शुक्रवार, 18 सितंबर 2020

महामारी का बढ़ता आकार, गलत तो नहीं हो रहा उपचार ?

 क्या कारण है कि महामारी जो दुनिया भर में फैली, अब कुछ देशों तक आकर सिमट गई है,  जिनमें अमेरिका पहले और भारत दूसरे नंबर पर है ?  कहीं ऐसा तो नहीं होने वाला कि जिस तेजी से  हमारे देश में इसका आकार बढ़ रहा है, हम जल्दी ही अमेरिका को भी पीछे छोड़कर पहले नंबर पर आ जाएंगे और उसके बाद न जाने कहां जाकर यह संख्या रुकेगी, मतलब करोड़ों तक पहुंचने वाली है ?

अधिकतर देशों में इसका बढ़ना न केवल रुक सा गया है बल्कि वहां इसके कारण मृत्यु दर भी कम होती जा रही है । यह गंभीर स्थिति है और इस बात को उजागर करती है कि यदि हम नहीं संभले तो इस महामारी का पूरा प्रकोप झेलने के लिए हमारा ही देश बचेगा और बाकी दुनिया इससे बाहर निकल चुकी होगी।

गलती तो जरूर हुई है !

यह आलोचना नहीं, तथ्यों पर आधारित सच्चाई है कि हमसे आकार में छोटे और उसके अनुपात में आबादी में लगभग हमारे ही बराबर देशों में इस बीमारी ने पैर पसारने से तौबा कर ली है और यह भी सच है कि इन देशों में से अधिकतर की आर्थिक स्थिति भी हमारे जैसी ही है।

अपने आसपास के देशों चाहे पाकिस्तान, चीन, बांग्लादेश, श्री लंका, नेपाल, भूटान, बर्मा या फिर थाईलैंड, इंडोनेशिया जैसे देश हों, सब के यहां यह महामारी थम रही है, मृत्यु दर भी घट रही है। हमारे यहां प्रतिदिन एक लाख नए मामले आने की संख्या को हम जल्दी ही पार कर जायेंगे और फिर कहां रुकेंगे, कहा नहीं जा सकता।

ज्यादातर देशों में एक से दस लाख तक संक्रमित हुए हैं और बहुत से देशों में तो यह संख्या कुछ हजार तक सिमट गई है।

जहां तक रोकथाम का प्रश्न है, सरकार ने सब ही तरफ से इस बीमारी की नाकाबंदी की जैसे कि बहुत ही ज्यादा सख्त तालाबंदी, घरों से निकलने पर रोक,  दुकान, बाजार, दफ्तर सब बंद और एक तरह से सभी आर्थिक, सामाजिक, पारिवारिक गतिविधियों पर अंतहीन रोक और इस सब के बावजूद बीमारी की रोकथाम तो दूर, इसके कम होने के कोई आसार नजर नहीं आते, रोजाना बढ़ते आंकड़े सुनकर भय का वातावरण अब आक्रोश और क्रोध में बदल रहा है । आखिर यह सब कब तक चलेगा ?

सरकार की उदासीनता

हमारे मंत्री, सांसद इस विषय पर कितने गंभीर हैं, इसका एक उदाहरण वर्तमान संसद सत्र में स्वास्थ्य मंत्री हर्ष वर्धन के यह कहने से ही पता चल जाता है जिसमें वह यह कहते हैं कि हम जल्दी ही टेस्टिंग में अमेरिका को भी पीछे छोड़ देंगे । यह कोई खुश होने की बात नहीं है, क्या इसका यह मतलब नहीं है कि संक्रमितों की संख्या में भी हम अमेरिका से आगे निकलने वाले हैं !

स्वास्थ्य मंत्री संसद में इस बीमारी को लेकर जब लंबा चौड़ा बयान रखते हैं तो स्वयं अध्यक्ष को यह कहना पड़ता है कि आप बताने में समय बर्बाद न करें, बयान की कॉपी दे दीजिए, सांसद पढ़ लेंगे, फिर भी वे नहीं समझते कि उनकी बयानबाजी में कोई नई बात यानी दम नहीं है, पर वे पूरा बयान सुनाकर ही दम लेते हैं।

बार बार प्रधान मंत्री के नेतृत्व की याद दिलाना देश की जनता के साथ मजाक नहीं तो और क्या है, जबकि इस महामारी को रोकने के लिए कोई नया और ठोस कदम सरकार उठा ही नहीं रही।

यह बात अब गले उतरने वाली नहीं है कि हमारा देश बहुत बड़ा है, जनसंख्या बहुत है, आर्थिक हालात अच्छे नहीं हैं, गरीबी है जैसी बातें ! सच यह है कि बीमारी को रोकने के मामले में हम दूसरे देशों से बहुत पीछे हैं और इसे बढ़ने देने में सबसे आगे झंडा लेकर चल रहे हैं ।

यह काम जनता का नहीं है कि वह बीमारी को बढ़ने से रोकने के उपाय बताए, यह काम सरकार का है, जनता तो केवल उसके बनाए नियमों का पालन कर सकती है और हकीकत तो यह है कि वह अपनी जान बचाने के लिए स्वयं ही मारी मारी फिर रही है।

मास्क पहनना, दो गज की दूरी, हाथ धोते रहना, यह सब तो जनता कर ही रही है, चाहे उसके पास रोजगार न हो, आमदनी का कोई साधन न रहे और वह बेबस और बेचारगी की हालत में सिर्फ कसमसाने या कोसने के अतिरिक्त कुछ न कर सके।

यह सही है कि हमारे पास इस बीमारी से निबटने की कोई तैयारी नहीं थी, लेकिन क्या दूसरे देशों के पास थी, वे भी हमारी तरह पहली बार इससे दो दो हाथ कर रहे थे, तो फिर कैसे हमारे देश से कम साधनों वाले देशों ने इस पर काबू पाने में सफलता हासिल की, यह सोचने का काम केंद्र और राज्य सरकारों का है ?

जान है तो जहान है की नीति का यह अर्थ नहीं कि केवल घर में ही हाथ पर हाथ धरकर बैठने के लिए मजबूर हो जाएं बल्कि यह है कि बचाव के साधनों का इस्तेमाल करते हुए अपने रोजगार, नौकरी, व्यवसाय और काम धंधे पर ध्यान दें ।

सेवा सप्ताह या नई चाल

प्रधान मंत्री श्री नरेंद्र मोदी के जन्मदिन को सेवा सप्ताह के रूप में मनाने की शुरआत क्या उस परंपरा की ओर बढ़ने जैसा नहीं है जैसा कि पिछली सरकारों के प्रधानमंत्रियों के साथ उनके दल के लोग किया करते थे । हालांकि सच यह भी है कि वह सब  तत्कालीन प्रधान मंत्री की सहमति से ही होता था।

मोदी जी की छवि पिछले प्रधान मंत्री चाहे अटल बिहारी बाजपेई जी क्यों न हों, सब से अलग है। यह जानकर आश्चर्य के साथ साथ दुःख भी होता है कि आखिर उन्होंने अपने नाम पर और वह भी जन्मदिन को लेकर सेवा सप्ताह के मुखौटे में बेमतलब के आयोजनों के लिए अपनी सहमति कैसे दे दी जबकि वे सार्वजनिक रूप से  इस तरह के व्यक्तिवादी आयोजनों के खिलाफ आवाज उठाते आए हैं । क्या कहीं उनकी कार्यशैली पर दल के कुछ लोगों के स्वार्थ तो हावी होने नहीं जा रहे जो उन्हें इस तरह से प्रसन्न करने की कोशिश से अपना मतलब साध रहे हों। अगर ऐसा हुआ तो यह देश के लिए दुर्भाग्य सूचक होगा ।

(भारत)


शनिवार, 12 सितंबर 2020

शिक्षा नीति, शिक्षक, शिक्षण संस्थान और शिक्षा का निजीकरण






देश में दशकों तक एक बेहद कमजोर शिक्षा नीति के बाद नई दिशा प्रदान करने का दावा करने वाली नीति सरकार लाई है जिसे पढ़ कर यह तो लगता है कि यह एक क्रांतिकारी और शानदार भविष्य के सपने दिखाने वाला कदम है, इसके साथ ही वास्तविकता यह है कि यदि इस पर सावधानी तथा हकीकत पर ध्यान दिए बिना अमल किया गया तो न केवल दूर के ढोल सुहावने हो सकते हैं बल्कि अनिष्टकारी परिणाम भी सामने आ सकते हैं।


शिक्षक का शिक्षा से नाता

हमारे देश में शिक्षकों के तीन वर्ग है, एक वे जो सरकारी स्कूलों में नियुक्त हैं, जिन्हें पढ़ाने के अतिरिक्त ऐसे बहुत से काम करने होते हैं जिनका शिक्षा से कोई संबंध नहीं होता, जैसे कि जिन स्कूलों में मिड डे मील मिलता है, उनमें इसके प्रबंध से लेकर वितरण तक का काम करना, चुनाव, जनगणना और स्वास्थ्य संबंधी सेवाओं जैसे टीकाकरण आदि योजनाओं में घर घर जाकर योगदान करना और इसके साथ ही ग्रामीण क्षेत्रों में सरपंच या दबंग या रसूखदार व्यक्ति के यहां विवाह और पारिवारिक आयोजनों की स्कूल परिसर में पूरी व्यवस्था संभालना और अपनी  ‘मास्टर‘  होने की पदवी का इस्तेमाल करते हुए विद्यार्थियों को भी इसमें सहभागी बनाना।

नई शिक्षा नीति में शिक्षकों से यह सब काम करने से मुक्ति दिलाने की बात कही गई है लेकिन प्रश्न यह है कि बिल्ली के गले में घंटी कौन बांधेगा मतलब कि जिन लोगों को शिक्षकों से यह सब काम कराने की आदत है, उनसे उन्हें कौन बचाएगा क्योंकि समुद्र में रहकर मगर से बैर मोल लेना आत्मघाती होगा !

इसके साथ ही सरकारी शिक्षकों को वेतन और सुविधाएं जितनी बेहतर मिलती हैं, उतनी ही पढ़ाने की सुविधाएं अर्थात इन्फ्रास्ट्रक्चर की कमी होने से वे अपनी प्रतिभा और क्षमता का उपयोग करने में असमर्थ रहते हैं। वे सरकारी कर्मचारी की तरह काम करने को विवश हैं, अपनी योग्यता से विद्यार्थियों का भला करना चाहते हुए भी साधनों के अभाव में चुप रहना ही अच्छा समझते हैं, जैसे तैसे लंबा चौड़ा और भारी भरकम सिलेबस पूरा करने की जल्दी में रहते हैं, चाहे उनका पढ़ाया हुआ विद्यार्थी के सिर पर से होता हुआ आकाश में ही विलीन क्यों न हो जाए ?

शिक्षकों का दूसरा वर्ग है ऐसे प्राइवेट स्कूलों में पढ़ाने वालों का जिनमें कुछ को सरकार या दूसरी जगहों से आर्थिक मदद मिलती है और बाकी विद्यार्थियों से मोटी फीस और  उनके मातापिता से जबरन उगाही तक करने से नहीं चूकते, वेतन कम होता है लेकिन सांस लेने की फुरसत नहीं मिलती, परीक्षाओं में बेहतर नतीजे लाने पर ही नौकरी कायम रहने की गारंटी होती है, इन्फ्रास्ट्रक्चर आधुनिक होता है इसलिए अपनी काबीलियत दिखाने का अवसर मिलता है, इसके साथ ही पढ़ने वाले बिना इनसे ट्यूशन लिए पास नहीं हो सकते और इनके सामने प्रबंधकों का दिया टारगेट पूरा करने की तलवार लटकी रहती है।

शिक्षकों का तीसरा वर्ग है जो चौबीस हजार करोड़ रुपए वार्षिक के प्राइवेट ट्यूशन पढ़ाने वाले धंधे से जुड़े हुए हैं और सरकारी हो या गैर सरकारी, सभी स्कूलों के बच्चों के लिए इनसे शिक्षा ग्रहण करना अनिवार्य है, यदि उन्हें बढ़िया अंकों से परीक्षा पास करनी है, उच्च शिक्षा संस्थानों में प्रवेश लेना है, विदेशों में शिक्षा प्राप्त करने के काबिल होना है और प्रतियोगी परीक्षाओं में सफल होना है।

नई शिक्षा नीति की समीक्षा

सबसे पहले तो नई शिक्षा नीति से शिक्षकों को उन सब कामों से मुक्त रखने की बात कही गई है जिनका पढ़ने पढ़ाने से कोई सम्बन्ध नहीं होता, उन्हें पूरा समय विद्यार्थियों के उज्जवल भविष्य के सपने को पूरा करने में लगाना होगा । कक्षा में पढ़ाई की प्लानिंग करने, विद्यार्थियों की रुचि और क्षमता का आकलन करने, अपनी स्वयं की सोच और योग्यता को आधुनिक तथा टेक्नॉलाजी आधारित बनाने के लिए ट्रेनिंग लेना और शिक्षक की जो जिम्मेदारी अपने विद्यार्थियों के प्रति होती है, उसे पूरा करने में कोई कोर कसर न छोड़ना होगा। 

इस सब के बदले में अपना जीवन आदर और सम्मान के साथ व्यतीत करना तथा ऐसे मानदंड स्थापित करना जिनसे उनके पढ़ाए विद्यार्थी जीवन के किसी भी मोड़ पर उनके द्वारा दी गई शिक्षा पर गर्व कर सकें।

बहुत ही आदर्श और सिद्धांतों से भरी नई शिक्षा नीति की कल्पना की गई है और विश्व के अनेक देशों की विकसित शिक्षा प्रणाली से प्रेरणा भी ली गई है और इसी कड़ी में दुनिया भर से सौ के लगभग उच्च शिक्षा संस्थानों, विश्वविद्यालयों को भारत में अपनी शाखाएं खोलने का निमंत्रण दिए जाने की बात भी कही गई है ताकि भारतीय विद्यार्थियों को शिक्षा में विश्व स्तरीय योग्यता हासिल करने के लिए विदेशों में न जाना पड़े, कक्षाओं में स्मार्ट बोर्ड, प्रोजेक्टर और ऐसे उपकरण लगें जिनसे शिक्षा साधनों में आमूलचूल परिवर्तन हो जाए, जिसकी पूर्ति के लिए संचार तथा संवाद के आधुनिक संसाधनों का इस्तेमाल करना अनिवार्य है।

यह बात और है कि देश में बिजली और इंटरनेट की जो हालत है, वह इन सब महत्वाकांक्षी कल्पनाओं को साकार होने देने में हमेशा की तरह रुकावट बनी रहेगी। यह आंखों देखी हकीकत है कि चौबीस घंटे  बिजली न होने और इंटरनेट की धीमी गति के कारण सभी इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों के काम करने की नौबत ही नहीं आयेगी तो फिर कैसे विश्वस्तरीय शिक्षा दी जा सकेगी, यह सोचने पर विवश होना ही पड़ता है ?

कहा गया है कि त्रिभाषा फॉर्मूला अपनाया जाना है लेकिन प्रैक्टिकल बात यह है कि केवल दो भाषाएं ही काफी हैं, एक मातृभाषा और दूसरी विश्व की सर्वमान्य भाषा अंग्रेजी जिसके बिना देश की किसी भी सरकार, किसी भी राज्य और किसी भी दफ्तर का काम चलना लगभग असंभव है।

अगर किसी को कोई और भाषा सीखनी है तो उसके लिए कोई रोक टोक तो है नहीं, वह कितनी भी स्वदेशी या विदेशी भाषाएं सीखने के लिए स्वतंत्र है लेकिन पढ़ने की अवधि के दौरान कोई तीसरी भाषा केवल मजबूरी के कारण वह क्यों सीखे ?

भाषा के बारे में एक बात और सोचने की है कि अंग्रेजी पढ़ाओ या अंग्रेजी में पढ़ाई कराओ, से बाहर निकलकर यह तय करना होगा कि विद्यार्थी कौन सी भाषा सीखे और किस भाषा के माध्यम से पढ़े।

विषय लेने और उन्हें बदलने की सुविधा इस नीति में है पर इस बात का कोई जिक्र नहीं है और न ही कोई ऐसी प्रणाली बताई गई है जिससे यह सुनिश्चित किया जा सके कि कौन सा विषय किस विद्यार्थी के लिए उपयुक्त है, उसकी क्या कैपेसिटी है और वह अपनी परिस्थितियों के अनुसार कौन सा विषय लेकर अपने लक्ष्य तक पहुंच सकता है। यदि ऐसा हो जाए तो बाद में सब्जेक्ट बदलने की जरूरत कम से कम होगी और उसके कीमती साल बर्बाद नहीं होंगे।

शिक्षा नीति में यह बात न केवल सराहनीय है बल्कि पूरी शक्ति और सामर्थ्य से अमल में भी लाई जानी चाहिए कि पढ़ाई के दौरान ही कोई काम सीखने, अपने कौशल या हुनर का विकास करने की जरूरत पर जोर दिया गया है।

प्रश्न यह है कि व्यावहारिक  ज्ञान देने के लिए उपयुक्त संस्थानों का इंतजाम कहां से होगा, कोई क्यों किसी स्कूली बच्चे को अपने यहां इंटर्नशिप पर रखेगा और सबसे बड़ी समस्या यह है कि उन्हें ट्रेनिंग देने के लिए ट्रेनर कहां से आएंगे और अगर यह काम भी उन शिक्षकों पर छोड़ दिया जो केवल अपना विषय पढ़ाने की योग्यता रखते हैं और उनसे कह दिया कि वे ही बच्चों के हुनर को तराशने का काम करेंगे तब तो सब कुछ गडबड होने के पूरे आसार हैं।

शिक्षा एक उद्योग है !

अगर देश को शिक्षा के स्तर पर प्रतियोगी और सर्वगुणसंपन्न बनाना है तो शिक्षा को एक उद्योग का दर्जा देने से बेहतर कोई और विकल्प नहीं है। अनेक देशों में और अपने देश में भी उच्च शिक्षा के क्षेत्र में इसे उद्योग की ही तरह देखा जाता है।

शिक्षाकर्मी को अगर शिक्षा उद्यमी कहा जाए तो उसमें हर्ज क्या है, इसमें काम करने वाले शिक्षक, परीक्षक, कंटेंट डेवलपर, सब्जेक्ट स्पेशलिस्ट और शिक्षा प्रदान करने के आधुनिक इंस्ट्रूमेंट तैयार करने वाले एंटरप्रेन्योर नहीं है तो और क्या है? शिक्षा के मॉड्यूल तैयार करना एक विशाल उद्योग की शक्ल ले सकता है, इसके लिए स्टार्टअप्स क्यों नहीं खुल सकते और शिक्षा को उद्योग मानकर इसे एक प्रॉफिटेबल प्रोफेशन क्यों नहीं बनाया जा सकता, इसके लिए शिक्षा का निजीकरण यानी इसे प्राइवेट सेक्टर की एक महत्वपूर्ण गतिविधि क्यों नहीं माना जा सकता?

यदि ऐसा हो गया और  शिक्षा के निजीकरण की सशक्त रूपरेखा बना ली गई और सरकार द्वारा बनाए नियमों का कड़ाई से पालन करने की व्यवस्था को अमली जामा पहना दिया गया तो देश के प्रत्येक भाग में न स्कूलों की कमी रहेगी, न शिक्षकों को  आमदनी के लिए दूसरे क्षेत्रों में जाने की मजबूरी होगी और न सरकार पर अतिरिक्त वित्तीय बोझ पड़ेगा और देश क्वालिटी एजुकेशन के रास्ते पर चल पड़ेगा।


(भारत)


शुक्रवार, 4 सितंबर 2020

सीमित परिवार ही कुपोषण और बीमारी से बचा सकता है






सितंबर का महीना पोषण माह के रूप में मनाए जाने की घोषणा प्रधानमंत्री द्वारा की गई है, इसलिए यह जानना जरूरी है कि आखिर कुपोषण होता क्यूं है और इसका व्यक्ति, परिवार तथा समाज पर क्या असर पड़ता है ?


उदाहरण के लिए वर्तमान महामारी ने स्वास्थ्य को लेकर जहां अनेक भ्रांतियों को तोड़ा है, मतलब यह कि कोई अपने को कितना ही हृष्ट पुष्ट और बलशाली समझे, वह इस बीमारी की पकड़ से बाहर नहीं है, वहां इसके बचाव के रूप में एकमात्र उपाय यह बताया जाता है कि अपनी इम्यूनिटी का स्तर अच्छा बनाए रखना चाहिए और यह तब ही हो सकता है जब हमारा खानपान पौष्टिक होगा।


हवा, पानी और पोषण

प्रदूषण रहित वायु और पीने का स्वच्छ जल एक सीमित समय तक जिंदा रख सकता है लेकिन अगर स्वस्थ रहकर जीवित रहना है तो पौष्टिक आहार और अनुशासित जीवनशैली जरूरी है।  लेकिन यह कहना आसान है और पालन लगभग असंभव क्योंकि जब तक हमारे पास बढ़िया साधन नहीं होंगे और जैसे तैसे पेट भरने की असलीयत से मुक्त नहीं होंगे तब तक कैसे स्वस्थ रहकर बीमारियों से दूर रह सकते हैं?

हमारे खाने पीने में डॉक्टरों के मुताबिक सही मात्रा में आयरन, आयोडीन, कैल्शियम और विटामिन न होने से जो समस्याएं उम्र बढ़ने के साथ दिखाई देती हैं उनमें चोट लगने या जख्म हो  जाने पर ठीक होने में जरूरत से ज्यादा देर लगना, बाल झड़ना, हर वक्त कमजोरी और सुस्ती महसूस करना, हड्डियों में दर्द रहना और उनका बिना बात टूटने तक लगना, तलवे और जीभ में बिना मिर्च खाए या लगाए जलन होना, धड़कन का अनियमित हो जाना और रात में कम दिखाई देने लगना, रतौंधी हो जाना जैसी कठिनाइयां उस आयु से काफी पहले शुरू हो जाती हैं जब इनका होना सामान्य शारीरिक क्रिया माना जाता है, मतलब युवावस्था में ही बुढ़ापे की निशानियां शुरू हो जाती हैं।


हमारे देश में लगभग आधी आबादी कुपोषण यानी पौष्टिक भोजन न मिलने से जूझ रही है। जन्म लेते ही जिन शिशुओं और उनकी माताओं को सही आहार के लाले पड़े रहते थे, उनकी मृत्यु उनसे आठ गुना अधिक होती है जिन्हें पौष्टिक आहार और सही देखभाल तथा टीकाकरण की सुविधा मिली होती है। कुपोषण का शिकार दूध पीते बच्चे चैदह गुना ज्यादा मरते हैं। यही नहीं पैंसठ साल से ऊपर की उम्र वाले अस्सी से नब्बे प्रतिशत लोग ईश्वर से उठा लेने की मन्नत मांगते रहते हैं क्योंकि वे असहाय, बीमार और आश्रित होकर जीना नहीं चाहते ।

एक उदाहरण हमारे लिए सबक हो सकता है और वह यह कि देश में जितने भी स्लम एरिया हैं, झुग्गी झोपड़ी बस्तियां हैं और एक ही कमरे में आठ दस और उससे भी अधिक सदस्यों के परिवार रहते आए हैं, उनका इस बीमारी को महामारी बनाने में सबसे अधिक योगदान है।

डर की बात यह है कि इन जगहों पर बीमारी से ठीक हो जाने पर भी ऐसे लक्षण उभरने लगे हैं जिनमें फेफड़ों, हृदय और मस्तिष्क को हमेशा के लिए नुकसान पहुंच सकने का भय है।

यह तो स्वास्थ्य की हल्की सी झांकी हो गई लेकिन अभी बहुत से क्षेत्र ऐसे हैं जिनमें बढ़ती आबादी से होने वाली परेशानियों की झलक आसानी से मिल सकती है। हर साल सवा करोड़ लोग रोजगार के काबिल हो जाते हैं, ढाई करोड़ बच्चे शिक्षा पाने के लिए तैयार हो जाते हैं। इसके विपरीत हमारे जो संसाधन जल, जंगल, जमीन, खेतीबाड़ी और छोटे बड़े काम धंधे, कल कारखाने और उद्योग हैं, वे अपनी क्षमता या उससे अधिक भी काम करें तो भी बढ़ती जनसंख्या के सामने बौने साबित हो जाते हैं। एक अनार सौ बीमार वाली स्थिति है।

एक और हकीकत है कि प्रति व्यक्ति आमदनी में अच्वी खासी बढ़ौतरी के बावजूद पौष्टिक भोजन पर होने वाला खर्च घट रहा है, स्कूल जाने वाले बच्चों से लेकर युवाओं में कुपोषण बढ़ रहा है क्योंकि जब खानपान में जरूरी फैट, कार्बोहाइड्रेट और प्रोटीन आवश्यक मात्रा में उपलब्ध नहीं होंगे तो मजदूर वर्ग हो या दफ्तरों के कर्मचारी, सब ही की सेहत अधिक परिश्रम करने के योग्य नहीं रह जाएगी।

ऐसे लोग बहुत कम संख्या में हैं जो भोजन के पौष्टिक होने का खर्च उठा सकते हैं क्योंकि जब परिवार में अधिक सदस्य होंगे तो सब को तंदरुस्त रखने वाला भोजन मिलना असंभव है। हमारा देश तो वैसे भी कुपोषित बच्चों की संख्या के मामले में पड़ोसी पाकिस्तान और बांग्लादेश से भी काफी आगे है।


सीमित परिवार का महत्व

यह समझ में आना कोई रॉकेट विज्ञान नहीं है कि हमारी सभी समस्यायों की जड़ एकमात्र जनसंख्या में बेरोकटोक वृद्धि है जो विस्फोटक तो है ही, साथ में भविष्य के लिए इतनी निराशाजनक है कि यदि हर कोई इसे रोकने की कोशिश नहीं करेगा तो हम जितना भी औद्योगिक उत्पादन बढ़ा लें, कितनी भी कृषि उपज शानदार हो जाए और विकास की चैतरफा योजनाएं बना लें, वे सब आवश्यकता से बहुत कम ही रहेंगी क्योंकि आबादी उससे कहीं अधिक रफ्तार से बढ़ रही है।

क्या किसी ने सोचा है कि छह साल से कम उम्र के स्कूल जाने लायक हो चुके बच्चों में आधे से अधिक कुपोषित हैं, पढ़ाई लिखाई के बाद भी इन बच्चों के मानसिक और शारीरिक स्तर में गिरावट होना क्या बताता है?

अगर देश की वर्तमान और आगे आने वाली पीढ़ी को स्वस्थ और हृष्ट पुष्ट देखना है तो सामाजिक और पारिवारिक स्तर पर यह न केवल स्वीकार करना होगा कि बढ़ती जनसंख्या विकास के रास्ते में जबरदस्त रोड़ा है बल्कि ऐसे उपाय करने होंगे जिनसे परिवार दो बच्चों तक सीमित रहे और उनमें भी जरूरी अंतर हो, तब ही स्वस्थ समाज और मजबूत देश बन सकता है।

यहां एक बात और स्पष्ट रूप से जान लेनी चाहिए कि पौष्टिकता का संबंध किसी धर्म, जाति, समुदाय या प्रदेश से नहीं बल्कि प्रत्येक भारतीय से है जो कहीं भी रहता और आजीविका के लिए जो भी कार्य करता हो। यह उसका अधिकार ठीक उसी तरह से है जैसे कि उसे अपने परिवार  को सीमित या बड़ा रखने का है।

परिवार सीमित होगा तो सभी सदस्यों के हृष्ट पुष्ट होने की गारंटी है और अगर नहीं तो फिर कुपोषण और बीमारी का सामना निश्चित है।

(भारत)