शुक्रवार, 27 सितंबर 2019

बापू का चित्र करन्सी पर और नाम का राजनीतिक फायदा-क्या यही उनकी विरासत है?









इस बात का बहुत शोर काफी समय से सुनने में आ रहा था कि बापू गांधी की एक सौ पचासवीं जंयंती आने वाली है जो बड़ी धूमधाम से देश भर में मनाई जाएगी।

सोचने का क्या है, जो पीढ़ी उनकी मृत्यु के आसपास पैदा हुई थी, वह सोचने लगी कि शायद इस तरह के आयोजन हों जिनमें गांधीवादी विचारधारा का प्रचार प्रसार हो,जनमानस को अनेक कार्यक्रमों के जरिए बताया जाएगा कि महात्मा गांधी आखिर किस मिट्टी के बने थे जो अंग्रेज भी उनसे घबराते थे और उनके अचूक अस्त्र अनशन की बात सुनते ही उनके हाथ पाँव फूल जाते थे। उनकी कथनी और करनी में कोई अंतर न होने की बात वर्तमान मीडिया में चर्चा का विषय होती और टी वी पर इस बारे में बहुत कोशिश करने पर भी सच्ची बात कहने को कोई नहीं मिलता तो गांधीवाद को अबूझ पहेली समझकर रद्दी की टोकरी में डालने की नौबत आ जाती।


गांधी एक विश्व पुरुष थे और दुनिया भर में उनकी ख्याति इस बात से थी कि उन्होंने यह सिद्ध कर दिया था कि सत्य और अहिंसा के बल पर संसार में शांति और सदभावना को स्थापित किया जा सकता है। वे जिस बात को सत्य और सही मानते थे, बिना यह परवाह किए कि दूसरे भी क्या वैसा ही मानते हैं, अपने सत्य को मनवाने के लिए कड़ी आलोचना और फिर जिद का सहारा लेते थे और अक्सर जो दोषी होता था, उनसे क्षमा माँग लिया करता था और उनका अनुयायी बन जाता था।


गांधी जी को राष्ट्रपिता कहा गया और जो पूरे देश को मान्य था, लेकिन अभी दुनिया के सबसे ताकतवर कहे जाने वाले देश अमेरिका के राष्ट्राध्यक्ष डॉनल्ड ट्रम्प ने प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी को भारत का पिता कह दिया तो यह बात जाँचने परखने का विषय हो गयी कि क्या वे इस कसौटी पर खरे उतरते हैं?
यह समझने के लिए कल्पना कीजिए कि यदि आज बापू जीवित होते तो क्या करते या क्या होता?


चलो गाँव की ओर 

महात्मा गांधी मानते थे और अपने कामों से उन्होंने यह साबित भी कर दिखाया कि भारत को यदि शक्तिशाली और सम्पन्न बनना है तो शहरों से ज््यादा ग्रामीण अर्थव्यवस्था को मजबूत करने के लिए कल कारखाने, उद्योग धंधे और बिजली, पानी, सफाई का इंतजाम देहाती इलाकों और दूरदराज के क्षेत्रों में  करना होगा क्योंकि अगर किसान भूखा और गरीब है, गाँव देहात में रोजगार तथा शिक्षा के साधन नहीं हैं तो भारत को विश्व का सिरमौर बनाने का सपना साकार करने की भावना को तिलांजलि देनी होगी।


आजादी के बाद से अब तक गाँव देहात की दुर्दशा की कहानी कहते ग्रामवासी, किसान, खेत मजदूर अपना घरबार छोड़कर उसी तरह शहरों में पलायन करते रहे हैं जिस प्रकार शहरों में पढ़े लिखे नौजवान इस मौके की तलाश में रहते हैं कि किसी तरह अमेरिका और दूसरे विकसित देशों में उनकी नौकरी का जुगाड़ हो जाए और वे हमेशा के लिए वहाँ बस जाएँ।


वे वहाँ उन देशों की तरक्की में योगदान दे रहे हैं और हमारे नेता उन्हें वापिस लाने के प्रलोभन दे रहें हैं लेकिन देश में उनकी योग्यता के मुताबिक संसाधन न होने से वे आना तो दूर, ऐसा सोचने से भी डरते हैं क्योंकि जो अप्रवासी देश के लिए कुछ करने की भावना से लौट भी आए थे तो उनकी यहाँ जो बेकद्री हुई उससे उन्हें नसीहत मिल गयी कि भारतीय नेताओं के आह्वान को एक कान से सुनकर दूसरे से निकाल देने में ही उनकी भलाई है।


यदि बापू होते तो ग्रामीण भारत में लघु, मध्यम और बड़े उद्योगों का जाल बिछा होता, शहरों से लोग गाँव की ओर पलायन करते, किसान के पास खेतीबाड़ी के आधुनिक संसाधन और नवीनतम टेक्नॉलोजी होती, खाद, बीज, सिंचाई और बिजली का समुचित प्रबंध होता। इसी के साथ वन विनाश की जगह वन संरक्षण होता, प्रदूषित वायु के स्थान पर साफ हवा में साँस लेते और स्वस्थ रहते।


बापू केवल एक बात से संतुष्ट होकर शाबाशी देते कि आजादी के बाद पहली बार देश में स्वच्छता का महत्व समझा गया और शौचालयों का देशव्यापी जाल बिछाने से ग्रामीण महिलाओं ने राहत की साँस ली और पुरुषों ने भी अपनी सोच बदली।


प्रजातंत्र बनाम भीड़तंत्र 

बापू अगर होते तो कभी प्रजातंत्र को भीड़तंत्र में नहीं बदलने देते और वह इसलिए कि वे राजनीति में नैतिक आचरण को पहले स्थान पर रखते, हो सकता है वे आज की चुनाव प्रणाली को ही नकार देते जिसमें भ्रष्ट होने पर भी  व्यक्ति चुनाव लड़कर जीत सकता है और ईमानदारी को ताक पर रखकर बेईमानी का बोलबाला कायम रख सकता है।


बापू क्योंकि आध्यात्मिक प्रकृति के भी थे, इसलिए वे राजनीति में चरित्र को अधिक महत्व देते, उनके लिए वही व्यक्ति नेता बनकर नेतृत्व करने के काबिल होता जो व्यवहार में सच्चाई को पहला स्थान देता, भ्रष्टाचार में लिप्त लोगों के लिए मंत्री, मुख्यमंत्री या प्रधान मंत्री बनना तो दूर, सांसद या विधायक बनना भी असम्भव होता।


आज तक नेता वही माना जाता रहा है जिसके पीछे समर्थकों की भीड़ हो अर्थात वोट बैंक हो, वह भ्रष्टाचार, अनैतिकता और गैरकानूनी कामों में लिप्त तथा सभी आरोपों से बच निकलने में सिद्धहस्त हो।


हो सकता है बापू भीड़तंत्र पर आधारित दलगत राजनीति पर प्रतिबंध लगा देते और नैतिकता की कसौटी पर खरे उतरने वाले दलों और व्यक्तियों को ही चुनाव लड़ने के योग्य मानने का विधान जारी करते और इस तरह वास्तविक प्रजातंत्र की स्थापना करने में सफल होते।


सत्याग्रह और उपवास 

बापू का सत्य के प्रति पूर्ण समर्पण भाव ही उन्हें इसके लिए सत्याग्रह करने और उसे सब की स्वीकृति के लिए अनशन करने और सभी साधनों से सत्य को स्थापित करने की प्रेरणा इसलिए देता था क्योंकि वे पहले उसे स्वयं अपनाते थे और अपने ऊपर प्रयोग करते थे, तब ही वे दूसरों से उसे मानने की अपेक्षा रखते थे।
उनके जीवन में लोभ, लालच, खुशामद, झूठ, फरेब, धोखाधड़ी और डर का कोई स्थान नहीं था, मृत्यु से तो तनिक भी भयभीत नहीं होते थे और चाहे कोई उनकी बात को न माने, वे कभी उसका बुरा नहीं मानते थे बल्कि उसे सत्य की तराजू पर रखकर तौलने के बाद ही अपना निर्णय करते थे।


बापू अगर होते तो वे आमरण अनशन के अपने अचूक हथियार से भ्रष्टाचार करने वालों, रिश्वतखोरों और अनैतिक काम करने वालों तथा असहाय लोगों पर अत्याचार करने वालों की नाक में नकेल डाले रखते और उन्हें तब तक क्षमा नहीं करते जब तक उनका हृदय परिवर्तन नहीं हो जाता।


यदि बापू अपने ऊपर गोलियाँ चलाने वाले के प्रहार से बच जाते तो एक बार उससे यह तो अवश्य पूछते कि क्या उसकी उनसे कोई व्यक्तिगत शत्रुता है, उनकी विचारधारा से असहमति है या वह किसी के कहने पर उन्हें मारना चाहता है? उन्हें उत्तर जो चाहे मिलता लेकिन इतना निश्चित है कि उसका हृदय परिवर्तन अवश्य हो जाता। बापू की यही विशेषता उन्हें महात्मा बनाती है कि वह दूसरे को बदलने के लिए प्रेरित करने से पहले स्वयं को उस साँचे में ढलते हुए देखते थे और तब सत्याग्रह या आंदोलन का रास्ता अपनाते। उन्हें इस बात की चिंता नही रहती थी कि वे सफल होंगे या नहीं, केवल कर्म करने पर यकीन करते थे।


इसके विपरीत यह भी हो सकता है कि यदि बापू जीवित होते तो उन पर पक्षपात करने, कानून के रास्ते में रुकावट डालने और धर्म तथा सम्प्रदाय का राजनीतिकरण करने वालों की बात न मानने पर राष्ट्रपिता के स्थान पर राष्ट्रद्रोही का तमगा लगा दिया जाता और उन्हें सलीब पर टाँग दिया जाता।


(भारत)

शुक्रवार, 20 सितंबर 2019

असफलता की गूँज मिटाने को एक धमक ही काफी है





जीवन में अक्सर ऐसे क्षण आते हैं जब हर ओर निराशा दिखाई देती है, किसी से बात करने, मिलने, कहीं जाने और कुछ काम धंधा, व्यापार तथा नौकरी तक करने का मन न करता हो, उदासी घेरे रहती हो और तनाव इतना महसूस हो कि मृत्यु की कामना सोच पर हावी होते हुए लगती हो।


ऐसे पल तब आते हैं जब हमारा कोई अपना बिछड़ गया हो, पारिवारिक और स्नेहपूर्ण सम्बन्धों में दरार आने लगी हो या फिर व्यापार अथवा नौकरी में असफलता हाथ लग जाए, धन सम्पत्ति, रुपया पैसा डूब जाए और कर्ज वसूलने वालों ने जीना मुश्किल कर दिया हो।

सोच में बदलाव

इसका मतलब यह है कि जो लोग इस दौर से गुजर रहे होते हैं उन पर असफलता ने शिकंजा कस लिया है और सोचने लगते हैं कि उनका अब कुछ नहीं हो सकता या फिर सब कुछ भाग्य या भगवान के आसरे छोड़ देते हैं।
यह जो सफल या असफल होने की बात है इसमें केवल एक ‘अ’ का अंतर है। वर्णमाला के इस पहले अक्षर जो स्वर कहलाता है उसकी गूँज इतनी व्यापक होती है कि बड़े बड़े सूरमा उसके आगे पस्त हो जाते हैं।


इसी के साथ यह भी सच है कि इस अ को हराने का मंत्र उसके बाद के स्वर ‘आ’ में ही है जिससे बना पूरा शब्द ‘आत्मविश्वास ‘ है। जो इस शब्द की महिमा पहचान कर इसे अपने गले का हार बनाने में कामयाब हो जाता है, उसका असफलता तनिक भी बाल बाँका नहीं कर सकती।


असफलता के कई पैमाने हैं। नौकरी न मिलने या छूट जाने अथवा व्यापार कारोबार में जबरदस्त घाटा होने से उसके बंद हो जाने को असफल होने की श्रेणी में डाल दिया जाता है।


इसके विपरीत यह एक ऐसा मौका होता है जो सोच बदल सकता है कि आखिर गलती कहाँ हुई जो ऐसा हुआ कि सब कुछ खत्म होता हुआ लगने लगा। यही नहीं इन हालात के शिकार व्यक्ति को अपनी नौकरी बदलने या व्यापार करने के तरीके में परिवर्तन करने का यह नायाब मौका होता है।


एक घटना है। एक मित्र सरकारी दफ्तर में नौकरी करते थे और वहाँ उनका जो अफसर था वह रिश्वतखोर होने के कारण अपने मातहत लोगों के साथ आतंकी जैसा बर्ताव करता था ताकि उसकी करनी उजागर न हो सके।


अब हुआ यह कि मित्र की ईमानदारी अपने अफसर की बात मानने में आड़े आ रही थी जिसकी वजह से दोनों के बीच ठन गयी। अफसर के व्यवहार से मित्र को हर रोज मानसिक आघात लगता था और उसे डिप्रेशन रहने लगा क्योंकि नौकरी जाने का डर था और परिवार में आर्थिक संकट रहता था। उस अफसर ने वार्षिक रिपोर्ट भी खराब कर दी और उसकी तरक्की के रास्ते बंद कर दिए।


मित्र इतना परेशान कि आत्महत्या तक की बात मन में आने लगी। एक दिन घर आकर बुरी तरह रूलाई निकल गयी, पत्नी ने समझाया तो भी कोई फर्क नहीं और उसके बाद सोचने लगा कि इस तरह तो वो अफसर अपने मंसूबों में कामयाब हो जाएगा और वह हमेशा नाकामयाब रहने का कलंक ढोने के लिए मजबूर हो जाएगा।


अगले दिन दफ्तर में उस अफसर ने पूरे स्टाफ के सामने कहा कि अभी भी मित्र उसकी नाजायज बातें मान ले सब कुछ ठीक हो सकता है वरना नतीजे भुगतने के लिए तैयार रहे।


मित्र का आत्मविश्वास जाग चुका था और उसने सब के सामने उस अफसर की पिटाई शुरू कर दी। वह अफसर अपनी जान बचाकर अपने कमरे में घुसा और मित्र सीधे संस्थान के सर्वोच्च अधिकारी के कमरे में और जो कुछ उसके साथ हो रहा था, बयान कर दिया। अधिकारी ने सांत्वना दी और अपने सेक्रेटेरी के पास बैठने के लिए कहा। इधर वो कमरे से बाहर आ रहा था और तब ही वो अफसर अंदर जा रहा था।


कुछ ही क्षण में वो अफसर मुँह लटकाए अधिकारी के कमरे से बाहर निकलता दिखाई दिया। संदेश स्पष्ट था कि मित्र ने अपनी असफलता को सफलता में बदल दिया था। इसी लिए कहा जाता है नाकामयाबी को कामयाबी में बदलने के लिए बस सोच में परिवर्तन का एक धक्का लगाना ही काफी है।


संकल्प में जल्दबाजी

अक्सर हम अपना लक्ष्य या उद्देश्य बिना परिस्थितियों पर भलीभाँति विचार किए बिना तय कर लेते हैं और उसे पूरा करने का संकल्प भी ले लेते हैं। अब क्योंकि ठीक से सोचा विचारा नहीं इसलिए संकल्प टूट गया और अपने को असफल मानने लगे। यह ऐसा ही है जैसे कि हर साल पहली जनवरी को उलटे सीधे या देखादेखी संकल्प ले लेते हैं जो अक्सर अगले दिन ही बिखर जाते हैं इसीलिए यह कहावत कही गयी है ‘बिना विचारे जो करे सो पाछे पछताए’।


इसलिए संकल्प करने से बचें और अगर कभी लें तो हिम्मत का दामन न छोड़ें। इसके साथ ही किसी के भी सुझाव को सबसे पहले न कहने का साहस दिखाएँ क्योंकि हर कोई अपना मनभावन सुझाव देता है जो दूसरे के लिए कतई भलाई का नहीं होता। वजह यह कि हरेक के सोचने और किसी बात पर अमल करने की अपनी सीमाएँ होती हैं जिनके लाँघते ही असफलता का सामना करना पड़ सकता है।


इसके साथ ही अपनी असफलता के लिए कभी दूसरों को जिम्मेदार न बतायें जैसे कि अगर हमारे मातापिता ने बड़े स्कूल में नहीं पढ़ाया या हमें बढ़िया नौकरी न मिल पाने के लिए उनकी परवरिश को जिम्मेदार ठहराएं या फिर हम जो व्यापार कारोबार करना चाहते हैं उसके लिए वे धन नहीं जुटा पा रहे और ऐसी ही दूसरी बातें जिनका अर्थ यही है कि हम अपनी हार का ठीकरा अपने मातापिता, मित्रों या रिश्तेदारों के सिर पर फोड़ना चाहते हैं जबकि उनका हमारी सोच या हमारे कामधाम से  कोई लेना देना नहीं।

 अक्सर माता पिता अपने बच्चों को हैसियत से ज्यादा सुविधाएं देने की कोशिश करते हैं और उनकी नौकरी या व्यापार के लिए पता नहीं कहां कहां से सिफारिश और रूपया पैसा जुटाते हैं लेकिन जब संतान इतना सब करने पर भी उनके प्रति अविश्वास रखे तो इसका मतलब यही है कि उस व्यक्ति में आत्मविश्वास की जबरदस्त कमी है।  सफल होने के लिए जिस तरह अपने मरे बिना स्वर्ग नहीं मिलता उसी तरह स्वयं अपना रास्ता बनाए बिना मंजिल भी नहीं मिलती।


मानसिक संतुलन बनाए रखना, दूसरों की बजाय केवल स्वयं से उम्मीद रखना, अगर कोई रिस्क या खतरा मोल लेना है तो वह खुद लेना, यह समझना कि आर पार का संघर्ष है तो कुछ भी हो सकता है और अगर फिर भी असफल हो गए तो उसे कंधे पर पड़ गयी धूल की तरह छिटक देना बल्कि उसका जश्न मनाना सफल होने का सरल मंत्र है। यह भी ध्यान रखें कि अक्सर धोखा उन्हीं से होता है जिन्हें आपने बिना पड़ताल किए अपने यहाँ काम पर रखा और बिना विचार किए दूसरे के कहने भर पर उसका भरोसा कर लिया। इसलिए दिल चाहे कितना भी कोमल रखें पर दिमाग जो कहे उसी को प्राथमिकता दें तो असफल होने से निश्चित तौर पर बचा जा सकता है।


(भारत)

शुक्रवार, 13 सितंबर 2019

पशुपालन का अर्थव्यवस्था में महत्वपूर्ण योगदान है







यह देखकर हैरानी भी होती है और हँसी भी आती है कि कुछ लोग पशुधन विशेषकर दुधारू पशुओं में सर्वश्रेष्ठ कही जाने वाली गाय की देखभाल और उसका संरक्षण करने की बात सुनते ही आग बबूला हो जाते हैं, अपना संतुलन खोने की हद तक चले जाते हैं और इस कदर विरोध करने लगते हैं जैसे कि मानो पशुधन की रक्षा करने की बात करना उनका अपमान हो। इसके विपरीत हकीकत यह है कि आज पशुधन की बदौलत ही हमारा देश दुनिया भर में इस क्षेत्र में पहले या दूसरे स्थान पर है और देश की अर्थव्यवस्था में वृद्धि करने, रोजगार देने और ग्रामीण इलाकों में खेतीबाड़ी के साथ साथ ग्रामवासियों को आमदनी का अतिरिक्त साधन देने में पशुपालन की इतनी बड़ी भूमिका है कि उसे नजरंदाज करना अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारने जैसा होगा।



पशुपालन और किसानी


हमारे देश में किसान के पास साल भर में लगभग छः महीने ही खेतीबाड़ी और उससे जुड़े काम रहते हैं। अब बाकी के छः महीने वह पशुपालन अर्थात गाय , भैंस , बकरी पालने से लेकर मुर्गी, भेड़ और अन्य पशुओं को पालता है जिससे उसे अतिरिक्त आमदनी भी होती है और खाली भी नहीं बैठना पड़ता। हालाँकि पशुपालन के लिए अनेक शिक्षण संस्थान अब खुल गए हैं और उनसे पढ़ाई करने के बाद आधुनिक टेक्नॉलोजी और नवीन तकनीकों की जानकारी होने के बाद इस क्षेत्र में रोजगार की अपार सम्भावनाएँ होती हैं, लेकिन अधिकांश किसानों के लिए पशुपालन एक पुश्तैनी काम होने से पढ़ाई लिखाई भी की हो, फिर भी एक फायदेमंद काम है।


ज्यादा दूर क्यों जाएँ, तीस चालीस साल पहले तक दिल्ली जैसे शहर में घर में गाय पालने को परम्परा थी और गौसेवा को पुण्य का काम समझा जाता था। गाँव देहात में तो पशुपालन आज भी मुख्य है और दो तिहाई ग्रामीणों की आजीविका इससे चलती है, इसके साथ ही छोटे शहरों, कस्बों में तो यह अभी भी बहुत से परिवारों की आय का प्रमुख स्रोत है।

किसान के लिए हल बैल से खेती करना आज भी सुगम है क्योंकि छोटी जोत वालों के लिए ट्रैक्टर का इस्तेमाल काफी महँगा भी है और उससे क्योंकि खेत में गहराई तक खुदाई हो जाती है इसलिए उसे ज्यादा खाद और पानी की जरूरत पड़ती है। यहाँ तक कि अनेक परीक्षण करने पर यह बात भी सामने आई कि हल बैल से खेती करने पर ट्रैक्टर का इस्तेमाल करने के मुकाबले अधिक उपज हुई। यह भी ध्यान रखने की बात है कि ट्रैक्टर से मिला धुआँ और बैल से मिला गोबर और मूत्र जो खाद बनकर किसान के काम आया।


ट्रैक्टर और खेतीबाड़ी के लिए आधुनिक मशीनों का इस्तेमाल जरूरी है लेकिन वहाँ जहाँ बड़ी जोत हों, लम्बे चौड़े खेत हों और खाद तथा सिंचाई की पूर्ण व्यवस्था हो। इन बड़े किसानों के लिए पशुपालन का अधिक महत्व हो लेकिन छोटे और मंझोले किसानों के लिए यह उनकी रीढ़ के सामान है जो जितनी मजबूत होगी उतनी ही खुशहाली गाँव देहात में होगी।


किसान के लिए परिवार में पशुधन, विशेषकर गाय भैंस एक तरह से चलता फिरता बैंक है। जब जरूरत पड़ी, कोई अचानक खर्चा गया या फिर शादी में लेनदेन की बात सामने आई तो यही पशुधन उसका सहारा बनता है। ये पशु खाते क्या हैं : खरपतवार और छीजन तथा खेती के लिए अनुपयुक्त जमीन पर उगे चरागाह का चारा और देते हैं पौष्टिक दूध तथा गोबर से खाद, इंधन और स्वच्छ वातावरण जो प्रदूषण रहित है।


बापू गांधी तो गौसेवा को सत्य और अहिंसा के सिद्धांत पर चलने के लिए अनिवार्य साधन तक मानते थे। जो गाय हमारी सांस्कृतिक परम्पराओं, तीज त्योहारों से जुड़ी है और आस्था से जुड़ी है तथा आर्थिक समृद्धि का प्रतीक है, परिवार के सम्मान को बढ़ाती है और उसका प्रत्येक अंग हमारे लिए उपयोगी है तथा जो अपने मरने के बाद भी अपने अवशेषों से हमारी आमदनी करवा जाती है तो ऐसे जीव का संरक्षण और संवर्धन करना व्यक्तिगत भलाई तो है ही, साथ में देश की अर्थव्यवस्था में भी योगदान करना है।


पशुपालन और व्यवसाय

आज दुधारू पशुओं जैसे गाय भैंस का पालन केवल व्यक्तिगत नहीं रह गया है बल्कि इसने अब संगठित व्यापार का रूप ले लिया है। भैंस के माँस निर्यात में तो हम पहले स्थान पर हैं हीं, साथ में सम्पूर्ण पशुधन के मामले में भी सबसे आगे हैं। मुर्गी, भेड़ पालन में भी बहुत आगे हैं, यहाँ तक कि मछली पालन में भी दूसरे स्थान पर हैं।


जो अन्य पशु हैं जैसे घोड़े, खच्चर, ऊँट उनकी उपयोगिता इतनी है कि आज भी जंगलों, पहाड़ी इलाकों और दुर्गम स्थानों पर यातायात का एकमात्र साधन हैं। देश की लगभग एक चौथाई आबादी किसी किसी रूप में पशुपालन से जुड़ी है, चाहे यह शवान यानि कुत्तों का पालन ही क्यों हो जिसने भी अब एक उभरते व्यापार का रूप ले लिया है।


जहाँ तक अर्थव्यवस्था के कमजोर होने और देश में मंदी का दौर होने, उद्योगों के बंद होने के कगार पर होने, रोजगार कम होने से लेकर निवेशकों द्वारा निवेश करने में संकोच करने या हाथ खींच लेने का संबंध है तो इसका कारण आर्थिक नीतियों का कारगर होना नहीं है। इससे पूरी तरह सहमत इसलिए नहीं हुआ जा सकता क्योंकि इसके कुछ कारण ऐसे हैं जो मुनाफाखोरी और लालच से जुड़े हैं।

जो भी हो, जरूरत इस बात की है कि वैकल्पिक उद्योग के रूप में ही सही, पशुपालन को औद्योगिक दर्जा दिया जाए, इसमें भी सस्ते ऋण, सस्ती जमीन और मुफ्त बुनियादी सुविधाएँ दी जाएँ तो यह क्षेत्र अपार सम्भावनाओं वाला सिद्ध होगा।


पशुपालन के शिक्षण और प्रशिक्षण के लिए राष्ट्रीय स्तर पर तो सुविधाएँ हैं लेकिन उन तक हरेक की पहुँच होने से लोगों की इसमें ज्यादा रुचि नहीं होती। इसके लिए जिला स्तर पर ट्रेनिंग सेंटर खुलें और पशुओं के रखरखाव से लेकर उनकी चिकित्सा तक के व्यापक प्रबंध हों। अभी तो यह हालत है कि ग्रामीण क्षेत्रों में पशु बीमार हो जाए तो उसका इलाज करने के लिए समय पर पशु चिकित्सक ही नहीं मिलता और पशु की असामयिक मौत हो जाती है।
डेयरी उद्योग, मत्स्य पालन, सुअर, मुर्गी, भेड़, बकरी पालन से लेकर घोड़े और ऊँट पालन तक में उद्योग का आकार लेने की क्षमता है। इन्हें प्रोत्साहन देने से उद्यमशीलता को बढ़ावा मिलेगा, उत्पादकता में वृद्धि होगी, रोजगार के साधन बढ़ेंगे और इनसे जुड़े छोटे उद्योग तथा कल कारखाने खुलेंगे जो व्यक्तिगत समृद्धि का कारण तो बनेंगे ही, देश की आर्थिक स्थिति भी पहले से अधिक और स्थाई तौर पर मजबूत करेंगे।