तनाव की पीड़ा
अक्सर हर किसी को इस दुविधा का सामना करना पड़ता है कि वह स्थापित या परिवार और घर के मुखिया द्वारा बनाई परम्पराओं और रीति रिवाजों का पालन करे या नहीं, उन्हें छोड़ दे या उनसे चिपका रहे या फिर वो करे जो उसकी अपनी परिस्थितियाँ कहती हैं या उसका मन करता है जिसमें उसे परिवार से लेकर समाज तक के विरोध का सामना करना पड़ सकता है।
इस तरह वह एक ऐसे तनाव में जीने लगता है जिसमें अपने को असहाय समझने का दर्द तो होता ही है साथ ही डर का ऐसा तानाबाना अपने चारों ओर बुन लेता है जिसमें छटपटाहट, बेचौनी, बेबसी इतनी बढ़ जाती है कि डिप्रेशन में जीने लगता है और अपनी मानसिक शांति से लेकर सेहत तक का बँटाधार कर लेता है। मजे की बात यह कि इस अवस्था के लिए वह जिम्मेदार नहीं होता, बस एक प्रकार से ऐसे जुर्म की सजा भुगतने लगता है जो उसने किया ही नहीं होता।
एक उदाहरण से बात समझी जा सकती है। हमारे समाज में विभिन्न कानून होने के बावजूद एक बहुत बड़ी आबादी के बीच, विशेषकर ग्रामीण क्षेत्रों में यह परम्परा रही है और आज भी डंके की चोट पर चल रही है कि लड़का और लड़की के पाँच या आसपास की उम्र का हो जाने पर उनकी शादी तय कर दी जाए, तेरह से अठारह साल तक के होने पर उनकी शादी कर दी जाए, लेनदेन अर्थात दहेज की रस्म निबाह दी जाए और लड़की पर घर की सारी जिम्मेदारी और लड़के पर कुछ भी कैसे भी और कहीं से भी कमा कर लाने का हुक्म सुना दिया जाए और ऐसा न हो तो उनका चूल्हा चौका अलग करने की धमकी दे दी जाए।
यह कहा जा सकता है कि बाल विवाह, दहेज प्रथा रोकने के लिए कानून है जिसके जवाब में यह सुनने को मिले कि यह तो हमारे यहाँ की परम्परा है, घूँघट करना हमारा रिवाज है और लड़का हो या लड़की हमारी इजाजत के बिना न कोई फैसला ले सकते हैं और न ही हमारा हुक्म टाल सकते हैं, चाहे कानून कुछ भी कहे।
अब मुस्लिम समाज में तलाक को लेकर बने कानून की मुखालफत और मुस्लिम महिलाओं को खेलकूद, अभिनय जैसे करीयर अपनाने में रुकावट डालने से लेकर उनकी व्यक्तिगत जिंदगी के अहम फैसलों को भी परम्परा के नाम पर पुरुषों द्वारा तय करना यही बताता है कि कानून कुछ भी हो, वही होगा जो ये तय करेंगे और अगर किसी ने चीं चुपड़ की तो उसका हुक्का पानी बंद।
आज के तकनीक और टेक्नॉलजी पर आधारित तथा इंटर्नेट द्वारा संचालित युग में इस तरह की बातों का न तो कोई महत्व है और न ही परम्पराओं और रीति रिवाजों का दकियानूसी की हद पार करने के बाद उनका कुरीतियां बन जाने पर भी उन्हें ढोते रहने का क्या कोई मतलब रह जाता है?
अब होता यह है कि जो युवा इनके चंगुल में फँस जाते हैं और न तो उनमेंं इतना साहस होता है कि विरोध कर सकें और न ही इतने समर्थ होते हैं कि अपने पैरों पर खड़े हो सकें तो उनके सामने डिप्रेशन या तनाव को अपने ऊपर हावी होने देने के अलावा कोई चारा नहीं होता। जरूरी नहीं है यह हकीकत कम पढ़े लिखे, ग्रामीण समाज और समाज के वंचित तबके की ही हो। उनकी हालत तो दयनीय होती ही है पर यह उन समूहों में भी कम नहीं है जो अपने को शिक्षित, प्रोफेशनल और आधुनिक होने का दम भरते हैं।
इसका दुष्परिणाम यह होता है कि एक पूरी पीढ़ी गली सड़ी परम्पराओं और निरर्थक रीति रिवाजों के फेरे में पड़ी रहकर घुटन भरी जिंदगी जीने, नशे जैसी घातक आदतों से जकड़े जाने, क्रोध, हिंसा का शिकार बनने और आत्महत्या करने का रास्ता अपनाने के लिए मजबूर हो जाती है।
बापू गांधी की कोशिश
हालाँकि हमारे देश में अनेक समाज सुधारकों ने इस हालत को बदलने के लिए आंदोलन और क्रांतिकारी कदम उठाए हैं और उनके प्रयासों से कुछ हद तक लगाम भी लगी है लेकिन सबसे अधिक दूरंदेंशी की बात न केवल करने बल्कि अपने व्यक्तिगत आचरण और व्यावहारिक उपायों से इन बुराइयों का निराकरण करने के सरल और सफल कदम उठाने की नींव बापू गांधी ने डाली। दुःख की बात यह रही कि हमारी सरकारों ने समय समय पर उनका नाम तो लिया लेकिन अमल या तो किया ही नहीं या फिर आधे अधूरे मन से काम चलाओ की नीति अपनाई। अगर ऐसा न होता तो आज भी सिर पर मैला ढोने, सीवर की गंदगी साफ करने, छुआछूत बरतने, झूठे आडंबर करने से लेकर बाल विवाह, भू्रण हत्या, धर्म और जाति के आधार पर सुविधाओं का बँटवारा करने की मानसिकता कभी की समाप्त हो चुकी होती और इस विचार को बल मिलता कि एक सभ्य समाज में इनका कोई अस्तित्व नहीं होना चाहिए।
बापू के अनुसार जब तक पर्याप्त जागरूकता और सुविधाओं का रूढ़ियों में जकड़े समाज तक पहुँचना सुनिश्चित नहीं होगा तब तक न कोई नियम न कोई कानून प्रभावी हो सकता है। यह कोई मुश्किल काम नहीं है, मिसाल के तौर पर यदि हमने शिक्षा को उन तक पहुँचाना है तो पहले वहाँ शिक्षा के साधन पहुँचाने होंगे। मान लीजिए कोई परिवार लड़के या लड़की को इसलिए स्कूल नहीं भेजता क्योंकि वह मजदूरी कर घर के खर्च चलाता है तो उतनी रकम उसके परिवार को सरकार की तरफ से मिलनी चाहिए जिससे परिवार की आमदनी की भरपाई हो सके और बच्चा मन लगाकर अपनी पढ़ाई कर सके।
बच्चों का स्कूल से गैरहाजिर रहना या मिड डे मील के वक्त ही स्कूल जाना और स्कूल में अध्यापकों का न होना इस बात का प्रमाण है कि इमारत तो बन गयी लेकिन उसमे ंपढ़ने और पढ़ाने वाले पहुँचे इसकी तरफ न सोचा और न कुछ किया।
शिक्षा ही ऐसा माध्यम है जो इस बात की समझ दे सकता है कि कौन सी परम्पराएँ और रीति रिवाज जिन्हें मानना चाहिए और किन्हें बदलना चाहिए या पूरी तरह खारिज कर देना चाहिए। बाल मजदूरी, बाल विवाह, दहेज जैसी कुप्रथाएं से निपटने का एक ही उपाय है कि सम्बंधित वर्ग का आर्थिक सशक्तिकरण किया जाए। यह तब ही हो सकता है जब इनके सामने शिक्षा प्राप्त करने के सभी दरवाजे खुले हों।
असल में दिक्कत यह है इन वर्गों के कल्याण का दावा करने वाली ज्यादातर राजनीतिक पार्टियाँ इन्हें अनपढ़ बनाए रखने, अपना वोट बैंक समझने और अपना पिछलग्गू बनाए रखने का ही काम करती रहीं हैं। लेकिन अब हालत बदल रही है जो एक अच्छा लक्षण है।
इसमें कोई दो राय नहीं हैं कि समाज की मुख्यधारा में इस विशाल आबादी जिसे गरीब कहा जाता है को अगर शामिल करना है तो ऐसे साधन उन तक सुलभ कराने होंगे जिनकी मदद से पिछड़ेपन के लिए जिम्मेदार पुरानी और निर्जीव हो चुकी परम्पराओं तथा रीति रिवाजों का होलिका दहन हो सके ताकि वे समझें कि इस देश की सम्पदा पर उनका भी हक है।
शिक्षा के बाद है स्वास्थ्य सम्बंधी पुरानी परम्पराओं से मुक्ति जैसे कि यह तय पंडित और मौलवी तय करें कि नवजात शिशु को माँ का दूध कब पीना है, बीमारी की अवस्था में झाडफूँक, ताबीज हो, डॉक्टर का इलाज, घर के मर्द ताड़ी पीकर खेत में पड़े रहें और माँ बीमार बच्चे को अस्पताल भी न ले जा सके क्योंकि परम्परा नहीं कहती कि औरत घर से बाहर जाए, इसी तरह की दूसरी बेड़ियाँ हैं जो केवल तब ही टूट सकती हैं जब सरकार अपनी सेवाओं को देने के लिए बनी इमारतों से बाहर निकलकर उस घर तक पहुँचे जहाँ इनकी जरूरत है।
स्कूल, प्राथमिक चिकित्सा केंद्र, अस्पताल तक पहुँचने का इंतजाम किए बिना केवल खातों में पैसा डालने से अपेक्षित बदलाव फिलहाल तो असम्भव है, ठीक उसी तरह जैसे कि परम्परा और रीति रिवाज का बदलाव तब तक नहीं हो सकता जब तक उसका विकल्प न हो। वर्तमान सरकार के सामने अपनी योग्यता सिद्ध करने का यही मापदंड है।
(भारत)
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें