शुक्रवार, 28 सितंबर 2018

स्वच्छ, स्वस्थ और समृद्ध भारत का सपना









बीमारी बढ़ाए गरीबी

हमारे देश में लगभग एक करोड़ लोग इसलिए हर साल गरीब बन जाते हैं क्योंकि किसी न किसी गम्भीर बीमारी की बजह से उनकी नौकरी छूट जाती है, काम धंधा बंद हो जाता है और वे काफी समय तक कोई रोजगार करने लायक नहीं रहते। यहाँ तक कि कई बार तो घरबार खेत खलिहान जेवर बर्तन भांडे सब डाक्टरों की भेंट चढ़ जाता है।
फिर से कुछ कमाने लायक बनने में महीनों लग जाते हैं। कुछ बीमारियों के कारण उनकी कार्य क्षमता इतनी कम हो जाती है कि वे पहले की तरह न तो काम कर पाते हैं और न ही दोबारा उन्हें कोई नौकरी या रोजगार मिलता है।


आदत बदलने की शुरुआत

साफ सफाई से रहने, खुले में शौच न करने और शौचालय बनवाने और उनका इस्तेमाल करने के प्रति उस समाज की सोच में काफी बदलाव आया है जो इन बातों को अब तक बड़े लोगों के चोंचले और पैसे का दुरुपयोग समझता था। अब उसकी सूरत और सीरत के साथ आदत भी बदल रही है। यह अब लोगों की समझ में आने लगा है कि गंदगी ही ज्यादातर बीमारियों की जड़ है।

जब किसी गरीब के यहाँ कोई बीमार पड़ता है तो सबसे पहली समस्या यह होती है कि उसे कौन अस्पताल ले जाएगा, कौन देखभाल करेगा और कौन जाँच पड़ताल और दवाइयों का खर्च उठाएगा। दुर्भाग्य से हमारे देश की हकीकत यह है कि कमाने वाला एक और खाने वाले दस या दस भी कमाएँ तो एक को बिठाकर खिला नहीं सकते, तीमारदार बनकर सेवा करना तो दूर की बात है।


इन हालात का दोष किसी को देने से बात नहीं बनती इसलिए सरकार की घोषित आयुष्यमान योजना से कुछ उम्मीद है कि गरीब के दिन बहूरेंगे और वह बेफिकर होकर बीमार पड़ने पर अपना इलाज करा सकेगा।
कुछ वर्ष पहले जब गुजरात में नरेंद्र मोदी सरकार थी तो वहाँ प्रचलित ‘चिरंजीवी‘ योजना पर एक फिल्म बनानी थी। इसमें गर्भवती महिला को प्रसव के लिए ले जाने, अस्पताल में बिना किसी खर्च के शिशु को जन्म देने और एक माह तक उसकी देखभाल करने का खर्च सरकार द्वारा दिया जाता था।


एक बड़े क्लीनिक के संचालक ने बताया कि वह एक प्रसव के डेढ़ लाख तक कमाता था और अब उसे पाँच प्रसव के लिए इतने ही पैसे सरकार से मिलते हैं। गनीमत है कि वर्तमान स्टाफ से ही यह पूरा काम हो जाता है। कोई अतिरिक्त खर्च नहीं होता। आगे बताया कि सी एम (मोदी) का डंडा ऐसे ही चलता है।
विशेष एम्बूलेंस दूर दराज के इलाकों से गर्भवती महिलाओं को गाँव में आशा वर्कर की मदद से अस्पताल लाती थी और स्वस्थ होने पर छोड़ने आती थी।


कोई भी जनहित की योजना तब तक सफल होना नामुमकिन है जब तक उसे अमल में लाने के लिए पूरी नाकेबंदी न की जाए। गरीबी में रह रहे दस करोड़ परिवारों को उसके पाँच सदस्यों के लिए पाँच लाख का बीमा कवर साधारण मदद नहीं है। ट्रान्स्पोर्ट से लेकर जाँच, इलाज ऑपरेशन और दवाइयों तक का खर्च सरकार द्वारा उठाने का इंतजाम भी मामूली बात नहीं है। इस योजना से लाखों लोगों के रोजगार की भी सम्भावनाएँ हैं। आयुषमान मित्र, कॉल सेंटर, रीसर्च सेंटर और बीमा कारोबारी इससे जुड़ेंगे तो स्वस्थ भारत का सपना साकार हो सकता है। फिलहाल इसके लिए हेल्पलाईन नम्बर 1455 की घंटी बजने लगी है।


परिवार और समाज को खुशहाल बनाने की किसी भी कोशिश का स्वागत होना चाहिए चाहे वह सरकार करे या कोई निजी संस्थान, मकसद तो एक ही है कि देश स्वच्छ, स्वस्थ और समृद्ध हो जिससे किसी भी दल या नेता को एतराज नहीं होना चाहिए।


ढोल की पोल और भ्रष्टाचार 

सरकार का ध्यान इस ओर भी जाना चाहिए की बीमा कम्पनी और निजी अस्पताल किस प्रकार उन लोगों का शोषण करते हैं जो गरीबी की परिधि में नहीं आते। एक उदाहरण से बात समझ में आ जाएगी जिससे वर्तमान योजना को ठीक से लागू करने में भी मदद मिलेगी।


बीमाधारक से गैर बीमाधारक के मुकाबले बीमा कम्पनी से निजी अस्पताल पच्चीस से पचास प्रतिशत तक ज्यादा चार्ज करते हैं। बीमा धारक इस पर ध्यान नहीं देता हालाँकि बढ़े प्रीमीयम के रूप में यह उसी की जेब से निकलता है। कम्पनी और अस्पताल की मिलीभगत से लूट का यह ऐसा गड़बड़झाला है जिसे रोकने के लिए अगर सरकार कोई कार्यवाही करे तो बीमा पॉलिसी का प्रीमीयम काफी कम हो सकता है और धारकों को सहूलियत। यह ढोल की पोल वर्तमान योजना में न हो इसकी यह चेतावनी है।


देशवासियों के स्वस्थ और खुशहाल भारत के सपने को साकार करने का दम यह योजना रखती है बशर्ते कि इसमें कोई भ्रष्टाचार और ढोल की पोल न हो।


जसदेव सिंह


“मैं जसदेव सिंह बोल रहा हूँ“ और बुलंद आवाज के साथ बीच में ‘लेकिन’ शब्द का इस्तेमाल करने वाला स्वर जिसने आकाशवाणी और दूरदर्शन में अपनी अलग पहचान बनाई, वह हमेशा के लिए शांत हो गया। जिस दौर में खेल जगत में अंग्रेजी कमेंटेरी के सामने हिंदी को उपेक्षा से देखा जाता था जसदेव ने उसे उसका सही स्थान दिलाया। यहाँ तक कि उनका उपहास करने की हद तक लोग टिप्पणी कर देते थे कि जिन खेलों की वर्तनी अंग्रेजी पर आधारित है उन शब्दों को हिंदी में क्या बोलेंगे तो जसदेव ने उन्हें अपनी ही अलग शैली में गढ़े शब्दों को आसान बनाकर अपनी वाणी दी तो आलोचकों से कुछ कहते न बना। उनका कहना था कि हमारे ज््यादातर खिलाड़ी चाहे शहरों से आए हों लेकिन उनके खेल के बारे में सुनने वाले देश के कस्बों और गाँव में खेत में बैठकर सुनते हैं।


मेरे साथ उनका सम्पर्क एक मित्र के जरिए हुआ जो दिल्ली में ग्रीन पार्क में रहते थे और मैंने पास ही में अपनी फीचर एजेन्सी भारत इंटनेशनल न्यूज का दफ्तर खोला था। मैं लेखकों को अपने साथ जोड़ रहा था। वह सरकारी नौकरी से मुक्त हो चुके थे। मैंने उनसे अपने ग्राहक समाचारपत्रों के लिए एक खेल स्तंभ लिखने की पेशकश की तो कहने लगे कि उन्हें बोलना आता है लिखना नहीं।

 मैंने कहा कि जो आप बोलते रहे है और जो बोलना चाहते थे लेकिन नहीं बोल पाए बस वही लिख दीजिए और सप्ताह में केवल एक बार ही तो लिखना है। कुछ सोचकर उन्होंने हाँ कर दी और उनका कॉलम नियमित रूप से पाठकों को मिलने लगा जो इतना पसंद किया गया कि मेरे ग्राहकों की संख्या बढ़ी और हिंदी को एक नया खेल लेखक मिल गया जो पत्रकार नहीं वाणी का जादूगर था।


जसदेव की लेखनी से निकली शब्दों की सरिता पढ़ने वालों को उनकी वाणी की तरह ही सुनाई देती थी। सुनना हो या पढ़ना उनकी आवाज की खनक इतनी अलग थी कि पढ़ते हुए लगता था कि उन्हें सुन रहे हैं।
शब्द और स्वर का यह चितेरा एक साधारण व्यक्ति की तरह रहता था। कोई अपमान कर दे तो सहता नहीं था, केवल शांत रहकर उसकी बोलती बंद कर देता था।

दूरदर्शन ने अपनी परम्परा के अनुसार उनकी भी कद्र नहीं की तो उसका दुःख उन्हें था लेकिन मलाल नहीं था। स्पोर्ट्स के महानिदेशक की कुर्सी पर बैठकर खेल प्रसारण में भारत को किसी भी विदेशी चैनल से आगे देखना चाहते थे लेकिन नौकरशाही कहाँ किसी किसी प्रतिभा का सम्मान करती है विशेषकर दूरदर्शन जो बढ़िया प्रोग्राम तो बनवाना चाहता है लेकिन प्रतिभा की कद्र करना तो दूर उनका सही मेहनताना भी नहीं देना चाहता। शायद इसीलिए उसकी छवि सरकारी लाउड्स्पीकर से अधिक नहीं आँकी जाती। जसदेव को भी दूरदर्शन से निराशा ही मिली।


जसदेव सिंह ने ओलम्पिक, वल्र्ड कप और एशियाई खेलों में भाग लेने वाले देशों की टीमों का प्रदर्शन नजदीक से न केवल देखा बल्कि बारीकी से उनकी कार्यशाली को भी समझा। खेल प्रसारण की गुणवत्ता बढ़ाने और खेल कार्यक्रमों के निर्माण को एक नई दिशा देने के प्रति वह पूर्ण रूप से समर्पित थे।


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