शुक्रवार, 5 अक्तूबर 2018

मंत्री को वादा खिलाफी, अधिकारी को कोताही की सजा का कानून हो।



नाकेबंदी


हमारे देश में शिलान्यास, उद्घाटन, फीता काटना, बयानबाजी करना और ऐसी घोषणाएँ करना जो जनता को राहत कम और उनकी परेशानी और क्रोध को बढ़ावा ज़्यादा देती हों, उनसे सम्बंधित विभागों के मंत्रियों के लिए बहुत आसान इसलिए है क्योंकि वह अक्सर अपनी जिम्मेदारी अधिकारियों पर डालकर साफ बच निकलते हैं। जनता अधिकारियों के पास जाती है तो वह टका सा जवाब देते हैं कि उन्हें मंत्री जी की कही बात कब पूरी होगी इसकी कोई जानकारी नहीं है। वजह यह होती है कि घोषित योजना का कोई तो सिर पैर होता है उसका कोई ताना बाना बना होता है। अब पब्लिक हालाँकि सब जानती है पर बेबस है।

एक उदाहरण से बात समझ में आएगी जो कमोवेश सभी जगहों पर जो हालात हैं, उनकी वास्तविकता है।
दिल्ली से सटे औद्योगिक नगर और रहने के लिए एक अच्छी जगह के रूप में नौएडा के लिए मंत्री जी की तरफ से बयान आता है कि यह अब नो पॉवर कट जोन हो गया है, मतलब यह कि यहाँ बिजली कभी जाएगी और ही अब जेनरेटर से पैदा बिजली से घर दफ्तर और उद्योग चलाने की जरूरत है और उन पर बैन लगा दिया गया है।


अब हकीकत यह है कि शायद ही कोई ऐसा रिहायशी इलाका होगा या कमर्शियल और इंडस्टरियल इलाका होगा जहाँ बिजली की आँख मिचौली होती हो। बिजली के जाने का तो पता होता है लेकिन आने के मामले में अधिकारी ऊपर इशारा करते हुए कहते हैं कि भगवान ही जाने कब बिजली मिलेगी।


असल में सरकार कोई घोषणा करने से पहले यह जानने की कोशिश ही नहीं करती कि जमीनी हकीकत क्या है। यह ठीक है कि अगर मान भी लिया जाए कि शहर के लिए पर्याप्त बिजली है लेकिन जब उसके सही डिस्ट्रिब्यूशन की बात आती है तो स्थिति बहुत भयावह दिखाई देती है।  



बाबा आदम के जमाने के ट्रान्सफॉर्मर, टूटे और उखड़े बिजली के खम्बे और जोड़ तथा पैबंद लगी वायरिंग की वजह से बिजली अगर जरूरत के आधार पर पूरी है भी तो वह इन खामियों के कारण उपभोक्ता तक पहुँच ही नहीं पाती। अगर किसी सेक्टर से ज्यादा शोर हुआ तो वहाँ लीपाई पूतायी कर उन वी आई पी सेक्टरों के उतरे ट्रान्सफॉर्मर लगा देते हैं जो बिजली की रोशनी से जगमगाते रहते हैं और अधिकारी यह सुनिश्चित किए रहते है कि वहाँ एक सेकंड को भी बिजली जाए। इन कुछेक चुनिंदा इलाकों के रोशनी से सराबोर रहने से पूरे शहर को नो कट जोन घोषित कर देना और जेनरेटर के इस्तेमाल पर पाबंदी लगा देना केवल अन्याय है बल्कि ऐसे मंत्री हों या अधिकारी उन पर आपराधिक मुकदमा चलाए जाने और सजा दिए जाने का ठोस कारण भी हैं।


एक दूसरा उदाहरण है कि जब से सफाई आंदोलन शुरू हुआ है शायद प्रधानमंत्री को खुश करने के लिए स्थानीय प्रशासन, निकायों, जिलों से लेकर शहरों तक को खुले में शौच से मुक्त और सफाई में अव्वल घोषित करने की होड़ सी लगी हुई है जबकि असलियत इससे अभी कोसों दूर है।


इतनी सी बात अगर मंत्री और अधिकारी समझ लें कि इस मामले में हम तब तक कामयाबी से बहुत दूर हैं जब तक लिक्विड और सॉलिड वेस्ट के डिस्पोजल का पक्का इंतजाम नहीं होता। शहरों और कस्बों में कूड़े के पहाड़ कहावत के लागू होने की गवाही देते हैं कि थोथा चना बाजे घना।


हादसों के कारण

सड़कों को लेकर रोजाना कुछ कुछ बयानबाजी होती रहती है लेकिन जब हकीकत में गढ़ों में सड़क खोजने की नौबत आए तो कथनी और करनी का अंतर साफ नजर आने लगता है।


मिसाल के तौर पर यह जो हाईवे और एक्सप्रेस वे बनाकर फर्राटे से गाड़ियाँ दौड़ाने का प्रबंध कर दिया जाता है लेकिन जब उस सड़क को पार करने के लिए स्थानीय आबादी के लिए कोई सब वे नहीं बनाया जाता और दुर्घटनाओं का ताँता लग जाता है या फिर बीच सड़क पर कोई ढोर या दूसरा पशु आने से भयानक हादसा हो जाता है तो सरकार मुआवजे से पीड़ित को पटाने में लग जाती है।


सोच की कमी


वास्तविकता यह है कि ज्यादातर सड़क दुर्घटनाओं का कारण उनका खराब डिजाईन, घटिया सामग्री का इस्तेमाल और सुरक्षा उपायों की अवहेलना है और इसके लिए जनता जिम्मेदार नहीं बल्कि सरकार के मंत्री से लेकर संतरी तक हैं।


अक्सर इन्हें नई टेक्नॉलजी का इस्तेमाल तो दूर ज्ञान भी नहीं होता और विडम्बना यह है कि ये लोग स्वदेश में ही निर्मित टेक्नॉलाजी को नजरंदाज कर विदेशों में उनके द्वारा उनकी आवश्यकता के अनुसार बनाई गई टेक्नॉलजी को यहाँ अपने देश में अमल में लाने के लिए आयात करते हैं। यह किसी मिलीभगत या भ्रष्टाचार का ही संकेत है। घर का जोगी जोगना और आन गाँव का सिद्ध करता है।


राजनेताओं और अफसरों के लिए इसकी वजह जानना कोई रॉकेट विज्ञान नहीं बल्कि आम समझ में आने वाली बात है कि स्वदेशी तकनीक के आगे विदेशी तकनीक को तरजीह देने के पीछे क्या राज है।

आज हम विज्ञान और तकनीक के मामले में दूसरे देशों से बहुत आगे हैं चाहे वह भवन या सड़क निर्माण हो, कूड़े या कचरे को उपयोगी खाद में बदलना हो, प्लास्टिक प्रदूषण से मुक्ति पानी हो या फिर विद्युत उत्पादन के लिए सौर और पवन ऊर्जा के संयंत्र लगाने हों।


पीने का पानी सुलभ नहीं


इसे क्या कहेंगे कि देश में जल स्रोतों का अपार भंडार होते हुए भी हम जल प्रदूषण की समस्या से जूझते रहते हैं। पीने का साफ पानी घर घर तक पहुँचना सुलभ हो इसके बजाय जरूरत का पेय जल भी हमें नहीं मिल रहा है। पानी की आपूर्ति भी बिजली की तरह संकटों से घिरी रहती है।

इन सब उलझनों से निकलने का एकमात्र उपाय यही है कि जब तक हमारी न्यायिक व्यवस्था में योजनाएँ बनाने और उन पर अमल के लिए जिम्मेदार मंत्रियों और अधिकारियों को कटघरे में खड़ा करने की परम्परा की शुरुआत नहीं होगी तब तक हालात में गुणात्मक परिवर्तन की उम्मीद बहुत कम है।


भय बिन प्रीत नहीं होती


नागरिक सुविधाओं को लेकर सामान्य व्यक्ति की परेशानी का हल तब ही निकलना संभव है जब नीतियाँ बनाने वालों को यह डर रहेगा कि कोई सजा उन्हें भी मिल सकती है अगर उनके काम में ईमानदारी और पारदर्शिता होने के पूरे सबूत जनता को मिल जाते हैं। 


यह शेर यहाँ सटीक बैठता है :


यह जानते हुए भी कि बेसूद हैं फुगां (शिकायत )
खामोश तेरे दर्द का मारा रह सका।


यह काम हर पाँच साल बाद चुनाव में पार्टी बदलने और नए लोगों की सरकार बनने से नहीं होगा बल्कि कानून में ऐसे बदलाव करने से होगा जिससे चाहे कोई भी दल सत्ता हासिल करे उसे यह डर लगता रहे कि राजनीति करना या बड़ा अधिकारी बनना फूलों की सेज नहीं काँटों पर चलने के समान है।


प्यार की रीत और उम्र का फासला

अक्सर जब अपने आसपास अपने जैसे ही लोगों के बीच इस प्रकार के सम्बंध विकसित होने के बारे पढ़ते सुनते और देखते हैं जो समाज के सामान्य चलन से कुछ हटकर होते हैं तो कौतुहल, आश्चर्य से लेकर नफरत जैसे मिलेजुले भाव पैदा हो जाते हैं।

संसार का अस्तित्व प्रेम सम्बंधों पर टिका हुआ माना जाता है। सृष्टि का जन्म भी प्रेम के शाश्वत रूप स्त्री पुरुष के बीच अंतरंग सम्बंधों से ही हुआ है।

यदि सब कुछ सामान्य भाव से चलता रहता है तो समाज में किसी को कोई परेशानी नहीं दिखाई देती। दिक्कत तब होने लगती है जब कुछ असामान्य हो जाए। ऐसे स्त्री पुरुष के बीच प्यार पनपने लगे जिनकी उम्र में एक बड़ा फासला हो तो हंगामा सा हो जाता है। आम तौर से दस से बीस वर्ष का अंतर समाज किसी तरह स्वीकार कर लेता है मतलब कि ऐसे जोड़े पति पत्नी या प्रेमी प्रेमिका के रूप में एक साथ जीवन साथी के रूप अपना घर संसार बसा सकते हैं।

अगर कहीं यह तीस चालीस या उससे अधिक हुआ और ऐसे व्यक्ति एक साथ प्रेम की पींग बढ़ाते मिल या दिख जायें तो मानो एक तूफान सा जाता है। पुत्री से पोती और पिता से दादा तक की उम्र के दो स्त्री पुरुष के बीच प्रेम सम्बंध होने पर केवल उँगलियाँ उठती हैं बल्कि ऐसे जोड़ों को समाज में अव्यवस्था से लेकर अराजकता का प्रतीक भी मान लिया जाता है। 


प्रेम प्यार की इस रीत को लेकर समाज का एक वर्ग इसमें कुछ भी अनहोनापन नहीं पाता लेकिन एक बड़ा वर्ग इसका विरोधी ही नहीं उन्हें अपने ढंग से जीवन जीने की आजादी देने पर ही अंकुश लगा देना चाहता है।
पत्रकारिता, लेखन, नाटक, रंगमंच, अभिनय, गायन, नृत्य, कला के विभिन्न रूपों और व्यापार के क्षेत्रों में एक साथ काम कर रहे दो स्त्री पुरुषों के बीच उम्र का बड़ा फासला होने के बावजूद आत्मीय से लेकर प्रेम प्यार के सम्बंध बन जाना असामान्य तो है लेकिन अस्वाभाविक और नफरत करने लायक तो कतई नहीं है।


इस बारे में पाठकों की अपनी अपनी राय हो सकती है लेकिन समाज का यह सत्य है कि प्रेम प्यार की रीत हमेशा से कुछ अलग और अनहोनापन लिए हुए भी होती है। इसलिए गालिब की यह बात किइश्क ने गालिब निकम्मा कर दिया वरना आदमी हम भी काम के थेऐसे जोड़ों पर लागू की जा सकती ळें

भारत

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