शुक्रवार, 30 दिसंबर 2022

युद्ध समाप्ति और शांति तथा प्रगति की कामना का नया वर्ष

 प्रत्येक वर्ष बहुत सी अच्छी और बुरी, सामान्य तथा विशेष, उलझन या सुलझन से भरा होता है और अपने में खट्टी मीठी यादों को समेटे हुए भूतकाल बन कर अपना प्रभाव भविष्य पर छोड़ता जाता है।


युद्ध का उन्माद

यह वर्ष अनेक युद्धों से आरंभ हुआ। विश्व युद्ध बनने की आशंका ही नहीं, उसकी पूरी संभावना के साथ रुस और यूक्रेन की लंबी खिंचती लड़ाई के आसार अच्छे नहीं हैं। पर्यावरण विशेषज्ञ और वैज्ञानिक मान रहे हैं कि अनेक देशों में इस समय मौसम के बदलते मिजाज़ का कारण युद्ध में इस्तेमाल हाथियार हैं। अनेक देशों में बर्फ़ और ठंडी हवाओं का तांडव इसी वजह से हो रहा है। सोचिए कि यदि एटमी लड़ाई हुई और अणु हथियारों का इस्तेमाल हुआ तो विश्व की क्या स्थिति होगी ? बहुत से देश तो अपना अस्तित्व ही खो चुके होंगे और संपूर्ण आबादी किसी न किसी दुष्प्रभाव को झेलने के लिये विवश हो जाएगी। इस संदर्भ में हीरोशिमा और नागासाकी की याद आना स्वाभाविक है।

असल में युद्ध का एक बड़ा और सबसे महत्वपूर्ण कारण प्रतिदिन नये और पहले से अधिक घातक शस्त्रों का निर्माण है जिनकी ताक़त परखने के लिए युद्ध के हालात बनाए जाना ज़रूरी है। इसीलिए वे सभी देश जो इनका निर्माण करते हैं इनकी खपत के लिए कमज़ोर और लालची देशों की ज़मीन तलाशते रहते हैं जो अपने पड़ौसियों के साथ किसी न किसी बहाने से लड़ते रहें और उनके हथियारों का परीक्षण होता रहे।

युद्ध किसी समस्या का तत्काल समाधान तो कर सकता है लेकिन कभी भी स्थाई हल नहीं निकाल पाता।बार बार एक ही जगह और पुराने मुद्दे पर लड़ाइयों का होना यही दर्शाता है। इसलिए युद्ध के लिए किसी विशेष कारण की आवश्यकता नहीं होती। मामूली सी बात जिसका समाधान बातचीत और समझदारी से निकाला जा सकता हो, उसके लिए संघर्ष का रास्ता अपनाना व्यक्तिगत अहम् की संतुष्टि और अपने साम्राज्य विस्तार की लालसा के अतिरिक्त कुछ नहीं।

यह वर्ष अपने देश में चुनाव के ज़रिये राजनीतिक दलों के बीच हुई लड़ाइयों से भरा पूरा रहा और अगला वर्ष भी ऐसा ही रहेगा। यह भारतीय मतदाताओं की परिपक्वता ही है जिसने धर्म, जाति, वर्ग की विभिन्नता और धन के लालच पर ध्यान न देकर ज़्यादा से ज़्यादा ऐसे लोगों और दलों को चुना जो प्रगति के रास्ते पर चलते हुए उनकी समस्याओं का समाधान कर सकने की नीति और नीयत रखते हों। इतना तो तय है कि अब मनभावन और लुभावने वादों, किसी दल के पिछलग्गू बने रहने और आँख मूँदकर वोट डालने का युग समाप्ति के कगार पर है।


आत्मनिर्भरता का युग

यह दौर सवाल करने, योग्यता सिद्ध करने और लक्ष्य साधने के लिए समुचित संसाधन जुटाने का है। राजनीति ही नहीं, आर्थिक क्षेत्र में भी अब सोच का दायरा बदल रहा है। जो क़ाबिल है, वह रास्ते की रुकावट हटाना भी जानने लगा है, अपने साथ होने वाले भेदभाव के ख़लिाफ़ आवाज़ उठाने में संकोच नहीं करता, अन्याय का प्रतिकार करना सीख गया है और किसी भी तरह की ताक़त के नशे में चूर व्यक्ति से डरना तो दूर, उसे धराशायी करने का साहस अपने अंदर महसूस करने लगा है। सामान्य व्यक्ति भी अब सपने देखने और उन्हें पूरा करने की हिम्मत कर रहा है। चाहे क्षेत्र कोई भी हो, यदि वह योग्य है तो अब संसाधन जुटाना आसान हो रहा है। कुछ भी असंभव नहीं, जब ऐसी मानसिकता बनने लगती है तो फिर किसी के लिए उसे बेड़ियों में जकड़ना संभव नहीं। शिक्षित होने के प्रति लगाव, ग़रीबी को हराने का संकल्प और अपने भरोसे अपना लक्ष्य हासिल करने की मनोवृत्ति का तेज़ी से प्रसार हो रहा है।

यह वर्ष वैज्ञानिक उपलब्धियों के मामले में भी यादगार रहेगा। एक ओर अंतरिक्ष तो दूसरी ओर चिकित्सा तथा स्वास्थ्य के क्षेत्र में जो नवीन खोज हुई हैं उनसे मानवता की सेवा करना सुगम होगा।

सत्ताईस दिसंबर को दुनिया के अदीबों में सबसे अलग अपनी पहचान रखने वाले उर्दू के महान शायर ग़ालिब की जयंती मनाई जाती है। उनकी एक ग़ज़ल नये साल का एहसास कराती है मानो इसे इस मौक़े के लिए ही लिखा था।


दिया है दिल अगर उसको, बशर (इंसान) है, क्या कहिए

हुआ रक़ीब (प्रतिद्वंदी), तो हो, नामाबर (पत्रवाहक) है, क्या कहिए।


यह ज़िद, आज न आवे और आए बिन न रहे। क़ज़ा (मौत) से शिकवा हमें किस कदर है, क्या कहिए।


रहे हैं यों गह-ओ-बे गह (वक़्त बेवक़्त), कि कू-ए-दोस्त (यार की गली) को अब

अगर न कहिए कि दुश्मन का घर है, क्या कहिए


समझ के करते हैं, बाज़ार में वो, पुरसिश-ए-हाल (कुशल मंगल पूछना) कि ये कहें, सर-ए-रहगुज़र (बीच रास्ता) है, क्या कहिए।


तुम्हें नहीं है सर-ए-रिश्ता-ए-वफ़ा का ख़्याल

हमारे हाथ में कुछ है, मगर है क्या, कहिए


हसद (जलन), सज़ा-ए-कमाल-ए-सुख़न है क्या कीजे

सितम, बहा-ए-मता-ए-हुनर (कला का मूल्य) है, क्या कहिए।


कहा है किसने, कि ग़ालिब बुरा नहीं, लेकिन

सिवाय इसके, कि, आशुफ़्तासर (दीवाना) है, क्या कहिए।


एक दूसरी रचना है


कभी नेकी भी उसके जी में ग़र आ जाए है मुझसे

जफ़ाएँ करके अपनी याद, शर्मा जाए है मुझसे

खुदाया, जज़्बा-ए-दिल की मगर तासीर उल्टी है

कि जितना खेंचता हूँ और खिंचता जाए है मुझसे


उधर वो बदगुमानी है, इधर यह नातवानी (कमजोरी) है

न पूछा जाए है उससे, न बोला जाए है मुझसे

संभलने दे मुझे , अय नाउम्मीदी, क्या क़यामत है

कि दामान-ए-ख़्याल-ए-यार, छूटा जाए है मुझसे


क़यामत है, कि होवे मुद्दई का हमसफ़र, ग़ालिब

वह काफ़िर, जो ख़ुदा को भी न सौपा जाए है मुझसे


अपने लक्ष्य के प्रति दीवानगी आज जो देश में देखने को मिल रही है, वह इसी तरह क़ायम रहे, इस कामना के साथ नव वर्ष की हार्दिक शुभकामनाएँ।


शुक्रवार, 23 दिसंबर 2022

उपभोक्ता क़ानून में सरकारी अनिवार्य सेवाए भी शामिल हों


प्रतिवर्ष 24 दिसंबर को उपभोक्ता दिवस मनाये जाने का चलन है। सरकार तथा कुछ ग़ैर सरकारी संगठनों द्वारा इसे मनाने की ख़ानापूर्ति भी की जाती है। लगभग साढ़े तीन दशक हो गये उपभोक्ता क़ानून बने और तीन साल पहले क़ानून में परिवर्तन भी हुए। हालाँकि उपभोक्ताओं के लिए ये क़ानून काफ़ी अच्छा रहा और और इसके कारण बहुत से लोगों को अपने साथ हुई धोखा धड़ी और जालसाजी से राहत भी मिली लेकिन फिर भी बहुत सी ऐसी बातें हैं जिनके बारे में बात करना ज़रूरी है।

सबसे पहले तो यह समझना होगा कि एक उपभोक्ता एक करदाता भी है और अगर वह इनकम टैक्स नहीं देता तो भी अनेक प्रकार के टैक्स चुकाता है, मतलब यह कि सरकार को अपनी कमाई का कुछ हिस्सा अवश्य देता है। इसलिए सरकार से बिजली, पानी, सड़क, परिवहन जैसी ज़रूरी सुविधाएँ पाने से वह एक उपभोक्ता है और अगर उनमें कोई ख़ामी पाई जाती है वह भी उसके उपभोक्ता अधिकारों के अंतर्गत आती है।मान लीजिए सड़क पर प्रशासन की लापरवाही से गड्ढे, नालों की सफ़ाई न होने से बदबू, धुएँ से सांस लेने में दिक़्क़त, गंदा पानी पीने से बीमारी, दुकानदारों द्वारा फुटपाथ का अतिक्रमण करने से चलने में परेशानी और इसी तरह की दूसरी असुविधाएं होती हैं तो एक उपभोक्ता होने के नाते प्रत्येक नागरिक को मुआवज़ा पाने का अधिकार है। इसी के साथ संबंधित विभाग तथा उसके कर्मचारियों पर जुर्माना लगाने और उन्हें सज़ा देने का प्रावधान होना चाहिए।

इसी तरह स्वास्थ्य सेवाएँ हैं। सरकार द्वारा नागरिकों को अपनी ओर से निःशुल्क सेवाएँ दी जाती हैं। अस्पताल में मुफ़्त इलाज की सुविधा है। यदि इसमें कोई ख़ामी पाई जाती है तो कोई राहत नहीं मिलती क्योंकि इसके लिए पैसे नहीं दिए गये। यह ग़लत है क्योंकि वह करदाता होने से उपभोक्ता है।

तीन वर्ष पहले जो नया उपभोक्ता क़ानून बना है उसमें पहले की भाँति सभी नियम हैं लेकिन जो बदलाव किए गये हैं वे महत्वपूर्ण होने के साथ असरदार भी हैं बशर्ते कि उनके मुताबिक़ काम हो। कहीं उनका भी हश्र दूसरे बहुत से क़ानूनों की तरह न हो जो जनता की भलाई के लिए होने के बावजूद उन पर सही से अमल न होने से बेकार हो जाते हैं।

उपभोक्ता क़ानून की सबसे बड़ी उपलब्धि यह है कि इसमें ऑनलाइन शॉपिंग में धोखा होने पर उपभोक्ता को न्याय दिलाने के लिए व्यवस्था है जिससे निर्माता, विक्रेता और डिलीवरी करने वाली इकाई, तीनों पर क़ानूनी कार्यवाही की जा सकती है। आजकल डिजिटलीकरण के युग में और ट्रैफिक तथा भीड़भाड़ के कारण लोगों की रुचि ऑनलाइन ख़रीदारी में तेज़ी से बढ़ रही है। यह सुगम तरीक़ा है लेकिन ख़तरे भी हैं और जालसाज़ी की गुंजाइश रहती है, इसलिए केवल उन्हीं वेबसाईट का इस्तेमाल करें जो अधिकृत हैं और जिन पर भरोसा किया जा सकता है। इसमें चूक होने पर क़ानून भी बहुत कम मदद कर पाएगा।

इसके अतिरिक्त अब वह सेलिब्रिटी भी ज़िम्मेदार है जिसका विज्ञापन देखकर ख़रीदारी की गई है। इसमें सबसे बड़ी कमी यह है कि जब तक कोई कार्रवाई हो नुक़सान हो चुका होता है और नक़ली वेबसाईट ग़ायब हो जाती है। इसी तरह बहुत सी नामी कंपनियाँ अपने ग्राहकों के साथ अनुचित व्यवहार करती हैं जैसे कि शिकायत को दबा देना और बहाने बनाते हैं कि समुचित काग़ज़ात उपलब्ध नहीं हैं, यहाँ तक कि पैसे वापिस न करने पड़ें इसलिए स्टाफ की कमी या इधर उधर भटकाती हैं।

सरकार को चाहिए कि क़ानून के अंर्तगत यह नियम बनाये कि प्रत्येक निर्माता और सेवा प्रदाता के लिए अपने यहाँ कंज्यूमर रिलेशन अधिकारी की नियुक्ति अनिवार्य हो। उसके लिए समय सीमा निर्धारित हो जिसमें उसे शिकायत को निपटाना ही होगा और ऐसा न करना क़ानून का उल्लंघन होगा तथा जुर्माना या सज़ा देने का प्रावधान हो।

क़ानून में उपभोक्ता अथॉरिटी का भी गठन किया गया है जो एक बेहतरीन कदम है। इसे बने तीन साल हो जायेंगे लेकिन इसके कार्य के बारे में जानकारी का अभाव है। इस पर इस बात की जवाबदेही हो कि यदि कोई निर्माता गड़बड़ी करता है तो उसके ख़लिाफ़ मामले का संज्ञान लेकर स्वयं कार्यवाही की जाये।

हमारे देश में उपभोक्ता आंदोलन अब काफ़ी परिपक्व हो चुका है और ग्राहक अपने अधिकारों के प्रति सचेत रहते हैं लेकिन नियमों की जानकारी के अभाव और कुछ अपनी लापरवाही के कारण समय सीमा के अंदर शिकायत नहीं करते। ज़रूरी है कि सरकार कि ओर से इनके प्रचार प्रसार के लिये लगातार विज्ञापन और फ़िल्म के ज़रिए जागरूक किया जाए।


शुक्रवार, 16 दिसंबर 2022

अनैतिक होते हुए भी वेश्यावृत्ति कानूनी मान्यता प्राप्त व्यवसाय है

 

अंतरराष्ट्रीय स्तर पर सत्रह दिसंबर को एक ऐसा दिवस मनाया जाता है जिसका संबंध वेश्यावृत्ति व्यवसाय को आदर और सम्मान दिलाना तथा इसमें शामिल व्यक्तियों के जीवन को सुरक्षित बनाना है । अमेरिका के सीएटल में ग्रीन रिवर किलर रूप में कुख्यात व्यक्तियों द्वारा वेश्याओं की बेरहमी से हत्या की घटनाएं इसकी प्रेरक थीं। सन 2003 से यह दिन सेक्स वर्करों, उनकी पैरवी करने वालों, मित्रों और परिवारों द्वारा मनाया जाता है।


वेश्यावृत्ति के प्रति नज़रिया

वेश्याओं के साथ हिंसक व्यवहार के खिलाफ़ यह दिवस मनाने का उद्देश्य यही है कि दुनिया भर में इस व्यवसाय में लगे लोगों के प्रति नफ़रत दूर करने और उनके साथ दुव्र्यवहार और भेदभाव करने से लेकर हिंसक बर्ताव करने की मानसिकता को कम करते हुए समाप्त किया जा सके। आम तौर से इनके साथ हुई मारपीट, हिंसा और हत्या की घटनाएं सामाजिक चेतना के अभाव में उजागर नहीं हो पातीं और अपराधी को कोई दंड नहीं मिलता।

वास्तविकता यह है कि हम चाहे जो भी कहें, इस व्यवसाय में लगे लोग हमारे आसपास रहने वाले समाज और परिवारों से ही आते हैं। लाल छतरी इनके अधिकारों का एक महत्वपूर्ण चिह्न है और इसका चलन सबसे पहले इटली के वेनिस शहर में सेक्स वर्करों द्वारा सन 2001 में किया गया था। उसके बाद इसे व्यापक रूप से मान्यता मिली।

भारत में वेश्यावृत्ति का इतिहास बहुत पुराना है और राजा महाराजा, नवाब और समाज के प्रतिष्ठित लोगों द्वारा मान्यता भी मिली। इन्हें नर्तकी, गणिका, देवदासी तथा अन्य जो भी अनेक नाम दिए गए, समाज और परिवार में इनके प्रति घृणा कम नहीं हुई। इनका शोषण, इनके साथ अपमानजनक और अमानवीय व्यवहार तथा हर किसी का इन्हें दुत्कारा जाना, हमेशा से मामूली बात समझा गया।

हमारे देश में ऐसे बहुत से शहर, कस्बे और गांव हैं जहां वेश्यावृत्ति एक व्यवसाय है । परिवार के लोग अर्थात पिता और भाई ही इसे चलाते हैं।

गुजरात का वाडिया गांव जो राजस्थान की सीमा से लगे उत्तरी गुजरात के बनासकांठा ज़िले में है, वहां सरानिया घुमंतु कबीले के पुरुष अपने परिवार की महिलाओं का सौदा करते हैं और लड़कियों को छोटी उम्र से ही वैश्या बनने और लड़कों को इनके लिए ग्राहक ढूंढने का प्रशिक्षण देते हैं। इसी तरह उत्तर प्रदेश के हरदोई जिले का नटपुरवा गांव है जहां बच्चों को उनके पिता का नाम नहीं मालूम और वे अपनी मां के नाम से जाने जाते हैं। कर्नाटक में बेल्लारी और कोप्पल जिले में देवदासी बस्ती है जहां कन्या के कौमार्य की नीलामी होती है। हालांकि 1982 में देवदासी प्रथा को समाप्त कर दिया गया था लेकिन महाराष्ट्र, आंध्र प्रदेश और तमिलनाडु में आज भी यह प्रचलन में है। इसमें कोई संदेह नहीं कि देश के विभिन्न क्षेत्रों में यह व्यवसाय अनेक रुकावटों के होते हुए भी प्रचलित है और पनप रहा है।


व्यवसाय के रूप में मान्यता

भारत में इस व्यवसाय में लगे पुरुषों और महिलाओं की संख्या कितनी है, इसके बारे में कोई निश्चित आंकड़ा नहीं है। उच्चतम न्यायालय ने इसे एक व्यवसाय के रूप में हाल ही में मान्यता दी है और पुलिस को हिदायत दी है कि यदि कोई व्यक्ति अपनी मर्ज़ी से इस व्यवसाय में है तो उसके काम में दखलंदाजी न करे और उसे अपराधी न माने।

किसी भी व्यक्ति को वयस्क होने पर अपनी रजामंदी से यह व्यवसाय करने का अधिकार है। उसे भी किसी अन्य व्यक्ति की तरह सुरक्षा, आदर और सम्मान पाने का कानूनी अधिकार है। इससे यह नहीं समझना चाहिए कि इससे उन लोगों को भी राहत मिलेगी जो नारी शोषण और उन्हें इस धंधे में जबरदस्ती या लालच देकर धकेलने के लिए जिमनेदार हैं।

गैरकानूनी न होते हुए भी वेश्यावृत्ति के अंतर्गत  आने वाली बहुत सी गतिविधियां दंडनीय है जैसे कि दलाली और वेश्यालय के लिए किराए पर जगह देना।

असल में हमारे देश में वेश्यावृत्ति को लेकर कोई प्रभावी कानून नहीं है जिसके कारण जिसके जो मन में आता है, किसी भी न्यायिक फैसले का अर्थ लगा लेता है। सबसे अधिक असर उन बच्चों पर पड़ता है जो ऐसे माहौल में परवरिश पाते हैं जिसमें उनके साथ भेदभाव होना सामान्य बात है। उनकी शिक्षा का कोई प्रबंध न होने से वे इसी काम में लग जाते हैं। पुलिस और समाजसेवी संस्थाओं द्वारा छापे की कार्यवाही से इन बच्चों को कुछ राहत मिलती है और एक उम्मीद होती है कि इनका जीवन बेहतर हो।

इस पेशे को अपनी मर्ज़ी या किसी मजबूरी से अपनाने वाले व्यक्तियों के लिए शिक्षा और किसी प्रकार के व्यावसायिक प्रशिक्षण का प्रबंध होने से ही उनका जीवन बदल सकता है। इसके लिए कुछ ऐसा कानून बनाने की दिशा में पहल की जानी चाहिए कि यदि इस व्यवसाय को छोड़कर कोई महिला कुछ और करना चाहती है और अपनी संतान का भविष्य बनाना चाहती हैं तो उसे सरकार तथा सामाजिक संगठनों द्वारा आर्थिक सहायता मिले। उसके लिए पुनर्वास योजना बनाई जाए और इस तरह का वातावरण बने कि वह सामान्य जीवन जी सके। उसके नाम के साथ जुड़ा सेक्स वर्कर का ठप्पा हटे और गलत काम करने का एहसास हावी न रहे।

यह भी आवश्यक है कि जिन कारणों से कोई महिला इस व्यवसाय को अपनाती है, उन्हें दूर किया जाए। सबसे पहले यह बात आती है कि यदि बहका फुसला कर, दवाब डालकर, लोभ लालच देकर कोई व्यक्ति किसी महिला को इस व्यवसाय में आने के लिए मजबूर करता है तो उसे सज़ा का डर हो। देखा जाए तो हमारे यहां महिलाओं और बच्चों के अधिकारों को लेकर बहुत से कानून हैं लेकिन उनके प्रावधान इतने लचीले और भ्रम पैदा करने वाले हैं कि दोषी व्यक्ति बच जाता है और जो प्रताड़ित है, साधनहीन है, वह फंस जाता है और सज़ा पाता है।

वेश्यावृत्ति के पनपने का सबसे बड़ा कारण नैतिक मूल्यों का ह्रास, सामाजिक चेतना का अभाव, गरीबी और अशिक्षा है। यदि इस दिशा में काम किया जाए तो इस व्यवसाय को अपनाने के प्रति आकर्षण सहज रूप से कम होते हुए एक दिन पूरी तरह समाप्त हो सकता है। अभी इसे जो अपनाते हैं, उनके लिए यह बहुत आसान लगता है और अधिकतर लोगों के पास इसके अलावा कोई विकल्प नहीं होता।

बहुत से देशों में यह व्यवसाय सम्मानजनक और कानूनी मान्यता तथा संरक्षण प्राप्त है। सेक्स वर्करों के बच्चों के लिए शिक्षा, स्वास्थ्य और सुरक्षा की व्यवस्था है। इन्हें सामाजिक सम्मान प्राप्त है और इनके साथ जबरदस्ती या हिंसक व्यवहार करने पर दण्ड दिया जाता है।  इन्हें एक इंसान की तरह देखा जाता है और इनके साथ अपमानजनक शब्द इस्तेमाल नहीं किए जा सकते।

हमारे देश में भी कुछ ऐसी व्यवस्था होनी चाहिए जिससे इस व्यवसाय के प्रति आकर्षण समाप्त हो।  जिन्होंने इसे अपनाया है, उनके प्रति इंसानियत का नज़रिया हो और उन्हें सहज रूप में सामान्य नागरिक अधिकार मिलें।


शुक्रवार, 2 दिसंबर 2022

दिव्यांग व्यक्ति को भय, अपराध और हीन भावनाओं से मुक्त रहना होगा


जब हम किसी ऐसे व्यक्ति से मिलते या उसे देखते और सुनते हैं जो किसी शारीरिक या मानसिक कमी से पीड़ित है तो दया दिखाते हैं या चिढ़ जाते हैं। उसके लिए सहानुभूति प्रकट करते हैं या उसे दूर हटने के लिए कहने से लेकर फटकार तक लगा देते हैं।

यह अभिशाप नहीं

मनुष्य की इन्हीं हरकतों को देखकर संयुक्त राष्ट्र संघ ने तीस वर्ष पहले प्रति वर्ष 3 दिसंबर को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर दिव्यांग दिवस मनाने की शुरुआत की ताकि सभी प्रकार से ठीकठाक लोग ऐसे व्यक्तियों का अनादर न करें और उन्हें अपने जैसा ही सामान्य जीवन जीने देने में सहायक बनें।

आज दुनिया भर में लगभग पचास करोड़ लोग किसी न किसी प्रकार से दिव्यांग होने के कारण ज़िंदगी को जैसे तैसे ढोने के लिए बाध्य हैं। भारत में यह संख्या तीन करोड़ के आसपास है जिनमें से ज्यादातर गांव देहात में रहते हैं और बाकी छोटे बड़े शहरों में किसी तरह अपना जीवन चला रहे हैं।

हकीकत यह है और जोकि अपने आप में बहुत बड़ा सवाल भी है कि शारीरिक हो या मानसिक, दिव्यांग व्यक्तियों को परिवार और समाज अपने ऊपर बोझ समझने की मानसिकता से ग्रस्त रहता है। उसके बाद ऐसे लोग समाज की हिकारत का शिकार बनते जाते हैं और इस तरह देश के लिए भी निकम्मे बन जाते हैं।

दूसरे दर्जे के नागरिक

सरकार को क्योंकि इन लोगों को लेकर समाज में अपनी अच्छी छवि बनानी होती है तो वह इनकी देखभाल, स्वास्थ्य, रोज़गार को लेकर जब तब योजनाएं बनाती रहती है। इनके पीछे यह उद्देश्य बहुत कम रहता है कि उन्हें समाज में बराबरी का दर्ज़ा मिले बल्कि यह रहता है कि वे दूसरे दर्जे के नागरिक बनकर सरकार की मेहरबानी से किसी तरह जीवित रहें। मिसाल के तौर पर उन्हें केवल चटाई बनाने, टोकरी बुनने और थोड़े बहुत दूसरे काम जो उनके लिए हाथ की कारीगरी से हो सकते हों, के योग्य ही समझा जाता है।

हालांकि सरकार ने शिक्षा और नौकरी में उनके लिए आरक्षण की व्यवस्था की हुई है लेकिन उनके लिए पढ़ाई लिखाई के विशेष साधन न होने से वे अनपढ़ ही रह जाते हैं और जब पढ़ेंगे नहीं तो नौकरी के लिए ज़रूरी शैक्षिक योग्यता को कैसे पूरा करेंगे, इसलिए उनके लिए आरक्षित पद ख़ाली पड़े रहते हैं। आंकड़े बताते हैं कि उनकी आधी आबादी को अक्षर ज्ञान तक नहीं होता और बाकी ज्यादा से ज्यादा चैथी कक्षा तक ही पढ़ पाते हैं। ऐसी हालत में उनकी किस्मत में बस कोई छोटा मोटा काम या फिर भीख मांगकर गुज़ारा करना लिखा होता है।

उल्लेखनीय है कि दिव्यांग व्यक्तियों ने ही अपने लिए ऐसे साधन जुटाए हैं जिनसे वे एक आम इंसान की तरह जी सकें। इसका सबसे बड़ा उदाहरण लुईस ब्रेल हैं जिन्होंने ब्रेल लिपि के आविष्कार से नेत्रहीन व्यक्तियों के जीवन को उम्मीदों से भर दिया। परंतु यहां भी मनुष्य ने अपनी भेदभावपूर्ण नीति को नहीं छोड़ा और उनके लिए ब्रेल लिपि में केवल वही सामग्री तैयार कराने को प्राथमिकता दी जिससे वे केवल सामान्य ज्ञान प्राप्त कर सकें न कि उनकी योग्यता को परखकर विभिन्न विषयों जैसे कि मेडिकल, इंजीनियरिंग जैसे विषयों की पाठ्य पुस्तकें तैयार कराने पर जोर दिया जाता।

जहां तक किसी अन्य रूप से दिव्यांग व्यक्तियों जैसे कि सुनने, बोलने, किसी अंग के न होने या विकृत होने का प्रश्न है तो उनके लिए कोई विशेष व्यवस्था नहीं है कि वे सामान्य विद्यार्थी की तरह शिक्षा प्राप्त कर सकें। इसी के साथ उनकी मदद करने के लिए बनाए जाने वाले उपकरण भी इतने महंगे और साधारण क्वालिटी के होते हैं कि वे कुछ ही समय में इस्तेमाल करने लायक नहीं रहते। हमारे देश में अभी तक आने जाने के साधनों तक में दिव्यांग व्यक्तियों के लिए ज़रूरी साधनों और उपकरणों का अभाव है।

जिसके पास पैसा है, साधन हैं या उसके असरदार लोगों से संबंध हैं, तो वह तो देश हो या विदेश कहीं से भी अपने लिए सब से बढ़िया इक्विपमेंट मंगवा सकता है लेकिन शेष दिव्यांग व्यक्तियों के जीवन में कुछ खुशी तब ही आ पाती है जब वे स्वयं अपने बलबूते पर और आपस में मिलजुलकर अपने लिए कुछेक सुविधाओं को जुटाने में अनेक कठिनाइयों के बावजूद सफल हो पाते हैं।

हमारे देश में ऐसी निजी संस्थाएं, एनजीओ हैं जिन्होंने बिना सरकारी या गैर सरकारी सहायता से अपने जीवन को सुखी और खुशहाल बनाया है। एक उदाहरण है। एनटीपीसी, टांडा के लिए फिल्म बनाते समय एक ऐसी क्रिकेट टीम से मुलाकात हुई जिसमें सभी खिलाड़ी नेत्रहीन थे, यहां तक कि उनके प्रशिक्षक भी। उन्होंने एक ऐसी गेंद बनाई जिसमें उसे फेंकने पर आवाज होती थी और बल्लेबाज उसे सुनकर बैटिंग करता था। इसी प्रकार फील्डर भी आवाज से ही उसे मैदान में पकड़ने के लिए भागता था। क्रिकेट खेलने के लिए सभी नियम जिनका पालन आसानी से संभव हो सके, वे सब इस टीम ने सीख लिए थे  और वे मज़े से खेल का आनंद ले रहे थे।

दिव्यांग होने से बचाव

अब हम इस बात पर आते हैं कि क्या दिव्यांग होने से बचा जा सकता है ? जहां तक जन्म के समय होने वाली विकृतियों का संबंध है तो  केवल थोड़ी सी सावधानी बरतने से इनसे बचा जा सकता है। गर्भवती महिला को प्रसव होने तक गर्भ में पल रहे शिशु और अपनी सेहत का ज्ञान और ध्यान रखने से यह बहुत आसान है। अल्ट्रासाउंड एक ऐसी तकनीक है जो गर्भ में हो रही किसी भी विकृति का पता लगा सकती है। यदि इस बात की ज़रा भी संभावना हो कि गर्भ में कोई भी विकार हो तो गर्भपात करा लेना ही समझदारी है क्योंकि विकलांग शिशु का पालन बहुत चुनौतीपूर्ण और कष्टदायक होता है। कानून भी इसकी इजाज़त देता है।

ऐसी दिव्यांगता जो सामान्य जीवन के दौरान हुई हो जैसे कि किसी दुर्घटना का शिकार हुए हों, युद्ध में हताहत होने से कोई अंग खो बैठे हों या फिर किसी अन्य परिस्थिति के कारण अक्षम हो जाएं तो यह न समझते हुए कि ज़िंदगी समाप्त हो गई है, इसे सहज भाव से स्वीकार कर लें और उसके अनुरूप जीवन जीने की बात मानने के लिए अपने मन और शरीर को तैयार करें तो लगेगा ही नहीं कि दिव्यांग हैं।

दिव्यांग होने की सबसे कड़ी और कठिन परिस्थिति तब होती है जब शरीर से अधिक मानसिक तनाव से ग्रस्त व्यक्ति किसी तरह अपना जीवन जीने की कोशिश करता है। अक्सर वह इसमें हार जाता है और अकेलेपन की भावना को अपने मन पर हावी होने देने के बाद आत्महत्या करने में ही अपना भला समझने लगता है।

मानसिक उलझनों या व्याधियों से जूझ रहे व्यक्तियों को भी दिव्यांग माने जाने की आवश्यकता है और उनके लिए भी विशेष उपाय किए जाने चाहिएं जैसे कि आसानी से मिलने वाली काउंसलिंग और समाज में ऐसे व्यक्ति को स्वीकार करने की मानसिकता और परिवार का समर्थन तथा उन परिस्थितियों को ध्यान में रखकर ऐसे उपाय जिनसे वह उबर सके।

आम तौर से अपने साथ हुए भयानक हादसे जैसे बलात्कार, शारीरिक उत्पीड़न और किसी की धोखाधड़ी का शिकार होने पर अपना सब कुछ गवां देने के बाद मनुष्य की मानसिक स्थिति उलट पलट हो जाती है। वह स्वयं इन चीजों से ऊपर उठने की कितनी भी कोशिश करे, सफल नहीं हो पाता। ऐसे व्यक्तियों की संख्या आज के भौतिकतावादी युग में बहुत तेज़ी से बढ़ रही है। इनके लिए ज़रूरत है कि ऐसे विद्यालयों, विशेष शिक्षा पाठ्यक्रमों, प्रयोगशालाओं और काउंसलिंग इकाईयों की स्थापना हो जहां उनके उपचार की आधुनिक टेक्नोलॉजी पर आधारित व्यवस्था हो। इसके बाद सबसे अधिक ज़रूरी है कि मानसिक रूप से दिव्यांग व्यक्तियों को चिकित्सा के लिए तैयार करना। दिल्ली, मुंबई जैसे बड़े शहरों में कुछ ऐसे संस्थान हैं जो मानसिक बीमारियों से मुक्ति प्राप्त करने वाले व्यक्तियों ने शुरू किए हैं। इनके बारे में इंटरनेट पर काफी कुछ उपलब्ध है।

दिव्यांग होना कोई अभिशाप नहीं है, इसलिए यह कतई सही नहीं है कि यदि कोई इस श्रेणी में है तो वह अपने आप को दीन हीन समझे, दूसरों की दया या सहानुभूति की उम्मीद पर जिए, डरता रहे या फिर इसे अपना अपराध समझे। सत्य यह है कि जब वह स्वयं अपनी कमान संभालेगा तो वह किसी भी क्षेत्र में कीर्तिमान स्थापित करने में सक्षम हो पाएगा।