शुक्रवार, 12 अप्रैल 2019

कर्मठ बनाए रखने और हाथ पर हाथ धरकर बैठाने के बीच बहुत अंतर है



चुनाव घोषणा पत्र और मतदान


यह विडम्बनापूर्ण स्थिति है कि हमारे यहाँ अधिकांश वोटर मतदान करने राजनीतिक दलों के घोषणा पत्रों पर विचार या चर्चा किए बिना ही चला जाता है। दल भी इस मनःस्थिति को भाँपकर आसमान से तारे तोड़ लाने जैसे वायदे कर देते हैं क्योंकि वह जानते हैं कि चुनाव जीतने के लिए मनभावन नारों से ही वोटर की मति को भ्रम में रखा जा सकता है।


भारत को राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय मंचों पर एक युवा देश माना जाता है। युवा का अर्थ जोश से भरपूर होना या फिर यूँ कहें कि ठोकर मारकर जमीन से पानी निकालना कह सकते हैं। हालात चाहे कैसे भी हों, सम्पन्न हों या विपन्न, गरीब हों या अमीर, आगे बढ़ने और तरक्की करने के सपने सब ही देखते हैं और यही युवा होने का मतलब भी हैं।



अब प्रश्न उठता है कि अगर आप उसके सपने को सच बनाने के लिए उसे कुछेक साधन दे देते हैं ताकि वह अपने पैरों पर खड़ा होकर आगे चल सके या उसे बिना कोई काम किए नकद थमा देते हैं तो इसमें क्या बेहतर है?


राजनीतिक दलों द्वारा हर महीने किसी को मुफ्त रक़म देने का वायदा कर देना ऐसा ही है जो कर्मठ बनाने की बजाय हाथ पर हाथ रखकर बैठाने जैसा है। यदि युवा शक्ति को राष्ट्र शक्ति के रूप में बदलना है तो हर हाथ को काम देने से ही यह सम्भव हो सकता है।



कृषि, उद्योग और टेक्नॉलोजी


कृषि प्रधान और तेजी से औद्योगिकीकरण की ओर बढ़ रहा देश होने के नाते यह जरूरी है कि खेतीबाड़ी को केवल आधुनिक ज्ञान विज्ञान और नवीनतम तकनीक आधारित यंत्रों से जोड़ा जाए बल्कि उसे उद्योग धंधों के साथ भी जोड़ा जाए। इसका मतलब यह है कि हमारे खेतों में इस तरह की फसलें भी उगाई जाए जो सीधे उद्योगों के लिए कच्चे माल का काम करे और कल कारखाने भी इस तरह के लगें जो उपज को उपभोक्ता तक पहुँचाने के लिए उसकी क्वालिटी से बिना कोई समझोता किए खाद्य सामग्री या कोई अन्य उपयोगी वस्तु तैयार करें।



सन २०२२ तक किसानों की आय दुगुनी करने के संकल्प को पूरा करने के लिए पिछले पाँच वर्षों में इतना तो हुआ है कि जहाँ पहले बहुत थोड़े से किसान टेक्नॉलोजी का इस्तेमाल करते थे। आज ज्यादातर किसान इसे अपना रहे हैं। इस बात की भी शुरुआत हो चुकी है कि जहाँ पहले किसान परिवार शहरों का रूख करने को बोरियाँ बिस्तर बाँधकर तैयार रहते थे, केवल स्वयं खेतीबाड़ी की तरफ लौट रहे हैं बल्कि पहले से गाँव छोड़कर चले गए युवाओं को भी वापिस लौटने की प्रेरणा दे रहे हैं। इसका कारण यही है कि अब कृषि घाटे का सौदा कम और मुनाफे का व्यवसाय ज्यादा बनता जा रहा है।



कृषि क्षेत्र में २५ लाख करोड़ के निवेश का वायदा पूरा हो गया तो फिर सम्भव है कि किसानों को कभी पीछे मुड़कर देखना पड़े एक लाख रुपए तक का ब्याजमुक्त ऋण इसे और आसान बना सकता है। किसान की कर्ज मुक्ति का भी यही उपाय है कि उसे इतना समर्थ कर दिया कि केवल वह पिछला कर्ज चुका दे बल्कि आगे कभी कर्जदार बनने की नौबत आए और कर्ज लेने के बजाय जरूरत पड़ने पर रुपए पैसे से दूसरों की भी मदद कर सके। इससे किसान को तो मुफ्तखोरी की आदत पड़ेगी और वह हर बात के लिए सरकार या साहूकार का मुँह ताकने के लिए मजबूर होगा।


किसान स्वाभाविक रूप से स्वावलंबी और आत्मसम्मान से जीने वाला व्यक्ति होता है, उसे मुसीबत से बाहर निकालने का रास्ता उसकी कर्जमाफी या नकद सहायता कर देना नहीं है बल्कि उसे खेतीबाड़ी के लिए जरूरी बिजली, पानी, खाद, बीज, कीटनाशक देने का इंतजाम करना है। यह संसाधन यदि उसे उसकी होने वाली फसल के एवज में मुफ्त भी सरकार दे दे तो घाटे का सौदा नहीं है।


इस दृष्टि से देखा जाए तो भाजपा का संकल्प कोंग्रेस के निभाएँगे से कहीं ज्यादा बेहतर है। किसान की खुशहाली और ग्रामीण अर्थव्यवस्था की मजबूती ही पूरे देश की प्रगति की जड़ है, यह जितनी गहरी होगी उतनी ही अधिक सम्पन्नता आएगी।


जहाँ तक औद्योगिक विकास की बात है तो जब तक देश में छोटे और मंझोले उद्योगों का जाल नही बिछेगा और उसे शहरों की बजाय गाँव देहात और दूरदराज के इलाकों में नहीं स्थापित किया जाएगा , तब तक ग्रामवासियों से लेकर आदिवासियों तक प्रगति की रोशनी नहीं पहुँच सकती। यह मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर को इन इलाकों में ले जाने से आसानी से किया जा सकता है। इसके साथ साथ हमारे जो टेक्नॉलोजी सेंटर और विज्ञान केंद्र हैं, वे भी ग्रामीण क्षेत्रों में स्थापित हों और वैज्ञानिक वहाँ जाकर अनुसंधान करें और नागरिकों को टेक्नालोजी आधारित सुझाव दें और उनका क्रियान्वयन सुनिश्चित करें।


इसके लिए कृषि और विज्ञान से सम्बंधित जो भी नयी प्रयोगशाला खुले वो ग्रामीण इलाकों में हो और वर्तमान प्रयोगशालाओं को भी वहीं ले जाया जाए तो यह काम केवल जल्दी और आसानी से हो जाएगा बल्कि विश्व में हम विकसित देशों की कतार में भी बहुत शीघ्र जाएँगे।


यह काम तो छह हजार मुफ्त में देने या सरकारी नौकरियाँ पैदा करने से हो सकता है और ही कर्जमाफी से हो सकता है। यह पुराने तरीके हैं, जब हमारे संचार और दूसरे साधन इतने विकसित नहीं थे। आज जब हम आर्टिफिशियल इंटेलिजेन्स, रोबोटिक अनुसंधान, वेस्ट से ऊर्जा और सम्पदा पैदा करने के दौर में चुके हैं तो मुफ्तखोरी की आदत डालने की बातें बचकानी ज्यादा लगती हैं जिसका विकास से कोई मतलब नहीं है।


राष्ट्रीय सुरक्षा और आर्थिक सुधार



आज की परिस्थितियाँ कुछ ऐसी हो गयीं हैं कि यदि हमारी सीमाएँ सुरक्षित नहीं हैं, आतंकवादियों के हमलों का शिकार बनने से बचने के लिए समूचे उपाय नहीं किए गए हैं तो देश में किए गए आर्थिक सुधारों का कोई विशेष अर्थ नहीं रह जाता। मतलब यह है कि आर्थिक मोर्चे पर फतह हासिल करने के लिए राष्ट्रीय सुरक्षा का पुख्ता इंतजाम होना जरूरी है।


जम्मू कश्मीर को भारत का अभिन्न अंग कहने की जरूरत बार बार क्यों पड़ती है जबकि किसी अन्य राज्य के बारे में ऐसा सुनने में आता है ही कहने या जताने की जरूरत पड़ती है। इसका एकमात्र कारण यह है कि इस राज्य को दिए गए कुछ विशेष अधिकार वहाँ के नागरिकों को केवल बाकी देश के नागरिकों का प्रतिद्वंद्वी बनाते हैं बल्कि विरोधी भी बनाते हैं। इस विरोध को स्वर पाकिस्तान से मिलता है जो आतंकवाद के रास्ते से पूरे देश की नींद हराम किए रहता है।


इस समस्या का एकमात्र हल यही है कि एक झटके में विशेष अधिकारों को समाप्त कर इस राज्य को भी भारत का अभिन्न अंग उसी प्रकार माना जाए जैसा कि दूसरे राज्य हैं। ऐसा होने पर जम्मू कश्मीर की प्रगति दिन दूनी और रात चौगुनी रफ्तार से होगी, इसमें कोई संशय नहीं है।


आर्थिक सुधारों का पूरा लाभ, उद्योग धंधों की स्थापना और सीमाओं की चौकसी ही इस स्वर्ग से सुंदर राज्य को खुशहाली के द्वार तक पहुँचा सकती है।


ऐसा क्यो  होता है?


क्या कभी यह सोचा है कि मतदान क्यों ज्यादातर क्षेत्रों में साठ प्रतिशत तक ही सिमट जाता है?
जिन लोगों ने पिछली बार वोट डाला था, इस बार उनके नाम वोटर लिस्ट से गायब क्यों हैं? चुनाव आयोग क्यों इस दिशा में चुप्पी साध लेता है और कोई कार्यवाही नहीं करता? यह कहना एकदम गलत है कि वोटर वोट डालने के लिए बूथ तक नहीं आता बल्कि सच यह है कि वहाँ अपना नाम पाकर वह अपराध बोध से ग्रस्त हो जाता है कि वोट डालकर उसे उसके अधिकार का इस्तेमाल करने से रोका गया है।इसी प्रकार वे वोटर जो किसी कारणवश बाहर हैं, क्या यह उनका अपराध है जिसकी सजा उन्हें वोट देने से वंचित कर के दी जाती है? इसका हल केवल चुनाव आयोग निकाल सकता है, जिम्मेदारी भी उसकी है, उसकी तरफ से ही इसका जवाब मिलना चाहिए वरना राजनीतिक दल तो इसका फायदा उठाएँगे ही ! जरा सोचिए?


(भारत)

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