शनिवार, 31 जुलाई 2021

देश को उद्योग प्रधान बनाए बिना आर्थिक विकास संभव नहीं है।

 

खेतीबाड़ी को लेकर देशवासी अपने को कृषि प्रधान कहते हुए इतने भावुक हो जाते हैं कि धरती को मां और किसान को अन्नदाता कहते नहीं थकते। अब यह बात और है कि ज़मीन जब बंजर, सूखाग्रस्त और रेतीली हो जाती है तो उसका इलाज़ कर खेती के काबिल बनाने के बजाए या तो बेच देते हैं या सरकार द्वारा अधिग्रहण करने का इंतज़ार करते हैं। 

कृषि प्रधान होने के बावजूद किसानी में कम आमदनी होती है, खर्चे ज्यादा होने से किसान अभावग्रस्त जीवन व्यतीत करता है, सरकारी सहायता पर निर्भर रहता है और हमेशा कर्जे में डूबा रहता है। फिर भी कृषि को हमारी अर्थव्यवस्था का पहला स्तंभ माना जाता है।

उद्योग प्रधान बनना नियति है

कृषि के बाद उद्योग को आर्थिक विकास का दूसरा स्तंभ कहा गया है लेकिन उसकी हालत ऐसी है कि सब्सिडी और छूट पर निर्भर रहता है और हमेशा ऐसी सरकारी घोषणाओं और योजनाओं की तलाश में रहता है जिनसे कुछ आर्थिक लाभ होता हो। यही कारण है कि जो देश हमारे आसपास के वर्षों में ही स्वतंत्र हुए वे आज हमसे बहुत अधिक समृद्ध हैं और औद्योगिक देशों की पहली पंक्ति में खड़े दिखाई देते हैं।

यह कैसा संयोग है कि पंडित नेहरू ने भारत को औद्योगिक राष्ट्र बनाने की अपनी सोच की व्याख्या करते हुए कहा था कि हम जो उत्पादन करते हैं, वह हमारे उपभोग के लिए पर्याप्त हो, मतलब हम अपनी जरूरतों को स्वयं ही पूरा करने के योग्य हों। वर्तमान समय में नरेंद्र मोदी का भी यही कहना है कि भारत आत्मनिर्भर बने और हम अपने पैरों पर खड़े हों ।

रुकावट कहां है ?

अगर इतिहास में झांके तो देखेंगे कि भारत में औद्योगिक विकास का अर्थ ऐसे नियम कायदे बनाना था कि उद्यमी सरकार के चंगुल में फंसे रहकर ही उत्पादन करे और तनिक भी इधर उधर होने पर कानून का शिकंजा उसे कस सके।

उद्योगपति को  हमेशा शक की नज़र से देखा गया, उस पर सख्त  पाबंदियां लगती रहीं।  देश में इंस्पेक्टर राज पनपने से नौकरशाहों यानी ब्यूरोक्रेसी और ऐसे उद्योगपतियों का गठजोड़ बन गया जो एक दूसरे को आर्थिक लाभ पहुंचाते रहे और इस तरह पैरलल यानी समानांतर इकोनॉमी की शुरुआत हो गई जिसे काला धन कहा गया। देश की संपदा, रुपया पैसा, प्राकृतिक स्रोत सब कुछ मुठ्ठी भर लोगों के गैर कानूनी कब्जे में आता गया और अधिकांश जनता पर गरीबी, बेरोजगारी हावी होती गई जो अब तक बरकरार है।

जब देश का सोना गिरवी रखने की नौबत आई तो पी वी नरसिम्हा राव की सरकार ने अपने वित्त मंत्री मनमोहन सिंह के जरिए देश में आर्थिक सुधार और उदारीकरण के नाम पर प्रतिबंधों में ढील देनी शुरू की और परमिट राज खत्म होता दिखाई दिया। परंतु सरकारी अफसरों के मुंह खून लग चुका था तो उन्होंने ऐसे नियम बनाने शुरू कर दिए, अनावश्यक फॉर्म जमा करने और बेतुकी मांग पूरी करने के फ़रमान जारी कर दिए और उद्योग लगाने की इच्छा रखने वाले उद्यमियों के सामने इतनी जटिल प्रक्रिया रख दी जिसे केवल अफसरशाही ही सुलझा सकती थी। नतीज़ा यह हुआ कि रिश्वतखोरी और भाई भतीजावाद का ऐसा सिलसिला शुरू हुआ जो भ्रष्ट  राजनीतिज्ञों, उद्योगपतियों और नौकरशाहों के लिए अकूत संपत्ति जमा करने का अवसर बन गया।

मिसाल के तौर पर मान लीजिए आपने सरकार या निजी मालिकों से ज़मीन खरीदी तो उद्योग लगाने से पहले आपको अपनी पुश्तों तक का ब्योरा देना, लैंड यूज बदलने से लेकर पहले से ही सभी तरह के सर्टिफिकेट लाना, कितने लोगों को रोज़गार मिलेगा, उन्हें कितना वेतन दिया जायेगा, कौन सी मशीनरी लगेगी, कहां से आयेगी, अगर विदेश से आनी है तो इंपोर्ट करने की परमीशन, कंप्लीशन सर्टिफिकेट लेने और उत्पादन शुरू करने से पहले मिनीमम कंस्ट्रक्शन, वर्क परमिट, पूरी बिल्डिंग बनने और भविष्य की जरूरत का काल्पनिक अनुमान लगाकर आज ही पार्किग की व्यवस्था करना और बहुत सी बेसिरपैर की बातों को पूरा करना जरूरी कर दिया।

यह सिलसिला रुका नहीं बल्कि आज भी लगातार बढ़ता जा रहा है चाहे वर्तमान सरकार कितने भी दावे कर ले कि उसने गली सड़ी व्यवस्था को बदल दिया है पर हकीकत यही है कि आज भी देश में सरकारी नियम पालन करना तब तक असम्भव है जब तक कि नेताओं की सिफारिश और अफसरों की मुट्ठी गरम करने के लिए ढेर सारा पैसा न हो। ऐसी हालत में कोई उद्योग सफल कैसे होगा ?

उद्योगों की बंदरबांट

उद्योगों को ग्राम, कुटीर, स्मॉल, मीडियम, बड़े उद्योगों में बांट दिया और उनके लिए इन्वेस्टमेंट, संचालन, उत्पादन, मूल्य तय करने आदि  पर इतने नियंत्रण लगा दिए कि उद्योग शुरू करने से पहले ही उद्योगपति निराश हो जाए । इसके साथ ही  उद्योगों के लिए अलग अलग संरक्षण और आरक्षण की नीति अपनाई जाने लगी।

इस तरह की नीति, बदन पर होने वाली खुजली की तरह सिद्ध हुई जो एक अंग पर अगर शांत हो जाती तो दूसरे अंग पर होने लगती । मतलब यह कि आज अगर किसी  श्रेणी को छूट मिल रही है तो दूसरा उद्योग भी उसकी मांग करने लगता है। यह ऐसा ही है कि जैसे कोई मोमबत्ती बनाने वाला कहे कि उसकी प्रतियोगिता सूर्य से है क्योंकि दिन भर वो इतनी रोशनी करता है कि उसकी मोमबत्ती को खरीददार नहीं मिलते, इसलिए उसे भी छूट चाहिए।

होना यह चाहिए था कि सभी उद्योगों के लिए समान नियम, सुविधाएं और आसान प्रक्रिया बनती जिससे सभी का ध्यान स्वतंत्र होकर केवल उत्पादन बढ़ाने पर होता न कि भेदभाव होने से छूट हासिल करने की प्रतियोगिता करना।

दिशाहीन होने के परिणाम

औद्योगिक विकास को सही दिशा न मिलने का परिणाम नौकरियां पैदा करने में असफलता, विकास दर में गिरावट, प्रति व्यक्ति आय में कमी, देसी और विदेशी निवेश में रुकावट और बेरोज़गारी बढ़ते जाने के रूप में हुआ जिसका भविष्य में भारी मुसीबत का  कारण बनना तय है, यदि समय रहते ठोस कदम न उठाए गए।

यहां यह भी उल्लेखनीय है कि रिसर्च और ज़मीनी हकीकत को दरकिनार कर ट्रेनिंग और सुविधाएं तैयार किए बिना स्किल इंडिया, मेक इन इंडिया, लोकल से ग्लोबल जैसी घोषणाएं कर दी गईं जो केवल कागज़ी बन कर रह गई हैं और उनमें लगने वाला धन नाले में बह जाने की तरह हो गया है ।

एक अनुमान के अनुसार अगले दस साल में यदि आर्थिक विकास की दर छः प्रतिशत रहती है तो १७५ मिलियन लोग रोजगार मांगने वालों की कतार में लगे होंगे जबकि केवल १२५ मिलियन को ही रोज़गार मिल सकेगा और बाकी ५० मिलियन निठल्ले और निकम्मे साबित होने से या तो भूख और गरीबी में पिसेंगे या आपराधिक गतिविधियों तथा गैर कानूनी कामों में शामिल हो जायेंगे। यहां यह बताना भी ज़रूरी है कि सन २०१५ में भारत सबसे तेज विकसित होने वाली अर्थव्यवस्थाओं में से एक था और २०२० तक वह सबसे धीमी गति से बढ़ने वालों में शामिल हो गया ।

उद्योग प्रधान बनने का संकल्प

यदि वक्त रहते औद्योगिक उत्पादन को बढ़ावा देने वाली नीतियों को लागू नहीं किया गया तो स्थिति बहुत ख़राब हो जाने में कोई शंका नहीं है। देश को उद्योग प्रधान बनाने के लिए नियमों में आमूल चूल परिवर्तन, विनिवेश में तेज़ी, उद्योग लगाने वालों को बंधनों से मुक्त कर अपना निर्णय स्वयं लेने की छूट देनी होगी विशेषकर उनमें जिनमें कामगार, श्रमिक, मज़दूर और स्किल्ड लोग चाहिएं।

ऐसे उद्योग जिनमें बहुत अधिक पूंजी लगती है उन्हें छोड़कर मैन्युफैक्चरिंग और सर्विस सेक्टर को युवा, साहसी और कुछ नया कर दिखाने की चाहत रखने वाले उद्यमियों  तथा अनुभवी उद्योगपतियों के हवाले करना होगा । उनके लिए पूंजी उपलब्ध करने के साथ साथ मूलभूत सुविधाओं का पूरे देश में जाल बिछाना होगा जिनमें ट्रांसपोर्टेशन, ज़मीन की उपलब्धता, बिजली, पानी, सीवर, सड़क और औद्योगिक तथा रिहायशी बस्तियों का निर्माण प्रमुख है।

इस बात को स्वीकार करना होगा कि कृषि से अधिक उद्योगों में आर्थिक विकास करने की क्षमता और संभावना है। भावुकता और राजनीतिक फायदों को ताक पर रखकर असलीयत का सामना करने से ही देश विकसित देशों की पंक्ति में स्थान सुनिश्चित कर सकता है, यह बात जितनी जल्दी समझ ली जाय, उतना ही देशवासियों के लिए बेहतर होगा।


देश को उद्योग प्रधान बनाए बिना आर्थिक विकास संभव नहीं है।


खेतीबाड़ी को लेकर देशवासी अपने को कृषि प्रधान कहते हुए इतने भावुक हो जाते हैं कि धरती को मां और किसान को अन्नदाता कहते नहीं थकते। अब यह बात और है कि ज़मीन जब बंजर, सूखाग्रस्त और रेतीली हो जाती है तो उसका इलाज़ कर खेती के काबिल बनाने के बजाए या तो बेच देते हैं या सरकार द्वारा अधिग्रहण करने का इंतज़ार करते हैं। 

कृषि प्रधान होने के बावजूद किसानी में कम आमदनी होती है, खर्चे ज्यादा होने से किसान अभावग्रस्त जीवन व्यतीत करता है, सरकारी सहायता पर निर्भर रहता है और हमेशा कर्जे में डूबा रहता है। फिर भी कृषि को हमारी अर्थव्यवस्था का पहला स्तंभ माना जाता है।

उद्योग प्रधान बनना नियति है

कृषि के बाद उद्योग को आर्थिक विकास का दूसरा स्तंभ कहा गया है लेकिन उसकी हालत ऐसी है कि सब्सिडी और छूट पर निर्भर रहता है और हमेशा ऐसी सरकारी घोषणाओं और योजनाओं की तलाश में रहता है जिनसे कुछ आर्थिक लाभ होता हो। यही कारण है कि जो देश हमारे आसपास के वर्षों में ही स्वतंत्र हुए वे आज हमसे बहुत अधिक समृद्ध हैं और औद्योगिक देशों की पहली पंक्ति में खड़े दिखाई देते हैं।

यह कैसा संयोग है कि पंडित नेहरू ने भारत को औद्योगिक राष्ट्र बनाने की अपनी सोच की व्याख्या करते हुए कहा था कि हम जो उत्पादन करते हैं, वह हमारे उपभोग के लिए पर्याप्त हो, मतलब हम अपनी जरूरतों को स्वयं ही पूरा करने के योग्य हों। वर्तमान समय में नरेंद्र मोदी का भी यही कहना है कि भारत आत्मनिर्भर बने और हम अपने पैरों पर खड़े हों ।

रुकावट कहां है ?

अगर इतिहास में झांके तो देखेंगे कि भारत में औद्योगिक विकास का अर्थ ऐसे नियम कायदे बनाना था कि उद्यमी सरकार के चंगुल में फंसे रहकर ही उत्पादन करे और तनिक भी इधर उधर होने पर कानून का शिकंजा उसे कस सके।

उद्योगपति को  हमेशा शक की नज़र से देखा गया, उस पर सख्त  पाबंदियां लगती रहीं।  देश में इंस्पेक्टर राज पनपने से नौकरशाहों यानी ब्यूरोक्रेसी और ऐसे उद्योगपतियों का गठजोड़ बन गया जो एक दूसरे को आर्थिक लाभ पहुंचाते रहे और इस तरह पैरलल यानी समानांतर इकोनॉमी की शुरुआत हो गई जिसे काला धन कहा गया। देश की संपदा, रुपया पैसा, प्राकृतिक स्रोत सब कुछ मुठ्ठी भर लोगों के गैर कानूनी कब्जे में आता गया और अधिकांश जनता पर गरीबी, बेरोजगारी हावी होती गई जो अब तक बरकरार है।

जब देश का सोना गिरवी रखने की नौबत आई तो पी वी नरसिम्हा राव की सरकार ने अपने वित्त मंत्री मनमोहन सिंह के जरिए देश में आर्थिक सुधार और उदारीकरण के नाम पर प्रतिबंधों में ढील देनी शुरू की और परमिट राज खत्म होता दिखाई दिया। परंतु सरकारी अफसरों के मुंह खून लग चुका था तो उन्होंने ऐसे नियम बनाने शुरू कर दिए, अनावश्यक फॉर्म जमा करने और बेतुकी मांग पूरी करने के फ़रमान जारी कर दिए और उद्योग लगाने की इच्छा रखने वाले उद्यमियों के सामने इतनी जटिल प्रक्रिया रख दी जिसे केवल अफसरशाही ही सुलझा सकती थी। नतीज़ा यह हुआ कि रिश्वतखोरी और भाई भतीजावाद का ऐसा सिलसिला शुरू हुआ जो भ्रष्ट  राजनीतिज्ञों, उद्योगपतियों और नौकरशाहों के लिए अकूत संपत्ति जमा करने का अवसर बन गया।

मिसाल के तौर पर मान लीजिए आपने सरकार या निजी मालिकों से ज़मीन खरीदी तो उद्योग लगाने से पहले आपको अपनी पुश्तों तक का ब्योरा देना, लैंड यूज बदलने से लेकर पहले से ही सभी तरह के सर्टिफिकेट लाना, कितने लोगों को रोज़गार मिलेगा, उन्हें कितना वेतन दिया जायेगा, कौन सी मशीनरी लगेगी, कहां से आयेगी, अगर विदेश से आनी है तो इंपोर्ट करने की परमीशन, कंप्लीशन सर्टिफिकेट लेने और उत्पादन शुरू करने से पहले मिनीमम कंस्ट्रक्शन, वर्क परमिट, पूरी बिल्डिंग बनने और भविष्य की जरूरत का काल्पनिक अनुमान लगाकर आज ही पार्किग की व्यवस्था करना और बहुत सी बेसिरपैर की बातों को पूरा करना जरूरी कर दिया।

यह सिलसिला रुका नहीं बल्कि आज भी लगातार बढ़ता जा रहा है चाहे वर्तमान सरकार कितने भी दावे कर ले कि उसने गली सड़ी व्यवस्था को बदल दिया है पर हकीकत यही है कि आज भी देश में सरकारी नियम पालन करना तब तक असम्भव है जब तक कि नेताओं की सिफारिश और अफसरों की मुट्ठी गरम करने के लिए ढेर सारा पैसा न हो। ऐसी हालत में कोई उद्योग सफल कैसे होगा ?

उद्योगों की बंदरबांट

उद्योगों को ग्राम, कुटीर, स्मॉल, मीडियम, बड़े उद्योगों में बांट दिया और उनके लिए इन्वेस्टमेंट, संचालन, उत्पादन, मूल्य तय करने आदि  पर इतने नियंत्रण लगा दिए कि उद्योग शुरू करने से पहले ही उद्योगपति निराश हो जाए । इसके साथ ही  उद्योगों के लिए अलग अलग संरक्षण और आरक्षण की नीति अपनाई जाने लगी।

इस तरह की नीति, बदन पर होने वाली खुजली की तरह सिद्ध हुई जो एक अंग पर अगर शांत हो जाती तो दूसरे अंग पर होने लगती । मतलब यह कि आज अगर किसी  श्रेणी को छूट मिल रही है तो दूसरा उद्योग भी उसकी मांग करने लगता है। यह ऐसा ही है कि जैसे कोई मोमबत्ती बनाने वाला कहे कि उसकी प्रतियोगिता सूर्य से है क्योंकि दिन भर वो इतनी रोशनी करता है कि उसकी मोमबत्ती को खरीददार नहीं मिलते, इसलिए उसे भी छूट चाहिए।

होना यह चाहिए था कि सभी उद्योगों के लिए समान नियम, सुविधाएं और आसान प्रक्रिया बनती जिससे सभी का ध्यान स्वतंत्र होकर केवल उत्पादन बढ़ाने पर होता न कि भेदभाव होने से छूट हासिल करने की प्रतियोगिता करना।

दिशाहीन होने के परिणाम

औद्योगिक विकास को सही दिशा न मिलने का परिणाम नौकरियां पैदा करने में असफलता, विकास दर में गिरावट, प्रति व्यक्ति आय में कमी, देसी और विदेशी निवेश में रुकावट और बेरोज़गारी बढ़ते जाने के रूप में हुआ जिसका भविष्य में भारी मुसीबत का  कारण बनना तय है, यदि समय रहते ठोस कदम न उठाए गए।

यहां यह भी उल्लेखनीय है कि रिसर्च और ज़मीनी हकीकत को दरकिनार कर ट्रेनिंग और सुविधाएं तैयार किए बिना स्किल इंडिया, मेक इन इंडिया, लोकल से ग्लोबल जैसी घोषणाएं कर दी गईं जो केवल कागज़ी बन कर रह गई हैं और उनमें लगने वाला धन नाले में बह जाने की तरह हो गया है ।

एक अनुमान के अनुसार अगले दस साल में यदि आर्थिक विकास की दर छः प्रतिशत रहती है तो १७५ मिलियन लोग रोजगार मांगने वालों की कतार में लगे होंगे जबकि केवल १२५ मिलियन को ही रोज़गार मिल सकेगा और बाकी ५० मिलियन निठल्ले और निकम्मे साबित होने से या तो भूख और गरीबी में पिसेंगे या आपराधिक गतिविधियों तथा गैर कानूनी कामों में शामिल हो जायेंगे। यहां यह बताना भी ज़रूरी है कि सन २०१५ में भारत सबसे तेज विकसित होने वाली अर्थव्यवस्थाओं में से एक था और २०२० तक वह सबसे धीमी गति से बढ़ने वालों में शामिल हो गया ।

उद्योग प्रधान बनने का संकल्प

यदि वक्त रहते औद्योगिक उत्पादन को बढ़ावा देने वाली नीतियों को लागू नहीं किया गया तो स्थिति बहुत ख़राब हो जाने में कोई शंका नहीं है। देश को उद्योग प्रधान बनाने के लिए नियमों में आमूल चूल परिवर्तन, विनिवेश में तेज़ी, उद्योग लगाने वालों को बंधनों से मुक्त कर अपना निर्णय स्वयं लेने की छूट देनी होगी विशेषकर उनमें जिनमें कामगार, श्रमिक, मज़दूर और स्किल्ड लोग चाहिएं।

ऐसे उद्योग जिनमें बहुत अधिक पूंजी लगती है उन्हें छोड़कर मैन्युफैक्चरिंग और सर्विस सेक्टर को युवा, साहसी और कुछ नया कर दिखाने की चाहत रखने वाले उद्यमियों  तथा अनुभवी उद्योगपतियों के हवाले करना होगा । उनके लिए पूंजी उपलब्ध करने के साथ साथ मूलभूत सुविधाओं का पूरे देश में जाल बिछाना होगा जिनमें ट्रांसपोर्टेशन, ज़मीन की उपलब्धता, बिजली, पानी, सीवर, सड़क और औद्योगिक तथा रिहायशी बस्तियों का निर्माण प्रमुख है।

इस बात को स्वीकार करना होगा कि कृषि से अधिक उद्योगों में आर्थिक विकास करने की क्षमता और संभावना है। भावुकता और राजनीतिक फायदों को ताक पर रखकर असलीयत का सामना करने से ही देश विकसित देशों की पंक्ति में स्थान सुनिश्चित कर सकता है, यह बात जितनी जल्दी समझ ली जाय, उतना ही देशवासियों के लिए बेहतर होगा।


शनिवार, 24 जुलाई 2021

सरकार और किसान ज़िद छोड़ें वरना सबका नुकसान होना तय है

 

जब परिवार, समाज या देश के संदर्भ में कोई विवाद इतना खिंच जाए कि असली मुद्दा ही गायब हो जाए और बात इतनी बढ़ जाए कि शालीनता की जगह अभद्रता और शिष्टाचार के स्थान पर गाली गलौज का इस्तेमाल हो तो समझना चाहिए कि अराजकता की शुरुआत हो चुकी है और बातचीत से कोई हल निकलने की बात सोचना बेमानी है।

समस्या आमदनी से जुड़ी है।   

हमारे देश के तीन चैथाई लोग खेतीबाड़ी से जुड़े हैं लेकिन सच यह है कि किसानी करने वाले आधे लोग कर्ज़दार हैं और वह इसलिए कि कृषि कर्म से उन्हें इतना नहीं मिल पाता कि उधार लेने की ज़रूरत न हो, अपने बच्चों की फीस जमा करने और दूसरी जरूरतों के लिए खेत न बेचने पड़ते हों और मुख्य बात यह कि बीज, खाद, रसायन और सिंचाई के लिए साहूकार के पास अपनी होने वाली उपज को गिरवी रखने की मज़बूरी तो है ही।

यहां हम उन मुठ्ठी भर किसानों की चर्चा नहीं कर रहे जो पंजाब, हरियाणा या दूसरे उन इलाकों में हल चलाते हैं जहां की धरती उपजाऊ है, खेती के आधुनिक साधन हैं और इतने खुशहाल हैं कि बड़े जमींदार, संपन्न परिवार कहलाते हैं और उनके नाते रिश्तेदार देश के अमीर ही नहीं, इंग्लैंड, कनाडा और दूसरी जगहों पर शानदार जीवन व्यतीत करने वाले लोग हैं।

कृषि कानून और वास्तविकता

सरकार अपने बनाए कृषि कानूनों की वकालत करते हुए और उन्हें कृषकों के लिए लाभकारी बताते समय यह भूल कर जाती है कि ऐसे किसान जिनके खेतों का आकार बहुत छोटा है और जिनकी संख्या बहुत अधिक है, वे गरीबी के दलदल से जितना बाहर निकलने की कोशिश करते हैं, उतना ही और इसमें धंसते जाते हैं । उनके लिए सरकार का यह कहना बेमानी हो जाता है कि ऐसे ही किसानों की आय बढ़ाने के लिए यह कानून बनाए गए हैं और विडंबना यह कि उसे अन्नदाता कहा जाता है जबकि उसके लिए दो वक्त की रोटी जुटाना ही मुश्किल है।

जब यही हकीकत है तो सोचना यह होगा कि क्या किसान  इन कानूनों का लाभ उठाने में सक्षम हैं  ?

उदाहरण के लिए यह प्रवचन देना कि इन कानूनों के लागू होने पर किसान अपनी फ़सल कहीं भी किसी को भी अपने तय किए दाम पर बेच सकता है तो उस किसान के लिए यह दूर के ढोल सुहावने होने जैसा है क्योंकि उसके पास अपनी फसल को दूसरे स्थान पर बेचने के लिए न तो ले जाने की सुविधा है और न ही इतने पैसे कि वह ढुलाई तथा आने जाने का खर्च उठा सके ।

जो लोग यह कहते हैं कि वह अपनी उपज़ का भंडारण कर ले और जब अच्छे दाम मिलें तो बेचे, वे यह भूल जाते हैं कि इन छोटी जोतों वाले किसानों की स्टोरेज का किराया चुकाने की हैसियत होती तो वह साहुकार के यहां पैदावार पहले से गिरवी ही क्यों रखते ?

अब बात आती है कि किसान का कॉरपोरेट जगत और ऐसे व्यापारी के साथ कॉन्ट्रैक्ट करना जो खेतीबाड़ी में पैसा लगाकर एक रुपए के दस बनाने की नीयत रखते हों और जिनका कृषि से दूर दूर तक न कभी वास्ता रहा हो और न उनका इस व्यवसाय को अपनाने का इरादा हो।  वे ज़ाहिर है कि किसान के अनपढ़ या कम पढ़ा लिखा होने का फ़ायदा उठाकर इस तरह का कॉन्ट्रैक्ट करने का यत्न करेंगे जिससे उनका तो भरपूर फ़ायदा हो और किसान जिसकी ज़मीन है उसे इतना भी न मिले जो फसल उगाने में लगने वाली उसकी मेहनत की भरपाई तक कर सके ! मतलब यह कि ऐसे छोटे और मझौले किसान  के लिए कॉन्ट्रैक्ट की खेती करना अपनी बर्बादी को न्यौता देना है।

जब सरकार यह कहती है कि किसान के पास अमीर लोगों के साथ हुए एग्रीमेंट की कॉपी है और वह उसकी शर्तों का उल्लंघन होने पर ज़िला मजिस्ट्रेट या अदालत में मुक़दमा दायर कर सकता है और न्याय पा सकता है तो यह बात क्या किसी से छिपी है कि हमारे देश में न्याय पाने के लिए पीढ़ियां दांव पर लग जाती है लेकिन न्याय की बस उम्मीद ही रहती है, वह आसानी से मिलता नहीं है ?

यह कानून देखने में चाहे कितने अच्छे लगते हों, कागज़ पर कितने ही आकर्षक और लुभावने हों और सरकार की मंशा चाहे कितनी भी किसान का भला करने की रही हो लेकिन वास्तविकता यह है कि इन कानूनों के ज्यादातर हिस्से प्रैक्टिकल या व्यावहारिक नहीं हैं। यही कारण है कि सरकार और किसानों के बीच हुई बहुत बार की बातचीत का कोई नतीज़ा नहीं निकला।

किसान इन कानूनों को पूरी तरह वापिस लेने की बात ऐसे ही नहीं कर रहे बल्कि उसमें कुछ तथ्य ज़रूर है। सरकार का यह कहना कि वह इनमें संशोधन करने को तो राज़ी है लेकिन पूरी तरह रद्द करने के लिए तैयार नहीं है, उससे लगता है कि यह लड़ाई दोनों पक्षों की नाक का सवाल बन गई है।  दोनों ही अपनी अपनी ज़िद छोड़ने के बारे में सोचना तक नहीं चाहते, चाहे इससे देश की आर्थिक स्थिति पर कितना भी विपरीत प्रभाव क्यों न पड़े !

अब हम इस बात पर आते हैं कि जो कानून वास्तव में बहुत लाभकारी हैं और जिनमें थोड़ा बहुत फेरबदल कर उन्हें और भी उपयोगी बनाया जा सकता है तो फिर बुराई कहां है ?  इन कानूनों के बेहतर होने के बावजूद ये किसानों के लिए हितकारी क्यों नहीं हैं और वह इन्हें मानने से संकोच क्यों कर रहा है, जब तक इसका विश्लेषण नहीं होगा तब तक इस समस्या का कोई ऐसा समाधान निकलना असंभव है जो सबको मंजूर हो !

कानून नहीं, मूलभूत ढांचा चाहिए

इन कानूनों की सबसे बड़ी कमी यह है कि यह वक्त के मुताबिक नहीं हैं अर्थात अभी इनके अमल में लाए जाने का सही समय नहीं है। इसका अर्थ यह है कि जब तक कृषि क्षेत्र में ऐसा इन्फ्रास्ट्रक्चर यानी कि सुविधाएं नहीं होंगी जिनके भरोसे किसान यह सोच सके कि अगर कल कोई खतरा आ जाए, कुछ ऊंच नीच हो जाए तो उसकी कमर न टूट जाए, वह बर्बाद न हो जाए और ज़रा सा भी नुकसान न सह पाने की दशा में उसे आत्महत्या जैसा कदम न उठाना पड़ जाए।

यदि सरकार चाहती है कि किसान इन कानूनों को स्वीकार करें तो सबसे पहले उसे पूरे कृषि क्षेत्र में उन ज़रूरी सुविधाओं का प्रबंध करने की दूरदर्शी योजना बनानी होगी जिससे किसानों का आत्मविश्वास बढ़े और वे आर्थिक रूप से अपने को इतना सक्षम बना लें कि किसी भी अनहोनी का मुकाबला कर सकें।

इन उपायों में सबसे पहले उसके लिए सिंचाई, बिजली, बीज, उर्वरक और कीटनाशक का प्रबंध सुलभ और सस्ते दाम पर करने की ऐसी व्यवस्था करनी होगी जिसमें उसे इन चीजों के लिए किसी से ऋण न लेना पड़े।

इसके बाद उसकी उपज के भंडारण का इंतज़ाम निशुल्क करना होगा और उसके घर या खेत के आसपास ही फ़सल की बिक्री होने की व्यवस्था करनी होगी, चाहे इसके लिए मंडी को ही उसके घर तक क्यों न ले जाना पड़े। इससे उन कुछ लोगों का नुकसान हो सकता है जिनका वर्तमान मंडी व्यवस्था पर दबदबा है और जिनके पास अपने वेयरहाउस हैं तथा उनके निहित स्वार्थ इससे जुड़े हैं।  यह उनकी आमदनी का एक प्रमुख साधन भी है और मंडी के संचालन में हिस्सेदार होने से राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक लाभ मिलते हैं। उनके लिए नई व्यवस्था का विरोध करना स्वाभाविक है लेकिन यदि सरकार ठान ले और इन धनवान तथा ताकतवर किसानों का सहयोग हासिल कर ले  तो यह संभव है।

ध्यान रहे मूलभूत ढांचा अर्थात इंफ्रास्ट्रक्चर तैयार करने का काम सरकार को सरकारी उपक्रमों और विभागों के माध्यम से करना होगा जो कि सरकार के पास अपने एक विशाल तंत्र के रूप में मौजूद है। अगर यह निजी क्षेत्र को दे दिया तो किसान का शोषण होना निश्चित है क्योंकि पैसे वाला व्यापारी बिना मुनाफे के कोई काम नहीं करता।

इसके बाद सरकार न्यूनतम समर्थन मूल्य के स्थान पर ऊपज के लाभकारी मूल्य तय करने की नीति बनाए जिससे ज्यादा भाव पर बिक्री तो हो सके लेकिन उससे कम पर नहीं चाहे खरीददार सरकार हो या अन्य कोई भी हो।

वक्त के मुताबिक क्या सही है

देखा जाए तो वैसे भी इस समय कानून लागू करने की बाध्यता नहीं है क्योंकि अदालत की रोक है, इसलिए इन्हें निरस्त करने में ही समझदारी है ।

किसान नेताओं और सरकार को एक बार फ़िर नए सिरे से बातचीत की तैयारी करनी होगी जिसमें केवल इस विषय पर चर्चा और निर्णय हो कि देश भर के किसानों के लिए उनकी ज़रूरत के मुताबिक पूरा मूलभूत ढांचा किस तरह तैयार हो और इसके तैयार होने की समय सीमा तय कर दी जाए।  जब यह हो जायेगा तो किसान का आत्मबल और विश्वास मज़बूत होगा। उसके बाद यही कानून लागू कर दिए जाएं, तब किसी के लिए भी इनका विरोध करने की गुंजाइश नहीं होगी।