शुक्रवार, 21 फ़रवरी 2020

हर्बल संपदा की चोरी और तस्करी से विनाश ।









हमारा देश कुछ इस प्रकार की भेगोलिक स्थिति से बना है कि हम अनेक मामलों में दुनिया के सभी देशों से भाग्यशाली कहे जा सकते हैं। हमारा प्रहरी हिमालय पर्वत है और इससे  जुड़ी  समस्त पर्वतमाला विशाल प्राकृतिक स्रोतों का भंडार है। हमारे वन इतने घने हैं कि उनमें प्रवेश करना बहुत खतरनाक और असंभव जैसा है। कदाचित प्रकृति ने हमारे वन्य प्रदेशों की रचना इतनी जटिल और कठिन इसलिए ही की है क्योंकि इनमें ऐसे खजाने छुपे है जो विश्व में और कहीं नहीं है।


अनमोल संपदा

हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड, जम्मू  कश्मीर, लद्दाख,  उत्तर पूर्व के  प्रदेश, महाराष्ट्र तथा दक्षिण राज्यों के वन्य प्रदेश ऐसी अनमोल संपदा अपने अंदर समाए हुए हैं जिनकी तुलना  दुनिया के किसी वन्य प्रदेश से नहीं की जा सकती। यही कारण है कि हमारी वन संपदा हमेशा से विदेशियों की नजर में खटकती रही है और वे किसी भी कानूनी और ज्यादातर गैर कानूनी तरीके से उस पर कब्जा करने में सफल होते जा रहे हैं।


जिन्हे हम जड़ी बूटी और वन्य उपज के नाम से जानते हैं, वह कितनी उपयोगी है इसका अनुमान इस बात से लगाया जा सकता है कि किसी भी भयानक रोग के इलाज में इनका इस्तेमाल दुनिया की बड़ी बड़ी फार्मेसी कंपनियां करती हैं और क्योंकि उनके लिए इन्हें सही रास्ते से पाना आसान नहीं है इसलिए वे ऐसे सभी हथकंडे अपनाती है जिससे उनकी चाल कामयाब हो जिसके लिए वे छल, बल और धन तीनों का इस्तेमाल करती हैं।


यदि आप वनों में घूमने के शौकीन हैं या आप कोई शोध करने के लिए इन स्थानों पर जाते हैं तो आपको वहां सैलानियों की तरह व्यवहार करते कुछ देशों, खास तौर से चीन, जापान, ब्रिटेन के लोग घूमते मिल जाएंगे। ये पर्यटक नहीं बल्कि इन देशों के वैज्ञानिक हो सकते हैं जो चोरी छिपे हमारे पेड़ पौधों और उनसे मिलने वाले फल, फूल, छाल और दूसरी सामग्री की पहचान कर उनकी चोरी और तस्करी करने के लिए यहां आते हैं।


वन्य प्रदेशों में रहने वाले अधिकतर आदिवासी होते हैं और वे स्वभाव से सीधे होते हैं। इसी के साथ जो आसपास के गांव है वहां सरपंच, स्थानीय विधायक और सांसद इस बात से पूरी तरह परिचित होते हैं कि उनका क्षेत्र कितना मूल्यवान है और इसकी कितनी कीमत वसूली जा सकती है। अब क्योंकि हमारे वनवासी गरीबी, अज्ञानता और साधनहीनता के कारण इनके प्रलोभन में आ जाते हैं तो वे अनजाने में तस्कर नेटवर्क का हिस्सा बन जाते हैं।


 उनका जबरदस्त शोषण होता है और इस तरह जीवनदायिनी वन्य संपदा उनसे छीन ली जाती है। अनेक पौधे लुप्त होते जा रहे हैं। इसके लिए तस्करों द्वारा जिस विधि का इस्तेमाल होता है उसे हत्या कहना सही होगा।


होता यह है कि तस्कर उन पौधों को जड़ से उखाड़ देते हैं और उस जगह को समतल कर देते हैं ताकि वे दोबारा पनप न सकें और वे अपने देश  ले जाकर उन्हें रोप दें और अपना कह  सकें और बड़े पैमाने पर उसकी  खेती कर मालामाल हो और अगर हमें या किसी और को उनका किसी दवाई बनाने में इस्तेमाल करना है तो मन मानी कीमत वसूल सकें।


जीवन रक्षक औषधियों से लेकर सौंदर्य प्रसाधनों के बाजार पर कुछ विदेशी कंपनियों का कब्जा है और विडंबना यह है कि इनके बनाने में जिन जड़ी बूटियों का इस्तेमाल होता है, वे भारत के अतिरिक्त कहीं और उग नहीं सकतीं। एक उदाहरण हैं। हिमाचल प्रदेश में एक ऐसा पौधा है जो वहां लगभग छह महीने बर्फ में दबा रहता है और जब बर्फ पिघलती ही तब ही बाहर किसी को दिखाई देता है।


अनेक देशों और हमारे वैज्ञानिकों ने यह कोशिश की कि उसे अपने यहां उगा लें, यहां तक कि फ्रिज में उगाने की भी कोशिश हुई लेकिन कामयाबी नहीं मिली। हिमालय की बर्फ में ही वह गुण है जो उसे अनोखा बनाता है। इसी तरह एक ही तरह के दिखने वाले  दो पौधे जो एक दूसरे के बराबर लगे हों, उनमें से एक नकली और दूसरा असली हो सकता है। इसकी पहचान केवल आदिवासी या वनवासी ही कर सकते हैं।



तस्करों का गिरोह अपने जाल में इन्हें फंसा कर इनसे वह सब कराने में कामयाब हो जाता है जो गैर कानूनी है और इस तरह इसका इल्जाम इनके सिर मढ़ दिया जाता है और पुलिस हो या प्रशासन इनका दोहन और हर प्रकार से शोषण करता है।


हर्बल संपदा का संरक्षण

औषधीय और सौंदर्य प्रसाधनों के लिए इस्तेमाल होने वाले पौधों और उनसे प्राप्त सामग्री को संरक्षण देने के लिए तथा इसके साथ ही विदेशियों द्वारा इनका कॉपीराइट अपने नाम पर कराने की चाल को रोके जाने के लिए करना यह होगा कि इनका व्यापक प्रचार हो और बड़े पैमाने पर इनकी खेती करने के लिए आवश्यक प्रबंध किए जाएं।


आदिवासी क्षेत्रों में रहने वालों को इनकी रक्षा करने और उन्हें लुप्त होने से रोकने के लिए विशेष प्रशिक्षण दिया जाए और इनकी उपज में गुणात्मक सुधार करने के लिए आधुनिक तकनीकों को उन तक पहुंचाया जाए। इससे आदिवासी और वनवासी समुदाय की आमदनी भी बढ़ेगी और वे इनका महत्व समझेंगे।



हमारे वैज्ञानिक लुप्तप्राय प्रजातियों के क्लोन विकसित कर रहे हैं जो उनके संरक्षण और उनसे नई पौध बनाने का प्रयास है। अक्सर प्रोसेसिंग सुविधाओं के न होने से दवाई और कॉस्मेटिक कंपनियां बहुत ही सस्ते दाम पर इनकी खरीददारी करती है जिससे इनका उत्पादन करना आकर्षक नहीं रहता।



 यदि उत्पादन के स्थान पर ही स्थानीय लोगों को रोजगार देकर उन्हें प्रोसेसिंग यूनिट लगाने की ओर आकर्षित किया जाए तो यह  कितना फायदेमंद हो सकता है इसका अनुमान यदि लगाया जाए तो यह हमारी ग्रामीण और आदिवासी अर्यव्यवस्था का स्वरूप ही बदल सकता है।



नब्बे प्रतिशत उत्पादक यह नहीं जानते इन जड़ी बूटियों को कहां बेचा जाए और उसी कारण वे तस्करों के जाल में फंसकर अपना और देश का नुकसान कर लेते हैं। अगर उनकी रक्षा करनी है और हर्बल उद्योग को विकसित करना है तो इसके अतिरिक्त और कोई उपाय नहीं है कि सरकार उतपादक को प्रोत्साहित करे, प्रोसेसिंग की सुविधाओं का आदिवासी क्षेत्रों में विकास करे और बिक्री का पारदर्शी तरीके से इंतजाम करे।


हमारे वन्य क्षेत्रों में इतनी क्षमता है कि वे किसी भी बीमारी का इलाज करने की औषधि दे  सकते हैं, मनुष्य को लंबी आयु का वरदान दे  सकते हैं और उसे चिरकाल तक स्वस्थ और सुंदर बनाए रख सकते हैं।

शुक्रवार, 14 फ़रवरी 2020

धर्म, जाति, सम्प्रदाय को देशभक्ति और देश सेवा से दूर रखना ही बेहतर है।







संसार के महान नीतिज्ञों कौटिल्य, कंफ्यूशियस  और खलीफा हजरत अली ने अलग अलग शब्दों में एक ही बात कही है और जिसका निष्कर्ष यही है कि अगर धार्मिक, जातिगत और साम्प्रदायिक आधार पर किसी देश का शासन चलता है या चलाए जाने की कोशिश होती है तो वह कट्टारतावादी, आधुनिकता विरोधी और पूरी तरह से अवैज्ञानिक हो जाता है, जहाँ तर्क की कोई गुंजाईश नहीं होती, वैचारिक मतभेद का कोई स्थान नहीं होता और उसे तानाशाही के अतिरिक्त और कुछ नहीं कहा जा सकता।


तरक्की का पैमाना 


जो देश आज दुनिया के सिरमौर यानी तरक्की का पैमाना कहे जाते हैं जैसे अमेरिका तो उन देशों में शासन करने को साइंटिफिक मैनेजमेंट का नाम दिया गया। उनका मानना है कि धर्म, जाति, सम्प्रदाय किसी भी व्यक्ति का निजी या अधिक से अधिक पारिवारिक मामला हो सकता है और वे मिलकर चाहे तो अपने अपने समाज बना सकते हैं और उसकी भलाई के लिए आपस में जुड़ सकते हैं। इससे आगे अगर वे जाते हैं तो वह विभिन्न धर्मों, जातियों और सम्प्रदायों के बीच टकराव और कभी कभी खूनी संघर्ष का भी कारण बन जाता है।


जो देश पूरी तरह धर्म आधारित हैं, विशेषकर इस्लाम तो वहाँ किसी दूसरे धर्म का पालन करने वालों को अपने धर्म से सम्बंधित कोई भी आयोजन, पूजा, अर्चना करने की केवल इजाजत ही नहीं दी जा सकती बल्कि ऐसा करने वालों को मौत की सजा भी दी जा सकती है जैसे कि साउदी अरेबिया जैसे कट्टर इस्लामिक देश में होता है वहाँ काम करने वाले किसी हिंदू को अगर हनुमान चालीसा का पाठ करना है तो वह मन में तो कर सकता है लेकिन उसकी कोई पुस्तक या हिंदू देवी देवता की मूर्ति रखने पर दण्ड मिल सकता हैे ।



जिन देशों में धर्म पहले नम्बर पर आता है उनकी हालत देखकर कहा जा सकता है कि वे आज भी दकियानूसी मान्यताओं, पिछड़ेपन और गरीबी के चंगुल में फँसे हुए हैं और जिन देशों ने धार्मिक आधार को शासन का जरिया नहीं बनाया, वे खुशहाली के अलंबरदार कहे जाते हैं। अपने पड़ौसियों पाकिस्तान और बांग्लादेश की ही तुलना कर लीजिए। पाकिस्तान पर इस्लामी आकाओं का कब्जा है, जो कट्टरपंथी हैं उनके हाथ में शासन की बागडोर है तो वहाँ विकास के नाम पर शोषण करने और दहशतगर्दों का बोलबाला है।



 इसके विपरीत बांग्लादेश के बढ़ते विदेशी मुद्रा कोष और प्रगति की दर आश्चर्य पैदा करती है।


आधुनिक युग की जरूरतों को समझते हुए जिन देशों ने धर्म को शासन से नहीं जोड़ा और वैज्ञानिक आधार को उन्नति करने का रास्ता बनाया, वे आज आर्थिक और सामाजिक दृष्टि से सम्पन्न कहे जाते हैं और दुनिया की अधिकांश सम्पदा उनके हाथों में सिमट कर रह गयी है। उनके लिए किसी भी धार्मिक परम्पराओं को मानने वाले देश को आर्थिक और मानसिक रूप से गुलाम बनाना चुटकी बजाने भर का काम है, चाहे वह अमेरिका, रूस, चीन, जापान कोई भी देश हो जो सभी तरह से सम्पन्न हैं।



जहाँ तक हमारे देश का सम्बंध है, जब तक धर्म, जाति और सम्प्रदाय को प्रशासन पर हावी नहीं होने दिया गया, देश सभी क्षेत्रों में धीमी गति से ही सही, प्रगति करता रहा लेकिन जब कभी किसी भी प्रदेश या केंद्र में प्रशासन के लिए इन तीनों या किसी एक को भी शासन करने का साधन या जरिया बनाया गया, ऐसा करने वाले नेताओं और राजनीतिक दलों को मुँह की खानी पड़ी। जनता की मुसीबतें बढ़ीं, पतन को रफ्तार मिल गयी और प्रगति का रास्ता अवरुद्ध होता गया।


धर्म का तड़का 


एक उदाहरण से यह बात समझी जा सकती है। यह बात सब जानते हैं कि देश में नागरिकता कानून, हर दस वर्ष में जनगणना, आबादी के हिसाब से नीति बनाना, योजनाएँ लागू करना और नागरिकों को बेहतर जीवन देने की कोशिशें आजादी के बाद से लगातार होती रही हैं।


अब जरा यह बात समझिए कि जैसे ही संविधान संशोधन के जरिए नागरिकता कानून में धर्म का तड़का लगा, देश भर में इसके विरोध की बेबुनियाद ऐसी लहर उठी जो थमने का नाम नहीं ले रही। इस हकीकत को समझने और इस बात को मानने के लिए मुस्लिम समाज तैयार ही नहीं है कि इस कानून से किसी भी भारतीय की नागरिकता पर कोई संकट नहीं है।



धर्म की बात करते ही असामाजिक तत्वों और गुंडागर्दी करने वालों को, जिन्हें इन वर्षों में सरकार की सख्ती के कारण उभरने का कोई मौका नहीं मिला था, वे सब एकजुट ही गए और देश को अराजकता के मुहाने पर ला खड़ा किया। यहाँ तक कि देश का एक और विभाजन  धर्म के आधार पर करने की कुत्सित चाल चलने के सपने कुछ लोगों द्वारा देखे जाने लगे।



इस एक कार्यवाही ने पिछले वर्षों में किए गए सामाजिक और आर्थिक विकास के कामों पर धूल की परत चढ़ा दी और जिसका परिणाम दिल्ली के चुनावों में भाजपा को भारी हार के रूप मे मिला । धर्म, जाति, सम्प्रदाय को शासन के लिए इस्तेमाल करने वालों के लिए यह एक चेतावनी है।



महान दार्शनिक कार्ल मार्क्स ने धर्म को अफीम की संज्ञा दी थी। धर्म दबे कुचले लोगों की आह है जो जुल्म करने वाले का विरोध करने के लिए इस प्रकार से निकलती है, ‘जा तुझे ईश्वर या खुदा देख लेगा, उसकी लाठी जब पड़ेगी तो तू कहीं का नहीं रहेगा‘ ।



धर्म का किसी भी व्यक्ति के जीवन में व्यावहारिक स्थान हो सकता है जैसे कि हम अक्सर बीमार, घायल, असहाय और पीड़ित व्यक्ति की मदद धर्म के नाम पर कर देते हैं । जिस तरह अफीम से किसी भी व्यक्ति को कुछ समय के लिए शिथिल किया जा सकता है और वह  अपने को भूलकर किसी दूसरी ही दुनिया में पहुँच जाता है, उसी तरह धर्म भी व्यक्ति को उसका दुःख भूलने में मदद करता है।



धर्म की यही सीमा है क्योंकि धर्म ने मनुष्य को नहीं बनाया बल्कि मनुष्य ने धर्मों को बनाया है। इसलिए धर्म भारत जैसे विशाल और बहुधर्मी देश के शासन का साधन नहीं हो सकता। जब हम सर्व धर्म सम्भाव या वसुधेव कुटुम्बकम कहते हैं तो इसका मतलब यही है कि भारत कभी भी हिंदू, मुस्लिम, सिख, ईसाई राष्ट्र नहीं बन सकता।

(भारत)

शनिवार, 8 फ़रवरी 2020

नैतिकता, सुलभ न्याय, सुशासन और मर्यादा पालन










आखिर वह घड़ी आ ही गई जिससे यह सुनिश्चित हो गया कि भगवान श्री राम का भव्य मंदिर उनके जन्मस्थान अयोध्या में शीघ्र बन जाएगा। इसी के साथ मन में यह प्रश्न आना स्वाभाविक है कि क्या केवल मंदिर बन जाने से ही श्री रान के प्रति हमारे विचार, सोच और उनके पदचिन्हों पर चलने की आकांक्षा भी पूरी हो जाएगी।


कुछ वर्ष पूर्व एक फिल्म बनाने के सिलसिले में अयोध्या जाना हुआ तो वहां मंदिरों के दर्शन भी किए। इस के साथ एक और चीज जो वहां देखी वह थी गंदगी, अशिक्षा और अव्यवस्था का बोलबाला। राम मंदिर का निर्माण करने वालों से उम्मीद है कि वे इसे पहले  समाप्त करेंगे क्योंकि तब ही मंदिर की उपयोगिता सिद्ध हो पाएगी।


बापू गांधी के राम

महात्मा गांधी के राम किसी एक धर्म, जाति या संप्रदाय  के नहीं थे बल्कि, पूरा संसार ही हमारा परिवार है, इस धारणा की पुष्टि करते थे। उनके अनुसार सत्य, अहिंसा, वीरता, क्षमा, धैर्य और मर्यादा पालन राम के प्रतीक थे और उनके काम करने की विधि ऐसी थी जिसमें निर्बल की रक्षा हो जैसे कि सुग्रीव को उसकी पत्नी उसके ही भाई के चंगुल से छुड़वाने में छिपकर बाली के  प्राण लेने का उदाहरण रखा जा सकता है।

कह सकते हैं कि बाली के वध में राम ने मर्यादा का पालन नहीं किया और न्याय प्रक्रिया का उल्लघंन किया।
अगर राम ऐसा करते तो क्या होता इसे  समझने के लिए वर्तमान काल का यह उदाहरण ही काफी है जिसमें निर्भया के गुनहगारों को सात साल बाद भी और फांसी की सजा सुनाए जाने के बावजूद न्याय न मिलना  है। इसी के विपरीत एक और महिला के गुनहगारों को क्या एनकाउंटर में मार दिया जाना न्याय की परिधि में आयेगा?  शायद राम होते तो यही करते और तुरंत न्याय देकर सुशासन का उदाहरण प्रस्तुत करते।



रामराज्य की व्यावहारिकता


श्री राम का एक और प्रसंग उनकी न्यायप्रियता को दर्शाता है, वह है रावण का वध। रावण बल, बुद्धि, वीरता और ज्ञान में अतुलनीय था। उसके पास धन, वैभव की कोई कमी नहीं थी और उसने दुर्लभ शक्तियों को पा लिया था। सीताहरण भी उसकी दृष्टि में उचित था क्योंकि वह उसने अपनी बहन के तथाकथित शील की रक्षा के लिए किया था। इसी के साथ वह अधर्मी, अत्याचारी भी था इसलिए उसके गुण अवगुण हो गए थे।


राम के लिए रावण का वध केवल इसलिए संभव हो पाया क्योंकि विभीषण ने शरीर के उस स्थान पर वाण मारने के लिए कहा जो केवल उसी को ज्ञात था।  रावण ने राम से मृत्यु के समय यही कहा कि राम के साथ उसका भाई खड़ा हो गया इसलिए वह उसे मारने में सफल हुए।


राम की न्यायप्रियता और न्याय करने की प्रक्रिया को साम, दाम, दण्ड, भेद के दायरे में रखा जा  सकता है। इसका अर्थ यह है कि अन्याय, अनाचार, अत्याचार का अंत करने के लिए इनमें से किसी को भी अपनाया जा सकता है।


आज कुछ लोग नैतिकता, मानवीय अधिकार के नाम पर अपराधियों को संरक्षण देने की बात करते हैं तो सही यही है कि अपराधी के साथ साथ उसका साथ देने वालों को भी दण्ड दिया जाए, यही रामराज्य होगा।


आज के संदर्भ में कहें तो पाकिस्तान के साथ दिखाई देने की कोशिश कर रहे कुछ भारतीय क्या देशद्रोही नहीं माने जाने चाहिएं ?


इसका अर्थ यह हुआ कि यदि रामराज्य लाना है तो राम के अनुसार न्याय में देरी को अन्याय की श्रेणी में माना जाएगा और जो इसके लिए जिम्मेदार हैं उन्हें सजा मिलनी चाहिए।


राम के अनुसार हालात के मुताबिक अपने को बदलना चाहिए और इसी कड़ी में दूसरों से  यह अपेक्षा रखने कि वे भी हमारे अनुसार बदलें, इसके स्थान पर उन्हें  अपने हिसाब से बदलने दीजिए।


आज के संदर्भ में सरकार और राजनीतिक दल स्वयं चाहे अपने को न बदलें पर जनता से यही चाहते हैं कि वह उनके मुताबिक बदल जाए। उदाहरण के लिए यदि सरकार भ्रष्टाचार में लिप्त है, भेदभाव करती है और अन्याय होने पर आंखें फेर लेती है तो रामराज्य में प्रजा क्या करती? प्रजा ऐसे शासन को उखाड़ फेंकती।


गांधी जी के रामराज्य में ग्राम स्वराज प्रमुख है। उन्होंने यह धारणा इसीलिए बनाई थी क्योंकि भारत ग्रामीण इकाइयों से बना देश है और कस्बे, नगर और महानगर उससे बनी इकाईयां हैं। इसका अर्थ यह है कि  ग्राम के  विकसित होने पर ही उससे बनी इकाईयां फल फूल सकती हैं। ऐसा न होने का नतीजा यह हुआ कि शासक, जमींदार और पूंजीपति का ऐसा गठजोड़ बना कि गांव खाली होने लगे, हमारी प्राकृतिक और वनीय संपदा को समाप्त किया जाने लगा और आर्थिक असमानता ने भीषण रूप ले लिया।


किसान को मजबूर ही नहीं किया बल्कि उसे एक भिखारी के स्तर पर ला खड़ा किया। रामराज्य में गाँव के स्तर पर ग्रामीण और कुटीर उद्योग खुलते और आसपास जो कच्चा माल होता उससे पक्का माल बनता और इस तरह ग्रामीण अर्थव्यवस्था के मजबूत होने की नींव डाली जाती।


ऐसा न होने पर गांव देहात में बेरोजगार होने पर  शहरों में पलायन शुरू हुआ और उनमें आबादी बढ़ने से जो समस्याएं पैदा हुईं उनमें बेरोजगारी, बीमारी और गरीबी प्रमुख हैं।


रामराज्य में शिक्षा संस्थान और विज्ञान के केंद्र नगरों से दूर वन्य क्षेत्रों में होते थे जहां प्राकृतिक संसाधन होने से शिक्षण, प्रशिक्षण, अनुसंधान और प्रयोग करने की सुविधाएं होती थीं। हमारी वनस्पतियां और वनों से प्राप्त होने वाली वस्तुओं का वैज्ञानिक ढंग से विकास करने के साधन उपलब्ध होते थे। एकांत में अध्ययन और मनन तथा चिंतन करने की परिपाटी होती थी।


आज लगभग सभी शिक्षा संस्थान या वैज्ञानिक शोध केंद्र अधिकतर शहरों में स्थापित हैं और प्रकृति से संबंध टूट गया है। नतीजा यह हुआ कि जहां प्राकृतिक संपदा को और अधिक समृद्ध बनाने की और ध्यान दिया जाता, वहां उसका दोहन होने लगा और हमारे वन, पर्वत विनाश की ओर बढ़ने लगे।


इसका एक और परिणाम हुआ  और वह यह कि हमारी वन संपदा, वनस्पतियों और जैविक संसाधनों पर विदेशियों की नजर पड़ गई और वे क्योंकि  उनकी उपयोगिता जानते थे इसलिए इन सब की तस्करी का एक ऐसा अंतहीन सिलसिला  शुरू हुआ जो देश की दौलत विदेशियों तक पहुंचा रहा है और वे उससे न केवल मालामाल हो रहे हैं बल्कि दुनिया पर छा रहे हैं। मतलब यह कि पूंजी हमारी और धनवान कोई और  हुआ जा रहा है।


राम का दैवीय राज

रामराज्य की कल्पना करते समय हम उसे देवताओं का राज्य जैसा समझने लगते हैं जबकि राम का जीवन एक सामान्य मनुष्य की भांति था। वे सामान्य व्यक्ति की तरह सीता के वियोग में रोते हैं, विलाप करते हैं और क्रोध करते हैं। समुद्र द्वारा रास्ता न देने पर उसे सुखा देना चाहते हैं।  अपने भाई लक्ष्मण के समझाने पर शांत और स्थिर होते हैं।


राम के लिए किसी भी जीव की रक्षा करने के साथ साथ उसे मित्र बना लेना भी आवश्यक है। उनके लिए न कोई छोटा है न बड़ा, सब बराबर है।
जो लोग रामराज्य को हिन्दू राज्य से जोड़ते हैं उनके लिए यह समझना जरूरी है कि रामराज्य किसी एक धर्म या  जाति की बात नहीं करता बल्कि सभी को उसमें समाहित मानता है।


राम नीति के परिचायक है और कुटिलता को भी नीति से ही हराना चाहते हैं। कैकई के कुटिल व्यवहार से दुखी न होकर पिता की आज्ञा मानते हैं। परिणाम की चिंता किए बिना वनवास स्वीकार करते हैं। इसी का फल होता है कि कैकई का हृदय परिवर्तन  हो जाता है।


आशा है राम मंदिर के साथ साथ रामराज्य की कल्पना भी साकार होगी जिसमें असमानता, निर्धनता और अन्याय का कोई स्थान नहीं होगा।


(भारत)