शुक्रवार, 26 अप्रैल 2019

राजनीति में धर्म और जाति की मिलावट क्या कहती है ?







पहचान का जरिया 


हमारा संविधान हमें सेक्युलर यानि धर्मनिरपेक्ष बनाता है। इसका अर्थ कतई धर्मविहीनता नहीं है बल्कि यह है कि  जन्म लेते ही जिस परिवार में आँख खुली, उसका जो भी धर्म हो, वही जीवन भर चलता है। समझ आने पर अगर लगे कि कोई दूसरा धर्म बेहतर है तो उसे अपनाया जा सकता है वरना स्वधर्म में निधन अर्थात मृत्यु होना ही श्रेष्ठ है।


इसी प्रकार जन्म लेते ही हमारी जाति भी तय हो जाती है जिससे हम समाज में अपनी पहचान बनाने का काम लेते हैं। हालाँकि दुनिया के अधिकांश देशों में जाति नाम की चिड़िया तक नहीं होती, हमारा देश प्राचीन काल से वर्ण और जाति पर आधारित रहा है


जिसकी जड़ इतनी गहरी है कि सदियों की कोशिश के बाद भी देश से जातिवाद समाप्त होने की बजाय पहले से अधिक फलता फूलता रहा है। जब यह हकीकत है तो इसे नेस्तनाबूद करने का सपना देखने के स्थान पर इसकी अच्छाइयों को अपनाकर और बुराइयों को तिलांजलि देकर जातिवाद को देश की तरक्की में इस्तेमाल करने में ही क्या समझदारी नहीं है? जरा सोचिए!


जहाँ तक धर्म की बात है, यदि उसका अर्थ संक्षेप में निकाला जा जाए तो वह बस इतना ही है कि धर्म जीवन जीने की एक शैली है। हमारी जो भी मान्यताएँ, परम्पराएँ, संस्कृति, आस्था, विश्वास और यहाँ तक कि भाषाएँ और बोलियाँ हैं, उन सब का मिलाजुला स्वरूप हमारे जन्म का या बाद में अपनाया धर्म एक ऐसा नाजुक आइना है कि जरा सी ठेस लगने पर इसके टूट कर बिखर जाने की सम्भावना हमेशा बनी रहती है।


मिसाल के तौर पर अंग्रेजों ने धर्म की आड़ में लोगों को लड़ाया और देश का विभाजन तक हो गया। इसके बाद भी न जाने कितनी बार देश में धर्म की किसी भी बात पर दंगे, आगजनी, मारपीट, हिंसा की वारदात समाज विरोधी तत्वों से लेकर विदेशी  ताकतों द्वारा, हमें अस्थिर करने के लिए की जाती रही हैं। यह क्यों होता है, इसके लिए इतना ही समझना काफी है कि जब धर्म की ठेकेदारी होने लगती है तो देश हो या समाज, उसके टूट कर बिखरने की शुरुआत हो चुकी होती है।


ऐसे भी सैंकड़ों उदाहरण हैं जिनमें धर्म के आधार पर लोगों को जोड़ने और बिना किसी भेदभाव के केवल मानवता के आधार पर सभी जीवों की सेवा करने का काम किया जाता रहा है। यही कारण है कि कुछ धर्म विश्व में सर्वमान्य होते गए और कुछ बहुत सीमित दायरे में ही बँधकर रह गए।


विभिन्न धर्मों के जो मान्य ग्रंथ हैं जैसे कि गीता, बाइबिल, कुरान, ग्रंथ साहिब - इन सब के रचनाकारों ने किसी भी दुविधा, परेशानी, मुसीबत या आफत से निकलने अथवा सवाल का जवाब खोजने के लिए इनमें कही बातों को पत्थर की लकीर समझने का आसान रास्ता बता दिया था। विडम्बना यह है कि समाज में धर्म के ठेकेदारों ने इन्हें केवल शपथ लेने और कुछेक रीति रिवाजों तक ही सीमित कर दिया और यह ग्रंथ घर की अलमारियों में सजावट की वस्तु होकर रह गए।


राजनीति की दखलंदाजी 


धर्म और जाति का जब तक स्वतंत्र अस्तित्व बना रहा तब तक तो ज्यादातर सब कुछ ठीक ठाक ही चलता रहा, लेकिन जैसे ही इनमे राजनीति का प्रवेश शुरू हुआ तो हालात का बद से बदतर होते जाना निश्चित था।


राजनीतिक दलों और उनके नेताओं का काम क्या है, यही न कि वे लोगों के नागरिक अधिकारों की सुरक्षा के इंतजामों को मजबूत करने का काम करें लेकिन जब सत्ताधारी हों या विपक्ष, राजनीतिक दल धार्मिक और जातीय अधिकारों की पैरवी करने लगते हैं तो उसका नतीजा दुश्मनी के रूप में ही तो सामने आएगा।


इसे यूँ समझ सकते हैं कि किसी नेता का धर्म उसका मार्गदर्शन तो कर सकता है लेकिन यदि वह नेता किसी धर्म या जाति के पक्ष में आ जाता है तो यह अशुभ संकेत है, इसका मतलब यह है कि वह समाज को धर्म और जाति के नाम पर बाँटना चाहता है जो किसी प्रकार से सही नहीं है। नेता की जिम्मेदारी है कि वह सामान्य व्यक्ति का प्रतिनिधित्व करे और यदि वह इसके लिए धर्म का इस्तेमाल उन्हें जोड़कर रखने के लिए करता है तब तो ठीक है लेकिन अगर वह तोड़नेवाली हरकत करता है तब वह अपराधी बन जाता है जिसकी सजा मिलनी ही चाहिए।


इसका सबसे बड़ा उदाहरण नेताओं द्वारा धर्म और जाति के आधार पर वोट माँगने पर चुनाव आयोग द्वारा दंडित किया जाना है। इन नेताओं को समझ में आ जाना चाहिए कि धर्म और जाति का इस्तेमाल लोगों को जोड़ने के लिए तो किया जा सकता है लेकिन तोड़ने के लिए नहीं। उम्मीद है कि इससे धर्म और जाति के आधार पर शासक बनने की इच्छा पर लगाम लगेगी।


हालाँकि अनेक राज्यों से लेकर केंद्र तक में धर्म और जाति के आधार पर सरकारें बनाने की कोशिशें होती रही हैं लेकिन वे कभी भी टिकाऊ नहीं हो सकीं । इसके विपरीत सब को साथ लेकर और समान भाव से सभी की भलाई के लिए योजनाएँ बनाने और उन पर बिना किसी भेदभाव के अमल करने वाली सरकारें ही देश में अधिक समय तक टिक पाई हैं।


प्रश्न उठता है कि लोग धर्म और जाति के आधार पर किसी को अपना प्रतिनिधि क्यों चुनते है तो इसका सीधा सा मनोवैज्ञानिक तर्क यह है कि किसी दूसरे धर्म या जाति के व्यक्ति पर आसानी से विश्वास नहीं होता। यह विश्वास केवल तब ही हो सकता है जब देश में शिक्षा का विस्तार हो और चुनाव करने के लिए ऐसे उम्मीदवार हों जो पढ़े लिखे, ज्ञानवान और विज्ञान के पक्षधर हों न कि धार्मिक और जातिवादी आधार पर चुनाव जीतना चाहते हों।


क्या यह सम्भव ही?


यह हो सकता है बशर्ते कि धर्म और जाति के आधार पर बने राजनीतिक दलों की मान्यता समाप्त कर उन्हें चुनाव लड़ने से रोका जाए क्योंकि यही दल अपने धर्म और जाति के लोगों को सुरक्षा देने के नाम पर असहिष्णु बनाते हैं और उन्हें साम्प्रदायिक रंग में रंगने का काम करते हैं। ऐसा होने पर जाति संघर्ष होने की नौबत आने से बचा जा सकता है और हमारे नेता चाहे कितने भी चतुर क्यों न हों देशवासियों को इस आधार पर कभी बाँट नहीं पाएँगे।



धार्मिक प्रचार या अपनी जाति के विकास के लिए संस्थाएं बनाई जा सकती हैं लेकिन उन्हें राजनीतिक गतिविधियों में भाग लेने की मनाही हो। बहुत से दल राजनीति का चोला ओढ़कर धर्म और जाति के नाम पर ध्रुवीकरण करने लगते हैं। इसमें एक सम्प्रदाय का तुष्टिकरण, किसी व्यक्ति का महिमामंडन और विरोधियों पर बेबुनियाद लांछन लगाने का काम आसान हो जाता है और अगर कहीं यह दल शासक बन गए तो फिर देश में प्रजातंत्र के बजाय तानाशाही का ही बोलबाला होगा।


इसके लिए चाहे कानून बने, संविधान में संशोधन करना पड़े, किसी भी राजनीतिक दल का गठन धर्म और जाति के आधार पर नहीं होने देना चाहिए और यदि कोई राजनीतिक दल या नेता धर्म और जाति के आधार पर चुनाव लड़े, वोट मांगे तो उसकी मान्यता रद्द करने का प्रावधान होना चाहिए।


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