बलात्कार और सज़ा-ए-मौत
यह एक तथ्य तो है ही, हकीकत भी है कि कानून को चाहे जितना सख्त बना दीजिए, जब तक उस पर अमल कराने के लिए जिम्मेदार संस्थाएं और व्यक्ति सक्षम नहीं होंगे तब तक 20 साल, उम्रकैद और फांसी जैसी सजाओं पर ठोस कार्रवाई होना नामुमकिन है। केवल अपनी मर्जी या जनता के आक्रोश को ठंडा करने के चक्कर में पता नहीं कितने कानून हमारी किताबों की शोभा बढ़ा रहे हैं, परिणामस्वरूप कानूनों का ढेर तो बन गया लेकिन न्याय पाना उतना ही कठिन है जितना किसी सूखे गन्ने से रस निकलने की उम्मीद करना।
इस वास्तविकता को देखते हुए न केवल न्यायिक प्रक्रिया को सरल, दोषरहित बनाना होगा, पीड़ित के हित को सर्वोपरि रखना होगा बल्कि उसके लिए धन की पूर्ति सहित सभी वे उपाय करने होगें जो न्याय की आशा लगाए व्याक्तियों में विश्वास पैदा कर सके।
बलात्कार के आरोपी को फांसी दिये जाने को आर्डीनैंस जारी होने के बाद हमारी संसद द्वारा पारित किया जाना शेष है, इसलिए जरूरी हो जाता हे कि सरकार पोक्सो कानून में जो कमियां हैं उन्हें दूर करने के लिए ठोस कदम उठाए और जब संसद में इसे रखा जाए तो वे सब प्रावधान हों जो न्याय पाने के लिए अनिवार्य हैं।
उदाहरण के लिए पोक्सो कानून में प्रावधान है कि उसके अन्तर्गत मामलों का निपटारा करने के लिए विशेष अदालतों का गठन होगा, विशेष प्रासीक्यूटर होगें और ऐसी व्यवस्था की जाएगी कि आरोपी को सजा देने और पीडित को राहत मिलने में कम से कम समय लगे।
लीपापोती न हो
हमने क्या किया, इस पर ध्यान देने की जरूरत है क्योंकि जो किया है वह केवल लीपापोती है। विशेष अदालतों को विशेषरूप से गठित करने के बजाए हमने सेशन अदालतों को ही विशेष अदालत को दर्जा दे दिया। अब इनमें वकील से लेकर जज तक वही लोग हैं जो आंतकी, नारकोटिक्स, तस्करी, मिलावटखोरी जैसे मामलों की सुनवाई करते हैं। उनकी कार्यप्रणाली और मानसिक स्थिति बच्चों के साथ हुए यौन उत्पीड़न और बलात्कार जैसे मामलों में भी वही रहती है जो दूसरे मामलों मे होती है। पुलिस का रवैया भी दोनों अवस्थाओं में एक जैसा ही रहता है।
हमारी न्याय व्यवस्था की जिम्मेदारी ओढ़ने वाले यह भूल जाते हैं कि पीड़ित बच्चे जहां एक ओर बहुत कोमल स्वभाव के होते हैं, वहीं ज्यादातर मामलों में उनके साथ यह घिनौनी हरकत करने वाले या तो उनके हमउम्र अथवा कुछ साल बड़े होते हैं या फिर ज्यादातर मामलों में परिवार के परिचित, मित्र, संबंधी होते हैं जिनके प्रति बच्चों के मन में वह भावना नहीं होती जो किसी अपराधी के प्रति होती है और वह उनके खिलाफ बोलने में संकोच करता है।
बच्चे की सोच तब क्या होती होगी जब परिवार के लोग ही अपनी झूठी इज्जत को बचाने के लिए उस बच्चे पर ही दबाब डालने लगते हैं कि वह कुछ न कहे। जो आरोपी है उसे उस मनस्थिति का लाभ मिल जाता है और वह बरी हो जाता है।
इसके विपरीत यदि अपराधी कोई बदमाश, अपरहरणकर्ता या गुण्डा होता है तो अदालत में उसकी मौजूदगी में बालिका सच कहना तो दूर बोलने में भी हिचकिचाती है। वकील बच्चों से आरोपी के सामने ही तरह तरह के सवाल पूछते है और जब बच्चा चुप रहता है तो उसे उसकी सहमति समझकर अक्सर आरोपी को जमानत मिल जाती है और वह वकीलों के दांवपेंच की बदौलत बरी भी हो जाता है।
जिन मामलों में पीड़ित बच्चे के मातापिता संपन्न और रसूखदार होते हैं तो वे न्याय पाने के लिए सबकुछ करते हैं लेकिन अफसोस यह है कि अधिकतर मामलों में पीड़ित बच्चे गरीब घरों के होते हैं जिनके लिए पहली जरूरत दो वक्त की रोटी कमाने की होती है। अपनी संतान को अदालत से न्याय दिला पाना न तो उनकी औकात में होता है और न ही वह उनकी प्राथमिकता होती है।
जाँच का तरीका
जहां तक बलात्कार जैसे जघन्य अपराध की तफतीश करने के लिए नियुक्त की गई पुलिस की बात है तो उसके बारे में थोड़ा कहा ही बहुत समझना होगा। पुलिस के लोग पूरी तरह कर्मठ, मुस्तैद और अपने कर्तव्य के प्रति समर्पण रखने के बावजूद इस तरह की जांच पड़ताल के लिए उचित प्रशिक्षण के अभाव में अक्सर ऐसी गलतियां अनजाने में कर जाते हैं जिससे मामला सन्देहास्पद बन जाता है और आरोपी छूट जाता है।
एक ही उदाहरण काफी है। बहुचर्चित आरूषि हेमराज हत्याकांड में पुलिस के अप्रशिक्षित होने के कारण वे सभी सबूत मिट गये जो अपराधी तक पहुंचने में निर्णायक भूमिका अदा कर सकते थे। इसके कारण अभी तक सही अपराधी तक पहुंच नहीं पाए और इस दौरान उनके माता पिता ने अपराधी की हैसियत से अनेक वर्ष जेल में गवाँ दिए और उन्हें बाद में अपराधी न मानते हुए बरी भी कर दिया गया। ऐसे में इस बात का फैसला कौन देगा जिसमें तलवार दम्पत्ति को गलत सजा दिये जाने के लिए मुआवजा मिले और अपराधी पकड़ा जाए।
पोक्सो कानून में साफ कहा गया है कि बाल यौन अपराधों के लिए जाँचकर्ता एजेंसियों को सक्षम बनाने के लिए उचित मार्गदर्शन और प्रशिक्षण का इंतजाम अनिवार्य है। दुख की बात है कि निर्भया कोष के नाम पर रखी गयी विशाल रिश का इस मद में कतई इस्तेमाल नहीं हुआ। अब जब पुलिस या जाँचकर्ता एजेन्सी ही इतनी काबिल नहीं होगी कि सुबूत जुटाने में लापरवाही न हो तो फिर उसके नतीजे तो आरोपी के लिए फायदेमंद ही होंगे।
सामान्य पुलिस का काम केवल इतना होना चाहिए कि वारदात की जगह पर कोई भी किसी तरह की छेड़छाड़ न कर सके, पीड़ित की सुरक्षा का पुख्ता इंतजाम हो और आरोपी यदि फरार नहीं हुआ है तो उसे भी बिना मारपीट के उस जगह से जाने न दिया जाए।
इसके बाद पुलिस का कर्त्तव्य है कि डाक्टर, फोटोग्राफर और फोरेसिक एक्सपर्ट को बुलाने की व्यवस्था करे और उनके आने पर स्थल को उनके हवाले कर दे। अभी तक यह होता आया है कि पुलिस से ही हरेक काम करने की अपेक्षा की जाती है। जब तक विशेषज्ञ वहां पहुंचते हैं, घटनास्थल पर बहुत कुछ बदल जाता है। सबसे ज्यादा लोगों की भीड़ सबूत नष्ट करने का काम करती है।
पीड़िता के वस्त्र बदल दिये जाते हैं उसके यौनांग तथा दूसरे अंगों की सफाई कर दी जाती है और आरोपी को भी इस बात की मोहलत मिल जाती है कि वह अपने बच निकलने का कोई रास्ता सोच सके।
पीड़ित का भविष्य
जरा सोचिए दुष्कर्म के बाद पीड़िता को भी उन बाल सुधार गृहों में भेजा जाता है जहां दूसरे बाल अपराधी होते हैं। चाईल्ड हेल्पलाईन और चाईल्ड वेलफेयर कमेटी के पास इतने संसाधन ही नहीं होते कि वे बलात्कार पीड़ित के शारीरिक उपचार के साथ साथ मनोवैज्ञानिक ढंग से उसकी मनस्थिति को समझकर चिकित्सा का प्रबंध करें।
यही कारण है कि पीड़िता दुष्कर्म के बाद स्वंय से घृणा करने लगती है, वह अपने को ही अपराधी मानने लगती है और आत्महत्या करने तक का कदम उठा लेती है। उसकी पढ़ाई लिखाई बंद हो जाती ह। मां बाप भी उसे बोझ समझते लगते हैं, मामले को रफादफा करने की कोशिश करते हैं और जल्दी से जल्दी उसकी शादी कर देने की बात सोचने लगते हैं।
ऐसे मामलों में होना तो यह चाहिए कि सरकार प्रतिष्ठित गैर सरकारी संस्थाओं के साथ मिलकर रिहैबिलिटेशन सेन्टर बनाए जहां पीड़ित बच्चियां जीवन को सकारात्मक ढंक से ले और अपने आप को अपराधबोध, ट्रामा और हीनभावना से बाहर निकाल सके। इस प्रकार के सेन्टरों में बाल चिकित्सकों, संवेदनशील पुलिसकर्मियों और बाल मनोविज्ञान समझने वाले विशेषज्ञों की स्थाई नियुक्ति का प्रबन्ध हो। इसमें पीड़ित के मन से दुखद स्मृति को निकाल पाना संभव हो पाएगा और वह जीवन को पहले की तरह बल्कि अधिक उर्जा से जीने को प्राथमिकता बना लेगी।
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