शुक्रवार, 26 फ़रवरी 2021

रचनाकार को दान, दक्षिणा, दया नहीं, सम्मान चाहिए


अक्सर देखने, पढ़ने, सुनने में आता है कि जिन्होंने एक रचनाकार की तरह जीवन जिया और जब वे अशक्त, कमजोर, बीमार और आर्थिक दृष्टि से विपन्न हो जाते हैं तो समाज का रवैया उनके प्रति दया दिखाने, रुपए पैसे से मदद करने और उनके प्रति सहानुभूति प्रकट करने जैसा हो जाता है। इनमें सभी विधाओं के रचनाकार हैं ये लेखक, कवि, गीतकार, संगीतकार, नाटककार और उनकी रचनाओं को स्वरूप देने वाले शिल्पी, नर्तक, अभिनेता सभी हैं।

जब तक ये सभी श्रेणियों के रचनाकार क्रियाशील रहते हैं, अपने ओजपूर्ण लेखन, सशक्त वाणी और आकर्षक व्यक्तित्व से सबके प्रिय बने रहते हैं, इनके प्रशंसक, मित्रों और चाहने वालों का दायरा बढ़ता रहता है ।

प्रकृति और रचनाकार

सबसे बड़े रचनाकार जिसने यह दुनिया बनाई और इसे सभी रंगों से रंगकर जीने लायक बनाया, उसके नियमानुसार जीवन के तीसरे और चैथे चरण अर्थात वृद्धावस्था में प्रवेश तय है। जिस प्रकार किसी वाटिका में अंकुर फूटने से लेकर समय आने पर पतझड़ के समय पेड़ पौधों  के प्रति भाव बदलने लगता है, उसी प्रकार मनुष्य के वयोवृद्ध होने पर उसके प्रति आदर, सम्मान, समर्पण का भाव बदलने लगता है। हमदर्दी दिखाने का और कुछ ऐसा करने का भाव पैदा होने लगता है जिससे लगे कि इनकी आर्थिक सहायता हो जाय और इस उम्र में आराम से अपने अंतिम समय के आने की प्रतीक्षा करें। ये लोग भूल जाते हैं कि रचनाकार का स्वाभिमान उनकी इस हरकत से चोटिल हो जाता है और वह इनकी तरफ कुछ इस तरह से देखता है मानो ये नादान, नासमझ और मदद करने के नाम पर केवल उसकी अनमोल और कालजई कृतियों के आवरण में अपने लिए वाहवाही लूटने वाले हैं।

सहानुभूति बनाम सम्मान

रचनाकार और उसके  प्रति सहानुभूति का भाव समझने के लिए एक उदाहरण देना काफी होगा।

एक बड़े मनोरंजन चैनल के एक शो में सुप्रसिद्ध गीतकार संतोष आनंद को बुलाया जाता है। उनके आने से आयोजक हों, कार्यक्रम के संचालक हों या दर्शक, सभी अभिभूत हो जाते हैं और वही नशा छा जाता है जो मंच से उनकी कविताओं और गीतों को सुनकर सभाओं में छाया करता रहा है।

उनके प्रति आदर, सम्मान के साथ साथ उनकी उम्र की मजबूरी का जिक्र होता है तो एक सफल गायिका और शो की जज नेहा कक्कड़ उनकी पांच लाख रुपए से मदद करने का एलान करती हैं। इसे सुनते ही गीतकार से अधिक श्रोताओं और रचनाकार की रचनाओं के दीवाने रहे दर्शकों को अटपटा लगा होगा कि ये क्या हो रहा है ?

उम्मीद के मुताबिक संतोष आनंद ने अपने स्वाभिमान का जिक्र करते हुए अस्वीकार कर दिया लेकिन तब अपने दंभ को अलग रखते हुए स्वयं को  उनकी पोती समान बताते हुए जब दोबारा यह पेशकश की तो उन्होंने बात को आगे न बढ़ाते हुए स्वीकृति तो दे दी लेकिन उनके चेहरे  की भंगिमा कह रही थी कि उन्हें यह स्वीकार नहीं कि कोई उनके प्रति दया दिखाए।

इस घटना में एक दूसरे जज संगीतकार विशाल ने रचनाकार की गरिमा के अनुकूल संतोष आनंद की अप्रकाशित रचनाएं प्रकाशित करने की पेशकश की तो उनकी मुख मुद्रा प्रसन्न होकर स्वीकृति देने की थी। दो व्यक्ति, दो स्थितियां और एक रचनाकार का स्वाभिमान बहुत कुछ कह जाता है  जिसे समझने के लिए संवेदनशील होना आवश्यक है ।

यह घटना क्या इस और ईशारा नहीं करती कि समाज के सक्षम व्यक्ति स्वयं अपनी ओर से तथा सरकार के जरिए कुछ ऐसी व्यवस्था करने की शुरुआत करें जिससे किसी रचनाकार को अपने अंतिम पड़ाव में किसी का आश्रित न होना पड़े। इससे भी अधिक उन्हें बेसहारा होकर मृत्यु का इंतजार न करना पड़े।

रचनाकार का सम्मान

यह विडंबना ही है कि जिस रचनाकार की कृतियों से पाठक अपने को समृद्ध करते रहे हैं, उनसे प्रेरणा पाकर जीवन का रास्ता निकालते आए हैं और समाज में प्रतिष्ठा प्राप्त कर सम्मानित होते रहे हैं, उस समाज में रचनाकार की अनदेखी ही नहीं, उसका अनादर और अवहेलना करने के उदाहरण मिलते रहते हैं।

जहां हम एक ओर सम्मान सहित वृद्ध होने के अधिकार की वकालत करते हैं, वहां यदि कुछ ऐसा हो जाए जो रचनाकार को बिना उस पर कोई एहसान किए उसकी जरूरतों को पूरा कर सके तो यह उनके सत्कार की भांति होगा।

साहित्यकारों और रचनाकारों के सम्मान के लिए कुछ प्रदेश सरकारों ने आर्थिक सहायता राशि निश्चित की हुई है और उनके आवास का प्रबंध करने की पहल भी की है लेकिन जरूरत इस बात की है कि राष्ट्रीय स्तर पर ऐसी व्यवस्था हो जिससे अपने आप इनकी मदद हो जाए,  हाथ फैलाने की  नौबत न आए। यह काम साहित्य, संगीत, कला, नाटक तथा अन्य विधाओं से जुड़ी सरकारी और गैर सरकारी संस्थाओं के जरिए आसानी से किया जा सकता है।

यह एक वास्तविकता है कि रचनाकार चाहे किसी भी विधा में अपनी साधना करे, वह अन्य व्यक्तियों से काफी अलग होता है। उसकी सोच और मानसिक अवस्था भिन्न होती है, वह अपना एक संसार अपने चारों ओर बना लेता है, आम तौर से अकेले रहना पसंद करता है, विशेषकर जब वह किसी रचना को जन्म दे रहा हो।

कहा जाता है कि रचनाकार को अपनी कृति रचते समय उतनी ही पीड़ा होती है जितनी किसी महिला को अपनी संतान को जन्म देते समय होती है। इसी के अनुरूप उसकी प्रसन्नता भी एक मां की तरह होती है जब वह पहली बार अपनी संतान को देखती है।  जब रचनाकार की कृति पुस्तक रूप में या कलाकृति के रूप में थियेटर में प्रदर्शित होती है तो निर्माता की तरह उसकी खुशी का अनुमान लगाया जा सकता है।

रचनाकार के स्वाभिमान को ठेस पहुंचाने से अधिक कोई अन्य शस्त्र उसे हानि नहीं पहुंचा सकता। यदि इतना ही समाज समझ ले तो बहुत होगा और किसी रचनाकार को मानसिक त्रासदी झेलनी नहीं पड़ेगी और वह उन्मुक्त होकर अपने रचना धर्म का पालन करता रहेगा।


शुक्रवार, 19 फ़रवरी 2021

सामाजिक न्याय की सूरत बदलनी चाहिए

दुनिया की जानी मानी और प्रभावशाली संस्था संयुक्त राष्ट्र संघ ने कुछ सोच समझकर ही सन् 2007 में बीस फरवरी की तारीख़ विश्व सामाजिक न्याय दिवस के रूप में मनाए जाने की घोषणा की होगी। हो सकता है कि उसके ध्यान में संसार के कुछ देशों में सामाजिक अन्याय की ऐसी घटनाएं सामने आईं हों जिनका प्रभाव व्यापक रूप से पड़ता हो और एक मुहिम जैसा कुछ चलाना जरूरी लगा हो।

सामाजिक अन्याय

खैर जो भी हो, विषय की गंभीरता को देखते हुए अपने देश में उन बातों पर चर्चा करना एक बार फिर आवश्यक हो जाता है जिनसे सामाजिक न्याय की स्थापना हो और बड़े पैमाने पर फैली असमानता के निराकरण या उसे कम करने के प्रति लोगों में कुछ तो बेचैनी हो।

हालांकि इस मुद्दे को लेकर अक्सर बहस होती रहती है कि अगर किसी व्यक्ति, परिवार, समाज के साथ किसी भी तरह का अन्याय होता है तो उसके खिलाफ आवाज उठानी ही चाहिए और जो लोग इसके लिए जिम्मेदार हैं, उन्हें कानून के माध्यम से सजा मिलनी चाहिए। लेकिन ऐसा होता नहीं है और जिस व्यक्ति या समुदाय ने कोई अन्याय किया है वह और भी चैड़ा होकर पहले से ज्यादा ताकत के साथ अपने विरुद्ध खड़े होने वालों को सबक सिखाने की नीयत से अन्याय और अत्याचार करने की नई से नई तरकीब निकाल कर अपना दबदबा कायम रखने में कामयाब होता जाता है। वह जानता है कि जब सैंया भए कोतवाल तो डर काहे का क्योंकि राजनीतिक और प्रशासनिक समर्थन ज्यादातर उसके साथ होता है।

हमारे संविधान में इस बात की पुरजोर तरीके से व्यवस्था की गई है जिससे सामाजिक अन्याय करना संभव न हो, लेकिन जब समाज के कमजोर तबके से अन्याय होता है तो मतलब साफ है कि जिन लोगों पर संविधान के प्रावधानों को लागू करने की जिम्मेदारी है, वे उसकी अनदेखी कर रहे हैं और उनका साथ दे रहे हैं जो अन्याय करने में सबसे आगे हैं।

अगर ऐसा न होता तो देश की लगभग तीन चौथाई सम्पत्ति पर एक प्रतिशत लोगों का कब्जा नहीं होता और एक चैथाई आबादी को भूखे पेट रहने की मजबूरी नहीं होती।

कानून हैं पर बेअसर

हमारे देश में सामाजिक अन्याय को रोकने के लिए बने कानूनों की भरमार है, इनमें संशोधन भी होते रहते हैं और नए कानून बनते रहते हैं। अब क्यूंकि इन्हें लागू करने वाला तंत्र उदासीन बना रहता है तो सामाजिक अन्याय करने वाले उनके उल्लंघन का खुला खेल खेलते रहते हैं। कानून को अपना चाकर बना लेते हैं और पालन करवाने वालों को नौकर ताकि मनमानी करने में कोई कसर बाकी नहीं रहे।

हमारे देश में लिंग परीक्षण, भ्रूण हत्या, ऑनर किलिंग, बाल विवाह, दहेज जैसी कुरीतियों के ख़िलाफ सख्त कानून हैं लेकिन प्रतिदिन ये सब सबकी आंखों के सामने खुलेआम होता है।

हम अपने ही घर, पास पड़ौस और बाहर कदम रखने और कुछ दूर ही चलने पर सामाजिक न्याय की धज्जियां उड़ाई जाते हुए देखते रहते हैं और कुछ नहीं करते।

बाल मजदूरी अपराध है लेकिन अपने ही घर में स्कूल जाने की उम्र के बच्चों विशेषकर लड़कियों से घरेलू काम करवाने में कोई संकोच नहीं करते। इनके साथ बात और व्यवहार करने में शालीनता की सभी हदें पार करने से लेकर इनका शोषण करने तक इनके किसी संवैधानिक अधिकार की बात मन में ही नहीं आती।

सड़क, चौराहे, नुक्कड़ से लेकर किसी ढाबे और कारखाने में चार से चौदह साल तक के बच्चे काम करते हुए मिल जाएंगे जबकि यह गैर कानूनी है। ग्रामीण क्षेत्रों में चले जाइए तो वहां इस उम्र के बच्चे खेतों में काम करते मिलेंगे या पशुओं की देखभाल करते हुए अथवा कोई ऐसा ही मजदूरी का काम जो कानूनन इन्हें नहीं करना चाहिए।

थोड़ा आगे बढ़ने पर कुछ ऐसे युवा मिल जाएंगे जो शिक्षित होंगे लेकिन अपनी योग्यता प्रमाणित करने का अवसर हाथ से जाते हुए देखते रहने को विवश हैं क्योंकि सिफारिश, रिश्वत और भाई भतीजवाद का बोलबाला है और मजे की बात यह कि यह भी गैर कानूनी है।

महिलाओं को लेकर बहुत से कानून हैं जिनके अनुसार न तो उनके साथ लिंग के आधार पर कोई भेदभाव हो सकता है और न ही उन्हें पुरुषों से कम वेतन या मजदूरी दी जा सकती है। परन्तु ऐसा प्रतिदिन सबके सामने होता है। यही नहीं उनके साथ कोई दुर्व्यवहार होता है तो उन्हें ही कटघरे में खडा कर दिया जाता है कि गलती तो केवल औरत ही कर सकती है, मर्द तो बेचारे और पाकसाफ होते हैं। अगर कहीं किसी महिला ने हिम्मत कर न्याय की गुहार लगा दी तब तो हो सकता है कि उसका जीना ही मुश्किल हो जाय क्योंकि कानून उसके साथ बेशक हो लेकिन सामाजिक और कानूनी व्यवस्था तो उनके पास है जो नारी उत्पीड़न को अपना जन्मसिद्ध अधिकार समझते हैं।

जरा सा आगे बढ़ जाने पर हो सकता है आपको पास के धार्मिक स्थान पर भीख मांगते और किसी दानवीर द्वारा भूखों को दिए जा रहे भोजन की लंबी कतार में बच्चे, नौजवान, महिलाएं, बेसहारा, अपाहिज और वृद्ध मिल जाएं। यहां यहां यह कहना बेमानी हो जाता है कि भीख मांगना अपराध है।

कानून से बड़ा भाग्य

सामाजिक न्याय की अवधारणा इसलिए की गई होगी ताकि सब को शिक्षा, रोजगार, परिवार के भरण पोषण की सुविधा और सामान्य जीवन जी सकने की सहूलियत मिल जाय लेकिन यह सब लगता है कि संवैधानिक अधिकार के स्थान पर भाग्य के क्षेत्र में आता है। अगर किस्मत में होगा तो मिल जाएगा वरना कुछ नहीं मिलेगा।

अक्सर बहुत से लोगों को सामाजिक अन्याय की रोकथाम के लिए आंदोलन करते हुए, क्रांति जैसी किसी चीज का बखान करते हुए और अपने अंदर के गुस्से को प्रकट करने के लिए अहिंसा का दामन पकड़ कर अपनी न्यायोचित बात कहते हुए देखा जा सकता है।

हो सकता है कि कुछ लोग उत्तेजित होकर और अपने मानसिक संतुलन पर काबू पाने में असमर्थ होने पर हिंसा का रास्ता अपना लें। अब क्योंकि अपनी बात कहने के लिए हिंसात्मक रास्ता अख्तियार करना गैर कानूनी है तो तुरंत सरकार और प्रशासन हरकत में आ जाता है और हिरासत, गिरफ्तारी, मुकदमे का दौर शुरू हो जाता है। इसमें उस बात का कोई महत्व नहीं रहता जिसके लिए आंदोलन के जरिए अपनी बात कहने की कोशिश की गई थी लेकिन भावावेश में आकर कुछ ऐसा कर बैठना ही महत्वपूर्ण हो जाता है जो कानून के दायरे में नहीं आता।

विश्व सामाजिक न्याय दिवस पर क्या सरकार से कुछ ऐसी व्यवस्था करने की उम्मीद की जा सकती है जिससे संविधान में मिले अधिकार की रक्षा हो सके और उसे पाने के लिए कुछ ऐसा न करना पड़े जो असंवैधानिक या गैर कानूनी है?

·       सामाजिक न्याय की तसवीर बदली जानी चाहिए और यह तब ही बदल सकती है जब लोगों की सोच बदले।

·      जब बाल मजदूरी अपराध है तो फिर अपने घर, दफ्तर, कारखाने में हम क्यों उनसे काम लेना बंद नहीं करते ? यदि उनके पालन पोषण, शिक्षा की व्यवस्था करना उनके माता पिता या परिवार के वश में नहीं है तो फिर कोई ऐसी सरकारी व्यवस्था क्यों नहीं की जा सकती जिससे उनका बचपन मजदूरी के दलदल में फंसने से बचा रह सके ?

·     युवाओं के लिए पर्याप्त शिक्षा प्राप्त करने पर अपनी योग्यता के अनुसार रोजगार या व्यवसाय न मिलने की अवस्था में क्या सरकार और समाजसेवी संस्थाओं से लेकर उद्योगपतियों का यह कर्तव्य नहीं है कि वे इनके लिए ऐसे संसाधन विकसित करें जिनसे इनकी योग्यता का उचित मूल्यांकन हो सके ?

·    वृद्ध और अशक्त होने पर तथा परिवार द्वारा उनकी देखभाल करने की असमर्थता के कारण वे बेसहारा न हों, उनके लिए सम्मानजनक तरीके से जीने की व्यवस्था करना क्या सरकारी मशीनरी का दायित्व नहीं है ?

·    सामाजिक न्याय केवल कानूनी कार्यवाही से सुनिश्चित नहीं किया जा सकता, तो फिर क्या फिर इससे अलग हटकर कुछ ऐसा नया नहीं होना चाहिए जिससे लोगों को न्याय मिलना एक सामान्य प्रक्रिया बन जाए और अपने अधिकार पाने के लिए संघर्ष न करना पड़े ?


शुक्रवार, 12 फ़रवरी 2021

बहुत हुआ आंदोलन, लौटने और सोचने की बारी, कहीं देर न हो जाए।


संसद में आंदोलनकारी बनाम आंदोलनजीवी की चर्चा ने एक नई बहस को जन्म दे दिया है। इस दुविधा से बाहर निकलने का एक आसान रास्ता यह है कि आंदोलन, चाहे थोड़े समय के लिए ही सही, छोड़कर अपने घरों, खेत खलिहान लौट जाएं और एक बार फिर सोचें कि प्रधानमंत्री की इस घोषणा का क्या अर्थ है कि यह कानून ऑपशनल यानी वैकल्पिक हैं, मतलब यह कि अगर किसी को सुहाएं तो वो अपनाए और जिसे न अच्छे लगें, वह पहले की तरह काम करता रहे।

सोच का दायरा

असलियत यह है कि देश ही नहीं कृषि से जुड़े अंतरराष्ट्रीय संगठनों ने भी भारत में कृषि सुधारों की जरूरत को महसूस किया है और इन नए कानूनों को पहला और सही कदम बताया है। तो अगर फिर भी विरोध होता है तो समझना होगा कि ऐसे कौन से कारण हैं जिनके चलते इन्हें किसान विरोधी बताया जा रहा है और आंदोलन करने की राह पकड़नी पड़ रही है।

इस आंदोलन में तीन तरह के किसान देखे जा सकते हैं, एक तो वे जिन्होंने कानूनों का गहराई से अध्ययन किया है और अपने हितों के उलट पाया है। उन्हें यह समझने में देर नहीं लगी कि इन कानूनों का लक्ष्य अमीर, सुविधा संपन्न और आधुनिक ढंग से खेती करने वाले किसानों के वर्चस्व, राजपाट और एकाधिकार को कम करना है। 

आमदनी के साधन पहले जैसे ही रहेंगे लेकिन एकछत्र अधिकार की उनकी हैसियत को ठेस लगने की पूरी संभावनाएं हैं। मतलब यह कि जमींदारा, साहूकारा नहीं रहेगा और जिन्हें वे अपनी प्रजा मानते हुए अपने रहमो करम से नवाजते रहते थे, वे अब अपनी मर्जी के मालिक बन कर जहां उन्हें अच्छा लगे, वहां जाने के लिए स्वतंत्र होने जा रहे हैं।

दूसरे किसान वे हैं जिन्होंने इन कानूनों को स्वयं पढ़ने और समझने के स्थान पर पहले वर्ग के किसानों द्वारा दी गई परिभाषा को सत्य वचन मानते हुए विरोध करना शुरू कर दिया।

तीसरा वर्ग उन किसानों का है जिन्होंने अपने ही घर परिवार और बिरादरी की युवा पीढ़ी और लॉकडाउन के कारण गांव देहात लौटने वाले लोगों  से सलाह मशविरा करने का काम किया। इन्हें इन कानूनों के जरिए अपनी आमदनी बढ़ने और परिवार के लिए आधुनिक रहन सहन की सुविधाऐं जुटाने की राह आसान लगी और इनके पक्षधर बन गए।

जल, जंगल और जमीन

पिछले अनेक वर्षों से कृषि, ग्राम विकास, पशु पालन और पर्यावरण से जुड़े अनेक विषयों पर लिखे गए लेखों का संपादन कर एक पुस्तक के रूप में प्रकाशित अपनी पुस्तक का जिक्र करना ठीक रहेगा जिसमें विस्तारपूर्वक जानकारी दी गई है कि किस प्रकार हमारे किसान इन कानूनों से ही नहीं बल्कि अपने परिश्रम और आधुनिक टेक्नोलॉजी के मिश्रण से खुशहाल हो सकते हैं।

यह पुस्तक, इसी शीर्षक से नोशन प्रेस ने प्रकाशित की है और अमेजन तथा फ्लिपकार्ट से मंगवाई जा सकती है।

सरकार से क्या कहा जाए

अब हम इस बात पर आते हैं कि क्या सोच विचार करें और सरकार से किन बातों की मांग करें।

कृषि के लिए आवश्यक बिजली, पानी, बीज, उर्वरक और कीटनाशक इन पांच चीजों की जरूरत होती है। अगर ये आवश्यकतानुसार न मिलें तो किसान चाहे कितना भी मेहनती हो, वह प्रगति नहीं कर सकता।

आम तौर से अभी तक ये सुविधाएं उन किसानों तक आसानी से उपलब्ध थीं जिनके पास धन, बल और पर्याप्त मात्रा में जमीन थी। जिसके पास ये नहीं था वह गरीब और असहाय थे, जैसे तैसे गुजारा करते थे। स्वयं देखा है कि आज के दौर में भी ऐसे किसानों की विशाल संख्या है जिनकी आमदनी आठ सौ हजार रुपए महीने से ज्यादा नहीं है जिसका कारण एक ही है कि उनके पास खेती की बुनियादी चीजे ही नहीं हैं। यह सोचकर ही झुरझुरी होती है कि कोई कैसे इतनी कम रकम में अपने परिवार के लिए रोटी, कपड़ा, मकान, शिक्षा आदि का प्रबंध कर सकता है।

तो फिर सबसे पहली मांग ये कि छोटे, सीमांत और मझौले किसान के लिए इन चीजों की व्यवस्था हो जो उसकी खेती की प्राणवायु हैं। यह सब चीजें लगभग मुफ्त या बहुत कम दाम पर मिलें जिन्हें खरीदने के लिए उसे कर्ज लेने के लिए न उकसाया जाए क्योंकि यही कर्ज है  जिसे वह जीवन भर नहीं उतार पाता और आत्महत्या तक कर लेता है। 

अब हमारा संवैधानिक और प्रशासनिक ढांचा इस तरह का है कि सरकार इन चीजों का  सम्पूर्ण और नियमित इंतजाम नहीं कर सकती तो उसने सोचा कि इनकी पूर्ति निजी क्षेत्र के पूंजीपतियों और व्यापारियों से करा दी जाय ताकि किसान को लाभ हो।

इसमें सबसे बड़ा खतरा किसान का शोषण और उसकी जमीन पर कब्जा होने का था। इसके लिए कानून बनाया गया कि अगर कोई अपना पैसा लगाता है तो कम से कम एक साल और ज्यादा से ज्यादा पांच साल का ही कॉन्ट्रैक्ट कर सकता है, जमीन का मालिकाना हक नहीं बदलेगा और जो दाम तय हो, वह हर हालत में किसान को मिलेगा ।

यहां यह मांग करनी चाहिए कि जो कांट्रेक्ट या समझौता हो वह त्रिपक्षीय हो अर्थात किसान, पूंजीपति और राज्यपाल की ओर से अधिकृत व्यक्ति। ऐसे एग्रीमेंट का उल्लघंन करने की हिम्मत शायद कोई विरला ही करेगा जिसे अपना धन, मान सम्मान प्यारा न हो

विवाद की न्यायिक व्यवस्था

यहां सरकार से यह मांग करनी चाहिए कि दोनों पक्षों में विवाद होने की स्थिति में उसके निपटारे के लिए डिस्प्यूट सेटलमेंट अथॉरिटी बनाए जो एक निश्चित समय में निर्णय दे जिसका फैसला अंतिम रूप से मान्य हो। किसी एसडीएम या सिविल अदालत से अलग एक स्वतंत्र व्यवस्था ही किसान के लिए न्यायपूर्ण हो सकती है।

अब हम उनकी बात करते हैं जिनके पास आधुनिक विज्ञान, टेक्नोलॉजी, संचार एवं संवाद के साधनों की कमी है। इसके लिए यह मांग करनी चाहिए कि आबादी के हिसाब से ऐसे सुविधा केंद्र यानी फैसिलिटेशन सेंटर स्थापित हों जहां जानकारी भी मिले और सभी संसाधन लगभग मुफ्त मिलें। इन केंद्रों का संचालन, रख रखाव और वित्तीय व्यवस्था करना सरकार की जिम्मेदारी हो। ये केंद्र ग्रामीण समाज से तालमेल रखते हुए ईमानदारी से काम करें, इसके लिए बाकायदा बजट दिया जाय और उसकी जवाबदेही सुनिश्चित हो।

मूल्य निर्धारण

सरकार से तीसरी मांग यह करनी चाहिए कि किसान को निर्धारित और लाभकारी मूल्य किस तरह से मिले। उसे न तो वर्तमान मंडियों के हवाले छोड़ा जा सकता है और न ही भविष्य में निजी क्षेत्र द्वारा स्थापित की जाने वाली बिक्री व्यवस्था के अधीन।

इसके लिए अलग से प्राइस सेटलमेंट अथॉरिटी यानी मूल्य निर्धारण प्राधिकरण का गठन हो जिसके दायरे में सभी किसान, खरीददार हों और एक भली भांति तय किए गए स्टैंडर्ड यानी पैमाने के आधार पर किसी भी उपज का मूल्य तय किया जा सके। इसमें चाहे अनाज, फल, सब्जियां या अन्य कोई भी फसल हो, सभी शामिल हों। यह वर्तमान एमएसपी व्यवस्था से अलग हो क्योंकि जो अभी तक चलता रहा है, वह अब बेअसर हो रहा है।

इस प्राधिकरण की यह जिम्मेदारी हो कि तय समय सीमा में किसान को उसकी उपज का दाम मिल जाए और अगर कोई भी व्यापारी, चाहे मिल हो, फूड प्रोसेसिंग यूनिट हो या सरकारी खरीद हो, समय पर दाम न चुकाने पर कड़ी कार्यवाही हो जिसमें जुर्माने से लेकर जेल की हवा खाने तक की धाराएं हों। 

सरकार से चौथी मांग यह करनी चाहिए कि जिन पूंजीपतियों को वह ग्रामीण क्षेत्रो में निवेश का अवसर दे रही है वह उस इलाके में भंडारण के लिए गोदाम,  वेयरहाउस और अन्य उपकरण लगाएं जहां किसान अपनी उपज स्टोर कर सके और इस जगह का उससे केवल मामूली किराया लिया जाए। इसी के साथ बैंकों से कहा जाए कि वह किसान को इस भंडार में रखी उपज के आधार पर कृषि ऋण उपलब्ध कराएं। इससे फायदा यह होगा कि किसान को अगली फसल के लिए अपनी वर्तमान उपज को औने पौने दाम पर बेचना नहीं पड़ेगा। जब उसे यह आजादी दी है कि वह जहां चाहे अपनी फसल बेच सकता है तो उसे यह सुविधा भी मिलनी चाहिए कि वह जब चाहे अपनी फसल बेच सके और उसपर अगली फसल के लिए संसाधन जुटाने का बोझ न हो । 

अगर किसान और सरकार इन बातों को मान लें तो एक समृद्ध और आर्थिक रूप से मजबूत ग्रामीण समाज की कल्पना साकार हो सकती हैं।  


शुक्रवार, 5 फ़रवरी 2021

स्वास्थ्य और पोषण प्रत्येक नागरिक का कानूनी अधिकार होना चाहिए

 स्वास्थ्य और पोषण प्रत्येक नागरिक का कानूनी अधिकार होना चाहिए

किसी भी परिवार, समाज और देश की शक्ति इस बात से आंकी जाती है कि वह शारीरिक और मानसिक रूप से कितना स्वस्थ, जागरूक तथा आत्मनिर्भर या स्वावलंबी है। इसका मतलब यह हुआ कि सेहतमंद रहना पहली जरूरत और उसके लिए पौष्टिक भोजन मिलना प्राथमिकता के दायरे में आता है।

इसी के साथ यह वास्तविकता भी है कि स्वास्थ्य और पोषण की शुरुआत जन्म लेने से पहले अर्थात माता के गर्भ से ही हो जाती है और यह हमारा जन्मसिद्ध अधिकार हो जाता है कि हमें इस प्रकार का भोजन, सुविधाएं और वातावरण मिले कि हम जीवन भर स्वस्थ और हृष्ट पुष्ट रह सकें।

ऐतिहासिक हकीकत

स्वतंत्र होने के बाद समाज और सरकार के सामने सबसे बड़ी उलझन यह थी कि सदियों की दासता ने नागरिकों को दब्बू, कमजोर, बीमार और गरीब बने रहने के लिए मजबूर कर दिया था।  जो संपन्न तबका था, उसने इसका लाभ उठाते हुए इन्हें बराबरी का स्थान देने के बजाय अपनी दया का पात्र बना दिया ।

इसका परिणाम यह हुआ कि एक बहुत बड़ा वर्ग अस्वस्थ और कुपोषित रहने लगा क्योंकि उसके लिए वे सब साधन जुटाना असंभव था जिनसे वह अपने खानपान में पौष्टिकता का ध्यान रख सके। उसके लिए रूखी सूखी खाय के ठंडा पानी पी जैसे हालात उसकी जिंदगी को ढोने का काम करने लगे ।

अब क्योंकि आबादी की रफ्तार तेज थी तो जो समर्थ थे उनके पास अपना हुक्म बजा लाने वालों की कभी कमी नहीं हुई।  कुपोषण के कारण लोग मरते गए और उनसे भी अधिक कुपोषित बच्चे पैदा होते गए। जो किसी तरह जी गए, वे अपने पूर्वजों की तरह अपने मालिक की गुलामी करने के लिए तैयार होते गए। इनके लिए न शिक्षा का इंतजाम हुआ, न पौष्टिक भोजन और न ही उनकी शारीरिक और मानसिक आवश्यकताओं को पूरा करने वाले साधन जुटाए गए। इसके विपरीत जो पैसे वाले थे, दबंग थे उनका कब्जा  शिक्षा, स्वास्थ्य और पौष्टिकता के सभी साधनों पर होता गया।

संवैधानिक जरूरत

हमारे संविधान में स्वास्थ्य और पोषण के अधिकार की कोई व्यवस्था नहीं थी, इसलिए सरकार को कभी कोई चिंता नहीं हुई कि देश की बढ़ती आबादी को ध्यान में रखकर जनमानस के स्वस्थ और हृष्ट पुष्ट रहने के लिए दूरगामी और लाभकर नीतियां बनाई जाएं।

सन 1975 में सरकार ने महिला एवं बाल विकास विभाग के जरिए स्थिति की गंभीरता को समझते हुए और वह भी इसलिए कि अस्वस्थ आबादी उसके ज्यादा काम की नहीं है, आई सी डी एस के नाम से एक योजना शुरू की जिसके अंतर्गत देश में बड़े पैमाने पर आंगनवाड़ियों की स्थापना का लक्ष्य रखा गया। इनमें गर्भवती महिलाओं, नवजात शिशुओं का टीकाकरण और उन्हें पौष्टिक भोजन दिए जाने की शुरुआत हुई।

यह कार्यक्रम न केवल वक्त की जरूरत था बल्कि देश को स्वास्थ्य का वरदान देने में भी सक्षम था, इसलिए हाथों हाथ लिया गया और सफलता की सीढ़ियां चढ़ते हुए इस क्षेत्र में अपनी उपयोगिता सिद्ध करने लगा। आंगनवाड़ी कार्यकर्ताओं की कड़ी में ए एन एम और आशा वर्कर भी जुड़ गए और अब यह ग्रामीण और पिछड़े शहरी क्षेत्रों में बच्चों और महिलाओं के स्वास्थ्य और पोषण का आधार बन गया है।

शोषण का रूप

अब हम इनके अधिकारों की बात करते हैं। हालांकि जब यह कार्यक्रम शुरू हुआ था तब इसमें अपना योगदान करने वालों से उम्मीद की जाती थी कि वे स्वैच्छिक आधार यानी समाज सेवा करने के लिए आगे आएं और उन्हें इसके लिए वेतन के स्थान पर आनरेरियम यानी पारिश्रमिक दिया जाएगा जो उस समय आठ से हजार और बारह सौ रुपए तक तय किया गया।

इससे जहां एक ओर थोड़ी बहुत बेरोजगारी दूर हुई, वहां स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं की एक समर्पित सेना भी तैयार हो गई। इन्हें यह समझ में आने लगा कि सेवा भावना के नाम पर उनका शोषण हो रहा है। वे अपने अधिकारों और उन्हें मिलने वाले मामूली से पारिश्रमिक के प्रति जागरूक होने लगे।

वर्तमान स्थिति में यह न केवल न्यायसंगत है बल्कि शोषण करने के आरोप से मुक्ति का भी अवसर है कि इनके लिए ऐसा कानून बनाया जाए जिससे इन्हें समुचित वेतन, सुविधाएं और साधन मिलें, परिवार के पालन पोषण की व्यवस्था हो ताकि इनके भी स्वास्थ्य की रक्षा हो सके।

इस आंगनवाड़ी समुदाय की सार्थकता कोविड महामारी के कारण हुए लॉकडाउन के दौरान सिद्ध हो गई क्योंकि जब महीनों तक जरूरतमंद महिलाओं और बच्चों को टीकाकरण और पौष्टिक भोजन की सुविधाएं नहीं मिलीं तो इस दौरान जन्म लेने वाले शिशु और उनकी माताएं कुपोषण का शिकार होने से बच नहीं पाए और अब एक बड़ी आबादी की कमजोर और बीमार रहने की समस्या खड़ी हो गई है। हालांकि सरकार ने पोषण माह और इसी तरह की व्यवस्थाएं कीं लेकिन यह ऊंट के मुंह में जीरे की तरह है।

लॉकडाउन के दौरान जहां एक ओर संपन्न या खाते पीते परिवारों की श्रेणी में आने वाले अपनी इम्यूनिटी यानी रोगों से लड़ने की क्षमता बरकरार रख सके, वहां एक बड़ी जनसंख्या ऐसे व्यक्तियों की है जो अपनी आर्थिक स्थिति और हालात की मजबूरी के कारण अस्वस्थ और कुपोषित हो गए हैं।

कानून बनाने का सही समय

यह एक चेतावनी भी है और जरूरत भी कि इस बारे में हमारे सांसद, विधायक, नीति और कानून बनाने में प्रमुख भूमिका निभाने वाले यह विचार करें कि स्वस्थ तथा हृष्ट पुष्ट बने रहने का संवैधानिक अधिकार लोगों को दिया जाए।

यह अधिकार मिल जाने से यह जिम्मेदारी सरकार की हो जाएगी कि देश से कुपोषण का नामोनिशान कैसे मिटाया जाय और प्रत्येक नागरिक के स्वस्थ रहने के लिए क्या व्यवस्था की जाय। इसमें यह भी हो कि जिस प्रकार अर्ध सैनिक बल होते हैं, उसी तरह अर्ध स्वस्थ बल भी गठित हों जिनमें आंगनवाड़ी, बालवाड़ी और इसी तरह के अन्य संगठनों में काम करने वालों के वेतन, सुविधाओं से लेकर पेंशन तक की व्यवस्था हो।

आज हमारे देश में डॉक्टरों और नर्सिंग स्टाफ की भारी कमी है जो क्रमशः छह लाख और बीस लाख की है। स्वास्थ्य मानकों के अनुसार प्रति हजार व्यक्तियों के लिए एक डॉक्टर होना चाहिए जो वर्तमान स्थिति में असंभव है। यदि पैरा हैल्थ सर्विस शुरू हो जाए और उसे प्रशासनिक सेवा का स्वरूप देकर मजबूती प्रदान की जाय तो देश स्वास्थ्य और पोषण के क्षेत्र में आत्मनिर्भर हो सकता है। इसके साथ ही अभी ये काम अलग अलग मंत्रालयों में होता है। इसे केवल स्वास्थ्य मंत्रालय के अधीन किया जाए जिससे समन्वय स्थापित करने में मदद मिलेगी। 

इस बारे में सार्वजनिक रूप से चर्चा और बहस आयोजित की जाएं क्योंकि यह राष्ट्रीय स्तर का मुद्दा है।

इस कानून के बन जाने से कुपोषित भारत के कलंक से मुक्ति मिल सकेगी और इसी के साथ बेरोजगारी, अशिक्षा और सामाजिक असमानता को दूर करने में भी मदद मिलेगी।