शुक्रवार, 25 मार्च 2022

जल, वायु और पर्यावरण संरक्षण की शिक्षा स्कूल से अनिवार्य हो

 

हर साल दुनिया भर में जल, वायु, मौसम, वातावरण के संरक्षण के नाम पर बहुत से दिन मनाए जाते हैं और उन्हें अगले ही दिन भुला दिया जाता है। हम भी लीपापोती करने के बाद भूल जाते हैं।

सच का सामना

वास्तविकता यह है कि भारत जल संकट के मुहाने पर खड़ा है जो कभी भी विस्फोटक हो सकता है, वायु प्रदूषण जानलेवा हो रहा है, जंगल कट रहे हैं, पहाड़ खिसक रहे हैं, धरती बंजर और मरुस्थली इलाके बढ़ रहे हैं।  शहर हो या देहात, यह सभी के लिए एक जैसा है, कोई इससे अछूता नहीं है।

सरकार जनता का सहयोग न मिलने की बात कर अपना पल्ला झाड़ लेती है। प्रश्न उठता है कि जनता सहयोग क्यों नहीं करती तो उसका जवाब यह है  कि उसे न तो पता है और न ही सिखाया गया कि इन सब चीजों को कैसे बचाकर रखा जाए और उसके लिए क्या वैज्ञानिक तरीके हैं ?

एक उदाहरण है: पानी सभी के लिए जरूरी है ; पीने और घरेलू इस्तेमाल के लिए, खेतीबाड़ी और उद्योग के लिए, सफाई और शौचालय के लिए, खेल कूद, स्विमिंग प्रतियोगिताओं और मनोरंजन के लिए तथा और भी न जाने किन किन बातों के लिए, मतलब यह कि खाने के बिना कुछ समय तक जिया जा सकता है लेकिन पानी न हो तो तत्काल मृत्यु निश्चित है।

अभी हाल ही में मुंबई में घटी एक घटना से बात आसानी से समझी जा सकती है। हुआ यह कि उपनगर अंधेरी में लोखंडवाला और उसके आसपास रहने वालों को अपने बाथरूम के पानी से बदबू आती महसूस हुई जो तेजी से बढ़ रही थी और फिर पूरे शहर से खबरें आने लगीं कि सभी सोसायटियों में यह समस्या है और साथ ही लोगों के बीमार होने की खबरें आने लगीं। पता चला कि सड़कों की मरम्मत कर रहे लोगों की लापरवाही से पीने के पानी और सीवेज के पानी की लाइनों में तोड़फोड़ होने से पाईप मिल गए और पूरे इलाके को दूषित पानी मिलने लगा। निवासी गंदे पानी से होने वाली बीमारियों की चपेट में आने लगे । लोगों ने एहतियात बरतनी शुरू की और पीने और खाना बनाने के लिए बाजार से बोतलबंद पानी ख़रीद कर इस्तेमाल करने लगे। जो लापरवाह रहे, उनकी जिंदगी संकट में पड़ गई। जो शहर स्वच्छ जल मुहैया कराने का दावा कर रहा था, उसकी पोल खुल गई।

यह समस्या एक शहर की नहीं बल्कि देश भर के शहरी क्षेत्रों की है जहां आए दिन लोगों की जिंदगी किसी न किसी खतरे में पड़ी रहती है, चाहे दूषित पानी हो, ज़हरीली हवा हो, बेमौसम बरसात हो या फ़िर टूटी फूटी सड़क, बेतरतीब परिवहन और जगह जगह फैलती गंदगी हो ।

अब हम देहाती इलाकों की बात करते हैं। वहां भी पानी के दूषित होने, वायु मंडल के प्रदूषित होने और अकाल, भुखमरी जैसे हालात बनते ही रहते हैं। यह एक सामाजिक समस्या भी बन जाती है और अनेक कुप्रथाओं का जन्म हो जाता है। उदाहरण के लिए पीने और घरेलू इस्तेमाल के लिए पानी लाने में महिलाओं का आधा दिन खराब हो जाता है तो कुछ इलाकों में लोगों ने पानी भरकर लाने के लिए एक शादी और करनी शुरू कर दी और इस तरह जल पत्नी रखने की शुरुआत हो गई।

व्यावहारिक बनना होगा

हमारे देश में पिछले कुछ वर्षों में काफ़ी चीजें बदली हैं और ऐसे दावे भी किए जाते हैं जो केवल कागजों पर ही पूरे कर लिए जाते हैं। उदाहरण के लिए देश भर में पाईप लाईन के जरिए पानी उपलब्ध कराना ताकि लोग इसे भरकर लाने में वक्त लगाने के बजाए  दूसरे काम करें जिससे उनकी आमदनी बढ़े। यह कितना खोखला है, इसका पता सरकार की इस घोषणा से चल जाता है कि इस काम में दस से ज्यादा वर्ष लगने वाले हैं। समझा जा सकता है कि यह टालमटोल है और वह इसलिए कि कोई ठोस नीति नहीं है जिसके बल पर यह संभव हो सके।

शौचालय बना दिए लेकिन पुरानी तकनीक से बने थे, उनमें पानी का इस्तेमाल बहुत होने से बेकार हो गए, इसके साथ ही गंदगी की समस्या और खड़ी हो गई। आंकड़े बताते हैं कि बहुत तेज़ी से लोग फिर से खुले में शौच की आदत पर लौट रहे हैं जो एक खतरनाक संकेत है। इसका सबसे बड़ा कारण यह है कि सीवर और सीवेज डिस्पोजल का इंतजाम जहां हरेक गांव में होना चाहिए, वह जिलों तक में पर्याप्त मात्रा में नहीं है। जब देश में सड़कों का जाल बिछाया जा सकता है और उसके लिए नीति बन सकती है तो क्या इसी तर्ज़ पर ग्रामीण इलाकों और शहरों के स्लम क्षेत्रों में सीवरेज सिस्टम का जाल बिछाने के लिए नीति बनाकर काम नहीं किया जा सकता ?

विकसित और बहुत से विकासशील देशों में जाएं तो वहां बाथरूम तक का पानी पिया जा सकता है। क्या इसकी कल्पना भारत में की जा सकती है ? अभी तो फिलहाल नहीं क्योंकि हम जल प्रदूषण को रोकने का ही इंतजाम नहीं कर पा रहे हैं, पीने का साफ पानी देने की बात केवल गप है।

जन भागीदारी और शिक्षा

अब हम इस बात पर आते हैं कि सामान्य व्यक्ति कैसे इन सब चीजों से जुड़ सकता है और वह बिना सरकार का मुंह देखे किस प्रकार स्वयं हवा, पानी, मौसम और पर्यावरण से जुड़े मुद्दों को हल कर सकता है। जब हम अपनी बुनियादी जरूरतों को कुछ हद तक स्वयं पूरा करने की बात करते हैं तो यह भूल जाते हैं कि जब हमें यह जानकारी नहीं है कि उसका तरीका क्या है तो सरकार को दोष देने के अतिरिक्त और क्या कर सकते हैं ?

सरकार ने नई शिक्षा नीति बनाई है और उसका प्रचार भी बहुत हुआ है लेकिन उस पर सही ढंग से चर्चा न होने से भ्रम की स्थिति बनी हुई है। जब तक यह तय न हो जाए कि विद्यार्थियों को क्या पढ़ाया जाए और उसकी रूपरेखा तैयार न हो, पाठ्यक्रम और पढ़ाने वाले न हों तो कैसे कोई शिक्षा नीति सफल हो सकती है और प्रत्येक व्यक्ति शिक्षित हो सकता है।

हम केवल अक्षर ज्ञान या भाषा की पढ़ाई की बात नहीं कर रहे बल्कि आधुनिक ज्ञान विज्ञान का सहारा लेकर अपनी परेशानियों का हल स्वयं निकाल सकने की योग्यता होने की बात कर रहे हैं।

उल्लेखनीय है कि बहुत से गैर ज़रूरी और केवल अंक हासिल करने की दृष्टि से पढ़ाए जा रहे विषयों को जब तक रद्दी की टोकरी में नहीं फेंक दिया जाता और जो विषय रोज़ाना की जिंदगी से जुड़े हैं उन्हें पढ़ाने का प्रबंध नहीं किया जाता तब तक किसी भी शिक्षा नीति का कोई मतलब ही नहीं है।

स्कूल, कॉलेज और विश्वविद्यालय तक की पढ़ाई में अगर हवा, पानी, मौसम परिवर्तन, पर्यावरण संरक्षण, वनों के महत्व, धरती, पहाड़, वर्षा, बाढ़ जैसे विषयों को प्राथमिक स्कूली शिक्षा से ही पाठ्यक्रम में शामिल कर लिया जाए तो फिर बचपन से इन सभी बातों की जानकारी होगी और विद्यार्थी बड़े होने पर इन्हें अपनी सूझबूझ से हल कर लेगा। उसे पता होगा कि रेन हार्वेसिं्टग क्या होती है, कुएं, बावड़ी, झरने, तालाब का क्या मतलब है, ग्राउंड वाटर का स्तर कैसे बनाए रखा जा सकता है, प्राकृतिक रूप से कैसे शुद्ध पानी मिल सकता है और यही नहीं कल कारखानों से निकलने वाला पानी किस तरह के ट्रीटमेंट से उपयोगी बन सकता है। अगर वह उद्योग लगाता है या व्यापार करता है तो उसे किसी भी तरह का प्रदूषण न करने के उपायों को अमल में लाने से परहेज़ नहीं होगा।

इसी तरह वन संरक्षण, प्रदूषण नियंत्रण जैसे विषयों को पाठक्रम में शामिल कर उनकी बुनियादी शिक्षा दी जा सकती है। ये सभी विषय ऐसे हैं जिनसे रोज़गार तो मिल ही सकता है, साथ में व्यक्ति इनकी जानकारी होने से स्वयं अपनी समस्याओं का हल निकाल सकता है।

जब प्रत्येक व्यक्ति को इन सब बातों का ज्ञान स्कूल से ही हो जायेगा तो फ़िर सरकार और उसके अधिकारी न तो उसे बहका सकेंगे और न ही कोई बहाना बना सकेंगे। जो जन प्रतिनिधि हैं, विधायक, सांसद हैं, उन्हें विवश किया जा सकता है कि वे नीतियां बनाते और उन पर अमल करते समय  जनता की अनदेखी न करें क्योंकि वह उन्हें अपने ज्ञान की बदौलत कटघरे में खड़ा कर सकती है। तब यह कथन सही अर्थों में कहा जा सकेगा कि जनता सब कुछ जानती है।


शनिवार, 19 मार्च 2022

काश्मीर पर लगे ज़ख्म के नासूर बनने से पहले इलाज़ जरूरी था

 

कहते हैं कि शरीर पर लगे घाव पर समय रहते मरहम न लगे तो नासूर बन जाता है और मन पर लगी चोट जिंदगी भर सालती रहती है। यही कश्मीर का सच है।

एक सच्चाई यह भी है कि  अनुपम सौंदर्य, अपार प्राकृतिक वैभव से पूर्ण प्रदेश, निवासी ज्ञान, बुद्धि तथा मानवीय संवेदनाओं से भरे पूरे हों तो वहां तीनों लोकों की सभी शक्तियां विद्यमान हों तो आश्चर्य कैसा ? यह हमारा  वर्तमान कश्मीर है।

देर से सही लेकिन सही हुआ

यह कहने या दोहराते रहने का अब कोई मतलब नहीं रह गया कि आज़ादी के बाद भारत में इस प्रदेश का संपूर्ण विलय होने पर भी पाकिस्तान की नज़र लगी होने के कारण हमेशा यह प्रदेश तनाव, परेशानी और युद्ध जैसे माहौल से ग्रस्त रहा। इसका केवल एक ही हल था जो धारा 370 हटाकर और इसे भारत का वास्तविक रूप से अभिन्न अंग बनाकर 2019 में किया गया।

जिन लोगों को सन 1980 से पहले कश्मीर जाने का अवसर मिला होगा तो वह इस बात की गवाही देंगे कि चाहे राजनीतिक और प्रशासनिक स्तर पर कैसा भी वातावरण रहा हो लेकिन वहां जाने पर डर नहीं लगता था। उसके बाद जो हुआ वह एक दर्दनाक दास्तां है।

जिस तरह सन 1984 में प्रधान मंत्री इंदिरा गांधी की हत्या से जुड़ी हिंदू सिख को अलग कर देने की साजिश रची गई, उसी प्रकार 1990 में कश्मीर से हिंदुओं का नामोनिशान मिटाने की हरकत को अंजाम दिया गया और इन दोनों के पीछे  भारत के दुश्मनों की मिलीभगत थी कि भारत के टुकड़े हो जाएं जिसके नारे भी लगाए जाने लगे । क्या यह दोनों घटनाएं एक ही कड़ी के दो सिरे नहीं हैं ?

आतंक की परिभाषा

आतंक क्या होता है ? जब घर से बाहर निकलते ही मौत का अंदेशा हो, खुलकर न किसी से बात कर सकते हों, न मिल सकते हों, साथ चल रहे अनजान व्यक्ति पर हमलावर होने का शक हो, भरोसा करना तो दूर, हरेक को संदेह की नज़र से देखने की आदत बन जाए, डर इस सीमा तक हो कि खुलकर जीने, अपनी मर्ज़ी से कहीं भी जाने से पहले सौ बार सोचना पड़े, यह आतंक की परिभाषा है !

कारगिल युद्ध से ठीक पहले कश्मीर में दूरदर्शन के लिए एक सीरियल बनाते समय आतंक महसूस किया था। जिस जगह शूटिंग कर रहे थे, वहां पुलिस की तरफ से हिदायत थी कि कहीं जाना हो तो पहले से सूचित करना होगा और सुरक्षा कर्मी का साथ नहीं छोड़ना होगा, अगर ऐसा किया तो हमारे साथ हुई किसी भी वारदात की जिम्मेदारी हमारी होगी। वजह यह बताई गई कि क्योंकि सुरक्षा के लिए पुलिस हमारे साथ थी तो हम आतंकवादियों के रडार पर आ गए हैं।

एक वरिष्ठ पुलिस अधिकारी के घर जाने पर देखा कि जहां एक ओर वे हमसे बात कर रहे थे तो उनकी निगाहें चारों तरफ चैकसी करती हुई लग रहीं थीं। पूछने पर बताया कि सामने की हरियाली से कभी भी गोली आ सकती है क्योंकि पुलिस हमारी हिफाज़त कर रही है और यह उन्हें मंजूर नहीं।

धारा 370 हटने से पहले जब भी कश्मीर जाना हुआ तो पहले की तरह डर बना रहा कि कभी भी कुछ भी हो सकता है। किसी सरकारी अधिकारी के साथ हैं तो निश्चित रूप से आतंकवादियों की नज़र में आ गए हैं।  ऐसा माहौल हो तो कोई कैसे कुदरती नजारों का मज़ा ले सकता है ? बस, जैसे तैसे काम समाप्त कर वापिस लौटने की फिक्र रहती थी।

हालांकि अभी भी पूरी तरह कश्मीर जाने पर भय से मुक्ति नहीं मिल पाई है लेकिन फिर भी उसमें काफी हद तक कमी ज़रूर हो गई है।

वर्तमान दौर में आई फिल्म कश्मीर फाइल्स ज़िहादी जुनून और दुश्मन के मंसूबों पर बनी एक ऐसी फिल्म है जिसमें कट्टरपन की सभी हदें पार होती हुई दिखाई गई हैं।

उल्लेखनीय है कि कश्मीर से आकर देश के विभिन्न भागों में बसे कश्मीरियों ने अपने साथ हुए अन्याय को अपने साथ ढोया नहीं बल्कि अपनी टीस को दिल के एक कोने में दफ़न कर तरक्की के रास्ते पर चल पड़े। उस दौर में आए लोगों से मिलने, बात करने और उनके साथ वक्त बिताने पर कभी यह अनुभव नहीं होता कि उनके अंदर कितना आक्रोश और बेचैनी छिपी हुई है। इस फिल्म ने उनकी तकलीफ़ समझने की एक कोशिश की है।

गलती किसी भी समय हुई हो और किसी ने भी की हो, उसका दंश हमेशा चुभता रहता है, राजनीति करने वाले इस बात को समझ लें तो शायद बहुत सी अमानुषिक घटनाएं न होने पाएं और जिन्होंने यह दुःख झेला है, उन्हें कुछ सांत्वना मिले !

आज कश्मीर अपना नया इतिहास रच रहा है, बदलाव दिख रहा है और संभल कर चल रहा है। पुरानी स्मृतियां मिटती नहीं हैं लेकिन उन्हें बार बार याद करने से कोई लाभ भी नहीं है।


शुक्रवार, 11 मार्च 2022

चुनाव आयोग का कर्तव्य है कि हरेक मतदाता वोट डालने जाए


चुनाव भारत की लोकतांत्रिक व्यवस्था को मजबूत करने वाली ऐसी प्रक्रिया है जो यह तय करती है कि देश की जरूरतें क्या हैं और उन्हें कैसे पूरा किया जा सकता है। इस हकीकत को जानते हुए भी अगर वोटर अपने  अधिकार का इस्तेमाल नहीं कर पाता तो समझना चाहिए कि चुनाव आयोग ने अपने कर्तव्य का सही ढंग से पालन नहीं किया।

चुनाव परिणाम पर असर

यह जानना या कल्पना करना बहुत दिलचस्प होगा कि यदि चुनावों में शत प्रतिशत या उसके आसपास मतदान हो तो क्या परिणाम होंगे ? जो उम्मीदवार जीता, क्या वह नहीं जीतता या फिर कोई और विजयी होता ? उल्लेखनीय है कि वोट प्रतिशत चालीस से साठ सत्तर तक रहता है और अपवाद स्वरूप एकाध बार कहीं किसी निर्वाचन क्षेत्र में नब्बे फीसदी तक पहुंचा हो ! यह बताता है कि जनता की सही भागीदारी नहीं हुई और यह राजशाही जैसा ही है जिसमें धन, शक्ति और बाहुबल को ही सत्ता पाने और शासन करने को अपना जन्मसिद्ध अधिकार समझा जाता है।
इसका मतलब यह है कि राजनीतिक रूप से हमारा देश अभी उतना जागरूक नहीं जितना होना चाहिए। कई बार ऐसा होता है कि वोटर की इसी उदासीनता या लापरवाही के कारण अयोग्य, अपराधी और जेल में सजा भुगत रहा उम्मीदवार जीत  जाता है और जिसे जीतना चाहिए, वह बुरी तरह हार जाता है।

वोट डालने से परहेज़ करने या न डाल सकने के अनेक कारण हो सकते हैं जैसे कि यह सोच कि मैं कोई सरकार पर निर्भर थोड़े ही हूं, कोई भी जीते, मुझे अपना काम निकालना आता है। कुछ लोगों को किसी विशेष राजनीतिक दल से लगाव होता है और वे उसके जीतने के बारे में सोचते हैं लेकिन उसका उम्मीदवार उन्हें पसंद नहीं तो वे वोट डालने नहीं जाते। इसके विपरीत कुछ को राजनीतिक दल पसंद नहीं लेकिन उसका उम्मीदवार सही लगता है तो वे यह सोचकर वोट नहीं देते कि इसकी कौन सुनेगा, इसलिए क्यों वोट देने जाएं !

कुछ वोटर इस मज़बूरी में वोट नहीं डाल पाते कि वे नौकरी, व्यवसाय या किसी अन्य कारण से अपने मतदान केंद्र पर वोट डालने पहुंच पाने में असमर्थ हैं  और इस तरह अपनी पसंद के उम्मीदवार को चुनने में अपना योगदान नहीं कर सकते। मतदान की तारीख को अपने क्षेत्र में न होने से वे अपने अधिकार का इस्तेमाल नहीं कर पाते। ऐसे मतदाताओं की संख्या बहुत अधिक है।

चुनाव आयोग का कर्तव्य है कि वह कुछ ऐसा प्रबंध करे कि इन लोगों को अपने अधिकार का प्रयोग करने का अवसर मिले और वे इससे वंचित न रहें।

जिस तरह पोस्टल बैलेट से कुछ विशेष परिस्थितियों में रह रहे व्यक्तियों को वोट डालने की सुविधा मिलती है, उसी तरह उन लोगों के लिए भी ऐसी व्यवस्था चुनाव आयोग द्वारा की जानी चाहिए जो किसी कारणवश अपने मतदान केंद्र पर नहीं पहुंच सकते।

किसी के लिए भी यह व्यावहारिक नहीं है कि वह अपनी नौकरी या व्यापार या किसी प्रोफेशनल दायित्व को छोड़कर वोट डालने जायेगा और फिर वापिस आकर अपना काम करेगा। उसके लिए यदि वोट डालना संभव कर दिया जाए तो चुनाव परिणामों पर दूरगामी प्रभाव पड़ना निश्चित है। डिजीटल क्रांति के वर्तमान युग में टेक्नोलॉजी के इस्तेमाल से यह करना नितांत संभव है, केवल इच्छाशक्ति चाहिए।

अक्सर देखने में आता है कि वोट न डालने वालों में उनकी संख्या बहुत अधिक हैं जो शिक्षित हैं, उच्च पदों पर काम कर रहे हैं और जिनके पास सभी तरह के आने जाने के साधन हैं। ये वे लोग हैं जो सोच समझकर और किसी दल या उम्मीदवार के लुभावने वायदों में आए बिना अपना वोट डालेंगे लेकिन इनकी बेरुखी गलत उम्मीदवार के जीतने का कारण बन जाती है। कहावत है कि भेडचाल में डाले गए वोट के मुकाबले अक्लमंदी से डाला गया एक वोट अधिक कारगर होता है।

मुद्दे बदल जाते हैं

राजनीतिक दलों और उनके उम्मीदवारों को यह अनुमान रहता है कि उनके क्षेत्र में कोई भी विकास कार्य हुए बिना चुनाव जीतना है तो वे इस तरह का प्रपंच रचते हैं कि मतदाता भ्रमित हो और न चाहते हुए भी उनके पक्ष में वोट डाले। ऐसे में सड़क, बिजली, पानी, रोज़गार, व्यवसाय और अन्य ज़रूरी मुद्दों को भुलाकर धर्म और जाति से लेकर राष्ट्रवाद तथा देशभक्ति जैसे विषयों को प्रमुखता से भुनाया जाने लगता है।

सरकार और सत्तारूढ़ राजनीतिक दल हमेशा इस जोड़तोड़ में लगे रहते हैं कि किसी भी कीमत पर चुनाव जीतना है।  इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए वे  वास्तविक मुद्दों को भुलाकर उन चीजों पर वोट मांगते हैं जिनका वोटर से कोई सरोकार नहीं होता। यहीं से शुरू होने लगता है वोट डालने के प्रति उदासीनता का भाव और इच्छा होते हुए भी लोग मतदान केंद्र नहीं जाते।

वोट न डालने देने के पीछे एक वास्तविकता यह भी है कि वोटर लिस्ट से अपना नाम गायब पाया जाना और कितनी भी दुहाई दी जाए कि पिछली बार तो नाम था और वोट भी दिया था, कोई परिवर्तन भी नहीं हुआ तो फिर नाम क्यों नहीं है, इसका कोई असर नहीं होता। इसकी कोई सुनवाई नहीं और एक बड़ी तादाद अपना मताधिकार इस्तेमाल नहीं कर पाती।

चुनाव आयोग की जिम्मेदारी है कि वह यह सुनिश्चित करे कि किसी भी वोटर का वोट पड़ने से रहने न पाए। यदि ऐसा हो गया और चुनाव में नब्बे प्रतिशत से अधिक वोट पड़ने लगें तो वह दिन देश के लोकतंत्र के लिए स्वर्णिम होगा।


शनिवार, 5 मार्च 2022

बाहर युद्ध हो तो अपनी सामथ्र्य का आकलन ज़रूरी है

 

रूस और यूक्रेन का युद्ध एक सबक तो यह सिखाता है कि, चाहे कोई देश तटस्थ होकर रहे, उसे अपनी सीमाओं की सुरक्षा के बारे में और अपनी तैयारियों को लेकर मंथन अवश्य करना चाहिए।

भारत ने अब तक चार बड़ी लड़ाईयां भुगती हैं और छोटी छोटी अनेक जब तब होती रही हैं। ये आंतरिक यानी अपने ही राज्यों में लड़ी जाती रहीं हों, उत्तर पूर्वी राज्यों में सैनिक कार्यवाही हो, कश्मीर में आतंकियों के साथ मुठभेड़ हो, अलगाववादियों और नक्सली इलाकों में संघर्ष हो या फ़िर सामान्य हालात में अपने नागरिकों की रक्षा के लिए उठाए गए कदम हों, कुछ भी हो सकता है।


वास्तविकता क्या है

यह एक ऐतिहासिक तथ्य है कि हमारे सैनिकों ने अपने अदम्य साहस और वीरता से विदेशी हमलावरों को खदेड़कर देश की कीर्ति में चार चांद लगाए हैं। दूसरी वास्तविकता यह है कि युद्ध विराम  होने के बाद चाहे पाकिस्तान हो या चीन, दोनों पक्ष जब शांति कायम करने के लिए समझौते के लिए बैठते हैं तो अक्सर युद्ध में विजय हासिल करने के बावजूद हमारा पलड़ा कमज़ोर रहता है।

पाकिस्तान के साथ पहले युद्ध में विजय प्राप्त करने के बाद जिस बात पर अर्थात कश्मीर को लेकर जब हम लड़े तो यह समस्या हल हो जानी चाहिए थी लेकिन हुआ यह कि इसे संयुक्त राष्ट्र की दखलंदाजी के लिए छोड़ दिया गया जिसका परिणाम आज तक भुगत रहे हैं।  हमेशा पाकिस्तान के साथ युद्ध की संभावना बनी रहती है।

इसी प्रकार भारत चीन युद्ध के बाद हमें लद्दाख के बहुत बड़े भूभाग से हाथ धोना पड़ा। 1965 की लड़ाई में मिली जीत का लाभ उठाने से चूक गए और 1971 में पाकिस्तान के दो टुकड़े करने पर भी हम अधिक लाभ में नहीं रहे बल्कि बांग्लादेश के रूप में एक नया प्रतिद्वंदी खड़ा कर लिया।

जहां तक चीन का संबध है उसके साथ भारत के संबंधों को झटका तब लगा जब तिब्बत पर हमला कर उसने उसे अपने राज्य में मिला लिया और वह हमारा निकट पड़ोसी बन गया। चीन की विस्तारवादी नीति के कारण इसका परिणाम भारत चीन सीमा विवाद और 1962 में युद्ध के रूप में सामने आया।


दोस्त और दुश्मन

भारत और पाकिस्तान के बारे में कहा जा सकता है कि शायद ही दुनिया में ऐसे दो देश हों जो इतने समान हों लेकिन दोनों के बीच मैत्री न होकर शत्रुता हो। इसी तरह चीन ने दोस्ती की आड़ लेकर दुश्मनी निभाई। इस तरह दो विकट पड़ोसी मिल गए और दोनों ही मित्रता के आवरण में शत्रुओं की भूमिका निभाते रहते हैं। 

अक्सर कहा जाता है कि भारत को पाकिस्तान अथवा चीन में से किसी एक को अपना मित्र बना लेना चाहिए ताकि हर समय रहने वाले तनाव और युद्ध की आशंका को कुछ तो कम किया जा सके। मित्रता के लिए इन दोनों में से किसी एक को चुनना हो तो जहां तक सामथ्र्य की बात है चीन ने व्यापार हो या सामाजिक और आर्थिक विकास, अपना सिक्का दुनिया में जमा लिया है। पाकिस्तान इसमें कहीं नहीं ठहरता।  मेड इन चाइना की धूम का डंका सब ओर बज रहा है।  पाकिस्तान इसके मुकाबले कहीं नहीं है।

भारत की यदि प्रतियोगिता है तो वह चीन से है, इसलिए क्या यह समझदारी नहीं होगी कि भारत चीन से हाथ मिलाकर बराबरी का रिश्ता कायम करे ताकि दुश्मनी कुछ तो कम हो!


युद्ध की शिक्षा

रूस और यूक्रेन के बीच युद्ध की गंभीरता को ध्यान में रखते हुए भारत के लिए ज़रूरी हो जाता है कि वह अपने नागरिकों के लिए ऐसी शिक्षा की व्यवस्था करे जिसमें स्कूल से ही सेना से संबंधित विषयों की जानकारी विद्यार्थियों को होती रहे। इसका मतलब यह नहीं कि सैनिक प्रशिक्षण दिया जाए बल्कि यह है कि सिलेबस में युद्ध और उससे संबंधित नीतियों की समझ शामिल हो और विद्यार्थी एक विषय की तरह इसका अध्ययन करें। 

भारत के इतिहास पर दृष्टि डालें तो वैदिक काल से, विशेषकर गुरुकुल परंपरा में और उसके बाद भी विद्यार्थियों को युद्ध करने, चक्रव्यूह की रचना और उसका विध्वंस करने, विभिन्न अस्त्र शस्त्रों के बारे में शिक्षित करने, लड़ाई में किस तरह के व्यवहार की अपेक्षा होती है जैसी बातों को एक विषय की तरह पढ़ाया जाता था।

इसमें यह भी शामिल होता था कि युद्ध के दौरान घायल सैनिकों की चिकित्सा और मृत्यु होने पर उनके शवों की अंतिम क्रिया किस प्रकार हो। इसी के साथ युद्ध में सैनिकों के लिए पर्याप्त भोजन, युद्ध बंदियों के रखने की व्यवस्था और यदि विजय होती न दिखाई दे तो शत्रु के हाथ लगने से बचने की विधि तथा उन सभी वस्तुओं का ज्ञान देना शामिल था  जिनकी सफल युद्ध संचालन में प्रमुख भूमिका रहती है।

जब युद्ध शिक्षा को व्यापार, वाणिज्य, विज्ञान, अर्थशास्त्र, इतिहास तथा अन्य विषयों की भांति एक अनिवार्य विषय के रूप में पढ़ाया जाएगा तो विद्यार्थी के सामने एक और विकल्प होगा, वह भारतीय सेनाओं में भी अपना भविष्य देख सकता है ! सैनिक स्कूल उसके लिए उसी प्रकार उच्च शिक्षा के केंद्र होंगे जिस प्रकार अन्य विषयों की पढ़ाई के लिए वह उनसे संबंधित केंद्रों का चुनाव करता है और उनमें दाखिले के लिए कोचिंग और ट्रेनिंग हासिल करता है।

युद्ध को शिक्षा का विषय बनाने का सबसे बड़ा लाभ यह होगा कि लड़ाई होने पर कोई भी व्यक्ति अपने को असहाय महसूस नहीं करेगा बल्कि युद्ध क्षेत्र में न रहते हुए भी अपनी और अपने परिवार की रक्षा करने में समर्थ होगा। उसे पता होगा कि उसे क्या करना है जैसे कि शत्रु की चाल को समझना, उसके जासूसों की पहचान करना, युद्ध लड़ रहे सैनिकों की ज़रूरत के अनुसार जरूरी वस्तुओं की आपूर्ति बनाए रखना आदि ।

परिवारों तथा सामान्य व्यक्तियों की रक्षा के लिए आवश्यक सुविधाएं उपलब्ध कराने के प्रबंध करने जैसी बातों को जब एक विषय की तरह पढ़ाया जाएगा तब युद्ध काल में सरकार का पूरा ध्यान विजय प्राप्त करने में लगेगा क्योंकि तब उसे अपने नागरिकों की सुरक्षा की व्यवस्था करने में अपनी ऊर्जा कम से कम लगानी होगी।

विद्यार्थी जीवन में ही यह पता होगा कि हमारे देश की सैन्य क्षमता क्या है । हथियारों के निर्माण और उन्हें खरीदने की प्रक्रिया और उनकी सर्विसिंग जैसी बारीकियों का ज्ञान उसके पास होने से एक सामान्य व्यक्ति युद्ध में भाग न लेते हुए भी अपना महत्वपूर्ण योगदान कर सकता है।

युद्ध शिक्षा के पाठ्यक्रम में यह भी बताया जाए कि युद्ध विराम होने पर किस तरह से नेगोशिएशन करना है, उसकी प्रक्रिया शुरू करने से पहले किन बातों को ध्यान में रखते हुए बातचीत करनी है। गोपनीयता का क्या महत्व है और अपनी शर्तों पर कायम रहने के लिए वार्ता का रुख किस प्रकार अपने पक्ष में किया जा सकता है।

इसी प्रकार युद्ध नीति बनाते समय शत्रु को परास्त करने का लक्ष्य कैसे प्राप्त करना है, उसकी कमियों को उसके किस व्यवहार से जाना जा सकता है, उसकी ताकत का अंदाज़ लगाने और उसके अनुरूप कार्यवाही करने के लिए क्या जरूरी संसाधन हैं, इन सब बातों का आकलन करने की प्रक्रिया सिलेबस में शामिल हो।

युद्ध शिक्षा को हमारे स्कूल कालेजों और उच्च शिक्षा संस्थानों में एक विषय के रूप में शामिल करने और उसमें डिग्री हासिल करने से हमारी सेना के आर्थिक, प्रशासनिक और सामरिक महत्व के प्रतिष्ठानों के लिए योग्य व्यक्ति सुगमता से मिलने लगेंगे। इसी प्रकार डॉक्टर, इंजीनियर, आर्किटेक्ट तथा अन्य व्यवसायों से जुड़े विषयों में पारंगत व्यक्ति भी सेना की ओर जुड़ेंगे।

युद्ध शिक्षा को शिक्षण व्यवस्था का अंग बनाए जाने के बारे में गंभीरता से सोचने का यही समय है