए।

उदाहरण के लिए विश्व युद्ध के बाद इतिहासकार और अर्थशास्त्री इस बात का आकलन करने लगे कि जो देश सबसे ज्यादा बर्बाद हुए हैं, वे कब तक इससे उबर सकेंगे। एक अनुमान में आंकड़ों के अनुसार बताया गया कि सबसे अधिक बर्बादी झेल रहे देशों में जर्मनी और जापान का नंबर आता है।

भविष्यवाणी की गई कि ये देश इस बुरी तरह इतने  बर्बाद हो चुके हैं कि अगले बीस साल तक इनका कोई भी नागरिक एक नई कमीज नहीं ले सकता और चालीस वर्ष तक नया सूट नहीं सिलवा सकता।

स्थिति डरावनी थी लेकिन इन देशों के शासकों ने इसे इस प्रकार संभाला कि केवल बीस वर्ष में ही इतने सशक्त हो गए कि वे अपने पहने हुए कपड़े पुराने हो जाने के कारण उन देशों को दान करने लगे जहां गरीबी और भुखमरी अपना तांडव दिखा रही थी। उस समय भारत भी लगभग इसी श्रेणी में आता था। जो लोग उस दौर के गवाह है वे जानते होंगे कि तब दिल्ली जैसे बड़े शहरों के बाजारों में ये विदेशी कपड़े बहुत सस्ते दाम पर बिक रहे थे और लोग इन्हें खरीदकर गुजारा कर रहे थे क्योंकि नए कपड़ों की कौन कहे, अधिकतर आबादी के लिए खाने के भी लाले पड़े थे।

अतीत से सीख



इस तुलना से एक बात साफ थी कि शासन और प्रशासन जब मजबूत और ईमानदार तथा किसी भी तरह के भ्रष्टाचार के खिलाफ होता है तब ही वह देश अपने पैरों पर मजबूती से खड़ा हो सकता है और किसी भी संकट को पार कर सकता है। कहना न होगा कि हमारे देश में आजादी के बाद से ही इस बात की होड़ सी लग गई कि किस प्रकार सभी साधनों को जो कि पहले ही सीमित थे, उन्हें कुछ मुठ्ठी भर लोगों द्वारा समेट लिया जाय। जमाखोरी और कालाबाजारी का जो सिलसिला 50 और 60 के दशक में शुरू हुआ, वह घटना तो दूर निरंतर सुरसा के मुंह की तरह विशाल होता गया।

लोग कहने लगे थे कि जिस कछुए की गति से हमारा देश बढ़ रहा है, उतना तो वह बिना किसी शासक के भी स्वयं आगे बढ़ सकता है। इस असंतोष का परिणाम भी सामने आने लगा और जनता के सामने विद्रोह के अतिरिक्त कोई उपाय नहीं बचा।

आज इन पुरानी बातों की तरफ ध्यान दिलाने का अर्थ डरना या डरावना माहौल बनाना नहीं है बल्कि यह है कि वर्तमान कर्णधार और विपक्ष के लोग इस बात को समझ लें कि जनता सब जानती है और समय किसी को क्षमा नहीं करता।

जिस बीमारी ने बड़े बड़े देशों के छक्के छुड़ा दिए हैं और उनकी अर्थव्यवस्था को तहस नहस कर दिया है, उनके मुकाबले हमारे जैसे देश कहां टिक पाएंगे, यह बात कुछ निराशावादी सिद्ध करने में लगे हैं । इसके विपरीत जो लोग जर्मनी और जापान का उदाहरण दे रहे हैं, वे पूरी तरह आश्वस्त हैं कि इस मुसीबत से बाहर निकलने में हमारा आत्मविश्वास ही हमारी सबसे बड़ी पूंजी है।

यही वर्तमान शासन की कसौटी उनके और देश के लिए है कि वे आर्थिक और सामाजिक मोर्चे पर कितना खरा उतरते हैं


स्वर्णिम भविष्य की नींव



जैसा कि कहावत है कि किसी भी विपत्ति से बाहर निकलने के लिए उसी में उसका रास्ता छिपा होता है, उसी प्रकार वर्तमान परिस्थिति में भी अनेक ऐसे पथ हैं जिनकी पहचान कर ली जाए तो देश भट्टी में तपकर निकले सोने की तरह दुगुनी आभा से चमक सकता है।

जो रास्ते देश के सामने हैं, उनमें सबसे बड़ा रास्ता हमारी हर्बल संपदा की दुनिया भर में चर्चा होना है।  इस विरासत और जड़ी बूटियों के संसार का खजाना हमारे पास है जिसका इस्तेमाल औषधियां बनाने के लिए जो अभी बहुत कम हो रहा है, उसे बढ़ाकर कई गुना करने पर भारत इस दिशा में अग्रणी हो सकता है।

अमेरिका, ब्राजील और दूसरे देशों द्वारा भारत के प्रति कृतज्ञता दिखाने को आर्थिक लाभ में बदलने और दवाईयों के क्षेत्र में पूरी दुनिया के इस बाजार पर कब्जा जमाने का इससे बेहतर समय फिर नहीं आयेगा।

सरकार को अभी से वैज्ञानिक प्रयोगशालाओं और इस क्षेत्र के उद्यमियों के लिए नीति बनाने का काम शुरू कर देना चाहिए।

आज हमारे देश में अधिकतर औद्योगिक इकाईयों के बंद होने, कल कारखानों से जहरीले रसायन बाहर न निकलने का प्रभाव हमारी नदियों के जल और अन्य जल संसाधनों पर बहुत ही तेजी से उनके निर्मल और शुद्ध होने के रूप में सामने आया है। इसी प्रकार वायु पर भी इतना अधिक पड़ा है कि वह काफी हद तक प्रदूषण मुक्त हो गई है।

प्रकृति के इन दोनों अद्भुत स्रोतों जल और वायु के प्रदूषण मुक्त होने का दूरगामी लाभ उठाया जा सकता है। सूर्य, पवन और जल से ऊर्जा प्राप्त करने की यूनिटों को बढ़ावा देकर और सभी उद्योगों को जल और वायु को प्रदूषित करने वाले संयंत्रों के स्थान पर ऐसे उपकरण लगाना अनिवार्य करने के लिए अभी से कदम उठाना जरूरी है जिससे दोबारा हमारा जल और प्राण रक्षक वायु दूषित न हो सके।

इससे हम यूरोप की तरह पीने का साफ पानी और सांस लेने के लिए शुद्ध हवा का मिलना सुनिश्चित कर सकेंगे।

इसी तरह स्वास्थ्य को मूलभूत अधिकारों की सूची में रखकर प्रत्येक नागरिक की सेहत की रक्षा कर सकेंगे।
महामारी से तो एक न एक दिन और वह भी बहुत शीघ्र निजात मिल ही जाएगी लेकिन जरूरी है कि उसके बाद की योजना बनाने पर भी अभी से सरकार काम करना शुरू कर दे तो यह सोने पर सुहागा होगा।


शुक्रवार, 3 अप्रैल 2020

कोरोना बीमारी से निपटने के बाद के हालात पर सोचना जरूरी है।












जैसा कि कहते हैं कि हर क्रिया की प्रतिक्रिया होती है, मतलब हम जो भी करते हैं, बदले में  कुछ न कुछ होना तय है। इसका अर्थ एक तरफ तो यह हुआ कि आज जो हम कर रहे हैं उसे करने से पहले भली भांति सोच विचार कर लें ताकि उसका परिणाम जब निकले तो उसका अफसोस न हो और दूसरी तरफ यह कि यदि परिणाम अपने अनुकूल न निकले तो अफसोस, चिंता या वाद विवाद न कर उसे नियति का उपहार समझ स्वीकार करें और फिर से अपना लक्ष्य पाने की कोशिश करते रहे।



खतरे की घंटी

अब हम आते हैं इस बात पर कि जब इस बीमारी का फैलाव शुरू हुआ तो सबसे पहले और सबसे बड़ी तादाद में वे देश थे जो विकसित, अमीर, साधन संपन्न और आर्थिक तथा सैन्य ताकत का प्रदर्शन करने में सबसे आगे रहते थे।

चीन से निकली बीमारी जब अमेरिका, यूरोप, एशिया के अमीर देशों में पहुंची तो उन्होंने अपने घमंड के कारण
चीन इस बीमारी के बारे में जानता था लेकिन उसके हाथ से भी जिन्न निकल चुका था, फिर भी समझदारी दिखाते हुए वुहान शहर की तालाबंदी कर दी जिसका संज्ञान जिन देशों ने लिया उन्होंने भी अपने यहां खतरे को महसूस
रते हुए जरूरी कदम उठाने शुरू कर दिए।

फरवरी में जब केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री डॉक्टर हर्षवर्धन बार बार हाथ धोने, खांसते, छींकते रुमाल रखने और फिर मास्क पहनने की बात करने लगे तो लगा कि खतरा आसपास ही है। इस क्रिया की प्रतिक्रिया यह हुई कि लोग सावधान होने लगे।


सरकार क्या, हर कोई जानता है कि हमारी 75 प्रतिशत आबादी ग्रामीण क्षेत्रों में है और शहरों की बड़ी आबादी उन लोगों की है जो गांव देहात से रोजगार, शिक्षा, नौकरी, व्यवसाय के लिए यहां बस गए हैं आम तौर से रिटायर होने या उससे पहले मौका मिलते ही अपने गांव या देस जाने के लिए उतावले रहते हैं।

अब जैसे ही लॉकडाउन हुआ, ये लोग शहरों में कोई इंतजाम न होने से बड़ी संख्या में पलायन करने लगे।

सरकारों की चूक, गलती या दंडनीय अपराध यह था कि तालाबंदी करते ही उसे लोगों को अपनी जगह पर ही रुकने या उन्हें जहां वे जाना चाहे, सुरक्षित पहुंचाने का इंतजाम नहीं हुआ। रुपए पैसे की सरकारी मदद की आधी अधूरी बात भी कई दिन बाद हुई। इस भूल का परिणाम दिखने लगा है और संक्रमित होने वालों की संख्या तेजी  से बढ़ रही है।



चुनौतियों का सामना



जो आया है वह जाएगा, इस के मुताबिक यह बीमारी भी देर सवेर खत्म हो ही जाएगी और इसका इलाज भी निकल आयेगा। लेकिन तब तक अगर हम हाथ पर हाथ धरे बैठे रहे तो उसकी प्रतिक्रिया में गरीबी, बेरोजगारी से लेकर अकाल और भुखमरी तक का सामना करना पड़ सकता है।

इसे वरदान ही कह सकते हैं कि हमारे देश में परिवार नियोजन की असफलता का परिणाम देश की तीन चैथाई आबादी का युवा होना है और इस बीमारी से मरने वाले अधिकतर सभी देशों में वे हैं जो 50-60 की उम्र पार कर चुके हैं और क्योंकि उन देशों में आबादी को बढ़ने नहीं दिया गया तो वहां युवा आबादी कम होती गई।

इस महामारी का पहला दुष्परिणाम यह होने वाला है, अगर हम सावधान न रहे,  देश में युवा आबादी के लिए रोजगार पैदा करना सबसे बड़ी चुनौती होगी क्योंकि करोड़ों की संख्या में लोग, औद्योगिक और व्यावसायिक क्षेत्रों में जबरदस्त मंदी के कारण बेरोजगार होने वाले हैं।
सरकार तो क्योंकि अपनी लेट लतीफी और वक्त पर सोते रहने के कारण सही समय पर उचित निर्णय न लेने के लिए मशहूर है, इसलिए यह नागरिकों को ही सोचना पड़ेगा कि आने वाले संकट का मुकाबला कैसे करें?




समय का इस्तेमाल

जरूरी है कि तालाबंदी के दौरान घर में बैठकर योजना बनाना  शुरू कर दें कि नौकरी छूट जाने, व्यापार और उद्योग में घाटा हो जाने और जो भी जमा पूंजी है, उसके समाप्त होते जाने की अवस्था में आप को क्या करना है। कोई नया काम धंधा या रोजगार करने के बारे में सोचना शुरू कर दीजिए जो आप अपनी शिक्षा और योग्यता के बल पर कर सकने का हौसला रखते हैं। यह इसलिए है कि कहीं ‘जब चिड़ियां चुग गई खेत तो पछताने से क्या लाभ, आप पर न लागू हो जाए। इसमें अपने परिवार से भी चर्चा करें क्योंकि सब घर में ही हैं।

दुनिया के जो विकसित और अमीर देश हैं, उनके यहां संसाधन तेजी से कम होने वाले हैं, ऐसे में उन देशों को अपने यहां बनी चीजों का निर्यात करने की अपार संभावनाएं होने वाली है। चीन ने यह काम इस बीमारी से पूरी तरह निजात पाने से पहले ही करना शुरू कर दिया है।

आने वाले दिनों में भारत को चीन से आगे निकलने की चुनौती को स्वीकार कर अपने लिए नए बाजार खोजने होंगे और विज्ञान तथा तकनीक के आधार पर आधुनिक व्यापारिक तरीकों को अपनाने के बारे मैं अभी से सोचना होगा।

एक बात और है और वह यह कि जो बड़ी संख्या में लोग देहात  चले गए हैं तो उन्हें वहीं रोककर उनके लिए स्थानीय स्तर पर रोजगार पैदा कर दिए जाएं ताकि वे वहीं रहने लगें और शहरों में पलायन न करें। इस तरह उनके जाने से शहरों में खाली हुए रोजगार शहरी लोग अपना सकते हैं और शहरों में जो बेरोजगारी बढ़ने वाली है उसका मुकाबला कर सकते हैं।

सरकार और उद्योगपतियों के लिए यह एक अनूठा अवसर है कि वे ग्रामीण क्षेत्रों में कल कारखाने स्थापित करने की योजना बनाकर उस पर अमल  कर सकते हैं। कच्चा माल, मजदूर, कामगार और पढ़े लिखे बेकार बैठे नौजवान उद्योगपति और एंटरप्रेन्योर के सपने साकार कर सकते हैं और यह अपने आप में क्रांतिकारी परिवर्तन होगा।

यह बात तथ्यों पर आधारित है। जिन देशों में आर्थिक मंदी होने वाली है, वहां ग्रामीण क्षेत्र 20 प्रतिशत से अधिक नहीं है जबकि हमारे यहां उसका उलट है, मतलब 80 प्रतिशत ग्रामीण क्षेत्र है। कृषि कर्म को उद्योगों की स्थापना से जोड़कर यह सरकार किसानों की आमदनी दुगुना करने का वायदा पूरा कर सकती है क्योंकि ग्रामीण क्षेत्र में अद्योगिक क्रांति का फायदा किसान को ही होगा।



इसके बाद उन लोगों को सतर्क हो जाना चाहिए जिन्होंने अपना धन, जमापूंजी या वृद्धावस्था के लिए बैंकों में रखा है या फंड्स में लगा रखा है तो उन्हें अभी से सावधान होकर अपने इन्वेस्टमेंट सलाहकार से बात करना शुरू कर देना चाहिए। बाजार में लगातार गिरावट आगे भी जारी रहेगी और इससे उबरने में काफी समय लगने वाला है।


इसका अर्थ यह हुआ कि अपनी गांठ का पैसा मजबूती से पकड़ कर रखना है और उसे फिसल कर खो जाने से बचने के उपाय करने हैं।
यह कुछ ऐसी चुनौतियां हैं और इसके साथ ही अनमोल अवसर हैं जो देश का भाग्य बदल सकते हैं। तालाबंदी का इस्तेमाल अपनी आमदनी बढ़ाने के बारे में सोचने और योजना बनाने में सफलतापूर्वक किया जा सकता है।
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