शुक्रवार, 16 अगस्त 2019

सीमित परिवार महिलाओं की पहल से ही सम्भव






जरा याद कीजिए कि इंदिरा गांधी के पुत्र संजय गांधी की सबसे बड़ी असफलता क्या थी? यह थी उनकी अधकचरी सोच, मर्द होने का अहंकार, प्रधान मंत्री माँ की ताकत को अपने मंसूबे पूरे करने का हथियार बना लेना और जिस विषय की बुनियादी समझ तक नहीं थी, मतलब फैमिली प्लानिंग को बंदूक के बल पर लागू करने की अमानवीय कोशिश जिसका नतीजा इतना दर्दनाक निकला कि उसके बाद किसी भी दल और उनके नेताओं की इस मुद्दे पर बात तक करने की हिम्मत नहीं हुई।


यह बात हर किसी की जुबान पर होती है चाहे दबे स्वर में ही हो कि हमारे विकास की गति धीमी इसलिए है क्योकिं संसाधन तैयार होने की तादाद कभी भी उस संख्या से मेल नहीं खा पाती जो बेरोकटोक आबादी बढ़ने से बन जाती है और हमारे प्रयासों को नाकामयाब बना देती है।

इस बार प्रधान मंत्री नरेन्द्र मोदी ने स्वतंत्रता दिवस पर लाल किले से अपने भाषण में इस मुद्दे को उठाते हुए देशवासियों का आह्वान किया कि परिवार को सीमित रखना भी देशभक्ति है तो लगा कि उनके मन में इस बारे में कोई न कोई योजना अवश्य चल रही होगी और वे अन्य मामलों की तरह इसे भी सुलझाने के लिए कृतसंकल्प हैं। यह भी सोचा होगा कि इस मद में करोड़ों रुपया लगाने के बावजूद सफलता क्यों नहीं मिली ? उनके भाषण से लगा कि वे सीमित परिवार रखने वालों को सम्मानित कर सकते हैं।


 तो समझ लीजिए कि इनकी संख्या देशभर में मुशकिल से दस प्रतिशत होगी इसलिए ये कभी भी शेष परिवारों के लिए रोल मॉडल नहीं हो सकते। सीमित परिवार रखने का संबंध हमारी जातिगत विभिन्नताओं, सामाजिक और धार्मिक मान्यताओं तथा व्यक्तिगत आकांक्षाओं से जुड़ा है इसलिए अत्याधिक संवेदनशील भी हैं। इसलिए कोई बड़ा कानून बनाने या प्रतिबंध लगाने से पहले दो बार सोच लीजिएगा क्योंकि इस मामले में दांव उल्टा पड़ सकता है।



महिलाओं की निर्णायक भूमिका


एक घटना है जिसका जिक्र मलिंडा गेट्स ने अपनी किताब में किया है जो इस विषय को समझने की समझ पैदा करने का उदाहरण है। भारत में अपनी फाउंडेशन के कार्यक्रमों का ज़ायजा लेने के दौरान वे गर्भवती महिलाओं और उनके परिवारों से मिलीं। एक बुजुर्ग महिला ने कहा कि उसने आठ बच्चों को घर पर ही जन्म दिया जिनमें से छः जन्म लेने के बाद एक सप्ताह में ही मर गए। अब उसकी बहू गर्भवती है और वह चाहती है कि बहू को प्रसव के समय हर प्रकार की सुविधा मिले और नहीं चाहती कि वह दोबारा गर्भवती हो और उसका जीवन भी मेरी तरह यानी अपनी सास के जैसा हो।

एक अन्य महिला मीना जिसने दो सप्ताह पहले एक लड़के को जन्म दिया था उससे जब यह पूछा गया कि क्या वह फिर से माँ बनेगी तो उसका जवाब था ‘कभी नहीं‘ और साथ में यह भी जोड़ा कि वह (मलिंडा) इस नवजात शिशु को अपने साथ ले जाएँ और साथ में उसके दो साल के लड़के को भी। इसकी वजह यह बताई कि वह नहीं जानती कि वह इनका पालन पोषण कैसे करेगी? उसका पति मजदूर है और वह भी, फिर भी इतना नहीं कमा पाते कि ठीक से पेट भर सकें तो फिर बच्चों की परवरिश कैसे कर पाएँगे?

एक अन्य महिला जो अनेक बार माँ बन चुकी थी और फिर से एक बच्चे को जन्म देने वाली थी वह यह सोच रही थी कि वह इतनी मजबूर क्यों है कि वह यह नहीं कह पाती कि अब वह माँ नहीं बनना चाहती?

क्या कोई मर्द उन औरतों के दर्द को समझ सकता है जो अपने बच्चों को किसी और को देने के लिए तैयार हों, दूसरा बच्चा पैदा न करना चाहें और बच्चे का लालन पालन करने और उसके भविष्य के बारे में कोई भी फैसला लेने का अधिकार केवल उनके पति, ससुर या किसी अन्य पुरुष के हाथ में हो और सिर झुकाकर हर निर्णय मान लेने की बेबसी हो !

संसार की हर महिला चाहती है कि उसकी संतान स्वस्थ और सुखी हो, खूब पढ़े लिखे, अपने को योग्य बनाए, उनके अपने परिवार हों और वे अपने जीवन को खुशियों से भरते रहें और इसके साथ साथ वे स्वयं भी शारीरिक और मानसिक रूप से स्वस्थ हों और अपने को सुरक्षित इस रूप में समझें कि उन्हें यह निर्णय करने का अधिकार हो कि उन्हें कब माँ बनना है। बिना सोचे समझे गर्भवती हो जाना महिलाओं के लिए घातक, असम्मानजनक, निराश और अंधकारपूर्ण भविष्य का कारण है और विडम्बना यह कि इसके लिए उनके पति जिम्मेदार होते हैं और वह इसके लिए पत्नी को ही दोषी मानते हैं।

सीमित परिवार और संयम


राष्ट्रपिता बापू गांधी ने इस विषय पर बहुत कुछ लिखा है जिसका निष्कर्ष यही है कि संयम के बिना आबादी को बढ़ने से रोकना असम्भव है। इसका अर्थ यही है कि सहवास के समय स्त्री को यह भरोसा हो कि उसे अनचाहा गर्भ धारण नहीं करना होगा। पति को अपनी सोच बदलनी होगी कि वह जब चाहे यह क्रिया कर सकता है । बापू के समय में ही हालाँकि गर्भनिरोधक उपाय प्रचलन में आ गए थे लेकिन उन्होंने इनके बजाय प्राकृतिक रूप से परिवार को सीमित रखने का तरीका ‘संयम अपनाने‘ पर ही जोर दिया था। सुरक्षित दिनों में ही पति पत्नी सहवास करें और तब तक संतान की कामना न करें जब तक वे आर्थिक रूप से उसके पालन पोषण की जिम्मेदारी उठाने के लिए पूरी तरह से तैयार न हो जाएँ।

जहाँ तक सरकार और समाज की बात है तो इसके लिए सबसे पहले जरूरी यह है कि प्रत्येक गर्भवती महिला के सुरक्षित प्रसव की व्यवस्था हो और इसके लिए पर्याप्त स्वास्थ्य केंद्र, अस्पताल, नर्सिंग होम और आधुनिक चिकित्सा विज्ञान की सुविधाएँ उपलब्ध हों। ऐसा होने पर ही लोग सीमित परिवार की कल्पना कर पाएँगे और इसके सुखद परिणामों को समझ पाएँगे। उनकी समझ में आने लगेगा कि अधिक आबादी ही अकाल, भूख, गरीबी और परिवारों के बिखरने का मूल कारण है। बापू गांधी द्वारा सीमित परिवार के लिए संयम अपनाने की सीख भी इसी समझ से निकलेगी और देश बढ़ती आबादी की समस्या से निपटने में सक्षम हो पाएगा।

संयम और गर्भ निरोधक


जब तक संयम रखने के लिए मानसिक रूप से प्रत्येक व्यक्ति तैयार न हो जाए तब तक गर्भ निरोधकों का व्यापक इस्तेमाल और उनकी पूर्ति के लिए जरूरी वितरण व्यवस्था हो, अभी तो अगर कोई महिला किसी दुकान से कंडोम खरीदना चाहती है तो आसपास के दूसरे ग्राहक और दुकानदार तक भी संकोच दिखाते हैं। इस मानसिकता को बदलने की जरूरत है कि यह केवल पुरुष की ही जिम्मेदारी है कि वह गर्भ निरोधक का प्रयोग करे। सरकार द्वारा घर घर निरोध मुहैया कराने की मुहिम इसलिए कारगर नहीं हुई क्योंकि इसको बांटने और इस्तेमाल करने की जिम्मेदारी पुरुष को दे दी गयी।


 महिला के लिए इसे जरूरी नहीं समझा गया कि वह इसका महत्व समझ कर स्वयं इसका इस्तेमाल करने की पहल करे।

यह समझना भी जरूरी है कि सीमित परिवार की कल्पना को साकार करने में धर्म और धार्मिक संगठनों का बहुत बड़ा योगदान है। अक्सर यह कहकर मुँह मोड़ लिया जाता है कि बच्चे तो भगवान की देन हैं या अल्लाह की मर्जी है या ईसा मसीह का वरदान है।इसे धर्म के हवाले से कह दिया जाता है कि संतान केवल पेट ही नहीं बल्कि काम करने के लिए हाथ पैर और दिमाग लेकर भी पैदा होती है इसलिए परिवार की सीमा बाँधने की क्या जरूरत है ?

धर्म चाहे कोई भी हो वो जीवन की एक शैली है, जीने का तरीका है, सुखी और सम्पन्न बनने का विधान है, उसमें परिवार नियोजित करने को धर्म के विरुद्ध आचरण कहीं नहीं आता। सच तो यह है कि सीमित परिवार होने पर ही धर्म और धार्मिक नियमों का पालन सुगमता से हो सकता है। इसके लिए धार्मिक प्रवचनों में धर्म के उपदेशकों को सीमित परिवार के महत्व पर बल देना होगा।

क्या होना चाहिए ?


सब से पहले तो सरकार को सीमित परिवार की योजना बनाने का काम केवल महिलाओं की भागीदारी से पूरा करने की व्यवस्था करनी होगी और इसे स्त्रियों के अधिकार क्षेत्र में लाना होगा कि वे तय करें कि कैसे इस अभियान को सफल बनाया जा सकता है। अब तक जनसंख्या नियंत्रण के लिए पुरुष ही ज्यादातर योजनाएँ बनाते आए हैं जबकि सुखी परिवार की कल्पना को साकार करने की जिम्मेदारी महिलाओं की है। तो फिर इसके लिए पुरुष ही क्यों योजना बनायें ?

प्रधान मंत्री जी एक सीमित परिवार मंत्रालय का गठन कर दीजिए जिसमें मंत्री से लेकर संतरी तक महिलाएँ हों और फिर देखिए कि जनसंख्या पर कितनी सफलता से नियंत्रण होता है। वरना डर यही है कि इतिहास अपने को फिर से न दोहरा ले, आबादी बढ़ने से रूकना तो दूर उसकी गति और अधिक तेज  हो जाए।

(भारत)

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