हिंदू धर्म बहुत प्राचीन, सनातन और जीवन शैली के रूप में जाना जाता है। इसके अनुयायी इसकी महानता से गदगद दिखाई देते हैं। यह धर्म सहनशील, परोपकारी, दयावान, मैत्री और सद्भाव का पोषक तथा मनुष्य की पूर्णता का प्रतीक माना जाता है। सभी धर्मों की भांति इसमें भी भाईचारे, मिलजुलकर रहने और दूसरों का सम्मान तथा बराबर का स्थान देने की बात कही गई है।
यहां
तक
तो
ठीक
है
लेकिन
जब
धर्म
को
कारोबार
का
जरिया
बना
दिया
जाता
है
तो
उसमें
वे
सभी
दोष
आ
जाते
हैं
जो
किसी
भी
व्यापार
के
गुण
माने
जाते
हैं
जिसमें
प्रतियोगिता, दूसरे की हानि, झूठ, फरेब, बेईमानी, धोखाधड़ी, हेराफेरी, कालाबाजारी, जमाखोरी, मिलावट जैसी चीज़ों को ज़रूरी समझा जाता है। इसे ही धर्म हो या व्यापार, उसका अपराधीकरण कहा जाता है।
संन्यास और वैराग्य
हिंदू
धर्म
में
चार
आश्रम
अर्थात
ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ
और
संन्यास
को
जीवन
जीने
के
तरीक़े
के
रूप
में
अपनाने
की
बात
कही
गई
है।
यहां
हम
केवल
संन्यास
की
बात
करना
चाहते
हैं
क्योंकि
इसे
लेकर
समाज
में
जो
गंदगी
फैलती
है
उसे
जानना
और
साफ़
करना
आवश्यक
है।
कुछ
लोग
छोटी
उम्र
से
ही
संसार
से
विरक्त
होने
का
बहाना
कर
घर
से
भाग
जाते
हैं
। इसका
कारण
ज्यादातर घर
परिवार
के
काम
तथा
पढ़ाई
लिखाई
में
मन
न
लगना, मातापिता
का
डर
और
कोई
गलत
काम
करने
पर
सज़ा
मिलने
की
आशंका
हो
सकती
है।
कुछ
विरले
ही
ऐसे
होते
हैं
जिनके
मन
में
बचपन
से
ही
जीवन
का
सार
जानने, आत्मा
और
परमात्मा
के
संबंध
में
जिज्ञासा
होने
और
शांति
प्राप्त
करने
की
इच्छा
होती
है
और
वे
बताकर
या
बिना
कुछ
कहे
घर
द्वार
का
त्याग
कर
देते
हैं।
वास्तविक
संन्यासी
के
मन
में
व्यक्तिगत
स्वार्थ
के
स्थान
पर
सर्वजन
सुखाए, सर्वजन
हिताय
की
भावना
रहती
है।
पद, धन, सुविधाओं
से
भरपूर
जीवन
का
महत्व
न
होकर
सामान्य
जन, समाज
और
देश
की
उन्नति
का
कार्य
प्रमुख
रहता
है।
ऐसे
व्यक्ति
क्रोध, हिंसा, भय, अहंकार
से
बचते
हुए
सादा
जीवन
जीने
का
प्रयास
करते
रहते
हैं।
इसके
विपरीत
ऐसे
लोगों
की
संख्या
बहुत
अधिक
होती
है
जो
संन्यासी
का
चोला
इसलिए
ओढ़ते
हैं
ताकि
वे
इस
रूप
में
लोगों
को
भरमा
सकें, उनकी
श्रद्धा, आस्था, विश्वास
के
साथ
छल
कपट
कर
उनका
शोषण
कर
सकें
और
व्यक्तिगत
रूप
से
अकूत
धन
संपदा, ज़मीन
जायदाद
जमा
कर
सकें।
आदि शंकराचार्य की विरासत
आठवीं
सदी
में
दक्षिण
भारत
के
केरल
प्रांत
में
कलडी
नामक
गांव
जो
अब
कोच्चि
के
उपनगर
का
रूप
ले
चुका
है, प्रभु
भक्ति
में
लीन
धार्मिक
विधि
विधान
को
मानने
वाले
ज्ञान
के
प्रतीक
दंपति
नमबूदरी
ब्राह्मण
शिवगुरु
और
आर्यम्बा
रहते
थे।
उन्हें
भी अपने
इष्टदेव
भगवान
शिव
से
संतान
की
कामना
थी।
एक
रात
आर्यम्बा
ने
स्वप्न
में
देखा
कि
शिव
जी
पूछ
रहे
हैं
कि
उन्हें
क्या
ऐसी
संतान
चाहिए
जिसकी
उम्र
तो
बहुत
हो
लेकिन
मूर्ख
हो
अथवा
ऐसी
संतान
जिसकी
आयु
कम
लेकिन
विश्व
में
उसकी
ख्याति
हो।
माता
ने
कम
उम्र
की
संतान
की
इच्छा
की।
उसके
बाद
उनके
यहां
एक
पुत्र
का
जन्म
हुआ
जिसका
नाम
उन्होंने
शंकर
रखा।
यही
शंकर
आगे
चलकर
आदि
शंकराचार्य
के
नाम
से
प्रसिद्ध
हुए
जिन्होंने
केवल 32 वर्ष की आयु पाई। कहते हैं कि तीन वर्ष की आयु तक वेद कंठस्थ हो गए थे, संस्कृत में लिखे ग्रंथों का पाठ करने लगे थे और केवल एक बार सुनने पर उन्हें याद हो जाता था। बचपन से ही शंकर के मन में त्याग और वैराग्य की भावना थी और वे संन्यासी बनना चाहते थे। माता को चिंता हुई। पिता की मृत्यु हो चुकी थी इसलिए मां अपने पुत्र का विवाह करने की बात सोचने लगीं परंतु शंकर के मन में तो वैराग्य समाया हुआ था।
एक
दिन
शंकर
नदी
में
स्नान
कर
रहे
थे
कि
एक
मगरमच्छ
ने
उनकी
टांग
अपने
जबड़े
में
दबा
ली।
शंकर
ने
मां
को
पुकारा
और
कहा
कि
जब
तक
वे
उसे
सन्यास
धारण
करने
की
अनुमति
नहीं
देंगी, उसका
बचना
मुश्किल
है।
कहते
हैं
कि
मां
के
हां
कहते
ही
मगरमच्छ
ने
टांग
छोड़
दीऔर
शंकर
की
जान
बच
गई।
यह
कथा
सत्य
है
या
कल्पना
या
मिथक
लेकिन
शंकर
के
विरक्त
होकर
संन्यास
लेने
का
मार्ग
खुल
गया।
माता
की
विनती
पर
उन्होंने
वायदा
किया
कि
जब
भी
वे
उन्हें
पुकारेंगी, वे
अवश्य
आ
जायेंगे
और
उनकी
मृत्यु
होने
पर
दाह
संस्कार
भी
वही
करेंगे।
यह
कहकर
उन्होंने
विदा
ली
और
सत्य, आत्मा, परमात्मा
और
गुरु
की
ख़ोज
में
निकल
पड़े।
श्री
आदि
शंकराचार्य
ने
भारत
में
अध्यात्म, वेदांत, नैतिकता
और
हिंदुत्व
को
मजबूत
करने
और
स्वयं
को
पहचानने
की
ऐसी
परंपरा
का
श्रीगणेश
किया
कि
आज
तक
उनके
योगदान
को
याद
किया
जाता
है।
अनेक
बार
पूरे
देश
का
भ्रमण
किया, अनेक
ग्रंथों
की
रचना
की
और
अद्वैत
दर्शन
की
व्याख्या
की।
इस
कड़ी
में
उत्तर
में
जोशीमठ, दक्षिण
में
श्रृंगेरी, पूर्व
में
पुरी
और
पश्चिम
में
द्वारका
में
मठ
स्थापित
किए।
आज
जो
पूरे
देश
में
विभिन्न
स्थानों
पर
मठ, आश्रम, अखाड़ों
आदि
के
रूप
में
हिंदू
धर्म
के
प्रचार
प्रसार
के
लिए
अनेक
संगठन
दिखाई
देते
हैं, उनका
श्रेय
आदि
शंकराचार्य
द्वारा
स्थापित
मठों
को
दिया
जाता
है।
आज
देश
भर
में
सौ
शंकराचार्य
हैं, मठाधीश
हैं, महा
मंडलेश्वर
हैं
और
हिंदू
धर्म
के
नाम
पर
न
जाने
कितने
आश्रम
और
अखाड़े
चलते
हैं।
धर्म का कारोबार
समय
के
साथ
इनमें
से
अधिकांश
संगठन
वैभव, विलासिता, अकूत
संपत्ति
जमा
करने
के
साधन
बनते
गए।
इसी
के
साथ
राजनीति
पर
भी
इनका
असर
दिखाई
देने
लगा। अगर
किसी
दल
या
उम्मीदवार
को
जीत
हासिल
करनी
है
तो
इन
आश्रमों , मठों, अखाड़ों
आदि
का
आशीर्वाद
देने के
नाम
पर
समर्थन
और
चुनाव
के
लिए
धन
तथा
अन्य
साधन
जुटाने
के
लिए
इस्तेमाल
होने
लगा।
सामान्य
जनता
द्वारा
दिया
गया
धन
जिसमें
नकदी, आभूषण
से
लेकर
ज़मीन
जायदाद
तक
शामिल
है, इन
संगठनों
के
संचालकों
को
बिना
किसी
प्रयास
के
प्राप्त
होने
लगी।
करोड़ों, अरबों, खरबों
की
संपत्ति
इनके
पास
आ
गई
जिस
पर
सरकार
की
निगाह
होते
हुए
भी
अपने
स्वार्थ
के
कारण
आज
तक
उसने
कोई
ऐसा
कानून, नियम, कायदा
लागू
नहीं
किया
जिससे
यह
पता
लगाया
जा
सके
कि
यह
विशाल
संपदा
कितनी
है, किस
के
नाम
पर
है
और
कहां
से
आई
है ?
कहने
का
तात्पर्य
यह
है
कि
धार्मिकता
की
आड़
लेकर
ये
संगठन
व्यापार
का
केंद्र
बनते
चले
गए
और
इनमें
ऐसे
लोग
शामिल
ही
नहीं
बल्कि
हावी
होते
गए
जिनका
समाज
कल्याण, परोपकार
जैसी
चीज़ों
में
कोई
रुचि
न
होकर
केवल
शुद्ध
व्यापार
करने
की
भावना
थी।
इसका
परिणाम
यही
हुआ
कि
इन
स्थानों
पर
कब्ज़ा
करने
और
किसी
भी
प्रकार
से
उसे
बनाए
रखने
का सिलसिला
शुरू
हो
गया। इनमें
भ्रष्टाचार, अनैतिकता
से
लेकर
अपना
वर्चस्व
बनाए
रखने
के
लिया
हत्या
तक
करने
की
घटनाएं
आम
हो
गईं।
इनमें
धर्म, शुचिता, पवित्रता, नैतिकता, शुद्ध
आचरण, विरक्ति, वैराग्य, सांसारिक
वस्तुओं
से
मोह
न
रखने
जैसी
बातें
न
होकर
षडयंत्र
रचने, विलासितापूर्ण
जीवन
जीने
और
अपने
अनुयायियों
के
बल
पर
किसी
से
भी
कैसा
भी
मोलभाव
करने
की
प्रवृत्ति
शुरू
हो
गई
।
अब हालत
यह
है
कि
प्रतिदिन
ऐसे
खुलासे
होते
हैं
जिन
पर
यकीन
नहीं
होता
लेकिन
वे
सत्य
और
वास्तविक
हैं।
इन
सभी
धार्मिक
स्थलों
जिनमें
मंदिर
भी
सम्मिलित
हैं, बहुत
वर्ष
पहले
आई
एक
फिल्म
का
यह
गाना
चरितार्थ
होता
हुआ
दिखाई
देता
है : चल
संन्यासी
मंदिर
में, तेरा
चिमटा
मेरी
चूड़ियां
दोनों
हम
बजाएंगे, साथ
साथ
हम
गायेंगे।
समय की मांग
वर्तमान
परिस्थितियों
में
क्या
सामान्य
जन
द्वारा
यह
आवाज़
उठाने
का
समय
नहीं
आ
गया
है
कि
इन
सभी
धार्मिक
संगठनों
और
उनके
पास
एकत्रित
धन
संपत्ति
की
जांच
पड़ताल
हो
और
इन्हें
सरकार
द्वारा
अपने
कब्जे
में
लेकर
इस
सब
को
जनता
की
सुविधा
के
लिए
शिक्षा, चिकित्सा, सामुदायिक
विकास
और
देश
के
लिए
वैज्ञानिक
शोध
संस्थान
बनाने
के
लिए
इस्तेमाल
किया
जाए ?
इस
के
लिए
सरकार
से
कोई
पहल
करने
की
उम्मीद
रखना
भ्रम
पालना
होगा
क्योंकि
इन
सब
को
यदि
सरकार
का
संरक्षण
न
मिला
होता
तो
आज
यह
हालत
होती
ही
नहीं।
इसलिए
ज़रूरी
यह
है
कि
जनता
की
ओर
से
आवाज़
उठे, इसके
लिए
चाहे
बड़े
पैमाने
पर
ऐसे
लोगों
को
आंदोलन
करना
पड़े
जो
इन
संगठनों
और
इनके
संचालकों
की
असलीयत
जानते
हैं
और
इससे
अधिक
इनके
बहकावे
में
आकर
अपनी
संपत्ति
गवां
बैठे
हैं, अनाचार
और
शोषण
का
शिकार
हुए
हैं
लेकिन
संगठित
न
होने
से
कोई
कदम
न
उठाने
के
लिए
विवश
हैं।
इसे
सामाजिक
परिवर्तन
और
आंदोलन
को
अन्याय
का
प्रतिकार
और
अपने
अधिकार
का
रक्षण
करने
की
श्रेणी
में
रखा
जा
सकता
है।