शुक्रवार, 20 अप्रैल 2018

निर्दोष और अपराधी के बीच झूलता न्याय

कानून और कचरा
सामाजिक, राजनीतिक और न्यायिक व्यवस्था को जब जंग लगनी शुरू हो जाए और तथाकथित लोकहित और जनकल्याणकारी कार्यों की आड़ में नीतियों, कानून और नियमों से भ्रम पैदा होने लगे, अविश्वास के बादल मंडराने लगें तो समझना चाहिएकि अंधेर नगरी चौपट राजायुग की शुरूआत हो चुकी है।
उदाहरण के लिए जब अदालतों के लिए 15-20 साल तक यह तय करना ही संभव हो कि कोई व्यक्ति निर्दोष है या अपराधी तो फिर कानून का अर्थ ही क्या रह जाता है? क्या इससे यह भावना बलवती नहीं होती कि अब वक्त गया है कि सभी कानूनों को कचरे की पेटी में डाल दिया जाए और संविधान के दायरे में रहकर नये सिरे से कम से कम वे कानून तो बना ही दिये जाएं जिनसे व्यक्ति की गरिमा खंडित हो, उसमें अनावश्यक भय हो और वह स्वंय को किसी भी प्रकार से आतंकित समझे। उसे यह विश्वास हो जाए कि कानून उसकी रक्षा के लिए है कि उसका भक्षण करने के लिए।
जब कोई व्यक्ति विशेषकर राजनीतिज्ञ और प्रशासनिक अधिकारी किसी भी घटना को लेकर यह कहे किकानून अपना काम करेगातो उसका यह मतलब होता है कि उस व्यक्ति की इतनी हैसियत और ताकत है कि वह कानून को अपने हिसाब से तोड़ने मरोड़ने का काम बखूबी कर सकता है तथा कानून को सर्कस के भालू की तरह नचाने की सामर्थ्य रखता है। उसके पास धनबल भी है और बाहूबल भी। ऐसे में सामान्य नागरिक के लिए राम भरोसे रहने के अलावा और कोई उपाय नहीं बचता।
यह जानना दिलचस्प होगा कि कानून आखिर चलता किसके आसरे है। हमारे यहां कानून वकीलों, अधिवक्ताओं और अदालती कर्मचारियों के अधीन रहकर काम करता है। इसके विपरीत अमरीका और यूरोपीय देशों में कानून अपराध और मुकदमें से संबंधित विषयों के विशेषज्ञों को लेकर गठित की गयी ज्यूरी के माध्यम से चलता है। इस ज्यूरी में कानूनी विशेषज्ञ के अतिरिक्त मेडीकल, इंजीनियरिंग, आर्कीटेक्चर आदि क्षेत्रों के जाने माने लोग होते हैं जो उस विषय पर अपनी विशेषज्ञता के अनुसार राय देते हैं। इससे जज को फैसला करने में बहुत आसानी हो जाती है और दो तीन महीने में ही जटिल मुकदमों तक का फैसला हो जाता है। हमारे यहां वकील, बैरिस्टर अधिवक्ता, सालीसिटर ही सर्वज्ञानी होते हैं और जज साहब ज्यादातर उन्हीं की सलाह पर फैसला देते हैं।
निचली अदालत और वकील
निचली अदालतों के ज्यादातर फैसलों को हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट द्वारा बदल दिया जाता है। इसीलिए न्याय पाने के लिए लोग इनमें जाने की बजाए सीधे ही बड़ी अदालतों का रूख करने में ही भलाई समझते हैं क्योंकि वहां न्याय की उम्मीद अभी लगाई जा सकती है।
असल में होता यह है कि एक तो निचली अदालत और उनमें नियुक्त जज निर्धारित संख्या से लगभग आधे हैं और उनकी भी नियुक्ति वकीलों और प्लीडरों के बीच से ही की जाती है। दूसरा यह कि अदालतों की हालत ऐसी है कि वहां जज की प्रतिष्ठा के अनुकूल तो बैठने की उचित व्यवस्था है और ही मुवक्किलों के लिए कोई सुविधा होती है। यदि सच जानना हो तो किसी भी स्थानीय अदालत का चक्कर लगा आईए, भीड़भाड़, गंदगी और अफरातफरी का माहौल ही नजर आएगा।
निचली अदालतों के फैसलों पर वकील अपना असर डालने में इसलिए कामयाब हो जाते हैं क्योंकि वकील और जज आस पास ही रहते हैं, कभी कभी तो बिल्कुल पड़ौस में और दोनों में पारिवारिक मित्रता होने में देर नहीं लगती। दूसरी बात यह कि उनके बच्चे एक ही स्कूल में जाते हैं, महिलाएं एक ही बाजार से खरीदारी करती है और आपसी मेलजोल इस हद तक बढ़ने की नौबत आना स्वाभाविक है कि जज और वकील एक दूसरे की पीठ थपथपाने से लेकर सहलाने लगें। एक बार नकद या उपहारों का लेनदेन शुरू हुआ, मिल बैठकर शामें बीतने लगीं तो फिर कानून को ताक पर रखकर मनमर्जी फैसलें कराने का रास्ता साफ हो जाता है। इसे भ्रष्टाचार या आपसी व्यवहार कुछ भी नाम दे सकते हैं।
अब बात करते हैं उस कवायद की जो चार्जशीट दाखिल करने से लेकर फैसला लिखने तक की जाती है। हमारी अदालतों में चीर्जशीट 5-10 हजार पन्नों से लेकर 30-40 हजार पन्नों तक की भी हो सकती है। इसी तरह फैसले सैंकड़ो-हजारों पन्नों तक मेंं लिखे जाते हैं। इन चार्जशीटों और फैसलों को पढ़ना तो दूर उनकी भारी भरकम जिल्द देखकर ही तबीयत घबराने लगती है। एक बार किसी चार्जशीट या फैसले को पढ़ने की कोशिश करने भर से पता चल सकता है कि केवल कुछेक अन्तिम वाक्यों के उनमें पढ़ने और समझने लायक कुछ नहीं होता। वैसे उन्हें कोई पढ़ता भी नहीं है क्योंकि इतना समय किसी के पास नहीं होता इसलिए केवल खानापूर्ति होती है। क्या ऐसा नहीं हो सकता कि ज्यादा से ज्यादा 8-10 पन्नों की चार्ज शीट और 15-20 पन्नों में फैसला लिखने की सीमा निर्धारित कर दी जाए जिससे समय, धन, श्रम की बचत और मुव्वक्किल को परेशानी से निजात मिल सके।
निचली अदालतों की मोनिटरिंग का काम हाई कोर्ट के जिम्मे होता है। अपेक्षा यह की जाती है कि हाई कोर्ट से इस काम के लिए अचानक निरीक्षण हो और किसी को कानो कान खबर हो। परन्तु यह मानीटरिंग ढोल बाजे के साथ घोषणा करने के बाद होती है जिसमें असलीयत छिपाने का पर्याप्त अवसर रहता है। इस हालत में यह कहना कि जज दूध के धुले होते हैं, अपने आप में हास्यास्पद है क्योंकि वे भी उसी समाज में रहते हैं जहां भ्रष्टाचार में लिप्त वर्ग रहते हैं।
स्वार्थ का गठबंधन
एक और तथ्य यह है कि जिस मामले में जज, वकील, नेता और पुलिस की मिलीभगत होती है तो उसकी रिर्पोटिंग करने के लिए मीडिया को यह कहकर रोक दिया जाता है कि मामला संवदेनशील है, भावनाएं भड़क सकती हैं और तथ्यों को उजागर करना समाज के हित में नहीं है। क्या इसका मतलब यह नहीं होता कि इसमें निहित स्वार्थों का पोषण करने के लिए पर्याप्त सुविधा हो जाती है। जनता से छिपाकर कोई भी खेल खेला जा सकता है। अगर ऐसा होता तो कालाबाजारियों और भ्रष्टाचार के सिरमौर राजनीतिज्ञों के खिलाफ फैसला आने में 20-30 साल नहीं लग सकते।
जहां तक पुलिस का संबंध है, वह एकदम लाचार नजर आती है। उसके पास जुर्म कुबूलवाने के लिए मारपीट और टार्चर के अलावा कोई रास्ता नहीं होता। वैज्ञानिक ढंग से जांच पड़ताल, फोरेन्सिक पद्वति का ज्ञान और मनोवैज्ञानिक तरीके से तफतीश करने की ट्रेनिंग कहीं दी नहीं जाती। ऐसे में पुलिस बलात्कारी विधायक को माननीय और भ्रष्टाचार के आरोप में बंद मुख्यमंत्री को आदरणीय कहकर ही संबोधित करती है। पुलिस भी जानती है कि ये नेता ज्यादा दिन जेल में नहीं रहने वाले इसलिए उनसे बिगाड़कर अपना भविष्य अंधकारमय करने की जरूरत ही क्या है?
आपने देखा होगा कि ज्यादातर मामलों में समझदारी इसे ही समझा जाता है कि पुलिस और अदालत के पास जाए बिना आपसी बातचीत से मामले को जैसे तैसे सुलझा लिया जाए क्योंकि एक बार थाने, कोर्ट कचहरी में गये तो समझो बरसों बरस निकल जाएगें, पीढ़ियां भी खप सकती हैं लेकिन मुकदमों का फैसला नहीं हो पाएगा।
हमारे यहां तीन करोड़ से ज्यादा पेण्डिंग मुकदमें निपटाने में 350 साल लगने का अनुमान है। यह ऐसे ही नहीं जमा हो गये। उनके पीछे की वास्तविकता यही है कि वकील, जज और पुलिस की साठगांठ अक्सर प्रभावशाली और दबंग अपराधियों से हो ही जाती है और मामले को लटकाए रखने में ही उन्हें अपना अस्तित्व नजर आता है। आम आदमी निरीह भाव से इस गठबंधन को ताकता ही रहता है।

न्यायपूर्ण समाज की रचना का दायित्व सरकार का है। इसके लिए उसे यदि व्यवस्था में आमूलचूल परिवर्तन भी करना पड़े तो भी कोई हर्ज नहीं है वरना हमें न्याय व्यवस्था में पिछड़ेपन का शिकार बने रहने से कोई नहीं रोक सकता।

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