शुक्रवार, 21 जून 2019

महिला सशक्तिकरण सीमित परिवार, शिक्षा और बराबरी से ही सम्भव है








मलिंडा गेट्स 


विश्व के सबसे धनी परिवार और अपने उद्यम, सोच और दानशीलता के लिए प्रसिद्ध बिल और मलिंडा गेट्स की छाप आज दुनिया भर में उनके विभिन्न कार्यों के माध्यम से देखी जा सकती है।

मलिंडा गेट्स दुनियाभर में समाज के लिए उपयोगी कार्यक्रमों के लिए जानी जाती हैं। हाल ही में उनकी पुस्तक ‘द मोमेंट ऑफ लिफ्ट‘ पढ़ी जिसमें उनके द्वारा किए गए कार्यों का संक्षिप्त लेखा जोखा तो है ही, परंतु उससे भी अधिक समाज में महिलाओं की सोच बदलने और उन्हें स्वयं को पहचान कर अपनी उपस्थिति का एहसास कराने की बात बड़ी मजबूती से रखने का एक प्रमाणित दस्तावेज है।


इस पठनीय पुस्तक में उन्होंने संसार भर के विकासशील और गरीबी से लड़ रहे  देशों में महिलाओं की हालत का जायजा तो लिया ही है, साथ ही वह वहाँ उनकी हालत  में सुधार लाने की दृष्टि से जो कुछ भी अपनी फाउंडेशन तथा व्यक्तिगत रूप से कर सकती हैं, उसकी रूपरेखा तैयार करने से लेकर उन्हें अमली जामा पहनाने का भी महत्वपूर्ण कार्य किया है।यह जानकर सुखद आश्चर्य होता है कि एक धनवान व्यक्ति एक गरीब और जिंदगी तथा समाज के सबसे निचले पायदान पर खड़ी महिला के दर्द और तकलीफ को न केवल महसूस कर पाता है बल्कि उसे हाथ पकड़ कर ऊपर लाने की कोशिश करता है और उसमें कामयाब भी होता है।



महिला की मर्जी जरूरी


भारत के संदर्भ में इस किताब में अनेक ऐसी कहानियाँ हैं जो हमारी बदलती दुनिया का आइना हैं और यह बात सिद्ध करती हैं कि अगर महिला को ताकतवर बनाना है तो सबसे पहली शर्त उसे पुरुष की मर्जी से नहीं बल्कि अपनी पहल पर संतान को जन्म देने का अधिकार मिलना है, उसके बाद उसके पढ़ने लिखने और अपनी इच्छा से जो वह चाहे करने की इजाजत पुरुष से लेने की जरूरत न हो।


मलिंडा ने अपनी माँ की बात को अपने जीवन का मूल मंत्र बना लिया कि ‘अगर आप अपना अजेंडा खुद नहीं बनाते तो कोई और तय कर देगा कि क्या करना है और क्या नहीं करना है। अगर मैं अपने अजेंडा में उन चीजों को शामिल नहीं करती जो मेरे लिए जरूरी हैं तो दूसरे लोग मेरे लिए वह सब तय कर देंगे जो वे जरूरी समझते हैं‘। इस अवस्था में पुरुष केवल अपना स्वार्थ और फायदा ही देखेगा, यह बात सदियों से चली आ रही है और महिलाओं के पिछड़ेपन, दब्बू बने रहने और मर्द के इशारे पर ही कुछ करने या न करने की कुप्रथा दशकों तथा सदियों से चली आ रही है।


एक उदाहरण है : कानपुर जिले के एक गाँव की बहुत ही गरीब बेटी जिसका नाम सोना है, जब वह दस साल की थी तो उसने जिद पकड़ ली कि उसे पढ़ना है और शिक्षक चाहिए। जब यह बात उसने मलिंडा से कही तो उन्हें लगा कि इस बच्ची ने तो उन्हें झकझोर कर रख दिया और यह कि उससे उन्हें सीखने की जरूरत है।


अनेक विरोधों के बावजूद वह अपनी बात पर कायम रही । जहाँ वह रहती थी, वह सरकारी रिकार्ड में गैर कानूनी होने के कारण सभी सरकारी सुविधाओं से वंचित जगह थी। सोना का कहना था कि उसे आगे बढ़ने के लिए मदद करो, चाहे कुछ भी करो। मलिंडा और उनके सहयोगियों के प्रयास से जगह नियमित हुई, स्कूल और सभी सरकारी सुविधाएँ मिलने का रास्ता साफ हुआ, पूरी बस्ती का कायाकल्प हो गया।



इस बदलाव के पीछे की कहानी यह है कि पहले औरतों ने तय किया कि वे संतान को जन्म तब ही देंगी जब वह उसकी जरूरत समझेंगी और तब तक गर्भ निरोधक और अन्य तरीकों के इस्तेमाल से गर्भधारण नहीं करेंगी जब तक संतान के पालन पोषण, शिक्षा और आगे बढ़ने के समुचित साधन उपलब्ध नहीं हो जाएँगे।



हमारे देश की सबसे बड़ी समस्या यह है कि गरीबी, भुखमरी, बीमारी का मूल कारण जनसंख्या को बढ़ने से रोकने के लिए किए जाने वाले उपायों को आधे अधूरे तरीकों से लागू करना है। यह उपाय फेल होने का कारण यही है कि स्त्री को न तो अपनी मर्जी से संतान को जन्म देने का अधिकार है और न ही पुरुष द्वारा गर्भनिरोधक इस्तेमाल करने की अनिवार्यता है। नतीजा यही होता है कि आबादी बढ़ने पर कोई अंकुश नहीं लगता और जितने भी संसाधन तैयार होते हैं, वे लगातार कम पड़ते जाते हैं।



इसे इस उदाहरण से समझा जा सकता है। इन दिनों बिहार और कुछेक अन्य स्थानों से चिकित्सा सुविधाओं के अभाव और साफ सफाई के प्रति उदासीनता के कारण बच्चों को हो रही बीमारी से होने वाली मौतों का आँकड़ा बढ़ता जा रहा है। क्या यह सच्चाई नहीं है कि जिस तरह से आबादी बढ़ी, उसकी तुलना में चिकित्सा सुविधाओं का विस्तार न हो पाना है?



अस्पताल में डॉक्टर और नर्स, शिक्षा संस्थाओं में शिक्षक उस संख्या में तैयार नहीं हो पाते जिस तादाद में आबादी बढ़ रही है। ऐसे में पूरा सिस्टम चरमरायेगा नहीं तो क्या होगा और इसका कारण आबादी पर नियंत्रण न होना नहीं है तो और क्या है? जरा सोचिए ! बिना सोचे समझे संतान उत्पन्न करना एक तरह से पूरे सिस्टम को अव्यवस्थित करने की पहल करने में अपनी आहुति देना है।



महिलाओं को न केवल गर्भवती होने के समय का चुनाव करने की आजादी होनी चाहिए, बल्कि यह भी कि प्रसव से पहले और बाद में मिलने वाली सुविधाओं को हासिल करने का भी अधिकार होना चाहिए।


लेखिका ने इस किताब में भारत में महिलाओं द्वारा स्वयं सहायता समूहों के जरिए एक दूसरे को ताकतवर बनाने का जिक्र करते हुए कहा है कि इनकी सफलता के पीछे यही है कि महिलाएँ यहाँ आकर एक दूसरे से बात करती हैं, अपने सुख दुःख साँझा करती हैं और आत्मनिर्भर बनने के उपायों पर चर्चा ही नहीं करतीं, बल्कि उन पर अमल भी करती हैं। वे जो कमाती हैं, उसे अपने ऊपर खर्च करने की आदत हो रही है और परिवार में अपनी हैसियत और पहचान के साथ पुरुष प्रधान परिवार में अपनी उपस्थिति दर्ज कराने में सफल हो रहीं हैं।



स्त्री का अनादर 


क्या कारण है कि एक पुत्र के रूप में जिस माता का अपनी शिशु अवस्था में वह स्तनपान करता है और किसी तरह के अनादर की भावना उसमें नहीं होती, वही पुत्र बड़ा होकर उसका अपमान करने से भी नहीं चूकता।


लेखिका का मत है कि इसका कारण पुरुषों द्वारा बनाए गए धार्मिक नियम और परम्पराएँ हैं जो उसके बड़ा होने तक उसके अंदर महिलाओं का सम्मान न करने और उन्हें अपने हाथ का खिलौना बनाए रखने की भावना को मजबूत करती रहती हैं। पुरुष और स्त्री या लड़के और लड़की के बीच भेदभाव करने की गलत सोच के बढ़ने का भी यही आधार है। महिलाओं को जीवन भर इस लांछन को ढोना पड़ता है कि उन्हें नजरें नीची रखनी हैं,


पुरुष की कही हर बात उनके लिए पत्थर की लकीर है, अपना शारीरिक और मानसिक शोषण होने पर भी चुप रहना है और घर से बाहर कदम तक नहीं रखना है चाहे अपने बीमार बच्चे को डॉक्टर के पास ही ले जाना हो। यहाँ तक कि यदि घर के मर्द उसकी बेटी को वेश्या बनाने के लिए सौदा कर रहे हों, तब भी उसे चुप रहना है।
लेखिका ने अनेक ऐसी समस्याओं को उजागर करने के साथ साथ उनका समाधान भी देने का प्रयास किया है जो भारत ही नहीं, सभी  विकासशील और गरीबी के चंगुल में फँसे देशों में आम तौर से देखी जा सकती हैं, जैसे कि बाल विवाह, दहेज, यौन उत्पीड़न, बिना वेतन के मजदूरी और महिलाओं को अपने को हीन भावना से ग्रस्त रखे रहने की पुरुष मानसिकता।



महिला सशक्तिकरण के लिए बनाए गए कार्यक्रमों और नीतियों के असफल रहने का सबसे बड़ा कारण यह है कि इन्हें बनाने और अमल में लाने का जिम्मा पुरुष को दे दिया जाता है जो औरत की तरह न तो सोच सकता है और न ही उसमें उनकी भावनाओं को समझने की बुद्धि होती है और जरूरी संवेदनाओं का नितांत अभाव होता है। इसके पीछे यही सोच होती है कि न तो महिलायें इतनी सक्षम होती हैं कि वे नीतियाँ बना सकें और न ही वे उनके लिए जरूरी साधन जुटा सकती हैं।



लेखिका ने अपनी पुस्तक में न केवल इस बात को पूरी तरह  सिद्ध किया है कि महिलाओं में निर्णय लेने और सफलतापूर्वक किसी भी काम को पूरा करना करने की अपूर्व क्षमता होती है बल्कि यह भी कि वे किसी भी परिस्थिति में पुरुषों से अधिक बेहतर नेतृत्व दे सकती हैं। इसका उदाहरण स्वयं उन्होंने अपने और अपने पति के बीच बराबरी के व्यावसायिक सम्बन्धों और पारिवारिक निर्णयों का उल्लेख कर दिया है।



यह पुस्तक पुरुष और स्त्री के व्यवहार को लेकर अनेक तथ्यों को उजागर करने का काम करती है और इसे पढ़ने में पाठक की रुचि बराबर बनाए रखने में सक्षम है, विशेषकर भारत के सम्बंध में वर्णित अनेक घटनाओं को सच्चाई के साथ पेश करने में। यह पुस्तक स्वागत योग्य और इतनी लयपूर्ण है कि शुरू से अंत तक कहीं बोरियत नहीं होती।


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