शुक्रवार, 25 अक्तूबर 2019

घरेलू हिंसा कानून में बदलाव का वक्त आ गया है









आज से डेढ़ दशक पहले भारत में घरेलू हिंसा और नारी शोषण को रोकने के लिए एक मजबूत कानून बना था और जिससे एक सुरक्षा कवच की भाँति विभिन्न प्रकार की हिंसा से प्रताड़ित महिलाओं को राहत मिली लेकिन जैसा कि प्रकृति का नियम है, निरंतर बदलाव की प्रक्रिया से नए वातावरण और परिस्थितियों का सृजन, उसी प्रकार अब समय आ गया है कि इस कानून में समय की जरूरत के हिसाब से उचित परिवर्तन किए जाएँ।



हालाँकि इस कानून का दायरा बहुत व्यापक है लेकिन व्यवहार में यह कमोबेश घर की महिलाओं के साथ मारपीट, उनका यौन सहित विभिन्न प्रकार से शोषण और उनके जीने के मूलभूत अधिकार को पुरुषों द्वारा हथियाए जाने से रोकने में ही अधिकतर इस्तेमाल में आता है।


घर से अधिक बाहर होती हिंसा 


इस सप्ताह मुंबई में सम्पन्न हुए मामी फिल्म समारोह में एक फिल्म बाई द ग्रेस ऑफ गॉड दिखाई गयी। यह फिल्म किसी विकासशील या अविकसित देश में नहीं बनी या वहाँ हो रही शोषण की घटनाओं का रूपांतरण नहीं थी बल्कि यूरोप के धनी और विकसित देश फ्रान्स में निर्मित हुई। 



इसकी कथा यह है कि एक पाँच बच्चों के पिता को जो एक घटना उसके बचपन से लेकर अब तक उसे चैन से जीने नहीं दे रही थी, वह थी तीस पैंतीस वर्ष पहले उसके साथ हुआ यौन शोषण जो किसी अन्य ने नहीं बल्कि धर्मोपदेशक एक चर्च के पादरी ने किया था। उल्लेखनीय है कि वह अकेला ही नहीं इसका शिकार नहीं हुआ था बल्कि सैंकड़ों नहीं बल्कि हजारों बच्चों को उस पादरी की यौन पिपासा को झेलना पड़ा था।


उल्लेखनीय यह है कि बचपन में अपने साथ हुए यौन दुर्व्यवहार के पीड़ित वयस्क होने और अपना अपना परिवार बसा चुके तथा एक तथाकथित सुखी जीवन बिता रहे लोग उस पादरी की हरकत को अभी तक अपने से दूर नहीं कर पाए थे। वे एक प्रकार से अपराध बोध में जी रहे थे कि वे अपने साथ हुए अत्याचार का कोई बदला नहीं ले सके और वह पादरी अब भी उसी तरह छोटे बच्चों का शोषण करता आ रहा है।



हालाँकि पादरी के कुकर्मों की जानकारी उसके वरिष्ठ लोगों की थी लेकिन किसी ने उसके खिलाफ कोई कार्यवाही नहीं की। फिल्म के नायक ने दसियों वर्ष तक मानसिक संताप झेलने के बाद उससे बाहर निकलने और अपने साथ हुए शोषण का बदला लेने की हिम्मत दिखाई और पादरी की शिकायत अधिकारियों से यह जानते हुए भी की कि वह अकेला है और तंत्र बहुत मजबूत है। उसे भय था कि कहीं उसी को दोषी न मान लिया जाए और झूठा साबित न कर दिया जाए।



अधिकारियों के सामने वह और पादरी आए जिसमें उसके आरोप का जवाब पादरी ने यह दिया कि वह एक मानसिक रोग से पीड़ित है और छोटे बच्चों को देखते ही उसकी यौन भावनायें भड़क उठती हैं और वह उनके कोमल अँगो को सहलाने से लेकर मसलने और यौन क्रिया के लिए उत्तेजित हो जाता है।
इसके बाद फिल्म के नायक ने ऐसे लोगों से सम्पर्क करना शुरू किया जो यौन पीड़ित थे और अभी तक अपने साथ हुए दुष्कर्म को भूल नहीं पाए थे। एक व्यक्ति तो ऐसा था जिसका निजी अंग विकृत हो गया था और वह मिरगी की बीमारी का शिकार हो गया था।



इन सब पीड़ितों ने मिलकर अपना संगठन बनाया और अपने साथ हुए कुकर्म का बदला लेने का कानूनी रास्ता अपनाया। यहाँ यह महत्वपूर्ण नहीं है कि आरोपी को सजा हुई या नहीं बल्कि यह है कि बचपन या अल्हड़पन में जब किसी के साथ, चाहे महिला हो या पुरुष, यौन दुर्व्यवहार होता है तो वह जीवन भर उसे भूल नहीं पाता और हमेशा हीनभावना में जीता रहता है और एक ऐसे अपराध के लिए अपने को जिम्मेवार मानता रहता है जो उसके साथ हुआ लेकिन कभी उसका प्रतिकार नहीं कर सका।


सामाजिक और कानूनी संरक्षण 

अक्सर देखने में आता है कि जो अपराधी है उसे पारिवारिक संरक्षण के साथ समाज का संरक्षण भी आसानी से मिल जाता है। इस तरह के वाक्य ‘भूल जा जो तेरे साथ हुआ‘, ‘अगर जुबान खोली तो नतीजा भुगतने को तैयार रहना‘ ‘अपने साथ खानदान की इज्जत भी जाएगी‘, जो इस कहावत को सिद्ध करते हैं कि ‘समर्थ को दोष नहीं‘।



जिस तरह अपने साथ हुए यौन शोषण को नहीं भुलाया जा सकता, उसी प्रकार बचपन में हुई बिना किसी कारण की मारपीट, शारीरिक और मानसिक प्रताड़ना, लिंग भेद के कारण हुए अपमान और यहाँ तक कि पालन पोषण में भी हुए भेदभाव को जीवन भर नहीं भुलाया जा सकता। हो सकता है कि वक्त का मरहम घाव को ढक दे लेकिन जरा सा कुरेदने वाली वाली घटना होते ही घाव फिर हरा होकर टीस देने लगता है।


घरेलू हिंसा के साथ बाहरी हिंसा से बचने के लिए भी कानून का रास्ता होना चाहिए। कानून की कमी के कारण ही सामाजिक अन्याय का प्रतिकार करने के लिए जब एक उम्र निकल जाने के बाद भी तनिक सा अवसर मिलते ही पीड़ित अपने साथ दशकों पहले हुए हुए शोषण को बयान करने के लिए सामने आ जाते हैं तो इसका एक कारण यह है कि जब उनके साथ यह हुआ था तब ऐसा कोई कानून नहीं था जो जुल्म करने वाले के मन में डर पैदा कर सकता।



ऐसे अनेकों उदाहरण हैं, सच्ची घटनाएँ हैं और जो निरंतर घटती रहती हैं जिनमें गुरु, शिक्षक, धर्मोपदेशक से लेकर समाज के दबंग लोग अपने अनुयायियों के साथ कैसा भी शोषण, जो शारीरिक, मानसिक, आर्थिक कुछ भी हो सकता है, करने के बाद स्वतंत्र घूमते रहते हैं। कार्यस्थल या जहाँ आप नौकरी करते हैं, वहाँ होने वाले शोषण से अलग हटकर परिवार और समाज के बीच होने वाले मानसिक और शारीरिक शोषण का निराकरण करने और कानून के प्रति डर पैदा करने वाली व्यवस्था के बारे में सोचने का सही वक््त यही है क्योंकि हम विकासशील देशों की श्रेणी में आते हैं।


विकसित देशों में आज भी यह समस्या इसलिए पीछा नहीं छोड़ रही क्योंकि उन्होंने अपनी विकासशील अवस्था में इस ओर ध्यान नहीं दिया था। हमारे पास अभी समय है इसलिए तुरंत इस बारे में सार्थक और मजबूत कानून बनाने की दिशा में कदम बढ़ाना ही अच्छा होगा।

शुक्रवार, 18 अक्तूबर 2019

बैंक की नीति और नियत से जुड़ा है खातेदारों का भरोसा









बैंक से पैसा गायब हो जाने, अपना ही रुपया निकाल पाने की बेबसी और अपना तथा परिवार का छोटा मोटा खर्च चलाने को भी जेब में कुछ हो तो दिल हिल जाता है। पंजाब महाराष्ट्र सहकारी बैंक के खाताधारी बिना किसी अपराध के जो सजा भुगत रहे हैं, वह बैंकिंग व्यवस्था पर कलंक तो है ही, साथ में सरकार और प्रशासन की कमजोरी या मिलीभगत को भी उजागर करने के लिए पर्याप्त है।


एक उदाहरण देना काफी होगा। सन् 2001 में माधवपुरा मर्कंटायल कोआपरेटिव बैंक में जबरदस्त घोटाला हुआ था और उसके 45000 जमाकर्ताओं को पिछले वर्ष यानी सन् 2018 में यह आश्वासन मिला है कि उन्हें उनका पैसा वापिस मिल जाएगा। क्या पीएमसी के खाताधारियों का भी यही हश्र होने वाला है, यह सोचकर ही डर लगने लगता है।


ग्राहक की मानसिकता

असल में जब सहकारी बैंकों की शुरुआत हुई थी तो उन्होंने जनता को लुभाने के लिए दूसरे बैंकों से ज्यादा ब्याज देने की पेशकश की और थोड़ी सी अधिक कमाई के लालच में लोग अपनी बचत इन बैंकों में जमा कराने लगे।


इसमें उनकी कोई गलती नहीं क्योंकि हरेक अपनी रकम को बढ़ता हुआ देखना चाहता है और एक दो प्रतिशत ब्याज अधिक मिल रहा है तो वह उसे लेना चाहेगा। उसे यह भी बताया जाता है कि उसका धन सुरक्षित है और कानून के दायरे में है।


इसके साथ सहकारिता पर आधारित संगठनों को सरकारी प्रोत्साहन भी उन पर विश्वास करने का बड़ा कारण रहा है, हालाँकि सहकारिता आधारित संस्थान विशेषकर बैंक अधिक सफल नहीं हुए क्योंकि उनके संचालक निजी स्वार्थ के चलते और किसी कड़े कानून के होने से मनमानी करने के लिए स्वतंत्र हैं, अधिकतर नेता हैं और उनका उद्देश्य सेवा से ज्यादा मेवा खाना है।


इसके विपरीत जो सरकारी और निजी क्षेत्र के तथाकथित बड़े बैंक हैं, वे अपनी कम ब्याज की दरों को इस आधार पर जायज ठहराते हैं कि उनके खर्चे ज्यादा हैं, वे कम आबादी और दूरदराज के इलाकों में अपनी शाखायें नहीं खोल सकते और इसी तरह के तर्क दिए जाते हैं। विडम्बना यह है कि सरकार भी इसमें कुछ करने को अपनी मजबूरी बताती है और ग्राहक सहकारी बैंकिंग व्यवस्था पर भरोसा कर लेता है।


अब बारी आती है इन सहकारी बैंकों की नीति और नियत की, जिस पर उनके मालिकों का अधिकार होता है, सहकारिता का मुखौटा लगाकर वे कानून की धज्जियाँ उड़ाते हैं और जो असली मालिक अर्थात जमाकर्ताओं को लम्बे समय तक बहकाए रखते हैं और इस दौरान उनकी रकम ऐसे लोगों को ऋण देने के लिए इस्तेमाल करते हैं जिनका उद्देश्य ही यह होता है कि इसे उन्हें बैंक को लौटाना नहीं है।


सरकार सहकारिता को बढ़ावा देने के नाम पर हाथ पर हाथ धरे बैठी रहती है और इसलिए भी कोई सख्त कदम नहीं उठाती क्योंकि इन सहकारी बैंकों के कर्ताधर्ता दबंग राजनीतिज्ञ होते हैं और सत्ता पर उनकी पकड़ मजबूत होती है। ऐसे में ये बैंक दिवालिया हो जाते हैं तो भी ग्राहक को केवल एक लाख रुपए तक की बीमा राशि मिल सकती है चाहे उसका कितना भी पैसा जमा हो।


कहते हैं कि वक्त सभी तरह के घाव भर देता है। जैसे जैसे समय बीतता जाता है, लोग अपने साथ हुए अन्याय को भूलने लगते हैं और इस प्रकार धोखा, छल, कपट, बेईमानी चलती रहती है। सरकार इन घोटालों को रोकने के लिए कोई कदम नहीं उठाती क्योंकि उसे यह मालूम रहता है कि हमारे देश में इस की टोपी उसके सिर पहनाने की परम्परा है।


कोई बड़ा वित्तीय संस्थान, बैंक आगे कर दिया जाएगा जो घोटालेबाज सहकारी बैंक के निर्दोष खातेदारों का मसीहा बन जाएगा और इस तरह उनके जख्मों पर मरहम लगा दिया जाएगा। इस दौरान लम्बी कानूनी प्रक्रिया चलती रहेगी और जिन दोषियों को जनता को दिखाने के लिए पकड़ा गया है वे सबूत होने या ऐसा ही कोई कानूनी दाँव खेलकर बच जाएँगे।


नियंत्रण का अभाव

यह जानकर आश्चर्य होता है कि सहकारी बैंकिंग व्यवस्था पर सरकार से लेकर रिजर्व बैंक तक की कड़ी निगरानी नहीं होती। वैसे तो यह बात सरकारी और निजी बैंक हों या छोटे वित्तीय बैंक, सब पर ही लागू होती है कि उनके अपने नियम और नीतियाँ हैं और उन पर किसी का हस्तक्षेप या दबाब नहीं होता। 
इसका अर्थ यह हुआ कि जमाकर्ताओं को किसी भी तरह की सुरक्षा प्राप्त नहीं है और कोई ऐसा नियंत्रक नहीं है जो उनके धन की हिफाजत की गारंटी ले सके। यह कैसी अर्थव्यवस्था है जो इतनी बेलगाम है कि किसी को भी कुछ भी करने के लिए आजाद छोड़ देती है।


इससे समझ में आसानी से सकता है कि क्यों बरसों बरस घोटालेबाज बैंक के साथ लेनदेन में हेराफेरी करते रहने में कामयाब हो जाते हैं और जब उनके पाप का घड़ा फूटने के कगार पर होता है, वे गायब ही जाते हैं, विदेशों में ऐसी जगह चले जाते हैं जहाँ से उनके वापिस लाए जाने की कोई सम्भावना नहीं होती।


जमाकर्ताओं के लिए सावधानी


सरकार और रिजर्व बैंक के नियंत्रण का अभाव, कानून की खामियाँ और भ्रष्टाचार पर आधारित राजनीतिक व्यवस्था और केंद्र हो या राज्य, किसी से भी वक्त पर सहायता मिलने की वास्तविकता को देखते हुए उपभोक्ताओं को ही जागरूक होना होगा और इसके लिए वे कुछेक उपाय कर सकते हैं। कदाचित इससे उनके परिश्रम से अर्जित धन की सुरक्षा हो सके।


सबसे पहले अधिक ब्याज के लालच में पड़ें। अपना पैसा जमा रखने के लिए कम ब्याज दर होने पर भी उस बैंक में खाता खोलें जिसकी अधिक से अधिक शाखाएँ हों, उसकी काम करने की प्रणाली पारदर्शिता से पूर्ण हो और वह अपनी प्रतिष्ठा के लिए जाना जाता हो।


दूसरी बात यह कि अपनी रकम एक ही बैंक में फिक्सड डिपॉजिट में रखें,  अपने बचत खाते की समय समय पर जाँच करते रहें कि उसमें जमा या निकाली गयी राशि में कोई अनियमितता तो नहीं है। अगर कुछ गड़बड़ होने का संदेह हो तो उसका निवारण करने में समय गवाएँ, चाहे इसके लिए अपने काम से अवकाश ही क्यों लेना पड़े।


अक्सर बैंक अपनी ब्याज दरों में परिवर्तन करते रहते हैं, अपने ग्राहकों को नयी सुविधा देने की घोषणा करते रहते हैं, पुराने ग्राहकों के जागरूक होने का फायदा उठा कर वे उन्हें उन सुविधाओं से वंचित कर देते हैं, इस पर नजर रखें और इसका पता चलते ही तुरंत कार्यवाही करें और अगर खाता बंद भी करना पड़े तो कर दें।


आजकल नेट बैंकिंग और मोबाइल बैंकिंग का बोलबाला बढ़ रहा है, इसे जानिए, समझिए और अपनाइए। डेबिट और क्रेडिट कार्ड का इस्तेमाल करने में सावधानी बरतिए और इनका इस्तेमाल तब ही करें जब इनसे खरीदी वस्तु का  भुगतान करने की आपने पहले से व्यवस्था कर रखी हो क्योंकि इन पर जो ब्याज लगाया जाता है वह मुसीबत का कारण बन सकता है।


किसी भी आकर्षक छूट पर अमल करने से पहले उसकी जाँच कर लें कि कहीं वह आगे चलकर आपकी जेब पर भारी पड़ने वाली तो नहीं है, सस्ती वस्तु महँगे दाम पर तो छूट के लालच में नहीं खरीद रहे और कोई भी खरीदारी करते समय अपने बैंक खाते या कार्ड का विवरण गोपनीय रखें क्योंकि धोखे की शुरुआत यहीं से होती है।


(भारत)


शनिवार, 12 अक्तूबर 2019

स्टार्ट अप की सफलता के लिए योग्यता का पैमाना







स्टार्ट अप उद्यमी होने अर्थात अपना खुद का कारोबार खड़ा करने का दूसरा नाम है। यह व्यवसाय या काम धंधा क्या हो, इसकी पहचान इस बात पर निर्भर है कि व्यक्ति कितना काबिल है, उसकी सोच कैसी है और पहले से चल रहे उद्योग धंधों से अलग कुछ करने की उसकी मंशा क्या है? यह आँकड़ा कि एक हजार में से केवल एक स्टार्ट अप ही कामयाब होता है, यह बताने और स्वयं के समझने के लिए काफी है कि स्टार्ट अप कोई ऐसी योजना नहीं है कि हर कोई उसे आजमा ले और सफल होने के सपने देखने लगे।


विज्ञान प्रसार के लिए इस विषय पर विज्ञान चैनल पर प्रसारित होने के लिए फिल्म बनाने का अवसर एक ऐसी ही चुनौती थी और इस दौरान जो सुनने, देखने और समझने को मिला, वह ऐसा अनुभव है जो पाठकों के साथ बाँटने से उनकी अनेक शंकाओं का निवारण कर सकता है।



सपने पूरा करना 

आमतौर पर पढ़ाई लिखाई के दौरान स्कूल के बाद कॉलेज और फिर किसी व्यावसायिक या तकनीकी संस्थान में अपने ज्ञान को पैना करने और शिक्षकों द्वारा प्रेरित किए जाने पर युवा मन सपने देखने लगता है कि मुझे कुछ ऐसा बनाना है जो दुनिया से अलग हो। अक्सर होता यह है कि बिना इस बात की परवाह किए कि उसकी सोच वास्तविक धरातल पर उतरने से पहले पूरी तरह मजबूत भी है या नहीं, वह उद्यमी बनने के लिए ऐसी छलाँग मारता है कि औंधे मुँह धरती पर गिर जाता है और असफल लोगों की सूची में स्वयं अपना नाम लिख देता है।



स्टार्ट अप का मतलब यह नहीं है कि जो मन में आया उसे करने के लिए मैदान में कूद गए बल्कि यह है कि अपनी सोच का दायरा बढ़ा कर यह तय करना है कि जो कुछ भी करने की बात मन में आई है उससे क्या समाज की कोई समस्या सुलझ सकती है ? मतलब यह कि इसके लिए गहन अध्ययन करना होगा और सामाजिक सरोकारों से रूबरू होना पड़ेगा और इस बात से जूझना होगा कि मेरी सोच दूसरों से अलग कैसे है और जब यह अपनी समझ में आ जाए तब ही उद्यमी का चोला धारण कीजिए और स्टार्ट अप की दुनिया में पैर पसारिए।


हमारा दौर कलयुग का है अर्थात मशीन का बोलबाला है। हाथ पैर से काम करने के स्थान पर वही काम मशीन से करने पर समय और संसाधन दोनों की ही बचत होती है, ऑटोमेशन इस युग की वास्तविकता है तो फिर किसी भी उद्यम का सपना साकार करने के लिए अनुसंधान और आविष्कार ही वह मूल तत्व है जिस पर स्टार्ट अप की इमारत खड़ी की जा सकती है ।


फेल होने का डर 


सोच या सपना तो है पर उसे पूरा करने के लिए पैसा और संसाधन नहीं हैं, यह कोई नई बात नहीं है, हरेक यही सोचकर बैठ जाता है कि उसके पास पैसा होता तो उसके सपनों को पंख लग जाते लेकिन वह यह नहीं सोच पाता कि क्या वास्तव में वह जो करना चाहता है उसमें गेमचेंजर होने की क्षमता है भी या नहीं !
ज्यादातर स्टार्ट अप इसलिए फेल होते हैं क्योंकि उन्हें शुरू करने वालों में ओवरकॉन्फिडेन्स होता है, वह ऐसे भ्रम में फँस जाते है जिस पर उनका नियंत्रण नहीं होता और किसी भी नतीजे पर पहुँचने के लिए सीमित मात्रा में लिए गए सैम्पल को ही अपनी सफलता का पैमाना बना लेते हैं। वह भूल जाते हैं कि चैका छक्का लगाना कतई आसान नहीं है, हाँ कभी कभार अच्छी किस्मत से लग भी जाता है लेकिन व्यवहार में ऐसा कभी नहीं होता।


आज हमारे देश में ऐसी सुविधाएँ हैं जहाँ यह बताने और समझाने की व्यवस्था है कि आपके विचार और उसकी सफलता के बीच जो खाई है, उसे कैसे पार किया जाए। विभिन्न वैज्ञानिक अनुसंधान संस्थानों से जुड़े ऐसे इंक्युबेशन सेंटर हैं जहाँ अगर आपके विचार में दम है तो उसकी पूरी जाँच परख के बाद जरूरी सुविधाएँ जैसे कि काम करने की जगह, उचित सलाह, ट्रेनिंग से लेकर मार्केटिंग और शुरुआती निवेश तक का इंतजाम है।


यह सेंटर कुछ इस तरह से हैं जैसे कि अंडे के तैयार होने से पहले उसे सेना पड़ता है, इसी तरह यहाँ आकर एक निश्चित अवधि के लिए युवा वैज्ञानिकों, वरिष्ठ वैज्ञानिक, प्रोफेसर, पीएचडी स्कॉलर तथा अपने विचार की प्रामाणिकता सिद्ध कर सकने वालों को वे सभी सुविधाएँ मुहैया कराई जाती हैं जो उनके सपनों को उड़ान देने के लिए आवश्यक हैं।


निधि, प्रयास, अटल इनोवशन और बिराक जैसे संसाधन आज भारतीय युवाओं को उपलब्ध हैं, जहाँ अगर योग्यता है तो उसे सिद्ध करने के लिए धन से लेकर प्रयोगशालाओं तक की सुविधाएँ हैं। प्रयोगशाला में विकसित टेक्नॉलोजी को मार्केट तक लाने के समुचित प्रबंध हैं।


स्टार्ट अप की स्थापना के लिए वित्तीय सहायता प्रदान करने के लिए अनेक संस्थाएँ हैं, सरकार ने आयकर में छूट और सब्सिडी देने की सुविधा दी है और निजी तौर पर फंडिंग देने के लिए दुनिया भर के उद्योगपति और धनवान इस तरह के प्रोजेक्ट तलाशते रहते हैं जिनसे वे स्वयं तो पैसे को कई गुना करें हीं, साथ में लोगों को सहूलियत भी मिले।


शुरुआती तैयारी 


यहाँ लाख रुपए का प्रश्न यह है कि स्टार्ट अप की शुरुआत कहाँ से की जाए, तो इसके लिए अपने आसपास की दुनिया को टटोलिए कि उसे किस चीज की जरूरत है और उस तक उसे कैसे पहुँचाया जा सकता है। जो कुछ भी पहले से मौजूद है उसे अच्छी तरह से खँगालिए कि उसकी गुणवत्ता बढ़ाने के लिए उसमें क्या नया जोड़ा जाए कि उसकी उपयोगिता पहले से कई गुना ज्यादा हो जाए। यह जानने के लिए कि कौन सा उत्पाद या सेवा मार्केट में हिट हो सकती है, उसके लिए देश भर में भ्रमण और जरूरत हो तो विदेश में भी खोजबीन की जाए।


स्टार्ट अप के लिए आम तौर से जरूरी यह भी है कि यह अकेले व्यक्ति का काम नहीं है। अपनी जैसी ही सोच रखने वाले एक से अधिक लोग ही इसमें सफलता की ऊँचाइयाँ छू सकते हैं, उनमें एक दूसरे के प्रति विश्वास जहाँ एक ओर जरूरी है, वहाँ ‘हाँ‘ या ‘न‘ सुनने और समझने की भी मानसिकता होनी चाहिए। ज्यादातर स्टार्ट अप इसलिए फेल हो जाते हैं क्योंकि उनकी शुरुआत करने वालों का मन एक दूसरे से मिला हुआ नहीं होता। वे पहली असफलता को ही अंतिम मान लेते हैं। होना यह चाहिए कि स्थिति और परिस्थितियों के अनुसार अपनी कार्य योजना में परिवर्तन करते रहें और असफल होने के कारणों को पहचान कर आगे की प्लानिंग करें।


आज हमारे देश को एक विकासशील अर्थव्यवस्था होने के नाते यह सुविधा है कि यहाँ हर चीज अधिक मात्रा में चाहिए क्योंकि माँग के मुकाबले पूर्ति नहीं हो पाती। किसी भी क्षेत्र में देख लीजिए, यही असलियत है।


ग्रामीण और शहरी लोगों के स्वास्थ्य से जुड़ी सेवाएँ, कृषि, ऊर्जा, पर्यावरण की समस्याएँ, आने जाने के साधन और परिवहन को आसान बनाने की सुविधाएँ, शारीरिक और मानसिक जरूरतों को पूरा करने के लिए खानपान से लेकर रहन सहन तक को सुगम बना सकने वाले उपकरणों को उपलब्ध कराना तथा और भी बहुत से क्षेत्रों में नयापन लाने के प्रयास करना एक स्टार्ट अप की अच्छी शुरुआत हो सकती है।


जब भी आपको लगे कि आपकी कोई नई सोच है, उसे बेझिझक पूरा करने के लिए पहला कदम उठाने में किसी प्रकार का संकोच न करें क्योंकि कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती।


(भारत)

शुक्रवार, 4 अक्तूबर 2019

प्लास्टिक प्रदूषण और स्वच्छता अभियान, आखिर गलती कहाँ हो रही है?








जैसा कि कहावत है कुछ चीजें ऐसी होती हैं जो ना तो निगलते बनती हैं और ना ही उगलते, ऐसा ही इन दिनों काफी जोर पकड़ रहे प्लास्टिक प्रदूषण से निबटने के बारे में हो रही बयानबाजी के बारे में कहा जा सकता है। 

वास्तविकता यह है कि अभी तक यह तय नहीं हो सका है कि प्लास्टिक, जो  एक प्रकार से जादुई पदार्थ है, के इस्तेमाल से क्या बचा जा सकता है? आज की परिस्थितियों में तो असंभव है क्योंकि यह जिंदगी में इस तरह घुलमिल गया है कि इस पर प्रतिबंध लग जाने की बात से ही घबराहट होती है।


ऐसा नहीं है केवल हम ही प्लास्टिक से होने वाले प्रदूषण से निजात पाने की अटकलें लगा रहे हैं, दुनिया भर में बड़े बड़े देशों से लेकर छोटे से छोटे देश में यह चर्चा का विषय है और सब ही इसके इस्तेमाल से होने वाले स्वास्थ्य पर खतरों और पर्यावरण के नुकसान से बचने की तरकीबें सोच रहे हैं। क्या इसका अर्थ यह नहीं हुआ कि प्लास्टिक हमारी जीवन शैली, हमारे रहन सहन से लेकर खान पान तक से जुड़ गया है और कुछ ऐसा हो गया है कि इसके बिना ठीक उसी तरह नहीं रहा जा सकता जिस प्रकार हवा पानी के बिना नहीं रहा जा सकता।


प्लास्टिक का इस्तेमाल कहाँ नहीं होता, बोतल, ढक्कन, थैली, नली, पैकेट, पाउच, पैकिजिंग, कप प्लेट, अनेक तरह के पर्दे, शीट यानी कि अगर इन सब को मिलाकर देखा जाए तो हर चीज के साथ प्लास्टिक की जुगलबंदी है  । अगर जितना भी प्लास्टिक है, एक साथ इस्तेमाल करें तो पूरी दुनिया को सात बार इससे लपेटा जा सकता है।


प्लास्टिक से दोस्ती 

जब प्लास्टिक की यह महिमा है तो इस पर प्रतिबंध लगाने की बात सोचना भी बेमानी और हानिकारक है। इसके स्थान पर जरूरत इस बात की है कि प्लास्टिक से दोस्ती करने और इसके गलत इस्तेमाल अर्थात इसे जलाने, नदी, नालों और समुद्र में फेंकने से बचने के उपाय किए जाएँ तो यह न हमारे जीवन और न ही पर्यावरण के लिए खतरनाक होगा।


जिन देशों ने भी प्लास्टिक पर प्रतिबंध लगाने के लिए कानून बनाए, उनमें से अधिकतर के पास इस बारे में कोई आँकड़ा नहीं है कि कानून का नतीजा क्या निकला, मतलब यह कि वाहवाही के लिए कानून तो बना दिया लेकिन उस पर अमल इसलिए नहीं कराया जा सका क्योंकि प्लास्टिक इस्तेमाल करने से बचना नामुमकिन है।


हमारे देश में भी ऐसी ही गलती करने की घोषणा तो हो चुकी थी और स्वच्छता आंदोलन की तरह प्लास्टिक मुक्ति आंदोलन की शुरुआत होने वाली थी लेकिन अब इसे तीन साल यानी २०२२ तक के लिए टाल दिया गया है। बेहतर यह होता कि तीन साल का कोई ऐसा कार्यक्रम लागू करने की योजना जनता के सामने रखी जाती जिससे लोग प्लास्टिक से दोस्ती करने यानी उसके लाभदायक और रोजगार देने वाले पक्ष को अपनाते और इस तरह उसके दुष्परिणामों के प्रति जागरूक होते तथा आवश्यक सावधानी बरतते।


भारत सरकार के परिवहन मंत्री ने सड़क बनाने के लिए प्लास्टिक के इस्तेमाल को प्राथमिकता देते हुए इसके उपयोगी होने की गारंटी दे दी है। इसके विपरीत उपभोक्ता मंत्री इस पर रोक लगाने की वकालत कर रहे हैं। हमारे वैज्ञानिक प्लास्टिक प्रदूषण से बचने की टेक्नॉलोजी विकसित कर चुके है। हमारे ही देश में ऐसे अनेक उदाहरण हैं जिनमें प्लास्टिक और दूसरे कचरे के पहाड़नुमा ढेर को सुंदर बगीचे में परिवर्तित कर दिया गया है।


ऐसी टेक्नॉलोजी है जो प्लास्टिक से होने वाले प्रदूषण से हमारी रक्षा कर सकती है। आज विज्ञान निरंतर रोजगार के नए नए साधन उपलब्ध करा रहा है। जरूरत केवल इतना भर जागरूक होने की है कि प्लास्टिक का इस्तेमाल करने के बाद वह हमारे जल स्रोतों तक न पहुँचने पाए, चाहे वे नदियाँ हों या विशाल समुद्र।


प्लास्टिक उद्योग अपने आप में बहुत उपयोगी और बड़ी तादाद में रोजगार पैदा कर सकने की विशेषता लिए हुए है। अक्सर आर्थिक संकट से जूझ रही नगर पालिकाओं, नगर निगम और दूसरी प्रशासनिक इकाइयों के लिए इस्तेमाल किए हुए प्लास्टिक से उद्योग लगाने पर काफी कमाई हो सकती है।


यह सच है कि प्लास्टिक को गलने के लिए सैंकड़ों साल चाहिएँ तो फिर हम उसे इतने समय तक बेकार पड़े रहने देने के बजाय उपयोग में क्यों न लाएँ , बस यही समझ का फेर है। प्लास्टिक के गुण जैसे कि वह सस्ता, टिकाऊ, कम वजन और हल्का होता है तो उन्हें अपनाएँ और प्लास्टिक को नेस्तनाबूद करने की बात न करें तो यह देश की अर्थव्यवस्था के लिए भी लाभकारी होगा और व्यक्तिगत समृद्धि का भी रास्ता बनेगा।


प्लास्टिक उद्योग विदेशी मुद्रा कमाने का भी बेहतरीन जरिया है, जो देश प्लास्टिक कचरे के निपटान की समस्या से परेशान हैं, हम उनके साथ व्यापार कर सकते हैं और अपने लिए आमदनी की साधन तैयार कर सकते हैं।
जो लोग यह समझते हैं कि प्लास्टिक से बनी चीजों का इस्तेमाल रोकने के लिए दूसरी सामग्रियों से उन्हें बनाया जाए तो यह कतई फायदे का सौदा नहीं है और केवल धन और ऊर्जा की बर्बादी है, हाँ शौक के तौर पर इन्हें बनायें तो कोई बुराई नहीं लेकिन यदि प्लास्टिक से बनी चीजों के विकल्प के रूप में इसे देखेंगे तो निराशा ही हाथ लगेगी।


योजनाओं की असफलता 


असल में हमारे देश में ज्यादातर योजनाओं को लोक लुभावन होने के आधार पर बनाया और लागू किया जाता है। मिसाल के तौर पर स्वच्छ शौचालय बनाने की स्कीम बहुत उपयोगी होने के बावजूद जिन क्षेत्रों के लिए बेहद जरूरी थी, वहाँ पूरी तरह सफल नहीं हो पाई है।


हम कितना भी ढोल पीट लें लेकिन हकीकत यह है कि घर में शौचालय होने के बावजूद ग्रामीण अभी भी खुले में शौच करने जाते हैं। ऐसा नहीं है कि वे अपने शौक के कारण ऐसा करते हैं, बल्कि इसलिए करते हैं क्योंकि घर में जो शौचालय बना है उसका इस्तेमाल करने के लिए कई बालटी पानी चाहिए जबकि उनके पास दिन भर की जरूरत के लिए ही सिर्फ एक दो बालटी पानी ही उपलब्ध है और उसे भी लाने के लिए घंटों बर्बाद करने पड़ते हैं।


इसी के साथ गंदगी के निपटान के लिए जो डिस्पोजल प्लांट लगने चाहिए थे तो वह न होने से गाँव वाले क्यों अपने इलाके को बदबू से भरा बनाएँगे। गंदगी से खाद बनती है लेकिन उसे बनने में चार पाँच साल लगते हैं तो क्यों कोई दो गड्ढों वाला शौचालय बनाएगा ?


स्वच्छ शौचालय योजना केवल उन्हीं क्षेत्रों में कामयाब हुई है जहाँ पानी और डिस्पोजल प्लांट की सुविधा है। इन इलाकों में किसान को ऑर्गानिक खाद भी मिल रही है और गंदगी से छुटकारा भी तो फिर किसान घर के शौचालय से बनने वाली खाद का इंतजार क्यों करेगा।


आँकड़ों के आधार पर देश को खुले में शौच से मुक्त किए जाने की घोषणा तो की जा सकती है लेकिन व्यावहारिक दृष्टि से देखा जाए तो यह सही नहीं है। यही हाल तीन साल बाद देश को प्लास्टिक मुक्त करने की घोषणा का होगा, सरकार की चाल देखते हुए इसमें कोई संदेह नहीं है।