अपराध की सीमा
अफवाह को सच मानकर किसी की हत्या तक कर देना न केवल एक सामाजिक बीमारी के लक्षण हैं बल्कि इसका फ़ायदा वे लोग उठा रहे हैं जो आतंकवाद के पैरोकर हैं। दुनिया भर में जिस तरह आतंकवाद के ख़िलाफ मुहिम चल रही है और उसका ख़ात्मा करने के लिए सभी शक्तियां एकजुट हो रही हैं उससे क्या यह नहीं लगता कि आतंकवादी अपनी कार्यशैली बदल रहे हैं और अफ़वाह फैलाकर समाज में अफ़रातफरी का माहौल बना रहे हैं। हो सकता है कि अभी इसका दायरा कुछ देशों या उनके कुछेक प्रदेशों तक हो और अभी आतंकवादियों द्वारा इसका ट्रायल किया जा रहा हो ठीक उसी तरह जैसे पत्थरबाज़ी के पीछे आंतकी ही होते हैं, अफ़वाहबाज़ी के पीछे भी कोई आंतकवादी संगठन काम कर रहा हो। जो भी हो हमें सतर्क तो रहना ही होगा।
समाज में आम तौर से सभी स्तर के व्यक्तियों में दो तरह की प्रवृत्ति देखने को मिलती है। अधिकतर लोग किसी दूसरे को तकलीफ देना तो दूर उन्हें तकलीफ में देखने से भी दुख पहुंचता है। वह ऐसा करने का भी अक्सर सोचते हैं कि उनके कुछ करने से शायद किसी की तकलीफ कम हो जाए। इन्हें हम शारीरिक और मानसिक रूप से स्वस्थ कह सकते हैं जो किसी का भला न भी कर पाएँ पर बुरा करने की बात अमूमन दिमाग में नहीं लाते।
इसके विपरीत कुछ लोग जो संख्या में कोई ज्यादा नहीं होते लेकिन सामाजिक व्यवस्था पर भारी पड़ जाते हैं। ये वे हैं जो किसी को तकलीफ देकर, दुःख पहुँचाकर, उन्हें तड़पते और मरते हुए देखकर न केवल अपने कृत्य से आनंद और खुशी पाते हैं बल्कि अपने अंदर विजयी होने की भावना बढ़ते हुए देखते हैं और किसी को जान से मार देने को एक जश्न की तरह मनाते हैं।
इन लोगों में से उनको कम कर दें जो जन्मजात या पेशेवर अपराधी हत्यारे होते हैं जिनसे निबटने के लिए कानून है और उन्हें देर सवेर सजा मिलना तय है।
अब जो शेष बचे वे क्षणिक आवेश में या किसी के द्वारा जानबूझकर और यहाँ तक कि सोची समझी साजिश के तहत वो कर बैठते हैं जिसे करने के बारे में उन्होंने न कभी सोचा होगा और सामान्य परिस्थितियों में न कभी करना चाहेंगे।
अक्सर यही लोग कानून की गिरफ्त में भी जल्दी आ जाते हैं और उस जुर्म की सजा पाते हैं जो उनसे झूठी अफवाह फैला कर अपना उल्लू सीधा करने वाले करवा लेते हैं। वे समझ ही नहीं पाते कि कोई उनकी भावनाओं को भड़काकर उनके अंदर अपमानबोध का बीज बो कर उनकी आस्था और धार्मिकता का मजाक उड़ा कर उनका संयम और विवेक छीनने का षड्यंत्र रच रहा है।
आतंकवाद का रूप अफवाह
वास्तविकता यह है कि यह आतंकवाद का ही एक स्वरूप है जिसका इस्तेमाल असरदार तरीके से साधारण और सीधे सादे लोगों को गुमराह और भटकाव के रास्ते पर डालकर समाज और देश में अराजकता और अव्यवस्था फैलाने के उद्देश्य से किया जा रहा है।
पिछली घटनाओं से इसी बात की पुष्टि होती है कि इस जहर का प्रभाव कितना व्यापक है। किसी व्यक्ति द्वारा गोकशी की अफवाह को सच्चा मानकर मार देना और उसके बाद अपने कृत्य का अफसोस करने की बजाय स्वयं को विजयी समझने के जुनून में अपनी शर्मनाक हरकत का ढिंढोरा पीटने की हद तक चले जाना क्या बताता है, सोचने की जरूरत है।
इसे एक सच्ची घटना से समझते हैं। किस्सा यह है कि दो जिगरी दोस्त हैं जो एक दूसरे के हमराज हमसफर होने और अपनी दोस्ती के आगे सब कुछ कुर्बान करने का दावा करते रहते हैं।
एक दिन ये दोनों पैदल जा रहे थे कि सड़क के दूसरी तरफ एक आदमी को देखकर उनमें से एक ने दूसरे से कहा कि वो जाकर उसको जान से मार दे। दोस्त असमंजस में था कि क्या करे और क्या न करे और अगर मामला उसके लिए एक अनजान आदमी को अपने दोस्त की खातिर डाँटने डपटने या धमकाने का होता तो भी किया जा सकता था लेकिन यहाँ तो उसकी जान लेने की बात थी।
दूसरे दोस्त ने धैर्यपूर्वक अपने विवेक का प्रयोग करते हुए अपने दोस्त से कहा कि उसकी बात मानने के तीन रास्ते हैं। पहला यह कि वह मुझे बताए कि उस आदमी ने उसका क्या नुकसान किया है, दूसरा रास्ता यह कि उस तीसरे से पता करूँ कि उसने मेरे दोस्त के साथ ऐसा क्या किया है कि वह उसे जिंदा ही नहीं देखना चाहता। तीसरा रास्ता यह कि मैं तेरे कहने पर उसे जान से मार देता हूँ। अब अगर पहले दो रास्ते तुझे मंजूर नहीं हैं और मुझे तीसरा रास्ता अपनाना होगा तो मैं तो तेरे दोस्त के बजाय किराए के गुंडे की तरह हो गया। इसके बाद हकीकत में यह हुआ कि तीसरे की जान बच गयी और उसके और अपने दोस्त के बीच जो लेनदेन का मसला था वह सलाह मशविरे और कानूनी तरीके से सुलझा लिया गया।
इस तरह की घटनाएँ अक्सर देखने सुनने को मिल जाती हैं। अफवाह के बल पर कुछ लोगों को एक कमरे में बंद कर उसमें पानी भर दिया और फिर उसमें बिजली का करंट छोड़ दिया जिससे सभी मर गए। बच्चा चुराने की अफवाह से निर्दोष स्त्री या पुरुष को मार डालने की घटनाएं कई स्थानों से बराबर आ रही हैं।
बहुउपयोगी पशुओं गाय भैंस बकरी से लेकर अन्य जीव जंतुओं और पक्षियों तक को मारने की अफवाह से राजनीतिज्ञों और तस्करी करने वालों को तो लाभ मिल सकता है लेकिन उनकी यह हरकत बाड़ द्वारा खेत को खाने और जहरीली पैदावार से स्वयं को ही समाप्त करने की दिशा में आत्मघाती कदम की तरह ही है क्योंकि जिस दिन लोगों ने धैर्य खोने की जगह विवेक और संयम से काम लेना शुरू कर दिया तो उनकी कलई खुलना निश्चित है और उनकी हैसियत केवल एक किराये के गुंडे की तरह हो जायगी।
एक और घटना है। एक अस्पताल में एक घायल व्यक्ति को उसके घरवाले और काफी बड़ी संख्या में दोस्त रिश्तेदार लाते हैं। वे बिना सोचे समझे डॉक्टर पर लापरवाही करने से लेकर इलाज ठीक न करने का आरोप लगाते हुए तरह तरह की धमकी देने लगते हैं।
डॉक्टर ने मामले की गम्भीरता को समझकर और अपने विवेक का इस्तेमाल करते हुए उन लोगों में से दो को अपने चौम्बर में बुलाया जिनमे एक परिवार का था और एक दोस्तों में से था। डॉक्टर ने मरीज की हालत और उसकी चिकित्सा को लेकर जरूरी बातें बताईं जो उनकी समझ में आ सकें। अब यह दोनों बाहर आए और गुस्से से भरे लोगों को शांत किया। तब कहीं जाकर तोड़फोड़ और मारने पीटने की घटना से बचा जा सका वरना हालात के काबू से बाहर होने की पूरी उम्मीद थी।
प्रशासन और पुलिस की भूमिका
यह एक निर्विवाद सत्य है कि जब भी किसी अमानवीय घटना को अंजाम देने वाले असामाजिक तत्व अपनी कोशिश में कामयाब होते हैं तो उसके पीछे प्रशासन और उसके माध्यम से पुलिस की समय रहते सही कार्यवाही न करना ही प्रमुख कारण है। अगर ऐसा न होता तो चाहे पहली बार ही किसी ने गलती से या जान बूझकर भी कोई घिनौना अपराध करने के बाद यह कहने की हिम्मत न की होती कि पुलिस उसके साथ है और अधिकारी हो या नेता वे सब उसके खिलाफ कोई कार्यवाही करना तो दूर बल्कि उसका स्वागत एक हीरो की तरह करेंगे। और असलियत में हुआ भी यही। इससे क्या सिद्ध होता है यह समझना कोई राकेट विज्ञान नहीं बल्कि सामान्य समझ रखने वाले के लिए भी समझना आसान है।
क्या है जरूरी
ऐसे में जरूरी हो जाता है कि अगर इस तरह की घटनाओं का बार बार होना रोकना है तो आम नागरिक को ही इसकी कमान अपने हाथ में लेनी होगी।
सबसे पहले तो उसे अपने अहम् को दूर रखते हुए किसी भी हालत में अपना विवेक खोए बिना तुरंत कोई योजना बनाने की पहल करनी होगी जिससे हिंसा पर उतारू भीड़ का क्रोध शांत हो। इसके साथ ही असली अपराधी तत्वों की पहचान कर उन्हें कानून के हवाले करने की जद्दोजहद करनी होगी।
जहाँ तक कानूनों के कड़ा होने की बात है तो वे प्रतिदिन ही सरकार द्वारा कड़े से कड़े किए ही जा रहे हैं और वह उनके अनुसार कड़ाई से काम लेने की घोषणा भी जब तब करती रहती है लेकिन अक्सर वह इस तरह की घटनाओं को रोकने में फिसड्डी ही रह जाती है और एक दूसरी दिल दहला देने वाली घटना हो जाती है।
पिछले दिनों छोटी उम्र की लड़कियों से बलात्कार होने और कानून को धता बताते हुए एक पवित्र उद्देश्य को कलंकित करने वाली संस्थाओं की पोल खुलने से ऐसा लगता है कि दाल में काला नहीं बल्कि पूरी दाल ही काली है क्योंकि यह मान लेना अहितकारी होगा कि बहुत समय से चली आ रही इन हरकतों का सरकार और अधिकारियों को पता ही नहीं था। असल में सत्ता में बने रहने और जनता को बहकावे में रखने की कोशिश में कामयाब होते रहने का सिलसिला इसलिए चलता आ रहा था कि सामान्य व्यक्ति ने जाँच पड़ताल करना छोड़ दिया है। जरूरत है कि वह जागरूक हो और वक्त रहते सरकार को सही कदम उठाने के लिए मजबूर कर दे। यह कतई नामुमकिन नहीं बल्कि बहुत आसान है सिर्फ चौकन्ना रहना है।
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