शुक्रवार, 29 जुलाई 2022

वैज्ञानिक सोच नास्तिक होना या धर्म को न मानना नहीं है

 

अक्सर यह बात सुनने को मिलती है कि हमारी सोचने समझने की योग्यता का आधार विज्ञान के अनुसार अर्थात वैज्ञानिक होना चाहिए। परंतु यह कोई नहीं जानता कि यह आधार क्या है? क्या यह कोई ऐसी वस्तु हैं जो कहीं बाजार में मिलती है, मोलभाव कर उसे हासिल किया जा सकता है या फिर इसका संबंध परंपराओं, धर्म के अनुसार की गई व्याख्याओं और पूर्वजों द्वारा निर्धारित कर दिए गए जीवन के मानदंडों से है ?


विज्ञान के सरोकार

विज्ञान का अर्थ यह लगाया जा सकता है कि ऐसा ज्ञान जो विशेष हो, उसे प्राप्त करने के लिए तथ्यों और तर्कों की कसौटियों से गुजरना पड़ा हो, वह इतना लचीला हो कि उसमें चर्चा, वादविवाद, शोध के जरिए परिवर्तन और संशोधन किया जा सके।

एक छोटा सा उदाहरण है। तेज़ हवा चलने से घर के खिड़की दरवाजे कई बार बजने, आवाज करने लगते हैं। कुछ लोग कह सकते हैं कि यह कोई भूत है जो खड़कड़ कर रहा है लेकिन दूसरा सोचता है कि कहीं इसकी चैखट तो ढीली नहीं पड़ गई और वह जाकर उसे कस देता है। आवाज़ आनी बंद हो जाती है।

यही वह ज्ञान है जो सामान्य से अलग है इसलिए यह विज्ञान कहा जाता है। हमारे संविधान में भी इस बात की व्यवस्था है जिसके अनुसार हमारे फंडामेंटल कर्तव्यों का पालन वैज्ञानिक ढंग से सोच विचार कर किया जाना चाहिए। इससे ही लोकतंत्र सुरक्षित और मानवीय गुणों का विकास हो सकता है।

जब हमें किसी बात पर उसके सही होने के बारे में संदेह होता है, उसे जांचने परखने के लिए उत्सुकता होती है तो यहीं से वैज्ञानिक सोच की शुरुआत होती है। इसके विपरीत जब किसी बात को केवल इसलिए माना जाए कि उसे पूर्वजों ने कहा है, उनकी परंपरा का निर्वाह कर्तव्य बन जाए, उसमें कतई बदलाव स्वीकार न हो तब यह कट्टरपन बन जाता है और यही लड़ाई झगडे, मनमुटाव और शत्रुता का कारण बन जाता है।

जो लोग यह कहते हैं कि विज्ञान में ईश्वर या परम सत्ता या किसी भी नाम से कहें, उसका कोई महत्व नहीं है तो यह अपने आप को भुलावे में रखने और वास्तविकता को स्वीकार न करने के बराबर है। हमारी सभी वैज्ञानिक प्रयोगशालायें और उनमें शोध और एक्सपेरिमेंट कर रहे सभी लोग चाहे सामने होकर यह न मानें कि परमेश्वर जैसी कोई चीज़ है लेकिन वे भी अपने अंतःकरण में मानते हैं कि कुछ तो है जो उनकी कल्पना से परे है, समय समय पर किसी अदृश्य शक्ति का नियंत्रण महसूस होता है।

कुछ लोग धर्म और धार्मिक विधि विधान को मानना अवैज्ञानिक कहते हैं और उनमें आस्था रखना और हवन, पूजन और कर्मकांड जैसी चीजों का उपहास करते हैं। इस बारे में केवल इतना कहा जा सकता है कि जब यह सब करने के लिए चढ़ावा, दिखावा धन की मांग और न देने पर ईश्वर का प्रकोप, दंड मिलने और अहित होने जैसी बातों के बल पर लूटखसोट, जबरदस्ती और शोषण किया जाए तो यह अपराध की श्रेणी में आता है। इसका विज्ञान से कोई संबंध नहीं है वरना तो इन सब चीजों के करने से वातावरण शुद्ध होता है, मानसिक और भावनात्मक तनाव कम होता है, मन केंद्रित होता है और शरीर में नवीन ऊर्जा का संचार होता है।

हमारे जीव, प्राणी और वन विज्ञान ने अनेक ऐसी संभावनाओं को हकीकत में बदला है जिन पर आश्चर्य हो सकता है। औषधियों के तैयार करने में जीवों से प्राप्त किए गए अनेक प्रकार के ठोस और तरल पदार्थ, जड़ी बूटियों के सत्व और प्राकृतिक तत्वों के मिश्रण का इस्तेमाल होता है और बाकायदा बने एक सिस्टम से गुजरने के बाद उनके प्रयोग की इज़ाजत दी जाती है। इसके स्थान पर यदि कोई व्यक्ति झाड़फूंक, गंडे ताबीज़, भभूत जैसी चीजों से ईलाज करने की बात करता है तो यह अपराध है क्योंकि विज्ञान इन्हें मान्यता नहीं देता। कोरोना जैसी महामारी से लेकर किसी भी दूसरे रोग की चिकित्सा दवाई, वैक्सीन, इंजेक्शन से होती है न कि किसी पाखंडी और झोलाछाप लोगों के इलाज़ से, इसलिए यह लोग भी अपराधी हैं।

विज्ञान का आधार हमेशा से तर्क यानी जो है उस पर शक या संदेह करना है। इसका मतलब यह है कि जो चाहे सदियों से चला आ रहा है लेकिन जिसकी सत्यता का कोई प्रमाण नहीं है और जो केवल परंपरा निबाहने के लिए होता रहा है, उसे न मानकर नई शुरुआत करना वैज्ञानिक है ।

यहां इस बात का ज़िक्र करना आवश्यक है कि जो लोग गणेश जी को प्लास्टिक सर्जरी का उदाहरण मानते हैं और इसी तरह की निराधार बातों का समर्थन करते हुए आधुनिक विज्ञान और टेक्नोलॉजी को चुनौती देते हैं, वे समाज का अहित कर रहे हैं और देश को आगे बढ़ाने के स्थान पर पीछे ले जाने का काम कर रहे हैं।


विज्ञान और धर्म

कोई भी धर्म किसी कुरीति या मानवता विरोधी काम का न तो समर्थन करता है और न ही मान्यता देता है, इसलिए धर्म अवैज्ञानिक नहीं है। इसी प्रकार चाहे कोई भी धर्म अपनी निष्ठा किसी भी अवतार, गुरु, पैगंबर, यीशु, तीर्थंकर, बुद्ध आदि महापुरुषों में रखे तो यह विज्ञानसम्मत है। इसलिए विज्ञान और धर्म का गठजोड़ तर्कसंगत है।

भारत तो अपनी प्राचीन संस्कृति, वैज्ञानिक उपलब्धियों और उनकी वर्तमान समय में उपयोगिता के बारे में विश्व भर में जाना जाता है जिसके कारण हम अनेक क्षेत्रों में अग्रणी भूमिका निभा रहे हैं। तब फ़िर उन सब बुराइयों को ढोते हुए चलना कतई समझदारी नहीं है जो हमें दूसरों की नज़रों में हंसी का पात्र बनाती हैं।

वैज्ञानिक सोच और उसके आधार पर जब हमारे देश में सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक निर्णय लेने की शुरुआत एक अनिवार्य प्रक्रिया के रूप में हो जाएगी, तब ही हम गरीबी, बेरोज़गारी और विदेशों में प्रतिभा के पलायन को समाप्त करने की दिशा में ठोस कदम उठा पाएंगे।  


शनिवार, 23 जुलाई 2022

आदिवासी राष्ट्रपति होने का अर्थ जनजातियों, वनवासियों की उन्नति है

 

राष्ट्रपति के रूप में आदिवासी महिला द्रौपदी मुर्मू का चुनाव क्या हमारे ट्राइबल क्षेत्रों की समस्याओं का समाधान कर पाएगा, निवासियों को शोषण से मुक्ति दिला पाएगा और उन्हें विकास की मुख्यधारा से जोड़ पाएगा ? यह एक ऐसा यक्ष प्रश्न है जिसका उत्तर केवल भविष्य के गर्भ में छिपा है।

इतिहास से सीख

ब्रिटिश शासन में आदिवासियों को जन्मजात गुनहगार और अपराधी मानकर सभी तरह के अत्याचार करने की खुली छूट का कानून बनाया गया था जिसका पालन आजादी के बहुत बाद तक होता रहा। जब यह बात बहुत अधिक जुल्म होने के बाद किसी तरह पहले प्रधानमंत्री नेहरू जी के पास पहुंची तो वे बहुत क्रोधित हुए। उन्होंने आदिवासियों को विमुक्त जनजाति का नाम देकर और इस संबंध में कानून बनाकर इस काम की इतिश्री अपनी ओर से कर दी। परंतु स्थिति पहले जैसी ही रही।

जो लोग आदिवासी बहुल इलाकों में गए हैं या उन्हें वहां काम करने और व्यवसाय करने का मौका मिला है, वे इस बात को अगर सच्चे मन से स्वीकार करेंगे तो अवश्य ही यह कहेंगे कि चाहे कानून हो लेकिन वहां के मूल निवासियों का शोषण बंद नहीं हुआ है, वे स्वयं भी यह करते रहे हैं और पुलिस तथा प्रशासन द्वारा किए जाने पर भी चुप रहे हैं। नतीजा बाहरी लोगों द्वारा अपना मतलब निकलने तक का विकास, सरकारी योजनाओं की बंदरबांट और प्राकृतिक संसाधनों विशेषकर जल, जंगल और जमीन पर कब्जा कर स्थानीय लोगों को अपना गुलाम समझने के रूप में हुआ है।

व्यक्तिगत अनुभव के आधार पर कुछ उदाहरण इस कथन की पुष्टि के लिए काफी हैं। दूरदर्शन, पैरामिलिट्री फोर्स और कुछ अन्य संस्थानों के लिए नॉर्थ ईस्ट के इलाकों में फिल्में बनाते समय सरकारी नियमों और कानूनों की धज्जियां उड़ते देखकर समझ में आ गया कि जब तक स्थानीय स्तर पर लोग शिक्षित नहीं होंगे, बड़े शहरों में पढ़ने लिखने के बाद यहां वापिस नहीं आयेंगे और सरकारी नीतियों को लागू करने का काम स्वयं नहीं करेंगे तब तक इन इलाकों की तस्वीर बदल पाना संभव नहीं है।

विश्वास और भरोसा

ग्रामीण मंत्रालय के लिए रेडियो कार्यक्रम चलो गांव की ओर का प्रसारण उत्तर पूर्व की प्रमुख आठ भाषाओं या बोलियों में करने का आदेश मिला तो सबसे पहली समस्या दिल्ली में इन प्रदेशों से आकर रहने वालों में से ऐसे व्यक्तियों से संपर्क करने की थी जो हिंदी में बनने वाले मूल प्रोग्राम का अपनी भाषा में रूपांतर कर सकें। किसी तरह इन तक पहुंच बनाई तो पाया कि उन्हें हम पर तनिक भी विश्वास नहीं है। कारण यह था कि दिल्ली सहित सभी बड़े शहरों में रहने वाले लोगों ने उन्हें अपना नहीं माना, अनेक अपमानजनक शब्द उनके लिए इस्तेमाल किए, किराए पर घर देते समय ऐसी बंदिशें लगाईं कि वे अपने तीज त्यौहार भी न मना सकें, अपनी पसंद का खानपान भी न कर सकें और यही नहीं उनकी पोशाक, चलने फिरने और रहने सहने की आदतों पर भी अंकुश लगाने लगे।

बहुत समझाने पर वे यह प्रोग्राम करने को तैयार हुए, शुरू में हाथ के हाथ तय फीस मिलने पर राजी हुए। एक बार जब विश्वास हो गया कि उनका शोषण नहीं होगा, कोई उनसे अभद्र भाषा में बोलने या व्यवहार करने की हिम्मत नहीं करेगा और उनकी व्यक्तिगत और पारिवारिक उलझनों को सुलझाने का प्रयास होगा, तब कहीं जाकर उनका पूर्ण सहयोग मिल सका। भरोसे की यह कड़ी आज तक कायम है।

नॉर्थ ईस्ट के लगभग सभी प्रदेशों में जाने पर यह समझने में देर नहीं लगी कि आदिवासियों की जीवन शैली समझने और उनके रस्मों रिवाज को जानने तथा उन्हें उनके पारंपरिक तरीके अपनाने में कोई रुकावट न डालने से ही उनका भला हो सकता है।  उनकी अपनी न्याय और पंचायत व्यवस्था है, वन संरक्षण की अपनी विधियां हैं, खेतीबाड़ी के अपने तरीके हैं, रोजगार की अपनी अलग पहचान है, जरूरत केवल उन तक आधुनिक टेक्नोलॉजी और उसका इस्तेमाल करने के तरीके पहुंचाने की है।

एक दूसरा उदाहरण ओड़ीसा के झारसुगुड़ा जिले में दर्लीपली गांव का है जहां एनटीपीसी का प्लांट है। इस आदिवासी इलाके में गरीबी के कारण ये लोग अपने मृतकों का दाह संस्कार और उनकी अस्थियों का नदी में विसर्जन न कर पाने से शव को जमीन में गाड़ देते थे। वे अपनी जमीन समुचित मुआवजा मिलने पर भी नहीं दे रहे थे क्योंकि इससे उनके पूर्वज बिना विधिवत संस्कार के उखड़ जाते। अनेक प्रयासों के बाद अधिग्रहण करने वाले अधिकारी हकीकत समझ पाए और उन्हें  समझा पाए कि यह काम वे सरकारी अनुदान से अपनी इच्छानुसार कर सकते हैं और सभी पूजा पाठ, अस्थि विसर्जन में लगने वाली राशि उन्हें अलग से मिलेगी, तब कहीं जाकर वे अपनी जमीन देने पर सहमत हुए। अनुमान लगाएं कि यदि यह समझदारी न बरती जाती तो विद्रोह, मारपीट से लेकर खून खराबा तक हो सकता था और प्लांट कभी भी न लग पाता।

ओडिसा सहित अनेक आदिवासी क्षेत्रों के घने जंगलों, वनस्थलियों के पार, नदी, नालों के उफान और कुदरती कहर से त्रस्त तथा घोर समस्याओं से जूझ रहे आदिवासियों तक पहुंच कर अपनी आंखों से उनकी जरूरत समझने और पूरा करने का काम पिछले कुछ वर्षों में होते हुए देखा है। इसी प्रकार मध्य प्रदेश में पहली बार आदिवासी बहुल इलाकों में ग्राम पंचायतों में आदिवासी सदस्यों के बैठने के लिए सुविधाजनक कुर्सी मेज और कॉन्फ्रेंस रूम जैसी सुविधाएं देखकर लगा कि इनके प्रति सम्मान का भाव पैदा हो रहा है। वरना तो चाहे कितना भी समृद्ध आदिवासी हो, उसे जमीन पर झुक कर बैठ कर ही अपनी बात कहनी होती थी।

आदिवासी समाज और आत्मनिर्भरता

जब तक आदिवासी समाज और संस्कृति को गणतंत्र दिवस तथा अन्य आयोजनों में उन्हें एक दिखावटी वस्तु समझने की मानसिकता से ऊपर नहीं उठेंगे, उनका शोषण नहीं रुकेगा। वास्तविकता यह है कि यह समाज अपने भरण पोषण की जरूरतें पूरा करने और आत्मनिर्भर होने में शहर वालों से कहीं अधिक सक्षम है। उन्हें दिखावा करना नहीं आता, छल कपट से दूर रहते हैं, मानव धर्म का निर्वाह करने और वन्य जीवों के साथ तालमेल बिठा कर उनका संरक्षण और संवर्धन करने में उनका कोई मुकाबला नहीं कर सकता। यही नहीं वे अपने पारंपरिक अस्त्र शस्त्रों से शत्रुओं का सामना करने में समर्थ हैं। उनकी मर्जी के बिना उनके इलाकों में प्रवेश कर पाना नामुमकिन है।

जब तक आदिवासियों, वनवासियों और जनजातियों के स्वाभाविक गुणों को समझकर उन्हें अपने साथ कंधे से कंधा मिलाकर चलने के लिए हमारी ओर से पहल नहीं होगी, उनका विश्वास अर्जित करने के प्रयत्न नहीं होंगे, उनकी सोच के अनुसार नीतियां और योजनाएं नहीं बनेंगी, तब तक उनका सहयोग मिलने की बात बेकार है।

हमारा हाल यह है कि उनकी संस्कृति, पहनावे, खानपान से लेकर लोक संगीत, नृत्य, कला में उनकी परंपराओं का सस्ते दामों में सौदा करने में निपुण हैं और इस सब को महंगे दामों में बेचकर मुनाफा कमाने में माहिर हैं। अगर कोई इंकार करे तो पुलिस और प्रशासन अपनी मनमानी से लेकर इन सीधे लोगों पर अमानुषिक अत्याचार करने से नहीं चूकता।

महामहिम राष्ट्रपति से उम्मीद की जा सकती है कि वे अपने कार्यकाल में आदिवासियों को राजनीतिक और सामाजिक रूप से सशक्त बनाने में सफल होंगी। उनकी प्रकृति को बदले बिना उनके रक्षक प्राकृतिक स्रोतों के गैरजरूरी दोहन को रोकने में समर्थ होंगी। यह समाज आबादी के हिसाब से चाहे ग्यारह करोड़ के आसपास हो लेकिन इसकी क्षमता, ताकत और हिम्मत इतनी है कि समस्त भारत का गौरव बन सकता है। यह तब ही हो सकता है जब इनके साथ दुर्व्यवहार न हो, इनका शोषण न होने दिया जाए और इनके अधिकारों को किसी दूसरे के द्वारा हड़प लिए जाने की आशंका न हो।  


शनिवार, 2 जुलाई 2022

प्लास्टिक कानून व्यावहारिक न होने से उन्हें लागू करना अनुचित है

 

इसे परंपरा कहें या अपना बड़प्पन दिखाने की कोशिश या फिर अपनी धाक से लेकर धौंस जमाने की मानसिकता और हठधर्मी कि जो सरकार करे वही ठीक, चाहे वास्तविकता कुछ भी हो !

यही प्रवृत्ति सरकार के उस आदेश में दिखाई देती है जिसके अनुसार जुलाई से सिंगल यूज प्लास्टिक पर बैन लगा दिया गया है।


प्लास्टिक कथा

उन्नीसवीं सदी के मध्य में प्लास्टिक के रूप में एक ऐसी खोज हुई जिसने तेजी से पूरी दुनिया में अपनी धूम मचा दी। उसके बाद प्लास्टिक के इस्तेमाल से होने वाले नुकसान जैसे जैसे सामने आते गए, इस पदार्थ का विकल्प खोजा जाने लगा लेकिन अभी तक इसमें बहुत कम सफलता मिली है लेकिन भविष्य में कुछ भी हो सकता है।

प्लास्टिक के आने से पहले कागज से बनी चीजों का इस्तेमाल होता था जो महंगा भी था और उसके लिए पेड़ों को काटना पड़ता था। इसके साथ ही न तो यह वस्तुएं ज्यादा देर तक टिकती थीं और न ही इनमें रखकर लाई जाने वाली चीजें।  इसके अतिरिक्त  उनके निपटान यानी डिस्पोजल की समस्या भी थी।

यह दौर उद्योग धंधों के पनपने और उपभोक्ताओं के लिए प्रतिदिन नई चीजों के आने का था जिन्हें रखने के लिए प्लास्टिक से बनी टिकाऊ और सस्ती थैलियों का इस्तेमाल होने लगा। इसी तरह खाने पीने में प्लास्टिक के कप, ग्लास, प्लेट, नली, क्रॉकरी, कटलरी और बहुत सी दूसरी सामग्री ने घर घर में अपनी जगह बना ली। इस तरह प्लास्टिक हमारे जीवन का अनिवार्य अंग बन गया जिसके बिना कुछ भी करना संभव नहीं रहा।

अब इसी प्लास्टिक पर कड़े प्रतिबंध लगा दिए गए हैं जिन्हें लागू करना न तो आसान है और न ही प्रैक्टिकल क्योंकि इसके विकल्प के रूप में केवल यही है कि हम कागज से बनी चीजों का इस्तेमाल फिर से शुरू कर दें।

कानून का पालन न करने और पकड़े जाने पर पांच साल की कैद और एक लाख तक का जुर्माना हो सकता है। कुछ राज्यों ने तो ऐसे दिशा निर्देश जारी किए हैं कि यदि कोई प्लास्टिक की थैली में घर का सामान लाते हुए पकड़ा गया तो उस पर कड़ी कार्यवाही होगी। ऐसे आदेशों से समाज में अफरातफरी और उसके बाद वसूली का धंधा ही बढ़ेगा।

सच यह भी है कि लगभग एक लाख छोटे, मध्यम उद्योग इस कारोबार में हैं और लाखों नहीं करोड़ों लोग इसके व्यापार से जुड़े हैं। प्लास्टिक बंदी से क्या अंधेर नगरी चैपट राजा की कहावत सिद्ध नहीं होती और समाज में अव्यवस्था फैलने का खतरा नहीं है ? यह भी हो सकता है कि इस कानूनन बंदी का कोई असर ही न हो और उद्योगपति, व्यापारी तथा उपभोक्ता कुछ ले दे कर इसके उल्लंघन होने पर बचने का रास्ता निकाल लें।


प्लास्टिक प्रदूषण

इसमें कोई दो राय नहीं है कि प्लास्टिक के इस्तेमाल में अनेक दोष हैं, जैसे कि इसके डिस्पोजल का कोई सही प्रबंध न होने से यह बहुत घातक हो सकता है । मनुष्य से लेकर पशुओं तथा जलचरों के लिए नुकसानदायक है। अक्सर सड़कों, नदी के किनारों और समुद्र तट पर प्लास्टिक की बोतलें और कचरा बिखरा हुआ दिखाई देता है। अब क्योंकि इसके डिस्पोजल का कोई उचित प्रबंध सरकार से हुआ नहीं तो फिर इसके इस्तेमाल पर प्रतिबंध लगाने का कोई औचित्य नहीं बनता।

इसके विपरीत प्लास्टिक अपने गुणों के कारण, उसमें रखी वस्तुओं के देर तक तरोताजा रहने और पूरी तरह से कीटाणु रहित होने अर्थात हाइजीनिक होने से इसका इस्तेमाल न करना संभव नहीं है।

जब ऐसा है तो प्लास्टिक के दोषों का निराकरण करने का कानून बनाया जाता, उसका ऐसा विकल्प दिया जाता जो अपनी उपयोगिता में प्लास्टिक के बराबर होता और इसके साथ ही उसके निपटान के लिए वेस्ट मैनेजमेंट के जरिए उपकरण और प्लांट्स लगाए जाते, तब तो बात समझ में आती। 


टेक्नोलॉजी का इस्तेमाल

ऐसा नहीं है कि इस दिशा में कोई काम नहीं हुआ। देश के कुछ राज्यों में प्लास्टिक प्रदूषण से बचने के लिए प्लांट्स लगे हैं लेकिन वे अपनी सीमित क्षमता के कारण बेअसर साबित हो रहे हैं। अपने देश के आकार और आबादी के सामने ये ऊंट के मुंह में जीरे के समान हैं। नतीजा यही है कि नदियों से लेकर समुद्र तक प्लास्टिक प्रदूषण फैलता जा रहा है।

ऐसा भी नहीं है कि यह समस्या केवल हमारे देश की हो, यह विश्वव्यापी है। जिन देशों ने इस समस्या के विकराल रूप लेने से पहले कदम उठा लिए, वे आज प्लास्टिक के फायदों का लाभ उठा रहे हैं और साथ ही उसके प्रदूषण से बच भी रहे हैं। प्रतिबंध लगाना तब ही सही हो सकता है कि जब उसका कोई समान विकल्प हो। सिंगल यूज प्लास्टिक जैसी कोई वस्तु जब तक खोज नहीं ली जाती, तब तक के लिए इस पर रोक लगाने के बारे में सरकार को व्यवहारिक दृष्टिकोण से विचार करना होगा। ऐसी नीति और कानून व्यवस्था लागू करनी होगी कि प्लास्टिक के लाभ मिलते रहें और स्वास्थ्य की रक्षा भी हो जाए।

एक बार इस्तेमाल कर फेंक दिए जाने वाले प्लास्टिक को रीसाइकल कर बहुत से उपयोगी पदार्थों में बदला जा सकता है। ऐसा नहीं है कि हमारा उद्योग जगत यह बात नहीं जानता लेकिन उसके सामने रीसाइक्लिंग प्लांट लगाने की पर्याप्त सुविधाएं नहीं हैं, इसकी लागत बहुत ज्यादा होने और मुनाफा कम होने और इसके साथ ही टैक्स और दूसरी सुविधाओं का आकर्षण न होने से इसमें बहुत कम निवेश हो रहा है।

ऐसा भी नहीं है कि हमारे देश में इस दिशा में अनुसंधान नहीं हो रहा या प्लास्टिक डिस्पोजल के लिए टेक्नोलॉजी का अभाव है। हमारी वैज्ञानिक प्रयोगशालाएं, विशेषकर वे जो पर्यावरण प्रदूषण रोकने के क्षेत्र में उल्लेखनीय कार्य कर रही हैं, उन्होंने सस्ती और टिकाऊ टेक्नोलॉजी विकसित की हुई हैं। अफसोस की बात यह है कि जब सरकारी संस्थान ही उनका इस्तेमाल नहीं करते तो फिर प्राइवेट सेक्टर से इसकी उम्मीद रखना व्यर्थ है।

सिंगल यूज प्लास्टिक के इधर उधर फेंकने से हमारे ग्रामीण और शहरी क्षेत्रों में नाले और नालियां भरे पड़े हैं जो गंदगी और बदबू के अतिरिक्त कुछ नहीं देते, स्वास्थ्य के लिए खतरनाक हैं और अनेक बीमारियों का कारण हैं। यदि सरकार चाहे केंद्र की हो राज्य की, इन गंदे नालों से ही अपने देश में विकसित टेक्नोलॉजी से सफाई कराने की जिम्मेदारी ले ले तो फिर किसी तरह का प्रतिबंध लगाने की जरूरत नहीं रहेगी।

उदाहरण के लिए नागपुर स्थित नीरी प्रयोगशाला ने ऐसी टेक्नोलॉजी बहुत वर्ष पहले विकसित कर ली थी जिसके इस्तेमाल से इन नालों को प्लास्टिक प्रदूषण से मुक्त किया जा सकता है। उसके पानी को साफ करके नाले के आसपास हरियाली के लिए इस्तेमाल किया जा सकता है। इसी तरह निजी क्षेत्र में पीरामल समूह की वैज्ञानिक प्रयोगशालाएं बहुत सराहनीय कार्य कर रही हैं।

एक उदाहरण अमेरिका का है। वहां एक ऐसा सिस्टम है कि प्रदूषण होते ही या उसकी संभावना होने पर तत्काल टेक्नोलॉजी के इस्तेमाल को अनिवार्य बना दिया गया है।


सरकार पुनर्विचार करे

यदि सरकार में इच्छाशक्ति है और वह वास्तव में प्लास्टिक प्रदूषण से मुक्ति दिलाकर देशवासियों का भला करना चाहती है तो उसे अपने वर्तमान आदेश को रद्दी में डालकर नए सिरे से सोचना होगा। यहां यह बताना कि सरकार को इन सब अनुसंधानों और खोजपूर्ण तथ्यों की जानकारी नहीं है तो यह एक भ्रम है। सरकार सब कुछ जानती है लेकिन हो सकता है कि अपने राजनीतिक स्वार्थ या फिर किसी अन्य कारण से कम से कम इस मामले में तो सही कदम नहीं उठा रही।