शुक्रवार, 6 दिसंबर 2019

गलत परवरिश, और पारिवारिक रिश्तों में कडुवाहट का असर











अक्सर जब इस तरह की बात सुनने, पढ़ने और देखने को मिलती है कि भाई भाई, भाई बहन एक दूसरे के खिलाफ खड़े हैं, उनमें मुकदमेबाजी हो रही है, एक दूसरे की शक्ल देखना तक गवारा नहीं, यहाँ तक कि मरने मारने पर आमादा हैं तो यही मुँह से निकलता है कि ‘क्या हो गया है आज की पीढ़ी को‘ या ‘माँ बाप ने ठीक से परवरिश न की होगी‘ या फिर सारा दोष कलयुग के सिर मढ़ दिया जाता है कि ‘बस यही और देखना बाकी था‘।



इसी तरह पति पत्नी के बीच और माता पिता का पुत्र या पुत्री के साथ जो प्रेम और भावनाओं का रिश्ता होता है, उसमें अगर कहीं गिरावट देखने को मिलती है तो उसका प्रभाव इनके व्यक्तिगत जीवन पर तो पड़ता ही है, साथ में इनके आसपास रहने वालों, रिश्तेदारों से लेकर उनके काम धंधे, रोजगार, व्यापार और आजीविका के साधनों पर भी पड़ता है।


अगर अपनी पौराणिक परंपराओं को देखें जैसे कि राम और उनके भाइयों के बीच कभी झगड़े या विवाद की कोई कथा देखने को नहीं मिलती। राम के वनवास की अवधि में भरत उनकी पादुका को सिंहासन पर रखकर राजकाज चलाते हैं और उनके लौटने पर उन्हें अयोध्या का राज्य सौंप देते हैं। यहाँ तक कि रावण का साथ उसके भाइयों और पुत्र ने यह जानते हुए भी कि रावण गलत है, नहीं छोड़ा और जिस भाई विभीषण ने विरोध किया उसके लिए ‘घर का भेदी लंका ढाए‘ जैसे अपमानजनक मुहावरे बन गए। इसी तरह पांडव भाइयों के बीच हमेशा आदर सम्मान बना रहा। कौरव भाइयों के बीच भी कभी मनमुटाव नहीं देखने को मिला और उन्होंने युद्ध में हमेशा एकता बनाए रखी।


संस्कार और परवरिश 


अब अपनी संतान के पालन पोषण में अलग अलग परिवेश और अपने अपने पारिवारिक संस्कारों तथा परवरिश की गठरी लेकर आए पति पत्नी जब माँ बाप बनते हैं तो उनकी क्या भूमिका होती है, यह आज के दौर में इस बात पर अधिक निर्भर करता है कि उनमें से किसकी बात का असर ज्यादा होता है। मिसाल के तौर पर जब उद्योगपति मुकेश अम्बानी को अपने भाई अनिल की आर्थिक स्थिति खराब होने और जेल तक जाने की नौबत आने का पता चलता है तो कहते हैं कि उनकी माँ ने ही बड़े बेटे को आदेश दिया था कि वह छोटे बेटे की इस मुसीबत के समय में मदद करे। हो सकता है अगर उनके पिता जीवित होते तो वे भी ऐसा ही करने को कहते।


असल में देखा जाए तो संतान को उनके बचपन से लेकर युवा होने और फिर जिंदगी की गाड़ी अपने बलबूते पर चलाने की जो ट्रेनिंग मिलती है उसकी नींव कितनी मजबूत है यह इस बात पर निर्भर करता है कि माता पिता स्वयं कितना इस बात को समझते हैं कि परवरिश के दौरान यह उनकी जिम्मेदारी बनती है कि संतान सही रास्ते पर चले और कोई ऐसा काम न करे जिससे उन पर  किसी को ऊँगली उठाने या आरोप लगाने की जरूरत पड़े।


यह बात इसलिए बहुत महत्वपूर्ण हो जाती है जब वयस्क होने से पहले या बाद में कोई लड़का या लड़की किसी अपराध में शामिल पाया जाता है और लोग यह कहते हैं कि इसके पालने पोसने में ही खराबी रही होगी जो यह अपराधी बन गया। नाबालिग होते हुए भी चोरी, डकैती, लूटपाट, मारपीट, हत्या, बलात्कार जैसे जघन्य अपराध करने की प्रवृत्ति क्या यह नहीं कहती कि इसके लिए उनके माता पिता जिम्मेदार हैं और उन पर भी अदालती कार्यवाही होनी चाहिए और सजा मिलनी चाहिए क्योंकि संतान को अपराधी बनाने में उनकी परवरिश का बहुत बड़ा योगदान है।


जब संतान कोई अच्छा काम करने के कारण या कोई पदक पाने और नया कीर्तिमान स्थापित करने के लिए अपने माँ बाप और उनकी परवरिश को श्रेय देती है और वे भी उसकी उपलब्धि पर फूले नहीं समाते और उनके लिए यह अपने व्यक्तिगत सम्मान की बात होती है तो फिर उसके अपराध करने पर आपराधिक मानसिकता बनाने के लिए उन्हें जिम्मेदार क्यों नहीं ठहराया जा सकता और उन पर भी कानूनी कार्यवाही क्यों नहीं की जानी चाहिए, यह सोचने का विषय है जिस पर समाज से लेकर सरकार तक को विचार करना चाहिए।



ईर्ष्या, भेदभाव और व्यवहार 


यह एक मनोवैज्ञानिक विषय हो सकता है कि भाइयों और भाई बहनों के बीच बचपन से ही एक दूसरे के प्रति जलन क्यों पैदा होती है, वे एक दूसरे के साथ सामान्य या बाल सुलभ व्यवहार करते करते इतने उत्तेजित और उग्र क्यों हो जाते हैं कि एक दूसरे की हत्या तक करने की बात सोचने लगते हैं, परंतु इतना तो निश्चित है और यह वास्तविकता भी है कि उनके ऐसा बन जाने में माता पिता की भूमिका सबसे अधिक है।


असल में समस्या की जड़ यह नहीं है कि माँ बाप के अनपढ़ होने या पढ़े लिखे होने से संतान की परवरिश पर असर पड़ता है बल्कि यह है कि ज्यादातर माता पिता और उनकी संतान के बीच कोई बातचीत या संवाद ही नहीं होता और अगर होता भी है तो वह धौंस जमाने या डाँट डपटकर चुप कराने से अधिक नहीं होता।


इसी तरह जब एक भाई के दिल में दूसरे भाई से नफरत पलने लगती है या बहन से भाई को जलन होने लगती है तो यह माता पिता द्वारा उनकी परवरिश के दौरान खाने पीने से लेकर शिक्षा तक में भेदभाव और अनावश्यक रोकटोक लगाने या किसी एक को कुछ भी करने की छूट देने और दूसरे पर सभी तरह की बंदिशें लगाने के परिणाम के रूप में उनके सामने आता है। वे भाग्य से लेकर कलयुग तक को दोषी ठहराने लगते हैं जबकि उन्हें अपने ही गिरेबांन में झाँक कर देखना चाहिए कि वे ही संतान के उदंड होने, आज्ञा न मानने और अपनी मनमानी करने देने के लिए उत्तरदायी हैं।


रिश्तों की दीवार 


पारिवारिक रिश्तों की दीवार जब कमजोर होकर गिरने लगती है तो उसकी चपेट में समाज का आ जाना निश्चित है। दुर्भाग्य से किसी शिक्षा संस्थान में ऐसा कोई पाठ्यक्रम नहीं है जो बच्चों को वह सिखा सके जो उन्हें माँ बाप से परवरिश के समय सीखने को मिलना चाहिए। हकीकत यह भी है कि जुर्म करने की मानसिकता और उसकी ट्रेनिंग की शुरुआत बचपन से होने लगती है। यह विशेषकर तब होता है जब परिवार में असंतुलन होता है भय का वातावरण रहता है या सीमा से अधिक कुछ भी करने की छूट होती है। 


अनेक देशों में संतान की परवरिश में कमी के लिए माँ बाप को जिम्मेदार माना जाता है और उनसे पालन पोषण के अधिकार भी छीने जा सकते हैं लेकिन हमारे यहाँ सीधे नाबालिग या बालिग व्यक्ति को सजा सुना दी जाती है जबकि सजा उन्हें भी मिलनी चाहिए जो उनके अंदर आपराधिक मानसिकता का बीज बोने के लिए जिम्मेदार हैं।


यह बात और बेहतर ढंग से इस तरह भी समझी जा सकती है कि जब कोई अपने माता पिता के वृद्ध होने पर उनका तिरस्कार करता है, अकेलेपन का शिकार होने के लिए छोड़ देता है तो किसी हद तक मां बाप स्वंय भी इसके लिए जिम्मेदार होते हैं। यहां यह कहावत कि ‘जैसा बोओगे, वैसा काटोगे‘ सटीक बैठती है।




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